Dandpani
दंडपाणि (हरिकेश)
दंडपाणि (हरिकेश)
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३२
॥ अगस्त्य उवाच ॥
बर्हियान समाचक्ष्व हरिकेशसमुद्भवम् ॥ कोसौ कस्य सुतः श्रीमान्कीदृगस्य तपो महत् ॥ १ ॥
कथं च देवदेवस्य प्रियत्वं समुपेयिवान् ॥ काशीवासिजनीनोभूत्कथं वा दंडनायकः ॥ २ ॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रसादं कुरु मे विभो ॥ अन्नदत्वं च संप्राप्तः कथमेष महामतिः ॥ ३ ॥
संभ्रमो विभ्रमश्चोभौ कथं तदनुगामिनौ ॥ विभ्रांतिकारिणौ क्षेत्रवैरिणां सर्वदा नृणाम् ॥ ४ ॥
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- हे शिखिवाहन! अब हरिकेश की उत्पत्ति का प्रसंग कहिये। वे हरिकेश कौन थे? किसके पुत्र थे? उन्होंने कैसी कठोर तपस्या किया था तथा महादेव के प्रिय हो गये? ये महामति हरिकेश किस प्रकार से काशी वासी लोगों के हिताकांक्षी दण्डनायक तथा अनुदाता हो सके? काशीद्वेषी लोगों में सदा भ्रम का उत्पादन करने वाले संभ्रम तथा विभ्रम नामक गणद्वय उनके किस प्रकार से अनुगत हो गये? हे विभु! मैं यह सब सुनना चाहता हू। कृपया यह कहकर मुझे अनुगृहीत करिये।
॥ स्कंद उवाच ॥
सम्यगापृच्छि भवता काशीवासिसमाहितम् ॥ कुंभसंभव विप्रर्षे दंडपाणि कथानकम् ॥ ५ ॥
यदाकर्ण्य नरः प्राज्ञ काशीवासस्य यत्फलम् ॥ निष्प्रत्यूहं तदाप्नोति विश्वभर्त्तुरनुग्रहात् ॥ ६ ॥
रत्नभद्र इति ख्यातः पर्वते गंधमादने ॥ यक्षः सुकृतलक्षश्रीः पुरा परम धार्मिकः ॥ ७ ॥
पूर्णभद्रं सुतं प्राप्य सोऽभूत्पूर्णमनोरथः ॥ वयश्चरममासाद्य भुक्त्वा भोगाननेकशः ॥ ८ ॥
शांभवेनाथ योगेन देहमुत्सृज्य पार्थिवम् ॥ आससादाशवं शांतं शांतसर्वेंद्रियार्थकः ॥ ९ ॥
पितर्युपरतेसोऽथ पूर्णभद्रो महायशाः ॥ सुकृतोपात्तविभव भवसंभोगभुक्तिभाक् ॥ १० ॥
सर्वान्मनोरथाँल्लेभे विना स्वर्गैकसाधनम् ॥ गार्हस्थ्याश्रम नेपथ्यं पथ्यं पैतामहं महत् ॥ ११ ॥
संसारतापसंतप्तावयवामृतसीकरम् ॥ अपत्यं पततां पोतं बहुक्लेशमहार्णवे ॥ १२ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे ब्रह्मर्षि! कुंभसम्भव! आपने उत्तम प्रश्न किया है। यह दण्डपाणि की कथा काशीवासी लोगों के लिये महाहितकारी है। यह सुनने से विश्वनाथ की कृपा से काशीवास का फल निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर सुकृति श्रीसम्पन्न रत्मभद्र नामक एक धार्मिक चूड़ामणि यक्ष निवास करता था। उसने पूर्णभद्र नामक पुत्र को प्राप्त करके स्वयं को पूर्ण मनोरथ माना। तदनन्तर यथाकाम विषयभोगों का उपभोग करके चरम आयु में शान्तात्मा तथा सर्वेन्द्रिय प्रशान्त होकर उसने शैवयोग द्वारा देहत्याग किया और शान्तिमय शिवत्व लाभ किया। पिता का देहावसान होने पर महायशस्वी पूर्णभद्र पुण्यबल से प्राप्त अतुल वैभव का स्वामी हो गया। उसने स्वर्ग के साधन ग्रृहस्थाश्रम के भूषण, पितरों के परम पथ्य, संसार तापतप्त अंगों के लिये अमृतकणरूप तथा अनन्त क्लेशसागर में पड़े जनगण के लिये पोत स्वरूप पुत्रलाभ के अतिरिक्त सभी मनोरथों की प्राप्ति कर लिया था।
पूर्णभद्रोऽथ संवीक्ष्य मंदिरं सर्वसुंदरम् ॥ तद्बालकोमलालाप विकलं त्यक्तमंगलम्॥ १३ ॥
शून्यं दरिद्रहृदिव जीर्णारण्यमिवाथवा ॥ पांथवत्प्रांतरमिव खिन्नोऽतीवानपत्यवान् ॥ १४ ॥
आहूय गृहिणी सोऽथ यक्षः कनककुंडलाम् ॥ उवाच यक्षिणीं श्रेष्ठां पूर्णभद्रो घटोद्भव ॥ १५ ॥
न हर्म्यं सुखदं कांते दर्पणोदरसुंदरम् ॥ मुक्ता गवाक्षसुभगं चंद्रकांतशिलाजिरम् ॥ १६ ॥
पद्मरागेंद्रनीलार्चिरर्चिताट्टालकं क्वणत् ॥ विद्रुमस्तंभशोभाढ्यं स्फुरत्स्फटिककुड्यवत् ॥ १७ ॥
प्रेंखत्पताकानिकरं मणिमाणिक्यमालितम्॥ कृष्णागुरुमहाधूप बहुलामोदमोदितम् ॥ १८ ॥
तदनन्तर पुत्र का मुख न देख पाने के कारण तथा बालक के मधुर आलाप से रहित अपनी अट्टालिका को देखकर जो अपूर्व तथा सर्वजनदुर्लभ थी, उसे अमंगलमय लगने लगी। वह अट्टालिका उसे दरिद्र के ह्रदय के समान शून्य तथा जीर्ण वन जैसी लग रही थी। वह उसे पथिक के लिये शून्य मार्ग जैसी प्रतीत हो रही थी। हे कुम्भयोनि! तब वह पूर्णभद्र अतीव खिन्न हो गया तथा उसने पत्नी यक्षिणीप्रवर कनककुण्डला को बुलाकर उससे कहा- हे प्रिये! मेरी यह अट्टालिका तो दर्पणवत् सुन्दर है। इसके झरोखे मुक्तामय हैं, प्रांगणभूमि चन्द्रकान्त मणि से निर्मित है। गृहकुट्टिम (कमरे) पद्मराग तथा नीलकान्त मणिप्रभा से उद्भासित हो रहे हैं। सभी स्तम्भ प्रवालों से बने हैं तथा यहां की दीवार स्फटिक की है। इसके ऊपर सैकड़ों पताकाओं के फहराने का शब्द सुनाई दे रहा है। चतुर्दिक् मणिमाणिक्य शोभायमान हैं। यहां अगुरु धूप की गन्ध से चतुर्दिक् अमोदित होता रहता है।
अनर्घ्यासनसंयुक्तं चारुपर्यंकभूषितम् ॥ रम्यार्गलकपाटाढ्यं दुकूलच्छन्नमंडपम् ॥ १९ ॥
सुरम्यरतिशालाढ्यं वाजिराजिविराजितम् ॥ दासदासीशताकीर्णं किंकिणीनादनादितम् ॥ २० ॥
नूपुरारावसोत्कंठ केकिकेकारवाकुलम् ॥ कूजत्पारावत कुलं गुरुसारीकथावरम् ॥ २१ ॥
खेलन्मरालयुगलं जीवं जीवककांतिमत् ॥ माल्याहूत द्विरेफाणां मंजुगुंजारवावृतम् ॥ २२ ॥
कर्पूरैण मदामोद सोदरानिलवीजितम् ॥ क्रीडामर्कटदंष्ट्राग्री कृतमाणिक्यदाडिमम् ॥ २३ ॥
दाडिमीबीजसंभ्रांतशुकतुंडात्तमौक्तिकम् ॥ धनधान्यसमृद्धं च पद्मालयमिवापरम् ॥ २४ ॥
कमलामोदगर्भं च गर्भरूपं विना प्रिये ॥ गर्भरूपमुखं प्रेक्ष्ये कथं कनककुडले ॥ २५ ॥
यद्युपायोऽस्ति तद्ब्रूहि धिगपुत्रस्य जीवितम् ॥ सर्वशून्यमिवाभाति गृहमेतदनंगजम् ॥ २६ ॥
धिगेतत्सौधसौंदर्यं धिगेतद्धनसंचयम् ॥ विनापत्यं प्रियतमे जीवितं च धिगावयोः ॥ २७ ॥
प्रलपंतमिव प्रोच्चैः प्रियं कनककुंडला ॥ बभाषेंऽतर्विनिःश्वस्य यक्षिणी सा पतिव्रता ॥ २८ ॥
इसमें अमूल्य रत्नमय आसन हैं। रमणीय पर्यङ्क, सुचारु अर्गला है तथा कपाट लगे हुये हैं, जो अत्यन्त उत्तम हैं। इसमें दुकूल वस्त्र से आच्छादित मण्डप बना है। सुरम्य रतिशाला, घुड़साल शत-शत दास-दासियां यहां पर विराजमान हैं। इसके किसी-किसी स्थान पर किंकिणी नाद भी सुनाई दे रह है। मयूरगण नूपुर की ध्वनि से उत्तेजित होकर केकारव (केका शब्द ) कर रहे हैं। कबूतर कूज रहे है मैना-तोता गायन कर रहे हैं। हंस का जोड़ा खेल रहा है, चकोर-चकोरी नृत्य कर रहे हैं। मालागन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर मधुर कूंजनरत हैं। इसके चतुर्दिक् कपूर से वासित सुवासित वायु बह रही है। इस अट्टालिका के क्रीड़ारत मर्कटों के दांतों के अग्रभाग में अनार के माणिक्यमय फल शोभित हो रहे हैं। उन माणिकों की अनार के दाने समझ कर तोता अपनी चोच से उनको पकड़ रहे हैं। हे कान्ते! यह भवन इस प्रकार पे सुखसम्पन्न, द्वितीय लक्ष्मीभवन के समान ननधान्य समृद्ध तथा पद्मगन्ध से भले ही. आमोदित है, तथापि संतान के बिना यह सब मुझे सुखप्रद नहीं लग रहा है। है कनक-कुण्डले! मैं कैसे पुत्रमुख का अवलोकन करूंगा। इस विषय में यदि तुमको कोई उपाय ज्ञात हो, उसे कहो। हाय! अपुत्रक जीवन व्यर्थ है! धिक्कार है! हे प्रियतमे! पुत्र न रहने के कारण यह गृह शून्यवत् प्रतीत हो रहा है। इस भवन की सुन्दरता को धिक्कार! इस धनसंचय को तथा मेरे जीवन को भी धिक्कार!। पति को इस प्रकार से विलाप करते देखकर यक्षिणी कनककुण्डला ने अपने अन्तर से दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुये पति से कहा -
॥ कनककुंडलोवाच ॥
किमर्थं खिद्यसे कांत ज्ञानवानसि यद्भवान् ॥ अत्रोपायोऽस्त्यपत्याप्त्यै विस्रब्धमवधारय ॥ २९ ॥
किमुद्यमवतां पुंसां दुर्लभं हि चराचरे ॥ ईश्वरार्पितबुद्धीनां स्फुंरंत्यग्रे मनोरथाः ॥ ३० ॥
दैवं हेतुं वदंत्येवं भृशं कापुरुषाः पते ॥ स्वयं पुराकृतं कर्म दैवं तच्च न हीतरत् ॥ ३१॥
ततः पौरुषमालंब्य तत्कर्म परिशांतये ॥ ईश्वरं शरणं यायात्सर्वकारणकारणम् ॥ ३२ ॥
अपत्यं द्रविणं दारा हारा हर्म्य हया गजाः ॥ सुखानि स्वर्गमोक्षौ च न दूरे शिवभक्तितः ॥ ३३ ॥
विधातुः शांभवीं भक्तिं प्रिय सर्वे मनोरथाः ॥ सिद्धयोष्टौ गृहद्वारं सेवंते नात्र संशयः ॥ ३४ ॥
कनककुण्डला कहती है- हे कान्त! आप ज्ञानी होकर भी किसलिये दुःख कर रहे हैं? इस पुत्रलाभ का उपाय मैं कहती हूं। आप विश्वस्त भाव से सुनिये। इस चराचर जगत् में उद्यमी व्यक्ति के लिये क्या दुर्लभ है? ईश्वर को चिंत्तसमर्पण करने से मनोरथ शीघ्र सिद्ध हो जाता है। कापुरुष ही दैव को कारण मानते हैं , तथापि प्राक्तन (पूर्वकृत) कर्म के अतिरिक्त दैव एक स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। अतः उस कर्म की शान्ति हेतु पुरुषकार का सहाय्य लेकर समस्त कारण के परमकारण रूप परमेश्वर की शरण लेना ही मनुष्य के लिये उचित है। हे प्रिय! जिस व्यक्ति की भक्ति शिव के प्रति है, उसको स्त्री, पुत्र, धन, अलंकार, गृह, गज, अश्व, सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष सभी हस्तगत हैं। इसमें कोई भी अत्युक्ति नहीं है। समस्त मनोरथ तथा अणिमा आदि सिद्धि तथा अष्टविध सिद्धि उसके घर के द्वार पर खड़ी रहती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
नारायणोपि भगवानंतरात्मा जगत्पतिः ॥ चराचराणामविता जातः श्रीकंठसेवया ॥ ३५ ॥
ब्रह्मणः सृष्टिकर्त्तृत्वं दत्तं तेनैव शंभुना ॥ इंद्रादयो लोकपाला जाता शंभोरनुग्रहात् ॥ ३६ ॥
मृत्युंजयं सुतं लेभे शिलादोप्यनपत्यवान् ॥ श्वेतकेतुरपि प्राप जीवितं कालपाशतः ॥ ३७ ॥
क्षीरार्णवाधिपतितामुपमन्युरवाप्तवान् ॥ अंधकोप्यभवद्भृंगी गाणपत्यपदोर्जितः ॥ ३८ ॥
जिगाय शार्ङ्गिणं संख्ये दधीचिः शंभुसेवया ॥ प्राजापत्यपदं प्राप दक्षः संशील्य शंकरम्॥ ३९ ॥
अधिक क्या? सर्वान्तर्यामी भगवान् नारायण ने भी इन प्रभु श्रीकण्ठ की सेवा द्वार चराचर जगत् के पालनकर्ता का अधिकार पाया था। भगवान् शंभु ने ही ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता बनाया था। इन महादेव की ही कृपा से इन्द्रादि देवता लोकपाल हो गये। श्वेतकेतु कालपाश से बद्ध होकर ही महादेव की कृपा से जीवित हो गये थे। उपमन्यु ने इनकी ही कृपा से क्षीरसागर का आधिपत्य पाया था। अन्धक नामक असुर महादेव की ही कृपा से भृंगी होकर गणपतित्व लाभ कर सका था। दधीचि ऋषि ने इन शंभु की सेवा द्वारा युद्ध में वासुदेव को परास्त किया था। शिलाद मुनि ने निःसन्तान होकर भी मृत्युजित् पुत्रलाभ किया था। दक्ष इन महादेव की पूजा करने के कारण प्रजापति बने थे।
मनोरथपथातीतं यच्च वाचामगोचरम्॥ गोचरो गोचरीकुर्यात्तत्पदं क्षणतो मृडः ॥ ४० ॥
अनाराध्य महेशानं सर्वदं सर्वदेहिनाम् ॥ कोपि क्वापि किमप्यत्र न लभेतेति निश्चितम् ॥ ४१ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शंकरं शरणं व्रज ॥ यदिच्छसि प्रियं पुत्रं प्रियसर्वजनीनकम् ॥ ४२ ॥
महादेव की दृष्टि द्वारा अग्नि से वाक् से अतीत तथा मन से भी अगोचर मोक्षप्रद की प्राप्ति हो जाती है। सभी प्राणीगण को सभी अभीष्ट प्रदान करने वाले महेश्वर की आराधना न करने पर कोई भी व्यक्ति, कहीं भी किसी प्रकार का अभीष्ट लाभ नहीं कर सकता। हे प्रिय! यदि तुम सबका हित करने वाला प्रिय पुत्र पाना चाहो, तब सर्वान्तःकरण से शंकर की शरण ग्रहण करो।
