सन्दर्भ : स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः) - अध्यायः १० एवं अध्यायः ११
शिवपुराणम्/संहिता_३_(शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः_१३
॥ अथ गृहपत्यवतारकथा ॥
॥ भगवान् शंकर के गृहपति अवतार की कथा ॥
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
शृणु ब्रह्मसुत प्रीत्या चरितं शशिमौलिनः ॥ सोऽवतीर्णो यथा प्रीत्या विश्वानरगृहे शिवः ॥ १ ॥
नाम्ना गृहपतिः सोऽभूदग्निलोकपतिर्मुने ॥ अग्निरूपस्तेजसश्च सर्व्वात्मा परमः प्रभुः ॥ २ ॥
नर्मदायास्तटे रम्ये पुरे नर्मपुरे पुरा ॥ पुरारिभक्तः पुण्यात्मा भवद्विश्वानरो मुनिः ॥ ३ ॥
ब्रह्मचर्य्याश्रमे निष्ठो ब्रह्मयज्ञरतस्सदा ॥ शाण्डिल्यगोत्रः शुचिमान्ब्रह्मतेजो निधिर्व्वशी ॥ ४ ॥
विज्ञाताखिलशास्त्रार्थस्सदाचाररतस्सदा ॥ शैवाचारप्रवीणोऽति लौकिकाचारविद्वरः ॥ ५ ॥
चित्ते विचार्य्य गृहिणीगुणान्विश्वानरः शुभान् ॥ उदुवाह विधानेन स्वोचितां कालकन्यकाम् ॥ ६ ॥
अग्निशुश्रूषणरतः पञ्चयज्ञपरायणः ॥ षट्कर्मनिरतो नित्यं देवपित्रतिथिप्रियः ॥ ७ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे ब्रह्मपुत्र! अब चन्द्रमाको सिरपर धारण करनेवाले शिवके एक अन्य चरित्रको प्रसन्नतापूर्वक सुनिये, जिस प्रकार उन्होंने प्रेमपूर्वक विश्वानरके घरमें जन्म लिया। हे मुने! गृहपति नामवाले ये अग्निलोकके स्वामी हुए, वे अग्निके सदृश, तेजस्वी, सर्वात्मा एवं परम प्रभु थे। पूर्वकालमें नर्मदा तटपर नर्मपुरमें शिव भक्त विश्वानर नाम वाले पुण्यात्मा मुनि हुए। वे सदा ब्रह्मचर्याश्रम धर्मका पालन करते हुए नित्य प्रति ब्रह्मयज्ञ किया करते थे। वे शाण्डिल्यगोत्री थे और बड़े पवित्र, ब्रह्मतेजस्वी तथा जितेन्द्रिय थे। वे सभी शास्त्रोंके अर्थोंके ज्ञाता, सर्वदा सदाचारमें तत्पर, शैव आचारमें अति प्रवीण तथा लौकिक आचारके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने भार्याके उत्तम गुणोंपर विचारकर उचित समयमे विधिपूर्वक अपने योग्य कुलीन कन्यासे विवाह किया। वे प्रतिदिन अग्निशुश्रूषा पंचयज्ञ तथा षट्कर्म संलग्न रहते थे और देवता पितर एवं अतिथियोंका पूजन करते थे।
एवम्बहुतिथे काले गते तस्याग्रजन्मनः ॥ भार्य्या शुचिष्मती नाम भर्तारम्प्राह सुव्रता ॥ ८ ॥
नाथ भोगा मया सर्वे भुक्ता वै त्वत्प्रसादतः ॥ स्त्रीणां समुचिता ये स्युस्त्वां समेत्य मुदावहाः ॥ ९ ॥
एवम्मे प्रार्थितन्नाथ चिराय हृदि संस्थितम् ॥ गृहस्थानां समुचितं त्वमेतद्दातुमर्हसि ॥ १० ॥
