Aadikeshav (आदिकेशव - ऐतिहासिक एवं पौराणिक विवरण के साथ)

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Aadikeshav
आदिकेशव

ऐतिहासिक एवं पौराणिक विवरण के साथ

भगवान विष्णु द्वारा वाराणसी में स्वयं की मूर्ति स्थापना

ऐतिहासिक उथल-पुथल : आदिकाल से भगवान विष्णु द्वारा स्थापित स्वयं की मूर्ति जिसमे भगवान विष्णु अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ प्रवेश कर गए थे। भगवान आदिकेशव का वह मूल विग्रह ११९४ में मुग़लों द्वारा काशी स्थित मंदिरों के विध्वंस क्रम में तोड़ दिया गया था। ११९४ विध्वंस के पश्चात पुनः इस मंदिर का निर्माण गड़वाल नरेश ने कराया था। सन १२०० से १८०० जाते-जाते गड़वाल नरेश द्वारा बनवाये गए मंदिर का छरण होने लगा। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सम्पूर्ण मंदिर पाषाण (पत्थर) से निर्मित होने के पश्चात भी ६०० वर्ष में ही गंगा तट पर होने के कारण क्षरित हो गया। तत्पश्चात इस मंदिर एवं सम्पूर्ण परिसर का पुनर्निर्माण १८०७ में ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के दीवान मालो ने कराया। १९वीं शताब्दी के बाद का परिसर जो महाराजा सिंधिया के दीवान मालो ने बनवाया वह गड़वाल नरेश द्वारा बनवाये (११९४ के बाद) गये मंदिर के अवशेष पर ही बना है। जिस कारण वर्तमान मंदिर प्रांगण एवं भगवान केशव का गर्भ गृह गंगा जी के पहुँच से बाहर अर्थात ऊँचा हो गया है। मंदिर में विराज रहे भगवान आदिकेशव का वर्तमान (2080 नल, विक्रम सम्वत) विग्रह ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के दीवान मालो द्वारा १८वीं शताब्दी में प्राण प्रतिष्ठित है।  

अंग्रेजों का हस्तक्षेप : १८५७ विद्रोह के पश्चात अंग्रेजी सेना ने इस मंदिर का अभिग्रहण कर लिया और पुजारी को निष्काषित कर दर्शन-पूजन पर प्रतिबंध लगा दिया। अनुमानित २ वर्ष पश्चात १८५९ में पुजारी केशव भट्ट ने अंग्रेज आयुक्त (कमिश्नर) को प्रार्थना पत्र देकर मंदिर में पूजा पाठ शुरू करने की आज्ञा की मांग के फलस्वरूप ही मंदिर में पूजा-पाठ निर्विवाद रूप से पुजारी परिवार के लिए पुनः आरम्भ हो सका। आम दर्शनार्थियों के लिए प्रतिबंध अब भी यथावत था। इसका शिलालेख भी मंदिर में उपलब्ध है। आदिकेशव मंदिर में निर्बाध रूप से काशीवासियों द्वारा दर्शन-पूजन १९वीं शताब्दी से ही पुनः आरम्भ हो सका।

