Vishwakarmeshwar
विश्वकर्मेश्वर
यह अध्याय स्कन्दपुराण के काशीखंड में विश्वकर्मेश्वर लिंग के प्रादुर्भाव की कथा प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि विश्वकर्मा, जो ब्रह्मा की अपरा (अन्य) तनु थे और दक्ष प्रजापति के पुत्र थे, किस प्रकार गुरुसेवा के दौरान असमंजस में पड़ गए जब गुरु, गुरुपत्नी, गुरुपुत्र, और गुरुकन्या ने उनसे विभिन्न असाधारण वस्तुओं के निर्माण का अनुरोध किया। विश्वकर्मा जब इस कठिन परिस्थिति में थे, तब वे चिंतित होकर वन में चले गए, जहाँ उन्हें एक तपस्वी मिले। तपस्वी ने उन्हें समझाया कि यदि वे काशी में विश्वेश्वर (भगवान शिव) की उपासना करेंगे, तो वे इन सभी कार्यों को सिद्ध करने की शक्ति प्राप्त कर लेंगे। तपस्वी के मार्गदर्शन में वे काशी पहुंचे और वहां तपस्या करने लगे। तीन वर्षों तक शिवलिंग की पूजा करने के बाद, भगवान शिव प्रकट हुए और प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया। शिव ने उन्हें सभी प्रकार के शिल्प, वास्तुकला, आभूषण, यंत्र, और अन्य कलाओं में निपुण बना दिया। साथ ही, उन्हें विश्वकर्मा नाम प्रदान किया, जिससे वे त्रिलोक के श्रेष्ठ कारीगर बन गए।
यह कथा गुरुसेवा, भक्ति, और काशी के महत्त्व को दर्शाती है, जहाँ शिव की कृपा से असंभव भी संभव हो जाता है।
काशीखण्डः अध्यायः ८६ (सम्पूर्ण)
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।। पार्वत्युवाच ।। ।।
विश्वकर्मेश्वरं लिंगं यत्काश्यां प्रथितं परम् ।। तस्य लिंगस्य कथय देवदेव समुद्भवम् ।। १ ।।
पार्वती जी ने पूछा: हे देवाधिदेव! काशी में स्थित "विश्वकर्मेश्वर" नामक महान लिंग, जो प्रसिद्ध है, वह कैसे प्रकट हुआ? कृपया इसकी दिव्य कथा मुझे सुनाइए।
।। देवदेव उवाच ।। ।।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कथां पातकनाशिनीम् ।। विश्वकर्मेश लिंगस्य प्रादुर्भावं मनोहरम्।।२।।
विश्वकर्माभवत्पूर्वं ब्रह्मणस्त्वपरा तनुः ।। त्वष्टुः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्वकर्मसु ।।३।।
कृतोपनयनः सोथ बालो गुरुकुले वसन् ।। चकार गुरुशुश्रूषां भिक्षान्नकृतभोजनः।।४ ।।
एकदा तद्गुरुः प्राह प्रावृट्काले समागते ।। कुरूटजं मदर्थं त्वं यथा प्रावृण्न बाधते ।। ५ ।।
यत्कदाचिन्न भज्येत न पुरातनतां व्रजेत्।। गुरुपत्न्यात्वभिहितो रे त्वाष्ट्र कुरु कंचुकम् ।।६।।
ममांगयोग्यं नो गाढं न श्लथं च प्रयत्नतः ।। विनैव वाससा चारु वाल्कलं च सदोज्ज्वलम् ।।७।।
