Shuleshwar (लिङ्ग रूपेण देव शूलेश्वर एवं देवी शूलेश्वरी)

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Shuleshwar
शूलेश्वर
पौराणिक नाम का लोप :  स्कंदपुराण काशीखंड में वर्णित है कि चक्रेश्वर लिंग के नैऋत्य कोण में शूलेश्वर महादेव स्थित है।पौराणिक नाम का लोप होने के कारण तथा सूत टोला मोहल्ले के नाम (सूत टोला) पर ही नामकरण (सूतटोलेश्वर) कर दिया गया तो भगवान सूतटोलेश्वर महादेव के नाम से जाने जाने लगे। स्कंदपुराण काशीखंड अध्ययन करने से यह पता चलता है कि उपशांतेश्वर के उत्तर चक्रेश्वर लिंग तथा चक्रेश्वर के दक्षिण-पश्चिम शूलेश्वर लिंग की स्थिति है। अतः यह भगवान शूलेश्वर ही हैं। जिन्हें नाम का लोप हो जाने के कारण मोहल्ले के नाम (सूत टोला) पर ही क्षेत्रवासियों ने (सूतटोलेश्वर) रख दिया। 4 मार्च 2024 सोमवार (फाल्गुन कृष्ण पक्ष, अष्टमी 2080 नल, विक्रम सम्वत वाराणसी, भारत) को भगवान के पौराणिक नाम शूलेश्वर को वर्तमान प्रभु सेवक प्रकाशचंद्र केशरी जी द्वारा पुनः यथावत कर दिया गया है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ९७
भद्रेश्वराद्यातुधान्यामुपशांत शिवो मुने ॥
तस्य लिंगस्य संस्पर्शात्परा शांतिं समृच्छति । उपशांत शिवं लिंगं दृष्ट्वा जन्मशतार्जितम् ॥४९॥
त्यजेदश्रेयसो राशिं श्रेयोराशिं च विंदति । तदुत्तरे च चक्रेशो योनिचक्र निवारकः ॥५०॥
तदुत्तरे चक्रह्रदो महापुण्यविवर्धनः । स्नात्वा चक्रह्रदे मर्त्यश्चक्रेशं परिपूज्य च ॥५१॥
हे ऋषि! उपशांतशिव, भद्रेश्वर के दक्षिण-पश्चिम में है। उपशांतेश्वर लिङ्ग के संस्पर्श से पराशान्ति का लाभ होता है। इनके दर्शन से सौ जन्मों के पापपुंज नष्ट होते हैं तथा मंगल राशि का संचय होता है। उपशांतेश्वर के उत्तर में योनिचक्र (गर्भ आगमन) निवारक चक्रेश्वर लिङ्ग स्थित है। जिसके उत्तर भाग में महापुण्यवर्द्धक चक्र हृद विद्यमान है। जो व्यक्ति चक्र हृद में स्नान करके परम भक्तिपूर्वक चक्रेश्वर की अर्चना करता है, दर्शन फलस्वरूप शिवलोक प्राप्त करता है।
शिवलोकमवाप्नोति भावितेनांतरात्मना । तन्नैर्ऋते च शूलेशो द्रष्टव्यश्च प्रयत्नतः ॥५२॥
शूलं तत्र पुरा न्यस्तं स्नानार्थं वरवर्णिनि । ह्रदस्तत्र समुत्पन्नः शूलेशस्याग्रतो महान् ॥५३ ॥
स्नानं कृत्वा ह्रदे तत्र दृष्ट्वा शूलेश्वरं विभुम् । रुद्रलोकं नरा यांति त्यक्त्वा संसारगह्वरम् ॥५४॥
महादेव कहते हैं : हे वरवर्णिनि! चक्रेश्वर के नैऋत कोण (दक्षिण-पश्चिम) में शूलेश्वर लिङ्ग हैं। पूरे प्रयत्न से उनका दर्शन-पूजन करना चाहिए। पूर्व में मैंने स्नानार्थ शूल से पृथिवी का भेदन करके शूलेश्वर के सम्मुख इस हृद का निर्माण किया था। शूल हृद में स्नान तथा शूलेश्वर दर्शन के फलस्वरूप, मनुष्य इस संसाररूपी गह्वर (खाई) का त्याग कर रुद्रलोक को प्राप्त करता है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_५_(अवन्तीखण्डः)/रेवा_खण्डम्/अध्यायः १९८
