Tryambakeshwar (त्र्यम्बकेश्वर - द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं ६८ आयतन लिंग, अविमुक्तत्र्यंबकक्षेत्र, काशीखण्ड)

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Tryambakeshwar
त्र्यम्बकेश्वर
दर्शन महात्म्य : जब जब बृहस्पति सिंहराशि पर आते हैं, तब सभी देवता, तीर्थ तथा क्षेत्र यहाँ आते हैं। पुष्कर आदि समस्त सरोवर, गंगा आदि सभी नदियाँ एवं विष्णु आदि देवगण गौतमीतट पर निवास करते हैं। ये जब तक वहाँ रहते हैं, तब तक अपने स्थान पर उनके सेवन का फल प्राप्त नहीं होता और जब वे अपने-अपने निवास पर चले जाते हैं, तभी उनकी उपासना का फल प्राप्त होता है।

लिङ्गपुराणम्/उत्तरभागः/अध्यायः५४
त्रयाणामपि लोकानां गुणानामपि यः प्रभुः॥ १८ ॥
वेदानामपि देवानां ब्रह्मक्षत्रविशामपि॥ अकारोकारमकाराणां मात्राणामपि वाचकः॥ १९ ॥
तथा सोमस्य सूर्यस्य वह्नेरग्नित्रयस्य च॥ अंबा उमा महादेवो ह्यंबकस्तु त्रियंबकः॥ २० ॥
'त्र्यंबक' शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया गया है, जो तीन लोकों, तीन गुणों, तीन वेदों, तीन देवताओं, तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के स्वामी है। वह तीन (प्रणव) अक्षर 'अकार ', 'उकार', 'मकार' से प्रकट होते हैं। वह तीन अग्नियों- सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि के स्वामी हैं। उमा, अम्बा और महादेव ये त्रिमूर्ति हैं। अत: वह तीनों के स्वामी त्रयम्बक हैं।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः१(माहेश्वरखण्डः)/अरुणाचलमाहात्म्यम्-२/अध्यायः२

अनुगोदावरीतीरं त्र्यंबकंनाम ते श्रुतम् ॥ शक्तिं यत्र गुहो लेभे तारकासुरघातिनीम् ॥ ७४॥
गोदावरी तट के निकट त्रयंबक नामक पवित्र स्थान के विषय में आपने सुना होगा। यहीं पर गुह (कार्तिकेय) ने अपना अस्त्र शक्ति प्राप्त किया जिसने तारकासुर का वध किया।

स्कन्दपुराण खण्ड : ४ (काशीखण्ड)

भूरिशः सर्वतीर्थानि मध्य काशि पदेपदे॥ सर्वलिंगमयी काशी सर्वतीर्थेकजन्मभूः॥
काशी में पग-पग पर सभी प्रकार के तीर्थ हैं। काशी समस्त लिंगों से परिपूर्ण है। यह सभी तीर्थों का उद्गम स्थल है।


काशी में भगवान त्रयंबकेश्वर त्र्यंबक क्षेत्र से स्वयं प्रकट है। काशी वासियों को द्वादश ज्योतिर्लिंग के क्रम में त्रयंबकेश्वर महादेव का दर्शन गोमती (गोदावरी, वर्तमान में विकृत नाम गोदौलिया) तट पर करना चाहिए। जिस प्रकार मूल में स्थित ज्योतिर्लिंग भी पौराणिक वचनों से ही सिद्ध होते हैं। उसी प्रकार इस पौराणिक लेख में हम काशी में स्वयं प्रकट द्वादश ज्योतिर्लिंग के क्रम में भगवान त्रयंबकेश्वर की पुष्टि करेंगे। 

स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः६९

त्रिसंध्यात्क्षेत्रतो देवस्त्र्यंबकोस्ति समागतः ॥ त्रिमुखात्पूर्वदिग्भागे पूजितस्त्र्यंबकत्वकृत् ॥ ७९ ॥
भगवान त्र्यंबक पवित्र स्थान त्रिसंध्य तीर्थ क्षेत्र से आये हैं। वह त्रिमुख विनायक (त्रिपुरांतकेश्वर लिंग के समीप, सिगरा टीला) के पूर्वी भाग में है। यदि उनकी पूजा की जाती है, तो वे त्रयंबक बना देते हैं।

यदि हम त्रिमुख विनायक (सिगरा टीला) के पूर्व भाग में देखें तो बहुत से लिंग एवं तीर्थ मध्य में आते हैं, फिर ऐसा क्या कारण है जो त्र्यंबकेश्वर की स्थिति गोदौलिया पर ही मानी जाती है? इस लिंग को द्वादश ज्योतिर्लिंग अंतर्गत क्यों माना जाता है? इस पौराणिक लेख के माध्यम से स्पष्ट होगा - 

काशी में स्वयं प्रकट त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रमाणिकता : मूल त्रयंबक क्षेत्र (नासिक समीप) में गौतमवन त्र्यंबक के पास ब्रह्मगिरि के निकट स्थित है, जिसमें गोदावरी का स्रोत है यहीं ऋषि गौतम का आश्रम था। मूल में त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दक्षिण भाग में ब्रह्मगिरी पर्वत है। काशी में भी त्रंबकेश्वर के दक्षिण भाग में ब्रह्मेश्वर लिंग तथा गोदावरी (अब विकृत नाम गोदौलिया) तीर्थ है। काशी स्थित त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के समीप गौतमी (गोदावरी) आज भी कूप के रूप में शेष है। काशी स्थित त्रयंबक क्षेत्र में ही महर्षि गौतम ने लिंग की स्थापना की, जिन्हे गौतमेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। [स्कन्दपुराण/काशीखण्ड/अध्यायः९७ : ॥ तद्याम्यां मुचुकुंदेशस्तत्पार्श्वे गौतमेश्वरः॥ ]

शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_२४

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य प्रसँग में गौतमऋषि की परोपकारी प्रवृत्ति का वर्णन

॥ सूत उवाच ॥

श्रूयतामृषयः श्रेष्ठाः कथां पापप्रणाशिनीम्॥ कथयामि यथा व्यासात्सद्गुरोश्च श्रुता मया॥१॥

पुरा ऋषिवरश्चासीद्गौतमो नाम विश्रुतः ॥ अहल्या नाम तस्यासीत्पत्नी परमधार्मिकी ॥ २ ॥

दक्षिणस्यां दिशि हि यो गिरिर्ब्रह्मेति संज्ञकः ॥ तत्र तेन तपस्तप्तं वर्षाणाम युतं तथा ॥ ३ ॥

कदाचिच्च ह्यनावृष्टिरभवत्तत्र सुव्रताः ॥ वर्षाणां च शतं रौद्री लोका दुःखमुपागताः ॥ ४ ॥

आर्द्रं च पल्लवं न स्म दृश्यते पृथिवीतले ॥ कुतो जलं विदृश्येत जीवानां प्राणधारकम् ॥ ५ ॥

तदा ते मुनयश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा ॥ पक्षिणश्च मृगास्तत्र गताश्चैव दिशो दश ॥ ६ ॥

तां दृष्ट्वा चर्षयो विप्राः प्राणायामपरायणाः ॥ ध्यानेन च तदा केचित्कालं निन्युस्सुदारुणम् ॥ ७ ॥

गौतमोऽपि स्वयं तत्र वरुणार्थे तपश्शुभम् ॥ चकार चैव षण्मासं प्राणायामपरायणः ॥ ६ ॥

ततश्च वरुणस्तस्मै वरं दातुं समागताः ॥ प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूहि ददामि च वचोऽब्रवीत् ॥९॥

ततश्च गौतमस्तं वै वृष्टिं च प्रार्थयत्तदा ॥ ततस्स वरुणस्तं वै प्रत्युवाच मुनिं द्विजाः ॥ १० ॥

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ऋषियो मैं पापों का नाश करनेवाली कथा कहता हूँ, जैसा कि मैंने अपने श्रेष्ठ गुरु व्यासजी से सुना है आपलोग सुनिये - पूर्वकाल में प्रसिद्ध गौतम नामक श्रेष्ठ ऋषि थे, उनकी परम धार्मिक अहल्या नामकी पत्नी थी दक्षिण दिशा में जो ब्रह्मगिरि नामक पर्वत है, वहाँ उन्होंने दस हजार वर्षतक तप किया हे सुव्रतो! किसी समय वहाँ पर सौ वर्ष तक भयानक अनावृष्टि हुई, जिससे सभी लोग संकट में पड़ गये। पृथ्वीतल पर एक भी हरा पत्ता नहीं दिखायी पड़ता था, तब फिर प्राणियों को जिलानेवाला पानी कहाँ से दिखायी दे सकता था उस समय वे मुनिगण, मनुष्य, पशु, पक्षी और मृग उस स्थान को छोड़कर दसों दिशाओं में चले गये हे विप्रो! तब उस अनावृष्टि को देखकर कुछ ऋषि प्राणायाम में तत्पर होकर ध्यानपूर्वक उस भयंकर काल को बिताने लगे। महर्षि गौतम ने स्वयं भी वरुणदेवता को प्रसन्न करनेके लिये प्राणायामपरायण होकर छः महीने तक उस स्थान पर उत्तम तप किया उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए वरुणदेव उन्हें वर देनेके लिये आये और यह वचन बोले- मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हें वर दूँगा तब गौतम ऋषि ने उनसे वर्षा के लिये प्रार्थना की। हे द्विजो! इसपर उन वरुण ने मुनिसे कहा-

॥ वरुण उवाच ॥

देवाज्ञां च समुल्लंघ्य कथं कुर्यामहं च ताम् ॥ अन्यत्प्रार्थय सुज्ञोऽसि यदहं करवाणि ते ॥ ११ ॥

वरुण बोले- हे महर्षे! मैं दैव की आज्ञा का उल्लंघनकर किस प्रकार वृष्टि करूँ ? आप तो बुद्धिमान् हैं, अतः कोई अन्य प्रार्थना कीजिये, जिसे मैं आपके लिये प्रदान कर सकूँ

॥ सूत उवाच ॥

इत्येतद्वचनं तस्य वरुणस्य महात्मनः ॥ परोपकारी तच्छुत्वा गोतमो वाक्यमब्रवीत ॥ १२ ॥

सूतजी बोले - उन महात्मा वरुण का यह वचन सुनकर परोपकार करनेवाले महर्षि गौतम ने यह वाक्य कहा-

