Shastriya Vidhan of Ekadashi (एकादशी व्रत का शास्त्रीय विधान)


एकादशी व्रत का शास्त्रीय विधान

गर्गसंहिता/खण्डः ४ (माधुर्यखण्डः)/अध्यायः ०८

॥ यज्ञसीतास्वारूपगोपीनां पृच्छतः श्रीराधया कृतं एकादशीव्रतानुष्ठानवर्णनम् 
यज्ञसीतास्‍वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा का श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये एकादशी-व्रत का अनुष्‍ठान बताना ओर उसके विधि, नियम और माहात्‍म्‍य का वर्णन करना......
॥ श्रीनारद उवाच 
गोपीनां यज्ञसीतानामाख्यानं शृणु मैथिल । सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मङ्गलायनम् ॥१॥
उशीनरो नाम देशो दक्षिणस्यां दिशि स्थितः । एकदा तत्र पर्जन्यो न ववर्ष समा दश ॥२॥
धनवन्तस्तत्र गोपा अनावृष्टिभयातुराः । सकुटुम्बा गोधनैश्च व्रजमण्डलमाययुः ॥३॥
पुण्ये वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे । नन्दराजसहायेन वासं ते चक्रिरे नृप ॥४॥
तेषां गृहेषु सञ्जाता यज्ञसीताश्च गोपिकाः । श्रीरामस्य वरा दिव्या दिव्ययौवनभूषिताः ॥५॥
श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा मोहितास्ता नृपेश्वर । व्रतं कृष्णप्रसादार्थं प्रष्टुं राधां समाययुः ॥६॥
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर! अब यज्ञ-सीतास्‍वरूपा गोपियों का वर्णन सुनो, जो सब पापों को हर लेने वाला, पुण्‍यदायक, कामना पूरक तथा मंगल का धाम है। दक्षिण दिशा में उशीनर नाम से प्रसिद्ध एक देश है, जहाँ एक समय दस वर्षों तक इन्‍द्र ने वर्षा नहीं की। उस देश में जो गोधन से सम्‍पन्‍न गोप थे, वे अनावृष्टि के भय से व्‍याकुल हो अपने कुटुम्‍ब और गोधनों के साथ व्रजमण्‍डल में आ गये। नरेश्वर! नन्‍दराज की सहायता से वे पवित्र वृन्‍दावन में यमुना के सुन्‍दर एवं सुरम्‍य तटपर वास करने लगे। भगवान श्रीराम के वर से यज्ञसीता स्‍वरूपा गोपांग्‍नाएँ उन्‍हीं के घरों में उत्‍पन्‍न हुईं। उन सबके शरीर दिव्‍य थे तथा वे दिव्‍य यौवन से विभूषित थीं। नृपेश्वर ! एक दिन वे सुन्‍दर श्रीकृष्‍ण का दर्शन करके मोहित हो गयीं और श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये कोई व्रत पूछने के उद्देश्‍य से श्रीराधा के पास गयीं।
॥ गोप्य ऊचुः 
वृषभानुसुते दिव्ये हे राधे कञ्जलोचने । श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं वद किञ्चिद्व्रतं शुभम् ॥७॥
तव वश्यो नन्दसूनुर्देवैरपि सुदुर्गमः । त्वं जगन्मोहिनी राधे सर्वशास्त्रार्थपारगा ॥८॥
गोपियाँ बोली :- दिव्‍यस्‍वरूपे, कमललोचने, वृषभानुनन्दिनी श्रीराधे! आप हमें श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये कोई शुभव्रत बतायें। जो देवताओं के लिये भी अत्‍यंत दुर्लभ हैं, वे श्रीनन्‍दनन्‍दन तुम्‍हारे वश में में रहते हैं। राधे! तुम विश्वमोहिनी हो और सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के अर्थज्ञान में पारंपग भी हो।
॥ श्रीराधोवाच 
श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं कुरुतैकादशीव्रतम् । तेन वश्यो हरिः साक्षाद्भविष्यति न संशयः ॥९॥
श्रीराधा ने कहा :- प्‍यारी बहिनों! श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये तुम सब एकादशी-व्रत का अनुष्‍ठान करो। उससे साक्षात श्रीहरि तुम्‍हारे वश में हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है।
॥ गोप्य ऊचुः 
संवत्सरस्य द्वादश्या नामानि वद राधिके । मासे मासे व्रतं तस्याः कर्तव्यं केन भावतः ॥१०॥
गोपियों ने पूछा :- राधिके! पूरे वर्षभर की एकादशियों के क्‍या नाम हैं, यह बताओं। प्रत्‍येक मास में एकादशी का व्रत किस भाव से करना चाहिये ?