॥ श्रीशूलपाणिरुवाच ॥
शूलस्थेन त्वया विप्र मनसा चिन्तितोऽस्मि यत् । अनयानां निहन्ताहं दुःखानां विनिबर्हणः ॥ ४६ ॥
ध्यातमात्रो ह्यहं विप्र पाताले वापि संस्थितः ।
शूलमूले त्वहं शम्भुरग्रे देवी स्वयं स्थिता । जगन्माताम्बिका देवी त्वामृतेनान्वपूरयत् ॥ ४७ ॥
शूलपाणि (शिव) ने माण्डव्य से कहा: हे ब्राह्मण, इसका कारण यह है कि आपने मुझे मानसिक रूप से स्मरण किया है। मैं अन्याय और बुरे कर्मों का नाश करने वाला हूँ। मैं दुखों को दूर करता हूँ। हे ब्राह्मण! जब मेरा ध्यान किया उस समय मैं पाताल लोक में स्थित था, मैं (शंभु) शूल के तल पर आ गया और देवी स्वयं शीर्ष पर स्थित हो गईं। जगत जननी देवी अम्बिका ने आपको अमृत से सराबोर कर दिया।
॥ माण्डव्य उवाच ॥
पूर्वमेव स्थितो यस्माच्छूलं व्याप्योमया सह । प्रसादप्रवणो मह्यमिदानीं चानया सह ॥ ४८ ॥
यदि तुष्टोऽसि देवेश ह्युमा मे वरदा यदि ।  उभावप्यत्र वै स्थाने स्थितौ शूलाग्रमूलयोः ॥ ५५ ॥
अवतारो यत्र तत्र संस्थितिं वै ततः कुरु ॥ ५६ ॥
मांडव्य ने कहा: चूँकि आप उमा के साथ पहले ही शूल में व्याप्त हो चुके थे और स्वयं को वहाँ स्थापित कर चुके थे, अब भी आप उनकी संगति में मुझ पर अनुग्रह करने के इच्छुक हैं। हे देवों के देव! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि उमा मुझे वरदान देने की कृपा करती हैं, तो आप दोनों इस स्थान पर, यानी शूल के पैर और शीर्ष पर स्थित होंगे। आपका अवतार यहां-वहां हो सकता है लेकिन स्थाई निवास यहीं रहेगा।
॥ श्रीमार्कण्डेय उवाच ॥
तेनैवमुक्ते सहसा कृत्वा भूमण्डलं द्विधा । निःसृतौ शूलमूलाग्राल्लिङ्गार्चाप्रतिरूपिणौ ॥ ५७ ॥
प्रद्योतयद्दिशः सर्वा लिङ्गं मूले प्रदृश्यते । वामतः प्रतिमा देवी तदा शूलेश्वरी स्थिता ॥ ५८ ॥
विलोभयन्ती च जगद्भाति पूरयती दिशः । दृष्ट्वा कृताञ्जलिपुटः स्तुतिं चक्रे द्विजोत्तमः ॥ ५९ ॥
श्री मार्कण्डेय ने कहा: जब उनके द्वारा यह अनुरोध किया गया, तो भूमि अचानक दो भागों में विभाजित हो गई और शूल के पैर और शीर्ष से वे लिंग और मूर्ति की प्रतिकृतियों के रूप में बाहर निकले। तल पर लिंग को सभी दिशाओं को प्रकाशमान करते हुए देखा गया था। बायीं ओर देवी शुलेश्वरी मूर्ति के रूप में स्थित थीं। वह सभी दिशाओं को तेजोमय कर उठीं और संपूर्ण ब्रह्मांड को मंत्रमुग्ध कर देने वाली हो गई। उसे देखकर, उत्कृष्ट ब्राह्मण (माण्डव्य) ने श्रद्धा से हाथ जोड़ लिये और स्तुति करने लगे।