गुरुपुत्रेण चाज्ञप्तो ममार्थं पादुके कुरु ।। यदारूढस्य मे पादौ न पंकः संस्पृशेत्क्वचित् ।। ८ ।।
चर्मादिबंधनिर्मुक्ते धावतो मे सुखप्रदे ।। याभ्यां च संचरे वारि स्थल भूमाविव द्रुतम्।। ।। ९ ।।
गुरुकन्यापि तं प्राह त्वाष्ट्र मे श्रवणोचिते ।। भूषणे स्वेन हस्तेन कुरु कांचननिर्मिते ।। १०।।
कुमारी क्रीडनीयानि कौतुकानि च देहि मे ।। दंतिदंतमयान्येव स्वहस्तरचितानि च ।। ११ ।।
गृहोपकरणं द्रव्यं मुसलोलूखलादिकम् ।। तथा घटय मेधाविन्यथा त्रुट्यति न क्वचित् ।। १२ ।।
अक्षालितान्यपि यथा नित्यं पीठानि सत्तम ।। उज्ज्वलानि भवंत्येव स्थालिकाश्च तथा कुरु ।। १३ ।।
सूपकर्मण्यपि च मां प्रशाधि त्वष्ट्रनंदन ।। यथांगुल्यो न दह्यंते पाकः स्याच्च यथा शुभः ।। ।। १४ ।।
एकस्तंभमयं गेहमेकदारुविनिर्मितम् ।। तथा कुरु वरं त्वाष्ट्र यत्रेच्छा तत्र धारये ।। १५ ।।
ये सहाध्यायिनोप्यस्य वयोज्येष्ठाश्च तेपि हि ।। सर्वेसर्वे समीहंते कर्म तत्कृतमेव हि।।१६।।
तथेति स प्रतिज्ञाय सर्वेषां पुरतोद्रिजे ।। मध्ये वनं प्राविशच्च महाचिंताभयार्दितः ।।१७।।
किंचित्कर्तुं न जानाति प्रतिज्ञातं च तेन वै।। सर्वेषां पुरतः सर्वं करिष्यामीति निश्चितम्।। १८।।
किं करोमि क्व गच्छामि को मे साहाय्यमर्पयेत् ।। बुद्धेरपि वनस्थस्य शरणं कं व्रजामि च ।। १९ ।।
अंगीकृत्य गुरोर्वाक्यं गुरुपत्न्या गुरोः शिशोः ।। यो न निष्पादयेन्मूढः स भवेन्निरयी नरः ।। २० ।।
गुरुशुश्रूषणं धर्म एको हि ब्रह्मचारिणाम् ।। अनिष्पाद्य तु तद्वाक्यं कथं मे निष्कृतिर्भवेत् ।। २१ ।।
गुरूणां वाक्यकरणात्सर्व एव मनोरथाः ।। सिद्ध्यंतीतरथा नैव तस्मात्कार्यं हि तद्वचः ।।२२।।
कथं तद्वचसः सिद्धिं प्राप्स्याम्यत्र वने स्थितः ।। कश्च मेत्र सहायी स्याद्धिषणादुर्बलस्य वै ।। २३ ।।
आस्तां गुरुकथा दूरं योऽन्यस्यापि लघोरपि ।। ओमित्युक्त्वा न कुरुते कार्यं सोथ व्रजत्यधः ।। २४ ।।
कथमेतानि कर्माणि करिष्येऽज्ञोऽसहायवान् ।। अंगीकृतानि तद्भीत्या नमस्ते भवितव्यते ।। २५ ।।
यावदित्थं चिंतयति स त्वाष्ट्रो वनमध्यगः ।। तावत्तदेव संप्राप्तस्तेनैकोऽदर्शि तापसः ।। २६ ।।
अथ नत्वा स तं प्राह वने दृष्टं तपस्विनम् ।। को भवान्मानसं मे यो नितरां सुखयत्यहो ।।२७।।
त्वद्दर्शनेन मे गात्रं चिंतासंतापतापितम् ।। हिमानी गाहनेनेव शीतलं भवति क्षणम् ।। २८ ।।
किं त्वं मे प्राक्तनं कर्म प्राप्तं तापसरूपधृक् ।। अथवा करुणावार्धिराविर्भूतः शिवो भवान् ।। २९ ।।
योसि सोसि नमस्तुभ्यमुपदेशेन युंक्ष्व माम् ।। गुरूक्तं गुरुपत्न्युक्तं गुर्वपत्योक्तमेव च ।। ३० ।।
