मत्स्यपुराणम्/अध्यायः २९०
॥कल्पानां कीर्त्तनम्॥
॥मनुरुवाच॥
कल्पमानं त्वया प्रोक्तं मन्वन्तरयुगेषु च। इदानीं कल्पनामानि समासात् कथयाच्युत ॥१॥
॥मनुरुवाच॥
कल्पमानं त्वया प्रोक्तं मन्वन्तरयुगेषु च। इदानीं कल्पनामानि समासात् कथयाच्युत ॥१॥
मनु बोले : हे अच्युत! आपने मन्वन्तरों और युगों का मान बताया है। अब संक्षेप में कल्पों के नाम कहिए।
॥मत्स्य उवाच॥
कल्पानां कीर्तनं वक्ष्ये महापातकनाशनम्। यस्यानुकीर्तनादेव वेदपुण्येन युज्यते ॥२॥
प्रथमं श्वेतकल्पस्तु द्वितीयो नीललोहितः। वामदेवस्तृतीयस्तु ततोराथन्तरोऽपरः ॥३॥
रौरवः पञ्चमः प्रोक्तः षष्ठो देव इति स्मृतः। सप्तमोऽथ बृहत्कल्पः कन्दर्पोऽष्टम उच्यते ॥४॥
सद्योऽथ नवमः प्रोक्तः ईशानो दशमः स्मृतः। तम एकादशः प्रोक्तः तथा सारस्वतः परः ॥५॥
त्रयोदश उदानस्तु गारुड़ोऽथ चतुर्दशः। कौर्मः पञ्चदशः प्रोक्तः पौर्णमास्यामजायत ॥६॥
षोड़शो नारसिंहस्तु समानस्तु ततोऽपरः। आग्नेयोऽष्टादशः प्रोक्तः सोमकल्पस्तथापरः ॥७॥
मानवो विंशतिः प्रोक्तस्तत् पुमानिति चापरः। वैकुण्ठश्चापरस्तद्वल्लक्ष्मीकल्पस्तथापरः ॥८॥
चतुर्विंशतिमः प्रोक्तः सावित्री कल्पसंज्ञकः। पञ्चविंशस्ततो घोरो वाराहस्तु ततोऽपरः ॥९॥
सप्तविंशोऽथ वैराजो गौरि कल्पस्तथापरः। माहेश्वरस्तु स प्रोक्त स्त्रिपुरो यत्र घातितः ॥१०॥
पितृकल्पस्तथान्ते तु या कुहूर्ब्रह्मणः परा। इत्येवं ब्रह्मणो मासः सर्वपातकनाशनः ॥११॥
कल्पानां कीर्तनं वक्ष्ये महापातकनाशनम्। यस्यानुकीर्तनादेव वेदपुण्येन युज्यते ॥२॥
प्रथमं श्वेतकल्पस्तु द्वितीयो नीललोहितः। वामदेवस्तृतीयस्तु ततोराथन्तरोऽपरः ॥३॥
रौरवः पञ्चमः प्रोक्तः षष्ठो देव इति स्मृतः। सप्तमोऽथ बृहत्कल्पः कन्दर्पोऽष्टम उच्यते ॥४॥
सद्योऽथ नवमः प्रोक्तः ईशानो दशमः स्मृतः। तम एकादशः प्रोक्तः तथा सारस्वतः परः ॥५॥
त्रयोदश उदानस्तु गारुड़ोऽथ चतुर्दशः। कौर्मः पञ्चदशः प्रोक्तः पौर्णमास्यामजायत ॥६॥
षोड़शो नारसिंहस्तु समानस्तु ततोऽपरः। आग्नेयोऽष्टादशः प्रोक्तः सोमकल्पस्तथापरः ॥७॥
मानवो विंशतिः प्रोक्तस्तत् पुमानिति चापरः। वैकुण्ठश्चापरस्तद्वल्लक्ष्मीकल्पस्तथापरः ॥८॥
चतुर्विंशतिमः प्रोक्तः सावित्री कल्पसंज्ञकः। पञ्चविंशस्ततो घोरो वाराहस्तु ततोऽपरः ॥९॥
सप्तविंशोऽथ वैराजो गौरि कल्पस्तथापरः। माहेश्वरस्तु स प्रोक्त स्त्रिपुरो यत्र घातितः ॥१०॥
पितृकल्पस्तथान्ते तु या कुहूर्ब्रह्मणः परा। इत्येवं ब्रह्मणो मासः सर्वपातकनाशनः ॥११॥
मत्स्यजी बोले : मैं कल्पों का नाम-कीर्तन करता हूँ, जो महापातकों का नाश करने वाला है। इसके अनुकीर्तन मात्र से वेदों के पुण्य के समान फल प्राप्त होता है। प्रथम श्वेतकल्प है, फिर द्वितीय नीललोहित है, तृतीय वामदेव है, तत्पश्चात् रौरव है, पाँचवाँ राथन्तर है, छठा देवकल्प है, सातवाँ बृहत्कल्प है, और आठवाँ कन्दर्पकल्प है। नवाँ सद्यकल्प है, दसवाँ ईशानकल्प है, ग्यारहवाँ तमकल्प है, उसके बाद सारस्वतकल्प है, तेरहवाँ उदानकल्प है, चौदहवाँ गारुड़कल्प है, पन्द्रेणवाँ कौर्मकल्प है, जो पूर्णिमा में प्रकट हुआ। सोलहवाँ नारसिंहकल्प है, उसके बाद समानकल्प है, अठारहवाँ आग्नेयकल्प है, उसके बाद सोमकल्प है, बीसवाँ मानवकल्प है, उसके बाद पुमान्कल्प है, फिर वैकुण्ठकल्प है, तत्पश्चात् लक्ष्मीकल्प है। चौबीसवाँ सावित्रीकल्प है, पच्चीसवाँ घोरकल्प है, उसके बाद वाराहकल्प है, सत्ताईसवाँ वैराजकल्प है, फिर गौरीकल्प है, उसके बाद माहेश्वरकल्प है, जिसमें त्रिपुरासुर का वध हुआ, और अंत में पितृकल्प है, जो ब्रह्मा की कुहू कहलाती है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०७७
॥ पार्वत्युवाच ॥
