Mahabaleshwar (काशी का गोकर्णतीर्थ एवं इसका विस्तार तथा तीर्थ देवता महाबलेश्वर ६८ आयतन अंतर्गत एवं गोकर्णेश्वर शिव कर्ण स्वरुप)

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Mahabal
महाबल लिङ्ग या महाबलेश्वर

स्कंदपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण एवं अन्य पुराणों में भगवान शिव के ६८ दिव्य लिंग एवं अतिपुण्य पवित्र क्षेत्र वर्णित है। यह अतिपुण्य पवित्र क्षेत्र भारतवर्ष के चारो ओर फैले हैं। जिनमे से कुछ सुलभ, कुछ दुर्लभ, कुछ गुप्त एवं कुछ अत्यंत गुह्य है। इन सब का सम्पूर्ण दर्शन अत्यंत दुष्कर है। परम विद्वान् एवं नित्य तीर्थाटन करने वाले भक्तों को भी ये ६८ आयतन दर्शन दुर्लभ हैं। परन्तु धन्य है काशी जहाँ इन ६८ आयतन लिंगों ने स्वयं को वाराणसी में प्रकट कर काशी वासियों के लिये सर्वथा सुलभ कर दिया है।

काशी का गोकर्णतीर्थ एवं इसका विस्तार : काशी में समस्त देवी-देवता अपने मूल मे स्थित तीर्थों के साथ प्राकट्य हैं। भगवान वेदव्यास ने स्कंदपुराण काशीखंड में इसका संपूर्ण वर्णन किया है। उसी क्रम में ६८ आयतन देवता अंतर्गत गोकर्ण तीर्थ (कर्नाटक) से भगवान महाबल (महाबलेश्वर) लिङ्ग रूपेण काशी में साम्बादित्य के समीप स्वयंभू प्राकट्य है। गोकर्णेश्वर से लेकर महाबलेश्वर तक का क्षेत्र काशी का गोकर्ण तीर्थ है

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६९
॥ स्कंद उवाच ॥
शृण्वगस्त्य तपोराशे काश्यां लिंगानि यानि वै ॥ सेवितानि नृणां मुक्त्यै भवेयुर्भावितात्मनाम् ॥१॥
कृत्तिप्रावरणं यत्र कृतं देवेन लीलया ॥ रुद्रावास इति ख्यातं तत्स्थानं सर्वसिद्धिदम् ॥२॥
स्थिते तत्रोमया सार्धं स्वेच्छया कृत्तिवाससि ॥ आगत्य नंदी विज्ञप्तिं चक्रे प्रणतिपूर्वकम् ॥३॥
देवदेवेश विश्वेश प्रासादाः सुमनोहराः ॥ सर्वरत्नमया रम्याः साष्टाषष्टिरभूदिह ॥४॥
भूर्भुवःस्वस्तले यानि शुभान्यायतनानि हि ॥ मुक्तिदान्यपि तानीह मयानीतानि सर्वतः ॥५॥
यतो यच्च समानीतं यत्र यच्च कृतास्पदम् ॥ कथयिष्याम्यहं नाथ क्षणं तदवधार्यताम् ॥६॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे अगस्त्य! तपोराशि! काशी में जो लिङ्ग सेवा किये जाने पर पवित्रात्मा मनुष्यों के लिये मुक्तिप्रद होते हैं, मैं उनका वर्णन करता हूं। सुनिये! पूर्व में महेश्वर ने जहां पर गजासुर का चर्म पहना था, वह सर्वसिद्धिप्रद स्थान रुद्रावास कहलाता है। यहां रुद्रावास में भगवान्‌ कृत्तिवास स्वेच्छा से उमा के साथ रहने लगे। तभी किसी समय नंदी ने आकर प्रणाम करके उनसे कहा- हे देवेश! हे विश्वेश। यहां इस समय सर्वरत्नमय सुरम्य, सुमहान्‌ ६८ प्रासाद विराजित हैं तथा भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोकस्थ मुक्तिदायक शुभ शिवलिङ्गों को मैं यहां लाया हूं। हे नाथ! मैं जिस स्थान से जिस लिङ्ग को लाया हूं, उसे एकाग्रता पूर्वक सुनिये-
गोकर्णायतनादत्र स्वयमाविरभून्महत् ॥१३॥ (१/२)
लिंगं महाबलं नाम सांबादित्यसमीपतः ॥ दर्शनात्स्पर्शनाद्यस्य क्षणादेनो महाबलम् ॥१४॥
वाताहतस्तूलराशिरिव विद्राति दूरतः ॥ कपालमोचनपुरो दृष्ट्वा लिंगं महाबलम् ॥१५॥
महाबलमवाप्नोति निवार्णनगरं व्रजेत् ॥१६॥ (१/२)
गोकर्ण नामक स्थान से महाबलेश्वर नामक महत लिङ्ग यहां पर साम्बादित्य के पास स्वयं आविर्भूत हुआ है। इनका दर्शन तथा स्पर्शन करने से महाबली पापराशि भी उस प्रकार दूर हो जाती है, जैसे वायु के झोकों से रुई उड़ जाती हैं। कपालमोचन तीर्थ के सम्मुखस्थ उक्त महाबल लिङ्ग का दर्शन करके निर्वाण (मोक्ष प्राप्ति) का महाबल प्राप्त होता है।

भ्रांतियां : काशी में स्वयं आये महाबल मुखलिङ्ग हैं। वर्षों से नाम अज्ञात होने के कारण और मुखलिङ्ग होने के कारण अज्ञानवश इन्हें शनि के रूप में पूजा जाने लगा और सिंदूर पोतकर क्षेत्र निवासी तेल चढ़ाने लगे। आज भी लोग उन्हें शनिदेव ही कहते हैं। काशीखंड के इस अन्वेषण कार्य की सुध प्रशासन ने सितंबर २०२४ में ले ली है। निचे चित्र के साथ....


