Vaidyanath Jyotirlinga (वैद्यनाथ - चिताभूमि अविमुक्तक्षेत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग, काशीखण्ड)

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Vaidyanath Jyotirlinga
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग - चिताभूमि अविमुक्तक्षेत्र, काशी

माँ गंगा पृथ्वी पर त्रेतायुग में ज्येष्ठमास की शुक्लपक्ष दशमी को हस्त नक्षत्र में अवतरित हुई थीं। त्रेता युग से पूर्व गंगा काशी में नहीं थी। अविमुक्त क्षेत्र महाश्मशान कहा गया है। यह अविमुक्त महाक्षेत्र चारों युगों में महाशमशान के रूप में ही प्रतिष्ठित रहता है। काशी में माँ गंगा के आने से पूर्व सतयुग तक काशी में चिता दहन के पश्चात हड्डी (अस्थि) का विसर्जन अस्थिक्षेप तड़ाग (वर्तमान हड़हा-बेनिया) में किया जाता था। अतः अविमुक्त महाक्षेत्र (चिताभूमि, महाशमशान) वाराणसी के अंतर्गत ही देवघर से भगवान बैद्यनाथ काशी में स्वयं प्रकट हैं। पौराणिक वचन इसकी पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार मूल में स्थित ज्योतिर्लिंग भी पौराणिक वचनों से ही सिद्ध होते हैं। उसी प्रकार इस पौराणिक लेख में हम काशी में स्वयं प्रकट द्वादश ज्योतिर्लिंग के क्रम में भगवान वैद्यनाथ की पुष्टि करेंगे।

विशेष ध्यान देने योग्य बात : जैसा कि हम सभी को विदित है कि काशी के बैजनत्था मोहल्ले में भगवान वैद्यनाथ का स्थान माना जाता है। परंतु स्कंदपुराण काशीखंड में उस स्थान को संकेत करते हुए अन्यत्र नाम से श्लोक प्राप्त होता है। ना ही वह स्थान काशी की चिता भूमि है। पौराणिक वचनों के आधार पर जिन्हें बैजनत्था पर वैद्यनाथ कहा जा रहा है, उनका नाम कुछ और ही है।

॥ अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने महाश्मशाने गौरीमुखे त्रिकण्टक विराजिते ॥

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_१००

कश्यपेशं नमस्कृत्य हरिकेशवनं ततः । वैद्यनाथं ततो दृष्ट्वा ध्रुवेशमथ वीक्ष्य च ॥ ८२ ॥
स्कंदपुराण काशीखण्ड अध्याय १०० में भगवान वेदव्यास समस्त पापों की शान्ति के लिये अविमुक्त महाक्षेत्र ‌एवं विश्वेश्वर की अन्तर्गृही यात्रा दर्शन क्रम में शिवभक्तों को मार्ग इस प्रकार दिखाते है : - कश्यपेश्वर को नमस्कार कर हरिकेशवन में स्थित वैद्यनाथ और ध्रुवेश्वर का दर्शन करना चाहिए।
गोकर्णेश्वरमभ्यर्च्य हाटकेशमथो व्रजेत् । अस्थिक्षेप तडागे च दृष्ट्वा वै कीकसेश्वरम् ॥ ८३ ॥
तत्पश्चात् गोकर्णेश्वर, हाटकेश्वर का पूजन करते हुए अस्थिक्षेप तडाग (हड़हा-बेनिया) पर कीकसेश्वर का दर्शन करना चाहिए।

लिंगपुराण कृत्यकल्पतरू (काशीतीर्थमहात्म्य) में इस प्रकार वर्णित है : -

ध्रुवेशस्याग्रतो देवि मुखलिङ्गं च तिष्ठति॥
पश्चान्मुखं तु तल्लिङ्गं तीरे कुण्डस्य भामिनि।
वैद्यनाथं तु तं विद्यात् सर्वसौख्यप्रदायकम्॥
हे देवि! ध्रुवेश के आगे पश्चिमाभिमुख मुखलिङ्ग स्थित है, हे भामिनि! वह लिङ्ग कुण्ड के तट पर विद्यमान है। सभी प्रकार का सुख प्रदान करने वाले उस लिङ्ग को वैद्यनाथ नाम वाला जानना चाहिये।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०२६

॥ अगस्तिरुवाच ॥
प्रसन्नोसि यदि स्कंद मयि प्रीतिरनुत्तमा । तत्समाचक्ष्व भगवंश्चिरं यन्मे हृदिस्थितम् ॥ १ ॥
अविमुक्तमिदं क्षेत्रं कदारभ्य भुवस्तले । परां प्रथितिमापन्नं मोक्षदं चाभवत्कथम् ॥ २ ॥
कथमेषा त्रिलोकीड्या गीयते मणिकर्णिका । तत्रासीत्किं पुरास्वामिन्यदा नामरनिम्नगा ॥ ३ ॥
वाराणसीति काशीति रुद्रावास इति प्रभो ।
अवाप नामधेयानि कथमेतानि सा पुरी । आनंदकाननं रम्यमविमुक्तमनंतरम् ॥ ४ ॥
महाश्मशान इति च कथं ख्यातं शिखिध्वज । एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं संदेहं मेऽपनोदय ॥ ५ ॥
महर्षि अगस्त्य ने कहा: हे स्कंद!, यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मेरे प्रति आपका स्नेह उत्कृष्ट है, तो हे पवित्र श्रीमान, जो मेरे हृदय में लंबे समय से संजोया हुआ है, उसे मुझे सुनाएं। इस पवित्र स्थान अविमुक्त को कब से सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई है? यह मोक्ष दाता कैसे बन गया? यह मणिकर्णिका तीनों लोकों द्वारा स्तुति के योग्य क्यों मानी जाती है? हे स्वामी, पहले जब यहां कोई दिव्य नदी (गंगा) नहीं थी तो क्या था? हे भगवान! इस नगर का नाम वाराणसी, काशी, रुद्रवास (रुद्र का निवास) कैसे पड़ा? हे मोर-चिह्न वाले! यह सुंदर अविमुक्त, आनंदकानन बाद में महाश्मशान के रूप में कैसे प्रतिष्ठित हुआ? मैं इसके बारे में सुनना चाहता हूं। मेरा संदेह दूर करिये। 

