Kashi Mahatmya (काशी महात्म्य)

सम्पूर्ण काशी के अधिष्ठाता देव विश्वनाथ हैं। काशीपुरी हरिहर की नगरी है। उत्तर काशी विष्णु काशी जिसके अधिष्ठात्र भगवान बिंदुमाधव है। दक्षिण काशी शिवकाशी है जिसके अधिष्ठात्र भगवान शिव हैं।

Kashi Mahatmya
(काशी महात्म्य)

पञ्चक्रोशात्मकं लिङ्गं ज्योतिरूपसनातनम् । भवानीशङ्कराभ्यांच लक्ष्मी श्रीशिवराजितम् ।।
पंचक्रोशात्मक शिवलिङ्ग शाश्वत एवं ज्योति स्वरूप है। भवानी (अन्नपूर्णा ) शंकर के साथ लक्ष्मी तथा भगवान नारायण (विष्णु) इस पंचक्रोशात्मक लिंग में विराजमान हैं। [ब्रह्मवैवर्त पुराण (काशी रहस्य)]

त्रयस्त्रिंशत्सुराणां या कोटिः श्रुति समीरिता । प्रतीक्षते साऽवसरं सेवायै प्रत्यहंत्विह ।।
वेदों में वर्णित तैंतीस करोड़ सुर (देवता) प्रतिदिन यहां काशी में (अपने प्रभु की) सेवा के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।

लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः_१_(कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः_४५६
तारकंज्ञानमन्त्रादि ददाति शंकरः स्वयम् । नित्यंभिक्षुकरूपेण भ्रमत्येव गृहं गृहम् ॥७५॥
काशी में भगवान शंकर स्वयं तारक मंत्र प्रदान करते हैं। वे काशी में नित्य भिक्षुकरूप धारण कर काशीवासियों के गृह-गृह विचरण करते रहते हैं।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः३१ 
या मे मुक्तिपुरी काशी सर्वाभ्योपि गरीयसी ॥ आधिपत्यं च तस्यास्ते कालराज सदैव हि ॥४६॥
भगवान शिव ने भैरव से कहा : यह मुक्तिपुरी काशी सभी पुरियों की तुलना में श्रेष्ठ है। इस पर तुम्हारा आधिपत्य होने के कारण तुम सदा कालराज कहे जाओगे।
अनेनैवानुमानेन महिमा त्ववगम्यताम् ॥ ब्रह्महत्यापनोदिन्याः काश्याः कलशसंभव ॥ ६३ ॥
संति तीर्थान्यनेकानि बहून्यायतनानि च ॥ अधि त्रिलोकिनो काश्याः कलामर्हंति षोडशीम् ॥ ६४ ॥
तावद्गर्जंति पापानि ब्रहत्यादिकान्यलम् ॥ यावन्नाम न शृण्वंति काश्याः पापाचलाशनेः ॥ ६५ ॥
हे कुम्भसंभव अगस्त्य! इससे ही आप यह अनुमान कर लीजिये कि ब्रह्महत्यानाशिनी काशी की कितनी तथा कहां तक महिमा है। त्रैलोक्य में अनेक तीर्थ तथा पुण्यस्थल हैं, किन्तु ये सभी काशी की १/१६ कला के भी समान नहीं ठहरते। ब्रह्महत्या आदि पापसमूह तभी तक गर्जन-तर्जन भीषणता से कर पाते हैं, जब तक वे सब पापरूपी पर्वतों के लिये वज्रस्वरूप काशी का नाम नहीं सुन लेते।

।। स्कंद उवाच ।।
प्रसंगतो मयैतानि तीर्थानि कथितानि ते । भूमौ तिलांतरायां यत्तत्र तीर्थान्यनेशः ।। ५८.६३ ।।
महर्षि अगस्त्य को काशी के वैष्णव तीर्थों को बताने के पश्चात भगवान स्कंद ने कहा: ये सभी तीर्थ संयोगवश आपके लिए गिनाए गये हैं, क्योंकि काशी में एक तिल जितनी भूमि पर भी अनेक तीर्थ हैं।

।। श्रीविष्णुरुवाच ।।
संख्यास्ति यावती देहे देहिनो रोमसंभवा । तावतोप्यपराधा वै यांति लिंग प्रतिष्ठया ।। ५८.१८० ।।
एकं प्रतिष्ठितं येन लिंगमत्रेशभक्तितः । तेनात्मना समं विश्वं जगदेतत्प्रतिष्ठितम् ।। ५८.१८१ ।।
रत्नाकरे रत्नसंख्या संख्याविद्भिरपीष्यते । लिंगप्रतिष्ठा पुण्यस्य न तु संख्येति लिख्यते ।। ५८.१८२ ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कुरु लिंगं प्रतिष्ठितम् । तया लिंग प्रतिष्ठित्या कृतकृत्यो भविष्यसि ।। ५८.१८३ ।।
इत्युक्त्वा ब्राह्मणो दध्यौ क्षणं निश्चलमानसः । उवाच च प्रहृष्टास्यो राजानं पाणिना स्पृशन् ।। ५८.१८४ ।।
अन्यच्च किंचित्पश्यामि भूपाल ज्ञानचक्षुषा । शृणुष्वावहितो भूत्वा तदपि प्राज्ञसत्तम ।। ५८.१८५ ।।
श्री विष्णु भगवान ने दिवोदास (रिपुंजय) से कहा: यह मानते हुए भी कि, किसी ने शरीर पर जितने बाल हैं, उतने पाप किये हैं, यदि कोई (काशी में) लिंग स्थापित करता है तो वे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि एक भी लिंग शिव भक्ति के साथ यहां (काशी में) स्थापित किया जाता है, तो ऐसा लगता है मानो संपूर्ण ब्रह्मांड उनके द्वारा स्थापित किया गया है। समुद्र में कितने रत्न हैं, इसकी गणना वही लोग कर सकते हैं, जो गणना में विशेषज्ञ हैं। लेकिन लिंग स्थापना के पुण्य की सीमा को लिखा नहीं जा सकता। अत: पूर्ण प्रयत्न करके लिंग की स्थापना करो। लिंग की स्थापना से तुम धन्य और संतुष्ट हो जाओगे।

