Dhruveshwar (कार्तिकी पूर्णिमा पर मधुवन में भगवान नारायण का दर्शन एवं नारायण के साथ गरुड़ पर बैठ ध्रुव जी द्वारा भगवान नारायण की प्रेरणा एवं उनका अनुसरण कर काशी यात्रा तत्पश्चात मणिकर्णिका में स्नान, विश्वेश्वर पूजा एवं ध्रुवेश्वर शिवलिंग की स्थापना)

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Dhruveshwar 
ध्रुवेश्वर

स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें हुईं थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। मनु के दो पुत्रों प्रियव्रत और उत्तानपाद में से बड़े पुत्र उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे उनको दस पुत्र हुए थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। 

ध्रुव को साक्षात् दर्शन देने के पश्चात नारायण कहते हैं - मैं विश्वेश्वर के दर्शनार्थ काशी जाऊंगा। आज कार्तिकी पूर्णिमा है जो “यात्रा” अनेक पुण्यप्रदा है। जो व्यक्ति कार्त्तिक शुक्ल चतुर्दशी (वैकुंठ चतुर्दशी) के दिन उत्तरवाहिनी गंगा (मणिकर्णिका) में स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।” हरि ने यह कहकर आनन्द से सराबोर ध्रुव को गुरुड़ पर बैठाया तथा काशी की यात्रा किया। तब जनार्दन देव पंचक्रोशी के सीमान्त पर पहुंचे तथा ध्रुव का हाथ पकड़ कर गरुड़ से उतर गये। तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने ध्रुव के साथ मणिकर्णिका स्नान तथा विश्वेश्वर पूजा किया। भगवान नारायण ने ध्रुव का हित करने के लिये उससे कहा - यहां इस अविमुक्त क्षेत्र में यत्नतः शिवलिंग स्थापित करो। इससे त्रैलोक्य स्थापना के पुण्य के समान तुमको अक्षय पुण्यलाभ होगा। [स्कन्दपुराणम्/खण्डः४/अध्यायः२१]

ध्रुव कुंड : वाराणसी के अविमुक्त क्षेत्र में ध्रुव ने वैद्यनाथ लिंग (द्वादश ज्योतिर्लिंग, काशी) के समीप शिवलिंग स्थापना कर, लिंग अनुष्ठान के लिये वही एक कुंड (ध्रुव कुंड) का निर्माण करवाया। कालांतर में वाराणसी की मानव आबादी बढ़ी और यह पोखरा पाटा जाने लगा। सनातन धर्म इंटर कॉलेज इस ध्रुव कुंड को पाटकर ही बना हैं। ध्रुव जी द्वारा भगवान नारायण की प्रेरणा से काशी में शिवलिंग स्थापना के पश्चात इनके दादाजी स्वायंभुव मनु एवं चाचा प्रियव्रत द्वारा भी ध्रुवेश्वर के निकट ही शिवलिंग की स्थापना की गयी।  

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः६/अध्यायः३

धर्मं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतं न वै विदुरृषयो नापि देवाः॥ न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः कुतो नु विद्याधरचारणादयः ॥१९॥

स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः॥ प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ॥२०॥

द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः॥ गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥२१॥

स्वयं भगवान्ने ही धर्म की मर्यादा का निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थिति में मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं। भगवान् के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। दूतो! भागवतधर्म का रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं— ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शङ्कर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज)।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः१९

॥ गणावूचतुः ॥

मनोः स्वायंभुवस्यासीदुत्तानचरणः सुतः ॥ तस्य क्षितिपतेर्विप्र द्वौ सुतौ संबभूवतुः ॥ ६ ॥

सुरुच्यामुत्तमो ज्येष्ठः सुनीत्यां तु ध्रुवो परः ॥

विष्णुपार्षदगण कहते हैं- स्वायम्भुव मनु के पुत्र थे उत्तानपाद। हे विप्र! इन राजा के दो पुत्र थे। रानी सुरुचि के गर्भ से ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था उत्तम। रानी सुनीति के गर्भ से कनिष्ठ पुत्र ध्रुव का जन्म हुआ।

संक्षिप्त पौराणिक कथा : मनु महाराज के दो पुत्र थे - प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं- सुरुचि और सुनीति। उत्तानपाद सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे, सुनीति से थोड़ा कम करते थे। सुनिति के बेटे का नाम ध्रुव और सुरुचि के बेटे का नाम उत्तम था। एक बार उत्तानपाद सिंहासन पर बैठे हुए थे। ध्रुव भी खेलते हुए राजमहल में पहुँच गये। उस समय उनकी अवस्था पाँच वर्ष की थी। उत्तम राजा उत्तानपाद की गोदी में बैठा हुआ था। ध्रुव जी भी राजा की गोदी में चढ़ने का प्रयास करने लगे। सुरुचि को अपने सौभाग्य का इतना अभिमान था कि उसने ध्रुव को डांटा- “इस गोद में चढ़ने का तेरा अधिकार नहीं है। अगर इस गोद में चढ़ना है तो पहले भगवान का भजन करके इस शरीर का त्याग कर और फिर मेरे गर्भ से जन्म लेकर मेरा पुत्र बन।” तब तू इस गोद में बैठने का अधिकारी होगा। ध्रुव जी रोते हुए अपनी माँ के पास आये। माँ को सारी व्यथा सुनाई। सुनीति ने सुरुचि के लिये कटु-शब्द नहीं बोले, उसे लगा यदि मैं उसकी बुराई करुँगी तो ध्रुव के मन में हमेशा के लिये वैर-भाव के संस्कार जग जायेंगे। सुनिति ने कहा- ध्रुव तेरी विमाता ने जो कहा है, सही कहा है। बेटे! यदि भिक्षा माँगनी है तो फिर भगवान से ही क्यों न माँगी जाय? भगवान तुझ पर कृपा करेंगे, तुझे प्रेम से बुलायेंगे, गोद में भी बिठाएंगे। अब तुम वन में जाकर नारायण का भजन करो। 


बालक ध्रुव माँ का आदेश प्राप्त करके चल पड़े। जैसे ही चले भगवान के रास्ते पर, नगर से बाहर निकलते ही उनको देवर्षि नारद मिल गये।हम भगवान के रास्ते पर चलें तो सही, उनसे अपने आप सहायता मिल जायेगी।नारद जी ने ध्रुव के सिर पर हाथ रखा आशीर्वाद दिया और पूछा- बेटा! कहाँ जा रहे हो? ध्रुव ने सारी घटना बतायी। नारद जी थोडा परीक्षण करना चाहते थे- पाँच वर्ष का बालक भगवान के दर्शन के लिये भंयकर वन में जा रहा है। नारद जी जानते थे कि ये झगड़े के कारण निकल आया है। वो देखना चाहते थे, कहीं ये बीच से ही लौट न जाये। नारद जी ने कहा- बेटा! 5 वर्ष की तेरी अवस्था है। तेरा मान क्या तेरा अपमान क्या? अगर माँ ने कुछ कह भी दिया तो 5 साल के बच्चे के लिए क्या बड़ी बात है? तूने जो भगवान के साक्षात्कार का रास्ता अपनाया है- वो आसान रास्ता नहीं है। बड़े-बड़े संत लोग घर छोड़कर आ जाते हैं, उनके बाल सफ़ेद हो जाते हैं फिर भी सबको भगवान नहीं मिलते। ये बड़ा कठिन रास्ता है एक बार विचार कर लो। ध्रुव जी ने कहा- महाराज! आप मेरे रास्ते में सहयोग कर सकते हो तो करिये अन्यथा मुझे सलाह मत दीजिये। मैं ये रास्ता छोड़ने वाला नहीं हूँ। नारद जी बहुत खुश हुये और ध्रुव जी को तुरंत अपना शिष्य बना लिया। ध्रुव जी ने दीक्षा नहीं माँगी नारद जी ने स्वंय दीक्षा दे दी, ये भगवान की कृपा है। नारद जी ने कहा- बेटा! मैं तुमको मन्त्र दूंगा। नारद जी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मन्त्र दिया- “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” और कहा बेटा! वृन्दावन में जाकर इस मन्त्र का जप करना और मन, वाणी और कर्म से ठाकुर जी की सेवा करना। ध्रुव जी मधुवन में आकर साधना करने लगे। सम्पूर्ण विस्तृत कथा पुराण, भाग एवं अध्याय  : -