नमस्ते देवदेवेश प्रणमत्करुणानिधे ॥ वद केदारमाहात्म्यं भक्तानामनुकंपया ॥१॥
तस्मिँल्लिंगे महाप्रीतिस्तव काश्यामनुत्तमा ॥ तद्भक्ताश्च जना नित्यं देवदेवमहाधियः ॥ २ ॥
भगवती पार्वती कहती हैं- हे देवदेवेश, करुणानिधि! आपको प्रणाम है! अब भक्तों पर अनुकम्पा करके केदार माहात्म्य कहिये। हे नाथ! इस लिङ्ग के प्रति आप अत्यन्त प्रीतियुक्त रहते हैं। उनकी भक्ति से विशेष वृद्धि प्राप्त होती हैं। इसलिये पहले उनका महात्म्य श्रवण करने की इच्छा है।॥ देवदेव उवाच ॥
शृण्वपर्णेभिधास्यामि केदारेश्वर संकथाम् ॥ समाकर्ण्यापि यां पापोप्यपापो जायते क्षणात् ॥ ३ ॥
केदारं यातुकामस्य पुंसो निश्चितचेतसः ॥ आजन्मसंचितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ ४ ॥
गृहाद्विनिर्गते पुंसि केदारमभिनिश्चितम् ॥ जन्मद्वयार्जितं पापं शरीरादपि निर्व्रजेत् ॥ ५ ॥
मध्ये मार्गं प्रपन्नस्य त्रिजन्मजनितं त्वघम् ॥ देहगेहाद्विनिःसृत्य निराशं याति निःश्वसत् ॥ ६ ॥
सायंकेदारकेदारकेदारेति त्रिरुच्चरन्॥ गृहेपि निवसन्नूनं यात्राफलमवाप्नुयात् ॥ ७ ॥
दृष्ट्वा केदारशिखरं पीत्वा तत्रत्यमंबु च ॥ सप्तजन्मकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥८॥
हरपापह्रदे स्नात्वा केदारेशं प्रपूज्य च ॥ कोटिजन्मार्जितैनोभिर्मुच्यते नात्र संशयः ॥९॥
सकृत्प्रणम्य केदारं हरपापकृतोदकः ॥ स्थाप्य लिंगं हृदंभोजे प्रांते मोक्षं गमिष्यति॥१०॥
महादेव कहते हैं-हे उमा! मैं कहता हूं। श्रवण करो। इसके सुनने मात्र से पापियों के पापों का नाश हो जाता है। जिसके हृदय में केदारेश्वर के दर्शन की अभिलाषा है, वह व्यक्ति आजन्मकृत पाप से मुक्त हो जाता है। जो केदारेश्वर के दर्शनाभिलाषी होकर अपने घर से चल देते हैं, उनके दो जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। जो व्यक्ति केदारेश्वर दर्शन के लिये आधा पथ पार कर लेते हैं, उनके तीन जन्म के पापों का नाश हो जाता है। वे पाप उसकी देह से मुहूर्त्तमात्र में निकल कर भाग जाते हैं। जो व्यक्ति सायं को तीन बार "केदार, केदार, केदार" कहकर घर में रहता है, उसे निश्चित रूप से केदारनाथ की तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। केदारनाथ मन्दिर के शिखर का दर्शन करके वहां तीर्थ जलपान करने वाले के सात जन्मों के पाप दूरीभूत हो जाते हैं। हरपाप हृद में पवित्र स्नान कर केदारेश्वर की पूजा करने से, एक भक्त को निस्संदेह कोटि जन्मों के अर्जित पापों से मुक्ति मिल जाती है। यदि कोई हरपाप हृद में स्नान के उपरान्त केदारेश्वर लिङ्ग की मानस पूजा करके एक बार भी उनको प्रणाम करता है। लिंग को कमल जैसे हृदय में स्थापित करता है। उसे देहोपरांत मुक्ति की प्राप्ति होती है। हरपापह्रदे श्राद्धं श्रद्धया यः करिष्यति ॥ उद्धृत्य सप्तपुरुषान्स मे लोकं गमिष्यति ॥ ११ ॥
पुरा राथंतरे कल्पे यदभूदत्र तच्छृणु ॥ अपर्णे दत्तकर्णा त्वं वर्णयामि तवाग्रतः ॥१२॥
एको ब्राह्मणदायाद उज्जयिन्या इहागतः ॥ कृतोपनयनः पित्रा ब्रह्मचर्यव्रतेस्थितः ॥१३॥
स्थलीं पाशुपतीं काशीं स विलोक्य समंततः॥ द्विजैः पाशुपतैः कीर्णां जटामुकुटभूषितैः ॥ १४ ॥
कृतलिंगसमर्चैश्च भूतिभूषितवर्ष्मभिः ॥ भिक्षाहृतान्नसंतुष्टैः पुष्टैर्गंगामृतोदकैः ॥ १५ ॥
बभूवानंदितमना व्रतं जग्राह चोत्तमम्॥ हिरण्यगर्भादाचार्यान्महत्पाशुपताभिधम् ॥ १६ ॥
स च शिष्यो वशिष्ठोभूत्सर्वपाशुपतोत्तमः ॥ स्नात्वा ह्रदे हरपापे नित्यप्रातः समुत्थितः ॥१७॥
विभूत्याहरहः स्नाति त्रिकालं लिंगमर्चयन् ॥ नांतरं स विजानाति शिवलिंगे गुरौ तथा ॥१८॥
स द्वादशाब्ददेशीयो वशिष्ठो गुरुणा सह ॥ ययौ केदारयात्रार्थं गिरिं गौरीगुरोर्गुरुम् ॥१९॥
