Vyaghreshwar
व्याघ्रेश्वर - व्याघ्र रूप में प्रह्लाद के मामा दुन्दुभिनिर्ह्राद दैत्य का मोक्ष
शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः५(युद्धखण्डः)/अध्यायः५८
॥
सनत्कुमार उवाच ॥
शृणु
व्यास प्रवक्ष्यामि चरितं शशिमौलिनः । यथा दुंदुभिनिर्ह्रादमवधीद्दितिजं हरः ॥ १ ॥
हिरण्याक्षे
हते दैत्ये दितिपुत्रे महाबले । विष्णुदेवेन कालेन प्राप दुखं पहद्दितिः?
॥२ ॥
दैत्यो
दुंदुभिनिर्ह्रादो दुष्टः प्रह्लादमातुलः । सांत्वयामास तां वाग्भिर्दुःखितां
देवदुःखदः ॥ ३ ॥
अथ
दैत्यस्स मायावी दितिमाश्वास्य दैत्यराट् । देवाः कथं सुजेयाः
स्युरित्युपायमर्चितयत् ॥ ४ ॥
देवैश्च
घातितो वीरो हिरण्याक्षो महासुरः । विष्णुना च सह भ्रात्रा सच्छलैर्देत्यवैरिभिः ॥
५ ॥
किंबलाश्च
किमाहारा किमाधारा हि निर्जराः । मया कथं सुजेयास्स्युरित्युपायमचिंतयत् ॥ ६ ॥
विचार्य
बहुशो दैत्यस्तत्त्वं विज्ञाय निश्चितम् । अवश्यमग्रजन्मानो हेतवोऽत्र विचारतः ॥ ७
॥
ब्राह्मणान्हंतुमसकृदन्वधावत
वै ततः । दैत्यो दुन्दुभिनिर्ह्रादो देववैरी महाखलः ॥ ८ ॥
सनत्कुमार
बोले- हे व्यासजी! सुनिये, मैं शिवजी के
चरित्र को कहता हूँ, जिस प्रकार महादेव ने दुन्दुभिनिर्ह्राद
नामक दैत्य को मारा। समय पाकर विष्णुदेव के द्वारा दिति के पुत्र महाबली दैत्य
हिरण्याक्ष के मारे जाने पर दिति बड़े दुःख को प्राप्त हुई तब प्रह्लाद के मामा
दुन्दुभिनिर्ह्राद नामक देवदुःखदायी दुष्ट दैत्य ने उस दुखित दिति को आश्वासन योग्य
वाक्यों से धीरज बँधाया। इसके बाद वह मायावी दैत्यराज दिति को आश्वासन देकर 'देवताओं को किस प्रकार जीता जाय' ऐसा उपाय सोचने लगा।
दैत्यों के शत्रु देवताओं ने विष्णु के द्वारा कपट पूर्वक भाई सहित महान् असुर वीर
हिरण्याक्ष को मरवा दिया। देवताओं का बल क्या है, उनका आहार
क्या है, उनका आधार क्या है और वे मेरे द्वारा किस प्रकार
जीते जा सकते हैं- ऐसा उपाय वह सोचने लगा। इस प्रकार अनेक बार विचार कर निश्चित
तत्त्व को जानकर उस दैत्य ने निष्कर्ष निकाला कि इस विषय में मेरे विचार से
ब्राह्मण ही कारण हैं। तब देवताओं का शत्रु महादुष्ट दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्राद
बारंबार ब्राह्मणों को मारने के लिये दौड़ा।
यतः
क्रतुभुजो देवाः क्रतवो वेदसंभवाः। ते वेदा ब्राह्मणाधारास्ततो देवबलं द्विजाः॥ ९ ॥
निश्चितं
ब्राह्मणाधारास्सर्वे वेदास्सवासवाः। गीर्वाणा ब्राह्मणबला नात्र कार्या विचारणा ॥
१० ॥
ब्राह्मणा
यदि नष्टास्स्युर्वेदा नष्टास्ततस्त्वयम्। अतस्तेषु प्रणष्टेषु विनष्टाः सततं
सुराः॥ ११ ॥
यज्ञेषु
नाशं गच्छत्सु हताहारास्ततस्सुराः। निर्बलास्सुखजय्याः स्युर्निर्जितेषु सुरेष्वथ॥
१२ ॥
अहमेव
भविष्यामि मान्यस्त्रिजगतीपतिः । अहरिष्यामि देवा नामक्षयास्सर्वसंपदः ॥ १३ ॥
निर्वेक्ष्यामि
सुखान्येव राज्ये निहतकंटके । इति निश्चित्य दुर्बुद्धिः पुनश्चिंतितवान्खलः ॥ १४ ॥
द्विजाः
