Kandukeshwar (काशी में देवी पार्वती द्वारा कंदुक से विदल एवं उत्पल नामक दैत्यों के वध की सम्पूर्ण कथा, कन्दुकेश्वर शिवलिंग का प्रादुर्भाव)

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Kandukeshwar
कन्दुकेश्वर

कंदुक संज्ञा पुं॰ [सं॰ कन्दुक] : १. गैंद  २. गोल तकिया

॥ काशी का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ क्षेत्र, जहाँ महादेव भगवती सहित परिवार एवं शिव गणो के साथ निवास करते हैं। इसी ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ क्षेत्र में काशी के तीन महालिंग ज्येष्ठेश्वर, निवासेश्वर, व्याघ्रेश्वर भी विराजमान हैं। ज्येष्ठ क्षेत्र काशी में देवी पार्वती द्वारा कंदुक से विदल एवं उत्पल नामक दैत्यों का वध करना एवं कन्दुकेश्वर शिवलिंग के प्रादुर्भाव की सम्पूर्ण पौराणिक कथा इस पौराणिक लेख में वर्णित है। सर्वप्रथम स्कंदपुराण काशीखण्ड के अध्याय ६५ में भगवान स्कन्द ने संछिप्त कथा बताई है। सम्पूर्ण विस्तृत कथा के लिए हमे शिवपुराण संहिता २ खंड ५ के अध्याय ५९ को सम्मिलित करेंगे ताकि शिवकथा अमृत प्रेमियों को इस दिव्य घटना की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो पाये॥

स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः६५

॥ स्कंद उवाच ॥

एकदा तत्र यद्वृत्तं ज्येष्ठस्थाने महामुने ॥ तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणुष्वाघविनाशनम् ॥ २२ ॥

स्वैरं विहरतस्तत्र ज्येष्ठस्थाने महेशितुः ॥ कौतुकेनैव चिक्रीड शिवा कंदुकलीलया ॥ २३ ॥

उदंच न्न्यंचदंगानां लाघवं परितन्वती ॥ निःश्वासामोदमुदित भ्रमराकुलितेक्षणा ॥ २४ ॥

भ्रश्यद्ध म्मिल्लसन्माल्य स्थपुटीकृत भूमिका ॥ स्विद्यत्कपोलपत्राली स्रवदंबुकणोज्ज्वला ॥ २५ ॥

स्फुटच्चोलांशुकपथनिर्यदंगप्रभावृता ॥ उल्लसत्कंदुकास्फालातिशोणितकरांबुजा ॥ २६ ॥

स्कंद ने कहा: हे महाबुद्धिमान! सुनो; मैं आपको बताऊंगा कि यहां ज्येष्ठास्थान पर क्या हुआ था। यह पापों का नाश करने वाला है। जब महेश ज्येष्ठास्थान में प्रसन्न होकर आनंद ले रहे थे, तब शिवा (पार्वती) भी उस गेंद के साथ उत्सुकता से खेल रहीं थीं। वह ऊपर-नीचे हिलते हुए अपने अंगों की चपलता प्रदर्शित करती थी। जैसे ही मधुमक्खियाँ उनकी साँसों की खुशबू से आकर्षित होकर उसके आसपास मंडराने लगीं, उनकी आँखें विकल हो गईं। जैसे ही उनके बालों की लटें ढीली हुईं, तो वह उत्तम माला गिरकर भूमि पर फ़ैल गई। उनकी गालों पर बहती पसीने की बूंदों ने चेहरे को धो डाला और उसे और अधिक चमका दिया। उनके स्तनों के ऊपर का ऊपरी वस्त्र इधर-उधर हो जाने से उसके शरीर की कांति पूरी तरह प्रकट हो गयी। देवी की कमल जैसी हथेलियाँ अत्यधिक लाल हो गईं क्योंकि वह लगातार उछलती हुई गेंद को मार रही थीं।