पौराणिक कथांश : राजा दिवोदास की आज्ञा से समस्त देवता काशी से निष्कासित कर दिए गये थे। भगवान उमाशंकर, लक्ष्मीनारायण तथा ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं सहित मंदराचल पर्वत पर निवास कर रहे थे। भगवान शिव ने अपने कई शिव गणों को जत्थों में काशी भेजा। ये शिव गण काशी पहुंचे और उन्हें यह स्थान भी मनोरम लगा। उन्होंने कई शिव लिंग स्थापित किए और इन लिंगों की पूजा करने लगे। जब पहला जत्था नहीं लौटा तो बाद में शिव गणों के और जत्थे भेजे गए और वे भी नहीं लौटे। भगवान् शिव काशी से दूर नहीं रहना चाहते थे। इसलिए जब सूर्यदेव भी लौट कर न आये तो शिव जी ने स्वयं ब्रह्मा जी को भेजा। ब्रह्मा जी वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर राजा से मिले और काशी में यज्ञ करने की अभिलाषा व्यक्त की। राजा ने उनकी अभिलाषा पूरी की ब्राह्मण रूपधारी ब्रह्मा जी ने वहां दस अश्वमेध यज्ञ करवाये और वह स्थान दशाश्वमेध नाम से प्रख्यात हुआ। परंतु राजा में कोई दोष न पाकर ब्रह्मा जी भी लौट कर न आये तब शिवजी के काशीपुरी आगमन का उपाय ढूंढने हेतु गणेश जी मंदराचल से काशी पहुंचे और बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर स्वयं को ज्योतिषी बताते हुए वहां के सभी लोगों को प्रभावित किया।रनिवास की रानियों को भी अपनी दिव्यदृष्टि से किसी वस्तु का यथावत वर्णन सुनाकर सबका विश्वास जीत लिया और इस प्रकार राजा तक पहुंच गये। राजा ने उनसे अपने कल्याण का मार्ग पूछा। उन्होंने बताया कि आज के अठारहवें दिन उत्तर दिशा से कोई ब्राह्मण आकर तुम्हें उपदेश करेगा। तुम्हें उनके प्रत्येक वचन को मानना और उनका पालन करना चाहिए। परंतु, राजा में गणेश जी को भी कोई दोष न मिला और दिवोदास के राजा बनने से पहले काशी में गणेश जी के जो भी स्थान थे उन सबको उन्होंने अनेक रूप धारण करके ग्रहण कर लिया। अंत में भगवान शिव ने भगवान विष्णु को काशी जाने हेतु कहा और आदर पूर्वक निवेदन किया कि माधव आप भी वैसा ही न कीजिएगा जैसा कि पहले के गए हुए लोगों ने किया है। भगवान विष्णु गरुड़ के साथ वहां पहुंचे। उन्होंने अपना नाम पुण्यकीर्ति और गरुड़ का नाम विनयकीर्ति रखा। उन्होंने शिष्य विनयकीर्ति को धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने अपना निवास धर्मक्षेत्र (सारनाथ) में बनाया था।