इस प्रकार बहुत समय बीत जानेके उपरान्त एक दिन उन ब्राह्मणकी शुचिष्मती नामक पतिव्रता पत्नीने पतिसे कहा- हे नाथ! मैंने आपकी कृपासे आपके साथ उन सभी भोगोंको भोग लिया है, जो स्त्रियोंके योग्य तथा आनन्ददायक हैं। हे नाथ! अब मेरी एक ही विशेष अभिलाषा है, जो मेरे हृदयमें चिरकालसे स्थित है और वह गृहस्थोंके लिये उचित भी है, उसे देनेकी कृपा करें।
॥ विश्वानर उवाच ॥
किमदेयं हि सुश्रोणि तव प्रियहितैषिणी ॥ तत्प्रार्थय महाभागे प्रयच्छाम्यविलम्बितम् ॥ ११ ॥
महेशितुः प्रसादेन मम किञ्चिन्न दुर्लभम् ॥ इहामुत्र च कल्याणि सर्वकल्याणकारिणः ॥ १२ ॥
विश्वानर बोले- हे सुश्रोणि! हे प्रियहितैषिणि! मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। हे महाभागे ! तुम उसे माँगो, मैं शीघ्र ही प्रदान करूँगा। हे कल्याणि ! सम्पूर्ण कल्याण करनेवाले महेश्वरकी कृपासे मुझे इस लोक एवं परलोकमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्याकर्ण्य वचः पत्युस्तस्य सा पतिदेवता ॥ उवाच हृष्यद्वदना करौ बद्ध्वा विनीतिका ॥ १३ ॥
नन्दीश्वर बोले- पतिके इस वचनको सुनकर प्रसन्न मुखवाली वह पतिव्रता स्त्री प्रसन्नतासे विनीत हो दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी-
॥ शुचिष्मत्युवाच ॥
वरयोग्यास्मि चेन्नाथ यदि देयो वरो मम ॥ महेशसदृशम्पुत्रन्देहि नान्यं वरं वृणे ॥ १४ ॥
शुचिष्मती बोली- हे नाथ! यदि मैं वरके योग्य हूँ और यदि आपको मुझे वर प्रदान करना है तो मुझे शिवके समान पुत्र दीजिये, मैं कोई अन्य वर नहीं चाहती हूँ।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इति तस्या वचः श्रुत्वा ब्राह्मणस्स शुचिव्रतः ॥ क्षणं समाधिमाधाय हृद्येतत्समचिन्तयत् ॥ १५ ॥
अहो किं मे तया तन्व्या प्रार्थितं ह्यतिदुर्लभम् ॥ मनोरथपथाद्दूरमस्तु वा स हि सर्व्वकृत् ॥ १६ ॥
तेनैवास्या मुखे स्थित्वा वाक्स्वरूपेण शम्भुना ॥ व्याहृतं कोऽन्यथा कर्त्तुमु त्सहेत भवेदिदम् ॥ १७ ॥
नन्दीश्वर बोले- उसके इस वचनको सुनकर वे पवित्रात्मा ब्राह्मण क्षणभरके लिये समाधिस्थ होकर अपने हृदयमें विचार करने लगे। अहो! मेरी इस स्त्रीने अत्यन्त दुर्लभ तथा मनोरथ मार्गसे दूर कैसी वस्तु माँगी है अथवा वे शिवजी ही सब कुछ पूरा करनेवाले हैं। उन सम्धुने ही इसके मुखमें वाणीरूपसे स्थित होकर ऐसा कहा है। शिवजीकी यदि ऐसी इच्छा है, तो उसे अन्यथा करनेमें कौन समर्थ हो सकता है।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इति सञ्चिंत्य स मुनिर्विश्वानर उदारधीः ॥ ततः प्रोवाच ताम्पत्नीमेकपत्नीव्रते स्थितः ॥ १८ ॥
ऐसा विचारकर उदार बुद्धिवाले तथा एकपत्नी व्रतमें परायण रहनेवाले विश्वानर मुनिने बादमें उस पत्नीसे कहा -
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्थमाश्वास्य ताम्पत्नीञ्जगाम तपसे मुनिः ॥ यत्र विश्वेश्वरः साक्षात्काशीनाथोऽधि तिष्ठति ॥ १९ ॥
