Garudeshwar (विनता-गरुड़ की काशी यात्रा: गरुड़ द्वारा गरुडेश्वर लिङ्ग की स्थापना एवं भगवान शिव द्वारा गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन बनने का आशीर्वाद देना तत्पश्चात गरुडेश्वर के सापेक्ष अन्य लिङ्गों की स्थिति)

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स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५०

(अध्याय का देवनागरी सारांश)

प्राचीनकाल में प्रजापति दक्ष की दो कन्याएँ - कद्रू एवं विनता, जो कश्यप ऋषि को ब्याही गई थीं, एक दिन विहार करते हुए परस्पर वार्तालाप कर रही थीं। उनके मध्य सूर्यदेव के उच्चैश्रवस नामक अश्व के वर्ण को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। विनता ने कहा - "हे भगिनी! उच्चैश्रवस अश्व तो शुभ्र श्वेत वर्ण का है, जैसे शरद् पूर्णिमा का चन्द्रमा।" इस पर कद्रू बोलीं - "नहीं प्रिये, वह तो धूमिल वर्ण का है।"


तब कद्रू ने शर्त प्रस्तावित की - "यदि मेरा कथन सत्य हुआ तो तुम मेरी दासी बनोगी और यदि तुम्हारा कथन सत्य निकला तो मैं तुम्हारी दासी बनूँगी।" विनता ने अनिच्छापूर्वक इस शर्त को स्वीकार कर लिया। कद्रू ने छलपूर्वक अपने सर्पपुत्रों को आदेश दिया - "हे पुत्रों! तुम सब उच्चैश्रवस की पुच्छ पर जाकर लिपट जाओ, जिससे वह कृष्ण वर्ण का प्रतीत हो।" कुछ सर्पों ने माता की इस अनुचित आज्ञा का पालन करने से इन्कार कर दिया। तब क्रुद्ध कद्रू ने उन्हें शाप दिया - "तुम सब गरुड़ के भक्ष्य बनोगे!"


जब वे दोनों आकाशमार्ग से उच्चैश्रवस को देखने गईं, तब सूर्य के प्रचण्ड ताप से पीड़ित कद्रू ने भयवश "खखोल्का पतति" (आकाश गिर रहा है) कहकर चीत्कार किया। इसी घटना के कारण उस स्थान पर प्रकट हुए आदित्यदेव "खखोल्कादित्य" नाम से विख्यात हुए। छलपूर्वक उच्चैश्रवस को धूमिल दिखाकर कद्रू ने शर्त जीत ली और विनता को दासत्व स्वीकार करना पड़ा। कालान्तर में जब गरुड़ ने अपनी माता विनता को दुःखी देखा, तब उसने कारण पूछा। विनता ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब गरुड़ ने सर्पों से पूछा - "मेरी माता को दासत्व से मुक्त करने के लिए तुम क्या चाहते हो?" सर्पों ने उत्तर दिया - "हमें अमृत प्रदान करो, तभी विनता मुक्त होगी।"


तब गरुड़ ने निषादों को भक्षण कर अमृत का पान करने हेतु स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान किया। उस भीषण संग्राम में देवताओं को परास्त कर गरुड़ ने अमृत कलश हस्तगत कर लिया। किन्तु भगवान विष्णु ने उन्हें रोकते हुए कहा - "हे तार्क्ष्य! यह अमृत देवताओं का जीवन है।" तब गरुड़ ने युक्ति से कार्य लिया। उसने सर्पों से कहा - "पवित्र होकर स्नान करो, तब अमृत ग्रहण करना।" जब सर्प स्नान हेतु गए, तब गरुड़ ने अमृत कलश वहाँ से हटा लिया। लौटने पर सर्पों ने केवल दर्भ घास पर पड़े अमृत के अंश को ही चाटा, जिससे उनकी जिह्वाएँ द्विधा विभक्त हो गईं। इस प्रकार विनता को दासत्व से मुक्ति मिली।


मुक्त होकर विनता ने गरुड़ से कहा - "पुत्र! अब हमें काशी की शरण लेनी चाहिए, जहाँ समस्त पापों का नाश होता है।" माता-पुत्र काशी पहुँचे। विनता ने खखोल्कादित्य की आराधना की, जबकि गरुड़ ने गरुड़ेश्वर लिंग की स्थापना की। भगवान शिव एवं सूर्यदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिए। शिवजी ने गरुड़ को विष्णु का वाहन बनने का आशीर्वाद दिया, जबकि खखोल्कादित्य ने विनता को सभी पापों से मुक्ति का वर प्रदान किया। आज यह पावन आदित्य काशी के पिलपिला तीर्थ पर विराजमान हैं। इस दिव्य आदित्य के दर्शन मात्र से समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं, पापों का प्रक्षालन होता है और भक्त को मोक्ष की प्राप्ति होती है।