स्कन्दपुराण काशीखण्ड - अध्यायः ५८

।। अगस्त्य उवाच ।।
किं चकार हरः स्कंद मंदराद्रिगतस्तदा । विलंबमालंबयति तस्मिन्नपि गजानने ।।
अगस्त्य ने कहा: हे स्कंद, मन्दार पर्वत पर जब गजानन भी  पुनः लौटने मे विलंब कर रहे थे तो हर ने क्या किया?
।। स्कंद उवाच ।।
शृण्वगस्त्य कथां पुण्यां कथ्यमानां मयाधुना। वाराणस्येकविषयामशेषाघौघनाशिनीम् ।।
करींद्रवदने तत्र क्षेत्रवर्येऽविमुक्तके। विलंबभाजित्र्यक्षेण प्रैक्षिक्षिप्रमधोक्षजः ।।
प्रोक्तोथ बहुशश्चेति बहुमानपुरःसरम् । तथा त्वमपि माकार्षीर्यथा प्राक्प्रस्थितैः कृतम् ।।
स्कंद ने कहा: हे अगस्त्य, अब मेरे द्वारा कही जा रही पुण्य कथा को सुनो। इसका विषय केवल वाराणसी है और यह सभी पापों का नाश करने वाला है। जब गजानन (ढुंढिराज) को अविमुक्तक में देरी हो रही थी, पवित्र स्थानों में से एक, अधोक्षज (विष्णु) तुरंत भगवान त्रिलोचन से मिले थे। अंत में भगवान शिव ने भगवान विष्णु को काशी जाने हेतु कहा और आदर पूर्वक निवेदन किया कि माधव आप भी वैसा ही न कीजिएगा जैसा कि पहले के गए हुए लोगों ने किया है। अर्थात काशी से वे पुनः लौटकर वापस ही नहीं गये।"
।। श्रीविष्णुरुवाच ।।
उद्यमः प्राणिभिः कार्यो यथाबुद्धि बलाबलम् । परं फलंति कर्माणि त्वदधीनानि शंकर ।। ५ ।।
अचेतनानि कर्माणि स्वतंत्राः प्राणिनोपि न । त्वं च तत्कर्मणां साक्षी त्वं च प्राणिप्रवर्तकः ।। ६ ।।
किंतु त्वत्पादभक्तानां तादृशी जायते मतिः । यया त्वमेव कथयेः साध्वनेनत्वनुष्ठितम् ।। ७ ।।
यत्किंचिदिह वै कर्मस्तोकं वाऽस्तोकमेव वा । तत्सिद्ध्यत्येव गिरिश त्वत्पादस्मृत्यनुष्ठितम् ।। ८ ।।
सुसिद्धमपि वै कार्यं सुबुद्ध्यापि स्वनुष्ठितम् । अत्वत्पदस्मृतिकृतं विनश्यत्येव तत्क्षणात् ।। ९ ।।
शंभुना प्रेषितेनाद्य सूद्यमः क्रियते मया । त्वद्भक्तिसंपत्तिमतां संपन्नप्राय एव नः ।। १० ।।
अतीव यदसाध्यं स्यात्स्वबुद्धिबलपौरुषैः । तत्कार्यं हि सुसिद्धं स्यात्त्वदनुध्यानतः शिव ।। ११ ।।
यांति प्रदक्षिणीकृत्य ये भवंतं भवं विभो । भवंति तेषां कार्याणि पुरोभूतानि ते भयात् ।। १२ ।।
श्री विष्णु ने कहा: हे शंकर, सभी प्राणियों को अपनी बुद्धि, शक्ति और दुर्बलता के अनुसार प्रयास करना चाहिए। लेकिन वे आपकी (दिशा) के अनुसार ही फल देते हैं। कर्म (कर्म स्वयं) अकर्मण्य हैं। यहाँ तक कि जीवधारी भी स्वयं स्वतंत्र नहीं हैं। आप ही उनके कृत्यों के साक्षी हैं और उन्हें कर्म करने के लिए बाध्य करने वाले प्राणियों के प्रमुख प्रेरक भी हैं। परन्तु आपके चरणाश्रित भक्तों के विषय में ऐसी मानसिक प्रवृत्ति होती है, कि आप ही कहेंगे, उसने तो बहुत उत्तम कार्य किया। हे गिरीश, यहां (काशी में) जो भी कार्य किया जाता है, चाहे वह आकार में बहुत छोटा हो या बड़ा, वह आपके चरणों का स्मरण करके किए जाने पर फलित होता है। यदि कोई कार्य अच्छी तरह से तैयार (योजनाबद्ध) किया गया है, तीव्र बुद्धि के साथ पूरी तरह से किया गया है, तो वह तुरंत नष्ट हो जाता है, अगर वह आपके चरणों के स्मरण के बिना किया जाए। आज मेरे द्वारा उत्कृष्ट प्रयास किया जाएगा क्योंकि मुझे शंभु ने भेजा है। आपके प्रति प्रचुर भक्ति से संपन्न हमारे संबंध में, कार्य व्यावहारिक रूप से पूरा हो गया है। कोई कार्य केवल अपनी बुद्धि, शक्ति और प्रयास पर निर्भर रहने से अत्यंत असंभव हो सकता है; हे शिव, आपके ध्यान से वही कार्य आसानी से पूरा हो सकता है। हे भगवन, जो मनुष्य आपकी प्रदक्षिणा करके फिर आगे बढ़ते हैं, उनके सभी कार्य आपके भय के कारण पहले ही सिद्ध हो जाते हैं।
जातं विद्धि महादेव कार्यमेतत्सुनिश्चितम् । काशीप्रावेशिकश्चिंत्य शुभलग्नोदयः परम् ।। १३ ।।
अथवा काशिसंप्राप्तौ न चिंत्यं हि शुभाशुभम् । तदैव हि शुभः कालो यदैवाप्येत काशिका ।। १४ ।।
शंभुं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च पुनःपुनः । प्रतस्थेऽथ सलक्ष्मीको मंदराद्गरुडध्वजः ।। १५ ।।
दृशोरतिथितां नीत्वा विष्णुर्वाराणसीं ततः । पुंडरीकाक्ष इत्याख्यां सफलीकृतवान्मुदा ।। १६ ।।
गंगावरणयोर्विष्णुः संभेदे स्वच्छमानसः । प्रक्षाल्य पाणिचरणं सचैलः स्नातवानथ ।।१७।।
तदाप्रभृति तत्तीर्थं पादोदकमितीरितम् । पादौ यदादौ शुभदौ क्षालितौ पीतवाससा ।। १८ ।।