॥ गौतम उवाच ॥

यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वरो मम ॥ यदहं प्रार्थयाम्यद्य कर्तव्यं हि त्वया तथा ॥ १३ ॥

यतस्त्वं जलराशीशस्तस्माद्देयं जलं मम ॥ अक्षयं सर्वदेवेश दिव्यं नित्यफलप्रदम् ॥ १४ ॥

गौतम बोले- हे देवेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो मैं आज जो प्रार्थना करता हूँ, उसे पूर्ण कीजिये। चूँकि आप जलराशि के स्वामी हैं, इसलिये हे सर्वदेवेश मुझे अक्षय, दिव्य तथा नित्य फल प्रदान करनेवाला जल दीजिये।

॥ सूत उवाच ॥

इति संप्रार्थितस्तेन वरुणो गौतमेन वै ॥ उवाच वचनं तस्मै गर्तश्च क्रियतां त्वया ॥ १५ ॥

इत्युक्ते च कृतस्तेन गर्त्तो हस्तप्रमाणतः ॥ जलेन पूरितस्तेन दिव्येन वरुणेन सः ॥ १६ ॥

अथोवाच मुनिं देवो वरुणो हि जलाधिपः ॥ गौतमं मुनिशार्दूलं परोपकृतिशालिनम् ॥ १७ ॥

सूतजी बोले- उन गौतम के इस प्रकार प्रार्थना करने पर वरुण ने उनसे कहा-आप एक गड्ढा खोदिये। उनके ऐसा कहने पर गौतम ने एक हाथ का गड्ढा खोदा, तब वरुण ने उस गड्ढे को दिव्य जल से भर दिया। इसके बाद जल के स्वामी वरुणदेव ने परोपकारी तथा मुनियों में श्रेष्ठ गौतम ऋषि से कहा- 

॥ वरुण उवाच ॥

अक्षय्यं च जलं तेऽस्तु तीर्थभूतं महामुने ॥ तव नाम्ना च विख्यातं क्षितावेतद्भविष्यति ॥ १८ ॥ ।

अत्र दत्तं हुतं तप्तं सुराणां यजनं कृतम् ॥ पितॄणां च कृतं श्राद्धं सर्वमेवाक्षयं भवेत्॥१९॥

वरुण बोले- हे महामुने! यह जल आपके लिये अक्षय एवं तीर्थस्वरूप होगा और पृथ्वी पर आपके नाम से प्रसिद्ध होगा। इस स्थान पर दान, होम, तप, देवताओं के लिये किया गया यज्ञ-पूजन तथा पितरों के लिये किया गया श्राद्ध - यह सब अक्षय होगा।

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तांतर्द्दधे देवस्स्तुतस्तेन महर्षिणा॥ गौतमोऽपि सुखं प्राप कृत्वान्योपकृतिं मुनिः ॥ २० ॥

मद्दत्तो ह्याश्रयः पुंसां महत्त्वायोपजायते ॥ महांतस्तत्स्वरूपं च पश्यंति नेतरेऽशुभाः॥२१॥

यादृङ्नरं च सेवेत तादृशं फलमश्नुते॥ महतस्सेवयोच्च त्वं क्षुद्रस्य क्षुद्रतां तथा ॥२२॥

सिंहस्य मंदिरे सेवा मुक्ताफलकरी मता ॥ शृगालमंदिरे सेवा त्वस्थिलाभकरी स्मृता॥२३॥

उत्तमानां स्वभावोयं परदुःखासहिष्णुता ॥ स्वयं दुखं च संप्राप्तं मन्यतेन्यस्य वार्यते॥ २४ ॥

वृक्षाश्च हाटकं चैव चंदनं चेक्षुकस्तथा ॥ एते भुवि परार्थे च दक्षा एवं न केचन ॥२५॥

दयालुरमदस्पर्श उपकारी जितेन्द्रियः ॥ एतैश्च पुण्यस्तम्भैस्तु चतुर्भिर्धार्य्यते मही ॥२६॥

सूतजी बोले- ऐसा कहकर उन महर्षि से स्तुत होकर वरुणदेव अन्तर्धान हो गये और महर्षि गौतम ने भी दूसरों का उपकार कर सुख प्राप्त किया। बड़े लोगों का आश्रय मनुष्यों के गौरव का हेतु होता है, इसलिये महापुरुष ही उनके स्वरूप को देख पाते हैं, नीच लोग नहीं। मनुष्य जिस प्रकार के पुरुष का सेवन करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है, बड़ों की सेवासे बड़प्पन तथा छोटों की सेवा से लघुता प्राप्त होती है। सिंह की गुफा के पास रहना गजमुक्ता की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है और सियार की माँद के पास रहना अस्थिलाभ करानेवाला कहा गया है। सज्जन पुरुषों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे दूसरों का दुःख सह नहीं सकते। वे स्वयं अपने दुःख सह लेते हैं, किंतु दूसरों के दुःख को दूर करते हैं। वृक्ष, सोना, चन्दन और ईख - ये पृथ्वी पर दूसरों के उपकार में कुशल होते हैं, ऐसे अन्य कोई नहीं हैं। दयालु, अभिमानरहित, उपकारी एवं जितेन्द्रिय इन चार पुण्यस्तम्भों ने पृथ्वी को धारण किया है।

ततश्च गौतमस्तत्र जलं प्राप्य सुदुर्लभम् ॥ नित्यनैमित्तिकं कर्म चकार विधिवत्तदा॥२७॥

ततो व्रीहीन्यवांश्चैव नीवारानप्यनेकधा॥ वापयामास तत्रैव हवनार्थं मुनीश्वरः॥२८॥

धान्यानि विविधानीह वृक्षाश्च विविधास्तथा ॥ पुष्पाणि च फलान्येव ह्यासंस्तत्रायनेकशः ॥२९॥

तच्छुत्वा ऋषयश्चान्ये तत्राया तास्सहस्रशः ॥ पशवः पक्षिणश्चान्ये जीवाश्च बहवोऽगमन् ॥३०॥

तद्वनं सुन्दरं ह्यासीत्पृथिव्यां मंडले परम् ॥ तदक्षयकरायोगादनावृष्टिर्न दुःखदा ॥ ३१ ॥

ऋषयोऽपि वने तत्र शुभकर्मपरायणाः ॥ वासं चक्रुरनेके च शिष्यभार्य्यासुतान्विताः॥३२॥

धान्या नि वापयामासुः कालक्रमणहेतवे॥ आनंदस्तद्वने ह्यासीत्प्रभावाद्गौतमस्य च ॥ ३३ ॥

हे महर्षियो! तदनन्तर गौतम ने अत्यन्त दुर्लभ जल प्राप्तकर विधिपूर्वक नित्य- नैमित्तिक कर्म सम्पन्न कियेतत्पश्चात् मुनीश्वर ने वहाँ पर हवन के लिये व्रीहि, यव, नीवार आदि अनेक प्रकारके धान्यों को बोवाया। इस प्रकार विविध धान्य, अनेक प्रकार के वृक्ष, भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्प एवं फल आदि भी वहाँ उत्पन्न हो गयेयह सुनकर वहाँ अन्य हजारों ऋषि भी आ गये। अनेक पशु- पक्षी एवं बहुत-से जीव भी पहुँच गये इस प्रकार पृथ्वीमण्डल पर वह वन अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होने लगा, जलके अक्षय होने के कारण वहाँ दुःख देने वाली अनावृष्टि नहीं रह गयी उस वन में अनेक ऋषिलोग भी उत्तम कर्मों में तत्पर होकर शिष्य, भार्या तथा पुत्रादि के साथ वहाँ निवास करने लगे उन्होंने अपना जीवन बिताने के लिये धान्यों का वपन किया। इस प्रकार महर्षि गौतम के प्रभाव से उस वन में पूर्ण आनन्द व्याप्त हो गया

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसं हितायां त्र्यंबकेश्वरमाहात्म्ये गौतमप्रभाववर्णनं नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥


शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_२५

मुनियों का महर्षि गौतम के प्रति कपटपूर्ण व्यवहार

॥ सूत उवाच ॥

कदाचिद्गौतमेनैव जलार्थं प्रेषिता निजाः ॥ शिष्यास्तत्र गता भक्त्या कमंडलुकरा द्विजाः ॥१॥

शिष्याञ्जलसमीपे तु गतान्दृष्ट्वा न्यषेधयन् ॥ जलार्थमगतांस्तत्र चर्षिपत्न्योप्यनेकशः ॥ २ ॥

ऋषिपत्न्यो वयं पूर्वं ग्रहीष्यामो विदूरतः ॥ पश्चाच्चैव जलं ग्राह्यमित्येवं पर्यभर्त्सयन्॥३॥

परावृत्य तदा तैश्च ऋषिपत्न्यै निवेदितम् ॥ सा चापि तान्समादाय समाश्वास्य च तैः स्वयम्॥ ४ ॥

जलं नीत्वा ददौ तस्मै गौतमाय तपस्विनी ॥ नित्यं निर्वाहयामास जलेन ऋषिसत्तमः ॥५॥

ताश्चैवमृषिपत्न्यस्तु क्रुद्धास्तां पर्यभर्त्सयन् ॥ परावृत्य गतास्सर्वास्तूटजान्कुटिलाशयाः ॥ ६ ॥

स्वाम्यग्रे विपरीतं च तद्वृत्तं निखिलं ततः॥ दुष्टाशयाभिः स्त्रीभिश्च ताभिर्वै विनिवेदितम् ॥७॥

अथ तासां वचः श्रुत्वा भाविकर्मवशात्तदा ॥ गौतमाय च संकुद्धाश्चासंस्ते परमर्षयः ॥८॥

विघ्नार्थं गौतमस्यैव नानापूजोपहारकैः॥ गणेशं पूजयामासुस्संकुद्धास्ते कुबुद्धयः ॥ ९ ॥