सन्दर्भ

ब्रह्मा जी के सृष्टि की रचना के कृत्य में सबसे पहले, ब्रह्मा जी के मन से चार कुमार प्रकट हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। प्रथम थे सनक, दूसरे सनंदन, तीसरे सनातन और चौथे सनतकुमार। इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से स्वर्ण के समान कांतिमय कुमार , क्षत्रियों के बीज स्वरूप स्वयंभू मनु और उनकी पत्नी शतरूपा उत्पन्न हुए। पुत्रों की उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा जी ने उनसे सृष्टि के रचना करने को कहा परंतु ब्रह्मा पुत्र अत्यंत भागवत परायण होने के कारण तपस्या करने चले गए। इससे जगतपति ब्रह्मा को बड़ा क्रोध आया और कोपसक्त ब्रह्मदेव ब्रह्मतेज में जलने लगे। इसी समय उनके मस्तक से ग्यारह रूद्र प्रकट हुए।

सृष्टि के रचना के लिए ब्रह्मा के दाएँ कान से पुलत्स्य, बाएँ कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, वाम नेत्र से कृतु, नासिका छिद्र से मकुख से अंगिरा एवं रुचि, वाम हाथ से भृगु, दाएँ हाथ से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचशिख, वक्षस्थल से वोढू, कंठ से नारद स्कन्द से मारिचि, गले से अपन्तरतमा, रसना से वाशिसठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षिसे हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। ब्रह्मा ने अपने इन पुत्रों को सृष्टि की रचना करने की आज्ञा दी।

पंचशिख ब्रह्मा के पुत्र का नाम था। यह सनक, सनन्दन, सनातन तथा बोढु, कपिल, आसुरि आदि ऋषियों के साथ प्रलय काल में पमाणु रूप महेश्वर में लीन होकर जन्म मृत्यु जलवाली महावर्त नदी को तरते हैं। पञ्चशिख आसुरी के शिष्य थे। उनका पालन-पोषण आसुरी की पत्नी कपिला ने स्तनपान करके किया था इसलिए उन्हें कपिला के नाम से भी जाना जाता था। उन्होंने पंचस्रोत में निवास किया और एक हजार वर्षों तक यज्ञ किया अतः उनका नाम पञ्चशिख पड़ा। वह विद्वान राजा जनक की सभा में गए और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया। पराजित राजा जनक ने पञ्चशिख को बहुत सम्मान दिया और वह कई वर्षों तक जनक के दरबार में उनके गुरु के रूप में रहे।

श्रीलिङ्गमहापुराणम्/परिशिष्ट/अध्यायः_०७ 
अन्यत्तत्रैव लिङ्गं तु ऋषिभिः स्थापितं पुरा। सनकेश्वरस्योत्तरतो नाम्ना गरुडकेश्वरम्‌ ॥६॥
सिद्धिकामेन सुश्रोणि स्थापितं गरुडेन तु। गरुडेश्वरस्य पुरतः स्थापितं ब्रह्मसूनुना ॥७॥
भक्त्या सनत्कुमारेण स्थापितोऽहं वरानने। तेन दृष्टेन देवेशि ज्ञानवान्‌ जायते नरः ॥३८॥
तस्यैव चोत्तरे पार्श्वे सनन्देन प्रतिष्ठितम्‌। तस्य दर्शनमात्रेण प्राप्यते सिद्धिरुत्तमा ॥३९॥
तस्यैव दक्षिणे पार्श्वे स्थापितं ह्यासुरीश्वरम्‌। तथैव पञ्चशिखिना स्थापितं च महात्मना ॥४०॥
तस्य दक्षिणपार्श्वे तु नातिदूरे व्यवस्थितम्‌ । शनैश्चरेण तत्रैव मुखलिङ्गं प्रतिष्ठितम्‌ ॥४१॥
शनैश्चरेश्वरं नाम सर्वलोकनमस्कृतम्‌। तं दृष्ट्वा मानवो देवि रोगैर्नैवाभिभूयते ॥४२॥
हे सुश्रोणि! सनकेश्वर के उत्तर में गरुडकेश्वर नामक लिङ्ग है, जो सिद्धि की इच्छा वाले गरुड के द्वारा स्थापित किया गया है। गरुडेश्वर के सामने एक लिङ्ग (सनत्कुमारेश्वर) स्थित है, हे वरानने! ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार ने भक्तिपूर्वक वहाँ मुझे स्थापित किया था, हे देवेशि! उस लिङ्ग के दर्शन से मनुष्य ज्ञानसम्पन्न हो जाता है। उसी के उत्तरभाग में मुनि सनन्दन के द्वारा स्थापित किया गया लिङ्ग (सनन्दनेश्वर) है, उसके दर्शनमात्र से उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। उसी के दक्षिण पार्श्व भाग में आसुरीश्वर लिङ्ग स्थापित है, वह महात्मा पंचशिखि के द्वारा स्थापित किया गया हैं। वहीं पर उसके दक्षिणभाग में समीप में ही शनैश्चर के द्वारा स्थापित किया गया मुखलिङ्ग स्थित है, वह शनेश्चरेश्वर नामक लिङ्ग सभी लोकों द्वारा नमस्कृत है। हे देवि! उसका दर्शन करके मनुष्य रोगों से पीड़ित नहीं होता है।