तत्र पादोदके तीर्थे ये स्नास्यंतीह मानवाः । तेषां विनश्यति क्षिप्रं पापं सप्तभवार्जितम् ।। १९ ।।
तत्र श्राद्धं नरः कृत्वा दत्त्वा चैव तिलोदकम्। सप्तसप्त तथा सप्त स्ववंश्यांस्तारयिष्यति ।। २० ।।
श्री विष्णु ने कहा: हे महादेव, यह जान लें कि यह कार्य निश्चित रूप से पूरा हो गया है। एकमात्र बात यह है कि काशी में प्रवेश के लिए शुभ घड़ी का विचार नहीं करना  चाहिए। काशी आगमन के समय के सम्बन्ध में न तो शुभ और न ही अशुभ समय पर विचार करने की आवश्यकता है। वही एकमात्र शुभ क्षण है जब काशी पहुंच के भीतर अर्थात जब हम काशी की सीमा में प्रवेश कर जायें। प्रदक्षिणा करके और शम्भु को बार-बार प्रणाम करके गरुड़-चिह्नधारी भगवान लक्ष्मी सहित मंदराचल से प्रस्थान कर गये। वाराणसी को अपनी दृष्टि का अतिथि (वस्तु) बनाने के बाद, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपना नाम पुण्डरीकाक्ष (कमल-नयन वाला) सार्थक किया। शुद्ध मन वाले विष्णु ने गंगा और वारणा के संगम पर अपने हाथ और पैर धोये और वस्त्र पहनकर स्नान किया। तब से, उस तीर्थ को पादोदक कहा जाने लगा, क्योंकि उसके पैर, शुभता के दाता, पीले वस्त्रधारी भगवान ने सबसे पहले धोए थे। यदि मनुष्य पादोदक तीर्थ में स्नान करते हैं, तो उनके सात जन्मों के संचित पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। वहां श्राद्ध करने तथा जल तथा तिल से तर्पण करने से व्यक्ति अपने परिवार के तीन गुना सात (२१) सदस्यों की मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
गयायां यादृशी तृप्तिर्लभ्यते प्रपितामहैः । तीर्थे पादोदके काश्यां तादृशी लभ्यते ध्रुवम् ।। २१ ।।
कृतपादोदक स्नानं पीतपादोदकोदकम् । दत्तपादोदपानीयं नरं न निरयः स्पृशेत् ।। २२ ।।
विष्णुपादोदके तीर्थे प्राश्य पादोदकं सकृत् । जातुचिज्जननीस्तन्यं न पिबेदिति निश्चितम् ।। २३ ।।
सचक्र शालग्रामस्य शंखेन स्नापितस्य च । अद्भिः पादोदकस्यांबु पिबन्नमृततां व्रजेत् ।। २४ ।।
विष्णुपादोदके तीर्थे विष्णुपादोदकं पिबेत् । यदि तत्सुधया किं नु बहुकालीनयातया ।। २५ ।।
काश्यां पादोदके तीर्थे यैः कृता नोदकक्रियाः । जन्मैव विफलं तेषां जलबुद्बुद सश्रियाम् ।। २६ ।।
काशी के पादोदक तीर्थ में परदादाओं को जो संतुष्टि प्राप्त हुई, वही संतुष्टि वास्तव में उन्हें गया में प्राप्त हुई थी। जो मनुष्य पादोदक में स्नान करता है, उसका जल पीता है तथा वही जल (तर्पण के रूप में) अर्पित करता है, उसे निरय (नरक) कभी छू नहीं पाता। विष्णु पादोदक तीर्थ में एक बार पादोदक पीने के बाद, यह निश्चित है कि वह कभी भी माँ के स्तन का दूध नहीं पियेगा (अर्थात मोक्ष प्राप्त करेगा)। जो भक्त चक्र अंकित शालग्राम को शंख से पादोदक जल द्वारा स्नान कराता है और उसका चरणोदक जल पीता है, वह अमर हो जाता है। यदि कोई विष्णु पदोदक तीर्थ (आदिकेशव घाट, काशी) में विष्णु पदोदक (गंगा जल एवं उस जल से आदिकेशव के चरणोदक जल) पीता है, तो लंबे समय से अस्तित्व में रहे स्वर्गीय अमृत का क्या लाभ है? यदि काशी में पादोदक तीर्थ (आदिकेशव घाट, काशी) के जल से पवित्र अनुष्ठान नहीं किया जाता है, तो उनका जीवन व्यर्थ है। वे अपने वैभव  में पानी के बुलबुले के समान हैं।
कृतनित्यक्रियो विष्णुः सलक्ष्मीकः सकाश्यपिः । उपसंहृत्य तां मूर्तिं त्रैलोक्यव्यापिनीं तथा ।। २७ ।।
विधाय दार्षदीं मूर्तिं स्वहस्तेनादिकेशवः । स्वयं संपूजयामास सर्वसिद्धिसमृद्धिदाम् ।। २८ ।।
आदिकेशवनाम्नीं तां श्रीमूर्तिं पारमेश्वरीम् । संपूज्य मर्त्यो वैकुंठं मन्यते स्वगृहांगणम् ।। २९ ।।
श्वेतद्वीप इति ख्यातं तत्स्थानं काशिसीमनि । श्वेतद्वीपे वसंत्येव नरास्तन्मूर्तिसेवकाः ।। ३० ।।
क्षीराब्धिसंज्ञं तत्रान्यत्तीर्थं केशवतोग्रतः । कृतोदकक्रियस्तत्र वसेत्क्षीराब्धिरोधसि ।। ३१ ।।
तत्र श्राद्धं नरः कृत्वा गां दत्त्वा च पयस्विनीम् । यथोक्तसर्वाभरणां क्षीरोदे वासयेत्पितॄन् ।। ३२ ।।
एकोत्तरशतं वंश्यान्नवेत्पायस कर्दमम् । क्षीरोदरोधः पुण्यात्मा भक्त्या तत्रैकधेनुदः ।। ३३ ।।
बह्वीश्च नैचिकीर्दत्त्वा श्रद्धयात्र सदक्षिणाः । शय्योत्तरांश्च प्रत्येकं पितॄंस्तत्र सुवासयेत् ।। ३४ ।।