सुनीति का ध्रुव को राज्यलाभ उपाय का उपदेश, ध्रुव का तपोवन गमन, ध्रुव से सप्तर्षियों की वार्ता :- 

[स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः१९] तथा [श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः४/अध्यायः८]

ध्रुव की तपस्या, इन्द्र द्वारा ध्रुव तपस्या में विघ्न करना, ब्रह्मा से ध्रुव के तप का वर्णन करना, ध्रुव को भगवत्‌ दर्शन :- 

[ स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः२०] तथा [श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः४/अध्यायः९]


स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः२०

॥ श्रीविष्णुरुवाच ॥

प्रसन्नोस्मि महाभाग वरं वरय सुव्रत ॥ तपसोऽस्मान्निवर्तस्व चिरं खिन्नोसि बालक ॥ ९२ ॥

वचोऽमृतं समाकर्ण्य पर्युन्मील्य विलोचने ॥ इंद्रनीलमणिज्योतिः पटलीं पर्यलोकयत् ॥ ९३ ॥

प्रत्यग्रविकसन्नीलोत्पलानां निकुरंबकैः ॥ प्रोत्फुल्लितां समंताच्च रोदसी सरसीमिव ॥ ९४ ॥

लक्ष्मीदेवीकटाक्षोघैः कटाक्षितमिवाखिलम् ॥ धुवस्तदानिरैक्षिष्ट द्यावाभूम्योर्यदंतरम् ॥ ९५ ॥

प्रोद्यत्कादंबिनीमध्य विद्युद्दामसमानरुक् ॥ पुरः पीतांबरः कृष्णस्तेन नेत्रातिथीकृतः ॥ ९६ ॥

नभो निकष पाषाणो मेरुकांचन रेखितः ॥ यथातथा ध्रुवेणैक्षि तदा गरुडवाहनः ॥ ९७ ॥

सुनीलगगनं यद्वद्भूषितं तु कलावता ॥ पीतेन वाससा युक्तं स ददर्श हरिं तदा ॥ ९८ ॥

दंडवत्प्रणिपत्याथ परितः परिलुठ्य च ॥ रुरोद दृष्ट्वेव चिरं पितरं दुःखितः शिशुः ॥९९॥

श्रीविष्णु कहते हैं-“हे बालक! तुम दीर्घकाल से तपस्या में कष्ट पा रहे हो। इस तपस्या से अब निवृत्त हो जाओ। हे महाभाग! मैं प्रसन्न हूं। तुम वर मांगो।” ध्रुव ने इस अमृत के समान वाक्य को सुनका अपने नेत्र खोले तथा इन्द्रनील के समान ज्योतिःपटल का उन्होंने अवलोकन किया। उन्होंने देखा कि आकाश तथा पृथिवीरूपी सरोवर मानो नवविकसित नीलकमल श्रेणी द्वारा शोभित हो रहा है। ध्रुव ने यह भी देखा कि द्यावा-पृथिवी के सभी स्थान लक्ष्मीदेवी के कमल के समान नयनों के कटाक्षपात से परिपूर्ण हो रहे हैं। उन्होंने विद्युत्दाम युक्त नवनील जलधर के समान शोभित पीताम्बर कृष्ण को अपने समक्ष देखा। स्वर्ण रेखान्वित कठोर पाषाणयुक्त स्वर्णगिरि सुमेरु अनन्त नील नभमण्डल में जैसे प्रतिच्छवित होता है, भ्रुव ने पीताम्बरधारी गरुड़ध्वज को भी चन्द्रविभूषित सुनील गगनमण्डल के समान देखा। जेसे दुःखित शिशु सन्तान दीर्धकाल के उपरान्त आये अपने पिता को देखकर रुदन करने लंगता है, उसी प्रकार शिशु ध्रुव ने भी जगत्पिता को देखकर उनको प्रणाम किया तथा अपने दुःख को याद करके रोने लगे।

नारदेन सनंदेन सनकेन सुसंस्तुतः ॥ अन्यैः सनत्कुमाराद्यैर्योगिभिर्योगिनां वरः ॥१००॥

कारुण्यवाष्पनीरार्द्र पुंडरीकविलोचनः॥ ध्रुवमुत्थापयांचक्रे चक्री धृत्वा करेण तम् ॥१०१॥

हरिस्तु परिपस्पर्श तदंगं धूलिधूसरम् ॥ कराभ्यां सुकठोराभ्यां नित्यं शास्त्रपरिग्रहात् ॥१०२॥

स्पर्शनाद्देवदेवस्य सुसंस्कृतमयी शुभा ॥ वाणी प्रवृत्ता तस्यास्यात्तुष्टावाथ ध्रुवो हरिम् ॥ १०३ ॥

नारद, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार प्रभृति अन्य योगीगण द्वारा संस्तुत योगीश्वर चक्रपाणि के दोनों नयनकमल कारुण्य रूपी वाष्पजल से भर उठे। उन्होंने अपने हाथों से ध्रुव को ऊपर उठाया। निरन्तर अस्त्र धारण के कारण भगवान्‌ की हथेली कठोर हो गयी थीं, ऐसे करयुगल से हरि ने धूलधूसरित ध्रुव का स्पर्श किया। उन देवाधिदेव के स्पर्शमात्र से ध्रुव के मुख के सुसंस्कृत वाक्य निर्गत होने लगे। उस समय ध्रुव भी भगवान्‌ के स्तव करने में प्रवृत्त हो गये।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः२१

॥ ध्रुव उवाच ॥

॥ ध्रुवकृत भगवत स्तुति 

नमो हिरण्यगर्भाय सर्वसृष्टिविधायिने ॥ हिरण्यरेतसे तुभ्यं सुहिरण्यप्रदायिने ॥ १ ॥

नमो हरस्वरूपाय भूतसंहारकारिणे ॥ महाभूतात्मभूताय भूतानां पतये नमः ॥ २ ॥

नमः स्थितिकृते तुभ्यं विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ तृष्णाहराय कृष्णाय महाभार सहिष्णवे ॥ ३ ॥