कथं कर्तुमहं शक्तः कर्म तत्र दिशाद्भुतम् ।। कुरु मे बुद्धिसाहाय्यं निर्जने बंधुतां गतः ।। ३१ ।।
इत्युक्तस्तेन स वने तापसो ब्रह्मचारिणा ।। कारुण्यपूर्णहृदयो यथोक्तमुपदिष्टवान् ।। ३२ ।।
य आप्तत्वेन संपृष्टो दुर्बुद्धिं संप्रयच्छति ।। स याति नरकं घोरं यावदाभूतसंप्लवम् ।। ३३ ।।
भगवान शिव ने कहा: "हे देवी! मैं तुम्हें विश्वकर्मेश्वर लिंग की उत्पत्ति की यह शुभ एवं पापों को नष्ट करने वाली कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। पूर्वकाल में विश्वकर्मा स्वयं ब्रह्मा के अंश से प्रकट हुए थे। वे प्रजापति त्वष्टा के पुत्र थे और सभी प्रकार के शिल्प-कौशल में निपुण थे। जब वे बालक थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ और वे अपने गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने लगे। वे गुरु सेवा में तत्पर रहते और भिक्षा से जीवन निर्वाह करते।
एक दिन वर्षा ऋतु के आगमन पर उनके गुरु ने आदेश दिया— 'मेरे लिए एक ऐसा वस्त्र बनाओ जो जल को अंदर न आने दे। वह वस्त्र कभी फटे नहीं, कभी पुराना न हो, और मेरे शरीर पर पूरी तरह से अनुकूल रहे— न अधिक ढीला हो और न अधिक तंग।' गुरु पत्नी ने भी आदेश दिया— 'हे त्वष्टा! मेरे लिए एक ऐसा सुंदर और चमकदार वस्त्र बनाओ जिसे पहनने के बाद मुझे और कोई वस्त्र पहनने की आवश्यकता न पड़े।' गुरु पुत्र ने कहा— 'हे त्वष्टा! मेरे लिए ऐसे जूते बनाओ जिससे कीचड़ में पैर न डूबें, जो दौड़ते समय आरामदायक हों, जिनमें चमड़े का उपयोग न हुआ हो और जो जल पर भी भूमि के समान चलने योग्य हों।' गुरु की पुत्री ने कहा— 'हे त्वष्टा! मेरे लिए सुंदर सोने के आभूषण बनाओ, जो देखने में अद्भुत और मन को भाने वाले हों। साथ ही, मेरे लिए हाथी दांत से बने ऐसे खिलौने बनाओ जो अत्यंत सुंदर और आकर्षक हों। मेरे लिए गृहस्थ जीवन के उपयोगी पात्र, जैसे कि मूसल, ओखली आदि इस प्रकार बनाओ कि वे कभी टूटें नहीं। हे बुद्धिमान! मेरी लकड़ी की चौकियाँ और अन्य बर्तन ऐसे बनाओ जो बिना धोए भी स्वच्छ और चमकदार बने रहें। मेरे लिए ऐसे उत्तम रसोई उपकरण बनाओ कि मेरे हाथ कभी न जलें और उनमें पकाया गया भोजन हमेशा पवित्र बना रहे। मेरे लिए एक ऐसा घर बनाओ जो केवल एक ही खंभे और एक ही लकड़ी के टुकड़े से निर्मित हो और जिसे मैं जहाँ चाहूँ, वहाँ रख सकूँ।'