॥ श्रीराधोवाच 
मार्गशीर्षे कृष्णपक्षे उत्पन्ना विष्णुदेहतः । मुरदैत्यवधार्थाय तिथिरेकादशी वरा ॥११॥
मासे मासे पृथग्भूता सैव सर्वव्रतोत्तमा । तस्याः षड्विंशतिं नाम्नां वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१२॥
उत्पत्तिश्च तथा मोक्षा सफला च ततः परम् । पुत्रदा षट्तिला चैव जया च विजया तथा ॥१३॥
आमलकी तथा पश्चान्नाम्ना वै पापमोचनी । कामदा च ततः पश्चात्कथिता वै वरूथिनी ॥१४॥
मोहिनी चापरा प्रोक्ता निर्जला कथिता ततः । योगिनी देवशयनी कामिनी च ततः परम् ॥१५॥
पवित्रा चाप्यजा पद्मा इन्दिरा च ततः परम् । पाशाङ्कुशा रमा चैव ततः पश्चात्प्रबोधिनी ॥१६॥
सर्वसम्पत्प्रदा चैव द्वे प्रोक्ते मलमासजे । एवं षड्विंशतिं नाम्नामेकादश्याः पठेच्च यः ॥१७॥
संवत्सरद्वादशीनां फलमाप्नोति सोऽपि हि । एकादश्याश्च नियमं शृणुताथ व्रजाङ्गनाः ॥१८॥
श्रीराधा ने कहा : - गोपकुमारियो! मार्गशीर्ष मास के कृष्‍णपक्ष में भगवान विष्‍णु के शरीर से - मुख्‍यत: उनके मुख से एक असुर का वध करने के लिये एकादशी की उत्‍पत्ति हुई, अत: वह तिथि अन्‍य सब तिथियों से श्रेष्‍ठ है। प्रत्‍येक मास में पृथक्-पृथक् एकादशी होती है। वही सब व्रतों में उत्‍तम है। मैं तुम सबों के हित की कामना से उस तिथि के छब्‍बीस नाम बता रही हूँ। मार्गशीर्ष कृष्‍ण एकादशी से आरम्भ करके कार्तिक शुक्‍ला एका‍दशी तक चौबीस एकादशी तिथियाँ होती हैं। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार है) उत्‍पन्‍ना, मोक्षा, सफला, पुत्रदा, षट्तिला, जया, विजया, आमलकी, पामोचनी, कामदा, वरुथिनी, मोहिनी, अपरा, निर्जला, योगिनी, देवशयनी, कामिनी, पवित्रा, अजा, पद्या, इन्दिरा, पापङ्कुशा, रमा तथा प्रबोधिनी। दो एकादशी तिथियाँ मलमास की होती हैं। उन दोनों का नाम सर्वसमप्‍तप्रदा है। इस प्रकार जो एकादशी के छब्‍बीस नामों का पाठ करता है, वह भी वर्षभर की द्वादशी (एकादशी) तिथियों के व्रत का फल पा लेता है। व्रजांगनाओं ! अब एकादशी-व्रत के नियम सुनो!