प्राप्य वाराणसीं तूर्णं दृष्ट्वा ताम्मणिकर्णिकाम् ॥ तत्याज तापत्रितयमपि जन्मशतार्जितम् ॥ २० ॥
दृष्ट्वा सर्वाणि लिंगानि विश्वेशप्रमुखानि च ॥ स्नात्वा सर्वेषु कुण्डेषु वापीकूपसरस्सु च ॥ २१ ॥
नत्वा विनायकान्सर्वान्गौरीं शर्वां प्रणम्य च ॥ सम्पूज्य कालराजञ्च भैरवम्पापभक्षणम् ॥ २२ ॥
दण्डनायकमुख्यांश्च गणान्स्तुत्वा प्रयत्नतः ॥ आदिकेशवमुख्यांश्च केशवम्परितोष्य च ॥ २३ ॥
लोकार्कमुखसूर्यांश्च प्रणम्य स पुनःपुनः ॥ कृत्वा च पिण्डदानानि सर्वतीर्थेष्वतन्द्रितः ॥ २४ ॥
सहस्रभोजनाद्यैश्च मुनीन्विप्रान्प्रतर्प्य च ॥ महापूजोपचारैश्च लिंगान्यभ्यर्च्य भक्तितः ॥ २५ ॥
असकृच्चिन्तयामास किं लिंगं क्षिप्रसिद्धिदम् ॥ यत्र निश्चलतामेति तपस्तनयकाम्यया ॥ २६ ॥
क्षणं विचार्य्य स मुनिरिति विश्वानरस्सुधीः ॥ क्षिप्रम्पुत्रप्रदं लिंगं वीरेशम्प्रशशंस ह ॥ २७ ॥
असंख्यातास्सहस्राणि सिद्धाः सिद्धिं गतास्ततः ॥ सिद्धलिंगमिति ख्यातन्तस्माद्वीरेश्वरम्परम् ॥ २८ ॥
वीरेश्वरम्महालिंगमब्दमभ्यर्च्य भक्तितः ॥ आयुर्मनोरथं सर्वं पुत्रादिकमनेकशः ॥ २९ ॥
अहमप्यत्र वीरेशं समाराध्य त्रिकालताः ॥ आशु पुत्रमवाप्स्यामि यथाभिलषितं स्त्रिया ॥ ३० ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार अपनी पत्नी को अनेक प्रकार से आश्वस्त करके मुनि तप करने के लिये वहाँ चले गये, जहाँ साक्षात् काशीनाथ विश्वेश्वर स्थित हैं। उन्होंने शीघ्र ही वाराणसी पहुँचकर मणिकर्णिकाका दर्शन करके अपने सैकड़ों जन्मोंके अर्जित तीनों तापोंसे मुक्ति प्राप्त कर ली। उसके बाद उन्होंने विश्वेश्वर आदि सभी लिंगोंका दर्शन करके काशीस्थ सभी कुण्डों, वापियों एवं सरोवरोंमें स्नान करके, सभी विनायकोंको नमस्कार करके, शिवा गौरीको प्रणाम करके, पापोंका भक्षण करनेवाले कालराज भैरवका भी पूजन किया, फिर प्रयत्नपूर्वक दण्डपाणि विनायक आदि प्रमुख गणोंकी स्तुतिकर, आदिकेशव आदि मुख्य द्वादश केशवों को प्रसन्न करके फिर लोलार्क आदि प्रमुख सूर्योको बार-बार प्रणाम किया, पुनः सभी तीर्थोंमें समाहितचित्त होकर पिण्डदान करके हजारों प्रकारके भोजनादिसे मुनियों तथा ब्राह्मणको सन्तुष्टकर महापूजोपचार से भक्तिपूर्वक अनेक लिंगोंका पूजन करके वे बार बार विचार करने लगे कि शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करनेवाला कौन-सा लिंग हैं, जहाँ पुत्रको कामनासे मेरा तप सफल होगा। उन बुद्धिमान् विश्वानर मुनिने कुछ क्षण ऐसा विचार करके शीघ्र ही पुत्र देनेवाले वीरेश नामक लिंगकी प्रशंसा की। उन्होंने अपने मनमें विचार कियाकि यह वीरेश्वर