स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः७४

पूर्वतो मणिकर्णीशो ब्रह्मेशो दक्षिणे स्थितः । पश्चिमे चैव गोकर्णो भारभूतस्तथोत्तरे ॥४५॥
इत्येतदुत्तमं क्षेत्रमविमुक्ते महाफलम् । मणिकर्णी ह्रदे स्नात्वा दृष्ट्वा विश्वेश्वरंविभुम् ॥४६॥
क्षेत्रं प्रदक्षिणीकृत्य राजसूयफलं लभेत् । तत्र श्राद्धप्रदातुश्च मुच्यंते प्रपितामहाः ॥४७॥
अविमुक्त समं क्षेत्रमपि ब्रह्मांडगोलके । न विद्यते क्वचित्सत्यं सत्यं साधकसिद्धिदम् ॥४८॥
मणिकर्णीश्वर पूर्व में है; ब्रह्मेश्वर दक्षिण में स्थित है; पश्चिम में गोकर्णेश्वर और उत्तर में भारभूतेश्वर है। इस प्रकार यह उत्कृष्ट क्षेत्र अविमुक्त महान लाभ देने वाला है। यदि कोई भक्त मणिकर्णिका ह्रद में पवित्र स्नान करके भगवान विश्वेश्वर के दर्शन करता है और पवित्र स्थान (अविमुक्त क्षेत्र) की परिक्रमा करता है, तो उसे राजसूय यज्ञ का लाभ मिलता है। जो व्यक्ति वहां श्राद्ध करता है उसके पितरों को मुक्ति मिल जाती है।अविमुक्त के समतुल्य कोई पवित्र स्थान ब्रह्मांडीय गोलक (अंडे) में कहीं भी विद्यमान नहीं है, जो साधक को सिद्धि प्रदान करता हो। यह सत्य है (निश्चित रूप से), यह सत्य है।

शिवपुराणम्/संहिता_३_(शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः_४२

वैद्यनाथश्चिताभूमौ नागेशो दारुकावने । सेतुबन्धे च रामेशो घुश्मेशश्च शिवालये ॥४॥
चिताभूमि (देवघर, झारखण्ड) में वैद्यनाथ, दारुका वन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर एवं शिवालय में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग हैं।
वैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तितः । आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकरः प्रभुः ॥३८॥
तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वरः । ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठितः ॥३९॥
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोभूज्जगत्त्रये । दर्शनात्पूजनाद्भक्त्या भुक्तिमुक्तिप्रदः स हि ॥४०॥
वैद्यनाथेश्वरशिवमाहात्म्यमनुशासनम् । पठतां शृण्वतां चापि भुक्तिमुक्तिप्रदं मुने ॥४१॥
शिवजी का नौवां ज्योतिर्लिंगावतार वैद्यनाथेश्वर नाम से प्रसिद्ध है। नानाविध लीलाएँ करने वाले वे प्रभु रावण के निमित्त प्रकट हुए थे। भगवान् महेश्वर रावण के द्वारा लाये जाने के बहाने चिताभूमि में ज्योतिर्लिंग स्वरूप से प्रतिष्ठित हो गये। यह ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथेश्वर नाम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुआ। भक्तिपूर्वक दर्शन और पूजन करने से निश्चय ही यह भोग तथा मोक्ष देने वाला है। हे मुने! वैद्यनाथेश्वर शिव के माहात्म्य रूप शास्त्र को पहने तथा सुनने वालों को भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त होता है।

॥ श्रीमद्शङ्कराचार्यविरचितं द्वादशज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रं ॥

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदाशिवं तं गिरिजासमेतम् । सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ॥ ५॥
भगवान आदि शंकराचार्य कहते हैं : - जो पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि वैद्यनाथ धाम के अन्दर सदा ही पार्वती सहित विराजमान हैं और देव दानव जिनके चरणकमलों की आराधना करते हैं, उन्ही ‘श्री वैद्यनाथ’ नाम से विख्यात शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३०

॥ स्कंद उवाच ॥
वाराणसीति काशीति रुद्रावास इति द्विज । महाश्मशानमित्येवं प्रोक्तमानंदकाननम् ॥११॥
इस प्रकार, हे ब्राह्मण, आनंदकानन का उल्लेख वाराणसी, काशी, रुद्रवास और महाश्मशान के रूप में किया गया है।

शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_०१

पृथिब्यां यानि लिंगानि तेषां संख्या न विद्यते । तथापि च प्रधानानि कथ्यते च मया द्विजाः ॥१८॥
प्रधानेषु च यानीह मुख्यानि प्रवदाम्यहम् । यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवः क्षणात् ॥१९॥
ज्योतिर्लिंगानि यानीह मुख्यमुख्यानि सत्तम । तान्यहं कथयाम्यद्य श्रुत्वा पापं व्यपोहति ॥२०॥
हे द्विजो! पृथिवी पर जितने लिंग हैं, उनकी कोई गणना नहीं है, फिर भी मैं प्रधान लिंगों को कहता हूँ। प्रधान लिंगों में जो [विशेषरूपसे] मुख्य लिंग हैं, उनको मैं कहता हूँ, जिनके सुनने से मनुष्य उसी समय पापों से मुक्त हो जाता है। हे मुनिसत्तम ! इस लोक में मुख्यों में भी मुख्य जितने ज्योतिर्लिंग हैं, उन्हें मैं इस समय कहता हूँ| जिन्हें सुनकर प्राणी पापों से छूट जाता है।
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम् ॥२१॥
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् । वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ॥२२॥
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने । सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये ॥२३॥
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् । सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत् ॥२४॥
यं यं काममपेक्ष्यैव पठिष्यन्ति नरोत्तमाः । प्राप्स्यंति कामं तं तं हि परत्रेव मुनीश्वराः ॥२५॥
ये निष्कामतया तानि पठिष्यन्ति शुभाशयाः । तेषां च जननीगर्भे वासो नैव भविष्यति ॥२६॥
सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनी में महाकाल, ॐकार क्षेत्र में परमेश्वर, हिमालय पर केदार, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वेश्वर, गौतमी नदी के तटपर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकवन में नागेश, सेतुबन्ध में रामेश्वर तथा शिवालय में घुश्मेश्वर [नामक ज्योतिर्लिंग] हैं। जो [प्रतिदिन] प्रातः काल उठकर इन बारह नामोंका पाठ करता है, उसके सभी प्रकारके पाप छूट जाते हैं और उसको सम्पूर्ण सिद्धियोंका फल प्राप्त हो जाता है। हे मुनीश्वरो ! उत्तम पुरुष जिस-जिस मनोरथ की अपेक्षा करके इनका पाठ करेंगे, वे उस उस मनोकामनाको इस लोकमें तथा परलोकमें प्राप्त करेंगे और जो शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुष निष्कामभावसे इनका पाठ करेंगे, वे [पुनः] माता के गर्भ में निवास नहीं करेंगे।

लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः_१_(कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः_१९६

एवं द्वादशलिंगानि ज्योतिर्लिंगानि तानि वै । शंकरस्य महाज्योतिर्मयलिंगानि सन्ति हि ॥ १०४ ॥
सचेतनस्वरूपाणां खण्डानां यत्र संस्थितिः । पूजनं च प्रतिष्ठानं कृतं स एव शंकरः ॥ १ ०५॥
साक्षादस्तीति तान्येव मूर्तिमान् शंकरः स्वयम् । विराजते महद्ब्रह्म ज्योतीरूपः स सर्वदा ॥ १०६॥
ज्योतिर्लिंगानि तान्येव कथयामि शृणु प्रिये । सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ॥ १०७ ॥
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे चाऽमरेश्वरम् । केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ॥ १ ०८॥
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गोमतीतटे । वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ॥ १०९॥
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये । ग्राह्यमेषां तु नैवेद्यं भोजनीयं प्रयत्नतः ॥ ११ ०॥


॥ कोटिरुद्रसंहितायां वैद्यनाथेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं ॥
॥ वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन ॥

शिवपुराणम्/संहिता ४ (कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः २८ 

॥ सूत उवाच ॥

रावणः राक्षसश्रेष्ठो मानी मानपरायणः । आरराध हरं भक्त्या कैलासे पर्वतोत्तमे॥१॥

आराधितः कियत्कालं न प्रसन्नो हरो यदा। तदा चान्यत्तपश्चक्रे प्रासादार्थे शिवस्य सः॥२॥

नतश्चायं हिमवतस्सिद्धिस्थानस्य वै गिरेः। पौलस्त्यो रावणश्श्रीमान्दक्षिणे वृक्षखंडके॥३।

भूमौ गर्तं वर कृत्वा तत्राग्निं स्थाप्य स द्विजाः। तत्सन्निधौ शिवं स्थाप्य हवनं स चकार ह॥४॥

ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थंडिलेशयः । शीते जलांतरस्थो हि त्रिधा चक्रे तपश्च सः॥५॥

चकारैवं बहुतपो न प्रसन्नस्तदापि हि । परमात्मा महेशानो दुराराध्यो दुरात्मभिः ॥ ६ ॥

ततश्शिरांसि छित्त्वा च पूजनं शंकरस्य वै । प्रारब्धं दैत्यपतिना रावणेन महात्मना ॥७॥

एकैकं च शिरश्छिन्नं विधिना शिवपूजने । एवं सत्क्रमतस्तेन च्छिन्नानि नव वै यदा ॥ ६ ॥

एकस्मिन्नवशिष्टे तु प्रसन्नश्शंकरस्तदा । आविर्बभूव तत्रैव संतुष्टो भक्तवत्सलः ॥९॥

शिरांसि पूर्ववत्कृत्वा नीरुजानि तथा प्रभुः । मनोरथं ददौ तस्मादतुलं बलमुत्तमम् ॥ १० ॥

प्रसादं तस्य संप्राप्य रावणस्स च राक्षसः । प्रत्युवाच शिवं शम्भुं नतस्कंधः कृतांजलिः ॥११॥