नमो दैत्यमहारण्य दाववह्निस्वरूपिणे ॥ दैत्यद्रुमकुठाराय नमस्ते शार्ङ्गपाणये ॥४॥

नमः कौमोदकीव्यग्र कराग्राय गदाधर ॥ महादनुजनाशाय नमो नंदकधारिणे ॥ ५ ॥

नमः श्रीपतये तुभ्यं नमश्चक्रधराय च ॥ धराधराय वाराह रूपिणे परमात्मने ॥ ६ ॥

नमः कमलहस्ताय कमलावल्लभाय ते ॥ नमो मत्स्यादिरूपाय नमः कौस्तुभवक्षसे ॥ ७ ॥

नमो वेदांतवेद्याय नमः श्रीवत्सधारिणे ॥ नमो गुणस्वरूपाय गुणिने गुणवर्जिते ॥ ८ ॥

नमस्ते पद्मनाभाय पांचजन्यधराय च ॥ वासुदेव नमस्तुभ्यं देवकीनंदनाय च ॥ ९ ॥

प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नमः ॥ नमः कंसविनाशाय नमश्चाणूरमर्दिने ॥ १० ॥

दामोदरहृषीकेश गोर्विदाच्युतमाधव ॥ उपेंद्रकैटभाऽराते मधुहंतरधोक्षज ॥ ११ ॥

नारायणाय नरकहारिणे पापहारिणे ॥ वामनाय नमस्तुभ्यं हरये शौरये नमः ॥ १२ ॥

अनंताय नमस्तुभ्यमनंतशयनाय च ॥ रुक्मिणीपतये तुभ्यं रुक्मिप्रमथनाय च ॥ १३ ॥

चैद्यहंत्रे नमस्तुभ्यं दानवारेसुरारये ॥ मुकुंदपरमानंद नंदगोपप्रियाय च ॥ १४ ॥

नमस्ते पुंडरीकाक्ष दनुजेंद्र निषूदिने ॥ नमो गोपालरूपाय वेणुवादनकारिणे ॥ १५ ॥

गोपीप्रियाय केशिघ्ने गोवर्धनधराय च ॥ रामाय रघुनाथाय राघवाय नमोनमः ॥ १६ ॥

रावणारे नमस्तुभ्यं विभीषणशरण्यद ॥ अजाय जयरूपाय रणांगणविचक्षण ॥१७॥

क्षणादि कालरूपाय नानारूपाय शार्ङ्गिणे ॥ गदिने चक्रिणे तुभ्यं दैत्यचक्रविमर्दिने ॥१८॥

बलाय बलभद्राय बलारातिप्रियाय च ॥ बलियज्ञप्रमथन नमो भक्तवरप्रद ॥ १९ ॥

हिरण्यकशिपोर्वक्षो विदारण रणप्रिय ॥ नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ॥ २० ॥

नमस्ते धर्मरूपाय नमः सत्त्वगुणाय च ॥ नमः सहस्रशिरसे पुरुषाय पराय च ॥ २१ ॥

सहस्राक्ष सहस्रांघ्रे सहस्रकिरणाय च ॥ सहस्रमूर्ते श्रीकांत नमस्ते यज्ञपूरुष ॥२२॥

वेदवेद्यस्वरूपाय नमो वेदप्रियाय च॥ वेदाय वेदगदिने सदाचाराध्वगामिने ॥२३॥

वैकुंठाय नमस्तुभ्यं नमो वैकुंठवासिने॥ विष्टरश्रवसे तुभ्यं नमो गरुडगामिने ॥२४॥

विष्वक्सेन नमस्तुभ्यं जगन्मय जनार्दन॥ त्रिविक्रमाय सत्याय नमः सत्यप्रियाय च॥२५॥

केशवाय नमस्तुभ्यं मायिने ब्रह्मागायिने॥ तपोरूपाय तपसां नमस्ते फलदायिने ॥ २६ ॥

स्तुत्याय स्तुतिरूपाय भक्तस्तुतिरताय च ॥ नमस्ते श्रुतिरूपाय श्रुत्याचार प्रियाय च ॥ २७ ॥

अंडजाय नमस्तुभ्यं स्वेदजाय नमोस्तु ते ॥ जरायुज स्वरूपाय नम उद्भिज्जरूपिणे ॥ २८ ॥

देवानामिंद्ररूपोसि ग्रहाणामसि भानुमान् ॥ लोकानां सत्यलोकोऽसि सिंधूनां क्षीरसागरः ॥ २९ ॥

सुरापगाऽसि सरितां सरसां मानसं सरः ॥ हिमवानसि शैलानां धेनूनां कामधुग्भवान् ॥ ३० ॥

धातूनां हाटकमसि स्फटिकश्चोपलेष्वसि ॥ नीलोत्पलं प्रसूनेषु वृक्षेषु तुलसी भवान् ॥ ३१ ॥

सर्वपूज्यशिलानां वै शालग्राम शिला भवान् ॥ मुक्तिक्षेत्रेषु काशी त्वं प्रयागस्तीर्थपंक्तिषु ॥३२॥

वर्णेषु श्वेतवर्णोऽसि द्विपदां ब्राह्मणो भवान् ॥ गरुडोस्यंडजेष्वीश व्यवहारेषु वाग्भवान् ॥ ३३ ॥

वेदेषूपनिषद्रूपा मंत्राणां प्रणवोह्यसि ॥ अक्षराणामकारोसि यज्वनां सोमरूपधृक् ॥ ३४ ॥

प्रतापिनामग्निरसि क्षमाऽसि त्वं क्षमावताम् ॥ दातॄणामसि पर्जन्यः पवित्राणां परोह्यसि ॥ ३५ ॥

चापोसि सर्वशस्त्राणां वातो वेगवतामसि ॥ मनोसींद्रियवर्गेषु निर्भयाणां करोह्यसि ॥ ३६ ॥

व्योमव्याप्तिमतां त्वं वै परमात्माऽसि चात्मनाम् ॥ संध्योपास्तिर्भवान्देव सर्वनित्येषु कर्मसु॥ ३७ ॥

क्रतूनामश्वमेधोसि दानानामभयं भवान् ॥ लाभानां पुत्रलाभोसि वसंतस्त्वमृतुष्वहो ॥३८॥

आप सर्वपूज्य शिलाओं में शालग्राम, मुक्तिक्षेत्रों में काशी हैं। आप तीर्थश्रेणियों में प्रयाग तथा वर्णों (रंग) में श्वेतवर्ण हैं। आप प्राणियों में ब्राह्मण, पक्षियों में गरुड़, लौकिक प्रयोजनीय वस्तु में वाक्य, वेदों में उपनिषित्‌, मन्त्रों में प्रणव, अक्षरमाला में अकार, यज्ञकर्त्ताओं में चन्द्रमा हैं। आप प्रतापियों में अग्नि, सहिष्णुगण में क्षमा हैं। आप दाताओं में पर्जन्य, पवित्र वस्तुओं में जल, निखिल अस्त्रों में धनुष, वेगयुक्तों में से वायु हैं। आप इन्द्रियों में मन, अभय सूचकों में से हाथ हैं। आप व्यापक पदार्थों में आकाश हैं, निखिल आत्माओं में परमात्मा हैं। हे देव! आप सभी नित्यकर्मों में सन्ध्योपासना, यज्ञों में अश्वमेध, समस्त दानों में अभयदान तथा सभी लाभों में पुत्रलाभ हैं। आप ऋतुओं में वसन्त हैं।