यत्र गत्वा न शोचंति किंचित्संसारिणः क्वचित ॥ प्राश्योदकं लिंगरूपं लिंगरूपत्वमागताः ॥२०॥
पुरा राथंतरे कल्पे यदभूदत्र तच्छृणु ॥ अपर्णे दत्तकर्णा त्वं वर्णयामि तवाग्रतः ॥१२॥
एको ब्राह्मणदायाद उज्जयिन्या इहागतः ॥ कृतोपनयनः पित्रा ब्रह्मचर्यव्रतेस्थितः ॥१३॥
स्थलीं पाशुपतीं काशीं स विलोक्य समंततः॥ द्विजैः पाशुपतैः कीर्णां जटामुकुटभूषितैः ॥ १४ ॥
कृतलिंगसमर्चैश्च भूतिभूषितवर्ष्मभिः ॥ भिक्षाहृतान्नसंतुष्टैः पुष्टैर्गंगामृतोदकैः ॥ १५ ॥
बभूवानंदितमना व्रतं जग्राह चोत्तमम्॥ हिरण्यगर्भादाचार्यान्महत्पाशुपताभिधम् ॥ १६ ॥
स च शिष्यो वशिष्ठोभूत्सर्वपाशुपतोत्तमः ॥ स्नात्वा ह्रदे हरपापे नित्यप्रातः समुत्थितः ॥१७॥
विभूत्याहरहः स्नाति त्रिकालं लिंगमर्चयन् ॥ नांतरं स विजानाति शिवलिंगे गुरौ तथा ॥१८॥
स द्वादशाब्ददेशीयो वशिष्ठो गुरुणा सह ॥ ययौ केदारयात्रार्थं गिरिं गौरीगुरोर्गुरुम् ॥१९॥
यत्र गत्वा न शोचंति किंचित्संसारिणः क्वचित ॥ प्राश्योदकं लिंगरूपं लिंगरूपत्वमागताः ॥२०॥
श्रद्धाप्त होकर हरपाप हृद में श्राद्ध करने से उसकी सात पीढ़ी का उद्धार हो जाता है। इसके पश्चात् मैं उसे अपने लोक ले आता हूं। हे अपर्णे! पूर्व रथन्तर कल्प में यहां जो एक घटना घटित हुई थी, तुम उस विषय को मुझसे सुनो। उज्जयिनी वासी एक ब्राह्मण कुमार पिता के साथ ब्रह्मचारी रहकर काशी में आया। वह यत्र-तत्र विचरणशील, जटाधारी, भस्माच्छादित देह, मेरे लिङ्ग का पूजक, भिक्षामात्र से जीविका चलाने वाला गंगाजल पीने वाला था। वह शैव महात्माओं का दर्शन करके आनन्दित होकर इस क्षेत्र में आचार्य हिरण्यगर्भ के पास आया। वह ब्राह्मणोत्तम वसिष्ठ इनका शिष्य हो गया। उसने गुरु से उपदेश ग्रहण कर पाशुपतव्रत धारण किया तथा इस प्रकार वह सभी पाशुपतों से श्रेष्ठ हो गया। वह नित्य प्रभात में हरपाप हृद में त्रिकाल स्नान करके विभूति धारणोपरान्त त्रैकालिक शिव केदारेश्वर का पूजन करता था। उसे अपने गुरु तथा केदारेश्वर के बीच एक क्षण के लिये भी भेददबुद्धि नहीं होती थी। उसने गुरु का द्वादश वर्ष पर्यन्त अनुचर होकर केदारेश्वर के उद्देश्य से हिमालय यात्रा किया, जहां एक बार भी जाने पर जीव को कोई शोक नहीं रहता तथा सुकृति लोग उस स्थान के लिङ्गरूप जल का पान करके लिङ्गरूपत्व का लाभ करते हैं।
असिधारं गिरिं प्राप्य वशिष्ठस्य तपस्विनः ॥ गुरुर्हिरण्यगर्भाख्यः पंचत्वमगमत्तदा ॥ २१ ॥
पश्यतां तापसानां च विमाने सार्वकामिके ॥ आरोप्य तं पारिषदाः कैलासमनयन्मुदा ॥ २२ ॥
यस्तु केदारमुद्दिश्य गेहादर्धपथेप्यहो ॥ अकातरस्त्यजेत्प्राणान्कैलासे स चिरं वसेत् ॥ २३ ॥
तदाश्चर्यं समालोक्य स वशिष्ठस्तपोधनः ॥ केदारमेव लिंगेषु बह्वमंस्त सुनिश्चितम् ॥ २४॥
अथ कृत्वा स कैदारीं यात्रां वाराणसीमगात् ॥ अग्रहीन्नियमं चापि यथार्थं चाकरोत्पुनः ॥ २५ ॥
प्रति चैत्रं सदा चैत्र्यां यावज्जीवमहं ध्रुवम् ॥ विलोकयिष्ये केदारं वसन्वाराणसीं पुरीम् ॥ २६ ॥
तेन यात्राः कृताः सम्यक् षष्टिरेकाधिका मुदा ॥ आनंदकानने नित्यं वसता ब्रह्मचारिणा ॥ २७ ॥
पुनर्यात्रां स वै चक्रे मधौ निकटवर्तिनि ॥ परमोत्साहसंतुष्टः पलिता कलितोप्यलम्॥ २८ ॥
तपोधनैस्तन्निधनं शंकमानैर्निवारितः ॥ कारुण्यपूर्णहृदयैरन्यैरपि च संगिभिः ॥ २९ ॥
पश्यतां तापसानां च विमाने सार्वकामिके ॥ आरोप्य तं पारिषदाः कैलासमनयन्मुदा ॥ २२ ॥
यस्तु केदारमुद्दिश्य गेहादर्धपथेप्यहो ॥ अकातरस्त्यजेत्प्राणान्कैलासे स चिरं वसेत् ॥ २३ ॥
तदाश्चर्यं समालोक्य स वशिष्ठस्तपोधनः ॥ केदारमेव लिंगेषु बह्वमंस्त सुनिश्चितम् ॥ २४॥