लक्ष्मी और गरुड़ के साथ विष्णु ने दैनिक अनुष्ठान किये। उन्होंने तीनों लोकों में व्याप्त अपना स्वरूप वापस ले लिया और अपने हाथों से एक पत्थर की मूर्ति बनायी। आदिकेशव स्वयं उस छवि की आराधना करते थे, जबकि वे स्वयं सभी समृद्धि और सिद्धियों के दाता थे। आदिकेशव नामक भगवान की उस तेजस्वी छवि की पूजा करके मनुष्य वैकुंठ को अपने घर का आंगन मानता है। काशी की सीमा के भीतर का वह क्षेत्र श्वेतद्वीप के नाम से प्रसिद्ध है। जो पुरुष उस छवि (आदिकेशव) की सेवा करते हैं वे श्वेतद्वीप (विष्णु का क्षेत्र) में निवास करते हैं। आदिकेशव के सामने क्षीराब्धि नामक एक और तीर्थ है। जो वहां जल से पवित्र अनुष्ठान करेगा, वह क्षीरसागर के तट पर ही रहेगा। यदि कोई मनुष्य वहां श्राद्ध करके सभी आभूषणों सहित एक दुधारू गाय का दान करता है, तो वह अपने पितरों को क्षीरसागर में वास दिला सकेगा। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक वहां एक भी गाय का दान करता है, वह क्षीरसागर के तट पर पुण्यात्मा होता है और अपने परिवार की एक सौ एक पीढ़ियों को क्षीरसागर में प्रचुर मात्रा में 'कीचड़' यानी दूध से उत्पन्न मलाई के साथ स्थानांतरित कर सकता है। भक्त को यहां श्रद्धापूर्वक धन के साथ-साथ अनेक उत्तम गायें भी अर्पित करनी चाहिए। वह अपने पूर्वजों में से प्रत्येक को अच्छी नींद के लिए आरामदायक रजाई प्रदान कर सकेगा।
।। स्कंद उवाच ।। ।।
प्रसंगतो मयैतानि तीर्थानि कथितानि ते । भूमौ तिलांतरायां यत्तत्र तीर्थान्यनेशः ।। ६३ ।।
उद्दिष्टानां तु तीर्थानामेतेषां कलशोद्भव । नाममात्रमपि श्रुत्वा निष्पापो जायते नरः ।। ६४ ।।
इदानीं प्रस्तुतं विप्र शृणु वक्ष्यामि तेग्रतः । वैकुंठनाथो यच्चक्रे शंखचक्रगदाधरः ।। ६५ ।।
तस्यां मूर्तौ समावेश्य कैशव्यामथ केशवः । शंभोः कार्ये कृतमना अंशांशांशेन निर्गतः ।। ६६ ।।
महर्षि अगस्त्य को काशी के वैष्णव तीर्थों को बताने के पश्चात भगवान स्कंद ने कहा: ये सभी तीर्थ संयोगवश आपके लिए गिनाए गये हैं, क्योंकि काशी में एक तिल जितनी भूमि पर भी अनेक तीर्थ हैं। हे घड़े में जन्मे ऋषि, मेरे द्वारा विशेष रूप से गिनाए गए इन तीर्थों के नामों को सुनकर भी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। अब, हे ब्राह्मण, मैं तुमसे प्रासंगिक विषय का उल्लेख करूंगा। सुनो शंख, चक्र और गदाधारी वैकुंठपति भगवान ने क्या किया। केशव की छवि में प्रवेश करने के बाद, भगवान केशव उसमें से, एक अंश के अंश से बाहर आ गए क्योंकि उन्होंने अपने मन में शंभु के कार्य से संबंधित कुछ करने का निर्णय लिया था।
।। अगस्त्य उवाच ।।
अंशांशांशेन निश्चक्रे कुतो भोश्चक्रपाणिना । क्व निर्गतं च हरिणा प्राप्य काशीं षडानन ।। ६७ ।।
अगस्त्य ने कहा: ओह! भगवान चक्रधारी अपने अंश का थोड़ा अंश लेकर कहाँ चले गये? हे षडानन! काशी पहुँचने के बाद, हरि कहाँ चले गए?
।। स्कंद उवाच ।।
सामस्त्येन यदर्थं न निर्गतं विष्णुना मुने । ब्रुवे तत्कारणमिति क्षणमात्रं निशामय ।। ६८ ।।
संप्राप्य पुण्यसंभारैः प्राज्ञो वाराणसीं पुरीम् । न त्यजेत्सर्वभावेन महालाभैरपीरितः ।। ६९ ।।
अतः प्रतिकृतिः स्वीया तत्र काश्यां मुरारिणा । प्रतितस्थे कलशजस्तोकांशेन च निर्गतम् ।। ७० ।।
किंचित्काश्या उदीच्यां च गत्वा देवेन चक्रिणा । स्वस्थित्यै कल्पितं स्थानं धर्मक्षेत्रमितीरितम् ।। ७१ ।।
स्कंद ने कहा: हे ऋषि, विष्णु पूरी तरह बाहर क्यों नहीं गये? मैं उसका कारण भी बताऊंगा एक क्षण के लिए मेरी बात सुनिए। बहुत पुण्य से व्यक्ति को वाराणसी नगरी प्राप्त होती है। (येन केन प्रकारेण यदि वाराणसी प्राप्त हो गयी है तो) बुद्धिमान व्यक्ति को बड़े लाभ का प्रलोभन मिलने पर भी इसका त्याग नहीं करना चाहिए। इसलिए, हे घड़े में जन्मे ऋषि! उनकी (केशव की) छवि मुरारी (विष्णु) द्वारा काशी में स्थापित की गई थी (भगवान विष्णु ने अपने हाथों से स्वयं की प्रतिमा स्थापित की और सम्पूर्ण कला सहित उसी में विलीन हो गए) तत्पश्चात विष्णु आंशिक रूप से बाहर चले गये।  काशी के थोड़ा उत्तर में जाने के बाद चक्रधारी भगवान (विष्णु) ने अपने रहने के लिए धर्मक्षेत्र (वर्तमान में सारनाथ) नामक एक क्षेत्र बनाया।

