Gabhastishwar - गभस्तीश्वर - काशी में गंगा के आगमन से पूर्व भगवान्‌ सूर्य द्वारा पञ्चनद तीर्थ (काशीस्थ पंचगंगा) में गभस्तीश्वर नामक शिवलिङ्ग तथा मंगलागौरी नामक सर्वाभीष्ठप्रदा सर्वमंगलप्रदा दुर्गामूर्त्ति प्रतिष्ठित कर देवमान से एक लाख (दिव्य वर्ष) तक उग्रतप करना तदन्तर तपस्याकाल में अत्यधिक श्रम होने के कारण उनकी किरणों से प्रबल स्वेद निकल वहीं पुण्य नदी रूपेण परिणत हो किरणा नाम से सुविख्यात होना। विश्व स्थित समस्त प्राणीगण का यह आक्षेप कि - वेदों ने सूर्य को जगदात्मा कहा है, वे आत्मा ही यदि देह को तापित करें, तब और कौन उसकी रक्षा कर सकेगा? यह सुनकर विश्वरूप भगवान विश्वनाथ का सूर्य को वर देने आना.....

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गभस्तीश्वर - काशी में गंगा के आगमन से पूर्व भगवान्‌ सूर्य द्वारा पञ्चनद तीर्थ (काशीस्थ पंचगंगा) में गभस्तीश्वर नामक शिवलिङ्ग तथा मंगलागौरी नामक सर्वाभीष्ठप्रदा सर्वमंगलप्रदा दुर्गामूर्त्ति प्रतिष्ठित कर देवमान से एक लाख (दिव्य वर्ष) तक उग्रतप करना तदन्तर तपस्याकाल में अत्यधिक श्रम होने के कारण उनकी किरणों से प्रबल स्वेद निकल वहीं पुण्य नदी रूपेण परिणत हो किरणा नाम से सुविख्यात होना। विश्व स्थित समस्त प्राणीगण का यह आक्षेप कि - वेदों ने सूर्य को जगदात्मा कहा है, वे आत्मा ही यदि देह को तापित करें, तब और कौन उसकी रक्षा कर सकेगा? यह सुनकर विश्वरूप भगवान विश्वनाथ का सूर्य को वर देने आना..... 

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३३
एषा सा मंगलागौरी काश्यां परममंगलम् ॥१५२॥ (१/२)
यत्प्रसादादवाप्नोति नरोऽत्र च परत्र च ॥ मयूखादित्यसंज्ञोयं रश्मिमाली तमोपहः ॥१५३॥
गभस्तीशो महालिंगमेतद्दिव्यमहःप्रदम् ॥ मृकंडुसूनुनाप्यत्र तपस्तप्तं पुरा महत् ॥१५४॥
लिंगं संस्थाप्य परमं स्वनाम्नायुःप्रदं परम् ॥ किरणेश्वरनामैतल्लिंगं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥१५५॥
सकृन्न तमिदं लोकं नयेत्किरणमालिनः ॥ धौतपापेश्वरं लिंगमेतत्पातकधावनम् ॥१५६॥
जिनकी कृपा से मानव काशी में इहकाल तथा परकाल में परममंगल लाभ करते हैं, ये वे ही मंगलागौरी हैं। मयूख मण्डित तम का हरण करने वाले ये हैं मयूखादित्य। ये हैं दिव्य तेजदाता गमस्तीश्वर नामक महालिङ्ग। यहां मृकंडु पुत्र मार्कण्डेय ऋषि ने अपने नाम से आयु:प्रद लिङ्ग मार्कण्डेयेश्वर प्रतिष्ठित करके पूर्वकाल में महातप किया था। यह है त्रैलोक्य प्रसिद्ध किरणेश्वर लिङ्ग। इनको प्रणाम करने मात्र से सूर्यलोक का लाभ होता है। ये हैं पातक नाशक धौतपापेश्वर लिङ्ग।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_१००
अष्टायतन यात्रान्या कर्तव्या विघ्रशांतये ॥ दक्षेशः पार्वतीशश्च तथा पशुपतीश्वरः ॥४९॥
गंगेशो नर्मदेशश्च गभस्तीशः सतीश्वरः ॥ अष्टमस्तारकेशश्च प्रत्यष्टमि विशेषतः ॥५०॥
दृश्यान्येतानि लिंगानि महापापोपशांतये ॥ अपरापि शुभा यात्रा योगक्षेमकरी सदा ॥५१॥
विघ्न शान्ति के लिये अष्टायतन यात्रा कर्त्तव्य है। मानव प्रति अष्टमी के दिन पाप निवारणार्थ पहले दक्षेश्वर का दर्शन करके क्रमशः पार्वतीश्वर, पशुपतीश्वर, गंगेश्वर, नर्मदेश्वर, गभस्तीश्वर, सतीश्वर तथा अष्टम तारकेश्वर लिङ्ग का दर्शन करे।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५९
इत्याश्वास्य पिता कन्यां धूतपापां परंतप ॥ चंद्रकांतशिलाभूतामनुजग्राह बुद्धिमान् ॥१०३॥
तदारभ्य मुने काश्यां ख्यातो धर्मनदो ह्रदः ॥ धर्मो द्रवस्वरूपेण महापातकनाशनः ॥१०४॥