॥ माण्डव्य उवाच ॥
त्वमस्य जगतो माता जगत्सौभाग्यदेवता । न त्वया रहितं किंचिद्ब्रह्माण्डेऽस्ति वरानने ॥ ६० ॥
मांडव्य ने कहा: आप इस जगत की माता हो; ब्रह्मांड को सौभाग्य प्रदान करने वाली हो। हे वरानने! संपूर्ण ब्रह्मांडीय अंडे में आपकी उपस्थिति के बिना कुछ भी संभव नहीं है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_५_(अवन्तीखण्डः)/अवन्तीस्थचतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्यम्/अध्यायः ५१
॥ ईश्वर उवाच ॥
एकाधिकं विजानीहि पंचाशत्तममीश्वरम् ॥ देवं शूलेश्वरं देवि सर्व व्याधिविनाशनम् ॥ १ ॥
आद्ये कल्पे प्रवृत्ते च राज्यहेतोर्वरानने ॥ देवानां दानवानां च युद्धमासीत्सुदारुणम् ॥ २ ॥
दैत्यानामीश्वरे जंभे देवानां च शचीपतौ ॥ ततो देवाः पराभूता दैत्या विजयिनोऽभवन् ॥ ३ ॥
अंधको मंदरं प्राप्तो दूतं मे प्राहिणोत्तदा ॥ स दूतो मामुवाचोच्चैः सगर्वो दुष्टमानसः ॥ ४ ॥
ईश्वर कहते हैं - हे देवी! अब तुम सर्वव्याधिनाशक इक्यावनवें लिङ्ग शूलेश्वर का माहात्म्य श्रवण करो। आद्य कल्प के प्रारंभिक काल में देव-दानव के बीच दारुण युद्ध छिड़ गया था। उस समय जम्भ दैत्यों का अधिपति था। शचीपति देवगणाधिपति थे। युद्ध में देवगण परास्त हो गये तथा देत्यों ने विजयलाभ किया। जय पाकर अन्धकासुर मन्दराचल पर पहुंचा तथा उसने मेरे पास दूत भेजा।
अन्धकेनाहमादिष्टः शृणु शंकर मद्वचः ॥ गौरीं मे देहि पत्न्यर्थं मंदरस्त्यज्यतामयम् ॥ ५ ॥
एवं कृते कृतार्थस्त्वमन्यथा नास्ति ते गतिः ॥ उक्तोऽहं तेन दूतेन त्वया सह महागिरौ ॥ ६ ॥
स्मिताननः क्षणं भूत्वा मया प्रोक्तमिदं वचः ॥ गच्छ दूत ममादेशादंधकं ब्रूहि सत्वरम्॥ ७ ॥
इहाभ्येत्याहवं कृत्वा जित्वेमां सुन्दरीं नय ॥ इत्युक्तः प्रययौ दूतस्तेनाख्यातं वचो मम ॥ ८ ॥
उस दुरात्मा दूत ने आकर मुझसे कहा - शंकर! अन्धक जो आदेश तुमको दे रहे हैं, वह सुनों - अन्धक ने कहा है कि “हे शंकर! तुम गौरी को मुझे पत्नी बनाने हेतु प्रदान करो तथा शीघ्र मन्दरचल त्याग दो। ऐसा करने से तुम्हारा मंगल होगा, अन्यथा तुम्हारी गति नहीं है।” हे देवी! जब तुम्हारे साथ मुझसे ऐसे कहा गया, तब मैंने किंचित्‌ हास्य मुद्रा में दूत से कहा--'हे दूत! तुम अन्धक से कहो कि यहाँ आकर युद्ध करे तथा इस सुन्दरी को जीतकर ले जाये।” मेरे इस वचन को दूत ने अंधक के पास जाकर उससे कहा। 
अन्धकोऽपि तदा दैत्यः समरार्थी तु मन्दरम् ॥ समायातः सहामात्यो बलेन चतुरंगिणा ॥ ९ ॥
मया सह ततस्तस्य घोरं युद्धमभूच्चिरम् ॥ अन्धकस्य रथो घोरश्छिन्नो भिन्नः समं ततः ॥ १० ॥