इति श्रुत्वा वचः पत्न्याः पूर्णभद्रः स यक्षराट् ॥ आराध्य श्रीमहादेवं गीतज्ञो गीतविद्यया ॥ ४३ ॥
दिनैः कतिपयैरेव परिपूर्णमनोरथः ॥ पुत्रकाममवापोच्चैस्तस्यां पत्न्यां दृढव्रतः ॥ ४४ ॥
नादेश्वरं समभ्यर्च्य कैः कैर्नापि स्वचिंतितम् ॥ तस्मात्काश्यां प्रयत्नेन सेव्यो नादेश्वरो नृभिः ॥ ४५ ॥
अंतर्वत्न्यथ कालेन तत्पत्नी सुषुवे सुतम् ॥ तस्य नाम पिता चक्रे हरिकेश इति द्विज ॥ ४६ ॥
प्रीतिदायं ददौ चाथ भूरिपुत्राननेक्षणात् ॥ पूर्णभद्रस्तथागस्त्य हृष्टा कनककुंडला ॥ ४७ ॥
बालोऽपि पूर्णचंद्राभ वदनो मदनोपमः ॥ वृद्धिं प्रतिक्षणं प्राप शुक्लपक्ष इवोडुराट् ॥ ४८ ॥
पत्नी का यह वचन सुनकर संगीतज्ञ यक्षराज ने एकाग्रतापूर्वक गीतविद्या द्वारा आराधना किया। कुछ ही दिनों में भगवान् नारायण की कृपा से कनककुण्डला के गर्भ से पुत्र प्राप्त होने के कारण यक्ष सफल मनोरथ हो गया। काशी में नादेश्वर शिव की उपासना करने से कौन व्यक्ति अपनी अभीष्ठ प्राप्ति नहीं कर सकता? अतएव भगवान नादेश्वर की सेवा मनुष्य सर्वप्रयतवपूर्वक करे। हे द्विज! तदनन्तर कालक्रमेण उसकी पत्नी गर्भवती हो गई तथा उसने पुत्र प्रसव किया। पिता यक्ष पूर्णभद्र ने इस पुत्र का नाम हरिकेश रखा। हे अगस्त्य! पूर्णभद्र यक्ष इस पुत्र का मुख देखकर प्रफुल्ल हो गया। उसमे प्रचुर धन वितरण किया। पुत्रजन्म के कारण कनककुण्डला भी प्रसन्न हो गयी। कामदेववत् परम सुन्दर पूर्णचन्द्रानन यह बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह नित्य बढ़ने लगा।
यदाष्टवर्षदेशीयो हरिकेशोऽभवच्छिशुः ॥ नित्यं तदाप्रभृत्येवं शिवमेकममन्यत ॥ ४९ ॥
पांसुक्रीडनसक्तोपि कुर्याल्लिंगं रजोमयम् ॥ शाद्वलैः कोमलतृणैः पूजयेच्च स कौतुकम् ॥ ५० ॥
आकारयति मित्राणि शिवनाम्नाऽखिलानि सः ॥ चंद्रशेखरभूतेश मृत्युंजय मृडेश्वरः ॥ ५१ ॥
धूर्जटे खंडपरशो मृडानीश त्रिलोचन ॥ भर्गशंभोपशुपते पिनाकिन्नुग्रशंकर ॥ ५२ ॥
श्रीकंठनीलकंठेश स्मरारे पार्वतीपते ॥ कपालिन्भालनयन शूलपाणे महेश्वर ॥ ५३ ॥
अजिनांबरदिग्वासः स्वर्धुनी क्लिन्नमौलिज ॥ विरूपाक्षाहिनेपथ्य गृणन्नामावलीमिमाम् ॥ ५४ ॥
सवयस्कानिति मुहुः समाह्वयति लालयन् ॥ शब्दग्रहौ न गृह्णीतस्तस्यान्याख्यां हरादृते ॥ ५५ ॥
पद्भ्यां न पद्यते चान्यदृते भूतेश्वराजिरात् ॥ द्रष्टुं रूपांतरं तस्य वीक्षणेन विचक्षणे ॥ ५६ ॥
रसयेत्तस्य रसना हरनामाक्षरामृतम्॥ शिवांघ्रिकमलामोदाद्घ्राणं नैव जिघृक्षति ॥ ५७ ॥
करौ तत्कौतुककरौ मनो मनति नापरम् ॥ शिवसात्कृत्यपेयानि पीयते तेन सद्धिया ॥ ५८ ॥
भक्ष्यते सर्वभक्ष्याणि त्र्यक्षप्रत्यक्षगान्यपि ॥ सर्वावस्थासु सर्वत्र न स पश्येच्छिवं विना ॥ ५९ ॥
इस प्रकार से वयःक्रम आठ वर्ष होते न होते वह शिव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानता था। बालू से खेलते समय वह धूलिमय लिंग का निर्माण कर दूर्वा द्वारा अत्यन्त कौतुक से उनकी पूजा करता था। अपने मित्र-बन्धुओं को वह चन्द्रशेखर, भूतेश, मृत्युंजय, मृड़, ईश्वर, धूर्जटे, खण्डपरशु, मृडानीश, त्रिलोचन, भर्ग, शंभु, पशुपति, पिनाकी, उग्र, शंकर, श्रीकण्ठ, नीलकण्ठ, ईश, स्मरारि, पार्वतीप्रिय, कपाली, भालनयन, शूलपाणि, महेश्वर, अजिनाम्बर, दिग्वास, स्वर्धुनिक्लिन्नमौलिज, विरूपाक्ष, अहिनेपथ्य--इन शिव नामों से उनको पुनः-पुनः पुकारता रहंता। वह कानों से महादेव के नाम के अतिरिक्त अन्य नाम सुनता ही नहीं था। उसके पैर शिवमन्दिर के अंतिरिक्त अन्य स्थान के लिये उठते ही नहीं थे। उसके नेत्रद्वय शिव के अतिरिक्त अन्य रूप को नहीं देखते थे। रसना केवल हर नाम का (शिव नाम का) ही सेवन करती थी। उसकी नाक कभी भी शिव के चरण-कमलों की सुगंध के अलावा अन्य किसी भी चीज़ को सूंघने की इच्छा नहीं करती थी। वह शिव की पूजारूप कौतुक कार्य में ही नित्य लगा रहता था। उसका मन अन्यत्र कहीं नहीं जाता था। उसका मन अन्य किसी को नहीं जानता था। वह भक्ष्य तथा पेय पदार्थ पहले शिवार्पित करके तब ग्रहण करता था। वह सभी अवस्था में जगत् को शिवमय ही देखता था।
गच्छन्गायन्स्वपंस्तिष्ठञ्च्छयानोऽदन्पिबन्नपि ॥ परितस्त्र्यक्षमैक्षिष्ट नान्यं भावं चिकेति सः ॥ ६० ॥
क्षणदासु प्रसुप्तोपि क्व यासीति वदन्मुहुः ॥ क्षणं त्र्यक्ष प्रतीक्षस्व बुध्यतीति स बालकः ॥ ६१ ॥
स्पष्टां चेष्टां विलोक्येति हरिकेशस्य तत्पिता ॥ अशिक्षयत्सुतं सोऽथ गृहकर्मरतो भव ॥ ६२ ॥
एते तुरंगमा वत्स तवैतेऽश्वकिशो रकाः ॥ चित्राणीमानि वासांसि सुदुकूलान्यमूनि च ॥ ६३ ॥
रत्नान्याकरशुद्धानि नानाजातीन्यनेकशः ॥ कुप्यं बहुविधं चैतद्गोधनानि महांति च ॥ ६४॥
अमत्राणि महार्हाणि रौप्य कांस्यमयानि च ॥ पणनीयानि वस्तूनि नानादेशोद्भवान्यपि ॥ ६५ ॥
चामराणि विचित्राणि गंधद्रव्याण्यनेकशः ॥ एतान्यन्यानि बहुशस्त्वनेके धान्यराशयः ॥ ६६ ॥
एतत्त्वदीयं सकलंवस्तुजातं समंततः ॥ अर्थोपार्जनविद्याश्च सर्वाः शिक्षस्व पुत्रक ॥ ६७ ॥
चेष्टास्त्यज दरिद्राणां धूलिधूसरिणाममूः ॥ अभ्यस्यविद्याः सकला भोगान्निर्विश्य चोत्तमान् ॥ ६८ ॥
तां दशां चरमां प्राप्य भक्तियोगं ततश्चर ॥ असकृच्छिक्षितः पित्रेत्यवमन्य गुरोर्गिरम्॥ ६९ ॥
वह गायन करते, चलते, सोते, स्वप्न देखते, बैठते, पान करते, भोजन करते, सभी स्थिति में त्रिलोचन को हीं देखता था। उसे अन्य भाव ज्ञान ही नहीं होता था। वह रात्रि में शयनावस्था में “हे त्रिनयन! कहां जा रहे हैं, क्षणकाल प्रतीक्षा करिये।” यह कहता सहसा जाग जाता उसके पिता पूर्णभद्रयक्ष ने पुत्र को इस अवस्था को देखकर उसे उपदेश दिया- हे वत्स हरिकेश! तुम गृहकर्म में लगो। तुम यह सब घोड़े विभिन्न वस्त्र, दुकूल, शुद्ध नाना प्रकार के रत्न, स्वर्ण-चांदी आदि अनेक धन, महामूल्य चांदी तथा कांस्यपात्र, नानादेशीय व्यापार की वस्तु, विचित्र, चामर तथा गन्ध तथा यह जो भ्रचुर धान्यराशि जो देखते हो, यह सब तुम्हारी है। हे पुत्र! तुम धन कमाने की विद्या सीखो, धूलधूसरित देह से रहना तथा दरिद्रों जैसी चेष्टा करना त्याग दो। तब तुम समस्त विद्या का अभ्यास करके उत्तम भोगसुख से दिव्य जीवन व्यतीत करके वृद्धावस्था में भक्तियोग का अवलम्बन लो। पिता ने उसे ऐसी शिक्षा तो दिया, लेकिन हरिकेश ने उसे सुन ही नहीं।
रुष्टदृष्टिं च जनकं कदाचिदवलोक्य सः ॥ निर्जगाम गृहाद्भीतो हरिकेश उदारधीः ॥ ७० ॥
ततश्चिंतामवापोच्चैर्दिग्भ्रांतिमपि चाप्तवान् ॥ अहो बालिशबुद्धित्वात्कुतस्त्यक्तं गृहं मया ॥ ७१ ॥
क्व यामि क्व स्थिते शंभो मम श्रेयो भविष्यति ॥ पित्रा निर्वासितश्चाहं न च वेद्म्यथ किंचन ॥ ७२ ॥
इति श्रुतं मया पूर्वं पितुरुत्संगवर्तिना ॥ गदतस्तातपुरतः कस्यचिद्वचनं स्फुटम् ॥ ७३ ॥
मात्रा पित्रा परित्यक्ता ये त्यक्ता निजबंधुभिः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ७४ ॥
जरया परिभूता ये ये व्याधिविकलीकृताः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ७५ ॥
पदे पदे समाक्रांता ये विपद्भिरहर्निशम् ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषांवाराणसी गतिः ॥ ७६ ॥
पापराशिभिराक्रांता ये दारिद्र्य पराजिताः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ७७ ॥
संसार भयभीताय ये ये बद्धाः कर्मबंधनैः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ७८ ॥
एक बार महामति बालक ने पिता को पग-पग पर जब दोषदर्शी देखा, तब वह स्नान करने के पश्चात घर से निकल पड़ा। जाते-जाते वह मार्ग भूल गया। तब वह विचार करने लगा- हाय! मैंने मन्दबुद्धि हो गृहत्याग क्यों किया? कहां जा रहा था, कहां जाना अच्छा होगा? हे शम्भु! आप बतायें! में इस समय पितृ परित्यक्त हूं। मैं कुछ भी नहीं जानता। पहले जब मैं पिता की गोद में एक दिन बैठा था, तब वार्ताक्रम में किसी साधु के मुख से सुना कि पिता तथा बन्धुबान्धव जिसे त्याग देते हैं, उसकी वाराणसी के बिना कहीं गति नहीं है। ज्वराक्रान्त व्याधिविगलित अनन्यगति मानव की गति वाराणसी के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं है। जो पग-पग पर विपत्ति से अभिभूत, पापराशि से आक्रान्त, दारिद्धय दलित, संसार भय से भीत, कर्मबन्धनबद्ध है तथा जिनकी कहीं गति नहीं है, उसकी गति वाराणसी ही है।
श्रुतिस्मृतिविहीना ये शौचाचारविवर्जिताः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ७९ ॥
ये च योगपरिभ्रष्टास्तपो दान विवर्जिताः ॥ येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः ॥ ८० ॥
मध्ये बंधुजने येषामपमानं पदे पदे ॥ तेषामानंददं चैकं शंभोरानंदकाननम् ॥ ८१॥
आनंदकानने येषां रुचिर्वै वसतां सताम् ॥ विश्वेशानुगृहीतानां तेषामानंदजोदयः ॥ ८२ ॥
भर्ज्यते कर्मबीजानि यत्र विश्वेशवह्निना ॥ अतो महाश्मशानं तदगतीनां परा गतिः ॥ ८३ ॥
हरिकेशो विचार्येति यातो वाराणसीं पुरीम् ॥ यत्राविमुक्ते जंतूनां त्यजतां पार्थिवीं तनुम् ॥ ८४ ॥
पुनर्नो तनुसंबंधस्तनुद्वेषिप्रसादतः ॥ आनंदवनमासाद्य स तपः शरणं गतः ॥ ८५ ॥
जो श्रुतिस्मृति रहित, सदाचार रहित हैं, उसकी वाराणसी ही गति है। जो शौचाचार विवर्जित है, उसकी गति वाराणसी ही है। जो योगभ्रष्ट, तप-दान रहित हैं, जिनकी कहीं गति नहीं है, एकमात्र वाराणसी ही उसकी गति है। बन्धुजन द्वारा जिसका पग-पग पर अपमान किया जाता है, विश्वेश्वर का आनन्द कानन ही उसकी गति है। यहां निवास करने पर विश्वनाथ की कृपा से सतत् आनन्द भोग लाभ होता है। इस महाश्मशान में रहने पर महेश्वर रूपी अग्नि में कर्मबीज सम्पूर्णतः जल जाता है। तभी जिसकी कोई गति नहीं है, उसकी वाराणसी ही परम गति है। बालक हरिकेश ने इस प्रकार मन ही मन विचार किया तथा वह उस आनन्द कानन अविमुक्त क्षेत्र में जा पहुंचा जहां शिवकृपा से इस भौतिक देह का त्याग हो जाने पर, पुनः देहधारण नहीं करना पड़ता। उसने वाराणसी पहुंचकर तप प्रारंभ कर दिया।
अथ कालांतरे शंभुः प्रविश्यानंदकानमम् ॥ पार्वत्यै दर्शयामास निजमाक्रीडकाननम् ॥ ८६ ॥
अमंदामोदमंदारं कोविदारपरिष्कृतम् ॥ चारुचंपकचूताढ्यं प्रोत्फुल्लनवमल्लिकम् ॥ ८७ ॥
विकसन्मालतीजालं करवीरविराजितम् ॥ प्रस्फुटत्केतकिवनं प्रोद्यत्कुरबकोर्जितम् ॥ ८८ ॥
जृंभद्विचकिलामोदं लसत्कंकेलिपल्लवम्॥ नवमल्लीपरिमलाकृष्टषट्पदनादितम् ॥ ८९ ॥
पुष्प्यपुन्नागनिकरं बकुलामोदमोदितम् ॥ मेदस्विपाटलामोद सदामोदित दिङ्मुखम् ॥ ९० ॥
बहुशोलंबिरोलंब मालामालितभूतलम् ॥ चलच्चंदनशाखाग्र रममाणपि काकुलम् ॥ ९१ ॥
गुरुणाऽगुरुणामत्त भद्रजातिविहंगमम् ॥ नागकेसरशाखास्थ शालभंजि विनोदितम् ॥ ९२ ॥
मेरुतुंग नमेरुस्थच्छायाक्रीडितकिंनरम् ॥ किंनरीमिथुनोद्गीतं गानवच्छुककिंशुकम् ॥ ९३ ॥