मूल महाबलेश्वर मंदिर, गोकर्ण तीर्थ, समुद्र तट (कर्नाटक)
मूल तीर्थ और मंदिर यहां देखें : CLICK HERE

भारत में कर्नाटक राज्य के सुदूर छोर पर बसा है एक छोटा सा नगर 'गोकर्ण'। नाम से ही स्पष्ट है कि गाय का (कान) कर्ण। पाताल में तपस्या करते हुए भगवान रुद्र गोरूप धारिणी पृथ्वी के कर्णरन्ध्र से यहां प्रकट हुए, इसी से इस क्षेत्र का नाम गोकर्ण पड़ा। महाबलेश्वर मंदिर के पास सिद्ध गणपति की मूर्ति है, जिसके मस्तक पर रावण द्वारा आघात करने का चिन्ह है। इनका दर्शन करने के अनन्तर ही आत्म तत्व लिंग के दर्शन पूजन की विधि है। गोकर्ण में भगवान शंकर का आत्मतत्व लिंग है। शास्त्रों में गोकर्ण तीर्थ की बड़ी महिमा है। यहां के विग्रह को महाबलेश्वर महादेव कहते हैं। मंदिर बड़ा सुंदर है। मंदिर के भीतर पीठ स्थान पर अरघे के अंदर आत्मतत्व लिंग के मस्तक का अग्रभाग दृष्टि में आता है और उसी की पूजा होती है।

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः_१०/उत्तरार्धः/अध्यायः_७९
ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान् ॥ कर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः ॥१९॥
अब भगवान् बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगत देशों में होकर भगवान् शंकर के क्षेत्र गोकर्णतीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शंकर विराजमान रहते हैं।
गर्गसंहिता/खण्डः_७_(विश्वजित्खण्डः)/अध्यायः_१०
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं दृष्ट्वा कार्ष्णिः स्वसैन्यकैः ॥ त्रिगर्तान्केरलान् देशान् ययौ जेतुं महाबलः ॥१८॥
अम्बष्ठः केरलाधीशः श्रुत्वा वार्तां तु मन्मुखात् ॥ ददौ तस्मै बलिं शीघ्रं प्रद्युम्नाय महात्मने ॥१९॥

नारदपुराणम्-_उत्तरार्धः/अध्यायः_७४
॥ परशुरामजी के द्वारा गोकर्ण क्षेत्र का उद्धार तथा उसका माहात्म्य ॥
॥ अथ गोकर्णमाहात्म्यमारभ्यते ॥
॥ मोहिन्युवाच ॥
पुंडरीकपुराख्यानं त्वया प्रोक्तं श्रुतं गुरो ॥ गोकर्णस्याद्य तीर्थस्य माहात्म्यं मे समादिश ॥ १ ॥
मोहिनी बोली- गुरुदेव! आपके द्वारा कहे हुए पुण्डरीकपुर के माहात्म्य को मैंने सुना। अब मुझे गोकर्णतीर्थ का माहात्म्य बताइये।
॥  वसुरुवाच ॥
श्रृणु मोहिनि वक्ष्यामि तीर्थं पुण्यप्रदं नृणाम् ॥ गोकर्णाख्यं हरक्षेत्रं सर्वपातकनाशनम् ॥ २ ॥
पश्चिमस्थसमुद्रस्य तीरेऽस्ति वरवर्णिनि ॥ सार्द्धयोजनविस्तारं दर्शनादपि मुक्तिदम् ॥ ३ ॥
सगरस्यात्मजैर्देवि खनिते भूतले क्रमात् ॥ सागरो वर्द्धितस्त्वारात्प्लावयामास मेदिनीम् ॥ ४ ॥
त्रिंशद्योजन विस्तारां सतीर्थक्षेत्रकाननाम् ॥ ततस्तन्निलयाः सर्वे सदेवासुरमानवाः ॥ ५ ॥
तत्स्थानं संपरित्यज्य सह्यादिगिरिषु स्थिताः ॥ ततो गुह्यं परं तीर्थं गोकर्णाख्यं समुद्रगम् ॥ ६ ॥
चिंतयंतो मुनिवरास्तदुद्धारे मतिं दधुः ॥ ततः संमंत्र्य ते सर्वे पर्वतोपत्यकास्थिताः ॥ ७ ॥
महेंद्राचलसंस्थानं पर्शुरामं दिदृक्षवः ॥ जग्मुर्मुनिवरा देवि गोकर्णोद्धारकांक्षया ॥ ८ ॥
समारुह्य तु तं शैलं ददृशुस्तस्य चाश्रमम् ॥ प्रशांतक्रूरसत्वाढ्यं सर्वर्तुषु सुखावहम् ॥ ९ ॥
फलितैः पुष्पितैर्वृक्षैर्गहनं तत्तपोवनम् ॥ स्निग्धच्छायमनौपम्यं स्वामोदिसुखमारुतम् ॥ १० ॥
तं तदाश्रममासाद्य ब्रह्मघोषनिनादितम् ॥ विविशुर्हृष्टमनसो यथावृद्धपुरःसरम् ॥ ११ ॥
ब्रह्मासने सुखासीनं मृदुकृष्णाजिनोत्तरे ॥ शिष्यैः परिवृतं शांतं ददृशुस्तं तपोधनम् ॥ १२ ॥
पुरोहित वसु ने कहा- मोहिनी! पश्चिम समुद्र के तट पर “गोकर्णतीर्थ” है, जिसका विस्तार दो कोस का है। वह दर्शनमात्र से भी मोक्ष देनेवाला है। देवि! जब सगर के पुत्रों ने क्रमशः पृथ्वी खोद डाली तो वहाँ तक समुद्र बढ़ आया और उसने आसपास की तीस योजन विस्तृत तीर्थ, क्षेत्र और वनों सहित भूमि को जल से आप्लावित कर दिया। तब वहाँ के रहने वाले देवता, असुर और मनुष्य सब-के-सब वह स्थान छोड़कर सह्य आदि पर्वतोंपर जा बसे। तब गोकर्ण नामक उत्तम तीर्थ समुद्र के भीतर छिप गया। तब श्रेष्ठ मुनियों ने इस बात का विचार करके गोकर्णतीर्थ के उद्धार में मन लगाया। पर्वत पर ठहरे हुए वे सब महात्मा आपस में सलाह करके महेन्द्रपर्वत पर रहनेवाले परशुरामजी के दर्शन के लिये वहाँ गये। उनकी यह यात्रा गोकर्णतीर्थ के उद्धार की इच्छासे हुई थी। महेद्रपर्वत पर आरूढ़ हो महर्षियों ने परशुरामजी का आश्रम देखा। वेदमन्त्रों के उच्चघोष से वह सारा आश्रम गूँज उठा था। महर्षियों ने प्रसन्नचित्त होकर उस समय उस आश्रम में प्रवेश किया। परशुरामजी ब्रह्मासन पर कोमल एवं कालामृगचर्म बिछाकर सुखपूर्वक बैठे थे। ऋषियों ने शान्तभाव से बैठे हुए तपस्वी परशुराम को देखा।
कालाग्निमिव लोकांस्त्रीन्दग्ध्वा शांतं तपःस्थितम् ॥ ते समेत्य भृगुश्रेष्ठं विनयेन ववंदिरे ॥ १३ ॥
ततस्तानागतान्दृष्ट्वा मुनीन्भृगुकुलोद्वहः ॥ अर्घ्यपाद्यादिभिः सम्यक्पूजयामास सादरम् ॥ १४ ॥
तानासीनान्कृतातिथ्यानुवाच भृगुनंदनः ॥ स्वागतं वो महाभागा यदर्थमिह चागताः ॥ १५ ॥
तद्वदध्वं सुविश्वस्ताः करणीयं मयास्ति यत् ॥ ततोऽब्रुवन्मुनिश्रेष्ठा यदर्थं राममागताः ॥ १६ ॥