आविर्बभूव च तदा प्रसन्नो हि गणेश्वरः ॥ उवाच वचनं तत्र भक्ताधीनः फलप्रदः ॥ १० ॥

सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो किसी समय गौतम ऋषि ने अपने शिष्यों को जल लाने हेतु भेजा और वे हाथ में कमण्डलु लेकर भक्तिपूर्वक वहाँ पहुँचे। उस समय जल लेने के लिये आयी हुई ऋषिपनियन जल के समीप में गये उन गौतमशिष्यों को देखकर उन्हें जल लेने से रोका। पहले हम ऋषिपत्नियाँ जल ग्रहण करेंगी, इसके बाद तुमलोग दूर रहकर जल ग्रहण करना ऐसा कहकर उन्होंने धमकाया। तब वहाँ से लौटकर उन शिष्यों ने यह बात ऋषिपत्नी से कही। इसके बाद तपस्विनी गौतमपत्नी उनको धीरज देकर उन शिष्यों को साथ लेकर स्वयं वहाँ गयीं और जल लाकर उन गौतम को दिया। तब उन ऋषिवर ने उस जल से अपना नित्यकर्म सम्पन्न किया। इधर, कुटिल विचारवाली उन सभी ऋषिपनियों ने कुपित होकर महर्षिपत्नी को फटकारा और वहाँ से लौटकर अपनी-अपनी पर्णशालाओं में गयीं। इसके बाद दुष्ट स्वभाववाली उन स्त्रियोंने अपने- अपने पतियों से उलटे सीधे वह सारा समाचार निवेदन किया। तब उनकी बात सुनकर भवितव्यतावश वे महर्षिगण गौतमके ऊपर क्रुद्ध हो गये। इसके बाद क्रोधित हुए उन दुर्बुद्धि ऋषियों ने गौतम के तप में विघ्न करने के लिये अनेक प्रकार के पूजन एवं उपहारोंद्वारा गणेशजी की आराधना की। तदनन्तर भक्त के अधीन रहनेवाले तथा अभीष्ट फल देनेवाले गणेशजी प्रसन्न होकर वहाँ प्रकट हो गये और यह वचन कहने लगे-

॥ गणेश उवाच ॥

प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूत यूयं किं करवाण्यहम् ॥ तदीयं तद्वचः श्रुत्वा ऋषयस्तेऽबुवंस्तदा ॥ ११ ॥

गणेशजी बोले - हे महर्षियो! मैं प्रसन्न हूँ, आपलोग वर माँगिये, मैं आपलोगों का कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ? तब उनकी बात सुनकर उन महर्षियों ने कहा-

॥ ऋषय ऊचुः ॥

त्वया यदि वरो देयो गौतमस्स्वाश्रमाद्बहिः ॥ निष्कास्यं नो ऋषिभिः परिभर्त्स्य तथा कुरु ॥ १२ ॥

ऋषिगण बोले- यदि आप वर देना चाहते हैं, तो हम ऋषियों से धिक्कार दिलाकर गौतम को इनके आश्रम से बाहर निकलवा दें, इस प्रकार हमलोगों का यह कार्य पूरा कर दें

॥ सूत उवाच ॥

स एवं प्रार्थितस्तैस्तु विहस्य वचनं पुनः ॥ प्रोवाचेभमुखः प्रीत्या बोधयंस्तान्सतां गतिः ॥ १३ ॥

सूतजी बोले- ऋषियोंद्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर सज्जनों को गति प्रदान करनेवाले गजानन ने प्रेमपूर्वक उन्हें समझाते हुए हँसकर पुनः यह वचन कहा-

॥ गणेश उवाच ॥

श्रूयतामृषयस्सर्वे युक्तं न क्रियतेऽधुना ॥ अपराधं विना तस्मै क्रुध्यतां हानिरेव च ॥ १४ ॥

उपस्कृतं पुरा यैस्तु तेभ्यो दुःखं हितं न हि ॥ यदा च दीयते दुःखं तदा नाशो भवेदिह ॥ १५ ॥

ईदृशं च तपः कृत्वा साध्यते फलमुत्तमम् ॥ शुभं फलं स्वयं हित्वा साध्यते नाहितं पुनः ॥ १६ ॥

गणेशजी बोले- हे समस्त ऋषियो सुनिये, आपलोग इस समय उचित नहीं कर रहे हैं, बिना अपराध के उनपर क्रोध करनेवाले आपलोगों की हानि ही होगी। जिन्होंने पूर्व में आपलोगों का उपकार किया है, उन्हें दुःख देना हितकारी नहीं है और यदि उनको दुःख दिया जायगा, तो इससे आपलोगों का यहीं विनाश होगा इस प्रकार का तपकर उत्तम फलका साधन करना चाहिये, स्वयं ही शुभफल का परित्याग करके अहितकारक फल को नहीं ग्रहण किया जाता

॥ सूत उवाच ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा तस्य ते मुनिसत्तमाः ॥ बुद्धिमोहं तदा प्राप्ता इदमेव वचोऽब्रुवन् ॥ १७ ॥

सूतजी बोले- तब उनकी यह बात सुनकर बुद्धिमोह को प्राप्त हुए, उन ऋषिवरों ने यह वचन कहा-

॥ ऋषय ऊचुः ॥

कर्तव्यं हि त्वया स्वामिन्निदमेव न चान्यथा ॥ इत्युक्तस्तु तदा देवो गणेशो वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥

ऋषि बोले- हे स्वामिन्! आपको तो यही करना है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। तब उनके ऐसा कहनेपर प्रभु गणेशजीने यह वचन कहा-

॥ गणेश उवाच ॥

असाधुस्साधुतां चैव साधुश्चासाधुतां तथा ॥ कदाचिदपि नाप्नोति ब्रह्मोक्तमिति निश्चितम् ॥ १९ ॥

यदा च भवतां दुःखं जातं चानशनात्पुरा ॥ तदा सुखं प्रदत्तं वै गौतमेन महर्षिणा ॥ २० ॥

इदानीं वै भवद्भिश्च तस्मै दुःखं प्रदीयते ॥ नेतद्युक्ततमं लोके सर्वथा सुविचार्यताम् ॥२१॥

स्त्रीबलान्मोहिता यूयं न मे वाक्यं करिष्यथ ॥ एतद्धिततमं तस्य भविष्यति न संशयः ॥२२॥

पुनश्चायमृषिश्रेष्ठो दास्यते वस्सुखं ध्रुवम् ॥ तारणं न च युक्तं स्याद्वरमन्यं वृणीत वै ॥ २३ ॥

गणेशजी बोले- ब्रह्मदेव ने ऐसा कहा है कि नीच पुरुष कभी भी सज्जन नहीं हो सकता तथा वैसे ही सज्जन पुरुष कभी नीच नहीं हो सकता - यह निश्चित है। पहले जब भोजन के बिना आपलोगों को दुःख प्राप्त हुआ, तब महर्षि गौतम ने आपलोगों को सुख प्रदान किया था। किंतु इस समय आपलोग उन्हें दुःख दे रहे हैं। यह तो लोक में किसी प्रकार भी उचित नहीं है आपलोग भलीभांति विचार करें। यदि आपलोग अपनी- अपनी स्त्री के वशीभूत होकर मेरी बात नहीं मानेंगे, तो यह भी उनके लिये परम हितकर ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है। अभी भी ये ऋषिवर आपलोगों को निश्चित रूप से सुख देंगे, अतः उनके साथ छल करना उचित नहीं है, आप लोग दूसरा वरदान माँगिये

॥ सूत उवाच ॥

इत्येवं वचनं तेन गणेशेन महात्मना ॥ यद्यप्युक्तमृषिभ्यश्च तदप्येते न मेनिरे ॥ २४ ॥

भक्ताधीनतया सोथ शिवपुत्रोब्रवीत्तदा ॥ उदासीनेन मनसा तानृषीन्दुष्टशेमुषीन् ॥ २५ ॥

सूतजी बोले- हे महर्षियो! यद्यपि महात्मा गणेश ने उन ऋषियों को इस प्रकार से बहुत समझाया, किंतु ऋषियों ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद भक्तों के अधीन रहने के कारण उन शिवपुत्र ने उन दुष्टबुद्धि ऋषियों से उदासीन मन से कहा-

॥ गणेश उवाच ॥

भवद्भिः प्रार्थ्यते यच्च करिष्येऽहं तथा खलु ॥ पश्चाद्भावि भवेदेव इत्युक्त्वांतर्दधे पुनः ॥ २६ ॥

गौतमस्स न जानाति मुनीनां वै दुराशयम् ॥ आनन्दमनसा नित्यं पत्न्या कर्म चकार तत् ॥ २७ ॥

तदन्तरे च यज्जातं चरितं वरयोगतः ॥ तद्दुष्टर्षिप्रभावात्तु श्रूयतां तन्मुनीश्वराः ॥ २८ ॥

गौतमस्य च केदारे तत्रासन्व्रीहयो यवाः ॥ गणेशस्तत्र गौर्भूत्वा जगाम किल दुर्बला ॥२९॥

कंपमाना च सा गत्वा तत्र तद्वरयोगतः ॥ व्रीहीन्संभक्षयामास यवांश्च मुनिसत्तमाः ॥३०॥

एतस्मिन्नन्तरे दैवाद्गौतमस्तत्र चागतः ॥ स दयालुस्तृणस्तंम्बैर्वारयामास तां तदा ॥३१॥

तृणस्तंबेन सा स्पृष्टा पपात पृथिवीतले ॥ मृता च तत्क्षणादेव तदृषेः पश्यतस्तदा ॥३२ ॥

ऋषयश्छन्नरूपास्ते ऋषिपत्न्यस्तथाशुभाः ॥ ऊचुस्तत्र तदा सर्वे किं कृतं गौतमेन च ॥ ३३ ॥

गौतमोऽपि तथाहल्यामाहूयासीत्सुविस्मितः ॥ उवाच दुःखतो विप्रा दूयमानेन चेतसा ॥३४॥

गणेशजी बोले- आपलोग जो प्रार्थना कर रहे हैं, वैसा ही करूंगा, अब जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा ऐसा कहकर वे अन्तर्धान हो गये। उन गौतमजी को दुष्ट ऋषियों के अभिप्राय का ज्ञान नहीं हुआ और वे प्रसन्न मन से निरन्तर अपनी स्त्री के साथ नित्यकर्म करते रहे। हे मुनीश्वरो ! इसके पश्चात् उस वरदान के कारण उन दुष्ट ऋषियों के प्रभावसे जो घटना घटी, उसे सुनिये। महर्षि गौतम की क्यारी में धान्य एवं यव बोया गया था, गणेशजी अत्यन्त दुर्बल गौ का रूप धारणकर वहाँ चले गये। हे मुनिसत्तमो ! उस वर के कारण काँपती हुई वह गाय यव तथा धान चरने लगी। इसी बीच दैवयोग से महर्षि गौतम भी वहीं पहुँच गये और वे दयालु उस गाय को तिनकोंसे हटाने लगे। तब उन तिनकों के स्पर्शमात्र से गाय पृथ्वीपर गिरी और उसी क्षण उन ऋषि के देखते-देखते मर गयी। तब कपट से गुप्तरूप धारण करनेवाले ऋषि एवं दुष्ट ऋषिपत्नियाँ सभी कहने लगे कि गौतमने क्या कर डाला। हे विप्रो! आश्चर्यमें पड़े हुए गौतम भी अहल्या को बुलाकर व्यथित मन से दुःखपूर्वक कहा-