गर्भरक्षामणिर्मंत्रः काशीवर्णद्वयात्मकः ।। यस्य कंठे सदा तिष्ठेत्तस्याकुशलता कुतः ।।
सुधां पिबति यो नित्यं काशीवर्णद्वयात्मिकाम् ।। स नैर्जरीं दशां हित्वा सुधैव परिजायते ।।
श्रुतं कर्णामृतं येन काशीत्यक्षरयुग्मकम् ।। न समाकणर्यत्येव स पुनर्गर्भजां कथाम्।।
काशी रजोपि यन्मूर्ध्नि पतेदप्यनिलाहतम् ।। चंद्रशेखरतन्मूर्धा भवेच्चंद्रकलांकितः ।।
प्रसंगतोपि यन्नेत्रपथमानंदकाननम् ।। यातं तेत्र न जायंते नेक्षेरन्पितृकान(व?)नम् ।।
गच्छता तिष्ठता वापि स्वपता जाग्रताथवा ।। काशीत्येष महामंत्रो येन जप्तः सनिर्भयः ।।
येन बीजाक्षरयुगं काशीति हृदि धारितम् ।। अबीजानि भवंत्येव कर्मबीजानि तस्य वै ।।
काशी काशीति काशीति जपतो यस्य संस्थितिः ।। अन्यत्रापि सतस्तस्य पुरो मुक्तिः प्रकाशते ।।
क्षेममूर्तिरियं काशी क्षेममूर्तिर्भवान्भव ।। क्षेममूर्तिस्त्रिपथगा नान्यत्क्षेमत्रयं क्वचित् ।।

वाराणस्यास्तु ये भक्तास्ते भक्ता मम निश्चितम्।। जीवन्मुक्ता हि ते नूनं मोक्षलक्ष्म्या कटाक्षिताः ।।
जो वाराणसी के भक्त हैं वे निश्चय ही मेरे भक्त हैं। वे निश्चित रूप से जीवित-मुक्त हैं, मोक्ष की महिमा की सौम्य दृष्टि की वस्तु हैं।

निवसंति मम क्षेत्रे मम भक्तिं प्रकुर्वते ।। मम लिंगधरा ये तु तानेवोपदिशाम्यहम् ।।
निवसंति मम क्षेत्रे मम भक्तिं न कुर्वते ।। मम लिंगधरा ये नो न तानुपदिशाम्यहम् ।।
काशी निर्वाणनगरी येषां चित्ते प्रकाशते ।। ते मत्पुरः प्रकाशंते नैःश्रेयस्या श्रिया वृताः ।।
जो लोग मेरे पवित्र स्थान पर (काशी में) रहकर मेरी भक्ति करते हैं, जो मेरे भक्तों के लक्षण धारण करते हैं, उन्हीं को मैं मुक्ति का साधन प्रदान करता हूं। मैं उन्हें (मोक्ष) नहीं देता, जो न तो यहां रहते हैं, न मेरे प्रति समर्पित हैं, और न ही उन पर महत्वपूर्ण चिन्ह (त्रिपुण्ड्र, उर्ध्वपुंड्र) हैं। यदि मोक्ष की नगरी काशीवासियों के हृदयों में चमकती है, तो वे मेरे सामने चमकते हैं और मोक्ष की महिमा से आच्छादित होते हैं।

मुक्तिक्षेत्रप्रमाणं च क्रोशं क्रोशं च सर्वतः।। आरभ्य लिंगादस्माच्च पुण्यदान्मध्यमेश्वरात् ।।९७.१५१।।
मुक्तिक्षेत्र (काशी, मोक्ष का पवित्र स्थान) की सीमा इस मध्यमेश्वर, पुण्य देने वाले लिंग से प्रारम्भ होने वाली प्रत्येक दिशा में एक क्रोश (3 किलोमीटर) है।

प्रांत्यभूषण : काशी में मृत्यु के समय भगवान शिव द्वारा तारक उपदेश एक अलंकरण के रूप में...

नारदपुराणम्-_उत्तरार्धः/अध्यायः_४८
अविमुक्ते मृत्युकाले भूतानामीश्वरः स्वयम् ॥
कर्मभिः प्रेर्यमाणानां कर्णजाप्यं प्रयच्छति ॥ स्वयं रामेण चाप्युक्तं शिवाय शिवकारिणे ॥ ५९ ॥
अतिप्रसन्नचित्तेन अविमुक्तनिवासिने ॥ मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ॥६० ॥
उपदेक्ष्यसि मन्मंत्रं स मुक्तो भविता शिव ॥ अंतकाले मनुष्याणां छिद्यमानेषु कर्मसु ॥ ६१ ॥
अविमुक्तक्षेत्र में मृत्यु के समय साक्षात्‌ भगवान्‌ भूतनाथ कर्मप्रेरित जीवों के कान में मन्त्रोपदेश देते हैं। स्वयं भगवान्‌ श्रीराम ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो अविमुक्तनिवासी कल्याणकारी शिव से यह कहा है कि "शिव! आप जिस-किसी भी मुमूर्षु जीव के दाहिने कान में मेरे मन्त्र का उपदेश करेंगे, वह मुक्त हो जायगा।" अत: भगवान्‌ शिव की कृपाशक्ति से अनुगृहीत हो सभी जीव वहाँ परम गति को प्राप्त होते हैं। मोहिनी ! यह मैंने अविमुक्तक्षेत्र के संक्षेप में बहुत थोड़े गुण बताये हैं। समुद्र के रत्नों की भाँति अविमुक्तक्षेत्र के गुणों का विस्तार अनन्त है।

स्कंद पुराण काशीखंड महात्म के अनुसार : अन्यत्र किया हुआ पाप पुण्य क्षेत्र में, पुण्य क्षेत्र में किया हुआ पाप काशी में प्रवेश से, काशी में किया हुआ पाप अंतर्गृह में, अंतर्गृह में किया हुआ पाप पंचक्रोश करने से धुल जाता है। पंचक्रोश के समय किया हुआ पाप वज्र समान हो जाता है।

तीर्थानि यानि लोकेस्मिञ्जंतूनामघहान्यहो ।। तानि सर्वाणि शुद्ध्यर्थं काशीमायांति नित्यशः ।।७४.३७।।
संसार के समस्त तीर्थ जो प्राणियों के पापों का नाश करते हैं, वे सदैव अपनी शुद्धि के लिए काशी में आते हैं।

न तादृग्धर्मसंभारो लभ्यते क्रतुकोटिभिः । यादृग्वाराणसी वीथी संचारेण पदेपदे ।। ८६.४२ ।।
करोड़ों यज्ञों से भी इतनी पवित्रता प्राप्त नहीं होती, जितनी वाराणसी के मार्गों (गली में) पर चलते हुए हर कदम पर प्राप्त होती है।

धर्मार्थकाममोक्षाणां यद्यत्रास्ति मनोरथः । तदा वाराणसीं याहि याहि त्रैलोक्यपावनीम् ।। ८६.४३ ।।
यदि धर्मपरायणता, धन, प्रेम और मोक्ष की कोई इच्छा है, तो वाराणसी जाओ, फिर तीनों लोकों को पवित्र करने वाले (विश्वनाथ) के पास जाओ।

मणिकर्ण्युपविष्टस्य यत्सुखं जायते सतः । सिंहासनोपविष्टस्य तत्सुखं क्व शतक्रतोः ।।
यद्यपि इन्द्र सिंहासन पर बैठे हैं, फिर भी उन्हें वह सुख कहां है जो मणिकर्णिका में बैठने वाले को प्राप्त होता है?

