HariHar
(हरिहर)
भगवान नारायण की उत्पत्ति : शिवपुराणम्/संहिता:२(रुद्रसंहिता)/खण्डः१(सृष्टिखण्डः)/अध्यायः६
देवीभागवतपुराण (स्कन्धः ११) - अध्यायः १२
॥ श्रीनारायण उवाच ॥
द्विजः कुर्याद्धि मन्त्रेण तत्त्यागी पतितो भवेत् । उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च भक्त्या नैवाचरन्ति ये ॥ १४ ॥
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः । येन भस्मोक्तमार्गेण धृतं न मुनिपुङ्गव ॥ १५ ॥
तस्य विद्धि मुने जन्म निष्कलं सौकरं यथा । येषां वपुर्मनुष्याणां त्रिपुण्ड्रेण विना स्थितम् ॥ १६ ॥
श्रीनारायण बोले- जो लोग भक्तिपूर्वक सभी अंगों में भस्म नहीं लगाते तथा त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते, करोड़ों जन्मों में भी इस संसारसे उनकी मुक्ति नहीं हो सकती। हे मुनिवर! जिस मनुष्य ने विहित मार्गसे भस्म धारण नहीं किया; हे मुने! आप उसके जन्मको सूअर के जन्म की भाँति निरर्थक समझिये ।
अब यहाँ ध्यान देना है शैव, वैष्णव तथा शाक्तों को...
श्मशानसदृशं तत्स्यान्न प्रेक्ष्यं पुण्यकृज्जनैः । धिग्भस्मरहितं भालं धिग्ग्राममशिवालयम् ॥ १७ ॥
धिगनीशार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवाश्रयाम् । त्रिपुण्ड्रं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेव ते ॥ १८ ॥
श्रीनारायण बोले- जिन मनुष्योंका शरीर बिना त्रिपुण्ड्र के रहता है, उनका शरीर श्मशान के तुल्य होता है, पुण्यात्मा व्यक्तियों को ऐसे शरीर पर दृष्टि तक नहीं डालनी चाहिये। भस्मरहित मस्तक को धिक्कार है, शिवालय विहीन ग्राम को धिक्कार है, शिव-अर्चन से विमुख व्यक्ति के जन्म को धिक्कार है तथा शिव का आश्रय प्रदान न कराने वाली विद्या को धिक्कार है। जो लोग त्रिपुण्ड़की निन्दा करते हैं, वे वस्तुतः शिवकी ही निन्दा करते हैं।
पद्मपुराणम्/खण्डः२(भूमिखण्डः)/अध्यायः७१
ये कुर्वंति नमस्कारमीश्वराय क्वचित्क्वचित् ॥
संपर्कात्कौतुकाल्लोभात्तद्विमानं लभंति ते । नामसंकीर्तनाद्वापि प्रसंगेन शिवस्य यः ॥१५॥
कुर्याद्वापि नमस्कारं न तस्य विलयो भवेत् । इत्येता गतयस्तत्र महत्यः शिवकर्मणि ॥१६॥
कर्मणाभ्यंतरेणापि पुंसामीशानभावतः । प्रसंगेनापि ये कुर्युः शंकरस्मरणं नराः ॥१७॥
तैर्लभ्यं त्वतुलं सौख्यं किं पुनस्तत्परायणैः । विष्णुचिंतां प्रकुर्वंति ध्यानेन गतमानसाः ॥१८॥
ते यांति परमं स्थानं तद्विष्णोः परमं पदम् । शैवं च वैष्णवं रूपमेकरूपं नरोत्तम ॥१९॥
द्वयोश्च अंतरं नास्ति एकरूपमहात्मनोः । शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे ॥२०॥
शिवस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिवः । एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥२१॥
त्रयाणामंतरं नास्ति गुणभेदाः प्रकीर्तिताः । शिवभक्तोसि राजेंद्र तथा भागवतोसि वै ॥२२॥
तेन देवाः प्रसन्नास्ते ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥
मातलि ने कहा- राजन्! जो लोग भगवान् शंकर को नमस्कार करते हैं, उन्हें शिवलोक का विमान प्राप्त होता है। जो प्रसंगवश भी शिव का स्मरण या नाम कीर्तन अथवा उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुख की प्राप्ति होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजन में ही लगे रहते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या है जो ध्यान के द्वारा भगवान् श्रीविष्णु का चिन्तन करते हैं और सदा उन्हीं में मन लगाये रहते हैं, वे उन्हीं के परम पद को प्राप्त होते हैं। नरश्रेष्ठ! श्रीशिव और भगवान् श्रीविष्णु के लोक एक-से ही हैं, उन दोनों में कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि उन दोनों महात्माओं - श्रीशिव तथा श्रीविष्णु का स्वरूप भी एक ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी विष्णु को नमस्कार है। श्रीशिव के हृदय में विष्णु और श्रीविष्णु के हृदय में भगवान् शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव - ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन तीनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है, केवल गुण का भेद बतलाया गया है। राजेन्द्र आप श्रीशिव के भक्त तथा भगवान् विष्णु के अनुरागी हैं; अतः आप पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता प्रसन्न हैं।
स्कन्दोपनिषत्
अच्युतोऽस्मि महादेव तव कारुण्यलेशकः । विज्ञानघन एवास्मि शिवोऽस्मिकिमतः परम् ॥१॥
न निजं निजवद्भात्यन्तःकरणजृम्भणात् । अन्तः करणनाशेनसंविन्मात्रस्थितो हरिः ॥२॥
हे महादेव! आपकी लेश मात्र कृपा प्राप्त होने से मैं अच्युत (पतित या विचलित न होने वाला) विशिष्ट ज्ञान-पुझ एवं शिव (कल्याणकारी) स्वरूप बन गया हूँ, इससे अधिक और क्या चाहिए? जब साधक अपने पार्थिव स्वरूप को भूलकर अपने अन्त:करण का विकास करते हुए सबको अपने समान प्रकाशमान मानता है, तब उसका अपना अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) समाप्त होकर वहाँ एक मात्र परमेश्वर का अस्तित्व रहता है।
संविन्मात्रस्थितश्चाहमजोऽस्मि किमतः परम् ।व्यतिरिक्तं जडं सर्वं स्वप्नवच्च विनश्यति ॥३॥
चिज्जडानां तु यो द्रष्टासोऽच्युतो ज्ञानविग्रहः । स एव हि महादेवः स एव हि महाहरिः ॥४॥
स एव ज्योतिषां ज्योतिः स एव परमेश्वरः । स एव हि परं ब्रह्म तद्ब्रह्माहंन संशयः ॥५॥
इससे अधिक क्या होगा कि मैं आत्मरूप में स्थित हैं और अजन्मा अनुभव करता हैं। इसके अतिरिक्त यह सम्पूर्ण जड़-जगत् स्वप्रवत् नाशवान् है। जो जड़-चेतन सबका द्रष्टारूप है, वही अच्युत (अटल) और ज्ञान स्वरूप है,वही महादेव और वही महाहरि (महान् पापहारक) है। वही सभी ज्योतियों की मूल ज्योति है, वही परमेश्वर है, परब्रह्म है, मैं भी वही हैं, इसमें संशय नहीं है।
जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेणबद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः ॥६॥
जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है।
एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशेसदाशिवः । पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ॥७॥
शिवायविष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे । शिवस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिवः॥८॥
यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः । यथान्तरं न पश्यामितथा मे स्वस्तिरायुषि ॥९॥
इस प्रकार बन्धन में बँधा हुआ (चेतन्य तत्त्व) जीव होता है और वही (प्रारब्ध) कर्मों के नष्ट होने पर सदाशिव हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में पाश में बँधा जीव 'जीव' कहलाता है और पाशमुक्त हो जाने पर सदाशिव हो जाता है। भगवान् शिव ही विष्णुरूप हैं और भगवान् विष्णु ही शिवरूप हैं। भगवान् शिव के हृदय में विष्णु का निवास है और भगवान् विष्णु के हृदय में शिव विराजमान हैं। जिस प्रकार विष्णुदेव शिवमय हैं, उसी प्रकार शिव विष्णुमय हैं। जब मुझे इनमें कोई अन्तर नहीं दिखता, तो मैं इस शरीर में ही कल्याणरूप हो जाता हूँ।
यथान्तरं न भेदाः स्युः शिवकेशवयोस्तथा । देहोदेवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः । त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेनपूजयेत् ॥१०॥
अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः । स्नानं मनोमल-त्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥११॥
ब्रह्मामृतं पिबेद्भैक्षमाचरेद्देहरक्षणे ।वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते । इत्येवमाचरेद्धीमान्त्स एवंमुक्तिमाप्नुयात् ॥१२॥
'शिव'और 'केशव' में भी कोई भेद नहीं है। तत्त्वदर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें जीव केवल शिवरूप है। जब मनुष्य अज्ञानरूप कल्मष का परित्याग कर दे, तब वह सो5हं भाव से उनका (शिव का) पूजन करे। सभी प्राणियों में ब्रह्म का अभेदरूप से दर्शन करना यथार्थ ज्ञान है और मन का विषयों से आसक्ति रहित होना-यह यथार्थ ध्यान है। मन के विकारों का त्याग करना-यह यथार्थ स्नान है और इन्द्रियों को अपने वश में रखना-यह यथार्थ शौच (पवित्र होना) है। ब्रह्मज्ञान रूपी अमृत का पान करे, शरीर रक्षा मात्र के लिए उपार्जन (भोजन ग्रहण) करे, एक परमात्मा में लीन होकर द्वैतभाव छोड़कर एकान्त ग्रहण करे। जो धीर पुरुष इस प्रकार का आचरण करता है, वही मुक्ति को प्राप्त-करता है।
शिवपुराणम्/संहिता_१_(विश्वेश्वरसंहिता)/अध्यायः_१६
विघ्नेशादित्यविष्णूनामंबायाश्च शिवस्य च । शिवस्यशिवलिंगं च सर्वदा पूजयेद्द्विज ॥८॥
गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिवजी की प्रतिमा का एवं शिवजी के शिवलिंग का द्विजों को सदा पूजन करना चाहिये।
श्रीपरमधाम्ने स्वस्ति चिरायुष्योन्नम इति । विरिञ्चिना-रायणशंकरात्मकं नृसिंह देवेश तव प्रसादतः । अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तमव्ययंवेदात्मकं ब्रह्म निजं विजानते ॥१३॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्तिसूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥१४॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ।
इत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनपित्युपनिषत् ॥ १५॥
श्री परमधाम वाले (ब्रह्मा, विष्णु, शिव देव) को नमस्कार है, (हमारा) कल्याण हो, दीर्घायुष्य की प्राप्ति हो। हे विरश्औि, नारायण एवं शंकर रूप नृसिंह देव! आपकी कृपा से उस अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्त, अविनाशी, वेद स्वरूप ब्रह्म को हम अपने आत्म स्वरूप में जानने लगे हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता उस भगवान् विष्णु के परम पद को सदा ही (ध्यान मग्न होकर) देखते हैं, अपने चक्षुओं में उस दिव्यता को समाहित किये रहते हैं। विद्वज्जन ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर जो भगवान् विष्णु का परमपद है, उसी में लीन हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण निर्वाण सम्बन्धी अनुशासन है, यह वेद का अनुशासन है। इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य ज्ञान) है।
लिङ्गपुराणम्/उत्तरभागः/अध्यायः५४
यस्य रेतः पुरा शंभोर्हरेर्योनौ प्रतिष्ठितम्।। तस्य वीर्यादभूदंडं हिरण्यमजोद्भवम्।। २४ ।।
चंद्रादित्यौ सनक्षत्रौ भूर्भुवः स्वर्महस्तपः।। सत्यलोकमतिक्रम्य पुष्टिर्वीर्यस्य तस्य वै।। २५ ।।
पंचभूतान्यहंकारो बुद्धिः प्रकृतिरेव च।। पुष्टिर्बीजस्य तस्यैव तस्माद्वै पुष्टिवर्धनः।। २६ ।।
पूर्व में, भगवान शिव का वीर्य विष्णु के गर्भ में जमा था। इसी वीर्य से ब्रह्मा की उत्पत्ति के स्रोत ब्रह्मांडीय स्वर्ण अंडे की उत्पत्ति हुई। उनके वीर्य का पोषण चंद्रमा, सूर्य, तारे, भू, भुव: स्व: मह: जन: तप: और सत्य से परे तक फैला हुआ है। पांच तत्व, लौकिक अहंकार, लौकिक बुद्धि और प्रकृति उनके वीर्य पौरुष द्वारा पोषित होते हैं। अत: भगवान पुष्टिवर्धन (पोषण बढ़ाने वाले) हैं।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३०