युगानां प्रथमोसि त्वं तिथीनां त्वं कुहूर्ह्यसि ॥ पुष्योसि नक्षत्रगणे संक्रमः सर्वपर्वसु ॥ ३९ ॥

योगेषु व्यतिपातस्त्वं तृणेषु हि कुशो भवान् ॥ उद्यमानां हि सर्वेषां निर्वाणं त्वमसि प्रभो ॥ ४० ॥

सर्वासामिह बुद्धीनां धर्मबुद्धिर्भवानज ॥ अश्वत्थः सर्ववृक्षेषु सोमवल्ली लतासु च ॥ ४१ ॥

प्राणायामोसि सर्वेपु साधनेषु शुचिष्वहो ॥ सर्वदः सर्वलिंगेषु श्रीमान्विश्वेश्वरो भवान् ॥ ४२ ॥

मित्राणां हि कलत्रं त्वं धर्मस्त्वं सर्वबंधुषु ॥ त्वत्तो नान्यज्जगत्यस्मिन्नारायण चराचरे ॥ ४३ ॥

त्वमेव माता त्वं तातस्त्वं सुतस्त्वं महाधनम् ॥ त्वमेव सौख्यसंपत्तिस्त्वमायुर्जीवनेश्वरः ॥ ४४ ॥

सा कथा यत्र ते नाम तन्मनो यत्त्वदर्पितम् ॥ तत्कर्म यत्त्वदर्थं वै तत्तपो यद्भवत्स्मृतिः ॥४५॥

तद्धनं धनिनां शुद्धं यत्त्वदर्थे व्ययीकृतम् ॥ स एव सकलः कालो यस्मिञ्जिष्णो त्वमर्च्यसे ॥ ४६ ॥

तावच्च जीवितं श्रेयो यावत्त्वं हृदि वर्तसे ॥ रोगाः प्रशममायांति त्वत्पादोदक सेवनात् ॥ ४७ ॥

आप युगों में सत्ययुग, तिथियों में कुहु (विशेष अमावस्या), नक्षत्रों में पुष्य, पर्वों में संक्रान्ति योग में व्यतीपात, तृणों में कुश, चतुर्वर्ग फल में मोक्ष हैं। हे अज! सभी बुद्धियों में आप धर्मबुद्धि हैं। आप वृक्षों में पीपल, लताओं में सोमलता, सभी पावन साधनों में प्राणायाम, समस्त शिवलिंगों में सर्व अभीष्टप्रद श्रीमान विश्वेश्वर हैं। आप आत्मीय वर्गों में पत्नी, सर्वबन्धुओं में धर्म हैं। है नारायण सचराचर जगत में आपके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आप ही माता-पिता-सुहृदू-उत्तम धन तथा चुद सम्पत्ति भी हैं। हे जीवनेश्वर! आप आयु भी हैं। जिस वाणी तथा कथा में आपंका नाम हो वही यथार्थ वाणी तथा कथा है। जो आपको अर्पित हो वही यथार्थ मन है। जो आपके उद्देश्य से किया जाये, वह कर्म ही यथार्थ कर्म है। आपका ध्यान ही तपस्या है। जो धन आपके लिये व्यय किया जाये, वही विशुद्ध धन है। हे जिष्णु! आपकी पूजा जब की जाती है, वह समय सफल है। जब तक आप हृदय में रहें, तभी तक जीवित रहना श्रेयस्कर है। आपके चरण जल के सेवन से सभी रोग प्रशमित हो जाते हैं।

महापापानि गोविंद बहुजन्मार्जितान्यपि ॥ सद्यो विलयमायांति वासुदेवेति कीर्तनात् ॥ ४८ ॥

अहो पुंसां महामोहस्त्वहो पुंसां प्रमादता ॥ वासुदेवमनादृत्य यदन्यत्र कृतश्रमाः ॥ ४९ ॥

इदमेव हि मांगल्यमिदमेव धनार्जनम् ॥ जीवितस्य फलं चैतद्यद्दामोदरकीर्तनम् ॥ ५० ॥

अधोक्षजात्परोधर्मो नार्थो नारायणात्परः ॥ न कामः केशवादन्यो नापवर्गो हरिं विना ॥ ५१ ॥

इयमेव परा हानिरुपसर्गो यमेवहि ॥ अभाग्यं परमं चैतद्वासुदेवं न यत्स्मरेत् ॥ ५२ ॥

हरेराराधनं पुंसां किं किं न कुरुते बत ॥ पुत्रमित्रकलत्रार्थ राज्यस्वर्गापवर्गदम् ॥ ५३ ॥

हरत्यघं ध्वंसयति व्याधीनाधीन्नियच्छति ॥ धर्मं विवर्धयेत्क्षिप्रं प्रयच्छति मनोरथम् ॥ ५४ ॥

हे गोविन्द! हे वासुदेव! नाम के स्मरणमात्र से अनेक जन्मार्जित महापातकों का तत्क्षण विनाश हो जाता है। अहो! मनुष्य को कितना महामोह है! मनुष्य कितना प्रमादी है! वह वासुदेव का आदर नहीं करता तथा अन्य विषयों में श्रम करता है। यह दामोदर नाम का कीर्तन सर्वमंगलप्रद है, यही यथार्थ धनार्जन तथा जीवन का चरम फल भी है। अधोक्षज प्रभु के बिना कोई धर्म नहीं है, नारायण रहित कोई अर्थ नहीं है! केशवरहित कोई काम (कामना) नहीं है। हरि के बिना कोई मुक्ति नहीं है। वासुदेव का स्मरण न करना ही परम हानि है। वही उपसर्ग (रोगलक्षण) है तथा वही परम अभाग्य है। हरि की आराधना से क्या-क्या सिद्ध नही होता? हरि की सेवा पुत्र, मित्र, स्त्री, अर्थ, राज्य, धर्म तथा मुक्ति तक प्रदान करती है। इससे आधि-व्याधि नाश होता है। धर्म बढ़ता है तथा शीघ्रता से मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।

भगवच्चरणद्वंद्वं निर्द्द्वंद्व ध्यानमुत्तमम् ॥ पापिनापि प्रसंगेन विहितं स्वहितं परम् ॥ ५५ ॥

पापिनां यानि पापानि महोपपदभांज्यपि ॥ सुलीनध्यानसंपन्नो नामोच्चारो हरेर्हरेत् ॥५६॥

प्रमादादपि संस्पृष्टो यथाऽनलकणो दहेत् ॥ तथौष्ठपुटसंस्पृष्ट हरिनाम हरेदघम् ॥ ५७ ॥

नितांतं कमलाकांते शांतचित्तं विधाय यः ॥ संशीलयेत्क्षणं नूनं कमला तत्र निश्चला ॥५८॥

अयमेव परोधर्मस्त्विदमेव परं तपः ॥ इदमेव परं तीर्थं विष्णुपादांबु यत्पिबेत ॥ ५९ ॥

एकाग्रतापूर्वक भगवत्‌ चरणद्वय का ध्यान अत्युत्तम कार्य है। यदि पापी भी प्रसंगक्रमेण यह ध्यान करता है, तब उसका परमहित सम्पादित हो जाता है। एकाग्रता पूर्वक हरिध्यान तथा नामोच्चारण करने से पापीगण के समस्त पाप महापातक तक विनष्ट हो जाते हैं। जैसे अनजाने में अग्निकण का स्पर्श करने से वह दाध करता है, उसी प्रकार चाहे जैसे ओष्टपुट से संस्पृष्ट होने के कारण हरिनाम समस्त पापों का दहन कर देता है। जो व्यक्ति क्षणकाल के लिये भी कमलाकान्त की भावना एकान्त प्रशान्त मन से करता है, उसकी लक्ष्मी अचला हो जाती है। विष्णु चरणोदक पान ही परम धर्म है। वह परम तप तथा परमतीर्थ है।