सूतजी बोले- किसी समय अभिमानी तथा मानपरायण राक्षसश्रेष्ठ रावण पर्वतों में उत्तम कैलास पर भक्तिपूर्वक शिवजी की आराधना करने लगा। जब कुछ समय तक आराधना किये जाने पर भी शिव जी प्रसन्न न हुए, तब शिवजी को प्रसन्न करनेके लिये उसने दूसरे प्रकार का तप करना प्रारम्भ किया। हे द्विजो! पुलस्त्यकुल में जन्म ग्रहण करने वाला ऐश्वर्यसम्पन्न वह रावण सिद्धि के स्थानभूत हिमालय पर्वत के दक्षिण में वृक्षों से भरी हुई भूमि में एक उत्तम गर्त बनाकर उसमें अग्नि स्थापित करके उसके समीप में शिवजी की स्थापना कर हवन करने लगा। वह ग्रीष्मकाल में पंचाग्नि के मध्यमें बैठकर, वर्षाकालमें [खुले] चबूतरेपर बैठकर और शीतकाल में जलके भीतर रहकर इस तरह तीन प्रकारसे तप करने लगा। इस प्रकार उसने घोर तप किया, तब भी दुष्टात्माओं के लिये दुराराध्य परमात्मा सदाशिव प्रसन्न नहीं हुए। उसके बाद दैत्यपति महात्मा रावण ने अपने सिर काटकर शिवका पूजन प्रारम्भ किया। उसने शिवपूजन में विधिपूर्वक एक-एक सिर काट डाला, इस प्रकार जब उसने क्रमशः अपने नौ सिर काट डाले, तब एक सिर के शेष रहने पर शंकरजी प्रसन्न हो गये और वे भक्तवत्सल सदाशिव सन्तुष्ट होकर वहीं प्रकट हो गये। प्रभु सदाशिव ने उसके सिरों को पूर्ववत् स्वस्थ करके उसको मनोवांछित फल तथा अतुल बल प्रदान किया। तब उनकी प्रसन्नता प्राप्तकर उस राक्षस रावण ने हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर कल्याणकारी शिवजी से कहा- 

॥ रावण उवाच ॥

प्रसन्नो भव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम् । सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः ॥१२॥

रावण बोला- हे देवेश! आप मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको लंकापुरी  ले चलता हूँ, मेरी इस इच्छा को पूर्ण कीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ।

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तश्च तदा तेन शंभुर्वै रावणेन सः । प्रत्युवाच विचेतस्कः संकटं परमं गतः ॥१३॥

सूतजी बोले- तब उस रावण के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वे शिवजी परम संकट में पड़ गये और खिन्नमनस्क होकर उन्होंने कहा- 

॥ शिव उवाच ॥

श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया । नीयतां स्वगृहे मे हि सद्भक्त्या लिंगमुत्तमम्॥१४॥

भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि तत्र वै । स्थास्यत्यत्र न संदेहो यथेच्छसि तथा कुरु॥१५॥

शिवजी बोले- हे राक्षस श्रेष्ठ! तुम मेरी महत्त्वपूर्ण बात सुनो, तुम उत्तम भक्ति से युक्त होकर मेरे इस श्रेष्ठ शिवलिंग को अपने घर ले जाओ। किंतु तुम इस लिंग को भूमिपर जहाँ भी रख दोगे, यह वहीं पर स्थित हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं अब जैसा चाहो, वैसा करो।

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तश्शंभुना तेन रावणो राक्षसेश्वरः। तथेति तत्समादाय जगाम भवनं निजम्॥१६॥

आसीन्मूत्रोत्सर्गकामो मार्गे हि शिवमायया। तत्स्तंभितुं न शक्तोभूत्पौलस्त्यो रावणः प्रभुः॥१७॥

दृष्ट्वैकं तत्र वै गोपं प्रार्थ्य लिंगं ददौ च तत्। मुहूर्तके ह्यतिक्रांते गोपोभूद्विकलस्तदा॥१८॥

भूमौ संस्थापयामास तद्भारेणातिपीडितः ॥

तत्रैव तत्स्थितं लिंगं वजसारसमुद्भवम् । सर्वकामप्रदं चैव दर्शनात्पापहारकम् ॥१९॥

वैद्यनाथेश्वरं नाम्ना तल्लिंगमभवन्मुने । प्रसिद्धं त्रिषु लोकेषु भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम्॥२०॥

ज्योतिर्लिंगमिदं श्रेष्ठं दर्शनात्पूजनादपि । सर्वपापहरं दिव्यं भुक्तिवर्द्धनमुत्तमम् ॥ २१ ॥

तस्मिँलिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै ॥

रावणः स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम् । प्रियायै सर्वमाचख्यौ सुखेनाति महासुरः ॥ २२ ॥

तच्छ्रुत्वा सकला देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा । परस्परं समामन्त्र्य शिवासक्तधियोऽमलाः ॥ २३ ॥

तस्मिन्काले सुरास्सर्वे हरिब्रह्मादयो मुने । आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषतः ॥ २४ ॥

प्रत्यक्षं तं तदा दृष्ट्वा प्रतिष्ठाप्य च ते सुराः । वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा नुत्वा दिवं ययुः ॥ २५ ॥