धुनी च धूतपापा सा सर्वतीर्थमयी शुभा ॥ हरेन्महाघसंघातान्कूलजानिव पादपान् ॥१०५॥
तत्र धर्मनदे तीर्थे धूतपापा समन्विते ॥ यदा न स्वर्धुनी तत्र तदा ब्रध्नस्तपो व्यधात् ॥१०६॥
गभस्तिमाली भगवान्गभस्तीश्वर सन्निधौ ॥ शीलयन्मंगलां गौरीं तप उग्रं चचार ह ॥१०७॥
नाम्ना मयूखादित्यस्य तीर्थे तत्र तपस्यतः ॥ किरणेभ्यः प्रववृते महास्वेदोतिखेदतः ॥१०८॥
किरणेभ्यः प्रवृत्ताया महास्वेदस्य संततिः ॥ ततः सा किरणानाम जाता पुण्या तरंगिणी॥१०९॥
महापापांधतमसं किरणाख्या तरंगिणी॥ ध्वंसयेत्स्नानमात्रेण मिलिता धूतपापया ॥११०॥
आदौ धर्मनदः पुण्यो मिश्रितो धूतपापया ॥ यया धूतानि पापानि सर्वतीर्थीकृतात्मना ॥१११॥
ततोपि मिलितागत्य किरणा रविणैधिता ॥ यन्नामस्मरणादेव महामोहोंधतां व्रजेत्॥११२॥
किरणा धूतपापे च तस्मिन्धर्मनदे शुभे ॥ स्रवंत्यौ पापसंहर्त्र्यौ वाराणस्यां शुभद्रवे ॥११३॥
ततो भागीरथी प्राप्ता तेन दैलीपिना सह ॥ भागीरथी समायाता यमुना च सरस्वती ॥११४॥
किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ॥ गंगा च यमुना चैव पंचनद्योत्र कीर्तिताः ॥११५॥
अतः पंचनदं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ तत्राप्लुतो न गृह्णीयाद्देहं ना पांचभौतिकम् ॥११६॥
पिता वेदशिरा ने चन्द्रकांत शिलामयी इस धूतपापा कन्या को यह आश्वासन देकर अनुगृहीत किया। हे मुनिवर! तब से काशी में धर्मनद नामक हृद प्रसिद्ध हो गया। द्रवरूपी धर्म तथा सर्वतीर्थमयी धूतपापा नदी तट पर उत्पन्न वृक्ष के समान महापापराशि का उन्मूलन करते हैं। धूतपापा नदी के साथ मिलकर यह धर्मनद तीर्थ जब गंगा नहीं आई थीं, तब भगवान्‌ गभस्तिमाली सूर्य गभस्तीश्वर के निकट मंगलागौरी की अर्चना के साथ उग्रतप कर रहे थे। मयूखादित्य नामक तीर्थ में उनके तपस्याकाल में अत्यधिक श्रम होने के कारण उनकी किरणों से प्रबल स्वेद निकलने लगा। वही पुण्य नदी रूपेण परिणत हो गया। तभी उसका नाम किरणा नदी पड़ा। यह किरणा नदी भी धूतपापा नदी से मिलकर स्नानमात्र से महापातकों को ध्वंस करती रहती है। जो धूतपापा सर्वतीर्थमयी होकर पापों को कम्पित करती है, उसके साथ सबसे पहले पुण्यमय धर्मनद का मिलन हुआ। तदनन्तर जिसका नाम सुनकर महामोह दूर हो जाता है, वह सूर्य से वर्द्धि किरणा नदी मिलती है। इस पुण्य धर्मनद से ये दोनों नदियां मिलकर काशी में पाप संहार करती हैं। तदनन्तर भगीरथ के साथ गंगा का आगमन होने पर उनके साथ यमुना एवं सरस्वती भी आकर मिलित हो गयीं। किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना तथा सरस्वती, ये पांच नदियां कही गयी हैं। यही है त्रिभुवनख्यात पञ्चनदतीर्थ। इस तीर्थ में स्नान करने वाला पुनः पञ्चभौतिक देहधारण नहीं करता।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०८४
अप्येकं कार्तिकस्याहस्तत्र वै सफलीकृतम् ॥ जपहोमार्चनादानैः कृतकृत्यास्त एव हि ॥५४॥
सर्वाण्यपि च तीर्थानि युगपत्तुलितान्यपि ॥ नाधिजन्मुः पंचनद्याः कलाया अपि तुल्यताम् ॥५५॥
स्नात्वा पांचनदे तीर्थे दृष्ट्वा वै बिंदुमाधवम् ॥ न जातु जायते धीमाञ्जननी जठराजिरे ॥५६॥
ततो ज्ञानहदं तीर्थं जडानामपि जाड्यहृत् ॥ तत्र स्नातो नरो जातु ज्ञानभ्रंशं न चाप्नुयात् ॥५७॥
तत्र ज्ञानह्रदे स्नात्वा दृष्ट्वा ज्ञानेश्वरं नरः ॥ ज्ञानं तदधिगच्छेद्वै येन नो बाध्यते पुनः ॥५८॥
ततोस्ति मंगलं तीर्थं सर्वामंगलनाशनम् ॥ तत्रावगाहनं कृत्वा भवेन्मंगलभाजनम् ॥५९॥
अमंगलानि नश्येयुर्भवेयुर्मंगलानि च ॥ स्नातुर्वै मंगले तीर्थे नमस्कर्तुश्च मंगलम् ॥६०॥