तत्पश्चात् कुछ काल व्यतीत हो जाने पर एक बार भगवान् शंभु ने आनन्द कानन में प्रवेश किया तथा पार्वती को अपना उत्तम उद्यान दिखाने लगे। उन्होंने कहा “देखो प्रिये! उद्यान की क्या शोभा है। इस उद्यान में मन्दार, मालती, गन्धमल्लिका, आम्र, चम्पा, कनेर, केतकी, बकुल, कुरुवक, पाटल तथा पुन्नाग विकसित होकर कैसे दसों दिशाओं को आमोदित कर रहे हैं। इस नवमल्लिका के सौरभ से आनन्दित भ्रमर गुंजन कर रहे हैं। किसी स्थान पर अनेक रोलम्बमाला माला के आकार में भूतल पर लटक रही है। इस चंचल चंदन वृक्ष के शाखाग्र में कोकिल कुल कलरव कर रहा है। इस विशाल अगुरुवृक्ष पर उत्कृष्ट जाति के पक्षीगण मदमत्त रूप से बैठे हैं। इस नागकेशर की शाखा में शालभंजिका नेत्रों का विनोद साधन कर रहीं हैं। इस रद्राक्ष वृक्ष की छाया में किन्नर क्रीड़ारत हैं। किन्नरी तथा किन्नर का जोड़ा गान्धार राग में गायन कर रंहा है।
कदंबानां कदंबेषु गुंजद्रोलंबयुग्मकम् ॥ जितसौवर्णवर्णोच्च कर्णिकारविराजितम् ॥ ९४ ॥
शालतालतमालाली हिंताली लकुचावृतम् ॥
लसत्सप्तच्छदामोदं खर्जूरीराजिराजितम् ॥ नारिकेल तरुच्छन्न नारंगीरागरंजितम् ॥ ९५ ॥
फलिजंबीरनिकरं मधूकमधुपाकुलम् ॥ शाल्मली शीतलच्छायं पिचुमंद महावनम्॥ ९६ ॥
मधुरामोद दमनच्छन्नं मरुबनोदितम् ॥ लवलीलोललीलाभृन्मंदमारुतलोलितम् ॥ ९७ ॥
भिल्ली हल्लीसकप्रीति झिल्लीरावविराविणम् ॥ क्वचित्सरः परिसरक्रीडत्क्रोडकदंबकम् ॥ ९८ ॥
इधर किंशुक वृक्ष की शाखाओं पर शुक पक्षियों का झुण्ड गायन कर रहा है। इन वृक्षों पर भौरों की गुंजार गूंज रही है। यहां स्वर्णवर्ण कर्णिकार, शाल, ताल, तमाल, हिन्ताल, लकुच के वृक्ष विराजित हैं। अनार के फल फटकर गिरे हैं। लवली लता तथा कदलीदल वायु के प्रवाह के कारण आन्दोलित हो रहे हैं। सप्तच्छद के आमोद से चतुर्दिक् आमोदित है। खजूर, नारिकेल, जम्बीर, नारंगी, मधूक, शाल्मली, पिचुमन्द तथा मदनफल के वृक्ष शोभायमान हो रहे हैं। यहां भीलों की स्त्रियों की गीतध्वनि के समान झिल्ली की झंकार सुनाई पड़ रही है। इस सरोवर में वराहों का झुण्ड क्रीड़ारत है।
मरालीगलनालीस्थ बिसासक्तसितच्छदम् ॥ विशोककोकमिथुनक्रीडाक्रेंकारसुंदरम् ॥ ९९ ॥
बकशावकसंचारं लक्ष्मणासक्त सारसम् ॥ मत्तबर्हिणसंघुष्टं कपिंजलकुलाकुलम् ॥ १०० ॥
जीवंजीवलसज्जीवं क्वणत्कारंडवोत्कटम् ॥ दीर्घिकावारिसंचारि शीतमारुत वीजितम्॥ १०१ ॥
मदांदोलितकह्लार परागपरिपिंगलम् ॥ उल्लसत्पंकजमुखं नीलेंदीवरलोचनम् ॥ १०२ ॥
तमालकबरीभारं विलसद्दाडिमीरदम् ॥ भ्रमरालीलसद्भ्रूकं शुकनासाविराजितम् ॥ १०३ ॥
महांधुश्रवणं दूर्वा श्मश्रुभिः परिशोभितम् ॥ कमलामोदनिःश्वासं बिंबीफल रदच्छदम् ॥ १०४ ॥
सुपद्मपत्रवसनं कर्णिकारविभूषणम् ॥ कम्रकंबु लसत्कंठं शंकरस्कंध बंधुरम् ॥ १० ॥
गंधसारसमासक्ता हीन दोर्दंडमंडितम् ॥ अशोकपल्लवांगुष्ठं केतकीनखरोज्ज्वलम् ॥ १०६ ॥
लसत्कंठीरवोरस्कं गंडशैलपृथूदरम् ॥ जलावर्तलसन्नाभि तरुजंघा युगान्वितम् ॥ १०७ ॥
यह मराल (हंस) हंसिनी के गले में पड़े मृणाल की अभिलाषा कर रहा है। आनंद में मत्त चक्रवाक पक्षी का जोड़ा 'केका” ध्वनि कर रहा है। बकुले का चूजा चर रहा है। सारस-सारसी यहां क्रीड़ा कर रे हैं मत्तमयूर कूज रहे हैं। कारण्डव-कपिञलल तथा जीवज्जीव कुल का निनाद सभी दिशाओं को निनादित कर है। दीर्घिका के जल पर बह रही शीतल वायु मानो उद्यान को पंखा झल रही है। मृदुमन्द वायु से आंदोलित होकर कल्हारपुष्प का पराग विखर कर समस्त भूमि को पिंगल वर्ण कर रहा है। इस उद्यान में विकसित पद्म ही मानो मुखरूप हैं। नील इन्दीवर पुष्प नयनरूप हैं, तमाल तरु मानो करवी भार है। अनार के दाने ही मानो दांत हैं। भ्रमर ही नील कुटिल भ्रूरेखा हैं। तोते की चोंच ही मानो उसकी नासिका है। यहां के विशाल कूप ही श्रवणरूपेण शोभित हो रहे हैं। कमलपुष्प का आमोद इसके निःश्वास रूप हैं। बिम्बफल इसके ओष्ठद्वयरूपेण विराजमान हैं। सुन्दर पद्मदल इसकी रसना है। कर्णिकार इसका आभूषण है। कमनीय कम्बुफल इसका कण्ठ है। वितुन्नक का वृक्ष इसका स्कन्ध प्रतीत हो रहा है। चन्दन वृक्षस्थ सर्पराज बाहुदण्ड रूप हैं। केतकी पुष्प नख रूप हैं। यहां का दुर्द्धष सिंह वक्षस्थल के समान है। यह देखो! यह गैंडाशैलउदर के समान है। यह जल का आवर्त्त इसकी नाभि के समान है। वटवृक्ष जंघाद्यय के समान बोध हो रहा है।
स्थलभाक्पद्मचरणं मत्तमातंगगामिनम् ॥ लसत्कदलिकेदारदलच्चीनांशुकावृतम् ॥ १०८ ॥
नानासुकुममालाभिर्मालितं च समंततः ॥ अकंटकितरुच्छन्नं महिष श्वापदावृतम् ॥ १०९ ॥
चंद्रकांतशिलासुप्तकृष्णैणहरितोडुपम् ॥
तरुप्रकीर्णकुसुम जितस्वर्लोकतारकम् ॥ दर्शयन्नित्थमाक्रीडं देव्यै देवोविशद्वनम् ॥ ११० ॥
स्थलपद्म चरण स्थानीय है। देखें! यह मत्त हाथी इसका गतिरूप है। यह कदलीदल ही चीनांशुक का कार्य कर रहा है। नाना पुष्प ही इसकी माला है। इस उद्यान में कांटे वाले वृक्ष नहीं हैं। हिंस्न ज़न्तुगण हिंसा त्याग करके यहां विचरते रहते हैं। चन्द्रकांत शिलासीन कृष्णसार मृग मानो मृगलाञ्छन का (चन्द्रमा पर मृगचिह्न का) उपहास कर रहे हैं। वृक्ष के तल में पुष्प विखरे हुये हैं, यह तो स्वर्ग के तारों को लज्जित कर रहे हैं। इस प्रकार देवी को भगवान् शिव ने उद्यान भूमि प्रदर्शित किया और उन्होंने वन में प्रवेश करके कहा-
॥ देवदेव उवाच ॥
यथाप्रियतमा देवि मम त्वं सर्वसुंदरि ॥ तथा प्रियतरं चैतन्मे सदानंदकाननम् ॥ १११ ॥
अत्रानंदवने देवि मृतानां मदनुग्रहात् ॥ वपुस्त्वमृततां प्राप्तमपुनर्भविनस्तु ते ॥ ११२ ॥
भविनो ये विपद्यंते वाराणस्यां ममाज्ञया ॥ तेषां बीजानि दग्धानि श्मशानज्वलदग्निना ॥ ११३ ॥
महाश्मशाने ये प्राप्ता दीर्घनिद्रां गिरींद्रजे ॥ न पुनर्गर्भशयने ते स्वपंति कदाचन ॥ ११४ ॥
देवदेव कहते हैं- हे सर्वसुन्दरी! हे देवी! यह जो आनंदकानन देख रही हो, यह मेरी प्रियता के सम्बन्ध में तुम्हारी अपेक्षा तनिक भी न्यून नहीं है। यहां मृत होने पर मेरी कृपा से जीवदेह मुक्त हो जाता है। उसे पुनः संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। मेरी आज्ञा से यह श्मशान में प्रज्वलित अग्नि उसके कर्मबीज को दग्ध कर देती हैं। हे गिरिजापुत्री! इस महाश्मशान में (काशी में) जो मृत होते हैं, उनको पुनः गर्भ यातना का भोग नहीं करना पड़ता।
ब्रह्मज्ञानेन मुच्यंते नान्यथा जंतवः क्वचित् ॥ ब्रह्मज्ञानमये क्षेत्रे प्रयागे वा तनुत्यजः ॥ ११५ ॥
ब्रह्मज्ञानं तदेवाहं काशीसंस्थितिभागिनाम् ॥ दिशामि तारकं प्रांते मुच्यंते ते तु तत्क्षणात् ॥ ११६ ॥
गृह्णीयुः पापकर्माणि काशीमृतविनिंदकाः ॥ सुकृतानि स्तुतिकृतो मुच्यंते तेऽत्र जंतवः ॥ ११७ ॥
ब्रह्मज्ञानं कुतो देवि कलिनोपहतात्मनाम् ॥ स्वभावचंचलाक्षाणां तद्ब्रह्मेह दिशाम्यहम् ॥ ११८ ॥
योगिनो योगविभ्रष्टाः पतंत्यैश्वर्यमोहिताः ॥ काश्यां पतित्वा न पुनः पतंत्यपि महालये ॥ ११९ ॥
मुक्तिलाभ तत्वज्ञान से होता है। प्रयागक्षेत्र हो अथवा तत्वज्ञानमयी काशी ही क्यों न हो, सर्वत्र ही तत्त्वज्ञान के अभाव में मुक्ति नहीं मिलती। इसीलिये मैं काशीवासीगण को मुमूर्ष (मरने के बहुत समीप) अवस्था में तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर मुक्त करता हूँ। इस तत्त्वज्ञान के प्रभाव से वे मोक्षलाभ करते हैं। जो काशी में मृत व्यक्ति की निन्दा करते हैं वे उसका पाप ग्रहण करते हैं। जो काशी में मृत व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं, वे उसके पुण्य को ग्रहण करते हैं। वे इस स्थान में देहत्याग करके मुक्ति पा लेते हैं। हे देवी! कलिप्रभाव से मलिन बुद्धि तथा स्वभावत: चंचल इन्द्रिय मनुष्य को ब्रह्मज्ञान की संभावना न देखकर मैं यहां उनको मरणकाल में उपदेश (तारक मंत्र) देता हूँ। योगीगण ऐश्वर्ययुक्तता से मुग्ध योगभ्रष्ट होकर पतित हो जाते हैं, तथापि काशी में पतित व्यक्ति को पुन: संसार में पतित नहीं होना पड़ता अर्थात जन्म नहीं लेना पड़ता।
ब्रह्मज्ञानं न विंदंति योगैरेकेन जन्मना ॥ जन्मनैकेन मुच्यंते काश्यामंतकृतो जनाः ॥ १२० ॥
यथेह मुच्यते जंतुर्गिरिजे मदनुग्रहात् ॥ अविमुक्ते महाक्षेत्रे न तथान्यत्र कुत्रचित् ॥ १२१ ॥
बहुजन्मसमभ्यासाद्योगी मुच्येत वा न वा ॥ मृतमात्रो विमुच्येत काश्यामेकेन जन्मना ॥ १२२ ॥
न सिध्यति कलौ योगो न सिध्यति कलौ तपः ॥ न्यायार्जितधनोत्सर्गः सद्यः सिध्येत्कलौ नरः ॥ १२३ ॥
न व्रतं न तपो नेज्या न जपो न सुरार्चनम् ॥ दानमेव कलौ मुक्त्यै काशीदानैरवाप्यते ॥ १२४ ॥
एक जन्म में अनेक योगसाधन करने पर भी तत्त्वज्ञान लाभ नहीं होता, तथापि काशी में देहान्त होने पर एक ही जन्म में मुक्ति मिल जाती है। हे गिरिजे! जीव जिस प्रकार मेरी कृपा से अविमुक्त महक्षेत्र में मुक्तिलाभ करता है, ऐसा कहीं भी नहीं है। योगी अनेक जन्मों में योगभ्यास द्वारा मुक्त होते हैं अथवा मुक्त नहीं भी होते तथापि काशी में जीव-मृत्यु मात्र से एक ही जन्म में मुक्त हो जाता है। कलिकाल में योग अथवा तप सिद्ध नहीं होता। केवल न्यायतः अर्जित धन दान से ही सद्यः परमसिद्धि मिल जाती है। जप, यज्ञ, व्रत, तप, देवपूजा मुक्ति का साधन नहीं है। एकमात्र दान ही मुक्ति का कारण है। क्योंकि उससे काशीलाभ होता है।
कलौ विश्वेश्वरो देवः कलौ वाराणसी पुरी ॥ कलौ भागीरथी गंगा कलौ दानं विशिष्यते ॥ १२५ ॥
गंगोत्तरवहाकाश्यां लिंगं विश्वेश्वरं मम ॥ उभे विमुक्तिदे पुंसां प्राप्ये दानबलात्कलौ ॥ १२६ ॥
पुण्यवानितरो वापि मम क्षेत्रस्य सेवया ॥ मुक्तो भवति देवेशि नात्र कार्या विचारणा ॥ १२७ ॥
अविमुक्तस्य माहात्म्यात्पुण्यपापेन कर्मणा ॥ देवि प्रभवतः पुंसामपिजन्मशतार्जिते ॥ १२८ ॥
अविमुक्तं न मोक्तव्यं तस्माद्देवि मुमुक्षुणा ॥ हन्यमानेन बहुधा ह्युपसर्गशतैरपि ॥ १२९ ॥
विधाय क्षेत्रसंन्यासं ये वसंतीह मानवाः ॥ जीवन्मुक्तास्तु ते देवि तेषां विघ्नं हराम्यहम् ॥ १३० ॥
न योगिनां हृदाकाशे न कैलासे न मंदरे ॥ तथा वासरतिर्मेऽस्ति यथा काश्यां रतिर्मम ॥ १३१ ॥
कलि में विश्वेश्वर ही एकमात्र देवता हैं, वाराणसी ही एकमात्र मोक्षनगरी है, भागीरथी(गंगा) ही एकमात्र पुण्यप्रवाहिनी है, दान ही एकमात्र विशिष्ट धर्म है। हे देवी! इस काल में काशिस्थित उत्तरवाहिनी गंगा तथा मेरा विशेश्वर लिङ्ग, मुक्ति के दो ही कारण दानबल से प्राप्त होते हैं। मैं इस क्षेत्र की सेवा करने से पुण्यात्मा अथवा पापीगण को निश्चित रूप से मुक्तिलाभ होता है। उसका सौ जन्मों का अर्जित पापपुण्य इस क्षेत्र की महिमा से किसी भाव को प्रकाशित नहीं कर पाता। अतएव सैकड़ों विध्न-बाधा से आक्रान्त होकर भी मुमुक्षुगण काशी त्याग न करें। हे देवी! जो लोग क्षेत्र संन्यास लेकर यहां निवास करते हैं, वे जीवन्मुक्त हैं। मैं उनका विघ्नहरण करता हूँ। काशी के प्रति मेरा जैसा अनुराग है, योगियों के हृदयाकाश के प्रति, मंदराचल अथवा कैलास के प्रति मेरा वैसा अनुराग नहीं है।
काशीवासि जनो देवि मम गर्भे वसेत्सदा ॥ अतस्तं मोचयाम्यंते प्रतिज्ञेयं यतो मम ॥ १३२ ॥
तामसीं प्रकृतिं प्राप्य कालो भूत्वा चराचरम् ॥ ग्रसामि लीलया देवि काशीं रक्षामि यत्नतः ॥ १३३ ॥