अवेह्यस्मान् भृगुश्रेष्ठ गोकर्णनिलयान्मुनीन् ॥ खनद्भिः सागरैर्भूमिं तस्मात्तीर्थाद्विवासितान् ॥ १७ ॥
स त्वमात्मप्रभावेण क्षेत्रप्रवरमद्य नः ॥ दातुमर्हसि विप्रेन्द्र समुत्सार्यार्णवोदकम् ॥ १८ ॥
महर्षियों ने उनको विनयपूर्वक प्रणाम किया। तदनन्तर भृगुवंशियों में श्रेष्ठ परशुरामजी ने उन मुनियों को आया देख अर्घ्य, पाद्य आदि सामग्रियों से उनका आदरपूर्वक पूजन किया। आतिथ्य ग्रहण करके जब वे सुखपूर्वक आसन पर बैठ गये तब भृगुनन्दन परशुरामजी ने उनसे कहा- महाभाग महर्षिगण! आपका स्वागत है। आपलोग जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हुए हैं, उसे निर्भय होकर कहें। उसकी मैं पूर्ति करूँगा। तब वे मुनिश्रेष्ठ जिस कार्य के लिये परशुरामजी के पास आये थे, उसे बताते हुए बोले- भृगुश्रेष्ठ! आपको ज्ञात होना चाहिये कि हमलोग गोकर्णतीर्थ में निवास करनेवाले मुनि हैं। राजा सगर के पुत्रों ने पृथ्वी खोदकर हमें उस तीर्थ से बाहर निकाल दिया है। विप्रेन्द्र! अब आप ही अपने प्रभाव से समुद्र का जल हटाकर वह उत्तम क्षेत्र हमें देने के योग्य हैं।
तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां न्यस्तशस्त्रो व्यचिंतयत् ॥ ततो विचिंत्य भगवान्धर्म्यं साध्वभिरक्षणम् ॥ १९ ॥
प्रगृह्य स्वधनुर्बाणान्संप्रतस्थे स तैः समम् ॥ सोऽवरुह्य महेंद्राद्रेर्दिशं दक्षिणपश्चिमाम् ॥ २० ॥
समुद्दिश्य ययौ शीघ्रं स स्वमुल्लंघ्य पर्वतम् ॥ संप्राप्तः सागरतटं सार्द्धं गोकर्णवासिभिः ॥ २१ ॥
मुहूर्त्तं तत्र विश्रम्य वरुणं यादसांपतिम् ॥ मेघगंभीरया वाचा प्रोवाच वदतां वरः ॥ २२ ॥
रामोऽहं भार्गवः प्राप्तो मुनिभिः सह कार्यवान् ॥ प्रचेतो दर्शनं देहि कार्यमात्यायिकं त्वया ॥ २३ ॥
एवं रामसमाहूतो यादः पतिरहन्तया ॥ श्रुत्वापि तस्य तद्वाक्यं नायातो रामसन्निधौ ॥ २४ ॥
एवं पुनः पुनस्तेन समाहूतोऽपि नागतः ॥ यदा तदाभिसंक्रुद्धो धनुर्जग्राह भार्गवः ॥ २५ ॥
तस्मिन्संधाय विशिखं वह्निदैवं तु भार्गवम् ॥ अस्त्रं संयोजयामास शोषणाय सरित्पतेः ॥ २६ ॥
उन्होंने उन महर्षियों की बात सुनकर निश्चय किया कि साधु पुरुषों की रक्षा धर्मका कार्य है; अतः इसे करना चाहिये। तब अपने धनुष-बाण लेकर वे उन मुनियोंके साथ चले। महेन्द्र पर्वत से उतरकर मुनियों के साथ समुद्र के तटपर जा पहुँचे। वहाँ वक्ताओं में श्रेष्ठ परशुरामजी ने मेघ के समान गम्भीर वाणीद्वारा जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण को सम्बोधित करके कहा- प्रचेता वरुणदेव! मैं भृगुवंशी परशुराम मुनियों के साथ एक विशेष कार्य से यहाँ आया हूँ, दर्शन दीजिये; आपसे अत्यन्त आवश्यक कार्य है। परशुरामजी के इस प्रकार पुकारने पर उनकी बात सुनकर भी वरुणदेव अहंकारवश उनके समीप नहीं आये। इस प्रकार बार-बार परशुरामजी के बुलाने पर भी जब वे नहीं आये तब भृगुवंशी परशुराम ने अत्यन्त कुपित होकर धनुष उठाया और उस पर अग्निबाण रखकर समुद्र को सुखा देने के लिये उसका संधान किया।
तस्मिन्संयोजितेऽस्त्रे तु भार्गवेण महात्मना ॥ संक्षुब्धः सागरो भद्रे यादोगणसमाकुलः ॥ २७ ॥
वरुणोऽस्त्राभिसंतप्तो रामस्य भयसम्प्लुतः ॥ स्वरूपेण समागत्य रामपादौ समग्रहीत् ॥ २८ ॥
ततोऽस्त्रं स विनिर्वर्त्य वरुणं प्राह सत्वरम् ॥ गोकर्णो दृश्यतां देव उत्सर्पय जलं किल ॥ २९ ॥
ततो रामाज्ञया सोऽपि गोकर्णोदकमाहरत् ॥ रामोऽपि तं समभ्यर्च्य गोकर्णं नाम शंकरम् ॥ ३० ॥
प्राप्तः पुनर्महेंद्राद्रौ तस्थुस्तत्रैव ते द्विजाः ॥ यत्र सर्वे तपस्तप्त्वा मुनयः शंसितव्रताः ॥ ३१ ॥
निर्वाणं परम प्राप्ताः पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥ तत्क्षेत्रस्य प्रभावेण प्रीत्या भूतगणैः सह ॥ ३२ ॥
देव्या च सकलैर्देवैर्नित्यं वसति शंकरः ॥ एनांसि दर्शनात्तस्य गोकर्णस्य महेशितुः ॥ ३३ ॥
भद्रे! महात्मा परशुराम द्वारा उस आग्नेय अस्त्रके संधान करते ही जल-जन्तुओंसे भरा हुआ समुद्र क्षुब्ध हो उठा। परशुरामजीके उस अस्त्रकी आँचसे वरुण भी जलने लगे। तब भयभीत होकर वे प्रत्यक्षरूपसे वहाँ आये और उन्होंने परशुरामजीके दोनों पैर पकड़ लिये। यह देख परशुरामजीने अपना अस्त्र लौया लिया और वरुणसे कहा- तुम अपना सारा जल शीघ्र हटा लो जिससे भगवान्‌ गोकर्णका दर्शन किया जाय। तब परशुरामजीकी आज्ञासे वरुणने गोकर्ण- तीर्थका जल हटा लिया; परशुरामजी भी गोकर्णनाथ महादेवका पूजन करके फिर महेन्द्रपर्वतपर चले गये और वे ब्राह्मण ऋषि-मुनि वहीं रहने लगे। उन उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सम्पूर्ण महर्षियों ने वहाँ तपस्या करके पुनरावृत्तिरहित परम निर्वाणरूप मोक्ष प्राप्त कर लिया। उस क्षेत्रके प्रभावसे प्रसन्न होकर पार्वतीदेवी, भूतगण तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ भगवान्‌ शङ्कर वहाँ नित्य निवास करते हैं।
सद्यो वियुज्य गच्छन्ति प्रवाते शुष्क पर्णवत् ॥ तत्क्षेत्रसेवनरतिर्नृणां जातु न जायते ॥ ३४ ॥
निर्बंधेन तु ये तत्र प्राणिनः स्थिरजंगमाः ॥ म्रियंते देवि सद्यस्ते स्वर्गं यांति सनातनम् ॥ ३५ ॥