सूतजी बोले- उन शिवजी के इस प्रकार कहने पर राक्षसेश्वर रावण 'ठीक है' ऐसा कहकर उसे लेकर अपने घर चला। इसके बाद शिव की माया से मार्ग में ही उसे लघुशंका की इच्छा हुई। जब पुलस्त्य का पौत्र वह सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में समर्थ नहीं हुआ, तब उसने वहाँ एक गोप को देखकर उससे प्रार्थनाकर उस शिवलिंग को उसी को दे दिया। एक मुहूर्त बीतने पर वह गोप शिवलिंग के भार से पीड़ित होकर व्याकुल हो उठा और उसे पृथ्वी पर रख दिया। इस प्रकार वजसार से उत्पन्न हुआ वह लिंग वहीं पर स्थित हो गया, जो दर्शनमात्र से पाप को दूर करने वाला तथा समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है। हे मुने वह लिंग तीनों लोकों में वैद्यनाथेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ, वह सत्पुरुषों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यह दिव्य, उत्तम एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग दर्शन एवं पूजन से सारे पापों को दूर करनेवाला है और मुक्ति प्रदान करनेवाला है। सारे लोकों का कल्याण करने के लिये उस लिंग के वहाँ स्थित हो जाने पर रावण श्रेष्ठ वर प्राप्तकर अपने घर चला गया और उस महान् असुरने अपनी पत्नी से अत्यन्त हर्षपूर्वक सारा वृत्तान्त बताया। इस [वृतान्त] को सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता तथा निष्याप मुनिगण आपस में विचारकर वैद्यनाथेश्व रमें आसक्त बुद्धिवाले हो गये। हे मुने! उस समय ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवगण वहाँ आये और उन्होंने विशेष विधिसे अतिशय प्रीतिपूर्वक शिवजी का पूजन किया। यहाँ भगवान् शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन करके देवताओं ने उस (वजसार) शिवलिंग की विधिवत् स्थापना की और उसका वैद्यनाथ नाम रखकर उसकी वन्दना और स्तवन करके वे स्वर्गलोक को चले गये। 

॥ ऋषय ऊचुः ॥

तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र रावणे च गृहं गते । किं कि चरित्रमभूत्तात ततस्तद्वद विस्तरात् ॥२६॥

ऋषि बोले- हे तात! उस लिंग के वहाँ स्थित हो जाने पर तथा रावण के घर चले जाने पर क्या घटना हुई, उसे विस्तार से कहिये।

॥ सूत उवाच ॥

रावणोपि गृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्। प्रियायै सर्वमाचख्यौ मुमोदाति महासुरः ॥ २७ ॥

तच्छ्रुत्वा सकलं देवाश्शक्राद्या मुनयस्तथा । परस्परं सुमूचुस्ते समुद्विग्ना मुनीश्वराः ॥ २८ ॥

सूतजी बोले- अति उत्तम वर प्राप्त कर घर जा करके महान् असुर रावण ने सारा वृत्तान्त अपनी पत्नी से कहा और वह बहुत आनन्दित हुआ। हे मुनीश्वरो वह सारा वृतान्त सुनकर वे इन्द्र आदि देवता तथा मुनिगण अत्यन्त व्याकुल होकर आपस में कहने लगे। 

॥ देवादय ऊचुः ॥

रावणोयं दुरात्मा हि देवद्रोही खलः कुधीः । शिवाद्वरं च संप्राप्य दुःखं दास्यति नोऽपि सः ॥ २९ ॥

किं कुर्मः क्व च गच्छामः किं भविष्यति वा पुनः । दुष्टश्च दक्षतां प्राप्तः किंकिं नो साधयिष्यति ॥३०॥

इति दुःखं समापन्नाश्शक्राद्या मुनयस्सुराः। नारदं च समाहूय पप्रच्छुर्विकलास्तदा ॥३१॥

देवता बोले- यह दुरात्मा रावण देवद्रोही, खल तथा दुर्बुद्धि है, शिवजी से वरदान पाकर यह हमलोगों को बहुत अधिक दुःखित करेगा। हमलोग क्या करें? कहाँ जायँ? अब फिर क्या होगा? एक तो वह स्वयं दुष्ट है, दूसरे अब वरदान प्राप्त कर और भी उद्धत हो गया है, अतः हमलोगों का कौन-सा अपकार नहीं करेगा। तब इस प्रकार दुखी हो इन्द्रादि देवता एवं मुनिगण नारद जी को बुलाकर व्याकुल हो करके पूछने लगे। 

॥ देवा ऊचुः ॥

सर्वं कार्य्यं समर्थोसि कर्तुं त्वं मुनिसत्तम । उपायं कुरु देवर्षे देवानां दुःखनाशने ॥ ३२ ॥

रावणोयं महादुष्टः किंकि नैव करिष्यति । क्व यास्यामो वयं चात्र दुष्टेनापीडिता वयम् ॥ ३३ ॥

देवगण बोले- हे मुनिसत्तम! आप सभी कार्य करने में समर्थ हैं, अतः हे देवर्षे! देवगणों के दुःखनाश का कोई उपाय कीजिये। यह महाखल रावण क्या- क्या नहीं कर डालेगा! हमलोग इस दुष्ट से सर्वथा पीड़ित हैं, अतः अब हमलोग कहाँ जायें ? 