लिङ्गों की स्थिति:

  1. सनकेश्वर लिङ्ग – दक्षिण में स्थित।
  2. गरुडकेश्वर लिङ्ग – सनकेश्वर के उत्तर में, गरुड़ द्वारा स्थापित।
  3. सनत्कुमारेश्वर लिङ्ग – गरुडकेश्वर के सामने, ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार द्वारा स्थापित।
  4. सनन्दनेश्वर लिङ्ग – गरुडकेश्वर के उत्तर में, मुनि सनन्दन द्वारा स्थापित।
  5. आसुरीश्वर लिङ्ग – सनन्दनेश्वर के दक्षिण पार्श्व (दक्षिण-पश्चिम) में, महात्मा पंचशिखि द्वारा स्थापित।
  6. शनेश्चरेश्वर मुखलिङ्ग – आसुरीश्वर के दक्षिण भाग में समीप ही, शनिदेव द्वारा स्थापित।

वायुपुराणम्/उत्तरार्धम्/अध्यायः_३९
॥ सूत उवाच ॥
स खलूवाच भगवान्किं भूयो वर्त्तयाम्यहम्। किं मया चैव वक्तव्यं तद्वदिष्यामि सुव्रताः ॥३३२॥
सूतजी बोले: हे महानुभावो! अब मैं आगे क्या वर्णन करूं? मुझे और क्या कहना चाहिए? जो भी उचित होगा, मैं वही आप लोगों को सुनाऊंगा।
॥ ऋषय ऊचुः ॥
आदित्याः पारिपार्श्वेयाः सिंहा वै क्रोधविक्रमाः। वैश्वानरा भूतगणा व्याघ्राश्चैवानुगामिनः ॥३३३॥
आभूतसंप्लवे घोरे सर्वप्राणभृतां क्षये। किमवस्था भवन्त्येते तन्नो ब्रूहि यथार्थवत् ॥३३४॥
एते ये वै त्वया प्रोक्ताः सिंहव्याघ्रगणैः सह। ये चान्ये सिद्धिसम्प्राप्ता मातरिश्वा जगाद ह ॥३३५॥
इदञ्च परमं तत्त्वं समाख्यास्यामि श्रृण्वताम्। विज्ञातेश्वरसद्भावमव्यक्तं प्रभवं तथा ॥३३६॥
तत्र पूर्वगतास्तेषु कुमारा ब्रह्मणः सुताः। सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ॥३३७॥
वोढुश्च कपिलस्तेषामासुरिश्च महायशाः। मुनिः पञ्चशिखश्चैव ये चान्येऽप्येवमादयः ॥३३८॥
ततः काले व्यतिक्रान्ते कल्पानां पर्यये गते। महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते ॥३३९॥
अनेकरुद्रकोट्यस्तु याः प्रसन्ना महेश्वरी । शब्दादीन्विषयान्भोगान्सत्यस्याष्टविधश्रयात् ॥३४०॥
ऋषियों ने कहा: सूर्यदेव के पार्षदगण, जो सिंह के समान क्रोध और पराक्रम से युक्त हैं, तथा वैश्वानर भूतगण एवं व्याघ्र उनके अनुचर हैं।  जब संपूर्ण प्राणियों का संहार करने वाली भयानक महाप्रलय आती है, तब इनकी क्या स्थिति होती है? कृपया हमें इसका यथार्थ रूप से वर्णन करें। जो सिंह और व्याघ्र गणों के साथ आपने वर्णन किए हैं और अन्य जो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं, उन सभी के विषय में वायुदेव ने क्या कहा, कृपया बताइए। अब मैं आपको परम तत्त्व का उपदेश दूंगा, जो ज्ञानीश्वर महेश्वर का सत्यस्वरूप और अव्यक्त उत्पत्ति का रहस्य प्रकट करता है।  जब यह प्रलय काल आता है, तब ब्रह्माजी के मानस पुत्र – सनक, सनंदन, सनातन, कपिल, असुरि, महायशस्वी मुनि पञ्चशिख और अन्य ऋषिगण – सभी दिव्यलोकों को प्राप्त होते हैं।  कल्पों के परिवर्तन के साथ, जब महाभूतों का विनाश होने लगता है और महाप्रलय उपस्थित होता है, तब अनगिनत रुद्र रूप महेश्वरी प्रसन्न होकर समस्त शब्द आदि इन्द्रिय विषयों को ग्रहण करती हैं।
