Panchanana Shiv (पंचानन शिव)

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Panchanana Shiv 
पंचानन या पंचवक्त्र

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः)/अध्यायः ०८१
धर्मेशात्पश्चिमाशायां धरणीशः प्रकीर्तितः ॥ तद्दर्शनेन धैर्यं स्याद्राज्ये राजकुलादिषु ॥४४॥
धर्मेशाद्दक्षिणे पूज्यं तत्त्वेशाख्यं परं नरैः ॥ तत्त्वज्ञानं प्रवर्तेत तल्लिंगस्य समर्चनात् ॥४५॥
धर्मेशात्पूर्वदिग्भागे वैराग्येशं समर्चयेत् ॥ निवृत्तिश्चेतसस्तस्य लिंगस्य स्पर्शनादपि ॥४६॥
ज्ञानेश्वरं तथैशान्यां ज्ञानदं सर्वदेहिनाम् ॥ ऐश्वर्येशमुदीच्यां च लिंगाद्धर्मेश्वराच्छुभात् ॥४७॥
तद्दर्शनाद्भवेन्नृणामैश्वर्यं मनसेप्सितम् ॥ पंचवक्त्रस्य रूपाणि लिंगान्येतानि कुंभज ॥४८॥
एतान्यवश्यं संसेव्य नरः प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ अन्यत्तत्रैव यद्वृत्तं तदाख्यामि मुने शृणु ॥४९॥
धर्मेश के पश्चिम में धरणीश है। उनकी बहुत महिमा है। उनके दर्शन करने से राज्य, राजघराने आदि में साहस होगा। धर्मेश के दक्षिण में, तत्त्वेश नाम के महान (लिंग) की पूजा पुरुषों द्वारा की जानी चाहिए। उस लिंग की पूजा करने से सत्य का ज्ञान निर्बाध रूप से प्राप्त होता है। भक्त को धर्मेश के पूर्वी भाग में वैराग्येश की पूजा करनी चाहिए। उस लिंग को छूने से, मन (सांसारिक झुकाव से) विमुख हो जाएगा। उत्तर-पूर्व में ज्ञानेश्वर लिंग सभी सन्निहित प्राणियों पर ज्ञान का प्रदाता है। भव्य धर्मेश्वर लिंग के उत्तर में ऐश्वरियेश हैं। इसके दर्शन करने से मनुष्य मानसिक रूप से वांछित ऐश्वर्य (जैसा) प्राप्त करेगा। ये लिंग, हे पात्र में जन्मे (अगस्त), पंचवक्त्र (पंचमुखी भगवान शिव) (धरणीश, तत्वेश, वैराग्येश, ज्ञानेश्वर और ऐश्वर्येश) के रूप हैं। मनुष्य को अवश्य ही इनका (लिंगों का) आश्रय लेना चाहिए। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। एक और घटना जो वहीं घटी थी, मैं बताता हूँ। हे ऋषि, सुनो।
  1. Sadyojata - धरणीश्वर - Creation. West. Earth. Pṛithvī.
  2. Vamadeva - ऐश्वर्येश्वर - Preservation. North. Water. Jala.
  3. Aghora - तत्तवेश्वर  - Dissolution/Rejuvenation. South. Fire. Agni
  4. Tatpurusha - वैराग्येश्वर - Concealing Grace. East. Vāyu. Air
  5. Isana - ज्ञानेश्वर - Revealing Grace. North-east. Ether (akasha)

शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं- सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-मेरे ये पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं।

भगवान शिव के पांच मुख-सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से वे 'पंचानन' या 'पंचवक्त्र' कहलाने लगे। सृष्टि, स्‍थिति, लय, अनुग्रह एवं निग्रह- इन 5 कार्यों की निर्मात्री 5 शक्तियों के संकेत शिव के 5 मुख हैं। पूर्व मुख सृष्टि, दक्षिण मुख स्थिति, पश्चिम मुख प्रलय, उत्तर मुख अनुग्रह (कृपा) एवं ऊर्ध्व मुख निग्रह (ज्ञान) का सूचक है।
भगवान शंकर के पांच मुखों में ऊर्ध्व मुख ईशान दुग्ध जैसे रंग का, पूर्व मुख तत्पुरुष पीत वर्ण का, दक्षिण मुख अघोर नील वर्ण का, पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का और उत्तर मुख वामदेव कृष्ण वर्ण का है। 

शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में है। भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं। उत्तर दिशा का मुख वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला। दक्षिण मुख अघोर अर्थात निन्दित कर्म करने वाला। निन्दित कर्म करने वाला भी शिव की कृपा से निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता हैं। शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष अर्थात अपने आत्मा में स्थित रहना। ऊर्ध्व मुख का नाम ईशान अर्थात जगत का स्वामी।

ॐ सद्यो जातं प्रपद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः। भवे भवेनाति भवेभवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ १॥

      वामदेवाय नमोज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः। कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमः ॥ २॥

      बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ३॥

      अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः शर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ४॥

      तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ५॥

      ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम्। ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॥ ६॥


बुद्धिमान पुरुष के ज्ञान उत्पन्न करनेवाले महादेव के पंचमुखों के मध्य में पश्चिम मुख के प्रतिपादक मन्त्र का अर्थ कहते हैं- मैं तो सद्योजात नामक पश्चिम मुख की शरण को प्राप्त होता हूँ, उस सद्योजात मुख को प्रणाम है । पृथ्वी में जन्म लेने के लिए आप मुझको प्रेरणा मत कीजिये । बल्कि जन्म के लंघनरूपी तत्त्वज्ञान की प्रेरणा कीजिए । संसार से उद्धार करनेवाले सद्योजात के निमित्त प्रणाम है ॥ १॥ 

अब उत्तर मुख प्रतिपादक मन्त्रार्थ कहते हैं - उत्तर मुख वामदेव, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, रुद्ररूप के निमित्त नमस्कार है । काल, कलविकरण और बलविकरण के निमित्त नमस्कार है ॥ २॥ 

बल, बलप्रमथन, सर्वभूतदमन, मनोन्मन के निमित्त नमस्कार है, जो महादेव सब के स्वामी हैं, उन के निमित्त नमस्कार है ॥ ३॥

अब दक्षिण वक्त्र के प्रतिपादक मन्त्र का अर्थ कहते हैं - अघोर नामक दक्षिण वक्त्ररूप जो देव हैं, उनके विग्रह अघोर हैं । सात्त्विक होने से पहला विग्रह शान्त है, दूसरा विग्रह घोर अर्थात् राजस होने से उग्र है, तीसरा विग्रह तामस होने से घोरतर है, हे शर्व !  हे परमेश्वर!! आपके यह तीन प्रकार के विग्रह और सब रुद्ररूपों को सब देश काल में नमस्कार है ॥ ४॥ 

उत्तर मुखवाला तत्पुरुष नामक देव है, उस तत्पुरुष नाम देव को गुरु तथा शास्त्र मुख से जानते हैं और जानकर उन महादेव का ध्यान करते हैं, वह रुद्रदेव हमको ज्ञान-ध्यान के अर्थ में प्रेरणा करें ॥ ५॥

ईशान नामक जो ऊर्ध्वमुख देव हैं, वे वेदशास्त्रादि चौंसठ कला और विद्याओं के नियामक हैं तथा सब प्राणियों के ईश्वर हैं। वेद के पालक हिरण्यगर्भ के अधिपति ब्रह्म परमात्मा हमारे ऊपर अनुग्रह करने के निमित्त शान्त और सदा शिवरूप हों ॥ ६॥


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