॥ नारद उवाच ॥

दुःखं त्यजत भो देवा युक्तिं कृत्वा च याम्यहम् । देवकार्यं करिष्यामि कृपया शंकरस्य वै ॥ ३४ ॥

नारदजी बोले - हे देवताओ! आपलोग दुखी मत होइये, मैं जा रहा हूँ और कोई उपाय करके शंकर की कृपा से देवताओं का कार्य अवश्य करूँगा। 

॥ सूत उवाच॥

इत्युक्त्वा स तु देवर्षिरगमद्रावणालयम् । सत्कारं समनुप्राप्य प्रीत्योवाचाखिलं च तत् ॥ ३५ ॥

सूतजी बोले- ऐसा कहकर वे देवर्षि [नारद] रावण के घर गये और उससे सत्कृत होकर प्रीति उन्होंने वह सब कहा- 

॥ नारद उवाच ॥

राक्षसोत्तम धन्यस्त्वं शैववर्य्यस्तपोमनाः । त्वां दृष्ट्वा च मनो मेद्य प्रसन्नमति रावण ॥३६॥

स्ववृत्तं ब्रूह्यशेषेण शिवाराधनसंभवम्। इति पृष्टस्तदा तेन रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥३७॥

नारदजी बोले हे राक्षसोत्तम! तुम धन्य हो और श्रेष्ठ शिवभक्त हो हे तपोधन। हे रावण! तुम्हें देखकर मेरा मन आज बहुत अधिक प्रसन्न हुआ। अब तुम शिवाराधन सम्बन्धी अपने सम्पूर्ण कहो । तब उनके इस प्रकार पूछने पर रावणने यह वचन कहा- 

॥ रावण उवाच ॥

गत्वा मया तु कैलासे तपोर्थं च महामुने । तत्रैव बहुकालं वै तपस्तप्तं सुदारुणम् ॥ ३८ ॥

यदा न शंकरस्तुष्टस्ततश्च परिवर्तितम् । आगत्य वृक्षखंडे वै पुनस्तप्तं मया मुने ॥ ३९ ॥

ग्रीष्मे पंचाग्निमध्ये तु वर्षासु स्थंडिलेशयः । शीते जलांतरस्थो हि कृतं चैव त्रिधा तपः ॥ ४० ॥

एवं मया कृतं तत्र तपोत्युग्रं मुनीश्वर । तथापि शंकरो मह्यं न प्रसन्नोऽभवन्मनाक् ॥ ४१ ॥

तदा मया तु क्रुद्धेन भूमौ गर्तं विधाय च । तत्राग्निं समाधाय पार्थिवं च प्रकल्प्य च ॥ ४२ ॥

गंधैश्च चंदनैश्चैव धूपैश्च विविधैस्तदा । नैवेद्यैः पूजितश्शम्भुरारार्तिकविधानतः ॥ ४३ ॥

प्रणिपातैः स्तवैः पुण्यैस्तोषितश्शंकरो मया। गीतैर्नृत्यैश्च वाद्यैश्च मुखांगुलिसमर्पणैः ॥ ४४ ॥

एतैश्च विविधैश्चान्यैरुपायैर्भूरिभिर्मुने । शास्त्रोक्तेन विधानेन पूजितो भगवान् हरः ॥४५॥

न तुष्टः सन्मुखो जातो यदा च भगवान्हरः । तदाहं दुःखितोभूवं तपसोऽप्राप्य सत्फलम् ॥४६॥

धिक् शरीरं बलं चैव धिक् तपः करणं मम । इत्युक्त्वा तु मया तत्र स्थापितेग्नौ हुतं बहु ॥४७॥

पुनश्चेति विचार्यैव त्वक्षाम्यग्नौ निजां तनुम् । संछिन्नानि शिरांस्येव तस्मिन् प्रज्वलिते शुचौ ॥४८॥

सुच्छित्वैकैकशस्तानि कृत्वा शुद्धानि सर्वशः । शंकरायार्पितान्येव नवसंख्यानि वै मया ॥ ४९ ॥

यावच्च दशमं छेत्तुं प्रारब्धमृषिसत्तम । तावदाविरभूत्तत्र ज्योतीरूपो हरस्स्वयम् ॥५०॥

मामेति व्याहरत् प्रीत्या द्रुतं वै भक्तवत्सलः । प्रसन्नश्च वरं ब्रूहि ददामि मनसेप्सितम् ॥५१॥

इत्युक्ते च तदा तेन मया दृष्टो महेश्वरः । प्राणतस्संस्तुतश्चैव करौ बद्ध्वा सुभक्तितः ॥ ५२॥

तदा वृतं मयैतच्च देहि मे ह्यतुलं बलम् । यदि प्रसन्नो देवेश दुर्ल्लभं किं भवेन्मम ॥ ५३ ॥

शिवेन परितुष्टेन सर्वं दत्तं कृपालुना । मह्यं मनोभिलषितं गिरा प्रोच्य तथास्त्विति ॥ ५४ ॥

अमोघया सुदृष्ट्या वै वैद्यवद्योजितानि मे । शिरांसि संधयित्वा तु दृष्टानि परमात्मना ॥ ५५ ॥ ।

एवंकृते तदा तत्र शरीरं पूर्ववन्मम । जातं तस्य प्रसादाच्च सर्वं प्राप्तं फलं मया॥५६॥

तदा च प्रार्थितो मे संस्थितोसौ वृषभध्वजः। वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोभूज्जगत्त्रये ॥५७॥

दर्शनात्पूजनाज्ज्योतिर्लिंगरूपो महेश्वरः । भुक्तिमुक्तिप्रदो लोके सर्वेषां हितकारकः ॥ ५८ ॥

ज्योतिर्लिंगमहं तद्वै पूजयित्वा विशेषतः । प्रणिपत्यागतश्चात्र विजेतुं भुवनत्रयम्॥ ५९ ॥