ये सभी बातें सुनकर उनके गुरुकुल के अन्य शिष्य भी यह देखने के लिए उत्सुक हो गए कि त्वष्टा इन कार्यों को कैसे पूरा करेगा। त्वष्टा ने अपने गुरु और उनके परिवार के समक्ष यह प्रतिज्ञा कर ली कि वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करेगा, परंतु इसके पश्चात वह गहरे चिंतन में डूब गया। उसने सोचा— 'मैंने यह संकल्प तो कर लिया, किंतु अब इसे पूरा कैसे करूँ? मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरी सहायता करेगा? इस वन में मैं किसका सहारा लूँ? जो व्यक्ति गुरु, गुरु पत्नी और उनके बच्चों द्वारा दिए गए आदेशों को पूरा करने की प्रतिज्ञा करता है लेकिन असफल होता है, वह निश्चित ही नर्क भोगता है। गुरु सेवा ही शिष्य का परम कर्तव्य है। यदि मैं इसमें असफल रहा, तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी? गुरु की आज्ञा का पालन करने से ही सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। इसके बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। परंतु इस घने वन में अकेले रहकर मैं इन असाध्य कार्यों को कैसे पूरा करूँ? मेरी सहायता कौन करेगा? अगर कोई व्यक्ति 'ॐ' उच्चारण करने के बाद भी निष्क्रिय बैठा रहे और प्रयास न करे, तो वह निश्चित रूप से पतन को प्राप्त होता है। मेरे पास न तो कोई ज्ञान है, न ही बल। मैं यह कार्य कैसे पूर्ण करूँ? अब मेरे पास केवल ईश्वर पर विश्वास करने का ही मार्ग शेष है।'
इस प्रकार सोचते-सोचते, वह वन में विचरण कर रहा था कि अचानक एक महान ऋषि वहाँ प्रकट हुए। उन्हें देखकर त्वष्टा ने प्रणाम किया और पूछा— 'हे महर्षि! आप कौन हैं? आपके दर्शन से मेरा दुख दूर हो गया है। आपको देखते ही मेरा हृदय आनंदित हो उठा है, जैसे जलते हुए शरीर को शीतल जल मिल जाए। क्या आप कोई देवता हैं, जो ऋषि के रूप में प्रकट हुए हैं? अथवा स्वयं भगवान शंकर कृपा करके यहाँ आए हैं? आप जो भी हों, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझे उपाय बताइए कि मैं अपने गुरु के आदेशों को कैसे पूरा करूँ? मैं इस घने वन में अकेला और असहाय हूँ। कृपया मेरी सहायता करें।'"
तापस उवाच ।। ।।
ब्रह्मचारिञ्शृणु ब्रूयां किमद्भुततरं त्विदम्।। विश्वेशानुग्रहाद्ब्रह्माप्यभवत्सृष्टिकोविदः ।। ३४ ।।
यदि त्वं त्वाष्ट्र सर्वज्ञं काश्यामाराधयिष्यसि ।। ततस्ते विश्वकर्मेति नाम सत्यं भविष्यति ।। ३५ ।।
विश्वेशानुग्रहात्काश्यामभिलाषा न दुर्लभाः ।। सुलभो दुर्लभो वै यद्यत्र मोक्षस्तनुत्यजाम् ।। ३६ ।।
सृष्टेःकरण सामर्थ्यं सृष्टिरक्षाप्रवीणता ।। विधिना विष्णुना प्रापि विश्वेशानुग्रहात्परात् ।। ३७ ।।