क्व संति भूयांसो ब्रह्मतेजोतिबृंहिता। श्रुत्यध्यनसंपन्नास्तपोबलसमन्विताः॥ १५ ॥
भूयसां
ब्राह्मणानां तु स्थानं वाराणसी खलु । तामादावुपसंहृत्य यायां तीर्थांतरं ततः ॥ १६
॥
यत्र
यत्र हि तीर्थेषु यत्र यत्राश्रमेषु च । संति सर्वेऽग्रजन्मानस्ते मयाद्यास्समंततः
॥ १७ ॥
देवता
यज्ञ के भोगी हैं, यज्ञ वेदों से
उत्पन्न हैं, वे वेद ब्राह्मणों के आधार पर हैं, अतः ब्राह्मण ही देवताओं के बल हैं। सम्पूर्ण वेद तथा इन्द्रादि देवता
ब्राह्मणों पर आधारित और ब्राह्मणों के बलवाले हैं, यह
निश्चय है, इसमें
कुछ विचार नहीं करना चाहिये। यदि ब्राह्मण नष्ट हो जायँ, तो
वेद स्वयं नष्ट हो जायँगे, अतः उन वेदों के नष्ट हो जाने पर
देवता स्वयं भी नष्ट हो जायँगे। यज्ञों का नाश हो जाने पर देवता भोजन से रहित होकर
निर्बल हो जाने से सुगमता से जीते जायँगे और इसके बाद देवताओं के पराजित हो जानेपर
मैं ही तीनों लोकों में माननीय हो जाऊँगा, देवताओं की अक्षय
सम्पत्तियों का हरण कर लूँगा और निष्कण्टक राज्य में सुख भोगूँगा - इस प्रकार
निश्चयकर वह दुर्बुद्धि खल फिर विचार करने लगा कि ब्रह्मतेज से युक्त, वेदों का अध्ययन करने वाले और तप तथा बल से पूर्ण अधिक ब्राह्मण कहाँ हैं,
बहुत से ब्राह्मणों का स्थान निश्चय ही काशीपुरी है, सर्वप्रथम उस नगरी को ही जीतकर फिर दूसरे तीर्थों में जाऊँगा। जिन-जिन
तीथों में तथा जिन-जिन आश्रमों में जो ब्राह्मण हैं, उन सबका
भक्षण कर जाऊँगा।
इति
दुंदुभिनिर्ह्रादो मतिं कृत्वा कुलोचिताम् । प्राप्यापि काशीं दुर्वृत्तो मायावी
न्यवधीद्द्विजान् ॥ १८ ॥
समित्कुशान्समादातुं
यत्र यांति द्विजोत्तमाः । अरण्ये तत्र तान्सर्वान्स भक्षयति दुर्मतिः ॥ १९ ॥
यथा
कोऽपि न वेत्त्येवं तथाऽच्छन्नोऽभवत्पुनः । वने वनेचरो भूत्वा यादोरूपो जलाशये ॥
२० ॥
अदृश्यरूपी
मायावी देवानामप्यगोचरः । दिवा ध्यानपरस्तिष्ठेन्मुनिवन्मुनिमध्यगः ॥ २१ ॥
प्रवेशमुटजानां
च निर्गमं हि विलोकयन् । यामिन्यां व्याघ्ररूपेणाभक्षयद्ब्राह्मणान्बहून् ॥ २२ ॥
निश्शंकम्भक्षयत्येवं
न त्यजत्यपि कीकशम् । इत्थं निपातितास्तेन विप्रा दुष्टेन भूरिशः ॥ २३ ॥
ऐसा
अपने कुल के योग्य विचार कर वह दुराचारी तथा मायावी दुन्दुभिनिर्ह्राद काशी में
आकर ब्राह्मणों को मारने लगा। समिधा तथा
कुशाओं को लाने के लिये ब्राह्मण जिस वन में जाते थे,
वहाँ पर वह दुष्टात्मा उन सभी का भक्षण कर लेता था। जिस प्रकार उसे
कोई न जाने, इस प्रकार वह वन में वनेचर होकर तथा जलाशय में
जल-जन्तुरूप होकर छिपा रहता था। इसी प्रकार अदृश्य रूपवाला वह मायावी देवगणों से
भी अगोचर होकर दिन में मुनियों के मध्य मुनि होकर ध्यान में तत्पर रहता था।
पर्णशालाओं के प्रवेश तथा निर्गम को देखता हुआ वह दैत्य रात्रि में व्याघ्ररूप से
बहुत से ब्राह्मणों का भक्षण करता था। वह निःशंक होकर ऐसा भक्षण करता कि अस्थि तक को
नहीं छोड़ता था। इस प्रकार उस दुष्टने बहुत-से ब्राह्मणों को मार डाला।
एकदा