स्मृत्यापि सकलैः पापैर्यस्य मुच्येत मानवः ॥ तद्गोकर्णाभिधं क्षेत्रं सर्वतीर्थनिकेतनम् ॥ ३६ ॥
स्नात्वा क्षेत्रेषु सर्वेषु यजंतश्च सदाशिवम् ॥ लभंते यत्फलं मर्त्यास्तत्सर्वं तत्र दर्शनात् ॥ ३७ ॥
कामक्रोधादिभिर्हीना ये तत्र निवसंति वै ॥ अचिरेणैव कालेन ते सिद्धिं प्राप्नुवंति हि ॥ ३८ ॥
जपहोमरताः शांता नियता ब्रह्मचारिणः ॥ वसंति तस्मिन्ये ते हि सिद्धिं प्राप्स्यंत्यभीप्सिताम् ॥ ३९ ॥
दानहोमजपाद्यं च पितृदेवद्विजार्चनम् ॥ अन्यस्मात्कोटिगुणितं भवेत्तस्मिन्फलं सति ॥ ४० ॥
इत्येतत्कथितं भद्रे गोकर्णक्षेत्रसंभवम् ॥ माहात्म्यं सर्वपापघ्नं पठतां श्रृण्वतामपि ॥ ४१ ॥
उन गोकर्णनाथ महादेव के दर्शन से सारे पाप मनुष्य को तत्काल छोड़कर चले जाते हैं। जिसके स्मरण करने मात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, वह गोकर्ण नामक क्षेत्र सब तीर्थों का निकेतन है! जो वहाँ काम-क्रोधादि दोषों से रहित होकर निवास करते हैं, वे थोड़े ही समय में सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। सती मोहिनी! उस तीर्थ में किये हुए दान, होम, जप, श्राद्ध, देवपूजन तथा ब्राह्मण-समादर आदि कर्म अन्य तीर्थों की अपेक्षा कोटिगुणित होकर फल देते हैं।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणेबृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे गोकर्णमाहात्म्यं नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
॥ इति गोकर्णमाहात्म्यम् ॥


शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_०९
॥ ऋषय ऊचुः ॥
सूतसूत महाभाग धन्यस्त्वं शैवसत्तमः ॥ चाण्डाली का समाख्याता तत्कथां कथय प्रभो॥१॥
ऋषिगण बोले- हे सूतजी! हे महाभाग! आप परम शैव हैं, अतः आप धन्य हैं, हे विभो! वह चाण्डाली कौन थी, उसकी कथा कहिये।
॥ सूत उवाच ॥
द्विजाः शृणुत सद्भक्त्या तां कथां परमाद्भुताम्॥ शिवप्रभावसंमिश्रां शृण्वतां भक्तिवर्द्धिनीम् ॥ २ ॥
चांडाली सा पूर्वभरेऽभवद्ब्राह्मणकन्यका ॥ सौमिनी नाम चन्द्रास्या सर्वलक्षणसंयुता ॥३॥
अथ सा समये कन्या युवतिः सौमिनी द्विजाः ॥ पित्रा दत्ता च कस्मैचिद्विधिना द्विजसूनवे ॥ ४ ॥
सा भर्तारमनुप्राप्य किंचित्कालं शुभव्रता ॥ रेमे तेन द्विजश्रेष्ठा नवयौवनशालिनी ॥ ५ ॥
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! सुननेवालों की भक्ति को बढ़ानेवाली तथा शिव के प्रभाव से मिश्रित उस अत्यन्त अद्भुत कथा को आपलोग भक्तिपूर्वक सुनिये। वह चाण्डाली पूर्वजन्म में सभी लक्षणों से समन्वित तथा चन्द्रमा के समान मुखवाली सौमिनी नामक ब्राह्मणकन्या थी। हे द्विजो! सौमिनी के युवती हो जाने पर उसके पिता ने किसी ब्राह्मणपुत्र से विधिपूर्वक उसका विवाह सम्पन्न कर दिया। हे ब्राह्मण श्रेष्ठो! तदनन्तर नवीन यौवनशालिनी वह उत्तम व्रतवाली सौमिनी पति को प्राप्त करके उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगी।
अथ तस्याः पतिर्विप्रस्तरुणस्सुरुजार्दितः ॥ सौमिन्याः कालयोगात्तु पञ्चत्वमगमद्द्विजाः ॥६॥
मृते भर्तरि सा नारी दुखितातिविषण्णधीः॥ किंचित्कालं शुभाचारा सुशीलोवास सद्मनि ॥७॥
ततस्सा मन्मथाविष्टहृदया विधवापि च॥ युवावस्थाविशेषेण बभूव व्यभिचारिणी ॥८॥
तज्ज्ञात्वा गोत्रिणस्तस्या दुष्कर्म कुलदूषणम् ॥ समेतास्तत्यजु दूरं नीत्वा तां सकचग्रहाम्।९॥
कश्चिच्छूद्रवरस्तां वै विचरन्तीं निजेच्छया॥ दृष्ट्वा वने स्त्रियं चक्रे निनाय स्वगृहं तत॥१०॥
अथ सा पिशिताहारा नित्यमापीतवारुणी ॥ अजीजनत्सुतान्तेन शूद्रेण सुरतप्रिया॥११॥
कदाचिद्भर्तरि क्वापि याते पीतसुराथ सा ॥ इयेष पिशिताहारं सौमिनी व्यभिचारिणी ॥१२ ॥
हे द्विजो! कुछ काल बीतने के पश्चात् उस सौमिनी का नवयुवक ब्राह्मण पति रोगग्रस्त हो गया और कालयोग से मृत्युको प्राप्त हो गया। पति के मर जाने पर सुशील तथा उत्तम आचारवाली उस स्त्री ने दुःखित तथा व्यथितचित्त होकर कुछ काल अपने घर में निवास किया। उसके अनन्तर विधवा होते हुए भी युवती होने के कारण काम से आविष्ट मनवाली वह व्यभिचारिणी हो गयी। तब कुल को कलंकित करने वाले उसके इस कुकर्म को जानकर उसके कुटुम्बियों ने परस्पर मिलकर उसके बालों को खींचते हुए उसे दूर ले जाकर छोड़ दिया। कोई शूद्र उसे वन में स्वच्छन्द विचरण करती हुई देख अपने घर ले आया और उसने उसे अपनी पत्नी बना लिया। अब वह प्रतिदिन मांस का भोजन करती, मदिरा पीती और व्यभिचारनिरत रहती थी। इस प्रकार उस शूद्र के सम्बन्ध से उसने एक कन्या को जन्म दिया। किसी समय पति के कहीं चले जाने पर उस व्यभिचारिणी सौमिनी ने मद्यपान किया और वह मांस के आहार की इच्छा करने लगी।
ततो मेषेषु बद्धेषु गोभिस्सह बहिर्व्रजे ॥ निशामुखे तमोऽन्धे हि खड्गमादाय सा ययौ ॥ १३ ॥
अविमृश्य मदावेशान्मेषबुद्याऽऽमिष प्रिया ॥ एकं जघान गोवत्सं क्रोशंतमतिदुर्भगा ॥ १४ ॥
हतं तं गृहमानीय ज्ञात्वा गोवत्समंगना ॥ भीता शिवशिवेत्याह केनचित्पुण्यकर्मणा ॥१५॥
सा मुहूर्तं शिवं ध्यात्वामिषभोजनलालसा ॥ छित्त्वा तमेव गोवत्सं चकाराहारमीप्सितम् ॥ १६ ॥