क्वैकांतशीलत्वमिहास्ति पुंसः क्व चेंद्रियप्रीतिनिवृत्तिरस्ति । क्व योगयुक्तिः क्व च दैवतेज्या काश्यां विनैभिः सहजेन मुक्तिः ।।
काशी में मनुष्य को एकाकी जीवन जिये बिना, कामुक सुखों का आनंद लेना बंद किए बिना, योग का अभ्यास किए बिना और देवताओं की पूजा किए बिना भी स्वाभाविक रूप से मुक्ति मिलती है। (बस वह भयंकर या महापाप में लिप्त न हो)

निर्वाणरमणी यत्र रंकं वाऽरंकमेव वा ।। ब्राह्मणं वा श्वपाकं वा वृणीते प्रांत्यभूषणम् ।। ५३.८८ ।। 
मृतानां यत्र जंतूनां निर्वाणपदमृच्छताम् ।। कोट्यंशेनापि न समा अपि शक्रादयः सुराः ।। ५३.८९ ।।

अंत्यजोपि वरः काश्यां नान्यत्र श्रुतिपारगः। संसारपारगः पूर्वस्त्वंत्यश्चांत्यजतोप्यधः ।।

द्विस्त्रिः कृत्वः स्थापितानि भक्त्या लिंगानि कानिचित् । न तानि पुनरुक्तानि श्रद्धयार्च्यानि सर्वतः ।।
कुछ लिंगों को श्रद्धापूर्वक दो या तीन बार स्थापित किया गया है। उन्हें दोहराया नहीं गया है। उनकी हर प्रकार से निष्ठापूर्वक पूजा की जानी चाहिए।

दशकोटिसहस्राणि तीर्थानि प्रतिवासरम् । त्रिकालमागमिष्यंति कृत्तिवासे न संशयः ।।
निस्संदेह प्रतिदिन तीन बार, दस हजार करोड़ तीर्थ कृतिवास के पास आते हैं। जब वे कृत्तिवासेश्वर के पास पहुंचते हैं तो ये सभी अपने पापों से मुक्त हो जाते हैं।

शृणु देवि विशालाक्षि तीर्थं लिंगमुदाहृतम् ।। जलाशयेपि तीर्थाख्या जाता मूर्ति परिग्रहात् ।।
मूर्तयो ब्रह्मविष्ण्वर्कशिवविघ्नेश्वरादिकाः ।। लिंगं शैवमिति ख्यातं यत्रैतत्तीर्थमेव तत् ।।
हे! विशाल नेत्रों वाली देवी (विशालाक्षी) , सुनिए, लिंग को तीर्थ कहा जाता है। किसी मूर्ति से जुड़े होने के कारण जल के भंडार को भी तीर्थ कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, अर्क (सूर्य), शिव, विघ्नेश्वर (गणेश) आदि की मूर्तियाँ तथा जहाँ शिवलिंग है, वह वास्तव में तीर्थ है।

भौमवारे यदा दर्शस्तदा यः श्राद्धदो नरः । केदारकुंडमासाद्य गयाश्राद्धेन किं ततः ।। ७७.५९ ।।
जब मंगलवार (भौमवार) को अमावास्या तिथि हो, उस समय (काशी के) केदारतीर्थ में आकर जो श्राद्ध करता है, उसे गया में श्राद्ध करने की क्या आवश्यकता।

 स्कन्दपुराणम्/खण्डः ६ (नागरखण्डः)/अध्यायः १०९
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
येषु तीर्थेषु यन्नाम कीर्तनीयं तव प्रभो ॥ तत्कार्त्स्येन मम ब्रूहि यच्चहं तव वल्लभा ॥ ४ ॥
श्रीदेवी (पार्वती) ने कहा: हे प्रभु! वह कौन से नाम है जिसके द्वारा आपको एक विशिष्ट पवित्र स्थान पर महिमामंडित किया जाना चहिये? (अर्थात उन प्रमुख स्थानों में मुख्य लिंग कौन-कौन से हैं) यदि मैं आपकी प्रिय हूँ, तो हे प्रभु, यह पवित्र वर्णन करें..

॥ ईश्वर उवाच ॥
वाराणस्यां महादेवं प्रयागे च महेश्वरम् ॥ नैमिषे देवदेवं च गयायां प्रपितामहम् ॥ ५ ॥
कुरुक्षेत्रे विदुः स्थाणुं प्रभासे शशिशेखरम् ॥ पुष्करे तु ह्यजागन्धिं विश्वं विश्वेश्वरे तथा ॥ ६ ॥
ईश्वर (शिव) ने कहा: वाराणसी में महादेव हूँ, प्रयाग में महेश्वर, नैमिषारण्य में देवदेव, गया में प्रपितामह (प्रपितामहेश्वर), कुरूक्षेत्र में स्थाणु, प्रभास में शशिशेखर, पुष्कर में अजगंधी, और विश्व तीर्थ में विश्वेश्वर नाम से अवस्थित हूँ।

पद्मपुराण (स्वर्गखण्ड) - अध्यायः ३७

तत्र लिंगं पुराणीयं स्थातुं ब्रह्मा यथागतः । तदानीं स्थापयामास विष्णुस्तल्लिंगमैश्वरम् ।।
तत्र स्नात्वा समागम्य ब्रह्मा प्रोवाच तं हरिम् । मयानीतमिदं लिंगं कस्मात्स्थापितवानसि ।।
तमाह विष्णुस्त्वत्तोऽपि रुद्रे भक्तिर्दृढा मम । तस्मात्प्रतिष्ठितं लिगं नाम्ना तव भविष्यति ।।
जब ब्रह्मा पूर्व में प्राचीन लिंग की स्थापना करने के लिए वहां (काशी) आए थे, तो उसी समय विष्णु ने भगवान (शिव) के उस लिंग की स्थापना की थी। वहां स्नान करके (विष्णु के पास) आकर ब्रह्मा ने विष्णु से कहा: "मैं यह लिंग लाया था। आपने इसे क्यों स्थापित किया?” विष्णु ने उससे कहा: “रुद्र के प्रति मेरी भक्ति आपकी अपेक्षा अधिक प्रबल है। इसलिए मैंने लिंग स्थापित किया है। इसका नाम आपके (ब्रह्मा के) नाम पर ही रखा जाएगा।”