कंदुकानुग सदृष्टि नर्तित भ्रूचलतांचला ॥ मृडानी किल खेलंती ददृशे जगदंबिका ॥ २७ ॥

अंतरिक्षचराभ्यां च दितिजाभ्यां मनोहरा ॥ कटाक्षिताभ्यामिव वै समुपस्थितमृत्युना ॥ २८ ॥

विदलोत्पल संज्ञाभ्यां दृप्ताभ्यां वरतो विधेः ॥ तृणीकृतत्रिजगती पुरुषाभ्यां स्वदोर्बलात् ॥ २९ ॥

देवीं परिजिहीर्षू तौ विषमेषु प्रपीडितौ ॥ दिवोवतेरतुः क्षिप्रं मायां स्वीकृत्य शांबरीम् ॥ ३० ॥

धृत्वा पारषदीं मूर्तिमायातावंबिकांतिकम् ॥ तावत्यंतं सुदुर्वृत्तावतिचंचलमानसा ॥ ३१ ॥

सर्वज्ञेन परिज्ञातौ चांचल्याल्लोचनोद्भवात् ॥ कटाक्षिताथ देवेन दुर्गादुर्गारिघातिनी ॥ ३२॥

चूँकि उनकी आँखें गेंद को करीब से देख रही थीं अतः उनकी भौंहें नाचती हुई प्रतीत हो रही थीं। ब्रह्माण्ड की सुंदर माता मृडानी (पार्वती) इस प्रकार खेल रही थी कि उन्हें विदल और उत्पल नाम के दैत्य (राक्षसों) ने देखा, जो आकाश में जा रहे थे। ब्रह्मा से प्राप्त वरदान के कारण वे अत्यधिक अभिमानी थे। वे इतने शक्तिशाली थे कि वे तीनों लोकों के सभी मनुष्यों को घास के समान तुच्छ समझते थे। वास्तव में, वे समीप में उपस्थित मृत्यु के देवता की दृष्टि में आ गये थे। कामदेव से पीड़ित होकर, वे देवी का अपहरण करने के लिए उत्सुक थे और इसलिए वे माया का सहारा ले आकाश से नीचे उतरे। भगवान के सेवकों की आड़ में, वे माँ परमात्मा (पार्वती) के पास आये। उन अत्यंत दुष्ट और चंचल दिमाग वाले राक्षसों को सर्वज्ञ शिव ने उनकी कांपती आँखों से पहचान लिया था। अब भयानक शत्रुओं का नाश करने वाली मां दुर्गा पर विशेष दृष्टि से उन्होंने संकेत किया।

विज्ञाय नेत्रसंज्ञां तु सर्वज्ञार्ध शरीरिणी ॥ तेनैव कंदुकेनाथ युगपन्निजघान तौ ॥ ३३॥

महाबलौ महादेव्या कंदुकेन समाहतौ॥ परिभ्रम्य परिभ्रम्य तौ दुष्टौ विनिपेततुः ॥ ३४ ॥

वृंतादिव फले पक्वे तालादनिललोलिते ॥ दंभोलिना परिहते शृंगेइव महागिरेः ॥ ३५ ॥

तौ निपात्य महादैत्यावकार्यकरणोद्यतौ ॥ ततः परिणतिं यातो लिंगरूपेण कंदुकः ॥३६॥

कंदुकेश्वरसंज्ञं च तल्लिंगमभवत्तदा ॥ ज्येष्ठेश्वर समीपे तु सर्वदुष्टनिवारणम् ॥३७॥

दृष्टि के महत्व को समझकर देवी जो भगवान शर्व के आधे शरीर को साझा करती हैं, उन्होंने एक साथ दोनों दैत्यों को उसी गेंद से मार डाला। महादेवी की गेंद की मार से, महान पराक्रमी दुष्ट राक्षस इधर-उधर घूमते रहे और धराशायी हो गये। वे महान दैत्य, दुष्ट, जिन्होंने आपराधिक दुष्कर्म का प्रयास किया था, वे हवा से टूटकर गिरे हुए दो पके फलों की तरह या वज्र से गिरे हुए किसी बड़े पर्वत की चोटियों की तरह गिर गए। इसके पश्चात जहाँ गेंद (कंदुक) गिर कर स्थिर हुई थी, वहीं लिंग में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार ज्येष्ठेश्वर के समीप कंदुकेश्वर नाम का लिंग बन गया। यह सभी दुष्ट मानसिकता वाले लोगों को दूर करता है।