एवं बहुतिथे काले गते सा सौमिनी द्विजाः ॥ कालस्य वशमापन्ना जगाम यमसंक्षयम् ॥ १७ ॥
यमोऽपि धर्ममालोक्य तस्याः कर्म च पौर्विकम् ॥ निवर्त्य निरयावासाच्चक्रे चाण्डालजातिकाम् ॥ १८॥
साथ भ्रष्टा यमपुराच्चाण्डालीगर्भमाश्रिता ॥ ततो बभूव जन्मान्धा प्रशांतांगारमेचका॥१९॥
जन्मान्धा साथ बाल्येऽपि विध्वस्तपितृमातृका ॥ ऊढा न केनचिद्दुष्टा महाकुष्ठरुजार्दिता ॥ २० ॥
ततः क्षुधार्दिता दीना यष्टिपाणिर्गतेक्षणा ॥ चाण्डालोच्छिष्टपिंडेन जठराग्निमतपर्यत् ॥ २१ ॥
एवं कृच्छ्रेण महता नीत्वा स्वविपुलं वयः ॥ जरयाग्रस्तसवार्ङ्गी दुःखमाप दुरत्ययम् ॥ २२ ॥
इसके बाद रात्रि के समय घोर अन्धकार में तलवार लेकर वह घर के बाहर गोष्ठ में गायों के साथ बँधे हुए मेषों के बीच गयी। उस समय मांस से प्रेम रखने वाली उस दुर्भगा ने मद्य के नशे के कारण बिना विचार किये चिल्लाते हुए एक बछड़े को मेष समझकर मार डाला। मरे हुए उस पशु को घर लाकर बाद में उसे बछड़ा जानकर वह स्त्री भयभीत हो गयी और किसी पुण्य कर्म से पश्चात्तापपूर्वक शिव शिव - ऐसा उच्चारण करने लगी। क्षणभर शिवजी का ध्यान करके मांस के आहार की इच्छावाली उसने उस बछड़े को ही काटकर अभिलषित भोजन कर लिया। हे द्विजो! इस प्रकार बहुत-सा समय बीतने के पश्चात् वह सौमिनी काल के वशीभूत हो गयी और यमलोक चली गयी। यमराज ने भी उसके पूर्वजन्म के कर्म तथा धर्म का निरीक्षणकर उसे नरक से निकालकर चाण्डाल जातिवाली बना दिया। यमराजपुरी से लौटकर वह सौमिनी चाण्डाली के गर्भ से उत्पन्न हुई। वह जन्म से अन्धी एवं कोयले के समान काली थी। जन्म से अन्धी, बाल्यावस्था में ही माता-पिता से रहित और महाकुष्ठ रोग से ग्रस्त उस दुष्टा से किसी ने विवाह भी नहीं किया। उसके बाद वह अन्धी चाण्डाली भूख से पीड़ित एवं दीन हो लाठी हाथ में लेकर जहाँ-तहाँ डोलती और चाण्डालों के जूठे अन्न से अपने पेट की ज्वाला शान्त करती थी। इस प्रकार महान् कष्ट से अपनी अवस्था का बहुत भाग बिता लेने के पश्चात् वृद्धावस्था से ग्रस्त शरीरवाली वह घोर दुःख पाने लगी।
कदाचित्साथ चांडाली गोकर्णं तं महाजनान् ॥ आयास्यंत्यां शिवतिथौ गच्छतो बुबुधेऽन्वगान् ॥२३॥
अथासावपि चांडाली वसनासनतृष्णया ॥ महाजनान् याचयितुं संचचार शनैः शनैः ॥२४॥
गत्वा तत्राथ चांडाली प्रार्थयन्ती महाजनान्॥ यत्र तत्र चचारासौ दीनवाक्प्रसृताञ्जलिः ॥२५॥
किसी समय उस चाण्डाली को ज्ञात हुआ कि आगे आनेवाली शिवतिथि में बड़े- बड़े लोग उस गोकर्णक्षेत्र की ओर जा रहे हैं। वह चाण्डाली भी वस्त्र एवं भोजन के लोभ से महाजनों से माँगने के लिये धीरे-धीरे गोकर्ण की ओर चल पड़ी। वहाँ जाकर वह हाथ फैलाकर दीनवचन बोलती हुई और महाजनों से प्रार्थना करती हुई इधर उधर घूमने लगी।
एवमभ्यर्थयंत्यास्तु चांडाल्याः प्रसृताञ्जलौ ॥ एकः पुण्यतमः पान्थः प्राक्षिपद्बिल्वमंजरीम् ॥२६ ॥
तामंजलौ निपतिता सा विमृश्य पुनः पुनः ॥ अभक्ष्यमिति मत्वाथ दूरे प्राक्षिपदातुरा ॥ २७ ॥
तस्याः कराद्विनिर्मुक्ता रात्रौ सा बिल्वमंजरी ॥ पपात कस्यचिद्दिष्ट्या शिवलिंगस्य मस्तके ॥ २८ ॥
सैवं शिवचतुर्दश्यां रात्रौ पान्थजनान्मुहुः ॥ याचमानापि यत्किंचिन्न लेभे दैवयोगतः ॥२९॥
एवं शिवचतुर्दश्या व्रतं जातं च निर्मलम् ॥ अज्ञानतो जागरणं परमानन्ददायकम् ॥३०॥
ततः प्रभाते सा नारी शोकेन महता वृता ॥ शनैर्निववृते दीना स्वदेशायैव केवलम् ॥ ३१ ॥
इस प्रकार याचना करती हुई उस चाण्डाली की फैली हुई अंजलि में एक पुण्यात्मा यात्री ने बेल की मंजरी डाल दी। बार- बार विचार करके 'यह खानेयोग्य नहीं है'- ऐसा समझकर भूख से व्याकुल उसने अंजलि में पड़ी हुई उस मंजरी को दूर फेंक दिया। उसके हाथ से छूटी हुई वह बिल्वमंजरी शिवरात्रि में भाग्यवश किसी शिवलिंग के मस्तकपर जा गिरी। इस प्रकार चतुर्दशी के दिन यात्रियों से बार- बार याचना करने पर भी दैवयोग से उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। तब इस तरह से अनजाने में उसका शिवचतुर्दशी का उत्तम व्रत और अत्यन्त आनन्ददायक जागरण भी हो गया। उसके पश्चात् प्रभात होने पर वह स्त्री शोक से युक्त होकर धीरे-धीरे अपने घरके लिये चल पड़ी।
श्रांता चिरोपवासेन निपतंती पदेपदे ॥ अतीत्य तावतीं भूमिं निपपात विचेतना ॥३२॥
अथ सा शंभुकृपया जगाम परमं पदम् ॥ आरुह्य सुविमानं च नीतं शिवगणैर्द्रुतम् ॥३३॥
आदौ यदेषा शिवनाम नारी प्रमादतो वाप्यसती जगाद ॥ तेनेह भूयः सुकृतेन विप्रा महाबलस्थानमवाप दिव्यम् ॥३४॥
श्रीगोकर्णे शिवतिथावुपोष्य शिवमस्तके ॥ कृत्वा जागरणं सा हि चक्रे बिल्वार्चनं निशि ॥ ३५ ॥
अकामतः कृतस्यास्य पुण्यस्यैव च तत्फलम् ॥ भुनक्त्यद्यापि सा चैव महाबलप्रसादतः ॥ ३६ ॥
बहुत समय के उपवास से थक चुकी वह पग-पगपर गिरती हुई उसी गोकर्णक्षेत्र की भूमि पर चलते-चलते प्राणहीन होकर गिर पड़ी। उसने शिवजी की कृपा से परम पद प्राप्त किया; शिव- गण उसे विमान पर बैठाकर शीघ्र ही ले गये। हे ब्राह्मणो! पूर्वजन्म में इस व्यभिचारिणी स्त्री ने जो अज्ञान में शिवजी के नामका उच्चारण किया था, उसी पुण्य से उसने दूसरे जन्म में महाबलेश्वर के दिव्य स्थान को प्राप्त किया। उसने गोकर्ण में शिवतिथि को उपवास करके शिव के मस्तक पर बिल्वपत्र अर्पितकर पूजन किया तथा रात्रिमें जागरण किया। निष्कामभाव से किये गये इस पुण्य का ही फल है कि वह आज भी महाबलेश्वर की कृपा से सुख भोग रही है।