पद्मपुराण (स्वर्गखण्ड) - अध्यायः ३३

देवीदं सर्वगुह्यानां स्थानं प्रियतरं मम । मद्भक्तास्तत्र गच्छंति मामेव प्रविशंति च ।।१५।।
दत्तं जप्तं हुतं चेष्टं तपस्तप्तं कृतं च यत् । ध्यानमध्ययनं ज्ञानं सर्वं तत्राक्षयं भवेत् ।।१६।।
जन्मांतरसहस्रेषु यत्पापं पूर्वसंचितम् । अविमुक्तं प्रविष्टस्य तत्सर्वं व्रजति क्षयम् ।।१७।।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च वर्णसंकराः । स्त्रियो म्लेच्छाश्च ये चान्ये संकीर्णाः पापयोनयः ।।१८।।
कीटाः पिपीलिकाश्चैव ये चान्ये मृगपक्षिणः । कालेन निधनं प्राप्ता अविमुक्ते वरानने ।।१९।।
चंद्रार्द्धमौलयस्त्र्यक्षा महावृषभवाहनाः । शिवे मम पुरे देवि जायंते तत्र मानवाः ।।२०।।
नाविमुक्ते मृतः कश्चिन्नरकं याति किल्बिषी । ईश्वरानुगृहीता हि सर्वे यांति परां गतिम् ।।२१।।
हे देवी, यह स्थान मुझे समस्त रहस्यों से भी अधिक प्रिय है। मेरे भक्त वहाँ जाकर मुझमें ही प्रवेश करते हैं। वहां जो कुछ दिया जाता है, जो कुछ वहां गुनगुनाया जाता है, जो कुछ वहां किया जाता है, जो कुछ वहां किया जाता है, जो भी वहां तप किया जाता है तथा वहां जो भी ध्यान, अध्ययन या ज्ञान (प्राप्त) किया जाता है वह अक्षय हो जाता है। अविमुक्त में प्रवेश करने पर मनुष्य के पिछले हजारों जन्मों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पुरुष-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, विभिन्न जातियों के मिश्रण, महिलाएं, म्लेच्छ, निम्न जन्म की अन्य मिश्रित जनजातियां, कीड़े, चींटियाँ, अन्य जंतु और पक्षी, जब वे अविमुक्त में प्राण त्याग करते हैं, तो हे विशालाक्षी! वे मेरे लोक (शिव लोक) को प्राप्त होते हैं, उनके सिर पर अर्धचंद्र , तीन आँखें (त्रिलोचन) और उनके वाहन के रूप में (वृष) बैल होते हैं। (अर्थात शिव स्वरुप हो जाते हैं।) अविमुक्त में मरने वाला कोई भी पापी नरक नहीं जाता। प्रभु की कृपा प्राप्त होने के कारण वे सभी सर्वोच्च पद पर आसीन होते हैं। 

स्कन्दपुराण खण्ड : ४ (काशीखण्ड)
अन्यत्र यत्कृतं पापं तत्काश्यां परिणश्यति ।। वाराणस्यां कृतं पापमंतर्गेहे प्रणश्यति ।। ६४.६८ ।।
अंतर्गेहे कृतं पापं पैशाच्यनरकावहम् ।। पिशाचनरकप्राप्तिर्गच्छत्येव बहिर्यदि ।।६४. ६९ ।।
न कल्पकोटिभिः काश्यां कृतं कर्म प्रमृज्यते ।। किंतु रुद्रपिशाचत्वं जायतेऽत्रायुतत्रयम्।। ६४.७० ।।
वाराणस्यां स्थितो यो वै पातकेषु रतः सदा ।। योनिं प्राप्यापि पैशाचीं वर्षाणामयुतत्रयम् ।। ६४.७१ ।।
पुनरत्रैव निवसञ्ज्ञानं प्राप्स्यत्यनुत्तमम् ।। तेन ज्ञानेथ संप्राप्ते मोक्षमाप्स्यत्यनुत्तमम् ।। ६४.७२ ।। 

काशीकांती च मायाख्या त्वयोध्याद्वारवत्यपि। मथुरावंतिका चैताः सप्त पुर्योत्र मोक्षदाः ।।६.६८।।
श्रीशैलो मोक्षदः सर्वः केदारोपि ततोऽधिकः। श्रीशैलाच्चापि केदारात्प्रयागं मोक्षदं परम् ।।६.६९।।
प्रयागादपि तीर्थाग्र्यादविमुक्तं विशिष्यते। यथाविमुक्ते निर्वाणं न तथाक्वाप्यसंशयम् ।।६.७०।।
अन्यानि मुक्तिक्षेत्राणि काशीप्राप्तिकराणि च। काशीं प्राप्याऽपि मुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभिः ।।६.७१।।
पृथिवी पर काशी, काञ्ची, मायापुरी, द्वारका, अयोध्या, मथुरा तथा अवन्ती को मोक्षदा सप्तपुरी कहा गया है। समस्त श्रीशैल मुक्तिप्रद है। उससे अधिक केदार है। प्रयाग तो श्रीशैल तथा केदार से भी उत्तम तथा मुक्तिदायक है। तीर्थराज प्रयाग से भी विशिष्ट है अविमुक्त क्षेत्र (काशी)। जैसा निर्वाण अविमुक्त क्षेत्र में प्राप्त होता है वैसा कहीं नहीं होता, यह निश्चित है। अन्य सभी मुक्तिक्षेत्र काशी प्राप्ति कराते हैं। काशी प्राप्ति के अनंतर ही निर्वाण प्राप्ति होती है। अन्य प्रकार से किंवा कोटितीर्थ निवास द्वारा भी निर्वाण मुक्ति का लाभ नहीं होता।

ब्रह्मांडोदरवर्तीनि यानि तीर्थानि सर्वतः । ऊर्जे यत्र समायांति स्वाघौघ परिनुत्तये ।।
सर्वदा यत्र सर्वाणि दशम्यादिदिनत्रयम् । तिष्ठंति तीर्थवर्याणि निजनैर्मल्यहेतवे ।।
संपूर्ण ब्रह्मांड के समस्त तीर्थ अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए कार्तिक माह में उस तीर्थ (पंचनद) में प्रवेश करते हैं। हमेशा ये समस्त उत्कृष्ट तीर्थ अपनी अशुद्धियों से मुक्ति के लिए दशमी (दसवें दिन) से तीन दिनों तक वहां रहते हैं।
भूरिशः सर्वतीर्थानि मध्य काशि पदेपदे ।। परं पांचनदः कैश्चिन्महिमानापि कुत्रचित् ।।
काशी में पग-पग पर सभी प्रकार के तीर्थ हैं। लेकिन पंचनद की महिमा अद्वितीय है। यह उनमें से किसी के द्वारा भी अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हुआ है।

