॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
नारायणं नमस्कृत्य नरञ्चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
- सर्ग : इस प्रकरण में जगत की उत्पत्ति को सभी पुराणों में विस्तार से बताया गया है। देवता आदि की उत्पत्ति, समुद्र, पर्वत तथा भूमि के संस्थान, सूर्य का संस्थान इत्यादि विषयों का वर्णन सर्ग के अंतर्गत किया गया है।
- प्रतिसर्ग : इस प्रकरण में बताया गया है कि इस संपूर्ण चराचर विश्व का समय-समय पर प्रलय होना सुनिश्चित है। प्रतिसर्ग के लिए पुराणों में प्रतिसंचर और संस्था शब्द का भी प्रयोग मिलता है। भागवत में चार प्रकार के प्रलयों की चर्चा की गई है – नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य तथा आत्यंतिक। इसे प्रतिसर्ग का विषय बताया गया है।
- वंश : इस प्रकरण में संसार के जो उपादान कारण है उनकी क्रमिक परंपरा का वर्णन किया गया है। देव, ऋषि, मनुष्य आदि वंश के अंतर्गत आते हैं।
- वंशानुचरित : इस प्रकरण में वंश में जो पदार्थ हैं उनके बारे में विशेष रूप से कहा गया है। महर्षि, राजा और मनुष्य आदि के चरित्र तथा वेद शाखाओं का विभागीकरण वंशानुचरित में आते हैं।
- मन्वंतर : इस प्रकरण में सृष्टि के प्रारंभ से प्रलय-पर्यंत में कितना समय लगता है इसकी पूरी गणना की गई है। कल्प, उनके भेद, युगों के धर्म आदि मन्वंतर के वर्ण्य विषय हैं।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_काशीखण्डः
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
काशीखंड, स्कंद महापुराण का एक खंड जिसमें काशी का परिचय, माहात्म्य तथा उसके आधिदैविक स्वरूप का विशद वर्णन है। काशी को आनंदवन एंव वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। इसकी महिमा का आख्यान स्वयं भगवान विश्वनाथ ने एक बार भगवती पार्वती जी से किया था, जिसे उनके पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) ने अपनी माँ की गोद में बैठे-बैठे सुना था। उसी महिमा का वर्णन कार्तिकेय ने कालांतर में अगस्त्य ऋषि से किया और वही कथा स्कंदपुराण के अंतर्गत काशीखंड में वर्णित है। काशीखंड में 100 अध्याय तथा 11000 से ऊपर श्लोक हैं। इसके माध्यम से काशी के तत्कालीन भूगोल, पुरातन मंदिरों के निर्माण की कथाएँ, मंदिरों में स्थित देवी-देवताओं के परिचय, नगरी के इतिहास और उसकी परंपराओं को भली-भाँति समझा जा सकता है।
[ वाराणसी-माहात्म्य ]
धर्मशास्त्रीय निबन्धग्रन्थों की परंपरा में प॑० लक्ष्मीधरभट्ट-विरचित 'कृत्यकल्पतरु' अत्यन्त प्राचीन, बहुश्रुत तथा अत्यधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसके प्रणेता पं० लक्ष्मीधर कान्यकुब्ज नरेश गोविन्दचंद्र के महामन्त्री थे। पं० लक्ष्मीधर का समय ११वीं शताब्दी है। परवर्ती निबन्धकारों ने कृत्यकल्यतरु के वचनों को अपने ग्रन्थों में सादर उपन्यस्त किया है। चतुर्वर्गचिन्तामणि- जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रणेता हेमाद्रि तो इस ग्रन्थ तथा पं० लक्ष्मीधर के वैदुष्य से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इन्हें 'भगवान् ' शब्द से सम्बोधित किया है।
'कृत्यकल्यतरु' धर्मशास्त्रीय कृत्योंके संग्रहका एक विशाल ग्रन्थ है। यह ब्रह्मचारिकाण्ड, गृहस्थकाण्ड, श्राद्धकाण्ड, दानकाण्ड, शुद्धिकाण्ड, व्यवहारकाण्ड, शान्तिकाण्ड, आचारकाण्ड तथा तीर्थविवेचनकाण्ड आदि कई काण्डों में विभक्त है। तत्तत् काण्डों में स्मृतियों तथा पुराणों में आये हुए धर्मशास्त्रीय विषयों जैसे- वर्णाश्रमधर्म: श्राद्ध, दान, प्रायश्चित्त, शान्ति, सदाचार तथा तीर्थविवेचन आदि का एक स्थान पर संग्रह हुआ है, उससे यह सौविध्य प्राप्त होता है। कि एक ही स्थान पर विभिन्न स्पृतियों तथा पुराणादि में उपन्यस्त तत्तद् विषयों का संग्रह देखने को मिल जाता है।
कृत्यकल्पतरु का तीर्थविवेचनकाण्ड प्रमुख तीर्थो के माहात्म्य का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इसमें मुख्यरूप से वाराणसी, प्रयाग, गंगा, गया, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, मथुरा, उज्जयिनी, बदरिकाश्रम, द्वारका, केदार तथा नैमिषारण्य आदि तीर्थो के माहात्म्य तथा तीर्थयात्रा आदि की विधि विस्तार से दी गयी है। इसमें अविमुक्तक्षेत्र वाराणसी का तथा यहाँ के गुह्यायतनों; लिङ्गों, वापी, कुण्डों तथा हृदों का जो वर्णन दिया गया है, वह विविध पुराणों आदि से संग्रहीत है। विशेष बात यह है कि इस ग्रन्थ में लिङ्गपुराणके नाम से सोलह अध्यायों में लगभग दो हजार श्लोकों में वाराणसी का माहात्म्य उपलब्ध है; किंतु यह सामग्री वर्तमान में उपलब्ध लिङ्गपुराण के संस्करणों में प्राप्त नहीं है। वर्तमान में जो लिङ्गपुराण उपलब्ध होता है, वह पूर्वभाग तथा उत्तरभाग नाम से दो खण्डों में विभक्त है। इसके पूर्वभाग के ९२वें अध्याय में १९० शलोकों में वाराणसी तथा यहाँ के तिर्थों का जो माहात्य्य आया है; वह पूर्वोक्त कृत्यकल्पतरु के संग्रह से भिन्न है।
कृत्यकल्पतरु १२वीं शत्ताब्दी का अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ है। उस समय लिङ्गपुराण का जो संस्करण उपलब्ध था, उसमें से ही ग्रन्थकार ने सामग्री संग्रहीत की होगी। लिङ्गपुराण की श्लोक संख्या स्वयं लिङ्गपुराण ने तथा नारदादि पुराणों ने ग्यारह हजार बतायी है; परंतु वर्तमान में लगभग आठ हजार के आस-पास श्लोक मिलते हैं। साथ ही लिङ्गपुराण के नाम से अरुणाचलमाहात्म्य, पंचाक्षरमाहात्म्य, रामसहसत्रनाम तथा रुद्राक्षमाहात्म्य आदि प्रकरणों का भी उल्लेख प्राप्त होता है; किंतु ये प्रकरण वर्तमान संस्करणों में अनुपलब्ध हैं। कालातिरेकसे वर्तमान में पुराणों के संस्करणों में कुछ परिवर्तन आ गया है।