मयूखमालिनस्तीर्थं तदग्रे मलनाशनम् ॥ तत्राप्लुतो गभस्तीशं विलोक्य विमलो भवेत् ॥६१॥
मखतीर्थं तु तत्रैव मखैश्वर समीपतः ॥ मखजं पुण्यमाप्नोति तत्र स्नातो नरोत्तमः ॥६२॥
तत्पार्श्वे बिंदुतीर्थं च परमज्ञानकारणम् ॥ तत्र श्राद्धादिकं कृत्वा लभेत्सुकृतमुत्तमम् ॥६३॥
पिप्पलादस्य च मुनेस्तीर्थं तद्याम्यदिक्स्थितम् ॥ स्नात्वा शनेर्दिने तत्र दृष्ट्वावै पिप्पलेश्वरम् ॥६४॥
पिप्पलं तत्र सेवित्वा अश्वत्थ इति मंत्रतः ॥ शनिपीडां न लभते दुःस्वप्नं चापि नाशयेत् ॥६५॥
पंचनद पर कार्तिक मास में एक दिन भी स्नान करके यथाशक्ति जप, होम, दान तथा देवपूजा करने वाला व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है। एक ओर ब्रह्माण्ड के सभी तीर्थ, दूसरी ओर पंचनद को रखकर तुलना किये जाने पर समस्त तीर्थ पंचनद तीर्थ की एक कला के भी समान नहीं ठहरते। पंचनद में स्नानोपरान्त सुसंयत भाव से भगवान्‌ विन्दुमाधव का दर्शन करने वाला पुनः मातृगर्भ में नहीं आता। इसके पश्चात्‌ ही प्राणीगण की जड़ता का निवारक ज्ञानहृद है। यहां स्नान करने वाला ज्ञानभ्रष्ट नहीं होता। यहां स्नानोपरान्त ज्ञानेश्वर लिङ्ग का दर्शन करने वाला त्रितापमुक्त होकर दिव्य ज्ञान लाभ करता है। इसके पश्चात्‌ मंगलतीर्थ है। इसमें स्नान द्वारा समस्त अमंगल दूर होता हैं तथा मानव परमशिव की प्राप्ति कर लेता है। इस तीर्थ में स्नान करके मंगल को प्रणाम करे। इसके आगे मलनाशक मयूखमाली तीर्थ हैं। वहां स्नानोपरान्त गभस्तीश्वर का दर्शन करने पर सर्व पाप नाश होकर निर्मलत्व लाभ होता है। उसके निकट मखेश्वर तीर्थ है। वहां मखेश्वर लिङ्ग विराजमान हैं। इस उतमतीर्थ में स्नान करने से यज्ञ़फल मिलता है। इसके दक्षिण भाग में विन्दु नामक तीर्थ है। वह परमज्ञान का कारण है। यहां श्रद्धादि करने वाला मानव परम सुकृति फल लाभ करता है। उसके दक्षिण में पिप्पलाद मुनि का तीर्थ है। शनिवार को स्नानोपरान्त पिप्पलेश्वर का दर्शन तथा वहां पिप्पल की सेवा “अश्वत्थ” इत्यादि मन्त्र से करें। उस व्यक्ति की शनिग्रहकृत पीड़ा तथा दुःस्वप्न का नाश हो जाता है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०९७
मयूखार्कः पंचनदे गभस्तीशश्च तत्र वै ॥ १८३-१/२॥
दधिकल्पह्रदो नाम तदुदीच्यां महाप्रहिः ॥ दुर्लभं तत्प्रहिस्नानं दुर्लभं च तदीक्षणम् ॥ १८४ ॥
गभस्तीशोत्तरे भागे दधिकल्पेश्वरो हरः ॥ नरस्तमाशु संवीक्ष्य कल्पं त्र्यक्षपुरे वसेत् ॥ १८५ ॥
गभस्तीशाद्दक्षिणे तु मंगलां मंगलालयाम् ॥ उद्दिश्य मंगलां गौरीं भोजयेद्द्विजदंपती ॥ १८६ ॥
अलंकृत्य यथाशक्ति तत्पुण्यांतो न कर्हिचित् ॥ क्षितिप्रदक्षिणफला मंगलैका प्रदक्षिणा ॥ १८७ ॥
मयूखार्क और गस्तीश्वर के उत्तर में स्थित हरिकल्पहृद नामक महाकूप है। इसके जल से स्नानोपरान्त दधिकल्पेश्वर का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। यह स्नान भी दुर्लभ है। गस्तीश्वर के उत्तर में दधिकल्पेश्वर हर हैं। इस लिङ्ग का दर्शन करने वाला एक कल्पपर्यन्त शिवलोक में निवास करता है। गभस्तीश्वर के दक्षिण भाग में जो शिवालया मंगला गौरी हैं, उनके उद्देश्य से ब्राह्मण दम्पति को यथाशक्ति भूषित करके भोजन कराने वाला व्यक्ति अक्षय पुण्यलाभ करता है। उनकी प्रदक्षिणा करने से पृथिवी प्रदक्षिणा का फललाभ होता है।
वदनप्रेक्षणादेवी मुखप्रेक्षेश्वरोत्तरे ॥ मंगलायाः समीपे तु सर्वसिद्धिकरी शिवा ॥ १८८ ॥
लिंगे त्वष्ट्रीशवृत्तेशौ मुखप्रेक्षोत्तरे शुभे ॥ सहेमभूमिदानस्य फलं दर्शनतस्तयोः ॥१८९॥