अथ कृत्वा स कैदारीं यात्रां वाराणसीमगात् ॥ अग्रहीन्नियमं चापि यथार्थं चाकरोत्पुनः ॥ २५ ॥
प्रति चैत्रं सदा चैत्र्यां यावज्जीवमहं ध्रुवम् ॥ विलोकयिष्ये केदारं वसन्वाराणसीं पुरीम् ॥ २६ ॥
तेन यात्राः कृताः सम्यक् षष्टिरेकाधिका मुदा ॥ आनंदकानने नित्यं वसता ब्रह्मचारिणा ॥ २७ ॥
पुनर्यात्रां स वै चक्रे मधौ निकटवर्तिनि ॥ परमोत्साहसंतुष्टः पलिता कलितोप्यलम्॥ २८ ॥
तपोधनैस्तन्निधनं शंकमानैर्निवारितः ॥ कारुण्यपूर्णहृदयैरन्यैरपि च संगिभिः ॥ २९ ॥
वे गुरु-शिष्य असिधार नामक पर्वत पर्यन्त गये थे कि गुरु काल से ग्रस्त हो गये। तभी यमदूत उनको विमान पर बैठाकर कैलास ले आये। उसका कारण यह है कि जो केदारेश्वर की दर्शनेच्छा से यात्रारंभ करके आधे मार्ग पर ही प्राणत्याग कर देता है, वह अनन्तकाल तक के लिये कैलासवासी हो जाता है। तब वसिष्ठ ब्राह्मण ने गुरु की यह घटना देखकर केदारेश्वर को ही लिङ्गों में श्रेष्ठ माना तथा केदारेश्वर की यात्रा करके वह काशी लौटा। तब उस ब्राह्मण ने संकल्प लिया कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, तब तक प्रति चैत्रमास में मैं काशी से केदारेश्वर की यात्रा करूंगा। तब से वह आजन्म ब्रह्मचारी ब्राह्मण तपस्वी वसिष्ठ काशी में निवास करने लगा तथा उसने ६१ बार केदारेश्वर की यात्रा सम्पन्न किया। इसके पश्चात् (बासठवीं बार) चैत्रमास आने पर वसिष्ठ ने पुनः केदारेश्वर (हिमालय में) जाने का उपक्रम किया। इस उपक्रम को उस ब्राह्मण के अनुचरों ने देखा तथा वसिष्ठ की वृद्धावस्था का विचार करके उनको लगा कि मार्ग में मृत्यु की आशंका है। इसलिये वे सभी दयार्द्रहृदय से बारम्बार वसिष्ठ को यात्रा न करने के लिये कहने लंगे।
ततोपि न तदुत्साहभंगोभूद्दृढचेतसः ॥ मध्ये मार्गं मृतस्यापि गुरोरिव गतिर्मम ॥ ३० ॥
इति निश्चितचेतस्के वशिष्ठे तापसे शुचौ ॥ अशूद्रान्न परीपुष्टे तुष्टोहं चंडिकेऽभवम् ॥ ३१ ॥
स्वप्रेमया स संप्रोक्तो वशिष्ठस्तापसोत्तमः ॥ दृढव्रत प्रसन्नोस्मि केदारं विद्धि मामिह ॥ ३२ ॥
अभीष्टं च वरं मत्तः प्रार्थयस्वाविचारितम् ॥ इत्युक्तवत्यपि मयि स्वप्नो मिथ्येति सोब्रवीत्॥ ३३ ॥
ततोपि स मया प्रोक्तः स्वप्नो मिथ्याऽशुचिष्मताम् ॥ भवादृशाममिथ्यैव स्वाख्या सदृशवर्तिनाम् ॥ ३४ ॥
वरं ब्रूहि प्रसन्नोस्मि स्वप्नशंकां त्यज द्विज ॥ तव सत्त्ववतः किंचिन्मयादेयं न किंचन ॥ ३५ ॥
इति निश्चितचेतस्के वशिष्ठे तापसे शुचौ ॥ अशूद्रान्न परीपुष्टे तुष्टोहं चंडिकेऽभवम् ॥ ३१ ॥
स्वप्रेमया स संप्रोक्तो वशिष्ठस्तापसोत्तमः ॥ दृढव्रत प्रसन्नोस्मि केदारं विद्धि मामिह ॥ ३२ ॥
अभीष्टं च वरं मत्तः प्रार्थयस्वाविचारितम् ॥ इत्युक्तवत्यपि मयि स्वप्नो मिथ्येति सोब्रवीत्॥ ३३ ॥
ततोपि स मया प्रोक्तः स्वप्नो मिथ्याऽशुचिष्मताम् ॥ भवादृशाममिथ्यैव स्वाख्या सदृशवर्तिनाम् ॥ ३४ ॥
वरं ब्रूहि प्रसन्नोस्मि स्वप्नशंकां त्यज द्विज ॥ तव सत्त्ववतः किंचिन्मयादेयं न किंचन ॥ ३५ ॥
तथापि इन निषेध वाक्यों से भी यह महामति तपोधन तनिक भी निरूत्साहित नहीं हो सका। उसने विचार किया कि यदि आधे मार्ग में ही मेरा मरण हो जाता है, तब भी तो अत्यन्त उत्तम बात है! इससे मुझे अपने गुरु की ही तरह सदगति का लाभ हो जायेगा। हे पार्वती! पुण्यात्मा तथा अशूद्रों के ही अन्न को ग्रहण के वाले उन तपोधन वसिष्ठ को इस प्रकार से दृढ़ब्रती देखकर मुझे अत्यन्त सन्तोष हो गया। मैंने उसे स्वप्न मे दर्शन देकर कहा- हे दृढ़ब्रत! मैं ही केदारेश्वर हूं। मैं तुमसे सन्तुष्ट हो गया। तुम अभिलषित वर मांगो। वसिष्ठ ने स्वप्न को मिथ्या मानकर कोई वर नहीं मांगा। तब मैंने उससे पुनः कहा कि अपवित्र मनुष्य ही मिथ्या स्वप्न देखते हैं। तुम तो अत्यन्त पवित्र तथा इन्द्रियजित् हो। तुमको यह स्वप्न मिथ्या मानकर शंका करना कदापि उचित नहीं है। मैं अत्यन्त प्रसन्न होकर वर देने आया हूं। तुम वर प्रार्थना करो। तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है।