याहि वैश्वेश्वरं सद्म पद्मया समधिष्ठितम् ।। निर्वाणसंज्ञया बाला यदीच्छेः स्वान्मनोरथान् ।। ३८ ।।
स हि सर्वप्रदः शंभुर्याचितश्चोपमन्युना ।। पयोमात्रं ददौ तस्मै सर्वं क्षीराब्धिमेव च ।। ३९ ।।
आनंदकानने शंभोः किं किं केन न लभ्यते ।। यत्र वासकृतां पुंसां धर्मराशिः पदेपदे ।। ४० ।।
स्वर्धुनी स्पर्शमात्रेण महापातकसंततिः ।। यत्र संक्षयति क्षिप्रं तां काशीं को न संश्रयेत् ।। ४१ ।।
न तादृग्धर्मसंभारो लभ्यते क्रतुकोटिभिः ।। यादृग्वाराणसी वीथी संचारेण पदेपदे ।। ४२ ।।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यद्यत्रास्ति मनोरथः ।। तदा वाराणसीं याहि याहि त्रैलोक्यपावनीम् ।। ४३ ।।
सर्वकामफलप्राप्तिस्तदैव स्याद्ध्रुवं नृणाम् ।। यदैव सर्वदः सर्वः काश्यां विश्वेश्वरः श्रितः ।। ४४ ।।
स तापसोक्तमाकर्ण्य त्वाष्ट्र इत्थं सुहृष्टवान् ।। काशीसंप्रात्युपायं च तमेव समपृच्छत ।।४५।।
।। त्वाष्ट्र उवाच ।। ।।
तदानंदवनं शंभोः क्वास्ति तापससत्तम ।।यत्र नो दुर्लभं किंचित्साधकानां त्रयीस्थितम् ।। ४६ ।।
स्वर्गे वा मर्त्यलोके वा बलिसद्मनि वा मुने ।।क्व तदानंदगहनं यत्रानंदपयोब्धिजा ।। ४७ ।।
यत्र विश्वेश्वरो देवो विश्वेषां कर्णधारकः ।।व्याचष्टे तारकं ज्ञानं येन तन्मयतां ययुः ।। ४८ ।।
सुलभा यत्र नियतमानंदवनचारिणः ।।अपि नैःश्रेयसी लक्ष्मीः किमन्येल्प मनोरथाः।।४९।।
कस्तां मां प्रापयेच्छंभोः कथं यामि तथा वद ।।स तपस्वीति तद्वाक्यमाकर्ण्य श्रद्धयान्वितम् ।।५०।।
प्राहागच्छ नयामि त्वां यियासुरहमप्यहो।।दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं यदि काशी न सेविता ।। ५१ ।।
पुनःक्व नृत्वं श्रेयोभूः क्व काशीकर्मबंधहृत् ।।वृथागते हि मानुष्ये काशीप्राप्तिविवर्जनात् ।। ५२ ।।
आयुष्यं च भविष्यं च सर्वमेव वृथागतम्।।अतोहं सफलीकर्तुं मानुष्यं चातिचंचलम् ।। ५३ ।।
यास्यामि काशीमायाहि मायां हित्वा त्वमप्यहो ।।इति तेन सह त्वाष्ट्रो मुनिनातिकृपालुना ।। ५४ ।।
पुरीं वैश्वेश्वरीं प्राप्तो मनःस्वास्थ्यमवाप च ।।ततः प्रापय्य तां काशीं तापसः क्वाप्यतर्कितम् ।। ५५ ।।
जगाम कुंभसंभूत स त्वाष्ट्रोपीत्यमन्यत ।।अवश्यं स हि विश्वेशः सर्वेषां चिंतितप्रदः।। ५६।।
सत्पथस्थिरवृतीनां दूरस्थोपि समीपगः ।।यस्मिन्प्रसन्नदृक्त्र्यक्षस्तं दविष्ठमपि ध्रुवम् ।।५७।।।
सुनेदिष्ठं करोत्येव स्वयंवर्त्मोपदेशयन् ।।क्वाहं तत्र वने बालश्चिंताकुलितमानसः ।।
क्व तापसः स यो मां वै सूदिश्येह चानयत् ।। ५८ ।।खेलोयमस्य त्र्यक्षस्य यस्य भक्तस्य कुत्रचित् ।।