॥ गौतम उवाच ॥

किं जातं च कथं देवि कुपितः परमेश्वरः ॥ किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं हत्या च समुपस्थिता ॥ ३५॥

गौतम बोले- हे देवि यह क्या हो गया? कैसे हुआ, क्या परमेश्वर कुपित हो गये ? अब मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ? मुझे गोवध का पाप लग गया

॥ सूत उवाच ॥

एतस्मिन्नन्तरे विप्रो गौतमं पर्यभर्त्सयन् ॥ विप्रपत्न्यस्तथाऽहल्यां दुर्वचोभिर्व्यथां ददुः ॥ ३६ ॥

दुर्बुद्धयश्च तच्छिष्यास्सुतास्तेषां तथैव च ॥ गौतम परिभर्त्स्यैव प्रत्यूचुर्धिग्वचो मुहुः ॥३७॥

सूतजी बोले- इसी बीच वहाँ के ब्राह्मण गौतम को तथा ब्राह्मणियों अहल्याको धिक्कारने लगीं और कटु वचनों से उन्हें कष्ट देने लगीं। दुष्ट बुद्धिवाले उनके शिष्य तथा पुत्र भी गौतम की निन्दा करके बार-बार उन्हें धिक्कारने लगे

॥ ऋषय ऊचुः ॥

मुखं न दर्शनीयं ते गम्यतां गम्यतामिति ॥ दृष्ट्वा गोघ्नमुखं सद्यस्सचैलं स्नानमाचरेत् ॥ ३८ ॥

यावदाश्रममध्ये त्वं तावदेव हविर्भुजः ॥ पितरश्च न गृह्णंति ह्यस्मद्दत्तं हि किञ्चन ॥३९॥

तस्माद्गच्छान्यतस्त्वं च परिवारसमन्वितः ॥ विलम्बं कुरु नैव त्वं धेनुहन्पापकारक ॥४०॥

ऋषि बोले- हे गौतम! तुम्हारा मुँह देखनेयोग्य नहीं है, चले जाओ, चले जाओ; गोहत्यारे का मुख देखकर सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये जबतक तुम इस आश्रम में रहोगे, तबतक देवता तथा पितर हमलोगों के द्वारा दिया गया कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिये हे गोधातक। हे पापकारक! तुम परिवारसहित अन्यत्र चले जाओ, तुम विलम्ब मत करो

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्त्वा ते च तं सर्वे पाषाणैस्समताडयन् ॥ व्यथां ददुरतीवास्मै त्वहल्यां च दुरुक्तिभिः ॥४१॥

ताडितो भर्त्सितो दुष्टैर्गौतमो गिरमब्रवीत् ॥ इतो गच्छामि मुनयो ह्यन्यत्र निवसाम्यहम् ॥४२॥

इत्युक्त्वा गौतमस्तस्मात्स्थानाच्च निर्गतस्तदा॥ गत्वा क्रोशं तदा चक्रे ह्याश्रमं तदनुज्ञया॥४३॥

यावच्चैवाभिशापो वै तावत्कार्य्यं न किंचन॥ न कर्मण्यधिकारोऽस्ति दैवे पित्र्येऽथ वैदिके ॥४४॥

मासार्धं च ततो नीत्वा मुनीन्संप्रार्थयत्तदा ॥ गौतमो मुनिवर्य्यस्स तेन दुःखेन दुखितः ॥४५॥

सूतजी बोले- ऐसा कहकर वे सभी गौतम को पत्थरों से मारने लगे और गौतमपत्नी को भी दुर्वचनों से बहुत अधिक दुःख देने लगे। उन दुष्टों के द्वारा पीटे तथा अपमानित किये गये महर्षि गौतम ने यह वचन कहा- हे मुनियो! मैं यहाँसे चला जाता हूँ और दूसरी जगह निवास करूँगा। तब ऐसा कहकर गौतम उस स्थान से चले गये और एक कोस की दूरीपर जाकर उनकी अनुमति से आश्रम बना लिया। वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणोंने कहा- जब तक गोहत्या का पाप है, तब तक तुम्हें कुछ नहीं करना चाहिये, वेदानुमोदित देव अथवा पितृकार्य में तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार आधे महीने का समय व्यतीत करके उस दुःखसे व्याकुल हुए महर्षि गौतम ऋषियों से प्रार्थना करने लगे

॥ गौतम उवाच ॥

अनुकंप्यो भवद्भिश्च कथ्यतां क्रियते मया॥ यथा मदीयं पापं च गच्छत्विति निवेद्यताम् ॥४६॥

गौतमजी बोले- आपलोग कृपा कीजिये और बताइये कि मैं क्या करूँ ? जिस तरह मेरा पाप दूर हो सके, वह उपाय आपलोग बतायें

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तास्ते तदा विप्रा नोचुश्चैव परस्परम् ॥ अत्यंतं सेवया पृष्टा मिलिता ह्येकतस्स्थिताः ॥४७॥

गौतमो दूरतः स्थित्वा नत्वा तानृषिसत्तमान्॥ पप्रच्छ विनयाविष्टः किं कार्यं हि मयाधुना ॥४८॥

इत्युक्ते मुनिना तेन गौतमेन महात्मना ॥ मिलितास्सकलास्ते वै मुनयो वाक्यमब्रुवन् ॥ ४९ ॥

सूतजी बोले- उनके इस प्रकार पूछनेपर भी वे ऋषिगण कुछ न बोले। तब वे सब जहाँ स्थित थे, वहाँ जाकर गौतम अत्यन्त विनयपूर्वक सेवाभाव से पूछने लगे। गौतम ने दूर रहकर उन श्रेष्ठ ऋषियों को प्रणाम करके विनययुक्त होकर पूछा क्या करना चाहिये ? कि अब मुझे उन महात्मा गौतम के इस प्रकार पूछने पर उन सभी मुनियों ने परस्पर मिलकर यह वचन कहा-

॥ ऋषय ऊचुः ॥

निष्कृतिं हि विना शुद्धिर्जायते न कदाचन ॥ तस्मात्त्वं देहशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं समाचर ॥ ५० ॥

त्रिवारं पृथिवीं सर्वां क्रम पापं प्रकाशयन् ॥ पुनरागत्य चात्रैव चर मासव्रतं तथा ॥ ५१ ॥

शतमेकोत्तरं चैव ब्रह्मणोऽस्य गिरेस्तथा ॥ प्रक्रमणं विधायैवं शुद्धिस्ते च भविष्यति ॥ ५२ ॥

अथवा त्वं समानीय गंगास्नानं समाचर ॥ पार्थिवानां तथा कोटिं कृत्वा देवं निषेवय ॥ ५३ ॥

गंगायां च ततः स्नात्वा पुनश्चैव भविष्यति ॥ पुरा दश तथा चैकं गिरेस्त्वं क्रमणं कुरु ॥ ५४ ॥

शत कुंभैस्तथा स्नात्वा पार्थिवं निष्कृतिर्भवेत् ॥ इति तैर्षिभिः प्रोक्तस्तथेत्योमिति तद्वचः ॥ ५५ ॥

ऋषि बोले- बिना प्रायश्चित किये कभी भी शुद्धि नहीं होती है, इसलिये तुम शरीरशुद्धि के निमित्त प्रायश्चित्त करो। तुम अपने पापको प्रकाशित करते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करो, फिर यहीं आकर मासव्रत का अनुष्ठान करो। इसके बाद एक सौ एक बार इस ब्रह्मगिरिकी परिक्रमा करनेसे तुम्हारी शुद्धि होगी। अथवा तुम यहीं गंगा को लाकर स्नान करो और एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर भगवान् शिव का पूजन करो। उसके बाद गंगामें स्नान करके तुम पवित्र हो जाओगे। सर्वप्रथम ग्यारह बार इस पर्वतकी परिक्रमा करो, तत्पश्चात् सौ घड़े गंगाजलसे स्नानकर पार्थिवपूजन करो, तब तुम्हारा प्रायश्चित्त (पूर्ण) होगा। इस प्रकार उन ऋषियों के कहने पर उन्होंने 'हाँ ठीक है'- ऐसा कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली

पार्थिवानां तथा पूजां गिरेः प्रक्रमणं तथा ॥ करिष्यामि मुनिश्रेष्ठा आज्ञया श्रीमतामिह ॥ ५६ ॥

इत्युक्त्वा सर्षिवर्यश्च कृत्वा प्रक्रमणं गिरेः ॥ पूजयामास निर्माय पार्थिवान्मुनिसत्तमः ॥ ५७ ॥

अहल्या च ततस्साध्वी तच्च सर्वं चकार सा ॥ शिष्याश्च प्रतिशिष्याश्च चक्रुस्सेवां तयोस्तदा ॥ ५८ ॥

गौतम बोले- हे मुनिश्रेष्ठो! मैं आप श्रीमान् लोगों की आज्ञा से पार्थिव पूजन तथा पर्वत की परिक्रमा करूँगा, ऐसा कहकर उन मुनिश्रेष्ठ महर्षि ने पर्वत की परिक्रमा करके पार्थिव लिंगों को बनाकर उनका पूजन किया। उन साध्वी अहल्याने भी वही सब किया। उस समय उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों ने भी उन दोनोंकी सेवा का कार्य सम्पादित किया

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां गौतमव्यवस्थावर्णनं नाम पंचविंशोऽध्यायः ॥ २५ ।


शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_२६

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा गौतमी गंगा के प्रादुर्भाव का आख्यान

॥ सूत उवाच ॥

एवं कृते तु ऋषिणा सस्त्रीकेन द्विजाश्शिवः ॥ आविर्बभूव स शिवः प्रसन्नस्सगणस्तदा ॥१॥

अथ प्रसन्नस्स शिवो वरं ब्रूहि महामुने ॥ प्रसन्नोऽहं सुभक्त्या त इत्युवाच कृपानिधिः ॥२॥

तदा तत्सुंदरं रूपं दृष्ट्वा शंभोर्महात्मनः ॥ प्रणम्य शंकरं भक्त्या स्तुतिं चक्रे मुदान्वितः ॥ ३ ॥