प्रेमपात्रद्वयं देवि नितरां नेतरन्मम ॥ त्वं वा तपोधने गौरि काशी वानंदभूमिका ॥ १३४ ॥
काशीवासी लोग सदैव मेरे गर्भ में निवास करते हैं! अतएवं अन्तकाल में मैं उनका मोचन करता हूँ। क्योंकि यही मेरी प्रतिज्ञा है। हे देवी! मैं प्रलयकाल में तामस प्रकृति के सहाय्य से कालमूर्त्ति धारण करके लीलाक्रमेण चराचर को ग्रास करता हूं, तथापि यत्नतः काशी की मैं रक्षा करता हूँ। हे देवी! तपोधने! तुम तथा यह आनन्दभूमि काशी, दोनों ही मेरे अतीव प्रेमपात्र हैं।
विना काशी न मे स्थानं विना काशी न मे रतिः ॥ विना काशी न निर्वाणं सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ १३५ ॥
ब्रह्मांडगोलके यद्वन्मुक्तिः काश्यां व्यवस्थिता ॥ अष्टांगयोगयुक्त्या वा न तथा हेलयाऽन्यतः ॥ १३६ ॥
इति ब्रुवाणो देवेशो हरिकेशमवैक्षत ॥ मध्ये वनं तपस्यंतमशोकतरुमूलगम्॥ १३७ ॥
शुष्कस्नायुपिनद्धास्थि संचयं निश्चलाकृतिम् ॥ वल्मीककीटकाकोटिशोषितासृगसृग्धरम् ॥ १३८॥
निर्मांसकीकसचयं स्फटिकोपलनिश्चलम् ॥ शंखकुंदेंदुतुहिन महाशंखलसच्छ्रियम्॥ १३९ ॥
सत्वावलंबितप्राणमायुःशेषेणरक्षितम् ॥ निःश्वासोच्छासपवनवृत्तिसूचितजीवितम् ॥ १४० ॥
निमेषोन्मेषसंचार पिशुनीकृतजंतुकम् ॥ पिंगतारस्फुरद्रश्मि नेत्रदीपित दिङ्मुखम् ॥ १४१ ॥
काशी बिना मेरा कहीं स्थान नहीं है। काशी के अतिरिक्त कहीं मुझे अनुराग नहीं है। काशी बिना कहीं मुक्ति नहीं है। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ। इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार काशी में लीलाक्रमेण मुक्ति अवस्थित है, अन्यत्र अष्टांग योग से भी वैसी मुक्ति नहीं मिलती। देवदेव ने पार्वती से यह कहते-कहते वन में अशोक तरुमूल को देखा कि वहां पर हरिकेश यक्ष निवात निष्कम्प शरीर से तपस्या कर रहा है। उसकी स्नायु सूख गयी हैं। वह अस्थियों से आच्छादित है। मांस, रक्त, वसा का दीमकों की बांबी ने शोषण कर लिया है। अस्थियों पर मांस नहीं है। सभी अंग शंख-कुन्द-चन्द्र-तुहिन तथा महाशंख के समान श्वेतवर्ण हो गये हैं। प्राणवायु को तो सत्वगुण ने धारण कर रखा है। अभी आयु बाकी है, तभी जीवन रक्षा हो रही है। उसकी निमेष-उन्मेष रूपी श्वास चलने से ही यह ज्ञात हो पाता है कि वह जीवित है! उसकी आँखें झपकने से आस-पास के जानवरों को उसके जीवित होने का आभास हो जाता था। उस पिंगल नेत्र की उज्वल ज्योति के कारण दिशायें उद्भासित हो रही हैं।
तत्तपोग्निशिखादाव चुंबितम्लानकाननम्॥ तत्सौम्यदृक्सुधावर्ष संसिक्ताऽखिलभूरुहम् ॥ १४२ ॥
साक्षात्तपस्यंतमिव तपो धृत्वा नराकृतिम् ॥ निराकृतिं निराकांक्षं कृत्वा भक्तिं च कांचन ॥ १४३॥
उसके तप के शिखानल की ज्योति के स्पर्श से कानन भूमि म्लान लगती है तथा उसकी सौम्यदृष्टि से जो सुधावर्षण हो रहा है, उससे निखिल वृक्ष सिक्त हो रहे हैं। इसे देखकर प्रतीत होता है मानो निराकार निराकांक्ष साक्षात् तपस्या ही किसी कामना के कारण मनुष्याकृति धारण करके तप कर रही है।
कुरंगशावैर्गणशो भ्रमद्भिः परिवारितम् ॥ नितांतभीषणास्यैश्च पंचास्यैः परिरक्षितम् ॥ १४४ ॥
तं तथाभूतमालोक्य देवी देवं व्यजिज्ञपत् ॥ वरेणच्छंदयेशामुं निजभक्तं तपस्विनम् ॥ १४५ ॥
त्वदेकचित्तं त्वदधीनजीवितं त्वदेककर्माणममुं त्वदाश्रयम् ॥
तीव्रैस्तपोभिः परिशुष्कविग्रहं कुरुष्व यक्षस्य वरैरनुग्रहम् ॥ १४६ ॥
उसके चतुर्दिक् दल-दल कुरंग-शावक (मृगशावक) भ्रमण कर रहे हैं तथा सिंह लोग अपने भीषण मुख से चतुर्दिक् उनकी रक्षा कर रहे हैं। तब देवी ने भी उसकी ऐसी अवस्था देखकर देवदेव से निवेदन किया- हे ईश्वर! यह यक्ष आपको चित्त, जीवन, कर्म समर्पित करके तीव्रतप से देह सुखाकर आपकी शरण में आया है। अतः अपने भक्त इस तपस्वी को वर देकर उस पर कृपा करिये!
देवो वृषेंद्रादवरुह्य देव्या शैलादिना दत्तकरावलंबः ॥
समाधिसंकोचितनेत्रपत्रं पस्पर्श हस्तेन दयार्द्रचेताः ॥ १४७ ॥
ततः स यक्षो विनिमील्य चक्षुषी त्र्यक्षं पुरो वीक्ष्य समक्षमात्मनः ॥
उद्यत्सहस्रांशु सहस्रतेजसं जगाद हर्षाकुल गद्गदाक्षरम् ॥ १४८ ॥
जयेश शंभो गिरिजेश शंकर त्रिशूलपाणे शशिखंडशेखर ॥
स्पर्शत्कृपालो तव पाणिपंकजं प्राप्यामृतीभूततनूलतोऽभवम् ॥ १४९ ॥
यह सुनकर महादेव ने नंदी का हाथ पकड़कर पार्वती का हाथ पकड़ा तथा वृष पर आसीन होकर वहां प्रकट हो गये। उन्होंने दयापूर्ण होकर ध्यान से निमग्न नेत्र वाले हरिकेश यक्ष का अपने हाथे से स्पर्श किया। तब यक्ष ने नेत्र खोलकर उदित आदित्य के समान भगवान् त्रिलोचन को सामने देखा। भगवान् को देखकर गद्गद स्वर में हरिकेश कहने लगा-- हे ईश्वर! शंभु! गिरिजेश! शंकर, त्रिशूलपाणि, शशिशेखर आपकी जय हो। हे कृपालु! आपके करकमल का स्पर्श पाकर मेरा देह सुधा से सिंचित हो गया।
श्रुत्वोदितां तस्य महेश्वरो गिरं मृद्वीकया साम्यमुपेयुषीं मृदु ॥
भक्तस्य धीरस्य महातपोनिधे ददौ वराणां निकर तदा मुदा ॥ १५० ॥
क्षेत्रस्य यक्षास्य मम प्रियस्य मे भवाधुना दंडधरो वरान्मम ॥
स्थिरस्त्वमद्यादि दुरात्मदंडकः सुपालकः पुण्यकृतां च मत्प्रियः ॥ १५१ ॥
त्वं दंडपाणिर्भव नामतोऽधुना सर्वान्गणाञ्छाधि ममाज्ञयोत्कटान् ॥
गणाविमौ त्वामनुयायिनौ सदा नाम्ना यथार्थौ नृषु संभ्रमोद्भ्रमौ ॥ १५२ ॥
त्वमंत्यभूषां कुरु काशिवासिनां गले सुनीलां भुजगेंद्र कंकणाम् ॥
भालेसु नेत्रां करिकृत्तिवाससं वामेक्षणालक्षित वामभागाम् ॥ १५३ ॥
मौलौ लसत्पिंगकपर्दभारिणी विभूतिसंक्षालित पुण्यविग्रहाम् ॥
अहोहिमांशोः कलया लसच्छ्रियं वृषेंद्रलीला गतिमंदगामिनीम् ॥ १५४ ॥
त्वमन्नदः काशिनिवासिनां सदा त्वं प्राणदो ज्ञानद एक एव हि ॥
त्वं मोक्षदो मन्मुखसूपदेशतस्त्वं निश्चलां सद्वसतिं विधास्यसि ॥ १५५ ॥
त्वं विघ्नपूगैः परिपीड्य पापिनः संभ्रातिमुत्पाद्य विनेष्यसे बहिः ॥
आनीय भक्तान्क्षणतोपिदूरतो मुक्तिं परां दापयितासि पिंगल ॥ १५६ ॥
त्वत्सात्कृते क्षेत्रवरे हि यक्षराट्कस्त्वामनाराध्य विमुक्तिभाजनम् ॥
सभाजनं पूर्वत एव ते चरेत्ततः समर्चां मम भक्त आचरेत् ॥ १५७ ॥
उस धीर, महातपस्वी भक्त का सरलता भरा तथा मधुर वचन सुनकंर भगवान् महेश्वर ने उसे वर प्रदान करते हुये कहा- हे यक्ष! मेरे वर के अनुसार तुम मेरे इस प्रिय क्षेत्र में दण्डघधर होकर आज से यहां स्थिरतापूर्वक निवास करो तथा यहां दुरात्माओं को दण्डित करो और शिष्टजन का पालन करो। तुम्हारा नाम दण्डपाणि होगा, ये सभी उत्कटगण तुम्हारे शासन में रहेंगे। सम्भ्रम तथा उद्भ्रम नाम गणद्वय सदा तुम्हारा अनुसरण करते रहेंगे। तुम काशीवासी, गले में नील रेखा वाले (नीलकण्ठ), भुजंग के कंकण (सर्प कंगन) से युक्त, सुनेत्र, कृत्तिवास (गजचर्म) वस्त्रधारी तथा वृषवाहन होंगे। वाम भाग में वामनयना विराजित रहेंगी। मस्तक पर पिंगल जटाजूट होगा। तुम सर्वांग में भस्म तथा सिर पर चन्द्रकलाधारी होगे। यह पुण्यविग्रह तुम्हारा होगा। तुम काशीवासी लोगों के अन्नदाता, प्राणदाता, ज्ञानदाता तथा मेरे मुख से निर्गत उपदेशबल से मुक्तिदाता रहोगे। उन लोगों को तुम अचल सत्वमति प्रदान करोगे। हे पिंगल! तुम पापियों को अनेक विघ्नदान करके उनमें भ्रान्ति का उत्पादन करोगे। उनको काशी क्षेत्र से भगा दोगे। भक्तों को क्षणमात्र में दूरदुरान्तर से काशी लाकर मुक्ति प्रदान करोगे। हे यक्षराज! यह क्षेत्र सम्पूर्णतः तुम्हारे अधीन रहेगा। यहां भक्तजन पहले तुम्हारी अर्चना करके तब मेरी अर्चना करेंगे। अन्यथा उनकी मुक्ति नहीं होगी।
त्वं ग्रामवासप्रद एव मे पुरेऽध्यक्षस्त्वमेधीह च दंडनायकः ॥
दुष्टान्समुद्घाटय काशिवैरिणः काशीं पुरीं रक्ष सदा मुदान्वितः ॥ १५८ ॥
पूर्णभद्रसुतदंडनायक त्र्यक्षयक्षहरिकेश पिंगल ॥
काशिवास वसतां सदान्नदज्ञानमोक्षदगणाग्रणीर्भव ॥ १५९ ॥
मद्भक्तियुक्तोपि विना त्वदीयां भक्तिं न काशी वसतिं लभेत ॥
गणेषु देवेषु हि मानवेषु तदग्रमान्यो भव दंडपाणे ॥ १६० ॥
ज्ञानोदतीर्थे विहितोदकक्रियो यस्त्वां समाराधयिता गणेशम् ॥
स एव लोके कृतकृत्यतामगान्ममातुलानुग्रहतोऽत्र पुण्यवान् ॥ १६१ ॥
त्वं दक्षिणस्यां दिशि दंडपाणे सदैव मे नेत्रसमक्षमत्र ॥
त्वं दंडयन्प्राणभृतो दुरीहानिहास्वनॄन्स्वानभयं दिशन्वै ॥ १६२ ॥
हे दण्डनायक! तुम इस पुरी के अन्न-वस्त्रदाता तथा त्रिलोचनरूप युक्त होकर रहोगे तथा काशी के शत्रु, दुष्टों का यहां से उच्चाटन करके सदा आनन्दपूर्वक इस पुरी की रक्षा करोगे। हे पूर्णभद्र के पुत्र! तुम्हारा मनोरथ रूपी वृक्ष फलित हो जाये। भक्ति के विषय में तुम ब्रह्मादि देवगण के लिये भी उदाहरण रहोगे। हे पूर्णभद्रपुत्र, दण्डनायक, पिंगल, त्र्यक्ष, यक्ष, हरिकेश! हे काशीवासियों के अन्न, ज्ञान, मोक्षदाता! तुम मेरे सभी गणों में प्रधान रहोगे। मेरा भक्त भी तुम्हारी भक्ति के बिना काशी में निवास नहीं कर सकेगा। तुम देवता, मनुष्य, प्रमथ आदि सबंके पूर्व पूजित होगे। ज्ञानवापी तीर्थ में स्नानादि सम्पन्न करके जो तुम्हारी आराधना करेगा, वह मेरी असामान्य कृपा के कारण पूर्णमनोरथ हो जायेगा। हे दण्डपाणि! तुम सदैव मेरे नेत्र के सामने (अविमुक्तेश्वर के सामने) दक्षिण की ओर दुष्टों का दण्डविधान तथा शिष्टों को अभय प्रदान करते हुये यहां अवस्थित रहो।
॥ स्कंद उवाच ॥
इति दत्त्वा वरान्विप्र गिरीशो दंडपाणये ॥ वृषेंद्रमधिरुह्याथ विवेशानंदकाननम् ॥ १६३ ॥
कुंभोद्भव तदारभ्य यक्षराड्दंडनायकः ॥ पुरीं वाराणसीं सम्यगनुशास्ति निदेशतः ॥ १६४ ॥
अहमप्यत्र वसतिं चक्रे तदनुसूयया ॥ वसन्नपि मया काश्यां यतः संभावितो न सः ॥ १६५ ॥
मुने क्षेत्रं यदत्याक्षीस्त्वमप्येवंविधो वशी ॥ शंके तत्राहमेवाद्धा कामं तस्यैव विक्रियाम् ॥ १६६ ॥
मनाग्विरुद्धाचरणं यदि द्विज विलक्षयेत् ॥ हरिकेशस्तदा काश्यां क्व स्थितिः क्व च निर्वृतिः ॥ १६७ ॥
दंडपाणिमनाराध्य कः काश्यां सुखमाप्नुयात् ॥ प्रविविक्षुरहं काशीं दूरगोपि भजामि तम् ॥ १६८ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे विप्र! भगवान् गिरीश ने इस प्रकार दण्डपाणि को वर दिया। तदनन्तर वृषराज पर आसीन होकर वे आनन्दकानन में चले गये। तब से यक्षराज दण्डनायक दण्डपाणि दुष्टों से काशीपुरी की रक्षा करते यथाविधि यहां पर पालन कार्य करते रहते हैं। मैंने उनकी मर्यादा रक्षा नहीं किया, इसी कारण उनके कोप द्वारा मुझे यहां निवास करना पड़ा है। हे मुनिवर! मुझे भी यह प्रतीत होता है कि आप उनकी प्रतिकूलता के ही कारण काशी क्षेत्र त्यागार्थ बाध्य हुये हैं। हे द्विज! यदि हरिकेश किसी भी व्यक्ति को काशी में नियमों का व्यतिक्रम करते देखते हैं, तब काशी में अवस्थान तथा काशी में भाग्यसुख उसको मिल सकना कठिन है। दण्डपाणि की आराधना किये बिना किसी प्रकार से भी काशी में सुख प्राप्ति नहीं मिल सकती। इसलिये उनका भजन करना चाहिये। मैं भी काशी में प्रवेश करते समय दूर से ही उनका भजन करता हूं।
॥ श्रीदण्डपाण्यष्टकम् अथवा श्रीयक्षराजाष्टकम् ॥
रत्नभद्रांगजोद्भूतं पूर्णभद्रसुतोत्तम ॥ निर्विघ्नं कुरु मे यक्ष काशीवासं शिवाप्तये ॥ १६९ ॥