तवोपहारं भक्त्याय सेवते यजपूरुष ॥ सेवितस्तेन नियतं पुरोडाशो महाधिया ॥ ६० ॥

स चैवावभृथस्नातः स च गंगाजलाप्लुतः ॥ विष्णुपादोदकं कृत्वा शंखे यः स्नाति मानवः ॥ ६१ ॥

शालग्राम शिला येन पूजिता तुलसी दलैः ॥ स पारिजातमालाभिः पूज्यते सुरसद्मनि ॥ ६२ ॥

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा यदि वेतरः ॥ विष्णुभक्ति समायुक्तो ज्ञेयः सर्वोत्तमश्च सः ॥ ६३ ॥

हे यज्ञपुरुष! जो व्यक्ति आपका प्रसाद-नेवेद्य भक्तिपूर्वक ग्रहण करता, उस महामति ने निश्चित रूप पे पुरोडाश का सेवन किया है (अर्थात्‌ पुरोडाश के अधिकारी केवल प्रधान देवता होते हैं। अतः वह महामति देवरूप हो जाता है)। जो मानव विष्णुपादोदक को शंख में लेकर उससे स्नान करता है, उसे यज्ञ के अन्त में किये जाने वाले अवभृथ (यज्ञांतस्नान) स्नान तथा गंगा स्नान का फल लाभ होता हैं। जो मानव तुलसीपत्र से शालग्रामशिला की पूजा करता है, वह देवलोक में पारिजात माला द्वारा पूजित होता है। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र अथवा अन्य जाति वाले भी विष्णभक्तियुक्त होकर सर्वोत्तम कहे जाते हैं

शंखचक्रांकिततनुः शिरसां मंजरीधरः ॥ गोपीचंदनलिप्तांगो दृष्टश्चेत्तदघं कुतः ॥ ६४ ॥

प्रत्यहं द्वादशशिलाः शालग्रामस्य योऽर्चयेत् ॥ द्वारवत्याः शिलायुक्तः स वैकुंठे महीयते ॥ ६५ ॥

तुलसी यस्य भवने प्रत्यहं परिपूज्यते ॥ तद्गृहं नोपसर्पंति कदाचिद्यमकिंकराः ॥ ६६ ॥

हरिनामाक्षरमुखं भाले गोपीमृदांकितम् ॥ तुलसीमालितोरस्कं स्पृशेयुर्नयमानुगाः ॥ ६७ ॥

गोपीमृत्तुलसी शंखः शालग्रामः सचक्रकः ॥ गृहेपि यस्य पंचैते तस्य पापभयं कुत. ॥ ६८ ॥

ये मुहूर्ताः क्षणा ये च या काष्ठा ये निमेषकाः ॥ ऋते विष्णुस्मृतेर्यातास्तेषु मुष्टो यमेन सः ॥ ६९ ॥

क्व द्वयक्षरं हरेर्नाम स्फुलिंगसदृशं ज्वलेत ॥ महती पातकानां च राशिस्तूलोपमा क्व च ॥ ७० ॥

गोविंद परमानंदं मुकुंदं मधुसूदनम ॥ त्यक्त्वान्यं नैव जानामि न भजामि स्मरामि न ॥ ७१ ॥

जिसकी देह के दोनों बाहु शंख-चक्र अंकित हैं, मस्तक पर तुलसी मंजरी है, अंग गोपीचन्दन लिप्त हैं, उसे देखने से पाप दुरीभूत हो जाता है। जो व्यक्ति नित्य द्वारकाचक्र समन्वित द्वादश शालग्राम शिला की पूजा करता है, वह वैकुण्ठ में निवास करता है। जिसके गृह में नित्य तुलसी की पूजा की जाती है, यमकिंकर (यमदूत) उसके यहां गृह में नहीं आते। जिसके मुख में सदा हरिनाम हैं, हि जिसके ललाट पर गोपी चन्दन लगा है तथा वक्षस्थल पर तुलसी माला है, यम के अनुचर उसका स्पर्श नहीं करते। गोपीचन्दन, तुलसी, शंख, शालग्राम तथा द्वारकाचक्र- ये पांच जिसके गृह में हैं, उनको पापभय नहीं रहता। बिना हरि स्मरण किये जो क्षण-मुहर्त-काष्ठा तथा निमेष बीत जाते हैं, वह सब समय यम द्वारा अपहृत कर लिये जाते हैं। कहां ज्वलन्त अग्निस्फुलिंग के समान द्वयक्षर हरिनाम और कहां रुई के समान महान्‌ पापराशि! परमानन्द मुकुन्द, मधुसूदन, गोविन्द के अतिरिक्त मैं अन्य किसी को नहीं जानता, भजता नहीं तथा स्मरण नहीं करता।

न नमामि न च स्तौमि न पश्यामीह चक्षुषा ॥ न स्पृशामि न वायामि गायामि न न हरिं विना ॥ ७२ ॥

जले स्थले च पातालेप्यनिले चानलेऽचले ॥ विद्याधरासुरसुरे किं नरे वानरे नरे ॥ ७३ ॥

तृणेस्त्रैणे च पाषाणे तरुगुल्मलतासु च ॥ सर्वत्र श्यामलतनुं वीक्षे श्रीवत्सवक्षसम् ॥ ७४ ॥

सर्वेषां हृदयावासः साक्षात्साक्षी त्वमेव हि ॥ बहिरंतर्विना त्वां तु नह्यन्यं वेद्मि सर्वगम् ॥ ७५ ॥

इत्युक्त्वा विररामासौ शिवशर्मन्ध्रुवस्तदा ॥ देवोपि भगवान्विष्णुस्तमुवाच प्रसन्नदृक् ॥ ७६ ॥

मैं हरि के अतिरिक्त किसी को प्रणाम नहीं करता, स्तव नहीं करता, नेत्र से नहीं देखता, उसका गान नहीं करता तथा हरिमन्दिर के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं जाता। में जल, थल, पाताल, वायु, अग्नि, पर्वत, विद्याधर, सुर-असुर, नर, वानर, किन्नर, तृण, स्त्रैण, पाषाण, तरु, गुल्म, लता - इन सबमें, सर्वत्र श्याम कलेवर श्रीवत्स वक्षस्थलधारी श्रीकृष्ण को ही देखता हूं। आप सबके हृदय में रहने वाले साक्षात्‌ साक्षी हैं। आप सर्वगामी हैं। आपके अतिरिक्त मैं बाह्य-अभ्यन्तर में किसी को नहीं देखता। हे शिवशर्मा! ध्रुव यह कहकर मौन हो गये। तब भगवान्‌ विष्णु ने प्रसन्ननयन होकर ध्रुव से कहा -

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

अपि बाल विशालाक्ष ध्रुव ध्रुवमतेऽनघ ॥ परिज्ञातो मया सम्यक्तवहृत्स्थो मनोरथः ॥ ७७ ॥