स्तुत्वा बहु प्रणम्येशं बद्धाञ्जलिपुटः स्थितः ॥ निष्पापं कुरु मां देवाब्रवीदिति स गौतमः ॥४॥

सूतजी बोले- हे द्विजो ! उस समय स्त्रीसहित गौतम के द्वारा इस प्रकार प्रायश्चित्त करने पर शिवजी प्रसन्न होकर पार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ प्रकट हो गये। इसके बाद प्रसन्न हुए कृपानिधि शिवजी ने कहा- हे महामुने! मैं आपकी उत्तम भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, आप वर माँगिये तब महात्मा शिव के उस सुन्दर रूप को देखकर शंकरजी को प्रणामकर प्रसन्न हो गौतम ऋषि उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे बहुत प्रकार से स्तुति करके एवं शिव को प्रणामकर हाथ जोड़कर महर्षि गौतम स्थित हो गये और कहने लगे हे देव! आप मुझे पापरहित करें

॥ सूत उवाच ॥

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य गौतमस्य महात्मनः ॥ सुप्रसन्नतरो भूत्वा शिवो वाक्यमुपाददे ॥५॥

सूतजी बोले- उन महात्मा गौतम का यह वचन सुनकर शिवजी ने अत्यन्त प्रसन्न हो यह वचन कहा-

॥ शिव उवाच ॥

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि निष्पापोऽसि सदा मुने ॥ एतैर्दुष्टैः किल त्वं च च्छलितोऽसि खिलात्मभिः ॥ ६ ॥

त्वदीयदर्शनाल्लोका निष्पापाश्च भवंति हि ॥ किं पुनस्त्वं सपापोऽसि मद्भक्तिनिरतस्सदा ॥ ७ ॥

उपद्रवस्त्वयि मुने यैः कृतस्तु दुरात्मभिः ॥ ते पापाश्च दुराचारा हत्यावंतस्त एव हि ॥८॥

एतेषां दर्शनादन्ये पापिष्ठाः संभवंतु च ॥ कृतघ्नाश्च तथा जाता नैतेषां निष्कृतिः क्वचित् ॥ ९ ॥

शिवजी बोले- हे मुने! आप सदा धन्य हैं, कृतकृत्य हैं तथा निष्पाप हैं, इन दुष्टात्मा पापी ऋषियों ने निश्चय ही आपके साथ छल किया है जब आपके दर्शनमात्र से लोग निष्पाप हो जाते हैं, तब मेरी भक्ति में निरत रहनेवाले आप किस प्रकार पापी हो सकते हैं? हे मुने! जिन दुष्टों ने आपके प्रति उपद्रव किया है, वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं। इनके दर्शन से दूसरे लोग पापी हो जायँगे, ये लोग कृतघ्न हैं, इनका कोई प्रायश्चित्त नहीं है

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्त्वा शंकरस्तस्मै तेषां दुश्चरितं तदा ॥ बहूवाच प्रभुर्विप्राः सत्कदोऽसत्सु दंडदः ॥ १० ॥

शर्वोक्तमिति स श्रुत्वा सुविस्मितमना ऋषिः ॥ सुप्रणम्य शिवं भक्त्या सांजलिः पुनरब्रवीत् ॥११॥

सूतजी बोले- हे विप्रो! ऐसा कहकर सज्जनों को सुख देनेवाले तथा असज्जनों को दण्ड देने वाले शिवजी ने उनसे ऋषियों के बहुतसे दुश्चरित्रों का वर्णन किया शिवजी की बात सुनकर महर्षि गौतम अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके पुनः कहा-

॥ गौतम उवाच ॥

ऋषिभिस्तैर्महेशान ह्युपकारः कृतो महान् ॥ यद्येवं न कृतं तैस्तु दर्शनं ते कुतो भवेत् ॥ १२ ॥

धन्यास्ते ऋषयो यैस्तु मह्यं शुभतरं कृतम् ॥ तद्दुराचरणादेव मम स्वार्थो महानभूत् ॥ १३ ॥

गौतम बोले- हे महेश्वर उन ऋषियों ने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है, यदि वे ऐसा न करते, तो आपका दर्शन कैसे होता? वे ऋषि धन्य हैं, जिन्होंने मेरा अत्यन्त कल्याण किया, उनके दुराचार के कारण ही मेरा बहुत बड़ा स्वार्थ सिद्ध हुआ है

॥ सूत उवाच ॥

इत्येवं तद्वचश्श्रुत्वा सुप्रसन्नो महेश्वरः॥ गौतमं प्रत्युवाचाशु कृपादृष्ट्या विलोक्य च ॥ १४ ॥

सूतजी बोले- उनकी यह बात सुनकर अति प्रसन्न हुए शिवजी ने कृपादृष्टि से गौतम की और देखकर शीघ्र ही उनसे कहा-

॥ शिव उवाच ॥

ऋषि धन्योसि विप्रेंद्र ऋषे श्रेष्ठतरोऽसि वै ॥ ज्ञात्वा मां सुप्रसन्नं हि वृणु त्वं वरमुत्तमम् ॥१५ ॥

शिवजी बोले- हे विप्रेन्द्र! आप धन्य हैं! आप सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं। मुझे परम प्रसन्न जानकर आप उत्तम वरदान माँगिये

॥ सूत उवाच ॥

गौतमोऽपि विचार्यैव लोके विश्रुतमित्युत॥ अन्यथा न भवेदेव तस्मादुक्तं समाचरेत्॥१६॥

निश्चित्यैवं मुनिश्रेष्ठो गौतमश्शिवभक्तिमान् ॥ सांजलिर्नतशीर्षो हि शंकरं वाक्यमब्रवीत् ॥ १७ ॥

सूतजी बोले - हे द्विजो! उसके बाद गौतम ने भी अपने मन में विचार किया कि अब मेरे पाप की प्रसिद्धि लोक में हो चुकी है, इसलिये वह जिस प्रकार झूठ न हो, उन ऋषियों की कही बात सत्य करनी चाहिये। ऐसा निश्चय करके शिवभक्त मुनिश्रेष्ठ गौतम ने हाथ जोड़कर सिर झुका करके शिवजी से यह वचन कहा-

॥ गौतम उवाच ॥

सत्यं नाथ ब्रवीषि त्वं तथापि पंचभिः कृतम् ॥ नान्यथा भवतीत्यत्र यज्जातं जायतां तु तत्॥१८॥

यदि प्रसन्नो देवेश गंगा च दीयतां मम॥ कुरु लोकोपकारं हि नमस्तेऽस्तु नमोऽस्तु ते ॥ १९ ॥

गौतम बोले- हे नाथ! आप सत्य कहते हैं, किंतु जैसा पंचों ने निर्णय दिया है, वह अन्यथा न हो। जैसा उन लोगों ने निर्णय दिया है, वही होने दीजिये। हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे गंगा प्रदान कीजिये और इस प्रकार लोक का उपकार कीजिये, आपको नमस्कार है, आपको बारंबार नमस्कार है

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्त्वा वचनं तस्य धृत्वा वै पादपंकजम् ॥ नमश्चकार देवेशं गौतमो लोककाम्यया ॥ २० ॥

ततस्तु शंकरो देवः पृथिव्याश्च दिवश्च सः ॥ सारं चैव समुद्धृत्य रक्षितं पूर्वमेव तत् । २१ ॥

विवाहे ब्रह्मणा दत्तमवशिष्टं च किंचन ॥ तत्तस्मै दत्तवाञ्च्छंभुर्मुनये भक्तवत्सलः ॥ २२ ॥

गंगाजलं तदा तत्र स्त्रीरूपमभवत्परम् ॥ तस्याश्चैव ऋषिश्रेष्ठः स्तुतिं कृत्वा नतिं व्यधात् ॥ २३ ॥

सूतजी बोले- ऐसा कहकर लोककल्याण की इच्छा से गौतम ने उनके चरणकमल पकड़कर देवेश को पुनः प्रणाम किया। उसके बाद पृथ्वी तथा स्वर्ग के सारभूत जिस जल को निकालकर पूर्व में रख लिया था और विवाहकाल में ब्रह्माजी के द्वारा दिया गया जो कुछ शेष जल बचा था, उसे भक्तवत्सल भगवान् शिव ने उन मुनि को प्रदान किया। उस समय वह गंगाजल परम सुन्दरी स्त्री के रूपमें परिणत हो गया। तत्पश्चात् ऋषिवर ने उस स्त्रीरूप जल की स्तुतिकर उसे प्रणाम किया

॥ गौतम उवाच ॥

धन्यासि कृतकृत्यासि पावितं भुवनं त्वया ॥ मां च पावय गंगे त्वं पततं निरये ध्रुवम् ॥ २४ ॥

गौतम बोले हे गंगे आप धन्य हैं, कृतकृत्य है, - आपने जगत्को पवित्र कर दिया है, अतएव निश्चय ही नरक में गिरते हुए मुझे भी आप पवित्र कीजिये

॥ सूत उवाच ॥

शंभुश्चापि तदोवाच सर्वेषां हितकृच्छृणु ॥ गंगे गौतममेनं त्वं पावयस्व मदाज्ञया ॥ २५ ॥

सूतजी बोले- तब सबका हित करनेवाले शिवजीने भी कहा- हे गंगे! सुनो, तुम मेरी आज्ञा से इन गौतम मुनि को पवित्र करो 

॥ सूत उवाच ॥

इति श्रुत्वा वचस्तस्य शंभोश्च गौतमस्य च ॥ उवाचैव शिवं गंगा शिवभक्तिर्हि पावनी ॥२६॥

तब उन शिव तथा गौतम के वचन को सुनकर भगवान् शिव की शक्ति परमपावनी गंगाजी ने शिवजी से कहा-

॥ गंगोवाच ॥

ऋषिं तु पावयित्वाहं परिवारयुतं प्रभो ॥ गमिष्यामि निजस्थानं वचस्सत्यं ब्रवीमि ह ॥ २७ ॥

गंगाजी बोली- हे प्रभो! मैं मुनि को परिवारसहित पवित्रकर अपने स्थान को जाऊँगी, मैं सत्य वचन कहती हूँ

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तो गंगया तत्र महेशो भक्तवत्सलः ॥ लोकोपकरणार्थाय पुनर्गगां वचोऽब्रवीत् ॥ २८ ॥

सूतजी बोले- जब गंगाजी ने ऐसा कहा, तब भक्तवत्सल शिवजी ने लोकोपकार के निमित्त गंगाजी से पुनः यह वचन कहा-