धन्यो यक्षः पूर्णभद्रो धन्या कांचनकुंडला ॥ ययोर्जठरपीठेभूर्दंडपाणे महामते ॥ १७० ॥
जय यक्षपते धीर जय पिंगललोचन ॥ जय पिंगजटाभार जय दंड महायुध ॥ १७१ ॥
अविमुक्त महाक्षेत्र सूत्रधारोग्रतापस ॥ दंडनायक भीमास्य जय विश्वेश्वरप्रिय ॥ १७२ ॥
सौम्यानां सौम्यवदन भीषणानां भयानक ॥ क्षेत्रपापधियां काल महाकालमहाप्रिय ॥ १७३ ॥
जयप्राणद यक्षेंद्र काशीवासान्नमोक्षद ॥ महारत्नस्फुरद्रश्मि चयचर्चित विग्रह ॥ १७४ ॥
महासंभ्रातिजनक महोद्भ्रांति प्रदायक ॥ अभक्तानां च भक्तानां संभ्रात्युद्भ्रांति नाशक ॥ १७५ ॥
प्रांतनेपथ्यचतुर जयज्ञाननिधिप्रद ॥ जयगौरीपदाब्जाले मोक्षेक्षणविचक्षण ॥ १७६ ॥
हे रत्नभद्रपुत्र पूर्णभद्र पुत्रप्रवर! यक्ष! मेरे लिये आप शिवप्राप्ति हेतु निर्विघ्न काशी निवास की व्यवस्था करिये। यक्ष पूर्णभद्र आप धन्य है। माता कांचनकुण्डला भी धन्य हैं। हे महामति! उनके उदर से आप दण्डपाणि ने जन्म लिया है। हे यक्षराज! आपकी जय हो। हे पिंगल नेत्र, वीर! आपकी जय हो। हे पिंगलजटाभार! दण्डमहायुध! आपकी जय हो। हे अविमुक्त महाक्षेत्र के सूत्रधारी! उग्रतपस्वी, दण्डनायक, भीममुख, विश्वेश्वरप्रिय! आपकी जय हो। हे सौम्यों के प्रति सौम्य! हे भीषणों के प्रति भीषण! हे क्षेत्रस्थ पापियों के लिये कालान्तक! हे महाकाल महाप्रिय! हे प्राणद, यक्षेन्द्र! हे काशीवासीगण को अन्न तथा मुक्तिदाता! आपकी जय हो। हे महारत्नरश्मिमाला स्फुरित विग्रह! हे अभक्तों को महासम्भ्रान्ति-महोद्भ्रान्ति प्रदायक! भक्तों की सम्भ्रान्ति तथा उद्भ्रान्ति के निवारक, प्रान्तनेपथ्य चतुर, जयज्ञान निधिप्रद, गौरी पदाब्जजाल, मोक्षेक्षणविचक्षण आपकी जय हो।
यक्षराजाष्टकं पुण्यमिदं नित्यं त्रिकालतः ॥ जपामि मैत्रावरुणे वाराणस्याप्तिकारणम् ॥ १७७ ॥
दंडपाण्यष्टकं धीमाञ्जपन्विघ्नैर्न जातुचित् ॥ श्रद्धया परिभूयेत काशीवासफलं लभेत ॥ १७८ ॥
प्रादुर्भावं दंडपाणेः शृण्वन्तोत्रमिदं गृणन् ॥ विपत्तिमन्यतः प्राप्य काशीं जन्मांतरे लभेत् ॥ १७९ ॥
श्रुत्वाध्यायमिमं पुण्यं दंडपाणिसमुद्भवम् ॥ पठित्वा पाठयित्वापि न र्विघ्रैरभिभूयतै ॥ १८० ॥
काशी लाभ के कारण रूप इस यक्षराजाष्टक का पाठ मैं (स्कन्द) नित्य तीनों सन्ध्याकाल में करता हूं। हे मैत्रावरुण अगस्त्य! जो सुधी व्यक्ति इस दण्डपाणि अष्टक को सश्रद्धभाव से पाठ करता है, वह कदापि विघ्नो से आक्रान्त नहीं होता तथा काशीवास का फललाभ करता है। इस दण्डपाणि प्रादुर्भाव कथा का श्रवण अथवा पाठ करने पर इस जन्म में अथवा अगले जन्म में काशी प्राप्ति होती है। इस पवित्र दण्डपाणि प्रादुर्भाव अध्याय का जो व्यक्ति पाठ करता है अथवा कराता है, वह विध्नबाधा से ग्रसित नहीं होता।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्द्धे दंडपाणिप्रादुर्भावो नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०४१
॥ स्कंद उवाच ॥
काश्यां सुखेन कैवल्यं यथालभ्येत जंतुभिः ॥ योगयुक्त्याद्युपायैश्च न तथान्यत्र कुत्रचित् ॥ १७० ॥
काश्यां स्वदेहसंयोगः सम्यग्योग उदाहृतः ॥ मुच्यते नेह योगेन क्षिप्रमन्येन केनचित् ॥ १७१ ॥
विश्वेश्वरो विशालाक्षी द्युनदीकालभैरवः ॥ श्रीमान्ढुंढिर्दंडपाणिः षडंगो योग एष वै ॥ १७२ ॥
एतत्षडंगयो योगं नित्यं काश्यां निषेवते ॥ संप्राप्य योगनिद्रां स दीर्घाममृतमश्नुते ॥ १७३ ॥
ओंकारः कृत्तिवासाश्च केदारश्च त्रिविष्टपः ॥ वीरेश्वरोथविश्वेशः षडंगोयमिहापरः ॥ १७४ ॥
पादोदकासिसंभेद ज्ञानोदमणिकर्णिकाः ॥ षडंगोयं महायोगो ब्रह्मधर्मह्रदावपि ॥ १७५ ॥
षडंगसेवनादस्माद्वाराणस्यां नरोत्तम ॥ न जातु जायते जंतुर्जननी जठरे पुनः ॥ १७६ ॥
स्कंददेव कहते हैं : जिस प्रकार से काशी में अतीव सुखपूर्वक स्थिति में कैवल्य (मोक्ष) मिलता है, अन्यत्र योगादि नाना उपाय से तथा इस प्रकार अल्प प्रयास द्वारा जीवगण मुक्त नहीं होते। काशी में स्थित रहना ही सम्पूर्ण योगस्वरूप है। इस योग द्वारा जिस प्रकार से त्वरित मुक्तिलाभ होता है वैसा अन्य प्रकार से कहीं भी नहीं होता। काशी में विश्वेश्वर, विशालाक्षी, गंगा, कालभैरव, ढुंढिराज तथा दण्डपाणि ही षट्योगाङ्गरूप हैं। यहां इन षड़ङ्गयोग की पूजा करने से दीर्घ योगनिद्रा की सहायता से मुक्तिपद प्राप्त होता है। यहां प्रभु ओंकारेश्वर, कृत्तिवासेश्वर, केदारेश्वर, त्रिविष्टपेश्वर, वीरेश्वर तथा विश्वेश्वर - ये छः योग के अन्य अंग हैं। असि-वरुणासंगम, ज्ञानवापी, मणिकर्णिका, ब्रह्महृद, धर्महृद (धर्मकूप)- ये छह भी योग के अन्य अंग कहे गये हैं। हे नरेश्वर! काशी में इन सभी षडङ्ग की सेवा करने वाला प्राणी पुनः गर्भयन्त्रणा नहीं भोगता।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०४९
॥ रविरुवाच ॥
विश्वेशाद्दक्षिणेभागे यो मां त्वत्पुरतः स्थितम् ॥ आराधयिष्यति नरः क्षुद्बाधा तस्य नश्यति ॥ १५ ॥
अन्यश्च मे वरो दत्तो विश्वेशेन पतिव्रते ॥ तपसा परितुष्टेन तं निशामय वच्मि ते ॥ १६ ॥
प्राग्रवे त्वां समाराध्य यो मां द्रक्ष्यति मानवः ॥ तस्य त्वं दुःखतिमिरमपानुद निजैः करैः ॥ १७ ॥
अतो धर्माप्रिये नित्यं प्राप्य विश्वेश्वराद्वरम् ॥ काशीस्थितानां जंतूनां नाशयाम्यघसंचयम् ॥ १८ ॥
ये मामत्र भजिष्यंति मानवाः श्रद्धयान्विताः ॥ त्वद्वरोद्यतपाणिं च तेषां दास्यामि चिंतितम् ॥ १९ ॥
भवतीं मत्समीपस्थां युधिष्ठिरपतिव्रताम् ॥ विश्वेशाद्दक्षिणेभागे दंडपाणेः समीपतः ॥ २० ॥
येर्चयिष्यंति भावेन पुरुषा वास्त्रियोपि वा ॥ तेषां कदाचिन्नो भावि भयं प्रियवियोगजम् ॥ २१ ॥
न व्याधिजं भयं क्वापि न क्षुत्तृड्दोषसंभवम् ॥ द्रौपदीक्षणतः काश्यां तव धर्मप्रियेनघे ॥ २२ ॥
सूर्यदेव कहते हैं- विश्वेश्वर (अविमुक्तेश्वर) के दक्षिण की ओर तुम (द्रौपदी) रहोगी। तुम्हारे समक्ष मेरा अधिष्ठान होगा। यहां मेरी आराधना करने वाला प्राणी कदापि क्षुधा पीड़ित नहीं होगा। हे रति परायणे! प्रभु विश्वनाथ के सन्तुष्ट होने पर मैंने उनसे जो वर प्राप्त किया था, वह सुनो। विश्वेश्वर ने कहा था कि - हे दिवाकर! जो व्यक्ति पहले तुम्हा पूजन करके तब मेरा दर्शन करेगा, तुम उसके सभी दुःख दूरीभूत करोगे। हे द्रौपदी! विश्वेश्वर से यह वर पाकर तब से मैं काशीवासी जीवों का पापनाश करता हूं। यहां जिनसे मैं पूजित होता हूं, वह मुझसे पूर्ण मनोरथ लाभ करते हैं। विश्वेश्वर के दक्षिण की ओर मेरे एवं दण्डपाणि के निकट तुम रहोगी। काशी में जो नर अथवा नारी श्रद्धापूर्वक तुम्हारी मूर्त्ति का पूजन करेंगे, वे कदापि प्रियजनवियोग से दुःखी नहीं होंगे। हे निष्पाप! धर्मशीले! काशी में तुम्हारे दर्शन से लोगों की व्याधि, क्षुधा तथा तृष्णाजनित दारुण कष्ट दूरीभूत होगा।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५५
॥ स्कंद उवाच ॥
अन्येपि ये गणास्तत्र काश्यां लिंगानि चक्रिरे ॥ तांश्च ते कथयिष्यामि कुंभयोने निशामय ॥ १ ॥
स्कंददेव कहते हैं : इस काशी में जिन सब शिवपार्षदगणों ने शिवलिंग स्थापित किया था वह सब कहता हूँ -
विराधेश्वरमाराध्य विराधगणपूजितम्॥ सर्वापराधयुक्तोपि नापराध्यति कुत्रचित् ॥ २२ ॥
दिनेदिनेपराधो यः क्रियते काशिवासिभिः ॥ स याति संक्षयं क्षिप्रं विराधेश समर्चनात् ॥ २३ ॥
नैर्ऋते दंढपाणस्तु विराधेशं प्रयत्नतः॥ नत्वा सर्वापराधेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः॥२४॥
विराध नामक गण द्वारा प्रतिष्ठित विराधेश्वर शिव की आराधना करने वाला भले ही सभी प्रकार के अपराधों से युक्त हो, उसे कहीं भी अपराधदण्ड नहीं मिलता। काशीवासी लोग दिन-प्रतिदिन जो अपराध करते हैं, विराधेश्वर शिवलिङ्ग की पूजा करने से वह अपराध शीघ्र ही छयीभूत हो जाते हैं! दंडपाणि के नैरृतकोण में स्थित विराधेश्वर लिङ्ग को जो यत्नतः प्रणाम करता है, वह निःसंदिग्ध रूप से सभी अपराधों से मुक्त हो जाता है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०९७
देवस्य दक्षिणे भागे तत्र वापी शुभोदका ॥ तदंबुप्राशनं नृणामपुनर्भवहेतवे ॥२२० ॥
तज्जलात्पश्चिमे भागे दंडपाणिः सदावति ॥ तत्प्राच्यवाच्युत्तरस्यां तारः कालः शिलादजः॥२२१॥
लिंगत्रयं हृदब्जेयच्छ्रद्धयापी तमर्पयेत् ॥ यैस्तत्र तज्जलं पीतं कृतार्थास्ते नरोत्तमाः ॥२२२॥
अविमुक्तसमीपेच्यों मोक्षेशो मोक्षबुद्धिदः ॥ करुणेशो दयाधाम तदुदीच्यां समर्चयेत् ॥२२३॥
जो व्यक्ति अविमुक्तेश्वर के दक्षिण में अवस्थित शुभोदक वापी अर्थात ज्ञानवापी का जलपान करता है, उसे पुनः जन्म लेकर संसार यातना भोग नहीं करना पड़ता। ज्ञानवापी के पश्चिम भाग में दण्डपाणिदेव काशीरक्षक होकर अवस्थित रहते हैं। पूर्व की ओर तारकेश्वर, दक्षिण की ओर कालेश्वर तथा उत्तर की ओर नन्दीश्वर लिङ्ग विरजित है। जो व्यक्ति श्रद्धालु चित्त से इस वापी का जलपान करता है, उसके हृदय में पूर्वोक्त तीनों लिङ्ग विराजित रहते हैं। अतः जो इस जल का पान करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं। अविमुक्तेश्वर के सन्निधान में मोक्षेश्वर लिङ्ग का दर्शन करने से मोक्षलाभ होता है। उसके उत्तर भाग में दयाधाम करुणेश्वर लिङ्ग की पूजा करें।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_१००
॥ व्यास उवाच॥
निशामय महाप्राज्ञ लोमहर्षण वच्मि ते ॥ यथा प्रथमतो यात्रा कर्तव्या यात्रिकैर्मुदा ॥ ३६ ॥
आदित्यं द्रौपदीं विष्णुं दंडपाणिं महेश्वरम् ॥ नमस्कृत्य ततो गच्छेद्द्रष्टुं ढुंढिविनायकम् ॥३८॥
ज्ञानवापीमुपस्पृश्य नंदिकेशं ततोर्चयेत् ॥ तारकेशं ततोभ्यर्च्य महाकालेश्वरं ततः ॥ ३९ ॥
ततः पुनर्दंडपाणिमित्येषा पंचतीर्थिका ॥ ४० ॥
व्यासदेव लोमहर्षण (सूत जी) से कहते हैं- हे महाप्राज्ञ! यात्री लोग जिस प्रकार से यात्रा करें, उसकी विधि एकाग्र होकर सुनो। मानव पहले चक्रपुष्करिणी के जल में स्नानोपरान्त यथाविधि दैव-पितृ अर्चना, ब्राह्मण तथा अतिथियों का सत्कार तथा आदित्य, द्रौपदी, विष्णु, दण्डपाणि तथा महेश्वर को प्रणाम करके ढुण्ढिराज गणेश के दर्शनार्थ जायें। तदनन्तर ज्ञानवापी का जलस्पर्श करके नन्दिकेश्वर लिङ्ग की पूजा के अन्त में तारकेश्वर लिङ्ग, महाकालेश्वर लिङ्ग तथा दण्डपाणि की अर्चना करनी चाहिये। यह है पञ्चतीर्थिका। महाफल चाहने वाले मनुष्य नित्य यह पदञ्चतीर्थिका करें।
[काशीरहस्य, ब्रह्मवैवर्तपुराण]
काश्याम्पापं ये प्रकुर्वन्ति पापास्तेषां दुःखञ्जायते निश्चयेन ।
शम्भोर्लिलिङ्गं सच्चिदानन्दरूपं पञ्चक्रोशं तत्परिक्रम्य शुद्धाः ॥
दण्डपाणि कहते हैं- जो पापी काशी में पाप करते हैं, उनको निश्चय ही दु:ख प्राप्त होता है; किन्तु भगवान् शिव के लिङ्गस्वरूप, सच्चिदानन्द रूप पञ्चक्रोशात्मक काशी क्षेत्र की परिक्रमा करने से वे शुद्ध हो जाते हैं।
मत्स्यपुराणम्/अध्यायः_१८०
वाराणसी माहात्म्य के प्रसङ्ग में हरिकेश यक्ष की तपस्या, अविमुक्त की शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेश को शिवजी द्वारा वरप्राप्ति...