अन्नाद्भवंति भूतानि वृष्टेरन्नसमुद्भवः ॥ तद्वृष्टेः कारणं सूर्यः सूर्याधारो ध्रुवैधि भोः ॥७८॥

ज्योतिश्चक्रस्य सर्वस्य ग्रहर्क्षादेः समंततः ॥ गगने भ्रमतो नित्यं त्वमाधारो भविष्यसि ॥ ७९ ॥

मेढीभूतस्तु वै सर्वान्वायुपाशैर्नियंत्रितान् ॥ आकल्पं तत्पदं तिष्ठ भ्रामयञ्ज्योतिषांगणान् ॥ ८० ॥

आराध्य श्री महादेवं पुरापदमिदं मया ॥ आसादियत्तदेतत्ते तपसा प्रतिपादितम् ॥ ८१ ॥

केचिच्चतुर्युगं यावत्केचिन्मन्वंतरं ध्रुव ॥ तिष्ठंति त्वं तु वै कल्पं पदमेतत्प्रशास्यसि ॥ ८२ ॥

भगवान्‌ कहते हैं - हे ध्रुवमति विशालाक्ष, निष्पाप, बालक, ध्रुव! मैं तुम्हारे हृदयस्थ मनोरथ को जानता हूं। हे ध्रुव! अन्न से समस्त भूत उत्पन्न होते हैं। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। वर्षा के कारण हैं सूर्य, तुम अब सूर्य के भी आश्रय हो जाओगे। अनवरत-गगनमण्डल में चतुर्दिक्‌ घूमते ग्रहनक्षत्रादि समस्त ज्योतिश्चक्र के तुम आधार रहोगे। तुम मेढ़ीभूत होकर वायुपाश से नियन्रित समस्त तारकों का भ्रामण करते हुये प्रलय तक इस पद पर अधिष्ठित रहोगे। मैंने पूर्वकाल में महादेव की आराधना से जो यह पद प्राप्त किया था, उसे मैंने तुम्हारे तपोबल के कारण तुमको दे दिया। हे ध्रुव! कोई-कोई चार युग तक अपने अधिकार का भोग करता है, कोई मन्वन्तर तक स्थित रहता है, लेकिन तुम कल्पान्त पर्यन्त इस अधिकार का पालन करोगे।

मनुनापि न यत्प्रापि किमन्यैर्मानवैर्ध्रुव ॥ तत्पदं विहितं त्वत्साच्छक्राद्यैरपि दुर्लभम् ॥ ८३ ॥

अन्यान्वरान्प्रयच्छामि स्तवेनानेन तोषितः ॥ सुनीतिरपि ते माता त्वत्समीपे चरिष्यति ॥ ८४ ॥

इदं स्तोत्रवरं यस्तु पठिष्यति समाहितः ॥ त्रिसंध्यं मनुजस्तस्य पापं यास्यति संक्षयम्॥८५॥

न तस्य सदनं लक्ष्मीः परित्यक्ष्यत्यसंशयम् ॥ न जनन्या वियोगश्च न बंधुकलहोदयः ॥ ८६ ॥

ध्रुवस्तुतिरियं पुण्या महापातकनाशिनी ॥ ब्रह्महापि विशुद्ध्येत का कथेतर पापिनाम् ॥ ८७ ॥

महापुण्यस्य जननी महासंपत्तिदायिनी ॥ महोपसर्गशमनी महाव्याधिविनाशिनी ॥ ८८ ॥

यस्याऽस्तिपरमा भक्तिर्मयि निर्मलचेतसः ॥ ध्रुवस्तुतिरियं तेन जप्या मत्प्रीतिकारिणी ॥ ८९ ॥

हे वत्स ध्रुव! अन्य मनुष्यों की तो बात ही क्या? मनु ने भी जिस पद को प्राप्त नहीं किया है तथा जो पद इन्द्रादि देवताओं को भी दुर्लभ है, वह पद मैं तुमको प्रदान करता हूं। तुम्हारी माता सुनीति भी तुम्हारे निकट रहेंगी जो मानव एकाग्रतापूर्वक इस स्तोत्र का त्रिसन्ध्या पाठ करेगा, उसके पाप एक बारगी ही नष्ट हो जायेंगे। लक्ष्मी उसके गृह का कभी त्याग ही नहीं करेंगी। उस व्यक्ति को मातृवियोग नहीं होगा। उसका बन्धुवर्ग से कभी कलह नहीं होगां। यह पुण्यमयी ध्रुव कृत स्तुति महापातकनाशिनी है। यह स्तोत्रपाठ ब्रह्मघाती को भी पापरहित कर देता है। अन्य पापी की तो बात ही क्या? यह स्तुति महापुण्यप्रदा, महासम्पतिप्रदा, महान्‌ उपसर्ग प्रशमनी तथा महाव्याधि विनाशिनी है। जिस निर्मल चित्त वाले में मेरे प्रति परमा भक्ति है , वे मेरी प्रीति बढ़ाने वाली ध्रुवकृत स्तुति का पाठ करें।

समस्त तीर्थस्नानेन यत्फलं लभते नरः ॥ तत्फलं सम्यगाप्नोति जपन्स्तुत्यानया मुदा ॥ ९० ॥

संति स्तोत्राण्यनेकानि मम प्रीतिकराणि च ॥ ध्रुवस्तुतेर्न चैतस्याः कलामर्हंति षोडशीम् ॥ ९१ ॥

श्रुत्वापीमां स्तुतिं मर्त्यः श्रद्धया परया मुदा ॥ पातकैर्मुच्यते सद्यो महत्पुण्यमवाप्नुयात् ॥ ९२ ॥

अपुत्रः पुत्रमाप्नोति निर्धनो धनमाप्नुयात् ॥ अभक्तो भक्तिमाप्नोति कीर्तनाच्च ध्रुवस्तुतेः ॥ ९३ ॥

दत्त्वा दानान्यनेकानि कृत्वा नाना व्रतानि च ॥ यथालाभानवाप्नोति तथा स्तुत्याऽनया नरः ॥ ९४ ॥

त्यक्त्वा सर्वाणि कार्याणि त्यक्त्वा जप्यान्यनेकशः ॥ ध्रुवस्तुतिरियं जप्या सर्वकामप्रदायिनी ॥ ९५ ॥

मनुष्य को सर्वतीर्थ स्नान से जो फललाभ होता है, प्रेमपूर्वक इस स्तव का पांठ करने वाला उसी तीर्थस्नान फल को प्राप्त करता है। मेरे प्रीतिकारक अनेक स्तोत्र तो हैं किन्तु इस ध्रुव स्तुति के सोलहवें भाग के भी एक भाग के बराबर वे नहीं ठहरते। मानव श्रद्धापूर्वक सदा आनन्दित होकर इस स्तोत्र को सुनने से भी सद्यः पापों से रहित होकर महत्‌ पुण्य लाभ करता है। इस ध्रुवकृत स्तव का पाठ करने से अपुत्रक को पुत्र लाभ, निर्धन को धन लाभ तथा अभक्त को भक्तिलाभ होता है। इस भक्ति से मानव की जो अभीष्ट सिद्धि होती है, वह अनेक दान तथा व्रतावरण से भी प्राप्त नहीं होती। सभी कर्मों का त्याग करके सर्वकामग्रदा ध्रुवकृत स्तवपाठ करना चाहिये।