ततः कुद्धोंऽधको देवि रथात्तस्मादवप्लुतः ॥ मद्रथं बलवान्गृह्य मया सह बलोत्कटः ॥ ११ ॥
युयुधे स महादैत्यः शूलेन ताडितो मया ॥ मया धृतोन्तरिक्षे स शूलप्रोतो महासुरः ॥ १२ ॥
शूलप्रोतोऽथ वै दुष्टस्तावत्स भ्रामितो मया ॥ सुस्राव तस्य गात्रेभ्यः शोणितोघ स्ततो महान् ॥ १३॥
अन्धक ने दूत से यह मेरा कथन सुना तथा उसने अपनी चतुरंग सैन्य से सज्जित होकर अपने आमात्यों के साथ मन्दराचल पर आक्रमण कर दिया। इस समय उसका मेरे साथ घोर तुमुल युद्ध छिड़ गया। मैंने उसका रथ छिन्न-भिन्न किया, तब वह कूद कर मेरे रथ पर आ गया और मेरे साथ घोर रूप से युद्ध करने लगा। उस समय मैंने अपने शूल से उस पर प्रहार किया। मैंने उसे शूल में पिरो लिया तथा आकाश में घुमा-घुमाकर उसे पीड़ित किया, इससे उसके शरीर से रक्तविन्दु निकल कर भूमि पर गिरने लगे।
बिन्दौबिन्दौ तु रक्तस्य तत्तुल्या दानवास्तथा ॥ संभूताः कोटिशो देवि तैरहं पुनरर्द्दितः ॥ १४ ॥
किं कर्त्तव्यमिति ध्यायन्स्थि तोऽहं तत्र भामिनि ॥ मया चोत्पादिता दुर्गा रक्तदंता सुभीषणा ॥ १५ ॥
अन्धकस्य तदा पीतं रक्तं वहुविधं तया ॥ तस्मिन्पीते ततो रक्ते नोत्तस्थुर्देवि चापरे ॥ १६ ॥
पूर्वोत्थितास्तयैवाशु निहता दानवाधिपाः ॥ तेन शूलवरेणैव तत्क्षणान्निधनं गताः ॥ १७ ॥
स मामुवाच हृष्टात्मा कृतां जलिपुटोंऽधकः ॥ त्वयि भक्तिः सदा मेस्तु दुर्लभं तव दर्शनम् ॥ १८ ॥
स्वामिना निहतश्चाहं कोऽन्यो धन्यतरो हि मत् ॥ त्वच्छूलेन विनिर्भिन्नो ह्यन्तरिक्षे ततोऽप्यहम् ॥ १९ ॥
इस भूपतित विन्दु द्वारा उसी के समान करोड़ों दानव वीर उत्पन्न होकर मुझे अत्यन्त कष्ट देने लगे। तब मैंने अपना कर्त्तव्य विचार करने हेतु हे भामिनी! वहां ध्यान किया। तब मैंने भीषणा रक्तदन्ता दुर्गा को उत्पन्न किया। देवी रक्तदन्तिका अन्धक के शरीर से गिरते रक्त का पान करने लगीं, जिसके कारण अन्य दानववीर उत्थित नहीं हो पाये। पूर्व में जो दानव रक्तविन्दु से उत्पन्न हुये थे, उन सब को देवी ने शूल से निहत कर दिया अर्थात मार डाला। तभी अन्धक ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा कि - मेरे मन में सदा आपके प्रति भक्ति बनी रहे। आपका दर्शन दुर्लभ है। मैं आप द्वारा आहत हूं, इसलिये मेरी अपेक्षा पुण्यात्मा और कौन हो सकता है? आपके शूल से छिदा हुआ मैं अन्तरिक्ष में स्थित हूँ।
संकल्पाक्षेपविक्षेपं कल्पकार्यप्रवर्त्तकम् ॥ सहस्रवक्त्रशिरसं त्वामहं शरणं व्रजे ॥ २० ॥
गिरींद्रतनयानाथं गिरींद्रशिखरालयम् ॥ महालयकृतावासं त्वामहं शरणं व्रजे ॥२१॥