कंदुकेश समुत्पत्तिं यः श्रोष्यति मुदान्वितः ॥ पूजयिष्यति यो भक्तस्तस्य दुःखभयं कुतः ॥ ३८ ॥

कंदुकेश्वर भक्तानां मानवानां निरेनसाम् ॥ योगक्षेमं सदा कुर्याद्भवानी भयनाशिनी ॥ ३९ ॥

मृडानी तस्य लिंगस्य पूजां कुर्यात्सदैव हि ॥ तत्रैव देव्या सान्निध्यं पार्वत्या भक्तसिद्धिदम् ॥ ४० ॥

जो भक्त कंदुकेश्वर के प्रकटीकरण को आनंदपूर्वक सुनता है और उसकी पूजा करता है, उस भक्त पर दुख का भय कैसे आ सकता है? भवानी जो भय को मिटाती है, उन पुरुषों के लिए योगक्षेम लाती है जो कंदुकेश्वर के भक्त हैं और पापों से रहित हैं। मृडानी (पार्वती) सदैव उस लिंग की पूजा करती है। वहां भक्तों को सिद्धियां प्रदान करने हेतु देवी पार्वती की शाश्वत उपस्थिति है।

कंदुकेशं महालिंगं काश्यां यैर्न समर्चितम् ॥ कथं तेषां भवनीशौ स्यातां सर्वेप्सितप्रदौ ॥ ४१ ॥

द्रष्टव्यं च प्रयत्नेन तल्लिंगं कंदुकेश्वरम् ॥ सर्वोपसर्गसंघातविघातकरणं परम् ॥ ४२ ॥

कंदुकेश्वर नामापि श्रुत्वा वृजिनसंततिः ॥ क्षिप्रं क्षयमवाप्नोति तमः प्राप्योष्णगुं यथा ॥ ४३ ॥

जिन पुरुषों द्वारा कंदुकेश्वर, महान लिंग की पूजा नहीं की गई है, उन पुरुषों को भवानी और ईश (ईशान) सभी वांछित चीजें कैसे प्रदान कर सकते हैं? कंदुकेश्वर नामक उस लिंग का परिश्रमपूर्वक दर्शन करना चाहिए। यह सभी प्रकार की पीड़ाओं और आपदाओं का विनाश करते है। कंदुकेश्वर का नाम सुनते ही पापों का समूह तुरंत उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे अंधकार सूर्य की किरणों के आगमन से हो जाता है।

शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः ५ (युद्धखण्डः)/अध्यायः ५९

॥ सनत्कुमार उवाच ॥

शृणु व्यास सुसंप्रीत्या चरितं परमेशितुः ॥ यथावधीत्स्वप्रियया दैत्यमुद्दिश्य संज्ञया ॥ १ ॥

आस्तां पुरा महादैत्यो विदलोत्पलसंज्ञकौ ॥ अपुंवध्यौ महावीरौ सुदृप्तौ वरतो विधेः ॥२॥

तृणीकृतत्रिजगती पुरुषाभ्यां स्वदोर्ब लात् ॥ ताभ्यां सर्वे सुरा ब्रह्मन् दैत्याभ्यां निर्जिता रणे ॥३॥

ताभ्यां पराजिता देवा विधेस्ते शरणं गताः ॥ नत्वा तं विधिवत्सर्वे कथयामासुरादरात ॥ ४ ॥

इति ब्रह्मा ह्यवोचत्तान् देव्या वध्यौ च तौ ध्रुवम् ॥ धैर्य्यं कुरुत संस्मृत्य सशिवं शिवमादरात् ॥ ५ ॥