तदुत्तरे चर्चिकाया देव्याः संदर्शनं शुभम् ॥ रेवतेश्वर लिंगं च चर्चिकाग्रेण शांतिकृत् ॥ १९० ॥
महाशुभायतस्याग्रे लिंगं पंचनदेश्वरम् ॥ मंगलोदो महाकूपो मंगला पश्चिमे शुभः ॥ १९१ ॥
उपमन्योर्महालिंगं मंगला पश्चिमे शुभम् ॥ व्याघ्रपादेश्वरं लिंगं तत्पश्चाद्व्याघ्रभीतिहृत् ॥ १९२ ॥
नैर्ऋत्यां च गभस्तीशाच्छशांकेशोघसंघहृत् ॥ तत्पश्चिमे चैत्ररथं लिंगं दिव्यगतिप्रदम् ॥ १९३ ॥
मंगलागौरी के समीप मुखप्रेक्षेश्वर लिङ्ग के उत्तर में बदन प्रेक्षणा नामक देवी हैं। वहां त्वष्ट्रीश्वर और वृत्तेश्वर नामक दो लिङ्ग स्थापित हैं। इनका दर्शन करने वाला सुवर्णयुक्त भूमिदान फल लाभ करता है। उसे सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। शुभप्रदा चर्चिका देवी उनके उत्तर में प्रतिष्ठापित हैं। उनके सामने शुभप्रद शान्तिविधायक रेवतेश्वर लिङ्ग है, जिनके समीप शुभदाता पंचनदेश्वर लिङ्ग हैं। मंगलागौरी के पश्चिम में मंगलोद नामक महाकूप है। उसके निकट उपमन्यु द्वारा प्रतिष्ठित शुभ महालिङ्ग है। व्याघ्रभय हरण करने वाला व्याघ्रपादेश्वर लिङ्ग उसी के पश्चात्‌ भाग में स्थापित है। पापों का हरण करने वाला शशांकेश्वर लिङ्ग गभस्तीश्वर के नैऋतकोण में स्थापित है। उसके पश्चिम की ओर चैत्ररथेश्वर लिङ्ग दिव्यगतिदाता हैं।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०४९
॥ स्कंद उवाच ॥
द्रौपदादित्यमाहात्म्यं संक्षेपात्कथितं मया ॥ मयूखादित्यमाहात्म्यं शृण्विदानीं घटोद्भव ॥२५॥
पुरा पंचनदे तीर्थे त्रिषुलोकेषु विश्रुते ॥ सहस्ररश्मिर्भगवांस्तपस्तेपे सुदारुणम् ॥२६॥
प्रतिष्ठाप्य महालिंगं गभस्तीश्वर संज्ञितम् ॥ गौरीं च मंगला नाम्नीं भक्तमंगलदां सदा ॥२७॥
दिव्यवर्षसहस्रं तु शतेन गुणितं मुने ॥ आराधयञ्शिवं सोमं सोमार्धकृतशेखरम् ॥२८॥
स्वरूपतस्तु तपनस्त्रिलोकीतापनक्षमः ॥ ततोतितीव्र तपसा जज्वाल नितरां मुने ॥२९॥
मयूखैस्तत्र सवितुस्त्रैलोक्यदहनक्षमैः ॥ ततं समस्तं तत्काले द्यावाभूम्योर्यदंतरम् ॥३०॥
वैमानिकैर्विष्णुपदे तत्यजे च गतागतम् ॥ तीव्रे पतंगमहसि पतंगत्वभयादिव ॥३१॥
मयूखा एव दृश्यंते तिर्यगूर्ध्वमधोपि च॥ आदित्यस्य न चादित्यो नीपपुष्पस्थितेरिव॥३२॥
तस्यवै महसां राशेस्तपोराशेस्तपोर्चिषाम्॥ चकंपे साध्वसात्तीव्रा त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥३३॥
सूर्य आत्मास्य जगतो वेदेषु परिपठ्यते ॥ स एव चेज्वालयिता को नस्त्राता भवेदिह ॥३४॥
स्कन्ददेव कहते हैं- मैंने द्रौपादित्य का माहात्म्य संक्षेप में कह दिया। हे घटसंभव कुंभज! अब आप मयूखादित्य का माहात्म्य श्रवण करें। पूर्वकाल में त्रिभुवन प्रसिद्ध पञ्चनद तीर्थ में (काशीस्थ पंचगंगा) देव दिवाकर ने गभस्तीश्वर नामक शिवलिङ्ग तथा मंगलागौरी नामक सर्वाभीष्ठप्रदा सर्वमंगलप्रदा दुर्गामूर्त्ति प्रतिष्ठित किया। गभस्तीश्वर भक्त वांछाकल्पतरु कहे गये हैं। वहां दिवाकर देव ने दारुण (भीषण) तपःश्चवरण किया था। हे मुनिवर! स्वभावतः तेजस्वी जगत्तपन तपनदेव ने देवमान से एक लाख (दिव्य वर्ष) वर्ष कैलासनाथ के उद्देश्य से तपःश्चरण किया। वे तपःतेज से शतगुण तेजस्वी हो गये। उनकी अग्निमयी किरण से स्वर्गमर्त्य के बीच वाले अत्यन्त पीड़ित हो उठे। देवगण ने पतंगदेव सूर्य के तेज से सामान्य पतंगों के समान दग्ध होंने के भय से गगनपथ से आना-जाना त्याग दिया। खिले कदम्बपुष्प से जिस प्रकार से उसकी पंखुड़ियों के अतिरिक्त कुछ नहीं परिलक्षित होता, उसी प्रकार सूर्यदेव की किरणों से आहत दृष्टि में लोगों को आदित्यदेव ही लक्षित नहीं हो पा रहे थे। तब सूर्यतेज तथा उनके तपःसंचय को देखकर सभी आन्तरिक भय से कम्पित होने लगे।