न दुर्लभतरं किंचिदहो क्वाहं क्व काशिका ।। ५९ ।।
नाराधितो मया शंभुः प्राक्तने जन्मनि क्वचित् ।।शरीरित्वानुमानेन ज्ञातमेतदसंशयम्।। ६० ।।
अस्मिञ्जन्मनि बालत्वान्न चैवाराधितः स्फुटम् ।।प्रत्यक्षमेव मे वैतत्कुतोनुग्रहधीर्मयि ।। ६१ ।।
आज्ञातं गुरुभक्तिर्मे हेतुः शंभुप्रसादने ।।ययेहानुगृहीतोस्मि विश्वेशेन कृपालुना ।। ६२ ।।
अथवा कारणापेक्षस्त्र्यक्षस्त्वितरदेववत् ।।रंकमप्यनुगृह्णाति केवलं कारणं कृपा।। ६३ ।।
यदि नो मय्यनुक्रोशः कथं तापससंगतिः ।।तद्रूपेण स्वयं शंभुरानिनायेह मां ध्रुवम् ।।६४।।
न दानानि न वै यज्ञा न तपांसि व्रतानि च ।।।शंभोः प्रसादहेतूनि कारणं तत्कृपैव हि ।। ।। ६५ ।।
दयामपि तदा कुर्यादसौ विश्वेश्वरः पराम् ।।यदाश्रुत्युक्तमध्वानं सद्भिः क्षुण्णं न संत्यजेत् ।। ६६ ।।
अनुक्रोशं समर्थ्येति स त्वाष्ट्रः र्शाभवं शुचिः।।संस्थाप्य लिंगमीशस्याराधयत्स्वस्थमानसः ।। ६७ ।।
आनीय पुष्पसंभारमार्तवं काननाद्बहु ।।स्नात्वाभ्यर्चयतीशानं कंदमूलफलाशनः ।। ६८ ।।
इत्थं त्वष्टृतनूजस्य लिंगाराधनचेतसः ।।त्रिहायनात्प्रसन्नोभूत्तस्येशः करुणानिधिः ।। ६९ ।।
तस्मादेव हि लिंगाच्च प्रादुर्भूय भवोऽब्रवीत् ।।वरं वरय रे त्वाष्ट्र दृढभक्त्यानया तव ।। ।। ७० ।।
प्रसन्नोस्मि भृशं बाल गुर्वर्थकृतचेतसः ।।गुरुणा गुरुपत्न्या च गुर्वपत्यद्वयेन च ।। ७१ ।।
यथार्थितं तथा कर्तुं ते सामर्थ्यं भविष्यति ।। ७२ ।।
अन्यान्वरांश्च ते दद्यां त्वाष्ट्र तुष्टस्त्वदर्चया ।। ताञ्शृणुष्व महाभाग लिंगस्यास्याद्भुतश्रियः ।। ७३ ।।
त्वं सुवर्णादिधातूनां दारूणां दृषदामपि ।। मणीनामपिरत्नानां पुष्पाणामपि वाससाम् ।। ७४ ।।
कर्पूरादिसुगंधीनां द्रव्याणामप्यपामपि ।। कंदमूलफलानां च द्रव्याणामपि च त्वचाम्।। ।। ७५ ।।
सर्वेषां वस्तुजातानां कर्तुं कर्म प्रवेत्स्यसि ।। यस्य यस्य रुचिर्यत्र सद्म देवालयादिषु ।। ७६ ।।
तस्य तस्येह तुष्ट्यै त्वं तथा कर्तुं प्रवेत्स्यसि ।। सर्वनेपथ्यरचनाः सर्वाः सूपस्य संस्कृतीः ।।७७।।
सर्वाणि शिल्पकार्याणि तौर्यत्रिकमथापि च ।। सर्वं ज्ञास्यसि कर्तुं त्वं द्वितीय इव पद्मभूः ।।७८।।
नानाविधानि यंत्राणि नानायुधविधानकम् ।। जलाशयानां रचनाः सुदुर्गरचनास्तथा ।। ७९ ।।
तादृक्कर्तुं पुरा वेत्सि यादृङ्नान्योऽधियास्यति ।। कलाजातं हि सर्वं त्वमवयास्यसि मे वरात् ।।८० ।।
सर्वेंद्रजालिकी विद्या त्वदधीना भविष्यति ।।सर्वकर्मसु कौशल्यं सर्वबुद्धिवरिष्ठताम् ।।८१ ।।
सर्वेषां च मनोवृत्तिं त्वं ज्ञास्यसि वरान्मम ।।किं बहूक्तेन यत्स्वर्गे यत्पाताले यदत्र च।। ८२।।