रावण बोला- हे महामुने! तप करने के लिये कैलास पर्वत पर जाकर मैंने वहाँ बहुत समय तक अत्यन्त कठोर तप किया। हे मुने! जब शिवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वहाँ से आकर मैं पुनः वृक्षसमूह के समीप दूसरे प्रकार से तपस्या करने लगा। ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि के मध्य रहकर, वर्षा में स्थण्डिलशायी होकर और शीतकाल में जल के मध्य में रहकर तीन प्रकार से मैंने तप किया। हे मुनीश्वर। इस प्रकार मैंने वहाँ अति कठोर तप किया, फिर भी जब मेरे ऊपर थोड़ा भी शिवजी प्रसन्न न हुए, तब मुझे बड़ा क्रोध हुआ और मैंने भूमि में गड्ढा खोदकर उसमें अग्नि स्थापित करके तथा पार्थिव शिवलिंग बनाकर गन्ध, चन्दन, धूप, विविध नैवेद्य तथा आरती आदि ले विधिपूर्वक शिवजी का पूजन किया। प्रणिपात, पुण्यप्रद स्तुति, गीत, नृत्य, वाद्य तथा मुखांगुलि- समर्पण के द्वारा मैंने शंकरजी को सन्तुष्ट किया। हे मुने! इन उपायों तथा अन्य बहुत से उपायोंक द्वारा शास्त्रोक्त विधि से मैंने भगवान् शिवका पूजन किया। जब भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर प्रकट नहीं हुए, तब मैं अपने तपका उत्तम फल न प्राप्तकर दुखी हुआ। मेरे शरीर तथा बल को धिक्कार है। मेरे तप को भी धिक्कार है, ऐसा कहकर मैंने वहाँ स्थापित अग्नि में बहुत हवन किया। इसके बाद यह विचार करके कि अब मैं इस अग्नि में अपने शरीर की ही आहुति दूंगा, मैं उस प्रज्वलित अग्नि की सन्निधि में अपने सिरों को काटने लगा। मैंने एक-एक करके नौ सिर भलीभाँति काटकर उन्हें पूर्णतः शुद्ध करके शिवजी को समर्पित कर दिये। हे ऋषिश्रेष्ठ! जब मैंने दसवाँ सिर काटना प्रारम्भ किया, उसी समय ज्योतिःस्वरूप शिवजी स्वयं प्रकट हो गये। उन भक्तवत्सल ने शीघ्र ही प्रेमपूर्वक कहा- ऐसा मत करो, ऐसा मत करो। मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हें मनोवांछित वर दूँगा। तब उनके ऐसा कहने पर मैंने महेश्वर का दर्शन किया और हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की। तदनन्तर मैंने उनसे यह वर माँगा- मुझे अतुल बल दीजिये। हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मेरे लिये क्या दुर्लभ हो सकता है। सन्तुष्ट हुए कृपालु शिव ने 'तथास्तु' यह वचन कहकर मेरा सारा मनोवांछित पूर्ण कर दिया। उन परमात्मा शिव ने अपनी अमोघ दृष्टि से देखकर वैद्य के समान मेरे सिरों को पुनः यथास्थान जोड़ दिया। उनके ऐसा करने पर मेरा शरीर पहले के समान हो गया और उनकी कृपा से मुझे सारा फल प्राप्त हो गया। इसके बाद मेरे द्वारा प्रार्थना किये जाने पर वे वृषभध्वज वहीं पर स्थित हो गये और वैद्यनाथेश्वर नाम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गये। दर्शन एवं पूजन करने से ज्योतिर्लिंगस्वरूप महेश्वर भुक्ति मुक्ति देने वाले तथा लोक में सबका हित करने वाले हैं। [हे देवर्षे] मैं उस ज्योतिर्लिंग का विशेष रूप से पूजन करके और उसे प्रणाम कर तीनों लोकों को जीतने के लिये यहाँ आया हूँ।

॥ सूत उवाच ॥

तदीयं तद्वचः श्रुत्वा देवर्षिर्जातसंभ्रमः । विहस्य च मनस्येव रावणं नारदोऽब्रवीत् ॥ ६० ॥

सूतजी बोले- उसका वह वचन सुनकर आश्चर्यचकित हुए देवर्षि नारदजी मन-ही-मन हँस करके रावण से कहने लगे- 

॥ नारद उवाच ॥

श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ कथयामि हितं तव । त्वया तदेव कर्त्तव्यं मदुक्तं नान्यथा क्वचित् ॥६१॥

त्वयोक्तं यच्छिवेनैव हितं दत्तं ममाधुना । तत्सर्वं च त्वया सत्यं न मन्तव्यं कदाचन ॥ ६२ ॥

अयं वै विकृतिं प्राप्तः किं किं नैव ब्रवीति च । सत्यं नैव भवेत्तद्वै कथं ज्ञेयं प्रियोस्ति मे ॥ ६३ ॥

इति गत्वा पुनः कार्य्यं कुरु त्वं ह्यहिताय वै। कैलासोद्धरणे यत्नः कर्तव्यश्च त्वया पुनः ॥ ६४ ॥

यदि चैवोद्धृतश्चायं कैलासो हि भविष्यति । तदैव सफलं सर्वं भविष्यति न संशयः ॥६५॥

पूर्ववत्स्थापयित्वा त्वं पुनरागच्छ वै सुखम् । निश्चयं परमं गत्वा यथेच्छसि तथा कुरु ॥६६॥