॥ शिव उवाच ॥

त्वया स्थातव्यमत्रैव व्रजेद्यावत्कलिर्युगः ॥ वैवस्वतो मनुर्देवि ह्यष्टाविंशत्तमो भवेत् ॥२९॥

शिवजी बोले- हे देवि! वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें कलियुग तक तुम यहीं निवास करो

॥ सूत उवाच ॥

इति श्रुत्वा वचस्तस्य स्वामिनश्शंकरस्य तत् ॥ प्रत्युवाच पुनर्गंगा पावनी सा सरिद्वरा ॥ ३० ॥

सूतजी बोले- उन स्वामी शिव का यह वचन सुनकर नदियों में श्रेष्ठ उन पावनी गंगा ने पुनः कहा-

॥ गंगोवाच ॥

माहात्म्यमधिकं चेत्स्यान्मम स्वामिन्महेश्वर ॥ सर्वेभ्यश्च तदा स्थास्ये धरायां त्रिपुरान्तकः ॥३१॥

किं चान्यच्च शृणु स्वामिन्वपुषा सुन्दरेण ह ॥ तिष्ठ त्वं मत्समीपे वै सगणसांबिकः प्रभो ॥३२॥

गंगाजी बोलीं- हे स्वामिन्! हे महेश्वर! हे त्रिपुरान्तक! यदि सबकी अपेक्षा मेरा माहात्म्य अधिक रहेगा, तभी मैं पृथ्वीपर निवास करूँगी। हे स्वामिन्! हे प्रभो! एक और बात सुनिये, आप अपने गणों एवं पार्वतीसहित अपने सुन्दर स्वरूप से मेरे समीप निवास कीजिये

॥ सूत उवाच ॥

एवं तस्या वचः श्रुत्वा शंकरो भक्तवत्सलः ॥ लोकोपकरणार्थाय पुनर्गंगां वचोब्रवीत् ॥३३॥

सूतजी बोले- उनका यह वचन सुनकर भक्तवत्सल शंकर ने लोकोपकार के लिये गंगाजी से पुनः यह वचन कहा-

॥ शिव उवाच ॥

धन्यासि श्रूयतां गंगे ह्यहं भिन्नस्त्वया न हि ॥ तथापि स्थीयते ह्यत्र स्थीयतां च त्वयापि हि ॥३४॥

शिवजी बोले- हे गंगे! तुम धन्य हो, सुनो! मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ, फिर भी मैं यहाँ निवास करता हूँ और तुम भी निवास करो

॥ सूत उवाच ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा स्वामिनः परमेशितुः ॥ प्रसन्नमानसा भूत्वा गंगा च प्रत्यपूजयत् ॥३५॥

एतस्मिन्नंतरे देवा ऋषयश्च पुरातनाः ॥ सुतार्थान्यप्यनेकानि क्षेत्राणि विविधानि च ॥ ३६ ॥

आगत्य गौतमं सर्वे गंगां च गिरिशं तथा ॥ जयजयेति भाषंतः पूजयामासुरादरात् ॥३७॥

ततस्ते निर्जरा सर्वे तेषां चक्रुः स्तुतिं मुदा ॥ करान् बद्ध्वा नतस्कंधा हरिब्रह्मादयस्तदा ॥३८॥।

गंगा प्रसन्ना तेभ्यश्च गिरिशश्चोचतुस्तदा॥ वरं ब्रूत सुरश्रेष्ठा दद्वो वः प्रियकाम्यया ॥३९॥

सूतजी बोले- इस प्रकार स्वामी सदाशिव की बात सुनकर गंगा ने प्रसन्नचित्त होकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। इसी बीच देवता, प्राचीन ऋषि, पितर, अनेक सुन्दर तीर्थ एवं विविध क्षेत्र- सभी ने वहाँ आकर गौतम, गंगा तथा गिरीश की जय जयकार करते हुए आदरपूर्वक उनका पूजन किया। इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि उन सभी देवताओं ने हाथ जोड़कर सिर झुका करके प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति की। उस समय उन देवताओं पर प्रसन्न हुई गंगाजी तथा शिवजी ने कहा- हे सुरश्रेष्ठो! आपलोग वर माँगिये। आपलोगों का हित करने की इच्छा से हम दोनों उसे प्रदान करेंगे

॥ देवा ऊचुः ॥

यदि प्रसन्नो देवेश प्रसन्ना त्वं सरिद्वरे ॥ स्थातव्यमत्र कृपया नः प्रियार्थं तथा नृणाम् ॥ ४० ॥

देवता बोले- हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और हे गंगे यदि आप भी प्रसन्न हैं, तो हमलोगों के तथा मनुष्यों के हित के लिये कृपापूर्वक यहीं निवास करें

॥ गंगोवाच ॥

यूयं सर्वप्रियार्थं च तिष्ठथात्र न किं पुनः ॥ गौतमं क्षालयित्वाहं गमिष्यामि यथागतम्॥४१॥

भवत्सु मे विशेषोत्र ज्ञेयश्चैव कथं सुराः ॥ तत्प्रमाणं कृतं चेत्स्यात्तदा तिष्ठाम्यसंशयम् ॥४२॥

गंगाजी बोलीं- हे देवताओ! तुमलोग स्वयं ही लोकोपकार के निमित्त यहाँ निवास क्यों नहीं करते, मैं तो गौतम को पवित्रकर जहाँ से आयी हूँ वहीं चली जाऊँगी। आप लोगों में मेरा वैशिष्ट्य किस प्रकार जाना जा सके यदि उसे प्रमाणित करो, तब मैं निश्चय ही यहाँ निवास कर सकती हूँ

॥ सर्वे ऊचुः ॥

सिंहराशौ यदा स्याद्वै गुरुस्सर्वसुहृत्तमः ॥ तदा वयं च सर्वे त्वागमिष्यामो न संशयः ॥ ४३ ॥

एकादश च वर्षाणि लोकानां पातकं त्विह ॥ क्षालितं यद्भवेदेवं मलिनास्स्मः सरिद्वरे ॥४४॥

तस्यैव क्षालनाय त्वायास्यामस्सर्वथा प्रिये ॥ त्वत्सकाशं महादेवि प्रोच्यते सत्यमादरात् ॥४५॥

अनुग्रहाय लोकानामस्माकं प्रियकाम्यया॥ स्थातव्यं शंकरेणापि त्वया चैव सरिद्वरे ॥ ४६ ॥

यावत्सिंहे गुरुश्चैव स्थास्यामस्तावदेव हि ॥ त्वयि स्नानं त्रिकालं च शंकरस्य च दर्शनम् ॥ ४७ ॥

कृत्वा स्वपापं निखिलं विमोक्ष्यामो न संशयः ॥ स्वदेशांश्च गमिष्यामो भवच्छासनतो वयम् ॥४८॥

सभी देवगण बोले- जब सबके परम सुहृद् बृहस्पति सिंहराशि पर स्थित रहेंगे, तब हम सभी लोग आपके समीप आयेंगे, इसमें संशय नहीं है। हे सरिद्वरे! इस लोक में ग्यारह वर्षपर्यन्त लोगों का जो पाप प्रक्षालित होगा, उससे जब हमलोग मलिन हो जायेंगे, तब हे प्रिये! उस पापको धोने के लिये हमलोग निश्चित रूप से आपके पास आयेंगे, हे महादेवि! हमलोग आदरपूर्वक सत्य कह रहे हैं। हे सरिद्वरे! लोकोंपर अनुग्रह करने तथा हमलोगों का हित करने के लिये आपको एवं शंकरजी को भी यहीं रहना चाहिये। जब तक बृहस्पति सिंहराशिपर रहेंगे, तब तक हमलोग भी यहीं निवास करेंगे और तीनों समय आप के जल में स्नान करके तथा शिवजी का दर्शन करके अपने सम्पूर्ण पापों से मुक्त होंगे और पुनः आपकी आज्ञा से अपने-अपने स्थान को चले जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है

॥ सूत उवाच ॥

इत्येवं प्रार्थितस्तैस्तु गौतमेन महर्षिणा ॥ स्थितोऽसौ शंकरः प्रीत्या स्थिता सा च सरिद्वरा ॥४९॥

सा गंगा गौतमी नाम्ना लिंगं त्र्यंबकमीरितम् ॥ ख्याता ख्यातं बभूवाथ महापातकनाशनम् ॥५०॥

तद्दिनं हि समारभ्य सिंहस्थे च बृहस्पतौ ॥ आयांति सर्वतीर्थानि क्षेत्राणि देवतानि च ॥ ५१ ॥

सरांसि पुष्करादीनि गंगाद्यास्सरितस्तथा ॥ वासुदेवादयो देवाः संति वै गोतमीतटे ॥ ५२ ॥

यावत्तत्र स्थितानीह तावत्तेषां फलं न हि ॥ स्वप्रदेशे समायातास्तर्ह्येतेषां फलं भवेत् ॥५३॥

ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यंबकं नाम विश्रुतम्॥ स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम् ॥ ५४ ॥

यः पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यंबकनामकम् ॥ पूजयेत्प्रणमेत्स्तुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५५ ॥

ज्योतिर्लिंगं त्र्यंबकं हि पूजितं गौतमेन ह ॥ सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम् ॥ ५६ ॥

इति वश्च समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं मुनीश्वराः ॥ किमन्यदिच्छथ श्रोतुं तद् ब्रूयां वो न संशयः ॥५७॥

सूतजी बोले - इस प्रकार महर्षि गौतम तथा उन देवताओं के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर वे शंकरजी प्रेमपूर्वक वहीं स्थित हो गये और वे गंगाजी भी स्थित हो गयीं। वहाँ पर वे गंगाजी गौतमी नाम से प्रसिद्ध हुई तथा वह शिवलिंग त्र्यम्बक नाम से विश्व में विख्यात हुआ, जो महापातक का भी नाश करनेवाला है। उस दिन से लेकर जब जब बृहस्पति सिंहराशि पर आते हैं, तब सभी देवता, तीर्थ तथा क्षेत्र यहाँ आते हैं। पुष्कर आदि समस्त सरोवर, गंगा आदि सभी नदियाँ एवं विष्णु आदि देवगण गौतमीतटपर निवास करते हैं। ये जब तक वहाँ रहते हैं, तब तक अपने स्थान पर उनके सेवन का फल प्राप्त नहीं होता और जब वे अपने- अपने निवासपर चले जाते हैं, तभी उनकी उपासना का फल प्राप्त होता है। यह त्र्यम्बक नाम से प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गौतमी के तटपर स्थित है और महान पाप का नाश करनेवाला है। जो इस त्र्यम्बकेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का भक्तिपूर्वक दर्शन, पूजन, प्रणाम एवं स्तवन करता है, वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। गौतम के द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग इस लोक में सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला तथा परलोक में उत्तम मुक्ति प्रदान करनेवाला है। हे मुनीश्वरो! जो आपलोगों ने मुझसे पूछा था, उसे मैंने कह दिया, अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं? उसे मैं कहूँगा, इसमें सन्देह नहीं है

