Gandharveshwar - काशी में गंधर्वों द्वारा स्थापित गंधर्वेश्वर लिङ्ग और गन्धर्व कुंड तत्पश्चात पौराणिक नाम का लोप एवं गन्धर्व तीर्थ पर कलिकाल में स्कन्दमाता की मूर्ति स्थापना

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Gandharveshwar
गंधर्वेश्वर लिङ्ग एवं गंधर्वकुण्ड

पौराणिक जीपीएस निरूपण : गंधर्वेश्वर (यहाँ देखें) / गंधर्वकुण्ड (यहाँ देखें)

पौराणिक प्रस्तावना : स्कन्दपुराण काशीखण्ड अनुसार काशी में गंधर्वों द्वारा स्थापित गंधर्वेश्वर लिङ्ग और गन्धर्व कुंड वृषेश्वर से उत्तर तथा कर्कोटक नाग से पहले है। संस्कृत श्लोक का अर्थ करते हुये अधिकांश प्रकाशन ने पूर्वतः को पूर्व दिशा बताया है। वहीँ पूर्वतः का अर्थ इस प्रकरण में पहले या पश्चात से है। पौराणिक जीपीएस निरूपण देखें। गंधर्वों का जन्म ब्रह्मा जी के गायन करते समय हुआ था। ब्रह्मा जी की शक्ति वागीश्वरी अर्थात सरस्वती हैं। इस प्रकार गन्धर्वों की अधिष्ठात्री देवी भी भगवती वागीश्वरी अर्थात सरस्वती जी ही हैं।

पौराणिक नाम का लोप : ऐतिहासिक उथल पुथल और शास्त्रों की उदासीनता ने काशी के मूल तीर्थों का नाम कहीं अपभ्रंश और बहुतेरे मनमाना कर दिया। यहाँ गंधर्वों का तीर्थ होने के कारण नाम अपभ्रंश में गंधर्वों के अधिष्ठात्र देवता बागेश्वर और देवी के नाम पर वागेश्वरी प्रचलन में है। गंधर्वेश्वर के पूर्व स्थित गन्धर्व कुंड भी पाट दिया गया, वर्तमान जहाँ मैदान है बाद में यहाँ स्कन्दमाता की मूर्ति स्थापित की गयी और स्कन्दमाता का नाम प्रचलन में आया जबकि काशी में स्कन्दमाता अर्थात भवानी पार्वती अपने पौराणिक स्थान पर पूर्ववत हैं गंधर्वों से सम्बंधित उर्वशी और पुरुरवा द्वारा स्थापित लिङ्ग भी इसी परिक्षेत्र में है निचे क्रमशः इस पौराणिक तीर्थ की प्रमाणिकता... 

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः_५
ध्यायतोंगात्समुत्पन्ना गन्धर्वास्तस्य तत्क्षणात् । पिबन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वास्तेन ते द्विज ॥४६॥
गान करते समय ब्रह्मा जी के शरीर से तत्क्षण ही गन्धर्व उत्पन्न हुए। हे द्विज! वे वाणी का उच्चारण करते अर्थात्‌ गायन करते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये “गन्धर्व” कहलाये।

नारदपुराणम्-_पूर्वार्धः/अध्यायः_८९
वरदा वाक्यदा वाणी विविधा वेदविग्रहा ॥ विद्या वागीश्वरी सत्या संयता च सरस्वती ॥ १३२ ॥

सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृदेवताम् । देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जना: ॥
वागीश्वरी या वाग्देवी अर्थात विद्या और वाणी की अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती : वाग्देवी ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का ही एक अन्य नाम है। ग्रंथों के अनुसार ये ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी मानी जाती हैं। अमित तेजस्वनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघ मास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसंत पंचमी को वाग्देवी का आविर्भाव दिवस माना जाता है। अतः 'वागीश्वरी जयंती' व 'श्रीपंचमी' नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है। ऋग्वेद में सरस्वती देवी की असीम महिमा व प्रभाव का वर्णन है। माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट माँ सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं।