भूमिशायी दशभ्यां तु चैकभुक्तो जितेन्द्रियः ।  एकवारं जलं पीत्वा धौतवस्त्रोऽतिनिर्मलः १९॥
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय चैकादश्यां हरिं नतः । अधमं कूपिकास्नानं वाप्यां स्नानं तु मध्यमम् २०॥
तडागे चोत्तमं स्नानं नद्याः स्नानं ततः परम् । एवं स्नात्वा नरवरः क्रोधलोभविवर्जितः २१॥
नालपेत्तद्दिने नीचांस्तथा पाखण्डिनो नरान् । मिथ्यावादरतांश्चैव तथा ब्राह्मणनिन्दकान् २२॥
अन्यांश्चैव दुराचारानगम्यागमने रतान् । परद्रव्यापहारांश्च परदाराभिगामिनः २३॥
दुर्वृत्तान् भिन्नमर्यादान्नालपीत्स व्रती नरः । केशवं पूजयित्वा तु नैवेद्यं तत्र कारयेत् २४॥ 
दीपं दद्याद्गृहे तत्र भक्तियुक्तेन चेतसा । कथाः श्रुत्वा ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्सद्दक्षिणां पुनः २५॥
रात्रौ जागरणं कुर्याद्गायन् कृष्णपदानि च । कांस्यं मांसं मसूरांश्च कोद्रवं चणकं तथा २६॥
शाकं मधु परान्नं च पुनर्भोजनमैथुनम् । विष्णुव्रते च कर्तव्ये दशाभ्यां दश वर्जयेत् २७॥
मनुष्‍य को चाहिये कि वह दशमी को एक ही समय भोजन करे और रात में जितेन्द्रिय रहकर भूमि पर शयन करे। जल भी एक ही बार पीये। धुला हुआ वस्‍त्र पहने और तन-मन से अत्‍यंत निर्मल रहे। फि‍र ब्राह्म-मुर्हूत में उठकर एकादशी को श्रीहरि के चरणों में प्रणाम करे। तदनन्‍तर शौचादि से निवृत हो स्‍नान करे। कुएँ का स्‍नान सबसे निम्रकोटिका है, बावड़ी का स्‍नान मध्‍यम कोटिका है, तालाब और पोखरे का स्‍नान उत्‍तम श्रेणी में गिना गया है और नदी का स्‍नान उससे भी उत्‍तम है। इस प्रकार स्‍नान करके व्रत करने वाला नरश्रेष्‍ठ क्रोध और लोभ का त्‍याग करके उस दिन नीचों और पाखण्‍डी मनुष्‍यों से बात न करे। जो असत्‍यवादी, ब्राह्मणनिन्‍दक, दुराचारी, अगम्‍या स्त्री के साथ समागम में रत रहने वाले, परधनहारी, परस्‍त्रीगामी, दुर्वृत्‍त तथा मर्यादा का भंग करने वाले हैं, उनसे भी व्रती मनुष्‍य बात न करे। मन्दिर में भगवान केशव का पूजन करके वहाँ नैवेद्य लगवाये और भक्तियुक्‍त चित्‍त से दीपदान करे। ब्राह्मणों से कथा सुनकर उन्‍हें दक्षिणा दे, रात को जागरण करे और श्रीकृष्‍ण-संबंधी पदों का गान एवं कीर्तन करे। वैष्‍णव व्रत (एकादशी) का पालन करना हो तो दशमी को काँसे का पात्र, मांस, मसूर, कोदो, चना, साग, शहद, पराय अन्‍न, दुबारा भोजन तथा मैथुन- इन दस वस्‍तुओं को त्‍याग दे।
द्यूतं क्रीडां च निद्रां च ताम्बूलं दन्तधावनम् । परापवादं पैशुन्यं स्तेयं हिंसां तथा रतिम् २८॥
क्रोधाढ्यं ह्यनृतं वाक्यमेकादश्यां विवर्जयेत् । कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं तैलं वितथभाषणम् २९॥
पुष्टिषष्टिमसूरांश्च द्वादश्यां परिवर्जयेत् । अनीन विधिना कुर्याद्द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३०॥
जुए का खेल, निद्रा, मद्य-पान, दन्‍तधावन, परनिन्‍दा, चुगली, चोरी, हिंसा, रति, क्रोध और असत्‍यभाषण- एकादशी को इन ग्‍यारह वस्‍तुओं का त्‍याग कर देना चाहिये। काँसे का पात्र, मांस, शहद, तेल, मिथ्‍याभोजन, पिठ्ठी, साठी का चावल और मसूर आदि का द्वादशी को सेवन न करे। इस विधि से उत्तम एकादशी व्रत का अनुष्‍ठान करे।
॥ गोप्य ऊचुः 
एकादशीव्रतस्यास्य कालं वद महामते । किं फलं वद तस्यास्तु माहात्म्यं वद तत्त्वतः ॥३१॥