शिवरात्रौ तु भक्तस्त्वेको निजोटजे । सपर्यां देवदेवस्य कृत्वा ध्यानस्थितोऽभवत् ॥
२४ ॥
स
च दुंदुभिनिर्ह्रादो दैत्येन्द्रो बलदर्पितः । व्याघ्ररूपं समास्थाय तमादातुं मतिं
दधे ॥ २५ ॥
तं
भक्तं ध्यानमापन्नं दृढचित्तं शिवेक्षणे । कृतास्त्रमन्त्रविन्यासं तं
क्रांतुमशकन्न सः ॥ २६ ॥
अथ
सर्वं गतश्शम्भुर्ज्ञात्वा तस्याशयं हरः । दैत्यस्य दुष्टरूपस्य वधाय विदधे धियम् ॥
२७ ॥
एक समय शिवरात्रि में एक शिवभक्त अपने (उटज) कुटिया में देवों के देव शिव को पूजा करके ध्यान में लीन हुआ। तब उस दैत्येन्द्र दुन्दुभिनिर्ह्राद ने बल से दर्पित होकर व्याघ्र का रूप धारण कर उसे भक्षण करने की इच्छा की। तब ध्यान करते हुए शिवजी के अवलोकन में दृढ़चित्त होकर अस्त्रमन्त्रों का विन्यास करने वाले उस भक्त को भक्षण करने में वह समर्थ न हुआ। सर्वव्यापी शिव ने उसके आशय को जानकर उस दुष्टरूप दैत्यका वध करने की इच्छा की।
यावदादित्सति
व्याघ्रस्तावदाविरभूद्धरः । जगद्रक्षामणिस्त्र्यक्षो भक्तरक्षणदक्षधीः ॥ २८ ॥
रुद्रमायांतमालोक्य
तद्भक्तार्चितलिंगतः । दैत्यस्तेनैव रूपेण ववृधे भूधरोपमः ॥ २९ ॥
सावज्ञमथ
सर्वज्ञं यावत्पश्यति दानवः । तावदायातमादाय कक्षायंत्रे न्यपीडयत् ॥ ३० ॥
पंचास्यस्त्वथ
पंचास्यं मुष्ट्या मूर्द्धन्यताडयत। भक्तवत्सलनामासौ वज्रादपि कठोरया ॥ ३१ ॥
स
तेन मुष्टिघातेन कक्षानिष्पेषणेन च । अत्यार्तमारटद्व्याघ्रो रोदसीं पूरयन्मृतः ॥
३२ ॥
तेन
नादेन महता संप्रवेपितमानसाः । तपोधनास्समाजग्मुर्निशि शब्दानुसारतः ॥३३॥
अत्रेश्वरं
समालोक्य कक्षीकृतमृगेश्वरम् । तुष्टुवुः प्रणतास्सर्वे शर्वं जयजयाक्षरैः ॥३४॥
जब
उसने व्याघ्र रूप से भक्त ब्राह्मण को ग्रहण करना चाहा,
तभी संसार की रक्षारूपमणि, तीन नेत्रोंवाले
तथा भक्तों की रक्षा करने में प्रवीण बुद्धि वाले शिवजी प्रकट हुए। भल से पूजित उस
लिंग से प्रकट हुए शिवजी को देखकर वह दैत्य फिर उसी रूप से पर्वत के समान हो गया। जब
उसने सर्वज्ञ शिवजी को अवज्ञासहित आया हुआ देखा, तब वह [व्याघ्ररूपी]
दुष्ट दैत्य उनकी ओर झपटा। इतने में ही उसे पकड़कर भगवान्ने अपनी काँख में दबा
लिया तथा भक्तवत्सल शिवजीने वज्रसे भी अतिकठोर मुष्टि से उस व्याघ्र के सिर पर
प्रहार किया। उस मुष्टि के आघातसे तथा काँख में पीसे जाने से दुखी हुआ वह व्याघ्र
अतिनाद से आकाश और पृथिवी को भरता हुआ मर गया। उसके रोदन के महान् नाद से
व्याकुलचित्त हुए तपस्वी लोग उसके शब्द का अनुसरण करते हुए रात्रि में वहाँ आये।
वहाँ मृगेश्वर सिंह को काँख में करनेवाले शिवजी को देखकर वे सब नम्र हो जय-जयकार
करके उनकी स्तुति करने लगे।
॥
ब्राह्मणा ऊचुः ॥
परित्राताः
परित्राताः प्रत्यूहाद्दारुणादितः । अनुग्रहं कुरुष्वेश तिष्ठात्रैव जगद्गुरो ॥ ३५
॥
अनेनैव
स्वरूपेण व्याघ्रेश इति नामतः । कुरु रक्षां महादेव ज्येष्ठस्थानस्य सर्वदा ॥ ३६ ॥
अन्येभ्यो
ह्युपसर्गेभ्यो रक्ष नस्तीर्थवासिनः । दुष्टानष्टास्य?