उपरोक्त विष्णु पुराण श्लोक के अनुसार वे ब्रह्मा के पुत्र थे और चूँकि वे माँ वाग्देवी का पाठ अर्थात गां को धारण किये जन्मे थे अतः उनका नाम गन्धर्व पड़ा। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में रहते हैं और वहाँ गायन का कार्य करते हैं। अग्निपुराण में गंधर्वों के ग्यारह गण माने गए हैं, अश्राज्य, अंधारि, बंभारि, शूर्यवर्च्चा, कृधु, हस्त, सुहस्त, स्वन्, मूर्धन्वा, विरवावसु, और कृशालु। इन गंधर्वों में हाहाहूहू, चित्ररथ, रस, विश्वावसु, गोमायु, तुंबुरु और नंदि प्रधान माने गए हैं। वेदों में गंधर्व दो प्रकार के माने गए हैं क द्युस्थान के, दूसरे अतरिक्ष स्थान के। द्युस्थान के गंधर्वों को दिव्य गंधर्व भी कहते हैं। ये सोम के रक्षक, रोगों के चिकित्सक, सूर्य के अश्वों के वाहक, तथा स्वर्गीय ज्ञान के प्रकाशक माने गए हैं। यम और यमी के उत्पादक भी गंधर्व ही कहे गए हैं। मध्यस्थान के गंधर्व नक्षत्रचक्र के प्रवर्तक और सोम के रक्षक माने गए हैं। इंद्र इनसे लड़कर सोम को छीनता और मनुष्यों को देता हैं। इनाका स्वामी वरुण है। द्युस्थान के गंधर्व से सूर्य, सूर्य की रश्मि, तेज, प्रकाश इत्यादि ऐर मध्यस्थान के गंधर्व से मेघ, चंद्रमा, विद्युत आदि निरुक्त शास्त्र के अधार पर लिये जाते हैं क्योंकि 'गा' या 'गो' को धारण करने वाले गंधर्व कहे जाते हैं; और 'गा' या 'गो' से पृथिवी, वाणी, किरण इत्यादि का ग्रहण होता है। इसके अतिरिक्त उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में भी गंधर्वों के दो भेद मिलते हैं- देव गंधर्व और मनुष्य गंधर्व। कहीं गंधर्व को राक्षस, पिशाचादि के समय एक प्रकार का भूत माना है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६६
महामुण्डा प्रतीच्यां तु चतुःसागरवापिका ॥ तस्यां स्नातो भवेत्स्नातः सागरेषु चतुर्ष्वपि ॥ १७ ॥
महाप्रसिद्धं तत्स्थानं चतुःसागरसंज्ञितम्॥ चत्वारि तत्र लिंगानि सागरैः स्थापितानि च ॥ १८ ॥
तस्या वाप्याश्चतुर्दिक्षु पूजितानि दहंत्यघम् ॥ तदुत्तरे महालिंगं वृषभेश्वरसंज्ञितम् ॥ १९ ॥
हरस्य वृषभेणैव स्थापितं तत्स्वभक्तितः ॥ तस्य दर्शनतः पुंसां षण्मासान्मुक्तिरुद्भवेत् ॥ २० ॥
महामुण्डा के पश्चिम में चतुःसागरवापी है। इसमें स्नान द्वारा चारों सागर में स्नान करने का फल मिलता है। यह स्थान चतुःसागर नाम से अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहां चारों सागर द्वारा स्थापित चार लिङ्ग हैं। इस सागरवापी के चतुर्दिक्‌ स्थित चारों लिङ्ग की पूजा करने वाले व्यक्ति के सभी पाप धुल जाते हैं। इसके उत्तर में भगवान्‌ हर के वृषभ द्वारा भक्तिपूर्वक स्थापित वृषभेश्वर या वृषेश्वर नामक महालिङ्ग है। इनका दर्शन करने से मानवगण मात्र छः मास में मुक्त हो जाते हैं।
वृषेश्वरादुदीच्यां तु गंधर्वेश्वरसंज्ञितम् ॥ गंधर्वकुण्डं तत्प्राच्यां तत्र स्नात्वा नरोत्तमः ॥ २१ ॥
गंधर्वेश्वरमभ्यर्च्य दत्त्वा दानानि शक्तितः ॥ सन्तर्प्य पितॄदेवांश्च गंधर्वैः सह मोदते ॥ २२ ॥
वृषेश्वर के उत्तर में गन्धर्वेश्वर नामक शिवलिङ्ग विराजित हैं। उसके पूर्व में गन्धर्वकुण्ड है। जो मानव उक्त कुण्ड में स्नान करने के पश्चात्‌ गन्धर्वेश्वर की अर्चना करता है तथा भत्तिपूर्वक वहां विविधदान और देवता-पितरों का तर्पण करता है। वह गन्धर्वों के साथ परमसुखपूर्वक कालयापन (दिव्या समय व्यतीत) करता है।
कर्कोटनामा नागोस्ति गन्धर्वेश्वरपूर्वतः ॥ तत्र कर्कोटवापी च लिंगं कर्कोटकेश्वरम् ॥ २३ ॥
तस्यां वाप्यां नरः स्नात्वा कर्कोटेशं समर्च्य च ॥ कर्कोटनागमाराध्य नागलोके महीयते ॥ २४ ॥
गन्धर्वेश्वर के पूर्वभाग अर्थात पहले कर्कोटक नाग, कर्कोटक वापी तथा कर्कोटकेश्वर नामक शिवलिङ्ग है। जो व्यक्ति इस वापी में स्नान करके कर्कोटेश्वर तथा कर्कोटकनाग की अर्चना करता है, वह परम सुखपूर्वक नागलोक में निवास करता है।
कर्कोटेशात्प्रतीच्यां तु धुंधुमारीश्वराभिधम् ॥ तल्लिंगाभ्यर्चनात्पुंसां न भवेद्वैरिजं भयम् ॥ २६॥
पुरूरवेश्वरं लिंगं तदुदीच्यां व्यवस्थितम् ॥ द्रष्टव्यं तत्प्रयत्नेन चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ २७॥
कर्कोटकेश्वर के पश्चिम में धुन्धुमारीश्वर नामक लिङ्ग स्थित है। धुन्धुमारीश्वर लिङ्ग की पूजा से मनुष्यों का शत्रु भय दूर हो जाता है। उसके उत्तर में पुरुरवा द्वारा स्थापित पुरूरवेश्वर लिङ्ग है। यत्नतः इनका दर्शन करें। पुरूरवेश्वर लिङ्ग के दर्शन से चतुर्वर्ग (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) का फल प्राप्त होता है।

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EXACT ORIGINAL GPS LOCATION : 25.327017294033208, 83.01169174930594

गंधर्वेश्वर नामक पौराणिक लिङ्ग अपने (लुप्त) कुंड समेत जैतपुरा, वाराणसी में बागेश्वर नाम से प्रचलित है।
The Pauranik Linga named Gandharveshwar along with its (lost) pond is popular by the name Bageshwar in Jaitpura at J.6/85, Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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