जगच्चक्षुरसौ सूर्यो जगदात्मैष भास्करः ॥ जगद्योयन्मृतप्रायं प्रातःप्रातः प्रबोधयेत् ॥३५॥
तमोंधकूपपतितमुद्यन्नेष दिनेदिने ॥ प्रसार्य परितः पाणीन्प्राणिजातं समुद्धरेत् ॥३६॥
उदितेऽत्रोदिमो नित्यमस्तं यात्यस्तमाप्नुमः ॥ उदयेऽनुदये तस्मादस्माकं कारणं रविः ॥३७॥
वेदों ने सूर्य को जगदात्मा कहा है, वे आत्मा ही यदि देह को तापित करें, तब और कौन उसकी रक्षा कर सकेगा? यह सूर्य ही जगत्‌ चक्षु हैं। ये ही जगदात्मा हैं। नित्य ये प्रभातकाल में उदित होकर मृतप्राय भुवन को जागरित करते हैं। ये प्रतिदिन अपनी किरणों का विस्तार करके अन्धकार कूप में निपतित जीवगण को चतुर्दिक्‌ देखते हैं तथा इनके उगने पर ही हम उठते हैं। ये जब अस्तमित होते हैं, तब हम भी अस्तमित हो जाते हैं। सूर्य ही हमारे उदय तथा अनुदय के कारण रूप हैं।
इति व्याकुलितं विश्वं पश्यन्विश्वेश्वरः स्वयम् ॥ विश्वत्राता वरं दातुं संजग्मे तिग्मरश्मये ॥३८॥
मयूखमालिनं शंभुरालोक्याति सुनिश्चलम् ॥ समाधि विस्मृतात्मानं विसिस्माय तपः प्रति ॥३९॥
उवाच च प्रसन्नात्मा श्रीकंठः प्रणतार्तिहृत् ॥ अलं तप्त्वा वरं ब्रूहि द्युमणे महसां निधे ॥४०॥
निरुद्धेंद्रियवृत्तित्वाद्ब्रध्नो ध्यानसमाधिना ॥ न जग्राह वचः शंभोर्द्वित्रिरुक्तोप्यकर्णवत् ॥४१॥
काष्ठीभूतं तु तं ज्ञात्वा शिवः पस्पर्श पाणिना ॥ महातपः समुद्भूत संतापामृतवर्षिणा ॥४२॥
तत उन्मीलयांचक्रे लोचने विश्वलोचनः ॥ तस्योदयमिव प्राप्य प्रगे पंकजिनीवनी ॥४३॥
परिव्यपेतसंतापस्तपनः स्पर्शनाद्विभोः ॥ अवग्रहितसस्यश्रीरुल्ललास यथांबुदात् ॥४४॥
मित्रो नेत्रातिथीकृत्य त्र्यक्षं प्रत्यक्षमग्रतः ॥ दंडवत्प्रणनामोच्चैस्तुष्टाव च पिनाकिनम् ॥४५॥
इस प्रकार से विश्व स्थित समस्त प्राणीगण का यह आक्षेप वाक्य सुनकर विश्वरूप शंभु सूर्य को वर देने आये। तब दिवाकर वाह्मज्ञान रहित होकर एकाग्रतापूर्वक तप कर रहे थे। भक्तवत्सल उमापति यह देखकर विस्मित तथा प्रसन्न होकर कहने लगे “हे तेजोराशि सूर्य! तपस्या से विरत होकर मुझसे वर मांगो।” यह वाक्य दो-तीन बार कहने पर भी ध्यानमग्न सूर्य के कानों में भगवान्‌ का कथन श्रुतिगोचर न हो सका। तब महादेव ने उनका स्थाणु भाव जानकर सुधास्रावी करतल से उनका स्पर्श किया। जैसे सूर्य किरण स्पर्श द्वारा पद्मिनी विकसित होती है तथा अनावृष्टि के प्रभाव से शुष्क तृण जिस प्रकार वर्षा के कारण अंकुरित हो उठते हैं, तब सूर्य ने भी शिव के करस्पर्श द्वारा वाह्म ज्ञानलाभ करके तथा तापरहित होकर सामने अपने इष्टदेव त्रिलोचन को देखा। भगवान्‌ का दर्शन मिलते ही सूर्यदेव भगवान्‌ को साष्टांग प्रणाम करके स्तव करने लगे-

॥ चतुःषष्ट्यष्टकं स्तोत्रं
॥ रविरुवाच ॥
देवदेव जगतांपते विभो भर्ग भीम भव चंद्रभूषण ॥ भूतनाथ भवभीतिहारक त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥ ४६॥
चंद्रचूडमृड धूर्जटे हर त्र्यक्ष दक्ष शततंतुशातन॥ शांतशाश्वत शिवापते शिव त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥ ४७ ॥
नीललोहित समीहितार्थ दहे(?)द्व्येकलोचन विरूपलोचन ॥ व्योमकेशपशुपाशनाशन त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥ ४८ ॥
वामदेवशितिकंठशूलभृच्चंद्रशेखर फणींद्रभूषण॥ कामकृत्पशुपते महेश्वर त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद॥४९॥
