चतु:श्लोकी श्रीमद्भागवत

चार ऐसे श्लोक हैं जिनमें संपूर्ण भागवत-तत्व का उपदेश समाहित है। यही मूल चतु:श्लोकी भागवत है।

पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। चार श्लोक, जिनके पाठ से पूरी भागवत पाठ का फल मिलेगा।

श्रीमद्भागवत (चतु:श्लोकी)

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ २.९.३३ ॥

श्री भगवान कहते हैं - सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, स त्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थिति है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।

ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तम: ॥ २.९.३४ ॥

मूल तत्त्व आत्मा जो कि दिखलाई नहीं देती है, इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी प्रतीत देता है वह सभी माया है, आत्मा के अतिरिक्त जिसका भी आभास होता है वह अन्धकार और परछांई के समान मिथ्या है।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ २.९.३५ ॥

जिसप्रकार पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संसार की छोटी या बड़ी सभी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं आत्म स्वरूप में सभी में स्थित होते हुए भी सभी से अलग रहता हूँ।

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन: । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ २.९.३६ ॥

आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में  सदैव एक समान रहता है, वही आत्म-तत्त्व है।


ब्रम्हाजी श्रीमद्भागवत का उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की नित्य प्राप्ति के लिये तथा सात आवरणों का भंग करने के लिये श्रीमद्भागवत का सप्ताह पारायण किया। सप्ताह यज्ञ की विधि से सात दिनों तक श्रीमद्भागवत का सेवन करने से ब्रम्हाजी के सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। उस उपदेश से विष्णु भगवान का चित्त प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजी के साथ प्रत्येक मास में श्रीमद्भागवत का चिन्तन करने लगे। इससे वे परमार्थ का पालन और यथार्थ रूप से संसार की रक्षा करने में समर्थ हुए।

जब भगवान विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेम से श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवत कथा का श्रवण एक मास में ही समाप्त होता है।

किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवत कथा का रसास्वादन दो मास तक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर बहुत रुचिकर होती है।

इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ़ हैं, उन्हें जगत् के पालन की चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटों से अलग हैं, अतः उनका ह्रदय निश्चिन्त है। इसी से लक्ष्मीजी के मुख से भागवत कथा का रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है।

सदाशिव रूद्र ने एक वर्ष में एक पारायण के क्रम से भागवत कथा का सेवन किया। इसके सेवन से उन्होंने तमोगुण पर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली।