इत्युक्तं मे समाकर्ण्य वरयामास मामिति ॥ शिष्यो हिरण्यगर्भस्य तपस्विजनसत्तमः ॥ ३६ ॥
यदि प्रसन्नो देवेश तदा मे सानुगा इमे ॥ सर्वे शूलिन्नुग्राह्या एष एव वरो मम ॥ ३७ ॥
देवि तस्येदमाकर्ण्य परोपकृतिशालिनः ॥ वचनं नितरां प्रीतस्तथेति तमुवाच ह ॥ ३८ ॥
पुनः परोपकरणात्तत्तपो द्विगुणीकृतम् ॥ तेन पुण्येन स मया पुनः प्रोक्तो वरं वृणु ॥ ३९ ॥
स वशिष्ठो महाप्राज्ञो दृढ पाशुपतव्रतः ॥ देवि मे प्रार्थयामास हिमशैलादिह स्थितिम् ॥ ४० ॥
ततस्तत्तपसाकृष्टः कलामात्रेण तत्र हि ॥ हिमशैले ततश्चात्र सर्वभावेन संस्थितः ॥ ४१ ॥
ततः प्रभाते संजाते सर्वेषां पश्यतामहम् ॥ हिमाद्रे प्रस्थितः प्राप्तस्तूयमानः सुरर्षिभिः ॥४२॥
वशिष्ठं पुरतः कृत्वा सर्वसार्थसमायुतम् ॥ हरपापह्रदे तीर्थे स्थितोहं तद्नुग्रहात् ॥ ४३ ॥
मत्परिग्रहतः सर्वे हरपापे कृतोदकाः ॥ आराध्य मामनेनैव वपुषा सिद्धिमागताः ॥ ४४ ॥
यदि प्रसन्नो देवेश तदा मे सानुगा इमे ॥ सर्वे शूलिन्नुग्राह्या एष एव वरो मम ॥ ३७ ॥
देवि तस्येदमाकर्ण्य परोपकृतिशालिनः ॥ वचनं नितरां प्रीतस्तथेति तमुवाच ह ॥ ३८ ॥
पुनः परोपकरणात्तत्तपो द्विगुणीकृतम् ॥ तेन पुण्येन स मया पुनः प्रोक्तो वरं वृणु ॥ ३९ ॥
स वशिष्ठो महाप्राज्ञो दृढ पाशुपतव्रतः ॥ देवि मे प्रार्थयामास हिमशैलादिह स्थितिम् ॥ ४० ॥
ततस्तत्तपसाकृष्टः कलामात्रेण तत्र हि ॥ हिमशैले ततश्चात्र सर्वभावेन संस्थितः ॥ ४१ ॥
ततः प्रभाते संजाते सर्वेषां पश्यतामहम् ॥ हिमाद्रे प्रस्थितः प्राप्तस्तूयमानः सुरर्षिभिः ॥४२॥
वशिष्ठं पुरतः कृत्वा सर्वसार्थसमायुतम् ॥ हरपापह्रदे तीर्थे स्थितोहं तद्नुग्रहात् ॥ ४३ ॥
मत्परिग्रहतः सर्वे हरपापे कृतोदकाः ॥ आराध्य मामनेनैव वपुषा सिद्धिमागताः ॥ ४४ ॥
मेरा वचन सुनकर ब्राह्मण वसिष्ठ कहने लगा- हे देवदेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब इसी प्रकार की कृपा मेरे अनुचरों पर भी करिये। यही मेरी प्रार्थना है। हे देवी! तब मैंने वसिष्ठ की यह परोपकार बुद्धि देखकर अत्यन्त आनन्दित होकर उससे कहा- “यही होगा।” तत्पश्चात् उससे मैंने और भी कहा- “तुम्हारे इस परोपकार के अनुष्ठान के कारण तुम्हारा पुण्य द्विगुणित हो गया। अब उस पुण्य का फल मांगो।” तब तपोधन वसिष्ठ ने कहा--“हे नाथ! आप हिमालय से काशी आकर अवस्थान करिये।” मैं वसिष्ठ के इस वाक्य के कारण हिमालय में अंशरूपेण रहता हूं तथा पूर्णरूप से काशी में ही अवस्थान करता हूं। तदनन्तर प्रातःकाल देवर्षिगण के साथ आगे वसिष्ठ को करके सबके समक्ष वसिष्ठ के प्रति असीम दया के कारण मैं हरपाप हृद में अवस्थित हो गया। मेरे स्पर्श से पवित्र हो गये हरपाप हृद में वसिष्ठ के सेवकों ने तथा सबने स्नान करके इसी देह से सिद्धिलाभ किया।
तदा प्रभृति लिंगेस्मिन्स्थितः साधकसिद्धये ॥ अविमुक्ते परे क्षेत्रे कलिकाले विशेषतः ॥ ४५॥
तुषाराद्रिं समारुह्य केदारं वीक्ष्य यत्फलम् ॥ तत्फलं सप्तगुणितं काश्यां केदारदर्शने ॥ ४६ ॥
गौरीकुंडं यथा तत्र हंसतीर्थं च निर्मलम् ॥ यथा मधुस्रवा गंगा काश्यां तदखिलं तथा ॥ ४७ ॥
इदं तीर्थं हरपापं सप्तजन्माघनाशनम् ॥ गंगायां मिलितं पश्चाज्जन्मकोटिकृताघहम् ॥ ४८ ॥
अत्र पूर्वं तु काकोलौ युध्यतौ खान्निपेततुः ॥ पश्यतां तत्र संस्थानां हंसौ भूत्वा विनिर्गतौ ॥४९॥
