Madalseshwar (मदालसेश्वर)

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Madalseshwar
मदालसेश्वर

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०९७
अलर्केशः समभ्यर्च्यः शुक्रेशात्पूर्वदिक्स्थितः ॥ मदालसेश्वरस्तत्र तत्पूर्वे सर्वविघ्नहृत् ॥ २३० ॥
शुक्रेश्वर के पूर्व दिशा में स्थित अलर्केश्वर की पूजा करनी चाहिए। उसके पूर्व में मदालसेश्वर है। वह समस्त विघ्नों का नाश कर देता है।


महाज्ञानी गंधर्वराज विश्वावसु की पुत्री मदालसा द्वारा काशी में शिवलिंग स्थापना शुक्रेश्वर और अलर्केश्वर के पूर्व भाग में किया गया था। इनसे पश्चिम में इनके पुत्र अलर्क द्वारा भी लिंग स्थापना हुई। काशी में ब्रह्मज्ञानी मदालसा द्वारा स्थापित यह लिंग एकादश आयतन (रूद्र) यात्रा के अंतर्गत आता है


मदालसा की कथा (संछिप्त) - मार्कण्डेय पुराण

पूर्ण कथा यहां पढ़ें : CLICK HERE

प्राचीन काल में गंधर्वलोक में महर्षि कश्यप व प्राधा से उत्पन्न पुत्रों में विश्वावसु नाम के एक महाज्ञानी गंधर्वराज थे जिन्हें चाक्षुषी विद्या में निपुणता हासिल थी। जिसे इन्होंने भगवान सोमदेव "चंद्रमा से प्राप्त की थी और बाद में इसी चाक्षुषी विद्या को इन्होंने चित्ररथ गंधर्व को प्रदान की थी। इस विद्या को जानने वाला तीनों लोकोंं में होनी वाली घटनाओं को भान पुर्व ही लगा लेता था। इसलिए उस कालखण्ड में गंधर्वीय शक्तियों का एक व्यापक प्रभाव था। गंधर्वराज विश्वावसु की एक सुन्दर कन्या थीं। उसका नाम था मदालसा। मदालसा, संगीत, साहित्य, कला तथ अनेक विधाओं में निपुण थीं। उसने अध्यात्म की भी शिक्षा प्राप्त की थी तथा ब्रह्म के रूप की वह प्रकांड व्याख्याता भी थीं।


राजा शत्रुजित के पास गालव मुनि गये थे। उन्होंने राजा से कहा था, कि एक दैत्य उनकी तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करता है। उसको मारने के साधनस्वरूप यह कुवलय नामक घोड़ा आकाश से नीचे उतरा और आकाशवाणी हुई, राजा शत्रुजित का पुत्र ऋतुध्वज घोड़े पर जाकर दैत्य को मारेगा। यह घोड़ा बिना थके आकाश, जल, पृथ्वी, पर समान गति से चल सकता है। राजा ने हमारे मित्र ऋतुध्वज को गालब के साथ कर दिया। ऋतुध्वज उस घोड़े पर चढ़कर राक्षस का पीछा करने लगा। राक्षस सूअर के रुप में था। राजकुमार के वाणों से बिंधकर वह कभी झाड़ी के पीछे छुप जाता, कभी गड्ढे में कूद जाता। ऐसे ही वह एक गड्ढे में कूदा तो उसके पीछे-पीछे घोड़े सहित राज कुमार भी वहीं कूद गया। वहाँ सूअर तो दिखायी नहीं दिया किंतु एक सुनसान नगर दिखायी पड़ा। एक सुंदरी व्यस्तता में तेज़ीसे चली आ रही थी। 


राजकुमार उसके पीछे चल पड़ा। उसका पीछा करता हुआ राजा एक अनुपम सुंदर महल में पहुँचा वहाँ सोने के पलंग पर एक राजकुमारी बैठी थी। जिस सुंदरी को उसने पहले देखा था, वह उसकी दासी कुंडला थी। राजकुमारी का नाम मदालसा था। कुंडला ने बताया-'मदालसा प्रसिद्ध गंधर्वराज विश्वावसु की कन्या है। व्रजकेतु दानव का पुत्र पातालकेतु उसे हरकर यहाँ ले आया है। मदालसा के दुखी होने पर कामधेनु ने प्रकट होकर आश्वासन दिया था कि जो राजकुमार उस दैत्य को अपने वाणों से बींध देगा, उसीसे इसका विवाह होगा। ऋतुध्वज ने उस दानव को बींधा है, यह जानकर कुंडला ने अपने कुलगुरु का आवाहन किया। कुलगुरु तंबुरु ने प्रकट होकर उन दोनों का विवाह संस्कार करवाया। 