गोपियाँ बोलीं : - परमबुद्धिमती श्रीराधे! एकादशी व्रत का समय बताओ। उससे क्‍या फल होता है, यह भी कहो तथा एकादशी के माहात्‍म्‍य का भी यथार्थ रूप से वर्णन करो।
॥ श्रीराधोवाच 
दशमी पञ्चपञ्चाशद्घटिका चेत्प्रदृश्यते । तर्हि चैकादशी त्याज्या द्वादशीं समुपोषयेत् ॥३२॥
दशमी पलमात्रेण त्याज्या चैकादशी तिथिः । मदिराबिन्दुपातेन त्याज्यो गङ्गाघटो यथा ॥३३॥
एकादशी यदा वृद्धिं द्वादशी च यदा गता । तदा परा ह्युपोष्या स्यात्पूर्वा वै द्वादशीव्रते ॥३४॥
श्रीराधा ने कहा :- यदि दशमी पचपन घड़ी (दण्‍ड) तक देखी जाती हो तो वह एकादशी त्‍याज्‍य है। फिर तो द्वादशी को ही उपवास करना चाहिये। यदि पलभर भी दशमी से वेध प्राप्‍त हो तो वह सम्‍पूर्ण एकादशी तिथि त्‍याग देने योग्‍य है- ठीक उसी तरह, जैसे मदिरा की एक बूँद भी पड़ जाये तो गंगा जल से भरा हुआ कलश त्‍याज्‍य हो जाता है। यदि एकादशी बढ़कर द्वादशी के दिन भी कुछ काल तक विद्यमान हो तो दूसरे दिनवाली एकादशी ही व्रत के योग्‍य है। पहली एकादशी को उस व्रत में उपवास नहीं करना चाहिये।
एकादशीव्रतस्यास्य फलं वक्ष्ये व्रजाङ्गनाः । यस्य श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ॥३५॥
अष्टाशीतिसहस्राणि द्विजान्भोजयते तु यः । तत्कृतं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥३६॥
ससागरवनोपेतां यो ददाति वसुन्धराम् । तत्सहस्रगुणं पुण्यमेकादश्या महाव्रते ॥३७॥
ये संसारार्णवे मग्नाः पापपङ्कसमाकुले । तेषामुद्धरणार्थाय द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३८॥
रात्रौ जागरणं कृत्वैकादशीव्रतकृन्नरः । न पश्यति यमं रौद्रं युक्तः पापशतैरपि ॥३९॥
व्रजांगनाओं! अब मैं तुम्‍हे इस एकादशी-व्रत का फल बता रही हूँ, जिसके श्रवण मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है जो अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराता है, उसको जिस फल की प्राप्ति होती है उसी को एकादशी का व्रत करने वाला मनुष्‍य उस व्रत के पालन-मात्र से पा लेता है। जो समुद्र और वनों सहित सारी वसुंधरा का दान करता है, उसे प्राप्‍त होने वाले पुण्‍य से भी हजार गुना पुण्‍य के महान व्रत का अनुष्‍ठान करने से सुलभ हो जाता है, जो पापपंग से भरे हुए संसार-सागर में डेबे है, उनके उद्धार के लिये एकादशी का व्रत ही सर्वोत्‍तम साधन है। रात्रिकाल में जागरण पूर्वक एकादशी व्रत का पालन करने वाला मनुष्‍य यदि सैंकड़ों पापों से युक्‍त हो तो भी यमराज के रौद्र रूप का दर्शन नहीं करता।
पूजयेद्यो हरिं भक्त्या द्वादश्यां तुलसीदलैः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥४०॥
अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च । एकादश्युपवासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥४१॥
दश वै मातृके पक्षे तथा वै दश पैतृके । प्रियाया दश पक्षे तु पुरुषानुद्धरेन्नरः ॥४२॥
यथा शुक्ला तथा कृष्णा द्वयोश्च सदृशं फलम् । धेनुः श्वेता तथा कृष्णा उभयोः सदृशं पयः ॥४३॥
मेरुमन्दरमात्राणि पापानि शतजन्मसु । एका चैकादशी गोप्यो दहते तूलराशिवत् ॥४४॥