गौरि त्वया कृतं पूर्वं स्नानमत्र महाह्रदे ॥ गौरीतीर्थं ततः ख्यातं सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् ॥ ५० ॥
अत्रामृतस्रवा गंगा महामोहांधकारहृत् ॥ अनेकजन्मजनित जाड्यध्वंसविधायिनी ॥ ५१ ॥
तुषाराद्रिं समारुह्य केदारं वीक्ष्य यत्फलम् ॥ तत्फलं सप्तगुणितं काश्यां केदारदर्शने ॥ ४६ ॥
गौरीकुंडं यथा तत्र हंसतीर्थं च निर्मलम् ॥ यथा मधुस्रवा गंगा काश्यां तदखिलं तथा ॥ ४७ ॥
इदं तीर्थं हरपापं सप्तजन्माघनाशनम् ॥ गंगायां मिलितं पश्चाज्जन्मकोटिकृताघहम् ॥ ४८ ॥
अत्र पूर्वं तु काकोलौ युध्यतौ खान्निपेततुः ॥ पश्यतां तत्र संस्थानां हंसौ भूत्वा विनिर्गतौ ॥४९॥
गौरि त्वया कृतं पूर्वं स्नानमत्र महाह्रदे ॥ गौरीतीर्थं ततः ख्यातं सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् ॥ ५० ॥
अत्रामृतस्रवा गंगा महामोहांधकारहृत् ॥ अनेकजन्मजनित जाड्यध्वंसविधायिनी ॥ ५१ ॥
इस काशीधाम में केदारेश्वर लिङ्ग की स्थिति है। इसकी विशेषता यह है कि कलिकाल में हिमालयस्थ केदारेश्वर लिङ्ग दर्शन की अपेक्षा काशी में केदारेश्वर का दर्शन करने से सात गुना अधिक पुण्यलाभ होता है। इस काशी में भी हिमालय की तरह गौरीकुण्ड, हंसतीर्थ तथा मधुस्रवा गंगा उसी प्रकार से विराजित हैं। यह स्वाभाविक है। स्पर्श मात्र से सात जन्मों के पापों का नाश करने वाला हरपापतीर्थ काशी में गंगा देवी के जल से युक्त होकर भक्तों के करोड़ों जन्मों के अर्जित पापों को दूर कर देता है। पूर्व में यहां दो कौवे आपस में लड़ते-लड़ते इस हरपापतीर्थ में गिर गये। सबके सामने ही वे मुहूर्त्तमात्र में हंसरूप होकर चले गये। अत: इसका नाम तब से हंसतीर्थ पड़ गया। हे गौरी! तुमने इस हृद में स्नान किया है। इसलिये इसी का नाम गौरी पड़ गया। यहां अमृतमयी गंगादेवी अमृतक्षरण करके जीवों के मोहान्धकार को तथा नाना जन्मार्जित जड़त्व को दूर कर देती हैं। तभी उनका नाम मधुश्रवा कहा गया है।
सरसा मानसेनात्र पूर्वं तप्तं महातपः ॥ अतस्तु मानसं तीर्थं जने ख्यातिमिदं गतम् ॥५२॥
अत्र पूर्वं जनः स्नानमात्रेणैव प्रमुच्यते ॥ पश्चात्प्रसादितश्चाहं त्रिदशैर्मुक्तिदुर्दृशैः ॥ ५३ ॥
सर्वे मुक्तिं गमिष्यंति यदि देवेह मानवाः ॥ केदारकुंडे सुस्नातास्तदोच्छित्तिर्भविष्यति ॥ ५४ ॥
सर्वेषामेव वर्णानामाश्रमाणां च धर्मिणाम्॥ तस्मात्तनुविसर्गेत्र मोक्षं दास्यति नान्यथा ॥ ५५ ॥
ततस्तदुपरोधेन तथेति च मयोदितम् ॥ तदारभ्य महादेवि स्नानात्केदारकुंडतः ॥५६ ॥
समर्चनाच्च भक्त्या वै मम नाम जपादपि ॥ नैःश्रेयसीं श्रियं दद्यामन्यत्रापि तनुत्यजाम ॥ ५७ ॥
केदारतीर्थे यः स्नात्वा पिंडान्दास्यति चात्वरः ॥ एकोत्तरशतं वंश्यास्तस्य तीर्णा भवांबुधिम्॥ ५८ ॥
अत्र पूर्वं जनः स्नानमात्रेणैव प्रमुच्यते ॥ पश्चात्प्रसादितश्चाहं त्रिदशैर्मुक्तिदुर्दृशैः ॥ ५३ ॥
सर्वे मुक्तिं गमिष्यंति यदि देवेह मानवाः ॥ केदारकुंडे सुस्नातास्तदोच्छित्तिर्भविष्यति ॥ ५४ ॥
सर्वेषामेव वर्णानामाश्रमाणां च धर्मिणाम्॥ तस्मात्तनुविसर्गेत्र मोक्षं दास्यति नान्यथा ॥ ५५ ॥
ततस्तदुपरोधेन तथेति च मयोदितम् ॥ तदारभ्य महादेवि स्नानात्केदारकुंडतः ॥५६ ॥
समर्चनाच्च भक्त्या वै मम नाम जपादपि ॥ नैःश्रेयसीं श्रियं दद्यामन्यत्रापि तनुत्यजाम ॥ ५७ ॥
केदारतीर्थे यः स्नात्वा पिंडान्दास्यति चात्वरः ॥ एकोत्तरशतं वंश्यास्तस्य तीर्णा भवांबुधिम्॥ ५८ ॥