॥ श्रीभगवानुवाच ॥

ध्रुवावधेहि वक्ष्यामि हितं तव महामते ॥ येन ते निश्चलं सम्यक्पदमेतद्भविष्यति ॥ ९६ ॥

अहं जिगमिषुस्त्वासं पुरीं वाराणसीं शुभाम् ॥ साक्षाद्विश्वेश्वरो यत्र तिष्ठते मोक्षकारणम् ॥ ९७ ॥

विपन्नानां च जंतूनां यत्र विश्वेश्वरः स्वयम् ॥ कर्णे जापं प्रकुरुते कर्मनिर्मूलन क्षमम् ॥ ९८ ॥

अस्य संसारदुःखस्य सर्वोपद्रवदायिनः ॥ उपाय एक एवास्ति काशिकानंदभूमिका ॥ ९९ ॥

इदं रम्यमिदं नेति बीजं दुःखमहातरोः ॥ तस्मिन्काश्यग्निना दग्धे दुःखस्यावसरः कुतः ॥१००॥

प्राप्य संप्राप्यते येन न भूयो येन शोच्यते ॥ परायानिर्वृतेः स्थानं यत्तदानंदकाननम् ॥ १०१ ॥

श्री भगवान्‌ कहते हैं -हे ध्रुव! मनोयोग पूर्वक श्रवण करो। हे महामति! जिससे तुम्हारा यह पद सम्यकतः स्थिर हो जाये, वह हितकारी उपदेश तुमको देता हूं। जहां मुक्तिदाता विश्वेश्वर साक्षातरूपेण स्थित हैं, मैं इससे पूर्व उस काशी में जाने को इच्छुक हुआ था। इस काशी में स्वयं विश्वेश्वर यहां मृत प्राणियों के कर्म को निर्मूल करने में समर्थ तारकमन्त्र का उपदेश देते हैं। इस सर्व उपद्रवकारी संसार दुःख से एकमात्र निस्तार का उपाय है आनन्दपुरी काशी। यह जो “यह रमणीय है, यह रमणीय नहीं है” इस प्रकार का प्रिय-अप्रिय ज्ञान है, वही महादुःख रूपी वृक्ष का बीज है। काशी रूपी अग्नि से जब यह बीज दग्ध हो जाता है, तब दुःख का अवसर कहां रहेगा? जो मनुष्य का परम प्राप्तव्य है, वह इस काशी की ही सहायता से मिलता है। इस काशी की प्राप्ति हो जाने पर पुनः संसार रूपी कष्ट की प्राप्ति नहीं होती। यह परम निर्वृत्ति का स्थान है। तभी इसे आनन्दकानन कहा जाता है।

अमृतायनमुत्सृज्य पुरुषोन्यत्र यो वसेत् ॥ आनंदकाननं शंभोः कुतस्तस्य सुखोदयः ॥ १०२ ॥

वरं शरावहस्तस्य चांडालागारवीथिषु ॥ भिक्षार्थमटनं काश्यां राज्यं नान्यत्र नीरिषु ॥ १०३ ॥

वैकुंठनगरात्काशीं नित्यं विश्वेशमर्चितुम् ॥ अहमायामि नियमाज्जगदर्च्यं तदर्चिताम् ॥ १०४ ॥

मयि या परमा शक्तिस्त्रिलोक्या रक्षणक्षमा ॥ तत्र हेतुर्महेशानः स सुदर्शनचक्रदः ॥ १०५ ॥

पुरा जालंधरं दैत्यं ममापि परिकंपनम् ॥ पादांगुष्ठाग्ररेखोत्थं चक्रं सृष्ट्वा हरोऽहरत् ॥ १०६ ॥

जो व्यक्ति इस मुत्तिक्षेत्र शिव के आनन्दकानन को छोड़कर अन्यत्र निवास करता है, उसका सुखोदय कैसे होगा? काशी में चाण्डाल के ग्रह-गृह में हाथ में मृत्तिका का पात्र लेकर भिक्षार्थ भ्रमण करना उत्तम है परन्तु अन्यत्र निष्कण्टक राज्य प्राप्ति भी उतनी श्रेष्ठ स्थिति नहीं है। मैं विश्वेश्वर की पूजा करने के लिये जगद्‌अर्चनीया विश्वेश्वर पूजिता काशी में नित्य वैकुण्ठ से आता हूं। मुझमें जो त्रैलोक्यपालिनी परमा शक्ति है, महेश्वर ही उसके कारणरूप हैं। उन्होंने ही मुझे सुदर्शनचक्र प्रदान किया था। पूर्वकाल में मुझे भी भयभीत करने वाले जालन्धर दैत्य को महेश्वर ने अपने पादांगुष्ठ से इस चक्र की सृष्टि करके नष्ट किया था।

तच्च चक्रं मया लब्धं नेत्रपद्मार्चनाद्विभोः ॥ एतत्सुदर्शनाख्यं वै दैत्यचक्रप्रमर्दनम् ॥ १०७ ॥

तन्मया तव रक्षार्थं भूतविद्रावणं परम् ॥ तावत्प्रणुन्नं पुरतस्ततश्चाहमिहागतः ॥१०८॥

काशीमिदानीं यास्यामि विश्वेश्वर विलोकने॥ अद्य यात्राऽस्ति महती कार्तिक्यां बहुपुण्यदा ॥ १०९ ॥

कार्तिकस्य चतुर्दश्यां विश्वेशं यो विलोकयेत् ॥ स्नात्वा चोत्तरवाहिन्यां न तस्य पुनरागतिः ॥ ११० ॥

इत्युक्त्वा तार्क्ष्यमारोप्य ध्रुवमानंदमेदुरम् ॥ क्षणाद्वाराणसीं प्राप हरिः स्मरहरोषिताम् ॥ १११ ॥

पंचक्रोश्याश्च सीमानं प्राप्य देवो जनार्दनः ॥ वैनतेयादवारुह्य करे धृत्वा ध्रुवं ततः ॥ ११२ ॥

मैंने अपने नेत्ररूपी कमल से प्रभु महेश्वर की अर्चना करने पर इस दैत्यचक्रप्रमर्दन सुदर्शन नामक चक्र को प्राप्त किया था। मैंने भूत-प्रेतादि के विद्रावणार्थ तथा तुम्हारी रक्षा के लिये इस परम सुदर्शन-चक्र को पहले तुम्हारे यहां भेजा था, अब मैं स्वयं आया हूं। अब मैं विश्वेश्वर के दर्शनार्थ काशी जाऊंगा। आज कार्तिकी पूर्णिमा है जो “यात्रा” अनेक पुण्यप्रदा है। जो व्यक्ति कार्त्तिक शुक्ल चतुर्दशी (वैकुंठ चतुर्दशी) के दिन उत्तरवाहिनी गंगा (मणिकर्णिका) में स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।” हरि ने यह कहकर आनन्द से सराबोर ध्रुव को गुरुड़ पर बैठाया तथा काशी की यात्रा किया। तब जनार्दन देव पंचक्रोशी के सीमान्त पर पहुंचे तथा ध्रुव का हाथ पकड़ कर गरुड़ से उतर गये।

मणिकर्ण्यां परिस्नाय विश्वेशमभिपूज्य च ॥ ध्रुवं बभाषे भगवान्हितं तस्य चिकीर्षयन् ॥ ११३ ॥