श्रीमद्भागवत माहात्म्य: तृतीय अध्यायः श्लोक 14-60 का हिन्दी अनुवाद

इस पवित्र भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाकर भी जिन लोगों ने पाप के अधीन होकर श्रीमद्भागवत नहीं सुना, उन्होंने मानो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर ली । जिन बड़भागियों ने प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्र का सेवन किया है, उन्होंने अपने पिता, माता और पत्नी—तीनों के ही कुल का भलीभाँति उद्धार कर दिया । श्रीमद्भागवत के स्वाध्याय और श्रवण से ब्राम्हणों को विद्या का प्रकाश (बोध) प्राप्त होता है, क्षत्रिय लोग शत्रुओं पर विजय पते हैं, वैश्यों को धन मिलता है और शूद्र स्वस्थ—नीरोग बने रहते हैं । स्त्रियों तथा अन्त्यज आदि अन्य लोगों की भी इच्छा श्रीमद्भागवत से पूर्ण होती है; अतः कौन ऐसा भाग्यवान् पुरुष है, जो श्रीमद्भागवत का नित्य ही सेवन न करेगा । अनेकों जन्मों तक साधना करते-करते जब मनुष्य पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तब उसे श्रीमद्भागवत की प्राप्ति होती है। भागवत से भगवान का प्रकाश मिलता है, जिससे भगवद्भक्ति उत्पन्न होती है । पूर्वकाल में सांख्यायन की कृपा से श्रीमद्भागवत बृहस्पतिजी को मिला और बृहस्पतिजी ने मुझे दिया; इसी से मैं श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो सका हूँ । परीक्षित्! बृहस्पतिजी ने मुझे एक आख्यायिका भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो। इस आख्यायिका से श्रीमद्भागवत श्रवण के सम्प्रदाय का क्रम भी जाना जा सकता है । बृहस्पतिजी ने कहा था—अपनी माया से पुरुष रूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब सृष्टि के लिये संकल्प किया, तब इनके दिव्य विग्रह से तीन पुरुष प्रकट हुए। इनमें रजोगुण की प्रधानता से ब्रम्हा, सत्वगुण की प्रधानता से विष्णु और तमोगुण की प्रधानता से रूद्र प्रकट हुए। भगवान ने इन तीनों को क्रमशः जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने का अधिकार प्रदान किया । तब भगवान के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए ब्रम्हाजी ने उनसे अपना मनोभाव यों प्रकट किया। ब्रम्हाजी ने कहा—परमात्मन्! आप नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ‘नारायण’ नाम से प्रसिद्ध हैं; आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥ प्रभो! आपने मुझे सृष्टि कर्म में लगाया है, मगर मुझे भय है कि सृष्टि काल में अत्यन्त पापात्मा रजोगुण आपकी स्मृति में कहीं बाधा न डालने लग जाय। अतः कृपा करके ऐसी कोई बात बतायें, जिससे आपकी याद बराबर बनी रहे । बृहस्पतिजी कहते हैं—जब ब्रम्हाजी ने ऐसी प्रार्थना की, तब पूर्व काल में भगवान ने उन्हें श्रीमद्भागवत का उपदेश देकर कहा—‘ब्रम्हन्! तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये सदा ही इसका सेवन करते रहो’ । ब्रम्हाजी श्रीमद्भागवत का उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की नित्य प्राप्ति के लिये तथा सात आवरणों का भंग करने के लिये श्रीमद्भागवत का सप्ताह पारायण किया । सप्ताह यज्ञ की विधि से सात दिनों तक श्रीमद्भागवत का सेवन करने से ब्रम्हाजी के सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। इससे वे सदा भगवत्स्मरण पूर्वक सृष्टि का विस्तार करते और बारंबार सप्ताह यज्ञ का अनुष्ठान करते रहते हैं । ब्रम्हाजी की ही भाँति विष्णु ने भी अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये उन परमपुरुष परमात्मा से प्रार्थना की; क्योंकि उन पुरुषोत्तम ने विष्णु को भी प्रजा-पालन रूप कर्म में नियुक्त किया था ।


विष्णु ने कहा—देव! मैं आपकी आज्ञा के अनुसार कर्म और ज्ञान के उद्देश्य से प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वारा यथोचित रूप से प्रजाओं का पालन करूँगा । काल क्रम से जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब अनेकों अवतार धारण कर पुनः धर्म की स्थापना करूँगा । जो भोगों की इच्छा रखने वाले हैं, उन्हें अवश्य ही उनके किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल अर्पण करूँगा; तथा जो संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, विरक्त हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार पाँच प्रकार की मुक्ति भी देता रहूँगा । परन्तु जो लोग मोक्ष भी नहीं चाहते, उनका पालन मैं कैसे करूँगा—यह बात समझ में नहीं आती। इसके अतिरिक्त मैं अपनी तथा लक्ष्मीजी की भी रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बतलाइये । विष्णु की यह प्रार्थना सुनकर आदि पुरुष श्रीकृष्ण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का उपदेश किया और कहा—‘तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये इस श्रीमद्भागवत-शास्त्र का सदा पाठ किया करो’ । उस उपदेश से विष्णु भगवान का चित्त प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजी के साथ प्रत्येक मास में श्रीमद्भागवत का चिन्तन करने लगे। इससे वे परमार्थ का पालन और यथार्थ रूप से संसार की रक्षा करने में समर्थ हुए । जब भगवान विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेम से श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवत कथा का श्रवण एक मास में ही समाप्त होता है । किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवत कथा का रसास्वादन दो मास तक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर बहुत रुचिकर होती है । इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ़ हैं, उन्हें जगत् के पालन की चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटों से अलग हैं, अतः उनका ह्रदय निश्चिन्त है। इसी से लक्ष्मीजी के मुख से भागवत कथा का रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है। इसके पश्चात् रूद्र ने भी, जिन्हें भगवान ने पहले संहार कार्य में लगाया था, अपनी सामर्थ्य की वृद्धि के लिये उन परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की । रूद्र ने कहा—मेरे प्रभु देवदेव! मुझमें नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत संहार की शक्तियाँ तो हैं, पर आत्यन्तिक संहार की शक्ति बिलकुल नहीं है। यह मेरे लिये बड़े दुःख की बात है। इसी कमी की पूर्ति के लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । बृहस्पतिजी कहते हैं—रूद्र की प्रार्थना सुनकर नारायण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का ही उपदेश किया। सदाशिव रूद्र ने एक वर्ष में एक पारायण के क्रम से भागवत कथा का सेवन किया। इसके सेवन से उन्होंने तमोगुण पर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली । उद्धवजी कहते हैं—श्रीमद्भागवत के माहात्म्य के सम्बन्ध में यह आख्यायिका मैंने अपने गुरु श्रीबृहस्पतिजी से सुनी और उनसे भागवत का उपदेश प्राप्त कर उनके चरणों में प्रणाम करके मैं बहुत आनन्दित हुआ । तत्पश्चात् भगवान विष्णु कि रीति स्वीकार करके मैंने बी एक मास तक श्रीमद्भागवत कथा का भलीभाँति रसास्वादन किया । उतने से ही मैं भगवान श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो गया। इसके पश्चात् भगवान ने मुझे व्रज में अपनी प्रियतमा गोपियों की सेवा में नियुक्त किया ।