॥ वारणस्या माहात्म्यम् ॥
॥ ऋषय ऊचुः ॥
श्रुतोऽन्धक वधः सूत! यथावत्त्वदुदीरितः। वाराणस्यास्तु महात्म्यं श्रोतुमिच्छाम साम्प्रतम् ॥ १ ॥
भगवान् पिङ्लः केन गणत्वं समुपागतः। अन्नदत्त्वञ्च सम्प्राप्तो वाराणस्यां महाद्युतिः ॥ २ ॥
क्षेत्रपालः कथं जातः प्रियत्वञ्च कथङ्गतः। एतदिच्छाम कथितं श्रोतुं ब्रह्मसुत! त्वया ॥ ३ ॥
ऋषियोंने पूछा- सूतजी! आपद्वारा कहा गया अन्धक वधका प्रसङ्ग तो हमलोगोंने यथार्थरूपसे सुन लिया, अब हमलोग वाराणसीका माहात्म्य सुनना चाहते हैं। ब्रह्मपुत्र सूतजी! वाराणसीमें परम कान्तिमान् भगवान् पिङ्गलको गणेशत्वको प्राप्ति कैसे हुई? अन्नदाता कैसे बने और क्षेत्रपाल कैसे हो गये? तथा वे शंकरजीके प्रेमपात्र कैसे बने ? आपके द्वारा कहे गये इस सारे प्रसङ्गको सुननेके लिये हमलोगोंकी उत्कट अभिलाषा है।
॥ सूत उवाच ॥
श्रृणुध्वं वै यथा लेभे गणेशत्वं स पिङ्गलः। अन्नदत्वं च लोकानां स्थानं वाराणसी त्विह ॥ ४ ॥
पूर्णभद्रसुतः श्रीमानासीद्यज्ञः प्रतापवान्। हरिकेश इति ख्यातो ब्रह्मण्यो धार्मिकश्च ह ॥ ५ ॥
तस्य जन्मप्रभृत्यैव सर्वे भक्तिरनुत्तमा। तदासीत्तन्नमस्कारस्तन्निष्ठस्तत्परायणः ॥ ६ ॥
आसीनश्च शयानश्च गच्छंस्तिष्ठन्ननुव्रजन्। भुञ्जानोऽथ पिबन्वापि रुद्रमेवान्वचिन्तयत् ॥ ७ ॥
तमेवं युक्तमनसम्पूर्णभद्रः पिताब्रवीत्। न त्वां पुत्रमहं मन्ये दुर्जातो यस्त्वमन्यथा ॥ ८ ॥
न हि यक्ष कुलीनानामेतद्वृत्तं भवत्युत। गुह्यका बत यूयं वै स्वभावात् क्रूरचेतसः ॥ ९ ॥
क्रव्यादाश्चैव किं भक्षा हिंसाशीलाश्च पुत्रक। मैवं काषीर्नते वृत्तिरेवं दृष्टा महात्मना ॥ १० ॥
स्वयम्भुवा यथादिष्टा त्यक्तव्या यदि नो भवेत्। आश्रमान्तरजं कर्म न कुर्युर्गृहिणस्तु तत् ॥ ११ ॥
हित्वा मनुष्यभावं च कर्मभिर्विविधैश्चर। यत्त्वमेवं विमार्गस्थो मनुष्याज्जात एव च॥ १२ ॥
यथावद्विविधन्तेषां कर्म तज्जाति संश्रयम्। मयापि विहितं पश्य कर्मैतन्नात्र संशयः ॥ १३ ॥
सूतजी कहते हैं ऋषियो पिंगलको जिस प्रकार गणेशत्व, लोकोंके लिये अन्नदत्व और वाराणसी-जैसा स्थान प्राप्त हुआ था वह प्रसङ्ग बतला रहा हूँ, सुनिये। प्राचीनकालमें हरिकेश नामसे विख्यात एक सौन्दर्यशाली यक्ष हो गया है, जो पूर्णभद्रका पुत्र था। वह महाप्रतापी, ब्राह्मणभक्त और धर्मात्मा था। जन्मसे ही उसकी शंकरजीमें प्रगाढ़ भक्ति थी। वह तन्मय होकर उन्हींको नमस्कार करनेमें उन्होंकी भक्ति करनेमें और उन्होंके ध्यानमें तत्पर रहता था। वह बैठते, सोते, चलते, खड़े होते, घूमते तथा खाते-पीते समय सदा शिवजीके ध्यानमें ही मग्न रहता था। इस प्रकार शंकरजीमें लीन मनवाले उससे उसके पिता पूर्णभद्रने कहा- 'पुत्र! मैं तुम्हें अपना पुत्र नहीं मानता। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम अन्यथा ही उत्पन्न हुए हो; क्योंकि यक्षकुलमें उत्पन्न होनेवालोंका ऐसा आचरण नहीं होता। तुम गुह्यक हो । राक्षस ही स्वभावसे क्रूर चित्तकाले मांसभक्षी, सर्वभक्षी और हिंसापरायण होते हैं। महात्मा ब्रह्माद्वारा ऐसा ही निर्देश दिया गया है। तुम ऐसा मत करो क्योंकि तुम्हारे लिये ऐसी वृत्ति नहीं बतलायी गयी है। गृहस्थ भी अन्य आश्रमोंका कर्म नहीं करते। इसलिये तुम मनुष्यभावका परित्याग करके यक्षोंके अनुकूल विविध कर्मोंका आचरण करो। यदि तुम इस प्रकार विमार्गपर ही स्थित रहोगे तो मनुष्यसे उत्पन्न हुआ ही समझे जाओगे। अतः तुम यक्षजातिके अनुकूल विविध कर्मोंका ठीक-ठीक आचरण करो। देखो, मैं भी निःसंदेह वैसा ही आचरण कर रहा हूँ।
॥ सूत उवाच ॥
एवमुक्त्वा स तं पुत्रं पूर्णभद्रः प्रतापवान्। उवाच निष्क्रमन्क्षिप्रं गच्छपुत्र! यथेच्छसि ॥ १४ ॥
ततः स निर्गतस्त्यक्त्वा गृहं सम्बन्धिनस्तथा। वाराणसीं समासाद्य तपस्तेपे सुदुश्चरम् ॥ १५ ॥
स्थाणुभूतो ह्यनिमिषः शुष्क काष्ठोपलोपमः। सन्नियम्येन्द्रियग्राममवतिष्ठत निश्चलः ॥ १६ ॥
अथ तस्यैवमनिशन्तत्परस्य तदाशिषः। सहस्रमेकं वर्षाणां दिव्यमप्यभ्यवर्तत ॥ १७ ॥
वल्मीकेन समाक्रान्तो भक्ष्यमाणः पिपीलिकैः। वज्रसूचीमुखैस्तीक्ष्णैः विध्यमानस्तथैव च ॥ १८ ॥
निर्मांसरुधिरत्वक्च कुन्दशंखेन्दु सप्रभः। अस्थिशेषोऽभवच्छर्वं देवं वै चिन्तयन्नपि ॥ १९ ॥
एतस्मिन्नन्तरे देवी विज्ञापयत शङ्करम्।
सूतजी कहते हैं ऋषियो प्रतापी पूर्णभद्रने अपने उस पुत्रसे इस प्रकार (कहा; किंतु जब उसपर कोई प्रभाव पड़ते नहीं देखा, तब वह पुनः कुपित होकर) बोला- पुत्र ! तुम शीघ्र ही मेरे घरसे निकल जाओ और जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाओ। तब वह हरिकेश गृह तथा सम्बन्धियोंका त्याग कर निकल पड़ा और वाराणसीमें आकर अत्यन्त दुष्कर तपस्यामें संलग्न हो गया। वहाँ वह इन्द्रियसमुदायको संयमित कर सूखे का और पत्थरकी भाँति निश्चल हो एकटक स्थाणु (ठूंठ) की तरह स्थित हो गया। इस प्रकार निरन्तर तपस्यामें लगे रहनेवाले हरिकेशके एक सहस दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये। उसके शरीरपर विमवट जम गयी। बड़के समान कठोर और सुई-जैसे पतले एवं तीखे मुखवाली चीटियोंने उसमें छेद कर उसे खा डाला।इस प्रकार वह मांस, रुधिर और चमड़ेसे रहित हो अस्थिमात्र अवशेष रह गया, जो कुन्द, शङ्ख और चन्द्रमाके समान चमक रहा था। इतनेपर भी वह भगवान् शंकरका ध्यान कर ही रहा था। इसी बीच पार्वती देवीने शंकरसे निवेदन किया -
॥ देव्युवाच ॥
उद्यानं पुनरेवेह द्रष्ट्रमिच्छामि सर्वदा ॥ २० ॥
क्षेत्रस्य देव माहात्म्यं श्रोतुं कौतूहलं हि मे। यतश्च प्रियमेतत्ते तथास्य फलमुत्तमम् ॥ २१ ॥
इति विज्ञापितो देवः शर्वाण्या परमेश्वरः। शर्वः पृष्टोयथातथ्यमाख्यातुमुपचक्रमे ॥ २२ ॥
निर्जगाम च देवेशः पार्वत्या सह शङ्करः। उद्यानं दर्शयामास देव्या देवः पिनाकधृक् ॥ २३ ॥
देवीने कहा - देव! मैं इस उद्यानको पुनः देखना चाहती हूँ। साथ ही इस क्षेत्रका माहात्म्य सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है; क्योंकि यह आपको परम प्रिय है और इसके श्रवणका फल भी उत्तम है। इस प्रकार भवानीद्वारा निवेदन किये जानेपर परमेश्वर शंकर प्रश्नानुसार सारा प्रसंग यथार्थरूपसे कहनेके लिये उद्यत हुए। तदनन्तर पिनाकधारी देवेश्वर भगवान् शंकर पार्वतीके साथ वहाँसे चल पड़े और देवीको उस उद्यानका दर्शन कराते हुए बोले।
॥ देवदेव उवाच ॥
प्रोत्फुल्लनानाविध गुल्मशोभितं लताप्रतानावनतं मनोहरम्।
विरूढपुष्पैः परितः प्रियङ्गुभिः सुपुष्पितैः कण्टकितैश्च केतकैः ॥ २४ ॥
तमालगुल्मैर्निचितं सुगन्धिभिः सकर्णिकारैर्बकुलैश्च सर्वशः।
अशोकपुन्नागवरैः सुपुष्पितैर्द्विरेफमालाकुल पुष्पसञ्चयैः ॥ २५ ॥
क्वचित् प्रफुल्लाम्बुजरेणुरूषितैः विहङ्गमैश्चारुकलप्रणादिभिः।
विनादितं सारसमण्डनादिभिः प्रमत्तदात्यूहरुतैश्च वल्गुभिः ॥ २६ ॥
क्वचिच्च चक्राह्वरवोपनादितं क्वचिच्च कादम्ब कदम्बकैर्युतम्।
क्वचिच्च कारण्डवनादनादितं क्वचिच्च मत्तालिकुलाकुलीकृतम् ॥ २७ ॥
मदाकुलाभिस्त्वमराङ्गनाभिर्निषेवितञ्चारु सुगन्धिपुष्पम्।
क्वचित् सुपुष्पैः सहकारवृक्षैर्लतोपगूढैस्तिल कद्रुमैश्च ॥ २८ ॥
प्रगीतविद्याधरसिद्धचारणं प्रवृत्तनृत्याप्सरसाङ्गणाकुलम्।
प्रहृष्टनानाविधपक्षिसेवितं प्रमत्तहारीतकुलोपनादितम् ॥ २९ ॥
मृगेन्द्रनादाकुलसत्वमानसैः क्वचित् क्वचित्द्वन्द्वकदम्बकैर्मृगैः।
प्रफुल्लनानाविधचारुपङ्कजैः सरस्तटाकैरुपशोभितं क्वचित् ॥ ३० ॥
देवाधिदेव शंकरने कहा—प्रिये! यह उद्यान खिले हुए नाना प्रकारके गुल्मोंसे सुशोभित है। यह लताओंके विस्तारसे अवनत होनेके कारण मनोहर लग रहा है। इसमें चारों ओर पुष्पोंसे लदे हुए प्रियङ्गुके तथा भली भाँति खिली हुई कैटीली केतकीके वृक्ष दीख रहे हैं। यह सब ओर तमालके गुल्मों, सुगन्धित कनेर और मौलसिरी तथा फूलोंसे लदे हुए अशोक और पुंनागके उत्तम वृक्षोंसे, जिसके पुष्पोंपर भ्रमरसमूह गुजार कर रहे हैं, व्याप्त है। कहीं पूर्णरूपसे खिले हुए कमलके परागसे धूसरित अङ्गवाले पक्षी सुन्दर कलनाद कर रहे हैं, कहीं सारसोंका दल बोल रहा है। कहाँ मतवाले चालकोंकी मधुर बोली सुनायी पड़ रही है। कहीं चक्रवाकोंका शब्द गूँज रहा है। कहीं यूथ के यूथ कलहंस विचर रहे हैं। कहीं नादनिनादित हो रहा है। कहीं झुंड के झुंड मतवाले भरि गुनगुना रहे हैं। कहाँ मदसे मतवाली हुई देवाङ्गनाएँ सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पोंका सेवन कर रही हैं। कहीं सुन्दर पुष्पोंसे आच्छादित आमके वृक्ष और वाओंसे आच्छादित तिलकके वृक्ष शोभा पा रहे हैं।कहीं विद्याधर, सिद्ध और चारण राग अलाप रहे हैं तो कहाँ अप्सराओंका दल उन्मत्त होकर नाच रहा है। इसमें नाना प्रकारके पक्षी प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। यह मतवाले हारीतसमूहसे निनादित है। कहीं-कहीं झुंड के झुंड मृगके जोड़े सिंहकी दहाड़से व्याकुल मनवाले होकर इधर-उधर भाग रहे हैं। कहीं ऐसे तालाब शोभा पा रहे हैं, जिनके तटपर नाना प्रकारके सुन्दर कमल खिले हुए हैं।
निबिडनिचुलनीलं नीलकण्ठाभिरामं मदमुदितविहङ्गव्रातनादाभिरामम्।
कुसुमित तरुशाखा लीनमत्तद्विरेफं नवकिशलय शोभिशोभितप्रान्तशाखम् ॥ ३१ ॥
क्वचिच्च दन्तिक्षतचारुवीरुधं क्वचिल्लतालिङ्गितचारुवृक्षकम्।
क्वचिद्विलासालसगामिबर्हिणं निषेवितं किं पुरुषव्रजैः क्वचित् ॥ ३२ ॥
पारावतध्वनिविकूजितचारुश्रृङ्गैरभ्रङ्कषैः सितमनोहरचारुरूपैः।
आकीर्णपुष्पनिकुरम्बविमुक्तहासैर्विभ्राजितं त्रिदशदेवकुलैरनेकैः ॥ ३३ ॥
फुल्लोत्पलागुरुसहस्रवितानयुक्तै स्तोयावयैस्तमनुशोभितदेवमार्गम्।
मार्गान्तरागलितपुष्पविचित्रभक्ति सम्बद्धगुल्मविटपैर्विहगैरुपेतम् ॥ ३४ ॥
तुङ्गाग्रैर्नीलपुष्पस्तवकभरनतप्रान्तशाखैरशोकै-
र्मत्तालिव्रातगीतश्रुतिसुखजननैर्भासितान्तर्मनोज्ञैः
रात्रौ चन्द्रस्य भासा कुसुमिततिलकैरेकतां सम्प्रयातं
च्छाया सुप्तप्रबुद्धस्थितहरिणकुलालुप्तदर्भाङ्कुराग्रम् ॥ ३५ ॥
हंसानां पक्षपातप्रचलितकमलस्वच्छविस्तीर्णतोयम् ।
तोयानां तीरजातप्रविकचकदलीवाटनृत्यन्मयूरम्।
मायुरैः पक्षचन्द्रैः क्वचिदपि पतितै रञ्जितक्ष्मप्रदेशम्
देशे देशे विकीर्णप्रमुदितविलसन्मत्तहारीतवृक्षम्॥ ३६ ॥
सारङ्गः क्वचिदपि सेवितप्रदेशं सच्छन्नं कुसुमचयैः क्वचिद्विचित्रैः।
हृष्टाभिः क्वचिदपि किन्नराङ्गनाभिः क्षीबाभिः समधुरगीतवृक्षखण्डम् ॥ ३७ ॥