गौरीश भक्तेभ्यो देहि चाभयम् ॥ ॥ ३७ ॥
ब्राह्मण
बोले- हे जगद्गुरो हे ईश्वर। कठिन उपद्रव से रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये और दया करके इस स्थानमें स्थित रहिये हे महादेव! आप
इसी स्वरूप से व्याघ्रेश नाम से इस ज्येष्ठ नामक स्थान की रक्षा कीजिये हे गौरीश! दुष्टों का नाश करके हम तीर्थवासियों की अनेक प्रकार के उपद्रवों से
रक्षा कीजिये और भक्तों को अभयदान दीजिये।
॥
सनत्कुमार उवाच ॥
इत्याकर्ण्य
वचस्तेषां भक्तानां चन्द्रशेखरः । तथेत्युक्त्वा पुनः प्राह स भक्तान्भक्तवत्सलः ॥
३८ ॥
सनत्कुमार
बोले- इस प्रकार अपने उन भक्तों का वचन सुनकर भक्तवत्सल शिवजी ने 'तथास्तु' कहकर भक्तोंसे पुनः कहा :
॥
महेश्वर उवाच ॥
यो
मामनेन रूपेण द्रक्ष्यति श्रद्धयात्र वै । तस्योपसर्गसंधानं पातयिष्याम्यसंशयम् ॥
३९ ॥
मच्चरित्रमिदं
श्रुत्वा स्मृत्वा लिंगमिदं हृदि । संग्रामे प्रविशन्मर्त्यो जयमाप्नोत्यसंशयम् ॥
४० ॥
एतस्मिन्नंतरे
देवास्समाजग्मुस्सवासवाः । जयेति शब्दं कुर्वंतो महोत्सवपुरस्सरम् ॥ ४१ ॥
प्रणम्य
शंकरं प्रेम्णा सर्वे सांजलयस्सुराः । नतस्कंधाः सुवाग्भिस्ते
तुष्टुवुर्भक्तवत्सलम् ॥ ४२ ॥
महेश्वर
बोले- जो मनुष्य श्रद्धासे मुझे इस रूपमें यहाँ देखेगा,
उसके दुःखको मैं अवश्य दूर करूँगा। मेरे इस चरित्र को सुनकर तथा
मेरे इस लिंग का अपने हृदय में स्मरण करके युद्ध में प्रवेश करने वाला मनुष्य
निःसन्देह विजय को प्राप्त करेगा। इसी अवसर पर इन्द्रादि समस्त देवता उत्सवपूर्वक
जय-जयकार करते हुए वहाँ आये। देवताओं ने अंजलि बाँधकर कन्धा झुकाकर प्रेम से शिवजी
को प्रणामकर मधुर महादेवकी स्तुति की।
॥
देवा ऊचुः ॥
जय
शंकर देवेश प्रणतार्तिहर प्रभो । एतद्दुंदुभिनिर्ह्रादवधात्त्राता वयं सुराः ॥ ४३ ॥
सदा
रक्षा प्रकर्तव्या भक्तानां भक्तवत्सल । वध्याः खलाश्च देवेश त्वया सर्वेश्वर
प्रभो ॥ ४४ ॥
इत्याकर्ण्य
वचस्तेषां सुराणां परमेश्वरः । तथेत्युक्त्वा प्रसन्नात्मा तस्मिंल्लिंगे लयं ययौ ॥
४५ ॥
सविस्मयास्ततो
देवास्स्वंस्वं धाम ययुर्मुदा । तेऽपि विप्रा महाहर्षात्पुनर्याता यथागतम् ॥ ४६ ॥
वाणी से
भक्तवत्सल देवगण बोले- हे देवों के स्वामी! हे प्रभो! हे प्रणतों का दुःख हरनेवाले! आपने इस दुन्दुभि निर्ह्राद के
वध से हम सब देवगणों की रक्षा की। हे भक्तवत्सल! हे देवेश!