लिंगं स्थापय यत्नेन क्षेत्रेऽत्रैवाविमुक्तके ॥ त्रैलोक्यस्थापनं पुण्यं यथा भवति तेऽक्षयम् ॥ ११४ ॥

नियुतं यत्परिस्थाप्य लिंगानि फलमाप्यते ॥ अन्यत्र तदिहैकेन लिंगेन परिलभ्यते ॥ ११५ ॥

कालेन भंगमापन्नं जीर्णोद्धारं करोति यः ॥ इह तस्य फलस्यांतः प्रलयेपि न जायते ॥ ११६ ॥

तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने ध्रुव के साथ मणिकर्णिका स्नान तथा विश्वेश्वर पूजा किया। गवान नारायण ने ध्रुव का हित करने के लिये उससे कहा- यहां इस अविमुक्त क्षेत्र में यत्नतः शिवलिंग स्थापित करो। इससे त्रैलोक्य स्थापना के पुण्य के समान तुमको अक्षय पुण्यलाभ होगा। यहां कालप्रभाव से जीर्ण हो गये देवालय का जो कोई भी जीर्णोद्धार करता है, उसके फल की समाप्ति प्रलयकाल में भी नहीं होती।

वित्तशाठ्यं परित्यज्य प्रासादं योऽत्र कारयेत् ॥ तेन दत्तो भवेत्सर्वो मेरुर्नियुतयोजनः ॥ ११७ ॥

कूपवापीतडागानि शक्त्या योऽत्र तु कारयेत् ॥ अन्यत्र करणात्तस्य पुण्यं कोटिगुणाधिकम् ॥ ११८ ॥

इज्यार्थमत्र यः कुर्यात्सुरम्यां पुष्पवाटिकाम् ॥ पुष्पेपुष्पे फलं तस्य सुवर्णकुसुमाधिकम् ॥ ११९ ॥

अत्र ब्रह्मपुरीं कृत्वा यो विप्रेभ्यः प्रयच्छति ॥ वर्षाशनेन संयुक्तां तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ १२० ॥

जो व्यक्ति वित्तशाठ्य (कंजूसी) का त्याग करके यहां देवमन्दिर का निर्माण कराता है, अन्यत्र यह सब करने से जो पुण्य होता है, उसकी अपेक्षा कोटिगुणित फल यहां पुण्य करने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति पूजार्थ इस काशी में सुरम्य पुष्प उद्यान का निर्माण करता है, उसे प्रतिपुष्प में स्वर्ण कुसुम प्रदान करने की अपेक्षा अधिक फल मिलता है। जो व्यक्ति इस काशी में वेदपाठशाला का निर्माण करके वहां एक वर्ष भोजन के लिये भोज्य द्रव्य की व्यवस्था के उपरान्त उसे ब्राह्मण को दान करता है, उसका पुण्य संक्षेप में सुनो।

क्षीयंते सलिलान्यब्धेर्भौमाश्च त्रसरेणवः ॥ क्षयो न तस्य पुण्यस्य शिवलोके समासतः ॥ १२१ ॥

मठानपि तपस्विभ्यः कारयित्वाऽत्र योर्पयेत् ॥ जीवनोपायसंयुक्तान्सोपि पूर्वफलाश्रयः ॥ १२२ ॥

कृत्वा महांति पुण्यानि योऽत्र विश्वेश्वरेऽर्पयेत् ॥ न तस्य पुनरावृरत्ति घोरे संसारसागरे ॥१२३॥

अनंत इति वादोयं मयिलोकेऽत्र गीयते ॥ परं काशी गुणानां हि मयाप्यंतो न लभ्यते ॥१२४॥

तस्मात्प्रयत्नतः काश्यां धुव श्रेयः समाश्रयेत् ॥ काशी श्रेयः फलं पुंसामक्षया योपजायते ॥१२५॥

भले ही समुद्र की जलशशि शुष्क हो जाये, प्रथिवी की समस्त त्रसरेणु क्षयीभूत हो जायें तथापि शिवलोक प्राप्त उस व्यक्ति का पुण्य कदापि क्षय नहीं होता। जो व्यक्ति काशी में मठ बनवाकर तथा मठस्थ लोगों की जीविका का उपाय करके उस मठ को तपस्वीगण को प्रदान करता है, उसका भी पुण्य पूर्ववत्‌ ही है। इस स्थान में महापुण्य संचित करके उसे विश्वेश्वर को अर्पित कर देता है, उसे इस घोर संसार सागर मे उनः जन्म नहीं लेना पड़ता। इस जगत्‌ में मेरा अनन्त नाम प्रसिद्ध है, तथापि मैं भी इस काशी की गुणावली का अन्त नहीं जानता (अर्थात्‌ इसके सभी गुणों का वर्णन नहीं कर सकता)। हे ध्रुव! तुम यत्रतः यहां धर्मकार्यनुष्ठान करो। काशी में अनुष्ठित धर्मफल अक्षय हो जाता है।

॥ गणावूचतुः ॥

ध्रुवमित्युपदिश्याथ जगाम गरुडध्वजः ॥ ध्रुवोपि लिंगं संस्थाप्य वैद्यनाथसमीपतः ॥ १२६ ॥

प्रासादं सुमहत्क्रृत्वा कृत्वा कुंडं तदग्रतः ॥ विश्वेश्वरं समभ्यर्च्य कृतकृत्यो गृहं ययौ ॥ १२७ ॥

ध्रुवेश्वरं समभ्यर्च्य ध्रुवकुंडे कृतोदकः ॥ ध्रुवलोकमवाप्नोति नरो भोगसमन्वितः ॥ १२८ ॥

ध्रुवस्य परमाख्यानं यः पठेत्पाठयेदपि ॥ स विष्णुलोकमासाद्य जायते विष्णुवल्लभः ॥ १२९ ॥

नरो ध्रुवस्य चरितं प्रसंगेन स्मरन्नपि ॥ न पापैरभिभूयेत महत्पुण्यमवाप्नुयात् ॥ १३० ॥

विष्णुपार्षदगण कहते हैं- गरुड़ध्वज प्रभु ने ध्रुव को यह उपदेश देकर वहां से प्रस्थान किया। ध्रुव ने भी वहां वैद्यनाथ लिंग के समीप लिंग स्थापना करके वहां महान्‌ देवप्रासाद बनवाकर उसके समक्ष कुण्ड स्थापित किया तथा विश्वेश्वर की पूजा करके कृतार्थ होकर अपने गृह लौट आये। मनुष्य ध्रुवेश्वर की अर्चना तथा ध्रुवकुण्ड में स्नानादि जल कृत्य सम्पन्न करके जीवनकाल में भोग समन्वित होकर अन्ततः ब्रह्मलोक गत करता है। जो व्यक्ति ध्रुव के इस परम उपाख्यान का पाठ करता है अथवा पाठ कराता है, वह विष्णुलोक में विष्णु का प्रीतिभाजन हो जाता है।

डति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्द्धे ध्रुवस्तुतिर्नामैकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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EXACT GPS LOCATION : 25.311246862380727, 83.00423140495491

ध्रुवेश्वर लिंग कोदई चौकी, सनातन धर्म इंटर कॉलेज, डी.४९/१०  में स्थित है।
Dhruveshwar Linga is situated at Kodai Chowki, Sanatan Dharma Inter College, D.49/10.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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