।। बिंदुमाधव उवाच ।।
आदौ पादोदके तीर्थे विद्धि मामादिकेशवम् । अग्निबिंदो महाप्राज्ञ भक्तानां मुक्तिदायकम् ।।
अविमुक्तेऽमृते क्षेत्रे येर्चयंत्यादिकेशवम् । तेऽमृतत्वं भजंत्येव सर्वदुःखविवर्जिताः ।।
संगमेशं महालिंगं प्रतिष्ठाप्यादिकेशवः । दर्शनादघहं नृणां भुक्तिं मुक्तिं दिशेत्सदा ।।
याम्यां पादोदकाच्छ्वेतद्वीपतीर्थं महत्तरम् । तत्राहं ज्ञानदो नृणां ज्ञानकेशवसंज्ञकः ।।
श्वेतद्वीपे नरः स्नात्वा ज्ञानकेशवसन्निधौ । न ज्ञानाद्भ्रश्यते क्वापि ज्ञानकेशवपूजनात् ।।
भगवान बिंदुमाधव ने कहा: हे परम बुद्धिमान अग्निबिंदु, प्रारंभ में मुझे पादोदक तीर्थ में आदिकेशव के रूप में जानो, जो भक्तों को मोक्ष प्रदान करते है। जो लोग अमर अमृतमय पवित्र स्थान अविमुक्त में आदिकेशव की पूजा करते हैं, वे सभी दुखों से मुक्त होकर अमरत्व प्राप्त करते हैं। अपने दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के पापों का नाश करने वाले महान संगमेश लिंग की स्थापना करके आदिकेशव हमेशा सांसारिक सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं। पादोदक के दक्षिण में श्वेतद्वीप नामक महान तीर्थ है। ज्ञानकेशव नाम से मैं वहां मनुष्यों को ज्ञान प्रदान करता हूं। श्वेतद्वीप में ज्ञानकेशव की उपस्थिति में पवित्र स्नान करने के पश्चात व्यक्ति को ज्ञानकेशव की पूजा करनी चाहिए। वह कभी भी ज्ञान से (अज्ञान में) नहीं गिरता। [स्कन्दपुराण काशीखण्ड - अध्यायः ६१]