हे सर्वेश्वर! हे प्रभो! आपको भक्तों की सदा रक्षा करनी चाहिये तथा दुष्टोंका वध
करना चाहिये। उन देवताओंका यह वचन सुनकर परमेश्वरने 'ऐसा ही
होगा' यह कहकर प्रसन्न हो उस लिंगमें प्रवेश किया। तब
विस्मित हुए देवता अपने-अपने धामको चले गये तथा ब्राह्मण भी बड़े हर्षके साथ
यथेष्ट स्थानको चले गये।
इदं
चरित्रं परम व्याघ्रेश्वरसमुद्भवम् । शृणुयाच्छ्रावयेद्वापि पठेद्वा पाठयेत्तथा ॥
४७ ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति
नरस्स्वमनसेसितान् । परत्र लभते मोक्षं सर्वदुःखविवर्जितः ॥४८॥
इदमाख्यानमतुलं
शिवलीला मृताक्षरम्। स्वर्ग्यं यशस्यमायुष्यं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् ॥४९॥
परं
भक्तिप्रदं धन्यं शिवप्रीतिकरं शिवम्। परमज्ञानदं रम्यं विकारहरणं परम् ॥ ५० ॥
जो
मनुष्य व्याघ्रेश्वर-सम्बन्धी इस चरित्र को सुनता है अथवा सुनाता है,
पढ़ता है अथवा पढ़ाता है; वह सम्पूर्ण
मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है तथा सभी दुःखों से रहित होता हुआ मोक्ष को
प्राप्त करता है। यह अनुपम शिवलीला के अमृताक्षरवाला इतिहास स्वर्गदायक, कीर्ति को बढ़ानेवाला, पुत्र-पौत्र को बढ़ानेवाला,
अतिशय भक्ति को देनेवाला, धन्य, शिवजी की प्रीति को देनेवाला, कल्याणकारी, मनोहर, परम ज्ञान को देनेवाला और अनेक प्रकार के
विकारों को दूर करनेवाला है।
इति
श्रीशिवमहापुराणे द्वि० रुद्रसंहितायां पञ्च० युद्धखण्डे
दुंदुभिनिर्ह्राददैत्यवधवर्णनं नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः६५
॥
स्कंद उवाच ॥
संशृणुष्व
महाभाग ज्येष्ठेश्वर समीपतः । यद्वृत्तांतमभूद्विप्र परमाश्चर्यकृद्ध्रुवम् ॥ ४४ ॥
दंडखाते
महातीर्थे देवर्षिपितृतृप्तिदे । तप्यमानेषु विप्रेषु निष्कामं परमं तपः ॥ ४५ ॥
दैत्यो
दुंदुभिनिर्ह्रादो दुष्टः प्रह्लादमातुलः । देवाः कथं सुजेयाः
स्युरित्युपायमचिंतयत् ॥ ४६ ॥
किं
बलाश्च किमाहाराः किमाधारा हि देवताः । विचार्य बहुशो दैत्यस्तत्त्वं विज्ञाय
निश्चितम् ॥ ४७ ॥
अवश्यमग्रजन्मानो
हेतवोत्र विचारतः । ब्राह्मणान्हंतुमसकृत्कृतवानुद्यमं ततः ॥ ४८ ॥
यतः
क्रतुभुजो देवाः क्रतवो वेदसंभवाः । ते वेदा ब्राह्मणाधीनास्ततो देवबलं द्विजाः ॥
४९ ॥
निश्चितं
ब्राह्मणाधाराः सर्वे वेदाः सवासवाः । गीर्वाणा ब्राह्मणबला नात्र कार्या विचारणा ॥
५० ॥
ब्राह्मणा
यदि नष्टाः स्युर्वेदा नष्टास्ततः स्वयम् । आम्नायेषु प्रणष्टेषु विनष्टाः शततंतवः
॥ ५१ ॥
यज्ञेषु
नाशं गच्छत्सु हृताहारास्ततः सुराः । निर्बलाः सुखजेयाः स्युर्जितेषु त्रिदशेष्वथ ॥
५२ ॥
अहमेव भविष्यामि मान्यस्त्रिजगतीपतिः । आहरिष्यामि देवानामक्षयाः सर्वसंपदः ॥ ५३ ॥
निर्वेक्ष्यामि
सुखान्येव राज्ये निहतकंटके । इति निश्चित्य दुर्बुद्धिः पुनश्चिंतितवान्मुने ॥ ५४
॥