यह घने बेंतकी लताओं एवं नीलमयूरोंसे सुशोभित और मदसे उन्मत्त हुए पक्षिसमूहोंके नादसे मनोरम लग रहा है। इसके खिले हुए वृक्षोंकी शाखाओंमें मतवाले भरे छिपे हुए हैं और उन शाखाओंके प्रान्तभाग नये किसलयोंकी शोभासे सुशोभित हैं। कहीं सुन्दर वृक्ष हाथियोंके दाँतोंसे क्षत-विक्षत हो गये हैं। कहीं लताएँ मनोहर वृक्षोंका आलिङ्गन कर रही हैं। कहीं भोगसे अलसाये हुए मयूरगण मन्दगतिसे विचरण कर रहे हैं। कहीं किम्पुरुषगण निवास कर रहे हैं। जो कबूतरोंकी ध्वनिसे निनादित हो रहे थे, जिनका उज्ज्वल मनोहर रूप है, जिनपर बिखरे हुए पुष्पसमूह हासकी छटा दिखा रहे हैं और जिनपर अनेकों देवकुल निवास कर रहे हैं, उन गगनचुम्बी मनोहर शिखरोंसे सुशोभित हो रहा है। खिले हुए कमल और अगुरुके सहस्रों वितानोंसे युक्त जलाशयोंसे जिसका देवमार्ग सुशोभित हो रहा है। उन मार्गोंपर पुष्प बिखरे हुए हैं और वह विचित्र भक्तिसे युक्त पक्षियोंसे सेवित गुल्मों और वृक्षोंसे युक्त है। जिनके अग्रभाग ऊँचे हैं, जिनकी शाखाओंका प्रान्तभाग नीले पुष्पोंके गुच्छोंके भारसे झुके हुए हैं तथा जिनकी शाखाओंके अन्तर्भागमें लीन मतवाले भ्रमरसमूहोंकी श्रवण-सुखदायिनी मनोहर गीत हो रही है, ऐसे अशोकवृक्षोंसे युक्त है। रात्रिमें यह अपने खिले हुए तिलक वृक्षोंसे चन्द्रमाकी चाँदनीके साथ एकताको प्राप्त हो जाता है। कहीं वृक्षोंकी छायामें सोये हुए, सोकर जगे हुए तथा बैठे हुए हरिणसमूहोंद्वारा काटे गये दूर्वाङ्कुरोंके अग्रभागसे युक्तहै। कहीं हंसोंके पंख हिलानेसे चञ्चल हुए कमलोंसे युक्त, निर्मल एवं विस्तीर्ण जलराशि शोभा पा रही है। कहीं जलाशयोंके तटपर उगे हुए फूलोंसे सम्पन्न कदलीके लतामण्डपोंमें मयूर नृत्य कर रहे हैं। कहीं झड़कर गिरे हुए चन्द्रकयुक्त मयूरोके पंखोंसे भूतल अनुरञ्जित हो रहा है। जगह-जगह पृथक् पृथक् यूथ बनाकर हर्षपूर्वक विलास करते हुए मतवाले हारीत पक्षियोंसे युक्त वृक्ष शोभा पा रहे हैं। किसी प्रदेशमें सारङ्ग जातिके मृग बैठे। हुए हैं। कुछ भाग विचित्र पुष्पसमूहोंसे आच्छादित है। कहीं उत्पन्न हुई किनाएँ हर्षपूर्वक सुमधुर गीत अलाप रही हैं, जिनसे वृक्षखण्ड मुखरित हो रहा है।
संसृष्टैः क्वचिदुपलिप्तकीर्णपुष्पैरावासैः परिवृतपादपं मुनीनाम्।
आमूलात् फलनिचितैः क्वचिद्विशालैरुत्तुङ्गैः पनसमहीरहैरुपेतम् ॥ ३८ ॥
फुल्लातिमुक्तकलतागृहसिद्धलीलं सिद्धाङ्गना-कनकनूपुरनादरम्यम्।
रम्यप्रियङ्गुतरुमञ्जरिसक्तभृङ्गं भृङ्गावलीषु स्खलिताम्बु कदम्बपुष्पम् ॥ ३९ ॥
पुष्पोत्करानिलविघूर्णितपादपाग्रमग्रेसरे भुवि निपातित वंशगुल्मम्।
गुल्मान्तरप्रभृतिलीनमृगासमूहं संमुह्यतान्तनुभृतामपवर्गदातृ ॥ ४० ॥
चन्द्रांशुजालधवलैस्तिलकैर्मनोज्ञैः सिन्दूरकुङ्कुमकुसुम्भनिभैरशोकैः।
चामीकराभनिचयैरथ कर्णिकारैः फुल्लारिविन्दरचितं सुविशालशाखैः ॥ ४१ ॥
क्वचिद्रजतपर्णाभैः क्वचिद्विद्रुमसन्निभैः। क्वचित्काञ्चनसङ्काशैः पुष्पैराचितभूतलम् ॥ ४२ ॥
पुन्नागेषु द्विजगणविरुतं रक्ताशोकस्तबकभरनमितम्।
रम्योपान्तं श्रमहरपवनं फुल्लाब्जेषु भ्रमरविलसितम् ॥ ४३ ॥
सकलभुवनभर्ता लोकनाथस्तदानीन्तुहिनशिखरिपुत्र्याः सार्द्धमिष्टैर्गणेशैः।
विविधतरुविशालं मत्तहृष्टान्यपुष्टमुपवनतरुरम्यं दर्शयामास देव्याः ॥ ४४ ॥
कहीं वृक्षोंके नीचे मुनियोंके आवासस्थल बने हैं, जिनकी भूमि लिपी पुती हुई है और उनपर पुष्प बिखेरा हुआ है। कहीं जिनमें जड़से लेकर अन्ततक फल लदे हुए हैं, ऐसे विशाल एवं ऊंचे कटहलके वृक्षोंसे युक्त है। कहीं खिली हुई अतिमुक्तक लताके बने हुए सिद्धोंके गृह शोभा पा रहे हैं, जिनमें सिद्धाङ्गनाओंके स्वर्णमय नूपुरोंका सुरम्य नाद हो रहा है। कहीं मनोहर प्रियंगु वृक्षोंकी मंजरियोंपर भँवरे मँडरा रहे हैं। कहीं भ्रमर-समूहोंके पंखोंके आघातसे कदम्बके पुष्प नीचे गिर रहे हैं। कहीं पुष्पसमूहका स्पर्श करके बहती हुई व बड़े-बड़े वृक्षोंके ऊपरकी शाखाओंको झुका दे रही है, जिनके आघातसे बाँसोंके झुरमुट भूतलपर गिर जा रहे हैं। उन गुल्मोंके अन्तर्गत हरिणियोंका समूह छिपा हुआ है। इस प्रकार यह उपवन मोहग्रस्त प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यहीं कहीं चन्द्रमाकी किरणों सरीखे उज्वल मनोहर तिलकके वृक्ष कहीं सिंदूर, कुंकुम और कुसुम्भ-जैसे लाल रंगवाले अशोकके वृक्ष, कहीं स्वर्णके समान पीले एवं लम्बी शाखाओंवाले कनेरके वृक्ष और कहीं खिले हुए कमलके पुष्प शोभा पा रहे हैं। इस उपवनकी भूमि कहीं चाँदीके पत्र- जैसे श्वेत, कहीं मूँगे सरीखे लाल और कहीं स्वर्ण-सदृश पीले पुष्पोंसे आच्छादित है। कहीं नागके वृक्षोंपर पक्षिगण चहचहा रहे हैं। कहाँ लाल अशोककी डालियाँ पुष्प गुच्छोंके भारसे झुक गयी हैं। रमणीय एवं श्रमहारी पवन शरीरका स्पर्श करके बह रहा है। उत्फुल्ल कमलपुष्पोंपर भरे गुञ्जार कर रहे हैं।इस प्रकार समस्त भुवनोंके पालक जगदीश्वर शंकरने अपने प्रिय गणेश्वरोंको साथ लेकर उस विविध प्रकारके विशाल वृक्षोंसे युक्त तथा उन्मत्त और हर्ष प्रदान करनेवाले उपवनको हिमालयकी पुत्री पार्वतीदेवीको दिखाया।
॥ देव्युवाच ॥
उद्यानं दर्शितं देव! शोभया परया युतम्। क्षेत्रस्य तु गुणान् सर्वान्पुनर्वक्तुमिहार्हसि ॥ ४५ ॥
अस्य क्षेत्रस्य माहात्म्यमविमुक्तस्य तत्तथा। श्रुत्वापि हि न मे तृप्तिरतो भूयो वदस्व मे ॥ ४६ ॥
देवीने पूछा- देव! अनुपम शोभासे युक्त इस उद्यानको तो आपने दिखला दिया। अब आप पुनः इस क्षेत्रके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन कीजिये इस क्षेत्रका तथा अविमुक्तका माहात्म्य सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप पुनः मुझसे वर्णन कीजिये।
॥ देवदेव उवाच ॥
इदं गुह्यतमं क्षेत्रं सदा वाराणसी मम। सर्वेषामेव भूतानां हेतुर्मोक्षस्य सर्वदा ॥ ४७ ॥
अस्मिन् सिद्धाः सदा देवि! मदीयं व्रतमास्थिताः। नानालिङ्गधरा नित्यं मम लोकाभिकाङ्क्षिणः ॥ ४८ ॥
अभ्यसन्ति परं योगं मुक्तात्मानो जितेन्द्रियाः। नानावृक्षसमाकीर्णे नानाविहगकूजिते॥ ४९ ॥
कमलोत्पलपुष्पाढ्यैः सरोभिः समलङ्कृते। अप्सरोगणगन्धर्वैः सदा संसेविते शुभे ॥ ५० ॥
रोचते मे सदा वासो येन कार्येण तच्छृणु। मन्मना मम भक्तश्च मयि सर्वार्पितक्रियः ॥ ५१ ॥
यथा मोक्षमिहाप्नोति ह्यन्यत्र न तथा क्वचित्। एतन्मम परं दिव्यं गुह्याद्गुह्यतरं महत् ॥ ५२ ॥
ब्रह्मादयस्तु जानन्ति येऽपि सिद्धा मुमुक्षवः। अतः प्रियतमं क्षेत्रं तस्माच्चेह रतिर्मम ॥ ५३ ॥
विमुक्तं न मया यस्मान्मोक्ष्यते वा कदाचन। महत् क्षेत्रमिदं तस्मादविमुक्तमिदं स्मृतम् ॥ ५४ ॥
नैमिषेऽथ कुरुक्षेत्रे गङ्गाद्वारे च पुष्करे। स्नानात्संसेविताद्वापि न मोक्षः प्राप्यते यतः ॥ ५५ ॥
इह संप्राप्यते येन तत एतद्विशिष्यते। प्रयागे च भवेन्मोक्ष इह वा मत्परिग्रहात् ॥ ५६ ॥
देवाधिदेव शंकर बोले- देवि! मेरा यह वाराणसी क्षेत्र परम गुह्य है। यह सर्वदा सभी प्राणियोंके मोक्षका कारण है। देवि! इस क्षेत्रमें नाना प्रकारका स्वरूप धारण करनेवाले नित्य मेरे लोकके अभिलाषी मुक्तात्मा जितेन्द्रिय सिद्धगण मेरा व्रत धारण कर परम योगका अभ्यास करते हैं। अब इस नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, अनेकविध पक्षियोंद्वारा निनादित, कमल और उत्पलके पुष्पोंसे भरे हुए सरोवरोंसे सुशोभित और अप्सराओं तथा गन्धर्वोद्वारा सदा संसेवित इस शुभमय उपवनमें जिस हेतुसे मुझे सदा निवास करना अच्छा लगता है, उसे सुनो। मेरा भक्त मुझमें मन लगाकर और सारी क्रियाएँ मुझमें समर्पित कर इस क्षेत्रमें जैसी सुगमतासे मोक्ष प्राप्त कर सकता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त कर सकता। यह मेरी महान् दिव्य नगरी गुह्यसे भी गुह्यतर है। ब्रह्मा आदि जो सिद्ध मुमुक्षु हैं, वे इसके विषयमें पूर्णरूपसे जानते हैं। अतः यह क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और इसी कारण इसके प्रति मेरी विशेष रति है। चूंकि मैं कभी भी इस विमुक्त क्षेत्रका त्याग नहीं करता, इसलिये वह महान् क्षेत्र अविमुक्त नामसे कहा जाता है। नैमिष, कुरुक्षेत्र, गङ्गाद्वार और पुष्करमें निवास करने तथा स्नान करनेसे यदि मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तो इस क्षेत्रमें वह प्राप्त हो जाता है, इसीलिये यह उनसे विशिष्ट है। प्रयागमें अथवा मेरा आश्रय ग्रहण करनेसे काशीमें मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
प्रयागादपि तीर्थाग्य्रादिदमेव महत् स्मृतम्। जैगीषव्यः परां सिद्धिं योगतः स महातपाः ॥ ५७ ॥
अस्य क्षेत्रस्य माहात्म्याद् भक्त्या च मम भावनात्। जैगीषव्यो महाश्रेष्ठो योगिनां स्थानमिष्यते ॥ ५८ ॥
ध्यायतस्तत्र मां नित्यं योगाग्निर्दीप्यते भृशम्। कैवल्यं परमं याति देवानामपि दुर्लभम् ॥ ५९ ॥
अव्यक्तलिङ्गैर्मुनिभिः सर्वसिद्धान्त वेदिभिः। इह संप्राप्यते मोक्षो दुर्लभो देवदानवैः ॥ ६० ॥
तेभ्यश्चाहं प्रयच्छामि भोगैश्वर्यमनुत्तमम्। आत्मनश्चैव सायुज्यमीप्सितं स्थानमेव च ॥ ६१ ॥
कुबेरस्तु महायक्षस्तथा शर्वार्पितक्रियः। क्षेत्रसम्वसनादेव गणेशत्वमवाप ह ॥ ६२ ॥
सम्वर्तो भविता यश्च सोऽपि भक्त्या ममैव तु। इहैवाराध्य मां देवि! सिद्धिं यास्यत्यनुत्तमाम् ॥ ६३ ॥
पराशरसुतो योगी ऋषिर्व्यासो महातपाः। धर्मकर्त्ता भविष्यश्च वेदसंस्था प्रवर्तकः ॥ ६४ ॥
रंस्यते सोऽपि पद्माक्षि! क्षेत्रेऽस्मिन् मुनिपुङ्गवः। ब्रह्मा देवर्षिभिः सार्द्धं विष्णुर्वायुर्दिवाकरः ॥ ६५ ॥
देवराजस्तथा शक्रो येऽपि चान्ये दिवौकसः। उपासन्ते महात्मानः सर्वे मामेव सुव्रते ॥ ६६ ॥
अन्येऽपि योगिनः सिद्धाश्छन्नरूपा महाव्रताः। अनन्यमनसो भूत्वा मामिहोपसते सदा ॥ ६७ ॥
यह तीर्थश्रेष्ठ प्रयागसे भी महान् कहा जाता है। महातपस्वी जैगीषव्य मुनि यहाँ परा सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। मुनिश्रेष्ठ जैगीषव्य इस क्षेत्रके माहात्म्यसे तथा भक्तिपूर्वक मेरी भावना करनेसे योगियोंके स्थानको प्राप्त कर लिये हैं। वहाँ नित्य मेरा ध्यान करनेसे योगाग्रि अत्यन्त उद्दीप्स हो जाती है, जिससे देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ कैवल्य पद प्राप्त हो जाता है। यहाँ सम्पूर्ण सिद्धान्तोंके ज्ञाता एवं अव्यक्त चिह्नवाले मुनियोंद्वारा देवों और दानवोंके लिये दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लिया जाता है। मैं ऐसे मुनियोंको सर्वोत्तम भोग, ऐश्वर्य, अपना सायुज्य और मनोवाञ्छित स्थान प्रदान करता हूँ। महायक्ष कुबेर, जिन्होंने अपनी सारी क्रियाएँ मुझे अर्पित कर दी थीं, इस क्षेत्रमें निवास करनेके कारण ही गणाधिपत्यको प्राप्त हुए हैं। देवि! जो संवर्तनामक ऋषि होंगे, वे भी मेरे ही भक्त हैं। वे यहीं मेरी आराधना करके सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करेंगे। पद्माक्षि! जो योगसम्पन्न, धर्मके नियामक और वैदिक कर्मकाण्डके प्रवर्तक होंगे, महातपस्वी मुनिश्रेष्ठ पराशरनन्दन महर्षि व्यास भी इसी क्षेत्रमें निवास करेंगे। सुव्रते! देवर्षियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु, वायु, सूर्य, देवराज इन्द्र तथा जो अन्यान्य देवता हैं, सभी महात्मा मेरी ही उपासना करते हैं। दूसरे भी योगी, सिद्ध, गुप्त रूपधारी एवं महाव्रती अनन्यचित्त होकर यहाँ सदा मेरी उपासना करते हैं।