एवंविधं महालिंगं शंकरस्य महाबलम् ॥ सर्वपापहरं सद्यः परमानन्ददायकम् ॥ ३७ ॥
एवं वः कथितं विप्रा माहात्म्यं परमं मया ॥ महाबलाभिधानस्य शिवलिंगवरस्य हि ॥ ३८ ॥
अथान्यदपि वक्ष्यामि माहात्म्यं तस्य चाद्भुतम् ॥ श्रुतमात्रेण येनाशु शिवे भक्तिः प्रजायते ॥ ३९ ॥
हे ब्राह्मणो! शिवजी का इस प्रकार का महाबलेश्वर नामक महालिंग शीघ्र ही सभी पापको नष्ट करनेवाला तथा परमानन्द प्रदान करने वाला है। हे ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने महाबलेश्वर नामक उत्तम शिवलिंग के परम माहात्म्य का वर्णन आपलोगों से किया अब मैं उसके अन्य अद्भुत माहात्म्य को भी कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्र से शीघ्र ही शिवजी के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है।
इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां चाण्डालीसद्गतिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥

शिवपुराणम्/संहिता ४ (कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः १०
॥ सूत उवाच ॥
श्रीमतीक्ष्वाकुवंशे हि राजा परमधार्मिकः ॥ आसीन्मित्रसहो नाम श्रेष्ठस्सर्वधनुष्मताम् ॥ १ ॥
तस्य राज्ञः सुधर्मिष्ठा मदयन्ती प्रिया शुभा॥ दमयन्ती नलस्येव बभूव विदिता सती ॥ २ ॥
स एकदा हि मृगयास्नेही मित्रसहो नृपः ॥ महद्बलेन संयुक्तो जगाम गहनं वनम् ॥ ३ ॥
विहरंस्तत्र स नृपः कमठाह्वं निशाचरम् ॥ निजघान महादुष्टं साधुपीडाकरं खलम् ॥ ४ ॥
अथ तस्यानुजः पापी जयेयं छद्मनैव तम्॥ मत्वा जगाम नृपतेरन्तिक च्छद्मकारकः ॥५॥
तं विनम्राकृतिं दृष्ट्वा भृत्यतां कर्तुमागतम्॥ चक्रे महानसाध्यक्षमज्ञानात्स महीपतिः॥६॥
अथ तस्मिन्वने राजा कियत्कालं विहृत्य सः ॥ निवृत्तो मृगयां हित्वा स्वपुरीमाययौ मुदा ॥ ७ ॥
पितुः क्षयाहे सम्प्राप्ते निमंत्र्य स्वगुरुं नृपः ॥ वसिष्ठं गृहमानिन्ये भोजयामास भक्तितः ॥८॥
रक्षसा सूदरूपेण संमिश्रितनरामिषम् ॥ शाकामिषं पुरः क्षिप्तं दृष्ट्वा गुरुरथाब्रवीत् ॥ ९ ॥
सूतजी बोले : हे महर्षियो! समृद्धिसम्पन्न इक्ष्वाकुवंश में परम धार्मिक तथा सभी धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ मित्रसह नामक राजा था। उस राजाकी मदयन्ती नामक धर्मनिष्ठ तथा कल्याणमयी पत्नी थी, जो कि राजा नल की प्रसिद्ध गुणों वाली साध्वी दमयन्ती के समान सतीत्वसम्पन्न थी। आखेट में रुचि रखने वाला वह राजा मित्रसह एक बार विशाल सेना को साथ लेकर घने वन में गया। वहाँ घूमते हुए उस राजा ने साधुओं को दुःख देने वाले महादुष्ट तथा नीच कमठ नामक राक्षस को मार डाला। तब उस निशाचर का पापी छोटा भाई मैं इस राजा को छल से जीत लूँगा ऐसा निश्चय करके कपटरूप धारण कर राजा के पास गया। उसे विनम्र आकृतिवाला तथा सेवा करनेके लिये आया हुआ देखकर उस राजा ने बिना सोचे समझे ही उसे रसोई का अध्यक्ष बना दिया। वन में कुछ समय तक शिकार खेलने के बाद राजा ने खेल छोड़ दिया और प्रसन्नतापूर्वक अपनी राजधानी लौट आया। उसके बाद राजा ने पिता का श्राद्ध दिन आने पर अपने गुरु वसिष्ठजी को आमन्त्रित कर उन्हें घर बुलाया और भक्तिपूर्वक भोजन कराया। रसोइये का रूप धारण करने वाले उस राक्षस ने वसिष्ठजी के सामने मनुष्य के मांससे मिश्रित शाकामिष परोसा; तब गुरु इसे देखकर कहने लगे-
॥ गुरुरुवाच ॥
धिक् त्वां नरामिषं राजंस्त्वयैतच्छद्मकारिणा ॥ खलेनोपहृतं मह्यं ततो रक्षो भविष्यसि ॥ १० ॥
रक्षःकृतं च विज्ञाय तदैवं स गुरुस्तदा ॥ पुनर्विमृश्य तं शापं चकार द्वादशाब्दिकम् ॥ ११ ॥
स राजानुचितं शापं विज्ञाय क्रोधमूर्छितः ॥ जलांजलिं समादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ १२ ॥
तदा च तत्प्रिया साध्वी मदयन्ती सुधर्मिणी ॥ पतित्वा पादयोस्तस्य शापं तं हि न्यवारयत् ॥ १३ ॥
ततो निवृत्तशापस्तु तस्या वचनगौरवात् ॥ तत्याज पादयोरंभः पादौ कल्मषतां गतौ ॥ १४ ॥
ततःप्रभृति राजाभूत्स लोकेस्मिन्मुनीश्वराः ॥ कल्मषांघ्रिरिति ख्यातः प्रभावात्तज्जलस्य हि ॥ १५ ॥
गुरुजी बोले- हे राजन् तुम्हें धिक्कार है, जो कि कपटी तथा दुष्ट तुमने मुझे मनुष्य का मांस परोस दिया; अत: तुम राक्षस हो जाओगे। पुनः इसे उस राक्षस का कृत्य जानकर उन गुरु ने विचार करके उस शाप की अवधि बारह वर्षपर्यन्त कर दी। तब वह राजा गुरु के द्वारा बिना सोचे समझे दिये गये इस शाप को अनुचित जानकर क्रोध से व्याकुल हो गया और अंजलि में जल लेकर गुरु को शाप देने को उद्यत हुआ। तब उसकी धर्मशीला पतिव्रता स्त्री मदयन्ती ने उसके चरणों में गिरकर उसे गुरु को शाप देने से मना किया। तब राजा अपनी पत्नी की बात का आदर करके शाप देने से रुक गया और उसने जल को अपने चरणों पर गिरा दिया, जिससे उसके चरण काले पड़ गये। उसके अनन्तर कुछ समय तक उस वन में विहार करके वह राजा शिकार से निवृत्त हो गया हे मुनीश्वरो! उसी समय से वह राजा उस जल के प्रभाव से इस लोक में कल्माषपाद नाम से प्रसिद्ध हुआ।