स्कंद ने कहा: सुनो, हे धन्य! हे ब्राह्मण! सुनो कि ज्येष्ठेश्वर के निकट क्या हुआ था। यह निश्चित ही बेहद अद्भुत है। जब ब्राह्मण देवों, ऋषियों और पितरों को संतुष्ट करने वाले महान तीर्थ दंडखात में बिना किसी इच्छा या उद्देश्य के घोर तपस्या कर रहे थे, तब दुष्ट दैत्य दुंदुभिनिर्ह्रद, प्रह्लाद के मामा ने देवताओं पर आसानी से विजय प्राप्त करने के उपाय के विषय में सोचा। उसने इस पर कई बार विचार किया: उन देवताओ की शक्ति का स्रोत क्या है? देवताओं का भोजन क्या है? उनका समर्थन क्या है? यह वह इस निर्णय पर पहुंचा, जो (उसके विचार में) वास्तविक तथ्य था: निश्चित रूप से विचार करने पर ब्राह्मण ही वास्तविक कारण प्रतीत होते हैं। इसलिए, इसके पश्चात, उसने बहुधा ब्राह्मणों को मारने का प्रयास किया। चूँकि देवता क्रतु (यज्ञ) पर रहते हैं, क्रतवो वेदों पर आधारित हैं और वे वेद ब्राह्मणों के संरक्षण में हैं, ब्राह्मण देवताओं की शक्ति का गठन करते हैं। यह निश्चित है कि इन्द्र सहित समस्त वेदों को ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त है। यह निष्कर्ष निकालने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि ब्राह्मण ही देवों के पीछे की शक्ति हैं। यदि ब्राह्मणों का विनाश हो जाता है, तो वेद स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। जब वेद नष्ट हो जाते हैं तो यज्ञ नष्ट हो जाते हैं। जब यज्ञ नष्ट हो जाते हैं, तो देवता अपने भोजन से वंचित हो जाते हैं और इतने कमजोर हो जाते हैं कि उन पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है। जब देवताओं पर विजय प्राप्त हो जायेगी तो मैं स्वयं तीनों लोकों का प्रतिष्ठित स्वामी बन जाऊँगा। मैं तब देवताओं की सारी असीमित संपत्ति छीन लूंगा। जब राज्य में उपद्रवी लोगों का नाश हो जाएगा, तब मैं केवल सुख भोगूंगा।
द्विजाः
क्व संति भूयांसो ब्रह्मतेजोतिबृंहिताः । श्रुत्यध्ययन संपन्नास्तपोबल समन्विताः ॥
५५ ॥
भूयसां
ब्राह्मणानां तु स्थानं वाराणसी भवेत् । तानादावुपसंहृत्य यामि तीर्थांतरं ततः ॥
५६ ॥
यत्रयत्र
हि तीर्थेषु यत्रयत्राश्रमेषु च । संति सर्वेऽग्रजन्मानस्ते मयाद्याः समंततः ॥ ५७ ॥
इति दुंदुभिनिर्ह्रादो मतिं कृत्वा कुलोचिताम् । प्राप्यापि काशीं दुर्वृत्तो मायावी न्यवधीद्द्विजान् ॥ ५८ ॥
समित्कुशान्समादातुं
यत्र यांति द्धिजोत्तमाः । अरण्ये तत्र तान्सर्वान्स भक्षयति दुर्मतिः ॥ ५९ ॥
यथा
कोपि न वेत्त्येव तथाच्छन्नोऽभवत्पुनः । वने वनेचरो भूत्वा यादोरूपी जलाशये ॥ ६० ॥
अदृश्यरूपी
मायावी देवानामप्यगोचरः । दिवाध्यानपरस्तिष्ठेन्मुनिवन्मुनिमध्यगः ॥ ६१ ॥
प्रवेशमुटजानां
च निर्गमं च विलोकयन् । यामिन्यां व्याघ्ररूपेण ब्राह्मणान्भक्षयेद्बहून् ॥ ६२ ॥
निःशब्दमेव
नयति नत्यजेदपि कीकसम् । इत्थं निपातिता विप्रास्तेन दुष्टेन भूरिशः ॥ ६३ ॥
एकदा
शिवरात्रौ तु भक्तस्त्वेको निजोटजे । सपर्यां देवदेवस्य कृत्वा ध्यानस्थितोभवत् ॥
६४ ॥
स
च दुंदुभिनिर्ह्राद दैत्येंद्रो बलदर्पितः । व्याघ्र रूपं समास्थाय तमादातुं मतिं
दधे ॥ ६५ ॥
वाराणसी वह स्थान होना चाहिए जहां ब्राह्मणों की प्रधानता है। आरंभ में ही उन्हें नष्ट करके मैं अन्य तीर्थों पर जाऊँगा। वे तीर्थ चाहे जो भी हों, वे आश्रम भी क्यों न हों जहां ब्राह्मण हों, उन सभी ब्राह्मणों को मैं सर्वांगीण रूप से निगल जाऊंगा। अपनी जाति के अनुरूप इस प्रकार निर्णय लेने के बाद दुष्ट मायावी (जादू-टोना करने में सक्षम) काशी आया और ब्राह्मणों को मार डाला। जंगल में जहाँ भी श्रेष्ठ ब्राह्मण बलि की टहनियाँ और दरभा घास इकट्ठा करने के लिए जाते थे, दुष्ट दिमाग वाले दैत्य उन पर हमला