अतिलोकोत्तरं कर्म तत्सर्वं वेत्स्यसि स्वयम् ।। ८३ ।।
विश्वेषां विश्वकर्माणि विश्वेषु भुवनेषु च ।।यतो ज्ञास्यसि तन्नाम विश्वकर्मेति तेऽनघ ।। ८४ ।।
अपरः को वरो देयस्तव तं प्रार्थयाश्वहो ।।तवादेयं न मे किंचिल्लिंगार्चनरतस्य हि ।। ८५ ।।
अन्यत्रापि हि यो लिंगं समर्चयति सन्मतिः ।।तस्यापि वांछितं देयं किंपुनर्योविकाशिकम् ।। ८६ ।।
येन काश्यां समभ्यर्चि येन काश्यां प्रतिष्ठितम् ।।येन काश्यां स्तुतं लिंगं स मे रूपाय दर्पणः।। ८७ ।।
तत्त्वं स्वच्छोसि मुकुरो मम नेत्रत्रयस्य हि ।।काश्यां लिंगार्चनात्त्वाष्ट्र वरं वरय सुव्रत ।। ८८ ।।
काश्यां यो राजधान्यां मे हित्वा मामन्यमर्चयेत् ।।स वराकोल्पधीर्मुष्टोऽल्पतुष्टिर्मुक्तिवर्जितः ।। ८९ ।।
तदानंदवनेह्यत्र समर्च्योहं मुमुक्षुभिः ।।द्रुहिणोपेंद्रचंद्रेंद्रैरिहान्यो न समर्च्यते ।। ९० ।।
यथानंदवनं प्राप्य त्वं मामर्चितवानसि ।। तथान्ये पुण्यकर्माणो मामभ्यर्च्यैव मामिताः ।। ९१ ।।
अनुग्राह्योऽसि नितरां ततो वरय दुर्लभम् ।। श्राणितं तदवैहि त्वं वद मा चिरयस्व भोः ।। ९२ ।।
।। विश्वकर्मोवाच ।। ।।
इदं यत्स्थापितं लिंगं मयाज्ञेनापि शंकर ।।तल्लिंगमन्येप्याराध्य संतु समृद्धिभाजनम् ।। ९३ ।।
अन्यच्च नाथ प्रार्थ्योसि तच्च विश्राणयिष्यसि ।।मया विनिर्मापयिता स्वं प्रासादं कदा भवान् ।। ९४ ।।
।। देवदेव उवाच ।।
एवमस्तु यदुक्तं ते तव लिंगसमर्चकाः ।।समृद्धिभाजनं वै स्युः स्युश्च निर्वाणदीक्षिताः ।। ९५ ।।
यदा च राजा भविता दिवोदासो विधेर्वरात्।।तदा मे वचनात्तात प्रासादं मे विधास्यति ।। ९६ ।।
नवीकृत्य पुनः काशी निर्विष्टा तेन भूभुजा ।।गणेशमायया राज्यात्परिनिर्विण्णचेतसा ।। ९७ ।।
विष्णोः सदुपदेशाच्च मामेव शरणं गतः ।।निर्वाणलक्ष्मीः प्राप्तेह हित्वा राज्यश्रियं चलाम्।। ९८ ।।
विश्वकर्मन्व्रज गुरोः शासनाय यतस्व च ।।गुरुभक्तिकृतो यस्मान्मद्भक्ता नात्र संशयः ।। ९९ ।।
ये गुरुं चावमन्यंते तेवमान्या मयाप्यहो ।।तस्माद्गुरूपदिष्टं हि कुरु शिष्यसमीहितम् ।। १०० ।।
तत आगत्य मे पार्श्वं यावन्निर्वाणमेष्यसि ।।तावत्स्थास्यसि शुद्धात्मा देवानां हितमाचरन् ।। १०१ ।।
तवात्र लिंगे सततं स्थास्याम्यहमभीष्टदः ।।अस्य लिंगस्य भक्तानां निर्वाणश्रीरदूरतः ।।१०२ ।।
अंगारेशादुदीच्यां ये त्वल्लिंगस्यसमर्चकाः ।।तेषां मनोरथावाप्तिर्भविष्यति पदेपदे ।। १०३ ।।
इत्युक्त्वांतर्दधे देवस्त्वाष्ट्रोपि गुरुमाप्तवान् ।।गुरोः समीहितं भूरि विधाय स गृहान्ययौ ।।१०४।।