भक्तवत्सलनामासौ सशिवश्शंकरश्शिवः ॥ शं करिष्यत्यदीर्घेण कालेन परमेश्वरः ॥ ६ ॥

सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी! अब आप प्रेमपूर्वक शिवजी के उस चरित्र को सुनिये, जिस प्रकार उन्होंने संकेत द्वारा दैत्य को बताकर अपनी प्रिया से उस दैत्य का वध कराया था। पूर्व समय में विदल तथा उत्पल नामक दो महाबली दैत्य थे। वे दोनों ही ब्रह्माजी के वर से मनुष्यों से वध न होने का वर पाकर बड़े पराक्रमी तथा अभिमानी हो गये थे। हे ब्रह्मन्! उन दैत्यों ने अपनी भुजाओं के बल से तीनों लोकों को तृणवत् कर दिया तथा संग्राम में सम्पूर्ण देवताओं को जीत लिया। उन दैत्यों से पराजित हुए सब देवता ब्रह्माजी की शरण में गये और आदर से उनको विधिपूर्वक प्रणामकर उन्होंने [दैत्यों के उपद्रव को] कहा तब ब्रह्माजी ने उनसे यह कहा कि ये दोनों दैत्य निश्चय ही पार्वतीजी द्वारा मारे जायेंगे। आप सब पार्वती सहित शिवजी का भलीभाँति स्मरण करके धैर्य धारण कीजिये देवीसहित भक्तवत्सल तथा कल्याण करनेवाले वे परमेश्वर बहुत शीघ्र ही आपलोगों का कल्याण करेंगे

॥ सनत्कुमार उवाच ॥

इत्युक्त्वा तांस्ततो ब्रह्मा तूष्णीमासीच्छिवं स्मरन् ॥ तेपि देवा मुदं प्राप्य स्वंस्वं धाम ययुस्तदा ॥७॥

अथ नारददेवर्षिश्शिवप्रेरणया तदा ॥ गत्वा तदीयभवनं शिवासौंदर्यमाजगौ ॥८॥

श्रुत्वा तद्वचनं दैत्यावास्तां मायाविमोहितौ ॥ देवीं परिजिहीर्षू तौ विषमेषु प्रपीडितौ ॥९॥

विचारयामासतुस्तौ कदा कुत्र शिवा च सा ॥ भविष्यति विधेः प्राप्तोदयान्नाविति सर्वदा ॥ १० ॥

एकस्मिन्समये शंभुर्विजहार सुलीलया ॥ कौतुकेनैव चिक्रीडे शिवा कन्दुकलीलया ॥ ११ ॥

सखीभिस्सह सुप्रीत्या कौतुकाच्छिवसन्निधौ ॥१२॥

उदंचंत्यंचदंगानां लाघवं परितन्वती ॥ निश्वासामोदमुदितभ्रमराकुलितेक्षणा ॥१३॥

भ्रश्यद्धम्मिल्लसन्माल्यस्वपुरीकृतभूमिका ॥ स्विद्यत्कपोलपत्रालीस्रवदंबुकणोज्ज्वला ॥ १४ ॥

स्फुटच्चोलांशुकपथतिर्यदंगप्रभावृता ॥ उल्लसत्कंदुकास्फालातिश्रोणितकराम्बुजा ॥ १५ ॥

कंदुकानुगसद्दृष्टिनर्तितभ्रूलतांचला ॥ मृडानी किल खेलंती ददृशे जगदम्बिका ॥ १६ ॥

अंतरिक्षचराभ्यां च दितिजाभ्यां कटा क्षिता ॥ क्रोडीकृताभ्यामिव वै समुपस्थितमृत्युना ॥१७॥

विदलोत्पलसंज्ञाभ्यां दृप्ताभ्यां वरतो विधेः ॥ तृणीकृतत्रिजगती पुरुषाभ्यां स्वदोर्बलात् ॥ १८ ॥