करते थे और उन्हें खा जाते थे। वह जंगल में शिकारी का, वा जल के भीतर जलचर का रूप धारण करके छिप गया, कि कोई उसे पहचान न सके। माया-शक्ति से युक्त वह दैत्य देवताओं के लिए भी अदृश्य रहता था। कभी-कभी वह दिन के समय साधु के भेष में तपस्वी की भाँति ध्यानमग्न बैठा रहता था। वह उन्हें झोंपड़ियों में घुसते और बाहर जाते हुए देखता रहता था। फिर रात में उसने बाघ का रूप धारण किया और कई ब्राह्मणों को खा डाला। वह बिना कोई आहट किये उन्हें (ब्राह्मणो को )उठा ले जाता था। उसने उनकी हड्डियाँ तक न छोड़ीं। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस द्वारा बहुत से ब्राह्मण मारे गये। एक बार शिवरात्रि के दिन, एक भक्त ने अपनी (उटज) कुटिया में देवों के देव भगवान की आराधना की और ध्यान में लगा रहा। अपनी ताकत के कारण घमंडी दैत्यों के राजा दुंदुभिनिर्ह्रद ने एक बाघ का रूप धारण किया और उसे पकड़ने की इच्छा की।
तं
भक्तं ध्यानमापन्नं दृढचित्तं शिवेक्षणे । कृतास्त्रमंत्रविन्यासं तं
क्रांतुमशकन्न सः ॥ ६६ ॥
अथ
सर्वगतः शंभुर्ज्ञात्वा तस्याशयं हरः । दैत्यस्य दुष्टरूपस्य वधाय विदधे धियम् ॥
६७ ॥
यावदादित्सति
व्याघ्रस्तावदाविरभूद्धरः । जगद्रक्षामणिस्त्र्यक्षो भक्तरक्षण दक्षधीः ॥ ६८ ॥
रुद्रमायांतमालोक्य
तद्भक्तार्चित लिंगतः । दैत्यस्तेनैव रूपेण ववृधे भूधरोपमः ॥ ६९ ॥
सावज्ञमथसर्वज्ञं
यावत्पश्यति दानवः । तावदायांतमादाय कक्षायंत्रे न्यपीडयत् ॥ ७० ॥
वह शिव को प्राप्त करने के दृढ़ संकल्प के साथ ध्यान में लगे उस भक्त पर हमला नहीं कर सका, क्योंकि उसने (भक्त ने) उचित विन्यास (मंत्र द्वारा सुरक्षात्मक घेरा) के साथ अस्त्र-मंत्र का उच्चारण किया था। इसके बाद, शंभू, सर्वव्यापी, हर, दुष्ट दैत्य के प्रयोजन को समझ गए और उसे मारने का निर्णय किया। जैसे ही बाघ (व्याघ्र) उन्हें पकड़ने ही वाला था, दुष्टात्माओं से बचाने वाले ब्रह्मांड के प्रतिष्ठित रक्षक-रत्न, भक्तों की रक्षा करने में कुशल, हर, उनके सामने प्रकट हुए। रूद्र को उस भक्त द्वारा पूजे गए लिंग से बाहर आते देखकर, दैत्य का आकार एक बड़े पर्वत के बराबर हो गया, और उसी रूप में (बाघ के समान) रह गया। दानव ने सर्वज्ञ को तिरस्कार की दृष्टि से देखा और आगे बढ़ गया। उसे आते देख प्रभु ने उसे अपनी यन्त्र रूपी कांख में दबा लिया।
पंचास्यस्त्वथ
पंचास्यं मुष्ट्या मूर्धन्यताडयत् । स च तेनैव रूपेण कक्षानिष्पेषणेन च ॥७१ ॥
अत्यार्तमरटद्व्याघ्रो
रोदसी परिपूरयन् । तेन नादेन सहसा सं प्रवेपितमानसाः ॥ ७२ ॥
तपोधनाः
समाजग्मुर्निशि शब्दानुसारतः । तत्रेश्वरं समालोक्य कक्षीकृत मृगेश्वरम् ॥ ७३ ॥
तुष्टुवुः
प्रणता सर्वे शर्वं जयजयाक्षरैः । परित्राता जगत्त्रातः प्रत्यूहाद्दारुणादितः ॥ ७४
॥
अनुग्रहं
कुरुध्वेश तिष्ठात्रैव जगद्गुरो । अनेनैव हि रूपेण व्याघ्रेश इति नामतः ॥ ७५ ॥
पंचास्य (पांच मुख वाले शिव) ने पंचास्य (पांच मुख वाले व्याघ्र) के सिर पर अपनी मुट्ठी से प्रहार किया। कांख में दबने और दबने से बाघ ने अपना आकार बरकरार रखते हुए कष्ट से चिल्लाना और दहाड़ना शुरू कर दिया। उसकी चीखों से स्वर्ग और पृथ्वी भर गये। उस आकस्मिक गर्जना से मन कांपते हुए तपस्वी रात्रि के अँधेरे में ध्वनि का पीछा करते हुए वहाँ आये। वहाँ उन्होंने मृगेश्वर (व्याघ्र) के साथ भगवान शर्वेश्वर को देखा। "हे ईशान, हमें आशीर्वाद दीजिये।" हे विश्वगुरु, व्याघ्रेश नाम धारण करके इसी स्वरुप में यहीं रहिये।