मदालसा की दासी कुंडला तपस्या के लिए चली गयी तथा राजकुमार मदालसा को लेकर चला तो दैत्यों ने उस पर आक्रमण कर दिया। पातालकेतु सहित सबको नष्ट करके वह अपने पिता के पास पहुँचा। निविंध्न रुप से समस्त पृथ्वी पर घोड़े से घूमने के कारण वह कुवलयाश्व तथा घोड़ा (अश्व) कुवलय नाम से प्रसिद्ध हुआ। पिता की आज्ञा से वह प्रतिदिन प्रात: काल उसी घोड़े पर बैठकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिए निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी संदर्भ में एक आश्रम के निकट पहुँचा। वहाँ पाताल केतु का भाई तालकेतु ब्राह्मण वेश में रह रहा था। भाई के द्वेष को स्मरण करके उसने यज्ञ में स्वर्णार्पण के निमित्त राजकुमार से उसका स्वर्णहार मांग लिया। तदनंतर उसे अपने लौटने तक आश्रम की रक्षा का भार सौंपकर उसने जल में डुबकी लगायी। जल के भीतर से ही वह राजकुमार के नगर में पहुँच गया। वहाँ उसने दैत्यों से युद्ध और राजकुमार की मृत्यु के झूठी खबर की पुष्टि हार दिखा कर की। ब्राह्मणों ने उनका अग्नि-संस्कार कर दिया। मदालसा ने भी अपने प्राण त्याग दिये। 


तालकेतु पुन: जल से निकलकर राजकुमार के पास पहुँचा और धन्यवाद कर उसने राजकुमार को विदा किया। घर आने पर ऋतुध्वज को समस्त समाचार विदित हुए, अत: मदालसा के चिरविरह से आतप्त वह शोकाकुल है। वह हम लोगों के साथ थोड़ा मन बहला लेता है। पुत्रों की बात सुनकर उनके मित्र का हित करने की इच्छा से नागराज ने तपस्या से सरस्वती को प्रसन्न कर अपने तथा अपने भाई कंबल के लिए संगीतशास्त्र की निपुणता का वर प्राप्त किया। तदनंतर शिव को तपस्या से प्रसन्न कर अपने फन से मदालसा के पुनर्जन्म का वर प्राप्त किया। अश्वतर के मध्य फन से मदालसा का जन्म हुआ। 


नागराज ने उसे गुप्त रुप से अपने रनिवास में छुपाकर रख दिया। तदनंतर अपने दोनों पुत्रों से ऋतुध्वज को आमंत्रित कर वाया। ऋतुध्वज ने देखा कि दोनों ब्राह्मणवेशी मित्रों ने पाताल लोक पहुँचकर अपना छद्मवेश त्याग दिया। उनका नाग रूप तथा नागलोक का आकर्षक रुप देख वह अत्यंत चकित हुआ। आतिथ्योपरांत नागराज से उससे मनवांछित वस्तु मांगने के लिए कहा। ऋतुध्वज मौन रहा। नागराज ने मदालसा उसे समर्पित कर दी। उसने अत्यंत आभार तथा प्रसन्नता के साथ अश्वतर को प्रणाम किया तथा अपने घोड़े कुवलय का आवाहन कर वह मदालसा सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचा। पिता की मृत्यु के उपरांत उसका राज्याभिषेक हुआ। 


मदालसा से उसे चार पुत्र प्राप्त हुए। पहले तीन पुत्रों के नाम क्रमश: विक्रांत, सुबाहु तथा अरिमर्दन रखा गया। मदालसा प्रत्येक बालक के नामकरण पर हंसती थी। राजा ने कारण पूछा वह बोली कि नामानुरूप गुण बालक में होने आवश्यक नहीं हैं। नाम तो मात्र चिह्न है। आत्मा का नाम भला कैसे रखा जा सकता है। चौथे बालक का नाम मदालसा ने 'अलर्क' रखा। मदालसा के अनुसार हर नाम उतना ही निरर्थक है जितना 'अलर्क' उसके पहले तीनों बेटे विरक्तप्राय थे। राजा ने मदालसा से कहा कि इस प्रकार तो उसकी वंश परंपरा ही नष्ट हो जायेगी। चौथे बालक को प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश देना चाहिए। मदालसा ने अलर्क को धर्म, राजनीति व्यवहार आदि अनेक क्षेत्रों की शिक्षा दी।


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मदालसेश्वर डी.5/133 कालिका गली में स्थित है।
Madalaseshwar is located at D.5/133 Kalika Galli.


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


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