सनत्कुमार बोले- तब देवताओं से ऐसा कहकर वे ब्रह्माजी शिव का स्मरण करके मौन हो गये और वे देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को चले गये। तत्पश्चात् शिवजी की प्रेरणा से देवर्षि नारदजी ने उनके घर जाकर पार्वती की सुन्दरता का वर्णन किया। तब नारदजी का वचन सुनकर माया से मोहित, विषयों से पीड़ित तथा पार्वती का हरण करने की इच्छावाले उन दोनों दैत्यों ने मनमें विचार किया कि प्रारब्ध के उदय होनेके कारण हम दोनों को वह पार्वती कब और कहाँ मिलेगी। किसी समय शिवजी अपनी लीला से बिहार कर रहे थे, उसी समय पार्वती भी कौतुक से अपनी सखियों के साथ प्रीतिपूर्वक शिवजी के समीप कन्दुक क्रीडा करने लगीं। ऊपर को गेंद फेंकती हुई, अपने अंगों की लघुता का विस्तार करती हुई, श्वास की सुगन्ध से प्रसन्न हुए भौरों से घिरने के कारण चंचल नेत्रवाली, केशपाश से माला टूट जाने के कारण अपने रूप को प्रकट करने वाली, पसीना आने से उसके कणों से कपोलों की पत्ररचना से शोभित, प्रकाशमान चोलांशुक (कुर्ती) के मार्ग से निकलती हुई अंग की कान्ति से व्याप्त, शोभायमान गेंद को ताड़न करने से लाल हुए करकमलों वाली और गेंद के पीछे दृष्टि देने से कम्पायमान भौंहरूपी लता के अंचलवाली जगत्की माता पार्वती खेलती हुई दिखायी दीं। आकाश में विचरते हुए उन दोनों दैत्यों ने कटाक्षों से देखा, मानो उपस्थित मृत्यु ने ही दोनों को गोद में ले लिया हो। ब्रह्माजी के वरदान से गर्वित विदल और उत्पल नामक दोनों दैत्य अपनी भुजाओं के बल से तीनों लोकों को तृण के समान समझते थे

देवीं तां संजिहीर्षंतौ विषमेषु प्रपीडितौ ॥ दिव उत्तेरतुः क्षिप्रं मायां स्वीकृत्य शांबरीम् ॥ १९ ॥

धृत्वा पारिषदीं मायामायातावंबिकांतिकम् ॥ तावत्यंतं सुदुर्वृत्तावतिचंचलमानसौ ॥२०॥

अथ दुष्टनिहंत्रा वै सावज्ञेन हरेण तौ ॥ विज्ञातौ च क्षणादास्तां चांचल्याल्लोचनोद्भवात् ॥ २१ ॥

कटाक्षिताथ देवेन दुर्गा दुर्गतिघातिनी ॥ दैत्याविमामिति गणौ नेति सर्वस्वरूपिणा ॥ २२ ॥

कामदेव के बाणों से पीड़ित हुए दोनों दैत्य उन देवी पार्वती के हरणकी इच्छा से शीघ्र ही शाम्बरी माया करके आकाश से उतरे। अति दुराचारी तथा अति चंचल मनवाले वे दोनों दैत्य माया से गणों का रूप धारणकर पार्वती के समीप आये। तभी दुष्टोंका नाश करने वाले शिवजी ने क्षणमात्र में चंचल नेत्रों से उन दोनों को जान लिया। सर्वस्वरूपी महादेव ने संकटको दूर करनेवाली पार्वती की ओर देखा, उन्होंने समझ लिया कि ये दोनों दैत्य हैं, गण नहीं हैं

अथ सा नेत्रसंज्ञां स्वस्वामिनस्तां बुबोध ह ॥ महाकौतुकिनस्तात शंकरस्य परेशितुः ॥२३॥

ततो विज्ञाय संज्ञां तां सर्वज्ञार्द्धशरीरिणी ॥ तेनैव कंदुकेनाथ युगपन्निर्जघान तौ ॥२४॥