राजा मित्रसहः शापाद्गुरो ऋषिवरस्य हि ॥ बभूव राक्षसो घोरो हिंसको वनगोचरः ॥१६॥
स बिभ्रद्राक्षसं रूपं कालान्तकयमोपमम् ॥ चखाद विविधाञ्जंतून्मानुषादीन्वनेचरः ॥ १७ ॥
स कदाचिद्वने क्वापि रममाणौ किशोरकौ ॥ अपश्यदन्तकाकारो नवोढौ मुनिदम्पती ॥ १८ ॥
राक्षसः स नराहारः किशोरं मुनिनन्दनम् ॥ जग्धुं जग्राह शापार्त्तो व्याघ्रो मृगशिशुं यथा ॥ १९ ॥
कुक्षौ गृहीतं भर्तारं दृष्ट्वा भीता च तत्प्रिया॥ सा चक्रे प्रार्थनं तस्मै वदंती करुणं वचः ॥ २० ॥
तदनन्तर ऋषिश्रेष्ठ गुरु के शाप से वह राजा मित्रसह वन में विचरण करने वाला भयानक हिंसक राक्षस हो गया। कालान्तक यम के समान राक्षसरूप धारणकर वह राजा बन में घूमता हुआ अनेक प्रकार के जन्तुओं एवं मनुष्यों का भक्षण करने लगा। यमराज के समान रूपवाले उस राक्षस ने किसी समय वन में विहार करते हुए किन्हीं नवविवाहित किशोर मुनिदम्पती को देखा। तब मनुष्य का आहार करने वाले उस शापग्रस्त राक्षस ने किशोर मुनिपुत्र को खानेके लिये इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार व्याघ्र मृगशावक को पकड़ लेता है। इसके बाद राक्षसद्वारा काँखमें दबाये गये अपने पतिको देखकर उसकी पत्नी भयभीत होकर करुण वचन बोलती हुई उससे प्रार्थना करने लगी।
प्रार्थ्यमानोऽपि बहुशः पुरुषादः स निर्घृणः॥ चखाद शिर उत्कृत्य विप्रसूनोर्दुराशयः॥२१॥
अथ साध्वी च सा दीना विलप्य भृशदुःखिता॥ आहृत्य भर्तुरस्थीनि चितां चक्रे किलोल्बणाम् ॥२२॥
भर्तारमनुगच्छन्ती संविशंती हुताशनम्॥ राजानं राक्षसाकारं सा शशाप द्विजाङ्गना ॥२३॥
अद्यप्रभृति नारीषु यदा त्वं संगतो भवेः ॥ तदा मृतिस्तवेत्युक्त्वा विवेश ज्वलनं सती ॥ २४ ॥
सोपि राजा गुरोश्शापमनुभूय कृतावधिम् ॥ पुनः स्वरूपमास्थाय स्वगृहं मुदितो ययौ ॥ २५ ॥
किंतु उसके अनेक बार प्रार्थना करनेपर भी नरभक्षी, निर्दयी तथा दूषित अन्तःकरणवाला वह राक्षस ब्राह्मणपुत्र का सिर नोचकर खा गया। तब अत्यन्त दुःखित उस दीन साध्वी स्त्री ने विलापकर पति की अस्थिय एकत्रित कर विशाल चिता का निर्माण किया। उसके बाद पतिका अनुगमन करने वाली उस ब्राह्मण पत्नी ने अग्नि में प्रवेश करते समय राक्षसरूपधारी राजा को शाप दिया कि आज से यदि तुम किसी स्त्री से संगम करोगे, तो उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जायगी ऐसा कहकर वह पतिव्रता अग्नि में प्रविष्ट हो गयी। वह राजा भी निर्धारित अवधि तक गुरु के शाप का अनुभव करके पुनः अपना वास्तविक रूप धारणकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया।
ज्ञात्वा विप्रसतीशापं मदयन्ती रतिप्रियम् ॥ पतिं निवारयामास वैधव्यादतिबिभ्यती ॥ २६ ॥
अनपत्यो विनिर्विण्णो राज्यभोगेषु पार्थिवः ॥ विसृज्य सकलां लक्ष्मीं वनमेव जगाम ह ॥ २७ ॥
स्वपृष्ठतः समायान्तीं ब्रह्महत्यां सुदुःखदाम् ॥ ददर्श विकटाकारां तर्जयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥
तस्या निर्भद्रमन्विच्छन् राजा निर्विण्णमानसः ॥ चकार नानोपायान्स जपव्रतमखादिकान् ॥ २९ ॥
नानोपायैर्यदा राज्ञस्तीर्थस्नानादिभिर्द्विजाः ॥ न निवृत्ता ब्रह्महत्या मिथिलां स ययौ तदा ॥३०॥
बाह्योद्यानगतस्तस्याश्चितया परयार्दितः॥ ददर्श मुनिमायान्तं गौतमं पार्थिवश्च सः॥३१॥
अभिसृत्य स राजेन्द्रो गौतमं विमलाशयम् ॥ तद्दर्शनाप्तकिंचित्कः प्रणनाम मुहुर्मुहुः॥३२॥
अथ तत्पृष्टकुशलो दीर्घमुष्णं च निश्वसन् ॥ तत्कृपादृष्टिसंप्राप्तसुख प्रोवाच तं नृपः ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणी के शाप को जानकर वैधव्य से अत्यन्त डरती हुई मदयन्ती ने रतिके लिये उत्सुक अपने पति को रोका। उसने अपने पीछे-पीछे आती हुई तथा बार बार धमकाती हुई विकट आकार वाली दुःखदायिनी ब्रह्महत्या को देखा। उससे पीछा छुड़ाने की इच्छावाले दुःखित चित्त उस राजा ने जप, व्रत, यज्ञ आदि अनेक उपाय किये। हे ब्राह्मणो! जब तीर्थ स्नान आदि अनेक उपायों से भी उस राजा की ब्रह्महत्या दूर नहीं हुई, तब वह राजा मिथिलापुरी चला गया। उस ब्रह्महत्या की चिन्तासे अत्यन्त दुःखित राजा मिथिलापुरी के बाहर उद्यान में पहुँचा; वहाँ उसने मुनि गौतम को आते हुए देखा। राजाने विशुद्ध अन्तःकरण वाले उन महर्षि के पास जाकर उनके दर्शन से कुछ शान्ति प्राप्त करके बार बार उन्हें प्रणाम किया। उसके अनन्तर ऋषि ने उसका कुशल मंगल पूछा तब उनकी कृपादृष्टि से कुछ सुख का अनुभव करके दीर्घ तथा गर्म श्वास लेकर राजा ने उनसे कहा-
॥ राजोवाच ॥
मुने मां बाधते ह्येषा ब्रह्महत्या दुरत्यया ॥ अलक्षिता परैस्तात तर्जयंती पदेपदे ॥ ३४ ॥
यन्मया शापदग्धेन विप्रपुत्रश्च भक्षितः ॥ तत्पापस्य न शान्तिर्हि प्रायश्चित्तसहस्रकैः ॥ ३५॥
नानोपायाः कृता मे हि तच्छान्त्यै भ्रमता मुने ॥ न निवृत्ता ब्रह्महत्या मम पापात्मनः किमु ॥ ३६ ॥
अद्य मे जन्मसाफल्यं संप्राप्तमिव लक्षये ॥ यतस्त्वद्दर्शनादेव ममानन्दभरोऽभवत् ॥ ३७ ॥