नारदजी बोले - हे राक्षस श्रेष्ठ! सुनो, अब मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूँ; जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही तुम करो, मेरा कथन कभी भी असत्य नहीं होता। तुमने जो कहा कि शिवजी ने इस समय मेरा सारा हित कर दिया है, उसे तुम कदापि मत मानना। ये शिव तो विकारग्रस्त हैं, वे क्या नहीं कह देते हैं, जब तक उनकी बात सत्य नहीं होती, तब तक कैसे मान लिया जाय; तुम मेरे प्रिय हो, [अतः तुम्हें में उपाय बताता हूँ ।] अब तुम पुनः जाकर उनके अहित के लिये। कार्य करो तुम कैलास को उखाड़ने का प्रय करो। यदि तुम इस कैलास को उखाड़ दोगे, तब सब कुछ सफल हो जायगा, इसमें कुछ संशय नहीं है। इसके बाद उसे पूर्व की भाँति स्थापित कर पुनः सुखपूर्वक लौट आना, अब निश्चयपूर्वक समझ बूझकर तुम जैसा चाहो, वैसा करो।

॥ सूत उवाच ॥

इत्युक्तस्स हितं मेने रावणो विधिमोहित। सत्यं मत्वा मुनेर्वाक्यं कैलासमगमत्तदा ॥६७॥

गत्वा तत्र समुद्धारं चक्रे तस्य गिरेस्स च । तत्रस्थं चैव तत्सर्वं विपर्यस्तं परस्परम्॥६८॥

गिरीशोपि तदा दृष्ट्वा किं जातमिति सोब्रवीत्। गिरिजा च तदा शंभुं प्रत्युवाच विहस्य तम् ॥६९॥

सूतजी बोले- उनके इस प्रकार कहने पर प्रारब्धवश मोहित उस रावणने इसमें अपना हित समझा और मुनिकी बातको सत्य मानकर कैलासकी ओर चल पड़ा। उसने वहाँ जाकर कैलासपर्वतको उखाड़ना प्रारम्भ किया, जिससे उसपर स्थित सब कुछ [सभी प्राणि पदार्थ] परस्पर टकराकर गिरने लगे। तब शिवजी भी यह देखकर कहने लगे यह क्या हुआ ? तब पार्वतीने हँसकर उन शंकरसे कहा-

॥ गिरिजोवाच॥

सच्छिश्यस्य फलं जातं सम्यग्जातं तु शिष्यतः। शान्तात्मने सुवीराय दत्तं यदतुलं बलम् ॥७०॥

पार्वती बोलीं- आप ने शान्तात्मा महावीर को जो अतुल बल दिया था, उसे उत्तम शिष्य बनाने का यह फल प्राप्त हो गया, यह सब उसी शिष्य से हुआ है। 

॥ सूत उवाच ॥

गिरिजायाश्च साकूतं वचः श्रुत्वा महेश्वरः । कृतघ्नं रावणं मत्वा शशाप बलदर्पितम् ॥ ७१ ॥

सूतजी बोले- पार्वतीके इस व्यंग्य वचन को सुनकर महेश्वर ने रावण को कृतघ्न तथा बल से गर्वित समझकर उसे शाप दे दिया।

॥ महादेव उवाच ॥

रे रे रावण दुर्भक्त मा गर्वं वह दुर्मते । शीघ्रं च तव हस्तानां दर्पघ्नश्च भवेदिह ॥ ७२ ॥

महादेवजी बोले- हे दुर्भक्त रावण! हे दुर्मते! तुम घमण्ड मत करो, अब शीघ्र ही तुम्हारे हाथों के घमण्ड को दूर करनेवाला यहाँ कोई उत्पन्न होगा।

॥ सूत उवाव ॥

इति तत्र च यज्जातं नारदः श्रुतवांस्तदा । रावणोपि प्रसन्नात्माऽगात्स्वधाम यथागतम् ॥७३॥

निश्चयं परमं कृत्वा बली बलविमोहितः । जगद्वशं हि कृतवान्रावणः परदर्पहा ॥७४॥

शिवाज्ञया च प्राप्तेन दिव्यास्त्रेण महौजसा। रावणस्य प्रति भटो नालं कश्चिदभूत्तदा ॥७५॥

इत्येतच्च समाख्यातं वैद्यनाथेश्वरस्य च । माहात्म्यं शृण्वतां पापं नृणां भवति भस्मसात् ॥७६॥

सूतजी बोले- इस प्रकार वहाँ जो घटना घटी, उसे नारदजी ने भी सुन लिया और रावण भी प्रसन्नचित्त होकर जैसे आया था, वैसे ही वहाँ से अपने स्थान को चला गया। उसके बाद बली तथा शत्रुओं के अभिमान को चूर करनेवाले रावण ने शिवजी के वरदान को सत्य मानकर अपने बल से विमोहित हो सारे जगत्को अपने वश में कर लिया। शिवजी की आज्ञा से प्राप्त महातेजस्वी दिव्यास्त्र से युक्त उस रावण की बराबरी करनेवाला कोई भी शत्रु उस समय नहीं रहा। [हे ऋषिगणो!] इस प्रकार मैंने वैद्यनाथेश्वर के माहात्म्य का वर्णन किया, जिसे सुननेवाले मनुष्यों का पाप विनष्ट हो जाता है।

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां वैद्यनाथेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥


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वैद्यनाथ महादेव, D 50/20 ए, कौदाई चौकी, (दशाश्वमेध थाने के सामने), वाराणसी में स्थित हैं।
Vaidyanath Mahadev, D 50/20 A, Kaudai Chowki, (Opposite Dashashwamedh Police Station), Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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