महाबलौ महादेव्या कंदुकेन समाहतौ ॥ परिभ्रम्य परिभ्रम्य तौ दुष्टौ विनिपेततुः ॥ २५ ॥

वृन्तादिव फले पक्वे तालेनानिललोलिते ॥ दंभोलिना परिहते शृंगे इव महागिरेः ॥२६॥

तौ निपात्य महादैत्यावकार्यकरणोद्यतौ ॥ ततः परिणतिं यातो लिंगरूपेण कंदुकः॥२७॥

कंदुकेश्वरसंज्ञां च तल्लिंगमभवत्तदा॥ ज्येष्ठेश्वरसमीपे तु सर्वदुष्टनिवारणम्॥२८॥

उस समय पार्वतीजी महाकौतुकी तथा कल्याणकारी परमेश्वर अपने पति शिव के नेत्र संकेत को समझ गयीं। उस नेत्रसंकेत को जानकर शिवजी की अर्धांगिनी पार्वती ने सहसा उसी गेंद से उन दोनों पर एक साथ प्रहार कर दिया। तब महादेवी पार्वती के गेंद से प्रताड़ित हुए महाबलवान् वे दोनों दुष्ट घूम-घूमकर उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार वायु के वेग से ताड़ के वृक्ष के गुच्छे से पके हुए फल तथा वज्र के प्रहार से सुमेरु पर्वत के शिखर गिर जाते हैं। कुत्सित कर्म में प्रवृत्त हुए उन दैत्यों को मारकर वह गेंद लिंगस्वरूप को प्राप्त हुआ। उसी समय से वह लिंग कन्दुकेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया। सभी दोषों का निवारण करनेवाला वह लिंग ज्येष्ठेश्वर के समीप है

एतस्मिन्नेव समये हरिब्रह्मादयस्सुराः ॥ शिवाविर्भावमाज्ञाय ऋषयश्च समाययुः॥२९॥

अथ सर्वे सुराश्शम्भोर्वरान्प्राप्य तदाज्ञया॥ स्वधामानि ययुः प्रीतास्तथा काशीनिवासिनः॥३०॥

सांबिकं शंकरं दृष्ट्वा कृतांजलिपुटाश्च ते॥ प्रणम्य तुष्टुवुर्भक्त्या वाग्भिरिष्टाभिरादरात् ॥३१॥

सांबिकोऽपि शिवो व्यास क्रीडित्वा सुविहारवित्॥ जगाम स्वालयं प्रीतस्सगणो भक्तवत्सलः ॥३२॥

इसी समय शिव को प्रकट हुआ जानकर विष्णु, ब्रह्मा आदि सब देवता तथा ऋषिगण वहाँ आये। इसके बाद सम्पूर्ण देवता तथा काशीनिवासी शिवजी से वरों को पाकर उनकी आज्ञा से अपने स्थान को चले गये। पार्वतीसहित महादेव को देखकर उन्होंने अंजलि बाँधकर प्रणामकर भक्ति और आदरपूर्वक मनोहर वाणी से उनकी स्तुति की। हे व्यासजी! उत्तम विहार को जानने वाले भक्तवत्सल शिवजी पार्वती के साथ क्रीड़ा करके प्रसन्न होकर गणोंसहित अपने लोक को चले गये

कंदुकेश्वरलिंगं च काश्यां दुष्टनिबर्हणम्॥ भुक्तिमुक्तिप्रदं सर्वकामदं सर्वदा सताम् ॥।३३॥

इदमाख्यानमतुलं शृणुयाद्यो मुदान्वितः ॥ श्रावयेद्वा पठेद्यश्च तस्य दुःखभयं कुतः ॥ ३४ ॥

इह सर्वसुखं भुक्त्वा नानाविधमनुत्तमम् ॥ परत्र लभते दिव्यां गतिं वै देवदुर्लभाम् ॥ ३५ ॥