त्र्यंबक त्रिपुरसूदनेश्वर त्राणकृत्त्रिनयनत्रयीमय॥ कालकूट दलनांतकांतक त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥ ५० ॥
शर्वरीरहितशर्वसर्वगस्वर्गमार्गसुखदापवर्गद ॥ अंधकासुररिपो कपर्दभृत्त्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥५१॥
शंकरोग्रगिरिजापते पते विश्वनाथविधिविष्णु संस्तुत ॥ वेदवेद्यविदिताऽखिलेंगि तत्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥५२॥
विश्वरूपपररूप वर्जितब्रह्मजिह्मरहितामृतप्रद ॥ वाङमनोविषयदूरदूरगत्वां नतोस्मि नतवांछितप्रद ॥ ५३ ॥
इत्थं परीत्य मार्तंडो मृडं देवं मृडानिकाम् ॥ अथ तुष्टाव प्रीतात्मा शिववामार्धहारिणीम्॥ ५४ ॥

॥ मंगलाष्टक ॥
॥ रविरुवाच ॥
देवि त्वदीयचरणांबुजरेणुगौरीं भालस्थलीं वहति यः प्रणतिप्रवीणः ॥
जन्मांतरेपि रजनीकरचारुलेखा तां गौरयत्यतितरां किल तस्य पुंसः ॥५५॥
श्रीमंगले सकलमंगलजन्मभूमे श्रीमंगले सकलकल्मषतूलवह्ने॥
श्रीमंगले सकलदानवदर्पहंत्रि श्रीमंगलेऽखिलमिदं परिपाहि विश्वम्॥५६॥
विश्वेश्वरि त्वमसि विश्वजनस्य कर्त्री त्वं पालयित्र्यसि तथा प्रलयेपिहंत्री ॥
त्वन्नामकीर्तनसमुल्लसदच्छपुण्या स्रोतस्विनी हरति पातककूलवृक्षान् ॥५७॥
मातर्भवानि भवती भवतीव्रदुःखसंभारहारिणि शरण्यमिहास्ति नान्या ॥
धन्यास्त एव भुवनेषु त एव मान्या येषु स्फुरेत्तवशुभः करुणाकटाक्षः ॥५८॥
ये त्वा स्मरंति सततं सहजप्रकाशां काशीपुरीस्थितिमतीं नतमोक्षलक्ष्मीम् ॥
तान्संस्मरेत्स्मरहरो धृतशुद्धबुद्धीन्निर्वाणरक्षणविचक्षणपात्रभूतान् ॥५९॥
मातस्तवांघ्रियुगलं विमलं हृदिस्थं यस्यास्ति तस्य भुवनं सकलं करस्थम् ॥
यो नामतेज एति मंगलगौरि नित्यं सिद्ध्यष्टकं न परिमुंचति तस्य गेहम् ॥६०॥
त्वं देवि वेदजननी प्रणवस्वरूपा गायत्र्यसि त्वमसि वै द्विजकामधेनुः ॥
त्वं व्याहृतित्रयमिहाऽखिलकर्मसिद्ध्यै स्वाहास्वधासि सुमनः पितृतृप्तिहेतुः ॥६१॥
गौरि त्वमेव शशिमौलिनि वेधसि त्वं सावित्र्यसि त्वमसि चक्रिणि चारुलक्ष्मीः ॥
काश्यां त्वमस्यमलरूपिणि मोक्षलक्ष्मीस्त्वं मे शरण्यमिह मंगलगौरि मातः ॥६२॥
स्तुत्वेति तां स्मरहरार्धशरीरशोभां श्रीमंगलाष्टक महास्तवनेन भानुः ॥
देवीं च देवमसकृत्परितः प्रणम्य तूष्णीं बभूव सविता शिवयोः पुरस्तात् ॥६३॥

॥ देवदेव उवाच ॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते प्रसन्नोस्मि महामते ॥ मित्रमन्नेत्रगो नित्यं प्रपश्ये तच्चराचरम् ॥ ६४॥
मम मूर्तिर्भवान्सूर्य सर्वज्ञो भव सर्वगः ॥ सर्वेषां महसां राशिः सर्वेषां सर्वकर्मवित् ॥ ६५॥
सर्वेषां सर्वदुःखानि भक्तानां त्वं निराकुरु ॥ त्वया नाम्नां चतुःषष्ट्या यदष्टकमुदीरितम् ॥ ६६॥
अनेन मां परिष्टुत्य नरो मद्भक्तिमाप्स्यति ॥ अष्टकं मंगलागौर्या मंगलाष्टकसंज्ञकम् ॥ ६७॥
अनेन मंगलागौरीं स्तुत्वा मंगलमाप्स्यति ॥ चतुःषष्ट्यष्टकं स्तोत्रं मंगलाष्टकमेव च ॥ ६८॥
एतत्स्तोत्रवरं पुण्यं सर्वपातकनाशनम् ॥ दूरदेशांतरस्थोपि जपन्नित्यं नरोत्तमः ॥६९॥
त्रिसंध्यं परिशुद्धात्मा काशीं प्राप्स्यति दुर्लभाम् ॥ अनेन स्तोत्रयुग्मेन जप्तेन प्रत्यहं नृभिः ॥७०॥
देवदेव कहते हैं- हे मतिमान सूर्य! अब तप का कोई प्रयोजन नहीं है। मैं प्रसन्न हो गया। तुम मेरे नेत्र स्थानीय होकर विश्वसंसार का अवलोकन करो। हे सूर्य! तुम मेरी ही मूर्त्ति हो। इस कारण तुम समस्त तेज के आधार तथा सर्वज्ञ होकर विचरते हुये समस्त भक्तों का दुःख निवारण करो। तुमने जिस स्तव को कहा है, उस स्तव का जो पाठ करेगा, उसे मेरे प्रति निश्चला भक्ति प्राप्त होगी। साथ ही जो पार्वती का यह मंगलाष्टक नामक स्तव करेगा, उसका समस्त अमंगल दूर होगा। मेरा यह चतुषष्टि नामक स्तोत्र तथा दुर्गा के इस मंगलाष्टक स्तोत्र अत्यन्त पावन तथा सर्वपापविमोचन होगा। मानव दूर देश रह कर भी विशुद्ध चित्त से त्रिसन्ध्या इस स्तोत्र का पाठ करने पर दुर्लभ काशीलाभ कर सकेगा। इन दोनों स्तोत्र को मनुष्य नित्य पढ़े।