पद्मपुराणम्/खण्डः_३_(स्वर्गखण्डः)/अध्यायः ३३
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च वर्णसंकराः । स्त्रियो म्लेच्छाश्च ये चान्ये संकीर्णाः पापयोनयः ॥१८॥
कीटाः पिपीलिकाश्चैव ये चान्ये मृगपक्षिणः । कालेन निधनं प्राप्ता अविमुक्ते वरानने ॥१९॥
चंद्रार्द्धमौलयस्त्र्यक्षा महावृषभवाहनाः । शिवे मम पुरे देवि जायंते तत्र मानवाः ॥२०॥
मोक्षं सुदुर्ल्लभं मत्वा संसारं चातिभीषणम् । अश्मना चरणौ भंक्त्वा वाराणस्यां वसेन्नरः ॥२२॥
दुर्ल्लभा तपसा चापि मृतस्य परमेश्वरि । यत्र तत्र विपन्नस्य गतिः संसारमोक्षणी ॥२३॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्रीजाति, म्लेच्छ तथा अन्यान्य मिश्रित जातियों के मनुष्य, चाण्डाल आदि, पापयोनि में उत्पन्न जीव, कीड़े, चींटियाँ तथा अन्य पशु-पक्षी आदि जितने भी जीव हैं, वे सब समयानुसार अविमुक्त क्षेत्र में मरने पर मेरे अनुग्रह से परम गति को प्राप्त होते हैं। ये समस्त जीव चंद्रमौलि, त्रिलोचन (शिव स्वरूप) हो वृषवाहन पर आरूढ़ होकर शिवलोक को जाते हैं। मोक्ष को अत्यन्त दुर्लभ और संसार को अत्यन्त भयानक समझकर मनुष्य को काशीपुरी में निवास करना चाहिये। जहाँ-तहाँ मरने वाले को संसार-बन्धन से छुड़ाने वाली सद्गति तपस्या से भी मिलनी कठिन है। किन्तु वाराणसीपुरी में बिना तपस्या के ही ऐसी गति अनायास प्राप्त हो जाती है।
जपेच्च जुहुयान्नित्यं ददात्यर्चयतेऽमरान् । वायुभक्षश्च सततं वाराणस्यां स्थितो नरः ॥३८॥
यदि पापो यदि शठो यदि वा धार्मिको नरः । वाराणसीं समासाद्य पुनाति सकलं कुलम् ॥३९॥
वाराणस्यां येऽर्चयंति महादेवं स्तुवंति वै । सर्वपापविनिर्मुक्तास्ते विज्ञेया गणेश्वराः ॥४०॥
वाराणसीपुरी में निवास करने वाला मनुष्य जप, होम, दान एवं देवताओं का नित्यप्रति पूजन करके, निरन्तर वायु पीकर रहने का फल प्राप्त कर लेता है। पापी, शठ और अधार्मिक मनुष्य भी यदि वाराणसी में चला जाय तो वह अपने समूचे कुल को पवित्र कर देता है। जो वाराणसीपुरी में मेरी (महादेव की) पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। देवदेवेश्वरि जो मेरे भक्तजन वाराणसीपुरी में निवास करते हैं, वे एक ही जन्म में परम मोक्ष को पा जाते हैं।
वरणायास्तथा चास्या मध्ये वाराणसीपुरी । तत्रैव संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवंविमुक्तकम् ॥५०॥
वाराणस्याः परं स्थानं न भूतं न भविष्यति । यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवीश्वरः ॥५१॥
वरणा और असी नदियों के बीच में वाराणसीपुरी स्थित है तथा उस पुरी में ही नित्यअविमुक्त तत्त्व की स्थिति है। वाराणसी से उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ हैं और न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर (महादेव) मैं विराजमान हूँ।
॥ नारद उवाच ॥
यथानारायणः श्रेष्ठो देवानां पुरुषोत्तमः । यथेश्वराणां गिरिशः स्थानानामेतदुत्तमम् ॥५८॥
ये स्मरंति सदा कालं वदंति च पुरीमिमाम् । तेषां विनश्यति क्षिप्रमिहामुत्र च पातकम् ॥६१॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वाराणस्यां वसेन्नरः । योगी वाप्यथवायोगी पापी वा पुण्यकृत्तमः ॥६४॥
नारदजी कहते हैं- राजन्! जैसे देवताओं में पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरों में महादेव जी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानों में यह काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरी का स्मरण और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और पूर्वजन्म का भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है;  इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो अथवा पापी - प्रत्येक मनुष्य को पूर्ण प्रयत्न करके वाराणसीपुरी में निवास करना चाहिये।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् खण्डः ३ (गणपतिखण्डः) - अध्यायः ४४