आप संकल्पाक्षेप-विक्षेपात्मक, कल्पकार्य प्रवर्तक हैं। आपके हजारों मुख तथा मस्तक हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूं। आप गिरिजानन्दिनी के नाथ हैं। पर्वत शिखर आपका निवासस्थल है। आप महान लयकाल में भी स्थित रहते हैं। में आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।
एवं स्तुतोऽहं दैत्येन शूलप्रोतेन सुन्दरि ॥ ततो मे करुणा जाता कृतोंधको गणस्तदा ॥२२॥
स च शूलवरो देवि मया प्रोक्तो मुदा तदा ॥ एहि शूल हतो दैत्यस्त्वया दुष्टोंधको मृधे ॥२३॥
परितुष्टः प्रयच्छामि परमं स्थानमुत्तमम्॥ न देवैर्न च गन्धर्वैर्नापि तत्परमर्षिभिः॥ २४ ॥
संप्राप्यं मामनाराध्य तथा विध्वस्तकल्मषैः॥ मामुवाच ततः शूलः प्रणम्यानतकन्धरः ॥ २५ ॥
यदि प्रसन्नो भगवन्करुणा मयि ते यदि ॥ कथयस्व परं स्थानं मनो मे यत्र शुद्ध्यति ॥ २६ ॥
दुष्टसंपर्कसंजातमन्यत्पातकमात्मनः ॥ ततो मया समादिष्टः करुणाश्लिष्टचेतसा ॥ २७ ॥
महाकालवनं रम्यमतिपुण्यफलप्रदम् ॥ तत्रास्मत्प्राप्तिदं लिंगं लोकानुग्रहकारकम् ॥ २८ ॥
पृधुकेश्वरपूर्वेण तदाराधय यत्नतः ॥ मदीयं वचनं श्रुत्वा स जगाम त्वरान्वितः ॥ २९ ॥
ददर्श तत्र तल्लिंगमनेकफलदायकम् ॥ लिंगेन च पुनर्दृष्टः शूलः शंकरवल्लभः ॥ ३० ॥
संभूतोऽनेकवक्त्रस्तु हर्षाद्विस्मितमानसः ॥ स्नेहात्संश्लेषितोऽत्यर्थं पृष्टस्तु कुशलं पुनः ॥ ३१ ॥
कथितं तेन शूलेन दुष्टांधक वधं तदा ॥ प्रभुणा प्रेरितोऽत्यर्थं शुद्ध्यर्थं भवतोंतिके ॥ ३२ ॥
त्वद्दर्शनेन पूतोऽहं यास्यामि शिवसंनिधौ ॥ अद्यप्रभृति भूलोके मन्नाम्ना ख्या तिमेष्यसि ॥ ३३ ॥
हे सुन्दरी! मैंने दैत्य से इस प्रकार स्तुत होकर उसके प्रति दया करते हुये उसे अपने गणों में स्थान प्रदान किया। जिस शूल से मैंने अन्धक को विद्ध किया था, उससे मैंने कहा - हे शूल! तुम जाओ। तुमने युद्ध में दुष्ट दैत्य का वध किया है। मैं प्रसन्न होकर उसे उत्तम स्थान देता हूं। विगतकल्मष देवता-गन्धर्व तथा ऋषिगण भी मेरी आराधना के अभाव में यह स्थान नहीं पा सकते। मेरा कथन सुनकर शूल ने मस्तक झुकाकर कहा - हे देव! यदि मेरे प्रति आपकी करुणा हो; तब ऐसा स्थान दीजिये, जहां मेरा मन शुद्ध हो तथा दुष्ट संपर्क जनित पातक शुद्ध हो सके। तदनन्तर मैंने करुणा में भरकर उससे कहा- तुम अतिरम्य पुण्यफलप्रद महाकालवन जाओ। वहां पृथुकेश्वर लिङ्ग के पूर्व में लोकानुग्रहकारक मुझे प्राप्त कराने वाला एक लिङ्ग है। तुम वहां जाकर उसकी यत्नतः आराधना करो। मेरा वचन सुनकर शूल तीव्रता से महाकालवन पहुंचा तथा उसने वहां अनेक फलप्रद लिङ्ग का दर्शन किया। इस दर्शन के फलस्वरूप अनेक मुख प्राप्त कर विस्मित हो गया तथा लिज् द्वारा स्नेहपूर्वक अलिंगित एवं लिंग द्वारा जिज्ञासित होकर अपनी कुशलता तथा अन्धक वध वृत्तानत उनसे कहा। उसने और भी कहा - मै ईश्वर द्वारा शुद्धि हेतु आपके पास भेजा गया। अब आपका दर्शन प्राप्त करके पवित्र हो गया। पर अब शिव के पास जा रहा हूं। अब आप मेरे नाम से प्रसिद्ध हो जायें।