इति तं वर्णितं तात चरितं परमाद्भुतम् ॥ शिवयोर्भक्तवात्सल्यसूचकं शिवदं सताम् ॥ ३६ ॥

काशीपुरी में कन्दुकेश्वर नामक लिंग दुष्टों को नष्ट करनेवाला, भोग और मोक्ष को देने वाला तथा निरन्तर सत्पुरुषों की कामना को पूर्ण करने वाला है। जो मनुष्य इस अद्भुत चरित्र को प्रसन्न होकर सुनता या सुनाता है, पढ़ता या पढ़ाता है, उसको दुःख और भय नहीं होता है। वह इस लोक में सब प्रकार के उत्तम सुखों को भोगकर परलोक में देवगणों के लिये भी दुर्लभ दिव्य गति को प्राप्त करता है। हे तात! भक्तों पर कृपालुता का सूचक, सज्जनों का कल्याण करने वाला तथा परम अद्भुत शिव-पार्वती का यह चरित्र मैंने आपसे कहा

॥ ब्रह्मोवाच ॥

इत्युक्त्वामंत्र्य तं व्यासं तन्नुतो मद्वरात्मजः ॥ ययौ विहायसा काशीं चरितं शशिमौलिनः ॥३७॥

युद्धखंडमिदं प्रोक्तं मया ते मुनिसत्तम ॥ रौद्रीयसंहितामध्ये सर्वकामफलप्रदम् ॥३८॥

इयं हि संहिता रौद्री सम्पूर्णा वर्णिता मया ॥ सदाशिवप्रियतरा भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ॥३९॥

इमां यश्च पठेन्नित्यं शत्रुबाधानिवारिकाम् ॥ सर्वान्कामानवाप्नोति ततो मुक्तिं लभेत ना ॥४०॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार शिवजी के चरित्र का वर्णनकर, उन व्यासजी से अनुजा लेकर और उनसे वन्दित होकर मेरे श्रेष्ठ पुत्र सनत्कुमार आकाशमार्ग से शीघ्र ही काशी को चले गये। हे मुनिश्रेष्ठ! रुद्रसंहिता के अन्तर्गत सब कामनाओं और सिद्धियों को पूर्ण करने वाले इस युद्धखण्ड का वर्णन मैंने आपसे किया शिव को अत्यन्त सन्तुष्ट करने वाली तथा भुक्ति-मुक्ति को देनेवाली इस सम्पूर्ण रुद्रसंहिता का वर्णन मैंने आपसे किया। जो मनुष्य शत्रुबाधा का निवारण करने वाली इस रुद्रसंहिता को नित्य पढ़ता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करता है और उसके बाद मुक्ति को प्राप्त कर लेता है

॥ सूत उवाच ॥

इति ब्रह्मसुतश्श्रुत्वा पित्रा शिवयशः परम् ॥ शतनामाप्य शंभोश्च कृतार्थोऽभूच्छिवानुगः ॥४१॥

ब्रह्मनारदसम्वादः सम्पूर्णः कथितो मया ॥ शिवस्सर्वप्रधानो हि किं भूयश्श्रोतुमिच्छसि ॥४२॥

सूतजी बोले- इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र नारदजी अपने पिता से शिवजी के परम यश तथा शिव के शतनामों को सुनकर कृतार्थ एवं शिवानुगामी हो गये। मैंने यह ब्रह्मा और नारदजी का सम्पूर्ण संवाद आपसे कहा शिवजी सम्पूर्ण देवताओं में प्रधान हैं, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखंडे विदलोत्पलदैत्यवधवर्णनं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

॥ समाप्तोयं युद्धखण्डः ॥

॥ समाप्तेयं द्वितीया रुद्रसंहिता ॥ २ ॥


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कन्दुकेश्वर लिंग K-६३/२९, भूत भैरव मोहल्ले में ज्येष्ठेश्वर के निकट स्थित हैं।
Kandukeshvara Linga is located at K-63/29, Bhoot Bhairav Mohalla, near Jyesthesvara.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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