सिद्ध लिंग है, इसकी पूजाके प्रभावसे असंख्य साधक सिद्धिको प्राप्त किये हैं, इसीलिये यह श्रेष्ठ लिंग सबसे अधिक प्रसिद्ध है। लोग भक्तिभावसे समन्वित होकर वर्षपर्यन्त इस वीरेश्वर महालिंगकी पूजा करके आयु तथा पुत्रादि सभी मनोरथ प्राप्त करते हैं। अतः मैं भी यहीं वीरेश लिंगकी त्रिकाल आराधनाकर शीघ्र वैसा ही पुत्र प्राप्त करूँगा, जैसे कि मेरी स्त्रीने अभिलाषा की है।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इति कृत्वा मतिन्धीरो विप्रो विश्वानरः कृती ॥ चन्द्रकूपजले स्नात्वा जग्राह नियमं व्रती ॥ ३१ ॥
एकाहारोऽभवन्मासं मासं नक्ताशनोऽभवत् ॥ अयाचिताशनो मासम्मासन्त्यक्ताशनः पुनः ॥ ३२ ॥
पयोव्रतोऽभवन्मासम्मासं शाकफलाशनः ॥ मासम्मुष्टितिलाहारो मासं पानीयभोजनः ॥ ३३ ॥
पञ्चगव्याशनो मासम्मासञ्चान्द्रायणव्रती ॥ मासं कुशाग्रजलभुग्मासं श्वसनभक्षणः ॥ ३४ ॥
एवमब्दमितं कालन्तताप स तपोऽद्भुतम् ॥ त्रिकालमर्चयद्भक्त्या वीरेशं लिङ्गमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
अथ त्रयोदशे मासि स्नात्वा त्रिपथगाम्भसि ॥ प्रत्यूष एव वीरेशं यावदायाति स द्विजः ॥ ३६ ॥
तावद्विलोकयाञ्चक्रे मध्ये लिंगन्तपोधनः ॥ विभूतिभूषणम्बालमष्टवर्षाकृतिं शिशुम् ॥ ३७ ॥
आकर्णायतनेत्रञ्च सुरक्तदशनच्छदम् ॥ चारुपिंगजटामौलि न्नग्नप्रहसिताननम् ॥ ३८ ॥
शैशवोचितनेपथ्यधारिणञ्चितिधारिणम् ॥ पठन्तं श्रुतिसूक्तानि हसन्तं च स्वलीलया ॥ ३९ ॥
तमालोक्य मुदम्प्राप्य रोमकञ्चुकितो मुनिः ॥ प्रोच्चचार हृदालापान्नमोस्त्विति पुनः पुनः ॥ ४० ॥
अभिलाषप्रदैः पद्यैरष्टभिर्बालरूपिणम् ॥ तुष्टाव परमानन्दं शंभुं विश्वानरः कृती ॥ ४१ ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा विचारकर बुद्धिमान्, पुण्यात्मा तथा व्रती ब्राह्मण विश्वानरने चन्द्रकूपके जलमें स्नानकर नियम धारण किया। उन्होंने एक मासपर्यन्त दिनमें एकाहार, एक मास पर्यन्त रात्रिमें एकाहार, एक मासपर्यन्त अयाचित आहार पुनः एक मासतक निराहार रहकर तप किया। वे एक महीने तक दूध पीकर, एक महीनेतक शाक फल खाकर एक महीनेतक मुट्ठीभर तिल खाकर और एक महीने पानी पीकर रहे। वे एक महीनेतक पंचगव्य पीकर, एक मासतक चान्द्रायणव्रतकर, एक मासतक कुशाग्रका जल पीकर पुनः एक महीने वायु भक्षणकर रहने लगे। उत्तम वीरेश्वरलिंगकी भक्तिपूर्वक पूजा करते हुए इस प्रकार उन्होंने एक वर्षतक अद्भुत तप किया। उसके बाद तेरहवें महीने में गंगाके जलमें प्रातः काल स्नानकर ज्यों ही वे ब्राह्मण वीरेश्वरकी ओर आये, उसी समय उन तपोधनने वीरेश्वर लिंगके मध्यमें विभूति से विभूषित आठ वर्षकी आकृतिवाले एक बालकको देखा उस बालककी आँखें कानोंतक