।। नारायण उवाच ।।
नास्ति वेदात्परं शास्त्रं नहि कृष्णात्परः सुरः । नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न पुष्पं तुलसीदलात् ।। ७२ ।।
वेदों से बढ़कर कोई धर्मग्रंथ नहीं है। भगवान कृष्ण (नारायण) से बढ़कर कोई देवता नहीं है। गंगा से बढ़कर कोई पवित्र तीर्थ (नदी) नहीं है। तुलसी पत्र से बढ़कर कोई दूसरा पत्र (पुष्प) नहीं है।
नास्ति क्षमावती भूमेः पुत्रान्नास्त्यपरः प्रियः । न च दैवात्परा शक्तिर्नैकादश्याः परं व्रतम् ।। ७३ ।।
क्षमा में पृथ्वी से बढ़कर कोई दूसरा नहीं है। पुत्र से भी बढ़कर कोई प्रिय नहीं है। प्रारब्ध से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है। एकादशी से बढ़कर कोई व्रत नहीं है।
शालग्रामात्परो यन्त्रो न क्षेत्रं भारतात्परम् । परं पुण्यस्थलानां च पुण्यं वृन्दावनं यथा ।। ७४ ।।
शालग्राम से बढ़कर कोई दूसरा यंत्र नहीं है। भारत भूमि से भी अधिक पवित्र कोई अन्य स्थान नहीं है। अन्य पवित्र स्थानों में, वृन्दावन से बढ़कर कोई अन्य पवित्र स्थान नहीं है।
मोक्षदानां यथा काशी वैष्णवानां यथा शिवः । न पार्वत्याः परा साध्वी न गणेशात्परो वशी ।।७५।।
काशी से बढ़कर मोक्ष प्रदान करने वाला कोई अन्य स्थान नहीं है। वैष्णवों में स्वयं शिव से बढ़कर कोई अन्य नहीं है। पार्वती से बढ़कर कोई साध्वी नहीं है। गणेश से बढ़कर कोई संयमी देवता नहीं है।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः) - अध्यायः ८५
।। श्रीभगवानुवाच ।।
पवित्रश्चातितेजस्वी तस्मद्भीताः सुराः सदा । नदीषु च यथा गङ्गा तीर्थेषु पुष्करं यथा ।। २०८ ।।
पुरीषु च यथा काशी यथा ज्ञानिषु शंकरः । शास्त्रेषु च यथा वेदा यथाऽश्वत्थश्च पादपे ।। २०९ ।।
मम पूजा तपस्यासु व्रतेष्वनशनं यथा । तथा जातिषु सर्वासु ब्राह्मणाः श्रेष्ठ एव च ।। २१० ।।
विप्रणदेषु तीर्थानि पुण्यानि च व्रतानि च । विप्रपादरजः शुद्धं पापव्याधिविमर्दनम् ।। २११ ।।
जैसे सभी नदियों में गंगा, तीर्थों में पुष्कर, पुरियों में काशी, ज्ञानियों में शिव, शास्त्रों में वेद, वृक्षों में पीपल, तपों में मेरी (कृष्ण) पूजा, विभिन्न प्रकार व्रत करने वालों में तप और उपवास के प्रकार हैं, उसी प्रकार सभी लोगों में ब्राह्मण पूजनीय हैं। सभी तीर्थ ब्राह्मणों के चरणों में निवास करते हैं और ब्राह्मणों के पैरों की धूल शुभ मानी जाती है और पापों और बीमारियों को नष्ट कर देती है; उनका आशीर्वाद कल्याण प्रदान करता है।

उन काशीवासियों के लिए जो माघ मास में काशी से बाहर स्नान करते हैं...
॥ नारदपुराण ॥
प्रयागे माघमासेतुसम्यक्स्नानस्य यत्फलम् ॥ तत्फलंस्याद्दिनैकेनकाश्यांपंचनदेध्रुवम् ॥
प्रयाग में माघ मास पर्यन्त विधिपूर्वक स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है, वह काशी के पञ्चगंगा तीर्थ में (मात्र) एक ही दिन के स्नान से प्राप्त हो जाता है।
अब स्वाभाविक प्रश्न मन में आया ऐसा क्यों? प्रयागराज तो तीर्थराज है.....
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)
तीर्थानि यानि लोकेस्मिञ्जंतूनामघहान्यहो ॥ तानि सर्वाणि शुद्ध्यर्थं काशीमायांति नित्यशः ॥७४.३७॥
संसार के समस्त तीर्थ जो प्राणियों के पापों का नाश करते हैं, वे सदैव अपनी शुद्धि के लिए काशी में आते हैं।
अब ये उपरोक्त श्लोक तो और समस्या उत्पन्न कर रहा है....कोई प्रमाण की ऐसा वास्तव में है?
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५९
॥ स्कंद उवाच ॥
कथयामि कथामेतां नमस्कृत्य महेश्वरम् ॥  सर्वाघौघ प्रशमनीं सर्वश्रेयोविधायिनीम् ॥ १२ ॥
यथा पंचनदं तीर्थं काश्यां प्रथितिमागतम् ॥  यन्नामग्रहणादेव पापं याति सहस्रधा ॥ १३ ॥
प्रयागोपि च तीर्थेशो यत्र साक्षात्स्वयं स्थितः ॥ पापिनां पापसंघातं प्रसह्य निजतेजसा ॥ १४ ॥
हरंति सर्वतीर्थानि प्रयागस्य बलेन हि ॥  तानि सर्वाणि तीर्थानि माघे मकरगे रवौ ॥ १५ ॥
प्रत्यब्दं निर्मलानि स्युस्तीर्थराज समागमात् ॥  प्रयागश्चापि तीर्थेंद्रः सर्वतीर्थार्पितं मलम् ॥ १६ ॥
महाघिनां महाघं च हरेत्पांचनदाद्बलात् ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- महेश्वर को प्रणाम करके मैं अशेषकल्याणप्रदा तथा सर्वपाप प्रशमनी इस कथा को कहता हूं कि काशी में पंचनद तीर्थ क्यों प्रसिद्ध है? साक्षात्‌ हरि का अवस्थान क्षेत्र प्रयाग भी तीर्थराज अवश्य है। प्रयागराज के बल से ही सभी तीर्थ अपनी-अपनी शक्ति के क्रमानुसार पापीगण के पाप का हरण करते रहते हैं और माघमास में जब सूर्यदेव मकर राशीस्थ होते हैं, तब वे सभी तीर्थ वहां स्नान करके निर्मल हो जाते हैं, लेकिन स्वयं तीर्थराज प्रयाग इस (काशीस्थ) पंचनद तीर्थ के बल से सभी तीर्थों के मल का तथा महापातकी लोगों के महापापों का हरण करते हैं। 
अब सबसे महत्वपूर्ण एवं अति गोपनीय रहस्य जो भगवान स्कन्द महर्षि अगस्त्य से कहते हैं -
यं संचयति पापौघमावर्षं तीर्थनायकः ॥ तमेकमज्जनादूर्जे त्यजेत्पंचनदे ध्रुवम् ॥ १७ ॥
तीर्थराज प्रयाग में वर्षपर्यनत की जो पापराशि संचित होती है, वह कार्त्तिक मास में काशीस्थ पंचनदतीर्थ में तीर्थराज प्रयाग स्नानमात्र से त्याग देते हैं।
प्रयागे माघमासे तु सम्यक्स्नातस्य यत्फलम् । तत्फलं स्याद्दिनैकेन काश्यां पंचनदे ध्रुवम् ।।
काशी में पंचनद (पंचगंगा) में मात्र एक ही दिन पवित्र स्नान करने से व्यक्ति को निश्चित रूप से वह लाभ प्राप्त होता है जो व्यक्ति को पूरे माघ महीने में प्रयाग में स्नान करने से प्राप्त होता है।
पंचामृतानां कलशैरष्टोत्तरशतोन्मितैः । तुलितोधिकतां यातो बिंदुः पंचनदांभसः ।।
पंचनद के जल की एक बूंद को जब एक सौ आठ घड़ों में भरे पंचामृत से तौला गया तो वह एक सौ आठ घड़ों में भरे पंचामृत से अधिक हो गई या पंचगंगा की एक बूंद जल से कराया गया देवता को स्नान १०८ घड़ों में भरे पंचामृत से कराए गए स्नान के समतुल्य हो जाता है।
वंध्यापि वर्षपर्यंतं स्नात्वा पंचनदे ह्रदे । समर्च्य मंगलां गौंरीं पुत्रं जनयति ध्रुवम् ।।
एक वर्ष तक पंचनद ह्रद में पवित्र स्नान करने और मंगला गौरी की पूजा करने के बाद एक बांझ महिला भी निश्चित रूप से एक पुत्र को जन्म देगी।
यैर्न पंचनदे स्नातं कार्तिके पापहारिणि । तेऽद्यापि गर्भे तिष्ठंति पुनस्ते गर्भवासिनः ।।
जो लोग सभी पापों को दूर करने वाले कार्तिक महीने में पंचनद में पवित्र स्नान नहीं करते हैं, वे आज भी माँ के गर्भ में ही रहते हैं। वे फिर से गर्भ में रहने के लिए अभिशप्त हैं।
कृते धर्मनदं नाम त्रेतायां धूतपापकम् । द्वापरे बिंदुतीर्थं च कलौ पंचनदं स्मृतम् ।।
कृतयुग (सतयुग) में तीर्थ का नाम धर्मनद था; त्रेता में यह धूतपापक है; द्वापर में यह बिंदु तीर्थ है और कलियुग में इसे पंचनद (पंचगंगा) के रूप में स्मरण किया जाता है।