प्रविश्य सर्वभूतानि ज्ञानयुक्तेन तेजसा। वैहायपदमव्यग्रं भूतानामनुकम्पया ॥३४१॥
तत्र यान्ति महात्मानः परमाणुं महेश्वरम्। तरन्ति सुमहावर्त्तां जन्ममृत्यूदकां नदीम् ॥३४२॥
ततः पश्यन्ति शर्वाणं परं ब्रह्माणमेव च। देव्या वै सहिताः सप्त या देव्यः परिकीर्त्तिताः ॥३४३॥
यत्तत्सहस्रं सिंहानामादित्यानां तथैव च। वैश्वानरभूतभव्यव्याघ्राश्चैवानुगामिनः ॥३४४॥
आवेश्यात्मनि तान्सर्वान्संख्यायोपद्रवांस्तथा। लोकान् सप्त इमान्सर्व्वान्महाभूतानि पञ्च च ॥३४५॥
विष्णुना सह संयुक्तं करोति विकरोति च। स रुद्रो यः साममयस्तथैव च यजुर्मयः ॥३४६॥
स एष ओतः प्रोतश्च बहिरन्तश्च निश्चयात्। एको हि भगवान्नाथो ह्यनादिश्चान्तकृद्द्विजाः ॥३४७॥
ततस्ते ऋषयः सर्वे दिवाकरसमप्रभाः। स्वंस्वमाश्रमसंवासमारोप्याग्निं तथात्मनि ॥३४८॥
अपने दिव्य ज्ञान और तेज से सभी भूतों में प्रवेश करके वे निर्बाध वैकुण्ठ पद प्राप्त कराती हैं और दयाभाव से जीवों को उन्नत करती हैं। तब महान आत्माएँ सूक्ष्म परमाणु रूप में परम महेश्वर को प्राप्त कर लेती हैं और इस जन्म-मरण की प्रबल नदी से पार हो जाती हैं। इसके पश्चात वे शर्व (महादेव) एवं परम ब्रह्म को साक्षात देखते हैं, जो उन सात परम देवियों के साथ विराजमान हैं। वह सहस्रों सिंह, आदित्यगण, वैश्वानरगण, भूतगण एवं व्याघ्रगण – सभी को अपने भीतर समाहित कर लेते हैं और संपूर्ण लोकों तथा पाँच महाभूतों को अपनी शक्ति से नियंत्रित करते हैं।  विष्णु भगवान के साथ मिलकर वे सृष्टि का सृजन और संहार करते हैं। वे ही रुद्र हैं, जो सामवेदमय और यजुर्वेदमय हैं। वे ही समस्त चराचर जगत में अंतर्बाह्य रूप से व्याप्त हैं। निश्चय ही एकमात्र वही भगवान नाथ, अनादि और संहारकर्ता हैं। तब समस्त ऋषिगण, जो सूर्य के समान तेजस्वी होते हैं, अपने-अपने आश्रमों में निवास करते हुए अग्नि को अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।

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EXACT GPS : 25.30583526908823, 83.00608412681714


गरुडेश्वर लिंग, जंगमबाड़ी, तेलियाना, देवनाथपुरा, डी 31/39 में स्थित है।
Garudeshwara Linga is located at Jangambadi, Teliana, Devanathapura, D 31/39.

For the benefit of Kashi residents and devotees : -
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi

काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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