अलर्कश्च पुरीमेतां मत्प्रसाददवाप्स्यति। स चैनां पूर्ववत्कृत्वा चातुर्वर्ण्याश्रमाकुलाम् ॥ ६८ ॥
स्फीतां जनसमाकीर्णां भक्त्याच सुचिरं नृपः। मयि सर्वार्पितप्राणो मामेव प्रतिपत्स्यते ॥ ६९ ॥
ततः प्रभृति चार्वङ्गि! येऽपि क्षेत्रनिवासिनः। गृहिणो लिङ्गिनो वापि मद्भक्ता मत्परायणाः ॥ ७० ॥
मत्प्रसादाद् भजिष्यन्ति मोक्षं परम दुर्लभम्। विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरतिर्नरः ॥ ७१ ॥
इह क्षेत्रे मृतः सोऽपि संसारं न पुनर्विशेत्। ये पुनर्निर्ममा धीराः सत्वस्था विजितेन्द्रियाः ॥ ७२ ॥
व्रतिनश्च निरारम्भाः सर्वे ते मयि भाविताः।
देहभङ्गं समासाद्य धीमन्तः सङ्गवर्जिताः । गता एव परं मोक्षं प्रसादान्मम सुव्रते! ॥ ७३ ॥
जन्मान्तरसहस्रेषु युञ्जन् योगमवाप्नुयात्। तमिहैव परं मोक्षं मरणादधिगच्छति ॥ ७४ ॥
एतत्सङ्क्षेपतो देवि! क्षेत्रस्यास्य महत्फलम्। अविमुक्तस्य कथितं मया ते गुह्यमुत्तमम् ॥ ७५ ॥
अतः परतरं नास्ति सिद्धिगुह्यं महेश्वरि!। एतद् बुध्यन्ति योगज्ञा ये च योगेश्वरा भुवि ॥ ७६ ॥
एतदेव परं स्थानमेतदेव परं शिवम्। एतदेव परम्ब्रह्म एतदेव परम्पदम् ॥ ७७ ॥
वाराणसी तु भुवनत्रयसारभूता रम्या सदा मम पुरी गिरिराजपुत्रि!॥
अत्रागता विविध दुष्कृतकारिणोऽपि पापक्षयाद्विरजसः प्रतिभान्ति मर्त्याः ॥ ७८ ॥
एतत्स्मृतं प्रियतमं मम देवि! नित्यं क्षेत्रं विचित्रतरुगुल्मलतासु पुष्पम्।
अस्मिन्मृतास्तनुभृतः पदमाप्नुवन्ति मूर्खागमेन रहितापि न संशयोऽत्र ॥ ७९ ॥
अलर्क भी मेरी कृपासे इस पुरीको प्राप्त करेंगे। वे नरेश इसे पहलेकी तरह चारों वर्णों और आश्रमोंसे युक्त, समृद्धिशालिनी और मनुष्योंसे परिपूर्ण कर देंगे। तत्पश्चात् चिरकालतक भक्तिपूर्वक मुझमें प्राणोंसहित अपना सर्वस्व समर्पित करके मुझे ही प्राप्त कर लेंगे। सुन्दर अली देखि तभी से इस क्षेत्रमें निवास करनेवाले जो भी मत्परायण मेरे भक्त, चाहे वे गृहस्थ हों अथवा संन्यासी, मेरी कृपासे परम दुर्लभ मोक्षको प्राप्त कर लेंगे। जो मनुष्य धर्मत्यागका प्रेमी और विषयोंमें आसक्त चित्तवाला भी हो, वह भी यदि इस क्षेत्रमें प्राणत्याग करता है तो उसे पुनः संसारमें नहीं आना पड़ता। सुव्रते! फिर जो ममतारहित, धैर्यशाली पराक्रमी, जितेन्द्रियव्रतधारी आरम्भरहित, बुद्धिमान् और आसविहीन हैं, वे सभी मुझमें मन लगाकर यहाँ शरीरका त्याग करके मेरी कृपासे परम मोक्षको ही प्राप्त हुए हैं। हजारों जन्मोंमें योगका अभ्यास करनेसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह परम मोक्ष यहाँ मरनेसे ही प्राप्त हो जाता है। देवि! मैंने तुमसे इस अविमुक्त क्षेत्रके इस उत्तम, गुह्य एवं महान् फलको संक्षेपरूपसे वर्णन किया है। महेश्वरि भूतलपर इससे बढ़कर सिद्धिदाता दूसरा कोई गुहा स्थान नहीं है। इसे जो योगेश्वर एवं योगके ज्ञाता हैं, वे ही जानते हैं। यही परमोत्कृष्ट स्थान है, यही परम कल्याणकारक है, यही परब्रह्म है और यही परमपद है। गिरिराजपुत्रि मेरी रमणीय वाराणसीपुरी तो सदा त्रिभुवनकी सारभूता है। अनेकों प्रकारके पाप करनेवाले मानव भी यहाँ आकर पापके नष्ट हो जानेसे पापमुक्त हो सुशोभित होने लगते है। देवि विचित्र वृक्षों, गुल्मों, लताओं और सुगन्धित पुष्पोंसे युक्त यह क्षेत्र मेरे लिये सदा प्रियतम कहा जाता है। वेदाध्ययनसे रहित मूर्ख प्राणी भी यदि यहाँ मरते हैं तो परम पदको प्राप्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।
॥ सूत उवाच ॥
एतस्मिन्नन्तरे देवो देवीं प्राह गिरीन्द्रजाम्। दातुं प्रसादाद्यक्षाय वरं भक्ताय भामिनि ॥ ८० ॥
भक्तो मम वरारोहे! तपसा हतकिल्बिषः। अहो वरमसौ लब्धमस्मत्तो भुवनेश्वरि! ॥ ८१ ॥
एवमुक्त्वा ततो देवः सह देव्या जगत्पतिः। जगाम यक्षो यत्रास्ते कृशो धमनिसन्ततः ॥ ८२ ॥
ततस्तं गुह्यकं देवी दृष्टिपातैर्निरीक्षती। श्वेतवर्णं विचर्माणं स्नायुबद्धास्थिपञ्जरम् ॥ ८३ ॥
देवी प्राह तदा देवं दर्शयन्ती च गुह्यकम्। सत्यं नाम भवानुग्रो देवैरुक्तस्तु शङ्कर!॥ ८४ ॥
ईदृशे चास्य तपसि न प्रयच्छसि यद्वरम्। अत्र क्षेत्रे महादेव! पुण्ये सम्यगुपासिते ॥ ८५ ॥
कथमेवं परिक्लेशं प्राप्तो यक्षकुमारकः। शीघ्रमस्य वरं यच्छ प्रसादात् परमेश्वर! ॥ ८६ ॥
एवं मन्वादयो देव! वदन्ति परमर्षयः। रुष्टाद्वा चाथ तुष्टाद्वा सिद्धिस्तूभयतो भवेत् ॥ ८७ ॥
भोगप्राप्रिस्तथा राज्यमन्ते मोक्षः सदाशिवात्। एवमुक्तस्ततो देवःसह देव्या जगत्पतिः ॥ ८८ ॥
जगाम यक्षो यत्रास्ते कृशो धमनिसन्ततः। तं दृष्ट्वा प्रणतं भक्त्या हरिकेशं वृषध्वजः ॥ ८९ ॥
दिव्यञ्चक्षुरदात्तस्मै येनापश्यत् स शङ्करम्। अथ यक्षस्तदा देशाच्छनैरुन्मील्य चक्षुषी ॥ ९० ॥
अपश्यत् सगणं देवं वृषध्वजमुपस्थितम्।
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! इसी बीच महादेवजीने गिरिराजकुमारी पार्वतीदेवीसे भक्तराज पक्षको कृपारूप वर प्रदान करनेके लिये यों कहा- 'भामिनि ! वह मेरा भक्त है। वरारोहे! तपस्यासे उसके पाप नए हो चुके हैं. अतः भुवनेश्वरि वह अब हमलोगोंसे वर प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है।' तदनन्तर ऐसा कहकर जगदीश्वर महादेव पार्वतीदेवीके साथ उस स्थानके लिये चल पड़े, जहाँ धमनियोंसे व्यास दुर्बल यक्ष वर्तमान था यहाँ पहुँचकर पार्वती देवी दृष्टि घुमाकर उस गुग्रककी ओर देखने लगी, जिसका शरीर श्वेत रङ्गका हो गया था, चमड़ा गल गया था और अस्थिपंजर नसोंसे आबद्ध था। तब उस गुझकको दिखलाती हुई देवीने महादेवजीसे कहा- 'शंकर! इस प्रकारकी घोर तपस्यामें निरत इसे आप जो वर नहीं प्रदान कर रहे हैं, इस कारण देवतालोग आपको जो अत्यन्त निष्ठुर बतलाते हैं, वह सत्य ही है। महादेव! इस पुण्यक्षेत्रमें भलीभाँति उपासना करनेपर भी इस यक्षकुमारको इस प्रकारका महान् कष्ट कैसे प्राप्त हुआ? अतः परमेश्वर कृपा करके इसे शीघ्र ही वरदान दीजिये। देव! मनु आदि परमर्षि ऐसा कहते हैं कि सदाशिव चाहे रुष्ट हों अथवा तुष्ट-दोनों प्रकारसे उनसे सिद्धि, भोगकी प्राप्ति, राज्य तथा अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति होती ही है।'ऐसा कहे जानेपर जगदीश्वर महादेव पार्वतीके साथ उस स्थानके निकट गये जहाँ धमनियोंसे व्याप्त कृशकाय यक्ष स्थित था। (उनकी आहट पाकर यक्ष उनके चरणोंपर गिर पड़ा।) इस प्रकार उस हरिकेशको भक्तिपूर्वक चरणोंमें पड़ा हुआ देखकर शिवजीने उसे दिव्य चक्षु प्रदान किया जिससे वह शंकरका दर्शन कर सके। तदनन्तर यक्षने महादेवजीके आदेश से धीरेसे अपने दोनों नेत्रोंको खोलकर गणसहित वृषध्वज महादेवजीको सामने उपस्थित देखा।
॥ देवदेव उवाच ॥
वरं ददामि ते पूर्वं त्रैलोक्ये दर्शनं तथा ॥ ९१ ॥
सावर्ण्यं च शरीरस्य पश्य मां विगतज्वरः।
देवाधिदेव शंकरने कहा - यक्ष! अब तुम कष्टरहित होकर मेरी ओर देखो। मैं तुम्हें पहले वह वर देता हूँ जिससे तुम्हारे शरीरका वर्ण सुन्दर हो जाय तथा तुम त्रिलोकीमें देखनेयोग्य हो जाओ।
॥ सूत उवाच ॥
ततः स लब्ध्वा तु वरं शरीरेणाक्षतेन च ॥ ९२ ॥
पादयोः प्रणतस्तस्थौ कृत्वा शिरसि साञ्जलिम्। उवाचाथ तदा तेन वरदोऽस्मीति चोदितः ॥ ९३ ॥
भगवन्! भक्तिमव्यग्रां त्वय्यनन्यां विधत्स्व मे। अन्नदत्वं च ते लोकानां गाणपत्यं तथाऽक्षयम् ॥ ९४ ॥
अविमुक्तं च ते स्थानं पश्येयं सर्वदा यथा। एतदिच्छामि देवेश त्वत्तो वरमनुत्तमम् ॥ ९५ ॥
सूतजी कहते हैं- ऋषियो तत्पश्चात् वरदान पाकर वह अक्षत शरीरसे युक्त हो चरणोंपर गिर पड़ा, फिर मस्तकपर हाथ जोड़कर सम्मुख खड़ा हो गया और बोला- 'भगवन्! आपने मुझसे कहा है कि 'मैं वरदाता हूँ' तो मुझे ऐसा वरदान दीजिये कि आपमें मेरी अनन्य एवं अटल भक्ति हो जाय। मैं अक्षय अन्नका दाता तथा लोकोंके गणोंका अधीश्वर हो जाऊँ, जिससे आपके अविमुक्त स्थानका सर्वदा दर्शन करता रहूँ। देवेश! मैं आपसे यही उत्तम वर प्राप्त करना चाहता हूँ।
॥ देवदेव उवाच ॥
जरा मरणसन्त्यक्तः सर्वरोगविवर्जितः। भविष्यसि गणाध्यक्षो धनदः सर्वपूजितः ॥ ९६ ॥
अजेयश्चापि सर्वेषां योगैश्वर्यं समाश्रितः। अन्नदश्चापि लोकेभ्यः क्षेत्रपालो भविष्यसि ॥ ९७ ॥
महाबलो महासत्वो ब्रह्मण्यो मम च प्रियः। त्र्यक्षश्च दण्डपाणिश्च महायोगी तथैव च ॥ ९८ ॥
उद्भ्रमः सम्भ्रमश्चैव गणौतु परिचारकौ। तवाज्ञाञ्च करिष्येते लोकस्योद्भ्रमसम्भ्रमौ ॥ ९९ ॥
देवदेवने कहा- यक्ष! तुम जरा-मरणसे विमुक्त, सम्पूर्ण रोगोंसे रहित, सबके द्वारा सम्मानित धनदाता गणाध्यक्ष होओगे। तुम सभीके लिये अजेय, योगैश्वर्यसे युक्त, लोकोंके लिये अन्नदाता, क्षेत्रपाल, महाबली, महान् पराक्रमी, ब्राह्मणभक्त मेरा प्रिय त्रिजधारी दण्डपाणि तथा महायोगी होओगे। उद्भ्रम और सम्भ्रम- ये दोनों गण तुम्हारे सेवक होंगे। ये उद्धम और सम्भ्रम तुम्हारी आज्ञासे लोकका कार्य करेंगे।
॥ सूत उवाच ॥
एवं स भगवांस्तत्र यक्षं कृत्वा गणेश्वरम्। जगाम वामदेवेशः सह तेनामरेश्वरः ॥ १०० ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार देवेश भगवान् महेश्वर वहाँ उस यक्षको गणेश्वर बनाकर उसके साथ अपने निवासस्थानको लौट गये।
दंडपाणि का परिवर्तित वर्तमान स्थान - विश्वनाथ धाम परिसर निर्माण हेतु मूल दंडपाणि मंदिर का विध्वंश कर दंडपाणि का स्थान परिवर्तित कर दिया गया है। सभी को काशीवास देने वाले, काशीवासियों के अन्नदाता दंडपाणि स्वयं अपने गणों के साथ एक छोटी सी खोली में रहने को विवश हैं।
ORIGINAL GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE
EXACT ORIGINAL GPS LOCATION : 25.311463187942906, 83.01019068421724
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EXACT DISPLACED GPS LOCATION : 25.311537693949145, 83.01005122282697
मूल दंडपाणि मंदिर ढुंढिराज गली, ज्ञानवापी, सी.के.36/10 में स्थित था।
The original Dandapani temple was located at Dhundhiraj Gali, Gyanvapi, CK 36/10.
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