ततो भविष्यत्यधिकं दर्शनात्ते वृणोम्यहम् ॥ किं तीर्थैर्विविधैः स्नातैः किं दानैर्विविधैः कृतैः ॥ ३४ ॥
ते प्राप्स्यंति फलं सर्वंं ये त्वां द्रक्ष्यंति भक्तितः ॥ यः करिष्यति ते पूजां भक्तियुक्तोऽपि मानवः ॥ ३५ ॥
अष्टम्यां वा चतुर्दश्यां दिने भौमस्य भक्तितः ॥ विमानवरमास्थाय कामगं रत्नभूषितम् ॥ ३६ ॥
उदितादित्यसंकाशं स मुदा विचरिष्यति ॥ त्वन्नाम ये ग्रहीष्यंति सर्वदा भयपीडिताः ॥ ३७ ॥
व्याधिभिः पीडिता नित्यं दुःखैर्वा क्लेशिता भृशम् ॥ न भविष्यति भीस्तेषां घोरसंसारसागरे ॥ ३८ ॥
आपके दर्शन से मानव श्रेय की प्राप्ति करे, यही आपसे वर मांगता हूं। जो भक्तिपूर्वक आपका दर्शन करेंगे, उनको विविध तीर्थस्नान तथा विविध दान से क्‍या प्रयोजन! वे आपके दर्शन से ही स्वर्गफल लाभ करेंगे। जो मानव अष्टमी, चतुर्दशी किंवा सोमवार को भक्ति के साथ आपकी पूजा करेगा, वह उदित हो रहे सूर्य के समान तेजवान्‌ रत्नभूषित कामगति (इच्छानुरूप गति) से चलने वाले विमान पर बैठकर आनन्दपूर्वक विचरण करेगा। जो भयपीड़ित, व्याधिपीड़ित तथा अत्यन्त कष्ट में पड़कर आपका नाम लेते हैं, वे निर्भय होकर संसार सागर से मुक्त हो जाते हैं। उनको संसार सागर से भय नहीं होता।
ये त्वां द्रक्ष्यंति पुरुषा भावहीनाः प्रसंगतः ॥ न पतिष्यंति संसारे नरके चातिदारुणे ॥ ३९ ॥
इत्युक्तं तेन शूलेन लिंगमाश्लिष्य यत्नतः ॥ एष ते कथितो देवि प्रभावः पापनाशनः ॥ ४० ॥
शूलेश्वरस्य देवस्य अथोंकारेश्वरं शृणु ॥ ४१ ॥
जो भक्तिरहित मानव प्रसंगवशात्‌ भी आपका दर्शन करते हैं, वे संसार में तथा नरक में नहीं गिरते। शूल ने इस प्रकार लिङ्ग का आलिंगन करते हुये यह सब कहा। हे देवी! मैंने तुमसे शूलेश्वर लिङ्ग का पापहारी माहात्म्य कहा। अब ओंकारेश्वर माहात्म्य सुनो।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां पञ्चम आवंत्यखण्डे चतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्ये शूलेश्वरमाहात्म्यवर्णनंनामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥


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EXACT GPS LOCATION : 25.31450585319148, 83.01491747607479

शूलेश्वर महादेव, सूत टोला, चौखम्भा में (पंडित राम जी शुक्ल भवन के समीप) विराजमान हैं।
Shuleshwar Mahadev is situated in Sut Tola, Chaukhambha (near Pandit Ram Ji Shukla Bhawan).

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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