लिङ्गपुराण (पूर्वभाग) - अध्यायः १०३
पापिनां यत्र मुक्तिः स्यान्मृतानामेकजन्मना।। अन्यत्र तु कृतं पापं वाराणस्यां व्यपोहति।। १०३.७५ ।।
वाराणस्यां कृतं पापं पैशाच्यनरकावहम्।। कृत्वा पापसहस्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम्।। १०३.७६ ।।
जो पापी यहां मरते हैं उन्हें इस जन्म में ही मुक्ति मिल जाती है। मनुष्य द्वारा अन्यत्र किये गये पापों को वाराणसी में प्रवेश करते ही (तत्क्षण) नष्ट कर देती है। वाराणसी में किए गए पाप, पापी को पिशाच बना देते हैं और उसे नरक की ओर ले जाते हैं। 

काशीखण्डः अध्यायः ९७

वापीनां चापि मूर्तीनां कः संख्यातुं प्रभुर्भवेत् ।। आनंदकाननस्थानि तृणान्यपि परं वरम् ।।६८।। 
दिवौकसोपि नान्यत्र यत्पुनर्जन्मभाजनम्।। सर्वलिंगमयी काशी सर्वतीर्थेकजन्मभूः ।।६९।।
यहां उपस्थित लिंगों, कुओं, झीलों, तालाबों और मूर्तियों की संख्या की गणना करने में कौन सक्षम है? आनंदकानन में उगने वाली घास भी श्रेष्ठ हैं। अन्यत्र कोई स्थान स्वर्गवासियों के लिए भी पुनर्जन्म लेने के लिए उपयुक्त नहीं है। काशी समस्त लिंगों से परिपूर्ण है। यह सभी तीर्थों का उद्गम स्थल है। यदि इसे शरीर की मृत्यु तक देखा और परोसा जाता है तो यह स्वर्गीय सुख और मोक्ष प्रदान करती है।

लक्ष्मीनारायणसंहिता खण्डः १ / कृतयुगसन्तान अध्यायः ४७८

।। श्रीनारायण उवाच ।।
शृणु लक्ष्मि! कथयामि व्यासस्य चरितं शुभम् । आनन्दकानने नित्यं वसतः शास्त्रशेवधेः ।। १ ।।
बभाषे त्वेकदा शिष्यान् श्लोकं पठन्त्विमं हि सः। विद्यानां त्वाश्रयः काशी काशी लक्ष्म्याः पराश्रयः ।। २ ।।
मुक्तिक्षेत्रमिदं काशी काशी सर्वा त्रयीमयी। कश्च ब्रह्मा शश्च शंभुरश्च विष्णुस्त्रयोऽत्र वै ।। ३ ।।
ब्राह्मी ब्रह्म परब्रह्म त्रयः काश्यां वसन्ति हि। भोगो मोक्षस्तथा दास्यं लभ्यन्तेऽत्र त्रयोऽपि च ।। ४ ।।

काशीखण्डः अध्यायः ३९

हृदि संचिंत्य विश्वेशं क्षणं यद्विनिमील्यते।। देवस्य दक्षिणे भागे महायोगोयमुत्तमः ।। १० ।।
इदमेव तपोत्युग्रं यदिंद्रिय विलोलताम् ।। निषिध्य स्थीयते काश्यां क्षुत्तापाद्यवमन्य च ।। ११ ।।
मासि मासि यदाप्येत व्रताच्चांद्रायणात्फलम् ।। अन्यत्र तदिहाप्येत भूतायां नक्तभोजनात् ।। १२ ।।
यदि कोई भगवान के दाहिनी ओर अपने हृदय में विश्वेश स्मरण करके एक पल के लिए अपनी आँखें बंद कर लेता है, तो यह सबसे उत्कृष्ट महायोग है। यदि कोई इन्द्रियों की चंचलता को वश में कर लेता है और भूख-प्यास का सर्वथा त्याग करके काशी में निवास करता है, तो यही घोर तपस्या है। यदि कोई यहां चौदहवें चंद्र दिवस पर केवल रात में भोजन करता है, तो वह लाभ प्राप्त करता है जो हर महीने चंद्रायण व्रत करने से प्राप्त होता है।

मासोपवासादन्यत्र यत्फलं समुपार्ज्यते ।। श्रद्धयैकोपवासेन तत्काश्यां स्यादसंशयम्।।१३।।
यदि कोई काशी में एक भी उपवास (उपवास) बड़ी श्रद्धा के साथ रखता है, तो उसे निश्चित रूप से जो एक महीने उपवास का लाभ अन्यत्र करने पर मिलता है। काशी में एक ही दिन मे प्राप्त हो जाता है।

चातुर्मास्य व्रतात्प्रोक्तं यदन्यत्र महाफलम् ।। एकादश्युपवासेन तत्काश्यां स्यादसंशयम् ।। १४ ।।
निस्संदेह, काशी में (केवल एक) एकादशी उपवास करने से अन्यत्र चातुर्मास्य व्रत के फल के रूप में वर्णित महान लाभ प्राप्त होता है।