गृहेपि मातापितरौ संतोष्य निजकर्मणा ।।तदुक्ताज्ञां समाधाय पुनः काशीं समाययौ ।। १०५ ।।
स्वलिंगाराधनासक्तो नाद्यापि त्वष्टृनंदनः ।।काशीं त्यजति मेधावी सर्वदेव प्रियं चरन् ।। १०६ ।।
।। ईश्वर उवाच ।। ।।
पृष्टानि यानि र्लिगानि त्वया देवि गिरींद्रजे ।।काशी मुक्तौ समर्थानि तान्युक्तानि मया तव।। १०७ ।।
लिंगमोंकारसंज्ञं च तथा देवं त्रिविष्टपम् ।।महादेवः कृत्तिवासा रत्नेशश्चंद्रसंज्ञकः ।। १०८ ।।
केदारश्चापि धर्मेशस्तथा वीरेश्वराभिधः ।।कामेशविश्वकर्मेशौ मणिकर्णीश्वरस्तथा ।। १०९ ।।
ममार्च्यमविमुक्ताख्यं ततो देवि ममा ख्यकम् ।।विश्वनाथेति विश्वस्मिन्प्रथितं विश्वसौख्यदम्।। ११० ।।
अविमुक्तं समासाद्य येन विश्वेश्वरोर्चितः ।।न तस्यास्ति पुनर्जन्म कल्पकोटिशतेष्वपि ।। १११ ।।
अष्टौ मासान्विहारः स्याद्यतीनां संयतात्मनाम् ।।एकत्र चतुरोमासानब्दं नावास इष्यते ।। ११२ ।।
अविमुक्ते प्रविष्टानां विहारो नैव युज्यते ।।मोक्षोप्यसंशयश्चात्र तस्मात्त्याज्या न काशिका ।। ११३ ।।
आनंदकाननं हित्वा नान्यद्गच्छेत्तपोवनम् ।।तपोयोगश्च मोक्षश्च यतोत्रैव मदाश्रयात् ।। ११४ ।।
कृपया सर्वजंतूनां क्षेत्रमेतन्मया कृतम् ।।अवश्यमेव सिद्ध्यंति क्षेत्रेस्मिन्सिद्धिकांक्षिणः ।। १२५ ।।
अतीतं वर्तमानं च जानतोऽज्ञानतः कृतम् ।।यदेनस्तल्लयं यायादानंदवनवीक्षणात् ।। ११६ ।।
अत्युग्रैश्च तपोभिर्यन्महादानैर्महाव्रतैः ।।नियमैश्च यमैः सम्यक्त्वयोगेन महामखैः ।। ११७ ।।
वेदांतशास्त्राभ्यसनैः सर्वोपनिषदाश्रयात् ।।एभिर्वै यदवाप्येत तत्काश्यां हेलयाप्यते ।।११८।।
कर्मसूत्रेण बद्धा वै भ्राम्यंते तावदेव हि ।।यावद्वैश्वेश्वरे धाम्नि मम नैव तनुत्यजः ।।११९।।
काश्यां स्वलीलया देवि तिर्यग्योनिजुषामपि।।ददामि चांते तत्स्थानं यत्र यांति न याज्ञिकाः ।। १२० ।।
भूतग्रामोऽखिलोप्यत्र मुक्तिक्षेत्रे कृतालयः ।।कालेन निधनं यातो यात्येव परमां गतिम् ।। १२१ ।।
विषयासक्तचित्तोपि त्यक्तधर्मरतिस्त्वपि ।।कालेनोज्झितदेहोऽत्र न संसारं पुनर्विशेत् ।। १२२ ।।
प्रयागे यत्फलं देवि माघे चोपनिमज्जनात् ।।तत्फलं कोटिगुणितं वाराणस्यां क्षणेक्षणे ।। १२३ ।।
अस्य क्षेत्रस्य महिमा कोपि वाचामगोचरः ।।उद्देशमात्रमाख्यायि मया ते प्रीतिकाम्यया ।। १२४ ।।
चतुर्दशानां लिंगानां श्रुत्वाख्यानानि सत्तमः ।।चतुर्दश सुलोकेषु पूजां प्राप्स्यत्यनुत्तमाम् ।। १२५।।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंड उत्तरार्धे विश्वकर्मेश प्रादुर्भावो नाम षडशीतितमोऽध्यायः ।। ८६ ।।