फैली हुई थीं, उसके ओठ गहरे लाल थे, मस्तकपर अत्यन्त पिंगलवर्णकी जटा शोभा पा रही थी, वह नग्न तथा प्रसन्नमुख था और बालोचित वेशभूषा तथा चिताका भस्म धारण किये हुए श्रुतिके सूतोंका पाठ करता हुआ लीलापूर्वक हँस रहा था। उसे देखकर आनन्दित होकर रोमांचयुक्त विश्वानर मुनिने बार-बार हृदयसे 'नमोऽस्तु' कहकर प्रणाम किया। तदनन्तर विश्वानर मुनि कृतार्थ होकर अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्योंसे बालकरूपधारी परमानन्द स्वरूप शिवकी स्तुति करने लगे।
॥ विश्वानर उवाच ॥
एकम्ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं सत्यंसत्यं नेह नानास्ति किञ्चित्॥
एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे तस्मादेकन्त्वाम्प्रपद्ये महेशम्॥४२॥
विश्वानर बोले - यह सब कुछ एक अद्वितीय ब्रह्म ही है, वही सत्य है, वही सत्य है, सर्वत्र उस ब्रह्मके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वह ब्रह्म एकमात्र ही है और दूसरा कोई नहीं है, इसलिये मैं एकमात्र आप महेश्वरकी शरण प्राप्त करता हूँ।
कर्ता हर्त्ता त्वं हि सर्वस्य शम्भो नानारूपेष्वेकरूपोऽप्यरूपः॥
यद्वत्प्रत्यग्धर्म एकोऽप्यनेकस्तस्मान्नान्यन्त्वां विनेशम्प्रपद्ये॥४३॥
हे शम्भो! एक आप ही सबका सृजन करनेवाले तथा हरण करनेवाले हैं, आप रूपविहीन होकर भी अनेक रूपोंमें एक रूपवाले हैं, जैसे आत्मधर्म एक होता हुआ भी अनेक रूपोंवाला है, इसलिये मैं आप महेश्वरको छोड़कर किसी अन्यकी शरण नहीं प्राप्त करना चाहता हूँ।
रज्जो सर्पश्शुक्तिकायां च रौप्यं नैरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ॥
यद्यत्सद्वद्विष्वगेव प्रपञ्चो यस्मिञ्ज्ञाते तम्प्रपद्ये महेशम् ॥४४॥
जिस प्रकार रस्सीमें साँप, सीपीमें चाँदी और मृगमरीचिकामे जलप्रवाह मिथ्या भासित होता है, उसी प्रकार आपमें यह सारा प्रपंच भासित हो रहा है। जिसके जान लेनेपर इस प्रपंचका मिथ्यात्व भलीभाँति ज्ञात हो जाता है, मैं उन महेश्वरकी शरण प्राप्त करता हूँ।
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ तापो भानौ शीतभानौ प्रसादः॥
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्येऽपि सर्पिर्यत्तच्छंभो त्वं ततस्त्वाम्प्रपद्ये॥४५॥
हे शम्भो ! जिस प्रकार जलमें शीतलता, अग्निमें दाहकता, सूर्यमें ताप, चन्द्रमामै आह्लादकत्व, पुष्पमें गन्ध एवं दुग्धमें घृत व्याप्त रहता है, उसी प्रकार सर्वत्र आप ही व्याप्त हैं, अतः मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ।
शब्दं गृह्णास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्रस्यप्राणस्त्वं त्र्यंघ्रिरायासि दूरात् ॥