षण्मासान्न परित्यागाद्यदन्यत्र फलं लभेत्।। शिवरात्र्युपवासेन तत्काश्यां जायते ध्रुवम् ।। १५ ।।
शिवरात्रि के दिन काशी में व्रत करने से, अन्यत्र छह मास तक पका हुआ भोजन न करने से जो पुण्य व लाभ प्राप्त होता है। निश्चित ही काशी में केवल एक दिवस शिवरात्रि व्रत से ही प्राप्त हो जाता है।

वर्षं कृत्वोपवासानि लभेदन्यत्र यद्व्रती ।। तत्फलं स्यात्त्रिरात्रेण काश्यामविकलं मुने ।। १६ ।।
हे ऋषि, यदि कोई काशी में तीन रात्रियों तक उपवास करता है, तो अन्यत्र जो व्रती एक वर्ष व्रत करने पर जो फल प्राप्त करते हैं। काशी में केवल तीन रात्रियों के उपवास से ही प्राप्त हो जाता है।

मासिमासि कुशाग्रांबु पानादन्यत्र यत्फलम् ।। काश्यामुत्तरवाहिन्यामेकेन चुलुकेन तत् ।। १७ ।।
काशी में उत्तरवाहिनी गंगाजल को पीने से, चाहे वह एक चुल्लू ही क्यों न हो, अन्यत्र हर मास कुश के अग्र भाग से जल पीने से होने वाले लाभ की प्राप्ति होती है।

काशीखण्डः अध्यायः ४६

।। मार्तंड उवाच ।।
अवाप्य काशीं दुष्प्रापां को जहाति सचेतनः । रत्नं करस्थमुत्सृज्य कः काचं संजिघृक्षति ।। ४६.३८ ।।
वाराणसीं समुत्सृज्य यस्त्वन्यत्र यियासति । हत्वा निधानं पादेन सोर्थमिच्छति भिक्षया ।। ४६.३९ ।।
पुत्रमित्रकलत्राणि क्षेत्राणि च धनानि च । प्रतिजन्मेह लभ्यंते काश्येका नैव लभ्यते ।। ४६.४० ।।
येन लब्धा पुरी काशी त्रैलोक्योद्धरणक्षमा । त्रैलोक्यैश्वर्यदुष्प्रापं तेन लब्धं महासुखम् ।। ४६.४१ ।।
भगवान मार्तंड (सूर्य नारायण) ने कहा : अत्यंत कठिन काशी को पाकर कौन सा ज्ञानी प्राणी उसे त्याग देता है? कौन अपने हाथ से गहना देकर बेकार कांच के टुकड़े इकट्ठा करना चाहेगा। जो काशी को छोड़कर कहीं और जाने की इच्छा रखता है, वह अपने पैर से खजाने को लात मारता है और भीख माँगकर धन प्राप्त करना चाहता है।  पुत्र, मित्र, पत्नियाँ, खेत और धन हर जन्म में प्राप्त होते हैं लेकिन काशी अकेले प्राप्त नहीं होती है। जिस पुरुष ने तीनों लोकों का उद्धार करने वाली काशी नगरी को प्राप्त किया है, वह महान् सुख, जो तीनों लोकों के धन से भी दुर्लभ है, प्राप्त हो गया है।

कुपितोपि हि मे रुद्रस्तेजोहानिं विधास्यति । काश्यां च लप्स्ये तत्तेजो यद्वै स्वात्मावबोधजम् ।। ४६.४२ ।। इतराणीह तेजांसि भासंते तावदेव हि । खद्योताभानि यावन्नो जृंभते काशिजं महः ।। ४६.४३ ।। 
इति काशीप्रभावज्ञो जगच्चक्षुस्तमोनुदः । कृत्वा द्वादशधात्मानं काशीपुर्यां व्यवस्थितः ।। ४६.४४ ।।
क्रोधित रुद्र मेरे तेज में कुछ कमी कर सकते हैं। लेकिन काशी में, मैं उस वैभव को प्राप्त करूँगा जो आत्म-साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। जब तक काशी का तेज नहीं पनपता, तब तक जुगनू की रोशनी से अन्य ज्योतिर्मय चमकते हैं। इस प्रकार अंधकार को दूर करने वाले, ब्रह्मांड के नेत्र (मार्तण्ड/सूर्य) काशी की शक्ति से परिचित, ने स्वयं को बारह में विभाजित किया और स्वयं को काशीनगरी में स्थापित किया।

लोलार्क उत्तरार्कश्च सांबादित्यस्तथैव च । चतुर्थो द्रुपदादित्यो मयूखादित्य एव च ।। ४६.४५ ।। 
खखोल्कश्चारुणादित्यो वृद्धकेशवसंज्ञकौ । दशमो विमलादित्यो गंगादित्यस्तथैव च ।। ४६.४६ ।। 
द्वादशश्च यमादित्यः काशिपुर्यां घटोद्भव । तमोऽधिकेभ्यो दुष्टेभ्यः क्षेत्रं रक्षंत्यमी सदा ।। ४६.४७ ।।
तस्यार्कस्य मनोलोलं यदासीत्काशिदर्शने । अतो लोलार्क इत्याख्या काश्यां जाता विवस्वतः ।। ४६.४८ ।।
हे कुम्भयोनि, बारह आदित्य (सूर्य) निम्नलिखित हैं: (1) लोलार्क, (2) उत्तरार्क, (3) संबादित्य, (4) द्रुपदादित्य, चौथा, (5) मयूखादित्य, (6) खाखोलका, ( 7) अरुणादित्य, (8) वृद्धादित्य, (9) केशवादित्य, (10) विमलादित्य, (11) गंगादित्य, और (12) यमादित्य, बारहवें, काशी नगरी में। ये प्रबल तामस गुण वाले दुष्टों से पवित्र स्थान (काशी) की सदैव रक्षा करते हैं।

चूंकि सूर्य का मन काशी को देखने के लिए बहुत उत्सुक (लोल) हो गया था, इसलिए काशी में सूर्य ने लोलार्क नाम प्राप्त किया।

अतीताब्दशता मूर्ति: या पूज्या स्यान्महत्तमै:। खण्डिता स्फुटिताsप्यर्च्या अन्यथा दुखदायका:।।
सौ वर्ष से अधिक प्राचीन मूर्ति यदि खण्डित हो जाये या चटक जाए तब भी पूजा के योग्य है, किन्तु इससे कम अवधि की खण्डित या चटकी प्रतिमा का पूजन दुःखप्रद होता है। [रूपमण्डन - १/११]

काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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