स्कन्दपुराण काशीखण्ड - अध्यायः ५८ (कथा सारांश)

रिपुञ्जय का जन्म राजर्षि मनु के वंश में हुआ था। वे वीर तो थे ही, मूर्तिमान् क्षत्रियधर्म की भाँति प्रकट हुए थे। उन्होंने अविमुक्त नामक महाक्षेत्र में मन एवं इंद्रियों को वश में करके तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर प्रजापति ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये और उनसे कहा - "महामते! तुम समुद्र, पर्वत और वनों सहित समूची पृथ्वी का पालन करो। नागराज वासुकि तुम्हें पत्नी बनाने के लिए नागकन्या अनङ्गमोहिनी को देंगे। देवता भी प्रतिक्षण तुम्हारे प्रजापालन से संतुष्ट होकर तुम्हें स्वर्गीय रत्न और पुष्प प्रदान करते रहेंगे। इसलिए 'दिवो दास्यन्ति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार तुम्हारा नाम 'दिवोदास' होगा। राजन् ! मेरे प्रभाव से तुम्हें दिव्य सामर्थ्य की प्राप्ति होगी।" इस पर राजा रिपुञ्जय ने शर्त रखी कि पितामह ! यदि मैं पृथ्वी का अधिपति होऊँ, तो देवलोक के निवासी देवगण अपने ही लोक में ठहरें, भूलोक में न आवें। जब देवता देवलोक में रहेंगे और मैं इस पृथ्वी पर निवास करूँगा, तब यहाँ अकण्टक राज्य होने से प्रजावर्ग को सुख की प्राप्ति होगी। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसके बाद राजा दिवोदास ने डंका बजवाकर राज्य में यह घोषणा करवा दी कि 'देवता लोग स्वर्ग को चले जायँ और नागगण भी यहाँ कभी न आयें, जिससे मनुष्य स्वस्थ एवं सुखी रहें। पृथ्वी पर मेरे राज्य-शासनकाल में देवता स्वर्ग में सुखी रहें और मनुष्य पृथ्वी पर स्वस्थ रहें।

दिवोदास की राजधानी काशी थी और काशी से देवताओं के बहिष्कृत हो जाने पर ब्रह्मा जी ने भगवान् शिव का निवास मन्दराचल पर बताया। मन्दराचल की तपस्या से संतुष्ट तथा ब्रह्मा जी के वचन के अनुसार शिवजी मंदराचल को चले गये। उनके जाने पर उन्हीं के साथ संपूर्ण देवता भी वहीं चले गये। भगवान् विष्णु भी भूमंडल के वैष्णव तीर्थों का परित्याग करके वहीं चले गये। इसके बाद राजा दिवोदास ने निर्द्वन्द्व राज्य किया। उन्होंने काशी काशीपुरी में सुदृढ़ राजधानी बनाकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए सबको उन्नतिशील बनाया। उनका अपराध नागलोग भी नहीं करते थे। दानव भी मानव की आकृति धारण करके उनकी सेवा करते थे। गुह्यक लोग सब ओर मनुष्यों में राजा के गुप्तचर बनकर रहते थे। उनके सभाभवन के आंगन में बैठे हुए विद्वानों एवं मंत्रियों को किसी ने कभी शास्त्रों द्वारा पराजित नहीं किया तथा रणांगण में डटे हुए उनके योद्धाओं को कभी किसी ने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा परास्त नहीं किया। उनका राज्य एक आदर्श राज्य था। उनका दोष ढूँढ़ने के लिए देवताओं ने बहुत प्रयत्न किया परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद मंदराचल से महादेव जी ने चौसठ योगिनियों को राजा का दोष ढूँढ़ने के लिए काशी भेजा। वे योगिनियाँ बारह महीनों तक काशी में रहकर लगातार प्रयत्न करती रही फिर भी राजा का कोई दोष न ढूँढ़ सकीं। उनके वापस न लौटने पर भगवान शिव ने सूर्यदेव को भेजा। उन्हें भी राजा दिवोदास के शासन में कोई दोष न मिला और वे स्वयं बारह स्वरूपों में व्यक्त होकर काशी में ही स्थित हो गये।