इति श्री शिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायांत्र्यंबकेश्वरमाहात्म्यवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६॥


शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_२७

गौतमी गंगा एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्यवर्णन

॥ ऋषय ऊचुः ॥

गंगा च जलरूपेण कुतो जाता वद प्रभो ॥ तन्माहात्म्यं विशेषेण कुतो जात वद प्रभो ॥१॥

यैर्विप्रैर्गौतमायेव दुःखं दत्तं दुरात्मभिः ॥ तेषां किंच ततो जातमुच्यतां व्यास सद्गुरो ॥ २ ॥

ऋषिगण बोले- हे प्रभो! गंगा किस स्थान से जलरूप में प्रवाहित होकर प्रकट हुई? हे प्रभो! उनका माहात्म्य सबकी अपेक्षा अधिक क्यों हुआ? इसे बताइये। हे व्यासशिष्य! जिन दुष्ट ब्राह्मणों ने महर्षि गौतम को दुःख दिया, बाद में उन्हें क्या फल मिला, उसे कहिये ?

॥ सूत उवाच ॥

एवं संप्रार्थिता गंगा गौतमेन तदा स्वयम् ॥ ब्रह्मणश्च गिरेर्विप्रा द्रुतं तस्मादवातरत् ॥ ३ ॥

औदुंबरस्य शाखायास्तत्प्रवाहो विनिस्सृतः ॥ तत्र स्नानं मुदा चक्रे गौतमो विश्रुतो मुनिः ॥४॥

गौतमस्य च ये शिष्या अन्ये चैव महर्षयः ॥ समागताश्च ते तत्र स्नानं चक्रुर्मुदान्विताः ॥ ५ ॥

गंगाद्वारं च तन्नाम प्रसिद्धमभवत्तदा ॥ सर्वपापहरं रम्यं दर्शनान्मुनिसत्तमः ॥ ६ ॥

गौतमस्पर्द्धिनस्ते च ऋषयस्तत्र चागताः ॥ स्नानार्थं तांश्च सा दृष्ट्वा ह्यंतर्धानं गता द्रुतम् ॥७॥

मामेति गौतमस्तत्र व्याजहार वचो द्रुतम् ॥ मुहुर्मुहुः स्तुवन् गंगां सांजलिर्नतमस्तकः ॥ ८ ॥

सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! उस समय गौतम के द्वारा प्रार्थना करने पर स्वयं गंगा जी शीघ्र ही उस ब्रह्मगिरि से प्रकट हुई। गूलर वृक्ष की शाखा से उनकी धारा निकली, तब सुप्रसिद्ध मुनि गौतम ने आनन्द से उसमें स्नान किया। गौतम के जो शिष्य थे तथा अन्य आये हुए जो महर्षिगण थे, उन सभी ने वहाँ पर प्रसन्नतापूर्वक स्नान किया। तभी से उस स्थान का नाम गंगाद्वार प्रसिद्ध हो गया है मुनियो इस रमणीय क्षेत्रका दर्शन करनेसे सम्पूर्ण पापोंका अपहरण हो जाता है। उसके बाद महर्षि गौतम से द्वेष करने वाले से सभी ऋषि भी स्नान करने के लिये वहाँ आ गये, तब उन्हें देखकर वे गंगाजी शीघ्रता से अन्तर्धान हो गयीं। महर्षि गौतम ने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर गंगा की वारंवार स्तुति करते हुए शीघ्रता से कहा ऐसा मत कीजिये, ऐसा मत कीजिये।

॥ गौतम उवाच ॥

इमे च श्रीमदांधाश्च साधवो वाप्यसाधवः ॥ एतत्पुण्यप्रभावेण दर्शनं दीयतां त्वया ॥९॥

गौतम बोले- हे माता! ये सभी महर्षि श्रीमद में अन्धे हों, सज्जन हों अथवा असज्जन हों, परंतु मेरे इस पुण्य के प्रभाव से आप इन्हें दर्शन दीजिये।

॥ सूत उवाच ॥

ततो वाणी समुत्पन्ना गंगाया व्योममंडलात्॥ तच्छृणुध्वमृषिश्रेष्ठा गंगावचनमुत्तमम् ॥१०॥

एते दुष्टतमाश्चैव कृतघ्नाः स्वामिद्रोहिणः ॥ जाल्माः पाखंडिनश्चैव द्रष्टुं वर्ज्याश्च सर्वदा ॥११॥

सूतजी बोले- हे ऋषिश्रेष्ठो! उसके बाद आकाश मण्डल से गंगाजी की वाणी प्रतिध्वनित हुई, आपलोग गंगाजी के उस उत्तम कथन को सुनिये - गंगाजी बोलीं- ये अत्यन्त दुष्ट, कृतघ्न, स्वामी द्रोह करनेवाले, धूर्त और पाखण्डी हैं, इन्हें देखनातक नहीं चाहिये।

॥ गौतम उवाच ॥

मातश्च श्रूयतामेतन्महता गिर एव च ॥ तस्मात्त्वया च कर्त्तव्यं सत्यं च भगवद्वचः ॥१२॥

अपकारिषु यो लोक उपकारं करोति वै ॥ तेन पूतो भवाम्यत्र भगवद्वचनं त्विदम् ॥ १३ ॥

गौतम बोले- हे मातः! महापुरुषों के इस कथन को आप सुनिये और भगवान् शंकर के वचन को सत्य कीजिये। इस पृथ्वी पर जो मनुष्य अपकार करनेवालों का भी उपकार ही करता है, मैं उससे पवित्र होता हूँ' यह भगवान्का वचन है।

॥ सूत उवाच ॥

इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं गौतमस्य महात्मनः ॥ पुनर्वाणी समुत्पन्ना गंगाया व्योममंडलात् ॥ १४ ॥

कथ्यते हि त्वया सत्यं गौतमर्षे शिवं वचः ॥ तथापि संग्रहार्थ च प्रायश्चितं चरंतु वै ॥१५॥

शतमेकोत्तरं चात्र कार्य्यं प्रक्रमणं गिरेः ॥ भवच्छासनतस्त्वेतैस्त्वदधीनैर्विशेषतः ॥ १६ ॥

ततश्चैवाधिकारश्च जायते दुष्टकारिणाम्॥ मद्दर्शने विशेषेण सत्यमुक्तं मया मुने॥१७॥

सूतजी बोले- महात्मा गौतममुनि का यह वचन सुनकर आकाशमण्डल से पुनः गंगाजी का कथन ध्वनित हुआ - हे गौतम महर्षे! आप सत्य और कल्याणकारी वचन कह रहे हैं, फिर भी ये संसार को शिक्षा देनेके लिये प्रायश्चित्त करें। विशेषरूप से आपके अधीन हुए इन लोगों को आपकी आज्ञा से एक सौ एक बार इस पर्वत की परिक्रमा करनी चाहिये। हे मुने! तभी इन दुराचारियों को मेरे दर्शन का विशेष अधिकार प्राप्त होगा, यह मैंने सत्य कहा है।

॥ सूत उवाच ॥

इति श्रुत्वा वचस्तस्याश्चक्रुर्वै ते तथाऽखिलाः ॥ संप्रार्थ्य गौतमं दीनाः क्षंतव्यो नोऽपराधकः ॥१८॥

एवं कृते तदा तेन गौतमेन तदाज्ञया ॥ कुशावर्तं नाम चक्रे गङ्गाद्वारादधोगतम् ॥१९॥

ततः प्रादुरभूत्तत्र सा तस्य प्रीतये पुनः ॥ कुशावर्तं च विख्यातं तीर्थमासीत्तदुत्तमम् ॥२०॥

तत्र स्नातो नरो यस्तु मोक्षाय परिकल्पते ॥ त्यक्त्वा सर्वानघान्सद्यो विज्ञानं प्राप्य दुर्लभम् ॥ २१ ॥

गौतमो ऋषयश्चान्ये मिलिताश्च परस्परम् ॥ लज्जितास्ते तदा ये च कृतघ्ना ह्यभवन्पुरा ॥२२॥

पुनः सूतजी बोले- गंगाजी की यह बात सुनकर उन सभी दीन ऋषियों ने हमारे अपराध को क्षमा करें, गौतमसे इस प्रकार प्रार्थनाकर पर्वत की परिक्रमा की। उन ऋषियों के द्वारा ऐसा कर लेने पर उन गौतम ने गंगाजी की आज्ञा से गंगाद्वार के नीचेवाले स्थान का नाम कुशावर्त रखा। उसके बाद वे गंगाजी गौतम को प्रसन्न करनेके लिये वहाँ पुनः प्रकट हुई, तबसे वह श्रेष्ठ तीर्थ कुशावर्त नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ स्नान करने वाला मनुष्य अपने सभी पापों का त्याग करके दुर्लभ विज्ञान प्राप्तकर शीघ्र ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है इसके बाद जब गौतम एवं अन्य ऋषिगण परस्पर मिले, उस समय जिन्होंने पहले कृतघ्नता की थी, वे लोग लखित हो गये।

॥ ऋषय ऊचुः ॥

अस्माभिरन्यथा सूत श्रुतं तद्वर्णयामहे॥ गौतमस्तान्द्विजान् क्रुद्धश्शशापेति प्रबुध्यताम् ॥ २३ ॥

ऋषिगण बोले- हे सूतजी! हमलोगों ने तो इसे दूसरी तरह से सुना है, हम उसका वर्णन करते हैं। गौतम ने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दिया था- आप ऐसा जानिये।

॥ सूत उवाच ॥

द्विजास्तदपि सत्यं वै कल्पभेदसमाश्रयात् ॥ वर्णयामि विशेषेण तां कथामपि सुव्रता ॥२४॥

गौतमोपि ऋषीन्दृष्ट्वा तदा दुर्भिक्षपीडितान् ॥ तपश्चकार सुमहद्वरुणस्य महात्मनः ॥ २५ ॥