जो द्वादशी को तुलसीदल से भक्ति पूर्वक श्रीहरि का पूजन करता है, वह जल से कमल-पत्र की भाँति पाप से लिप्‍त नहीं होता। सहस्‍त्रों अश्वमेध तथा सैकड़ों राजसूययज्ञ भी एकादशी के उपवास की सोलहवीं कला के बराबर नहीं हो सकते। एकादशी का व्रत करने वाला मनुष्‍य मातृकुल की दस, पितृकल की दस तथा पत्‍नी के कुल की दस‍ पीढियों का उद्धार कर देता है। जैसी शुक्‍लपक्ष की एकादशी है, वैसी ही कृष्‍णपक्ष भी है, दोनों का समान फल है। दुधारू गाय जैसी सफेद वैसी काली दोनों का दूध एक-सा ही होता है। गोपियो! मेरु और मन्‍दराचल के बराबर बड़े-बड़े सौजन्‍मों के पाप एक ओर और एक ही एकादशी का व्रत दूसरी ओर हो तो वह उन पर्वतोपम पापों को उसी प्रकार जलाकर भस्‍म कर देती है, जैसी आग की चिन्‍गारी रूई के ढेर को दग्‍ध कर देती है।
विधिवद्विधिहीनं वा द्वादश्यां दानमेव च । स्वल्पं वा सुकृतं गोप्यो मेरुतुल्यं भवेच्च तत् ॥४५॥
एकादशीदिने विष्णोः शृणुते यो हरेः कथाम् । सप्तद्वीपवतीदाने लत्फलं लभते च सः ॥४६॥
शङ्खोद्धारे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा देवं गदाधरम् । एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४७॥
प्रभासे च कुरुक्षेत्रे केदारे बदरिकाश्रमे । काश्यां च सूकरक्षेत्रे ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥४८॥
सङ्क्रान्तीनां चतुर्लक्षं दानं दत्तं च यन्नरैः । एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४९॥
नागानां च यथा शेषः पक्षिणां गरुडो यथा । देवानां च यथा विष्णुर्वर्णानां ब्राह्मणो यथा ॥५०॥
वृक्षाणां च यथाश्वत्थः पत्राणां तुलसी यथा । व्रतानां च तथा गोप्यो वरा चैकादशी तिथिः ॥५१॥
दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्यति यो नरः । तत्तुल्यं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥५२॥
इत्थमेकादशीनां च फलमुक्तं व्रजाङ्गनाः । कुरुताशु व्रतं यूयं किं भूयः श्रोतुमिच्छथ ॥५३॥
गोपांगनाओं! विधिपूर्वक हो या अविधिपूर्वक, यदि द्वादशी को थोडा-सा भी दान कर दिया जो तो वह मेरु पर्वत के समान महान् हो जाता है। जो एकादशी के दिन भगवान विष्‍णु की कथा सुनता है, वह सात द्वीपों से युक्‍त पृथ्‍वी के दान का फल पाता है। यदि मनुष्‍य शंखों द्वारा तीर्थ में स्‍नान करके गदाधर देव के दर्शन का महान पुण्‍य सचित कर ले तो भी वह पुण्‍य एकादशी के उपवास की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकता है। प्रभास, कुरुक्षेत्र, केदार, बदरिकाश्रम, काशी तथा सूकर(वराह)क्षेत्र में चन्‍द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा चार लाख संक्रान्तियों के अवसर पर मनुष्‍यों द्वारा जो दान दिया गया हो वह, भी एकादशी के उपवास की सोलहवीं कला के बराबर नहीं है। गोपियों! जैसे नागों में शेष, पक्षियों में गरूड़, देवताओं में विष्‍णु, वर्णों में ब्राह्मण, वृक्षों मे पीपल तथा पत्रों में तुलसी दल सबसे श्रेष्‍ठ है, उसी प्रकार व्रतों में एकादशी तिथि सर्वोत्तम है मनुष्‍य दस हजार वर्षों तक घोर तपस्‍या करता है, उसके समान ही फल वह मनुष्‍य भी पा लेता है, जो एकादशी का व्रत करता है। व्रजांगनाओं! इस प्रकार मैंने तुम से एका‍दशियों के फल का वर्णन किया। अब तुम शीघ्र इस व्रत को आरम्‍भ करो। बताओ, अब और क्‍या सुनना चाहती हो?


इति श्रीगर्गसंहितायां माधुर्यखण्डे श्रीनारद बहुलाश्व संवादे यज्ञसीतोपाख्याने एकादशीमाहात्म्यं नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)