यद्यपि भगवान अपने लीला परिकारों के साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियों का श्रीकृष्ण से कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रम से विरहवेदना का अनुभव कर रही थीं, उन गोपियों के प्रति भगवान ने मेरे मुख से भागवत का सन्देश कहलाया । उस सन्देश को अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरह वेदना से मुक्त हो गयीं। मैं भागवत के इस रहस्य तो तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा । इसके बहुत समय के बाद जब ब्रम्हादि देवता आकर भगवान से अपने परम धाम में पधारने की प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपल के वृक्ष की जड़ के पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान ने श्रीमद्भागवत-विषयक उस रहस्य का स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धि में उसका दृढ़ निश्चय करा दिया। उसी के प्रभाव से मैं बदरिकाश्रम रहकर भी यहाँ व्रज की लताओं और बेलों में निवास करता हूँ । उसी के बल से यहाँ नारदकुण्ड पर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ। भगवान के भक्तों को श्रीमद्भागवत सेवन से श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश प्राप्त हो सकता है । इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनों के कार्य की सिद्धि के लिये मैं श्रीमद्भागवत का पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्य में तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी । सूतजी कहते हैं—यह सुनकर राजा परीक्षित् उद्धवजी को प्रणाम करके उनसे बोले। परीक्षित् ने कहा—हरिदास उद्धवजी! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद्भागवत कथा का कीर्तन करें । इस कार्य में मुझे जिस प्रकार की सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें। सूतजी कहते हैं—परीक्षित् का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले । उद्धवजी ने कहा—राजन्! भगवान श्रीकृष्ण ने जब से इस पृथ्वीतल का परित्याग कर दिया है, तब से यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुग का प्रभुत्व हो गया है। जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्न डालेगा । इसलिये तुम दिग्विजय के लिये जाओ और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो। इधर मैं तुम्हारी सहायता से वैष्णवी रीति का सहारा लेकर एक महीने तक यहाँ श्रीमद्भागवत कथा का रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवत कथा के रस का प्रसार करके इन सभी श्रोताओं को भगवान मधुसुदन के नित्य गोलोक धाम पहुँचाऊँगा । सूतजी कहते हैं—उद्धवजी की बात सुनकर राजा परीक्षित् पहले तो कलियुग पर विजय पाने के विचार से बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवत कथा के श्रवण से वंचित ही रहना पड़ेगा, चिन्ता से व्याकुल हो उठे। उस समय उन्होंने उद्धवजी से अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया । राजा परीक्षित् ने कहा—हे तात! आपकी आज्ञा के अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुग को तो अवश्य ही अपने वश में करूँगा, मगर श्रीमद्भागत की प्राप्ति मुझे कैसे होगी । मैं भी आपके चरणों की शरण में आया हूँ, अतः मुझ पर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये। सूतजी कहते हैं—उनके इस वचन को सुनकर उद्धवजी पुनः बोले । उद्धवजी ने कहा—राजन्! तुम्हें तो किसी भी बात के लिये किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवत शास्त्र इ प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो।

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