अक्षय्यं कल्पयामास जलं वरुणदां यया ॥ ततो व्रीहीन्यवांश्चैव वापयामास भूरिशः ॥ २६ ॥

एवं परोपकारी स गौतमो मुनिसत्तमाः ॥ आहारं कल्पयामास तेभ्यः स्वतपसो बलात् ॥ २७ ॥

कदाचित्तत्स्त्रियो दुष्टा जलार्थमपमानिताः ॥ ऊचु पतिभ्यस्ताः क्रुद्धा गौतमेर्ष्याकरं वचः ॥ २८ ॥

ततस्ते भिन्नमतयो गां कृत्वा कृत्रिमां द्विजाः ॥ तद्धान्यभक्षणासक्तां चक्रुस्तां कुटिलाशयाः ॥२९॥

स्वधान्यभक्षणासक्तां गां दृष्ट्वा गौतमस्तदा ॥ तृणेन ताडयामास शनैस्तां संनिवारयन् ॥३०॥

तृणसंस्पर्शमात्रेण सा भूमौ पतिता च गौः ॥ मृता ह्यभूत्क्षणं विप्रा भाविकर्मवशात्तदा ॥ ३१ ॥

गौर्हता गौतमेनेति तदा ते कुटिलाशयाः ॥ एकत्रीभूय तत्रत्यैः सकला ऋषयोऽवदन् ॥३२॥

ततस्स गौतमो भीतो गौर्हतेति बभूव ह ॥ चकार विस्मयं नार्यहल्याशिष्यैश्शिवानुगः ॥ ३३ ॥

ततस्स गौतमो ज्ञात्वा तां गां क्रोधसमाकुलः ॥ शशाप तानृषीन् सर्वान् गौतमो मुनिसत्तमः ॥३४॥

सूतजी बोले- हे द्विजो कल्पभेद के कारण वह भी सत्य है, हे सुव्रतो! मैं उस कथा का भी विशेष रूप से वर्णन करता हूँ। गौतम ने उन ऋषियों को दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर महात्मा वरुण को उद्देश्यकर बहुत बड़ा तप किया। उसके अनन्तर वरुण की कृपा से उन्होंने अक्षय जल प्राप्त किया और तत्पश्चात् बहुत से धान तथा जौ बोवाये। हे ऋषिश्रेष्ठो! इस प्रकार उन परोपकारी महर्षि गौतम ने अपने तपोबल से उनके भोजन का प्रबन्ध किया। किसी समय उनकी दुष्ट स्त्रियाँ जब जल लेने के प्रसंग में अपने ही व्यवहार के कारण अपमानित हो गयीं। तब वे क्रुद्ध होकर अपने पतियों से गौतम के प्रति ईर्ष्यायुक्त वचन बोलीं। तब दुष्टबुद्धिवाले तथा कुटिल अन्तःकरणवाले उन ब्राह्मणों ने एक कृत्रिम गाय बनाकर उनकी फसल को चरने के लिये छोड़ दिया। तब गौतम ने अपनी फसल को खाने में आसक्त उस गाय को देखकर उसे धीरे से हटाते हुए एक तिनके से मारा। हे विप्रो! वह गाय तिनके के स्पर्शमात्र से भूमिपर गिर पड़ी और होनवश क्षणभर में मर गयी। तब वहाँ के कुत्सित विचारवाले सभी ऋषिगण एकत्र होकर कहने लगे कि गौतम ने गाय मार डाली। इसके बाद शिवभक्त गौतम 'गाय मर गयी' ऐसा सोचकर भयभीत हो गये और अपनी पत्नी अहल्या तथा शिष्योंसहित आश्चर्य में पड़ गये। उसके पश्चात् उस कृत्रिम गाय के विषय में जानकर वे गौतम कुपित हो उठे और तब मुनिश्रेष्ठ गौतम ने उन सभी ऋषियों को शाप दे दिया।

॥ गौतम उवाच ॥

यूयं सर्वे दुरात्मानो दुःखदा मे विशेषतः ॥ शिवभक्तस्य सततं स्युर्वेदविमुखास्सदा ॥३५॥

अद्यप्रभृति वेदोक्ते सत्कर्मणि विशेषतः ॥ मा भूयाद्भवतां श्रद्धा शैवमार्गे विमुक्तिदे ॥३६॥

अद्यप्रभृति दुर्मार्गे तत्र श्रद्धा भवेत्तु वः॥ मोक्षमार्गविहीने हि सदा श्रुतिबहिर्मुखे॥३७॥

अद्यप्रभृति भालानि मृल्लिप्तानि भवन्तु वः ॥ स्रसध्वं नरके यूयं भालमृल्लेपनाद्द्विजाः॥३८॥

भवंतो मा भविष्यंतु शिवैक परदैवताः॥ अन्यदेवसमत्वेन जानंतु शिवमद्वयम् ॥३९॥ ।

मा भूयाद्भवतां प्रीतिश्शिवपूजादिकर्मणि॥ शिवनिष्ठेषु भक्तेषु शिवपर्वसु सर्वदा॥४०॥

अद्य दत्ता मया शापा यावंतो दुःखदायकाः॥ तावंतस्संतु भवतां संततावपि सर्वदा॥४१॥

अशैवास्संतु भवतां पुत्रपौत्रादयो द्विजाः॥ पुत्रैस्सहैव तिष्ठंतु भवंतो नरके ध्रुवम्॥४२॥

ततो भवंतु चण्डाला दुःखदारिद्र्यपीडिताः ॥ शठा निन्दाकरास्सर्वे तप्तमुद्रांकितास्सदा ॥ ४३ ॥

गौतम बोले- तुम सभी दुरात्मा हो, मुझ शिवभक्त को इस प्रकार विशेष दुःख देनेके कारण वेद से विमुख हो जाओ। आज से वेदोक्त सत्कर्म में और विशेषकर मुक्ति प्रदान करनेवाले शैवमार्ग में तुमलोगों की श्रद्धा नहीं रहेगी। आज से वेदबहिष्कृत एवं मोक्षमार्ग से रहित बुरे मार्ग में तुमलोगों की प्रवृत्ति रहेगी। आज से तुमलोगों के मस्तकमें मृत्तिका का तिलक होगा और हे ब्राह्मणो! माथेपर मृत्तिका का लेप करने वाले तुमलोग नरकगामी होओगे। तुमलोग शिव को परदेवता नहीं मानोगे और उन अद्वैत सदाशिव को अन्य देवताओं के समान समझोगे। शिवपूजा आदि कर्म में, शिवनिष्ठ भक्तों में एवं शिव तुमलोगों की प्रीति कभी भी नहीं होगी। आज मैंने जितने दुःखदायी शाप तुमलोगों को दिये है, वे सब सर्वदा तुमलोगों की सन्तानों को भी प्राप्त होंगे। हे द्विजो! तुमलोगों के पुत्र-पौत्र आदि शिवभक्ति से विमुख रहेंगे और तुमलोग अपने पुत्रों के साथ निश्चित रूप से नरकमें निवास करोगे। उसके बाद चाण्डालयोनि में जन्म लेकर दुःख दारिद्र्य से पीड़ित रहोगे और धूर्त एवं निन्दा करनेवाले होओगे तथा सर्वदा तप्त मुद्रा से चिह्नित रहोगे

॥ सूत उवाच ॥

इति शप्त्वा मुनीन् सर्वान् गौतमस्स्वाश्रमं ययौ ॥ शिवभक्तिं चकाराति स बभूव सुपावनः ॥ ४४ ॥

ततस्तैः खिन्नहृदया ऋषयस्तेखिला द्विजाः ॥ कांच्यां चक्रुर्निवासं हि शैवधर्मबहिष्कृताः ॥ ४५ ॥

तत्पुत्राश्चाभवन्सर्वे शैवधर्मबहिष्कृताः ॥ अग्रे तद्वद्भविष्यंति कलौ बहुजनाः खलाः ॥४६॥

इति प्रोक्तमशेषेण तद्वृत्तं मुनिसत्तमाः ॥ पूर्ववृत्तमपि प्राज्ञाः श्रुतं सर्वैस्तु चादरात् ॥४७॥

इति वश्च समाख्यातो गौतम्याश्च समुद्भवः ॥ माहात्म्यमुत्तमं चैव सर्वपापहरं परम् ॥ ४८ ॥

त्र्यंबकस्य च माहात्म्यं ज्योतिर्लिंगस्य कीर्तितम् ॥ यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४९ ॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि वैद्यनाथेश्वरस्य हि ॥ ज्योतिर्लिंगस्य माहात्म्यं श्रूयतां पापहारकम् ॥ ५० ॥

सूतजी बोले - हे महर्षियो! इस प्रकार उन सभी मुनियों को शाप देकर महर्षि गौतम अपने आश्रम पर चले गये। उन्होंने अत्यधिक शिवभक्ति की तथा वे परम पवित्र हो गये। उसके बाद उन शापों के कारण खिन्न हृदयवाले वे सभी ब्राह्मण शिवधर्म से बहिष्कृत होकर कांचीपुर में निवास करने लगे। उनके सभी पुत्र भी शिवधर्म से बहिष्कृत हो गये। आगे चलकर कलियुग में बहुत से लोग उन्हीं के समान दुष्ट होंगे। हे मुनिसत्तमो ! इस प्रकार मैंने उनका समग्र वृत्तान्त आपलोगों से कहा हे प्राज्ञो! इसके पहले का वृत्तान्त भी आपलोग आदरपूर्वक सुन चुके हैं। इस प्रकार मैंने गौतमी गंगा की उत्पत्ति तथा पापहारी उत्तम माहात्म्य आपलोगों से कह दिया और त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य भी मैंने कहा, जिसे सुनकर मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। अब इसके आगे मैं वैद्यनाथेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग के पापनाशक माहात्म्य का वर्णन करूंगा, आप लोग उसे सुनिये

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां त्र्यंबकेश्वरज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णनं नाम सप्तविंशोध्यायः ॥ २७ ॥



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EXACT GPS LOCATION : 25.310742546730086, 83.00715401661746

त्र्यंबकेश्वर लिंग बड़ादेव (हौज कटोरा), डी.३८/२१ गोदौलिया (गोदावरी तीर्थ का विकृत नाम) पर स्थित है।
Trimbakeshwar Linga is situated at Badadeva (Hauz Katora In front of madhur jalpan), D.38/21 Godaulia (distorted name of Godavari Tirtha).

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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