कुरु
रक्षां महादेव ज्येष्ठस्थानस्य सर्वदा । अन्येभ्योप्युपसर्गेभ्यो रक्ष
नस्तीर्थवासिनः ॥ ७६ ॥
इति
श्रुत्वा वचस्तेषां देवश्चंद्रविभूषणः । तथेत्युक्त्वा पुनः प्राह शृणुध्वं
द्विजपुंगवाः ॥ ७७ ॥
यो
मामनेन रूपेण द्रक्ष्यति श्रद्धयात्र वै ॥ तस्योपसर्गसंघातं घातयिष्याम्यसंशयम् ॥
७८ ॥
एतल्लिंगं
समभ्यर्च्य यो याति पथि मानवः । चौरव्याघ्रादिसंभूत भयं तस्य कुतो भवेत् ॥ ७९ ॥
मच्चरित्रमिदं
श्रुत्वा स्मृत्वा लिंगमिदं हृदि । संग्रामे प्रविशन्मर्त्यो जयमाप्नोति नान्यथा ॥
८० ॥
इत्युक्त्वा देवदेवशस्तस्मिँल्लिंगे लयं ययौ । सविस्मयास्ततो विप्राः प्रातर्याता यथागतम् ॥ ८१ ॥
हे महादेव! ज्येष्ठास्थान को सदैव सुरक्षा प्रदान करें। हमें, तीर्थ के निवासियों को, अन्य पीड़ाओं और विपत्तियों से बचाएं। उनके वचनों को सहन करने पर, चंद्रमा-अलंकृत भगवान ने कहा: "ऐसा ही होगा" और इस प्रकार जारी रखा, "हे प्रतिष्ठित ब्राह्मणों, सुनो। जो मनुष्य यहां निष्ठापूर्वक मेरे दर्शन करेगा, मैं निःसंदेह इसी रूप में उसकी विपत्तियों के समूह को नष्ट कर दूंगा। यदि कोई मनुष्य इस लिंग की पूजा करके अपनी यात्रा पर आगे बढ़ता है, तो उसे चोर, बाघ आदि से कोई भय नहीं होता है। मेरी इस कथा को सुनकर तथा लिंग का स्मरण करके मनुष्य युद्धभूमि में प्रवेश करेगा तो युद्ध जीतेगा अन्यथा नहीं। इस प्रकार कहने के बाद देवताओं के प्रमुख भगवान उस लिंग में विलीन हो गये। इससे आश्चर्यचकित और निराश होकर, ब्राह्मण सुबह उन स्थानों पर वापस चले गए जहाँ से वे आए थे।
॥ स्कन्द उवाच ॥
तदा
प्रभृति कुंभोत्थ लिंगं व्याघ्रेश्वराभिधम् । ज्येष्ठेशादुत्तरेभागे दृष्टं
स्पृष्टं भयापहम् ॥ ८२ ॥
व्याघ्रेश्वरस्य
ये भक्तास्तेभ्यो बिभ्यति किंकराः । यामा अपि महाक्रूरा जयजीवेति वादिनः॥ ८३ ॥
पराशरेश्वरादीनां
लिंगानामिह संभवम् । श्रुत्वा नरो न लिप्येत महापातककर्दमैः॥ ८४ ॥
कंदुकेश
समुत्पत्तिं व्याघ्रे शाविर्भवं तथा। समाकर्ण्य नरो जातु नोपसर्गैः प्रदूयते ॥ ८५ ॥
उटजेश्वर
लिंगं तु व्याघ्रेशात्पश्चिमे स्थितम् । भक्तरक्षार्थमुद्भूतं स्यात्समभ्यर्च्य
निर्भयः ॥ ८६ ॥
स्कंद ने कहा: हे अगस्त्य! तब से इस लिंग को व्याघ्रेश्वर नाम से जाना जाने लगा। यह ज्येष्ठेश के उत्तर में है। यदि इसके दर्शन और स्पर्श किया जाए तो इससे भय दूर हो जाता है। यम के सेवक व्याघ्रेश्वर के भक्तों से डरते हैं। भले ही यम (यम के सेवक) बहुत क्रूर हों, वे यह कहने में प्रसन्न होंगे, "विजयी बनो।" जीवित रहो।” यहां पाराशरेश्वर तथा अन्य लिंगों के प्रकट होने का श्रवण करके मनुष्य महान पापों के कीचड़ में लिप्त होने से बच सकता है। कंदुकेश और व्याघ्रेश के प्राकट्य की कथा सुनने से मनुष्य कभी भी विपत्तियों से व्यथित नहीं होता। उटजेश्वर लिंग व्याघ्रेश्वर के पश्चिम में स्थित है। यह भक्त की रक्षा के लिए उत्पन्न हुआ है। इसकी पूजा करने से मनुष्य भय से मुक्त हो जाता है।
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