अद्य मे तवपादाब्ज शरणस्य कृतैनसः ॥ शांतिं कुरु महाभाग येनाहं सुखमाप्नुयाम् ॥ ३८ ॥
राजा बोले- हे मुने हे तात! दूसरों के द्वारा न देखी जा सकनेवाली यह दुस्तर ब्रह्महत्या पग-पग पर धमकी देती हुई मुझे बहुत दुःख दे रही है। शापग्रस्त होने के कारण जो मैंने ब्राह्मणपुत्र का भक्षण किया था, उस पाप की शान्ति हजारों प्रायश्चित्त करने पर भी नहीं हो पा रही है। हे मुने! इधर-उधर घूमते हुए उसकी शान्ति के लिये मेरे द्वारा अनेक उपाय किये गये, फिर भी पापी की ब्रह्महत्या निवृत्त नहीं हुई। आज मुझे मालूम पड़ता है कि मेरा जन्म सफल हो गया; क्योंकि आपके दर्शनमात्र से मुझे विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है। अतः हे महाभाग! आपके चरणकमल की शरण में आये हुए मुझ पापकर्मा को शान्ति प्रदान कीजिये, जिससे मैं सुख प्राप्त कर सकूँ।
॥ सूत उवाच ॥
इति राज्ञा समादिष्टो गौतमः करुणार्द्रधीः ॥ समादिदेश घोराणामघानां साधु निष्कृतिम् ॥३९॥
सूतजी बोले- हे ऋषियो! राजा के इस प्रकार प्रार्थना करने पर करुणा से आर्द्र चित्तवाले गौतमजी ने घोर पापों से छुटकारा पाने के लिये राजा को श्रेष्ठ उपाय बताया।
॥ गौतम उवाच ॥
साधु राजेन्द्र धन्योसि महाघेभ्यो भयन्त्यज॥ शिवे शास्तरि भक्तानां क्व भयं शरणैषिणाम्॥४०॥
शृणु राजन्महाभाग क्षेत्रमन्यत्प्रतिष्ठितम् ॥ महापातकसंहारि गोकर्णाख्यं शिवालयम् ॥ ४१ ॥
तत्र स्थितिर्न पापानां महद्भ्यो महतामपि ॥ महाबलाभिधानेन शिवः संनिहितः स्वयम् ॥४२॥
सर्वेषां शिवलिंगानां सार्वभौमो महाबलः ॥ चतुर्युगे चतुर्वर्णस्सर्वपापापहारकः॥४३॥
पश्चिमाम्बुधितीरस्थं गोकर्णं तीर्थमुत्तमम् ॥ तत्रास्ति शिवलिंगं तन्महापातकनाशकम् ॥४४॥
तत्र गत्वा महापापाः स्नात्वा तीर्थेषु भूरिशः॥ महाबलं च संपूज्य प्रयाताश्शांकरम्पदम् ॥ ४९ ॥
तथा त्वमपि राजेन्द्र गोकर्ण गिरिशालयम् ॥ गत्वा सम्पूज्य तल्लिंगं कृतकृत्यत्वमाप्नुयाः ॥ ४६ ॥
तत्र सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वाभ्यर्च्य महाबलम् ॥ सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकन्त्वमाप्नुयाः ॥ ४७ ॥
गौतमजी बोले- हे राजेन्द्र तुम धन्य हो, अब तुम महापापों के भय का त्याग करो; सब पर शासन करने वाले शिव के रहने पर उनके शरणागतों को भय कहाँ ? हे राजन्! हे महाभाग ! सुनो; महापातकों को दूर करनेवाला गोकर्ण नामक एक अन्य प्रसिद्ध शिवक्षेत्र है, वहाँ पर शिवजी महाबल नाम से स्वयं विराजमान रहते हैं - वहाँ बड़े-से-बड़े पाप भी टिक नहीं सकते। महाबलेश्वर लिंग सभी लिंगों का सार्वभौम सम्राट् है, जो चार युगों में चार प्रकार के वर्ण धारण करता है। और सभी प्रकार के पापों को विनष्ट करनेवाला है। पश्चिमी समुद्र के तट पर उत्तम गोकर्णतीर्थ स्थित है; वहाँ पर जो शिवलिंग है, वह महापातकों का नाश करनेवाला है। महापापी भी वहाँ जाकर सभी तीर्थों में बारंबार स्नानकर महाबलेश्वर की पूजाकर शैव पद को प्राप्त हुए हैं। हे राजेन्द्र! उसी प्रकार तुम भी उस गोकर्ण नामक शिवस्थान में जाकर उस लिंग का पूजनकर अपने मनोरथ को प्राप्त करो। तुम वहाँ सभी तीर्थों में स्नानकर महाबलेश्वर का भलीभाँति पूजन करके सभी पापों से छुटकारा पाकर शिवलोक को प्राप्त करो।
॥ सूत उवाच ॥
इत्यादिष्टः स मुनिना गौतमेन महात्मना ॥ महाहृष्टमना राजा गोकर्णं प्रत्यपद्यत ॥ ४८ ॥
तत्र तीर्थेषु सुस्नात्वा समभ्यर्च्य महाबलम् ॥ निर्धूताशेषपापौघोऽलभच्छंभोः परम्पदम्॥४९॥
य इमां शृणुयान्नित्यं महाबलकथां प्रियाम् ॥ त्रिसप्तकुलजैस्सार्द्धं शिवलोके व्रजत्यसौ ॥ ५० ॥
इति वश्च समाख्यातं माहात्म्यं परमाद्भुतम् ॥ महाबलस्य गिरिशलिंगस्य निखिलाघहृत् ॥५१॥
सूतजी बोले- हे महर्षियो! इस प्रकार महान् आत्मावाले महर्षि गौतम मुनि से आज्ञा प्राप्तकर वह राजा अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर गोकर्णतीर्थ में गया और वहाँ सभी तीर्थों में स्नानकर महाबलेश्वर की पूजा करके अपने सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर उसने शिव के परम पद को प्राप्त किया। जो मनुष्य महाबलेश्वर की इस प्रिय कथा को नित्य सुनता है, वह इक्कीस पीढ़ी के वंशजों सहित शिवलोकको जाता है। हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने आपलोगों से महाबलेश्वर नामक शिवलिंगके सर्वपापनाशक परम अद्भुत माहात्म्यका वर्णन किया।
इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाबाह्वशिवलिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

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EXACT ORIGINAL GPS LOCATION : 25.31205224399455, 83.00329453270533

महाबल (महाबलेश्वर) लिंग सांब आदित्य के समीप मंदिर के नीचे दक्षिण भाग में स्थित है।
The Mahabal (Mahabaleshwar) linga is situated in the southern part below the temple near Samb Aditya.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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