पूर्व में मानस सरोवर ने यहां आकर कठोर तप किया था। अतः इसका नाम मानसतीर्थ पड़ गया। पूर्व में इस तीर्थ में स्नान करने वाले व्यक्ति मात्र को मुक्तिलाभ होते देखकर देवता लोग ईर्ष्या के वशीभूत हो गये। उन्होंने मेरे पास आकर कहा- हे देव! इस केदारकुण्ड में तो हर व्यक्ति स्नान करने से मुक्त हो जा रहे हैं। इससे तो वर्ण तथा आश्रमधर्म के उच्छेद होने की तथा सृष्टि लोप होने की संभावना हो गई हैं। अतएव आप ऐसा आदेश दीजिये कि जिससे यहां जो व्यक्ति मृत होगा, केवल उसे ही मुक्तिलाभ होगा।” यह सुनकर मैंने देवताओं के कथन को स्वीकार किया। तब से जो कोई भी भक्तिभाव के साथ इस केदारकुण्ड में स्नान, केदारेश्वर पूजन तथा मेरे नाम का जप करता है, यदि वह काशी के अतिरिक्त कहीं मृत होता है, तब भी मैं उसे मुक्त करता हूं। यदि कोई केदारतीर्थ में स्नान करके स्थिरचित्त के साथ पितृगण का यहां श्राद्ध करता है, तब उसके वंश की ७१ पीढ़ी भवयातना भोग नहीं करती। वह संसार सागर से उत्तीर्ण हो जाती है।
भौमवारे यदा दर्शस्तदा यः श्राद्धदो नरः ॥ केदारकुंडमासाद्य गयाश्राद्धेन किं ततः ॥ ५९ ॥
केदारं गंतुकामस्य बुद्धिर्देया नरैरियम् ॥ काश्यां स्पृशंस्त्वं केदारं कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ ६० ॥
केदारं गंतुकामस्य बुद्धिर्देया नरैरियम् ॥ काश्यां स्पृशंस्त्वं केदारं कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ ६० ॥
जो मंगलवासरी (भौमवती) अमावस्या के दिन इस केदारकुण्ड में पितृगण को पिण्ड देता है, उसे गया में श्राद्ध से क्या लाभ? यदि कोई हिमालयस्थ केदारेश्वर जाकर वहां उनका दर्शन करने की इच्छा रखता है, तब उसे यह कहकर बुद्धि देनी चाहिये कि “काशीस्थ केदारलिङ्ग का दर्शन करके तुम पूर्णकाम होगे।” यह कहकर उसे काशी में ही केदारलिङ्ग दर्शनार्थ को कहें।
चैत्रकृष्णचतुर्दश्यामुपवासं विधाय च ॥ त्रिगंडूषान्पिबन्प्रातर्हृल्लिंगमधितिष्ठति ॥ ६१ ॥
केदारोदकपानेन यथा तत्र फलं भवेत् ॥ तथात्र जायते पुंसां स्त्रीणां चापि न संशयः ॥ ६२ ॥
केदारभक्तं संपूज्य वासोन्नद्रविणादिभिः ॥ आजन्मजनितं पापं त्यक्त्वा याति ममालयम् ॥ ॥ ६३ ॥
आषण्मासं त्रिकालं यः केदारेशं नमस्यति ॥ तं नमस्यंति सततं लोकपाला यमादयः ॥ ६४ ॥
कलौ केदारमाहात्म्यं योपि कोपि न वेत्स्यति ॥ यो वेत्स्यति सुपुण्यात्मा सर्वं वेत्स्यति स ध्रुवम् ॥ ६५ ॥
केदारेशं सकृद्दृष्ट्वा देवि मेऽनुचरो भवेत् ॥ तस्मात्काश्यां प्रयत्नेन केदारेशं विलोकयेत् ॥६६॥
केदारोदकपानेन यथा तत्र फलं भवेत् ॥ तथात्र जायते पुंसां स्त्रीणां चापि न संशयः ॥ ६२ ॥
केदारभक्तं संपूज्य वासोन्नद्रविणादिभिः ॥ आजन्मजनितं पापं त्यक्त्वा याति ममालयम् ॥ ॥ ६३ ॥
आषण्मासं त्रिकालं यः केदारेशं नमस्यति ॥ तं नमस्यंति सततं लोकपाला यमादयः ॥ ६४ ॥
कलौ केदारमाहात्म्यं योपि कोपि न वेत्स्यति ॥ यो वेत्स्यति सुपुण्यात्मा सर्वं वेत्स्यति स ध्रुवम् ॥ ६५ ॥
केदारेशं सकृद्दृष्ट्वा देवि मेऽनुचरो भवेत् ॥ तस्मात्काश्यां प्रयत्नेन केदारेशं विलोकयेत् ॥६६॥
जो मानव चैत्रकृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन उपवासी रहकर अगले दिन प्रातः केदारतीर्थ में चुल्लू भर भी जल पान करता है, शिवलिङ्ग उसके अन्तर्हृदय में निवास करते हैं। जो स्त्री अथवा पुरुष हिमालयस्थ केदारतीर्थ में जलपान करके जिस फल की प्राप्ति करता है, काशी के इस तीर्थ में जलपान का भी वही पुण्यफल है। जो व्यक्ति धन-वस्त्र तथा अन्नादि के द्वारा केदारेश्वर के भक्तों का सत्कार करता है , अन्त में उसका मेरे लोक में आना निश्चित है। जो व्यक्ति छः मास तक केदारेश्वर को नित्य प्रणाम करता है, उसे तो यम आदि दिकपाल भी सतत प्रणाम करते रहते हैं। कलिकाल में सभी लोग इन केदारेश्वर की महिमा नहीं जान पाते, लेकिन जो कोई भी उनकी महिमा जानते हैं, वे सभी विषय जान लेते हैं। हे प्रिये! जो एक बार भी केदारेश्वर का दर्शन करता है, वह मेरे अनुचरों में गिना जाता है। इसलिये सर्वतोभावेन काशी में केदारेश्वर का दर्शन करे।