ध्रुवदैनंदिनं पापं क्षालितं नात्र संशयः ॥ न तस्य देहिनो देहे जातु चित्किल्बिषस्थितिः ॥७१॥
त्रिकालं योजयेन्नित्यमेतत्स्तोत्रद्वयंशुभम् ॥ किंजप्तैर्बहुभिः स्तोत्रैश्चंचलश्रीप्रदैर्नृणाम् ॥७२॥
एतत्स्तोत्रद्वयं दद्यात्काश्यां नैःश्रेयसीं श्रियम् ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मानवैर्मोक्षकांक्षिभिः ॥७३॥
एतत्स्तोत्रद्वयं जप्यं त्यक्त्वा स्तोत्राण्यनेकशः ॥ प्रपंच आवयोरेव सर्व एष चराचरः ॥७४॥
तदावयोःस्तवादस्मान्निष्प्रपंचो जनो भवेत् ॥ समृद्धिमाप्य महतीं पुत्रपौत्रवतीमिह ॥७५॥
अंते निर्वाणमाप्नोति जपन्स्तोत्रमिदं नरः ॥ अन्यच्च शृणु सप्ताश्व ग्रहराज दिवाकर ॥७६॥
त्वया प्रतिष्ठितं लिंगं गभस्तीश्वरसंज्ञितम् ॥ सेवितं भक्तिभावेन सर्वसिद्धिसमर्पकम् ॥७७॥
ऐसा व्यक्ति निष्पाप हो जाता है। उसके शरीर में कोई पाप नहीं रह सकता। तीनों सन्ध्याकाल में यह स्तोत्र जिसके कण्ठ से निर्गत होता है, उसे अन्य स्तोत्र का प्रयोजन ही नहीं रहता। काशीधाम में मोक्षाभिलाषी व्यक्ति अन्य सभी स्तोत्र का त्याग करके यत्नतः इन दो स्तोत्र का पाठ करे। इससे उसे मोक्षधाम भी प्राप्त हो जाता है। यह विश्व संसार तो हम दोनों (शिव-शिवा) का प्रपंच ही है। इसलिये हम दोनों के इन स्तोत्रद्दव का पाठ करने वाला पुनः इस विश्व प्रपंच में नहीं आता। यह स्तव पाठ करके मानव पुत्र-पौत्र-धन तथा समृद्धिवान्‌ होकर अन्तकाल में मुक्त होता है। हे ग्रहाधिप! जो व्यक्ति तुम्हारे द्वारा प्रतिष्ठित गभस्तीश्वर नामक लिङ्ग की पूजा करता है, उसे सर्वसिद्धि का लाभ होता है।
त्वया गभस्तिमालाभिश्चांपेयांबुजकांतिभिः ॥ यदर्चित्वैश्वरं लिंगं सर्वभावेन भास्कर ॥७८॥
गभस्तीश्वर इत्याख्यां ततो लिंगमवाप्स्यति ॥ अर्चयित्वा गभस्तीशं स्नात्वा पंचनदे नरः ॥७९॥
न जातु जायते मातुर्जठरे धूतकल्मषः ॥ इमां च मंगलागौरीं नारी वा पुरुषोपि वा ॥८०॥
चैत्रशुक्लतृतीयायामुपोषणपरायणः ॥ महोपचारैः संपूज्य दुकूलाभरणादिभिः ॥८१॥
रात्रौ जागरणं कृत्वा गीतनृत्यकथादिभिः ॥ प्रातः कुमारीः संपूज्य द्वादशाच्छादनादिभिः ॥८२॥
संभोज्यपरमान्नाद्यैर्दत्त्वान्येभ्योपि दक्षिणाम् ॥ होमं कृत्वा विधानेन जातवेदस इत्यृचा ॥८३॥
अष्टोत्तरशताभिश्च तिलाज्याहुतिभिः प्रगे ॥ एकं गोमिथुनं दत्त्वा ब्राह्मणाय कुटुंबिने ॥८४॥
श्रद्धया समलंकृत्य भूषणैर्द्विजदंपती ॥ भोजयित्वा महार्हान्नैः प्रीयेतां मंगलेश्वरौ ॥८५॥
इति मंत्रं समुच्चार्य प्रातः कृत्वाथ पारणम् ॥ न दुर्भगत्वमाप्नोति न दारिद्र्यं कदाचन ॥८६॥
न वै संतानविच्छित्तिं भोगोच्छित्तिं न जातुचित् ॥ स्त्री वैधव्यं न चाप्नोति न नायोषिद्वियोगभाक् ॥८७॥