प्राकृतः प्रलय एष उच्यते हंसयान हरि रुद्रवर्जितः ।
कालमूर्तिरथ तं च पूरुषं हेलया कलयतीश्वरः परः ।।
इसे प्राकृतप्रलय कहा जाता है जिसमें ब्रह्मा, हरि और रुद्र भी विलीन हो जाते हैं। महान ईश्वर, काल को अपना रूप मानकर, उस पुरुष को भी खेल-खेल में अपने में समाहित कर लेते हैं।
स वै महाविष्णुरितीर्यते बुधैस्तं वै महादेवमुदाहरंति ।
सोंऽतादिमध्यैः परिवर्जितः शिवः स श्रीपतिः सोपि हि पार्वतीपतिः ।।
विद्वान लोग उन्हें महाविष्णु कहते हैं; वे उन्हें महादेव के रूप में उद्धृत करते हैं। वह अंत, आरंभ और मध्य से रहित शिव है। वह श्री के पति हैं। वह पार्वती के भी पति हैं।
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः_११/अध्यायः_१३
॥ श्रीनारायण उवाच ॥
शिवमन्त्रात्परो मन्त्रो नास्ति तुल्यं शिवात्परम् ॥
शिवार्चनात्परं पुण्यं न हि तीर्थं च भस्मना ॥ रुद्राग्नेर्यत्परं तीर्थं तद्भस्म परिकीर्तितम् ॥ ३२ ॥
श्रीनारायण बोले- शिवमन्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं है, शिव के समान कोई दूसरा देवता नहीं है, शिव पूजन से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है और भस्म से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है। रुद्राग्निका जो परम तीर्थ है, उसे ही भस्म कहा गया है। वह सभी प्रकार के कष्टों का नाश करने वाला तथा सभी पापों का शोधन करने वाला है।
महाभारत का हरिवंशपर्व (2.125.41)
रुद्रस्य परमो विष्णुर्विष्णोश्च परम: शिवः। एक एव द्विधा भूतो लोके चरति नित्यसः ॥
The supreme lord of Rudra (Shiva) is Vishnu and the supreme lord of Vishnu is Shiva. The same lord is moving in the world always in two forms.
रुद्र के परम स्वामी विष्णु हैं और विष्णु के परम स्वामी शिव हैं। एक ही प्रभु संसार में सदा दो रूपों में विचरण करते रहतें है।
महाभारत का हरिवंशपर्व (2.125.29)
शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे। यथान्तरं न पश्यमि तेन तौ दिशतः शिवम् ॥
Shiva is in the form of Vishnu and Vishnu is in the form of Shiva. There is no difference between them and both provide Auspiciousness.
शिव विष्णु रूप हैं और विष्णु शिव रूप हैं। इनमें कोई भेद नहीं है तथा दोनों ही शुभता प्रदान करते हैं।
शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णुं विष्णोश्च हृदयं शिवः ॥
यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः।
यथाsन्तरम् न पश्यामि तथा में स्वस्तिरायुषि। यथाsन्तरं न भेदा: स्यु: शिवराघवयोस्तथा॥
स्कन्दपुराण २३/४१
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव:। अन्तरं शिवविष्ण्वोश्र भनागपि न विद्यते ।।
जैसे शिव हैं, वैसे ही विष्णु हैं तथा जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं । शिव और विष्णु में तनिक भी अंतर नहीं है।
नारदपुराण (उत्तरार्ध) - अध्यायः ४३
यथा गौरी तथा गंगा तस्माद्गौर्यास्तु पूजने। विधिर्यो विहितः सम्यक्सोऽपि गंगाप्रपूजने ॥ ९१ ॥
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा ह्युमा। उमा यथा तथा गंगा चात्र भेदो न विद्यते ॥ ९२ ॥
विष्णुरुद्रांतरं यश्च गंगागौर्यंतरं तथा। लक्ष्मीगौर्यतरं यश्च प्रब्रूते मूढधीस्तु सः ॥ ९३ ॥
लिङ्गपुराण - पूर्वभाग /अध्यायः ७५
यथा शिवस्तथा देवी यथा देवी तथा शिवः। तस्मादभेदबुद्ध्यैव सप्तविंशत्प्रभेदतः।। ३४ ।।
शिवपुराण /संहिता ७ (वायवीयसंहिता)/उत्तर भाग / अध्यायः १५
यथा शिवस्तथा विद्या यथा विद्या तथा गुरुः। शिवविद्या गुरूणां च पूजया सदृशं फलम् ॥ २१॥