चित्रांगदेश्वरं लिंगं केदारादुत्तरे शुभम् ॥ तस्यार्चनान्नरो नित्यं स्वर्गभोगानुपाश्नुते ॥ ६७ ॥
केदाराद्दक्षिणे भागे नीलकंठ विलोकनात् ॥ संसारोरगदष्टस्य तस्य नास्ति विषाद्भयम् ॥ ६८ ॥
तद्वायव्यंबरीषेशो नरस्तदवलोकनात् ॥ गर्भवासं न चाप्नोति संसारे दुःखसंकुले ॥६९॥
इंद्रद्युम्नेश्वरं लिंगं तत्समीपे समर्च्य च ॥ तेजोमयेन यानेन स स्वर्ग भुवि मोदते ॥७० ॥
तद्दक्षिणे नरो दृष्ट्वा लिंगं कालंजरेश्वरम् ॥ जरां कालं विनिर्जित्य मम लोके वसेच्चिरम् ॥७१॥
दृष्ट्वा क्षेमेश्वरं लिंगमुद्क्चित्रांगदेश्वरात् ॥ सर्वत्र क्षेममाप्नोति लोकेऽत्र च परत्र च ॥७२॥
केदाराद्दक्षिणे भागे नीलकंठ विलोकनात् ॥ संसारोरगदष्टस्य तस्य नास्ति विषाद्भयम् ॥ ६८ ॥
तद्वायव्यंबरीषेशो नरस्तदवलोकनात् ॥ गर्भवासं न चाप्नोति संसारे दुःखसंकुले ॥६९॥
इंद्रद्युम्नेश्वरं लिंगं तत्समीपे समर्च्य च ॥ तेजोमयेन यानेन स स्वर्ग भुवि मोदते ॥७० ॥
तद्दक्षिणे नरो दृष्ट्वा लिंगं कालंजरेश्वरम् ॥ जरां कालं विनिर्जित्य मम लोके वसेच्चिरम् ॥७१॥
दृष्ट्वा क्षेमेश्वरं लिंगमुद्क्चित्रांगदेश्वरात् ॥ सर्वत्र क्षेममाप्नोति लोकेऽत्र च परत्र च ॥७२॥
केदारेश्वर के उत्तर में जो चित्रांगदेश्वर लिङ्ग स्थित है, जीव उनकी पूजा द्वारा स्वर्गलाभ करता है। केदारेश्वर के दक्षिण की ओर स्थित नीलकण्ठेश्वर का दर्शन करने से सर्प से डसे व्यक्ति को भी विषभय नहीं रहता। केदारेश्वर के वायुकोण में अम्बरीषेश्वर लिङ्ग का दर्शन करने से मानव की संसार यातना समाप्त हो जाती है। उसके निकट ही इन्द्रद्युम्नेश्वर लिङ्ग है, जिसकी अर्चना द्वारा मानव दीप्तिमान विमान पर बैठकर देवलोक जाता है। उसके दक्षिण की ओर कालंजरेश्वर लिङ्ग है। उनका जो मानव दर्शन केरता है, वह जरामरणवर्जित होकर केलास में निवास करता है। चित्रांगदेश्वर के उत्तर में क्षेमेश्वर लिङ्ग है। इस लिङ्ग का दर्शन करने से मानव का इहलोक तथा परलोक में मंगल होता है।
॥ स्कंद उवाच ॥
देवदेवेन विंध्यारे केदार महिमा महान् ॥ इत्याख्यायि पुरांबायै मया तेपि निरूपितः ॥ ७३ ॥
केदारेश्वरलिंगस्य श्रुत्वोत्पत्तिं कृती नरः ॥ शिवलोकमवाप्नोति निष्पापो जायते क्षणात् ॥ ७४ ॥
देवदेवेन विंध्यारे केदार महिमा महान् ॥ इत्याख्यायि पुरांबायै मया तेपि निरूपितः ॥ ७३ ॥
केदारेश्वरलिंगस्य श्रुत्वोत्पत्तिं कृती नरः ॥ शिवलोकमवाप्नोति निष्पापो जायते क्षणात् ॥ ७४ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे विन्ध्यविमर्दन अगस्त्य! आदिदेव महादेव ने केदारेश्वर की जिस महिमा के वर्णन किया था, मैंने आपसे उसी प्रकार से कह दिया। जो मानव केदारेश्वर के इस उत्पत्ति वृत्तान्त को सुनता है, वह उसी समय पापरहित हो जाता है।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीति साहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंड उत्तरार्धे केदारमहिमाख्यानं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥७७॥
GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE
EXACT GPS : 25.299589550071012, 83.00722430606949
केदारनाथ क्षेत्र बद्रिकाश्रम में भगवान महादेव भैसें के पीठ के रूप में तथा काशी में लिङ्ग रुपेण केदारघाट में स्थित है।
In the Kedarnath region of Badrinath, Lord Mahadev is situated in the form of the back of a buffalo and in the form of a Linga at Kedar Ghat in Kashi.
For the benefit of Kashi residents and devotees : -
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