यह लिङ्ग पद्मकान्ति गभस्तिमाला द्वारा तुमसे पूजित है। इसलिये इसे गभस्तीश्वर कहते हैं। मानव पंचनदतीर्थ में स्नान करके इस लिङ्ग की पूजा करे। इससे वह निष्पाप होता है और उसे पुनः गर्भयातना का भोग नहीं करना पड़ता। जो नर अथवा नारी चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उपवासी रहकर रात्रि में वस्त्रालंकारादि विविध उपचारों से मंगलागौरी की पूजा करे, तदनन्तर रात्रि में गीतवाद्य के साथ अनुष्ठान करके रात्रि जागरण करता है तथा प्रातः द्वादश कुमारीगण को वस्त्र धारण कराकर उनको उत्तम अन्नादि का भोजन तथा दक्षिणा दे और “जातवेद से” इत्यादि मन्त्र से घृता द्वारा १०८ आहुति प्रदान करे और इसके पश्चात्‌ गृहस्थ ब्राह्मण को एक गोमिथुन तथा दक्षिणा प्रदान करे। तत्पश्चात्‌ द्विजदम्पति को भूषण आदि से अलंकृत करके “मंगलागौरी तथा महेश्वर प्रसन्न हों'” इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण भोजन कराये। अगले दिन प्रातःकाल पारण करे। ऐसे व्यक्ति को कभी सौभाग्यहीनता किंवा दरिद्रता नहीं होती। उसे कदापि पुत्र आदि की विरहयातना नहीं भोगना पड़ता। वह सर्वदा नाना भोग युक्त जीवन व्यतीत करता है। यह अनुष्ठान करने वाली स्त्री को कदापि वैधव्य नहीं होता, पुरुष को स्त्री वियोग नहीं होता।
पापानि विलयं यांति पुण्यराशिश्च लभ्यते ॥ अपि वंध्या प्रसूयेत कृत्वैतन्मंगलाव्रतम् ॥८८॥
एतद्व्रतस्य करणात्कुरूपत्वं न जातुचित् ॥ कुमारी विंदतेत्यंतं गुणरूपयुतं पतिम् ॥८९॥
कुमारोपि व्रतं कृत्वा विंदति स्त्रियमुत्तमाम् ॥ संति व्रतानि बहुशो धनकामप्रदानि च ॥९०॥
नाप्नुयुर्जातुचित्तानि मंगलाव्रततुल्यताम् ॥ कर्तव्या चाब्दिकी यात्रा मधौ तस्यां तिथौ नरैः ॥९१॥
उसकी पापराशि दूर हो जाती है। पुण्यसमूह उसका आश्रय ग्रहण करते हैं। इस मंगला व्रतानुष्ठान द्वारा वन्ध्या भी पुत्रवती होती है, कुरूप को सुरूपता लाभ होता है। यह व्रताचरण करने वाली कुमारी रूपवान तथा गुणी पति का लाभ करती है। कुमार यह व्रताचरण करके उत्तम पत्नी की प्राप्ति करता है। जगत्‌ में जितने भी अर्थप्रद तथा अभीष्ठप्रद व्रत हैं, उनमें से कोई भी मंगलाव्रत तुल्य नहीं है। काशीनिवासी को चाहिये कि वह चैत्रमासीय शुक्लातृतीया के दिन इनकी वार्षिकी यात्रा सम्पन्न करे।
सर्वविघ्नप्रशांत्यर्थं सदा काशीनिवासिभिः ॥ अपरं द्युमणे वच्मि तव चात्र तपस्यतः ॥९२॥
मयूखा एव खे दृष्टा न च दृष्टं कलेवरम् ॥ मयूखादित्य इत्याख्या ततस्ते दितिनंदन ॥९३॥
त्वदर्चनान्नृणां कश्चिन्न व्याधिः प्रभविष्यति ॥ भविष्यति न दारिद्र्यं रविवारे त्वदीक्षणात् ॥९४
इत्थं मयूखादित्यस्य शिवो दत्त्वा बहून्वरान् ॥ तत्रैवांतर्हितो भूतो रविस्तत्रैव तस्थिवान् ॥९५॥
श्रुत्वाख्यानमिदं पुण्यं मयूखादित्यसंश्रयम् ॥ द्रौपदादित्यसहितं नरो न निरयं व्रजेत् ॥९६॥
हे दिनमणि! अन्य एक बाते सुनो। तपस्याकाल में आकाशपथ में तुम्हारी किरणें (मयूख) ही दृष्टिगोचर हो रही थीं। तुम्हारा देह दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। अतः आज से तुम ”मयूखादित्य” नाम से जाने जाओगे। तुम्हारी अर्चना से लोगों में व्याधिभय नहीं होगा तथा रविवार के दिन जो तुम्हारा यहां दर्शन करेगा वह दरिद्र नहीं रहेगा। महादेव मयूखादित्य को यह वर प्रदान करने के पश्चात्‌ अन्तर्हित्‌ हो गये। सूर्य वहीं स्थित हो गये। मैंने द्रौपदादित्य तथा मयूखादित्य का वर्णन किया। इस पवित्र इंतिहास को सुनने वाला व्यक्ति नरकभय से ग्रस्त नहीं होता।


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गभस्तीश्वर महालिंग मंगला गौरी मंदिर परिसर, पंचगंगा घाट, के.24/34 में स्थित है।
Gabhastishwara Mahalinga is located at 24/34 of the Mangala Gauri Temple Complex, Panchganga Ghat.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi

काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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