भगवान् शिव काशी से दूर नहीं रहना चाहते थे। इसलिए जब सूर्यदेव भी लौट कर न आये तो शिव जी ने स्वयं ब्रह्मा जी को भेजा। ब्रह्मा जी वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर राजा से मिले और काशी में यज्ञ करने की अभिलाषा व्यक्त की। राजा ने उनकी अभिलाषा पूरी की ब्राह्मण रूपधारी ब्रह्मा जी ने वहां दस अश्वमेध यज्ञ करवाये और वह स्थान दशाश्वमेध नाम से प्रख्यात हुआ। परंतु राजा में कोई दोष न पाकर ब्रह्मा जी भी लौट कर न आये तब शिवजी के काशीपुरी आगमन का उपाय ढूंढने हेतु गणेश जी मंदराचल से काशी पहुंचे और बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर स्वयं को ज्योतिषी बताते हुए वहां के सभी लोगों को प्रभावित किया। रनिवास की रानियों को भी अपनी दिव्यदृष्टि से किसी वस्तु का यथावत वर्णन सुनाकर सबका विश्वास जीत लिया और इस प्रकार राजा तक पहुंच गये। राजा ने उनसे अपने कल्याण का मार्ग पूछा। उन्होंने बताया कि आज के अठारहवें दिन उत्तर दिशा से कोई ब्राह्मण आकर तुम्हें उपदेश करेगा। तुम्हें उनके प्रत्येक वचन को मानना और उनका पालन करना चाहिए। परंतु, राजा में गणेश जी को भी कोई दोष न मिला और दिवोदास के राजा बनने से पहले काशी में गणेश जी के जो भी स्थान थे उन सबको उन्होंने अनेक रूप धारण करके ग्रहण कर लिया। अंत में भगवान शिव ने भगवान विष्णु को काशी जाने हेतु कहा और आदर पूर्वक निवेदन किया कि माधव आप भी वैसा ही न कीजिएगा जैसा कि पहले के गए हुए लोगों ने किया है। भगवान विष्णु गरुड़ के साथ वहां पहुंचे। उन्होंने अपना नाम पुण्यकीर्ति और गरुड़ का नाम विनयकीर्ति रखा। उन्होंने शिष्य विनयकीर्ति को धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने अपना निवास धर्मक्षेत्र (सारनाथ) में बनाया था। गणेश जी के कथन के अनुसार अठारहवें दिन वे राजा के पास पहुंचे। राजा उत्कंठा पूर्वक उनके पास गये और स्वयं वैराग्यभाव का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि राज्य-शासन करते समय मेरे द्वारा एक ही अपराध हुआ है। वह यह कि मैंने अपने तपोबल के अभिमान से संपूर्ण देवताओं को तिनके के समान समझा है। यद्यपि प्रजा के उपकार के लिए ही ऐसा किया है, स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं। इसके सिवा मेरे शासन में कोई पाप नहीं मिलेगा। पुण्यकीर्ति नामधारी भगवान् विष्णु ने प्रसन्नतापूर्वक उनके कथन का अनुमोदन किया। उनकी प्रशंसा की और कहा कि मेरी समझ में तुम्हारा सबसे महान् अपराध यही है कि तुमने भगवान् विश्वनाथ को काशी से दूर कर दिया है। इसके निवारण के लिए तुम यहां शिवलिंग की स्थापना करो। ऐसा कर लेने पर आज से सातवें दिन एक दिव्य विमान तुम्हें शिवधाम में ले जाने के लिए आएगा। राजा दिवोदास ने प्रसन्नतापूर्वक इसे स्वीकार किया। उन्होंने अपने पुत्र समरञ्जय का राज्याभिषेक कर दिया और अपनी विशाल संपत्ति लगाकर गंगा के पश्चिम तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाकर शिवलिंग की स्थापना की और स्वयं शिवधाम को प्राप्त किया। इस प्रकार पुनः भगवान् शिव का काशी से संयोग हुआ। वह तीर्थ 'भूपालश्री' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में दिवोदास की इस कथा को सभी पातकों का नाश करने वाली कहा गया है।

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आदिकेशव विष्णु आदिकेशव घाट पर स्थित हैं।
Adikeshav Vishnu is situated at Adikeshav Ghat.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


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