त्र्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः कस्त्वां सम्यग्वेत्त्यतस्त्वाम्प्रपद्ये ॥४६॥
हे प्रभो। आप कानोंके बिना सुनते हैं, नाकके बिना सूपते हैं, बिना पैरके दूरसे आते हैं, बिना आँखके देखते हैं और बिना जिड़ाके रस ग्रहण करते हैं, अतः आपको भलीभाँति कौन जान सकता है। इस प्रकार मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ।
नो वेद त्वामीश साक्षाद्धि वेदो नो वा विष्णुर्नो विधाताखिलस्य॥
नो योगीन्द्रानेन्द्रमुख्याश्च देवा भक्तो वेदस्त्वामतस्त्वाम्प्रपद्ये॥४७॥
हे ईस आपको न साक्षात् वेद, न विष्णु न सर्वस्रष्टा ब्रह्मा, न योगीन्द्र और न तो इन्द्रादि देवगण ही जान सकते हैं, केवल भक्त ही आपको जान पाता है, अतः मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ।
नो ते गोत्रं नो सजन्मापि नाशो नो वा रूपं नैव शीलन्न देशः ॥
इत्थम्भूतोऽपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्यास्सर्वान्कामान्पूरयेस्त्वं भजे त्वाम् ॥ ४८ ॥
हे ईश! आपका न तो गोत्र है, न जन्म है, न आपका नाम है, न आपका रूप है, न शील है एवं न देश। ऐसा होते हुए भी आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं और आप समस्त मनोरथोंको पूर्ण करते हैं, अतः मैं आपका भजन करता हूँ।
त्वत्तस्सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः ॥
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बालस्तत्त्वं यत्किं नान्यतस्त्वां नतोऽहम्॥४९ ॥
हे कामशत्रो! सब कुछ आपसे है और आप ही सब कुछ हैं, आप पार्वतीपति हैं, आप दिगम्बर एवं अत्यन्त शान्त हैं। आप वृद्ध, युवा और बालक हैं। कौन ऐसा पदार्थ है, जो आप नहीं हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
स्तुत्वेति विप्रो निपपात भूमौ संबद्धपाणिर्भवतीह यावत्॥ तावत्स बालोऽरिबलवृद्धवृद्धः प्रोवाच भूदेवमतीव हृष्टः ॥ ५० ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार स्तुतिकर हाथ जोड़े हुए वे ब्राह्मण जबतक पृथ्वीपर गिरते, तबतक वह बालक वृद्धोंके भी वृद्ध पुरातन पुरुषके रूपमें अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्राह्मणसे कहने लगा-
॥ बाल उवाच ॥
विश्वानर मुनिश्रेष्ठ भूदेवाहं त्वयाद्य वै॥ तोषितस्सुप्रसन्नात्मा वृणीष्व वरमुत्तमम् ॥ ५१ ॥
तत उत्थाय हृष्टात्मा मुनिर्विश्वानरः कृती॥ प्रत्यब्रवीन्मुनिश्रेष्ठः शंकरम्बालरूपिणम् ॥५२॥
बालक बोला- हे विश्वानर! हे मुनिश्रेष्ठ! हे ब्राह्मण! आपने आज मुझे अत्यन्त सन्तुष्ट कर दिया। अतः आप प्रसन्नचित्त होकर उत्तम वर माँगिये। तब मुनियोंमें श्रेष्ठ वे विश्वानर मुनि प्रसन्नचित हो उठकर बालकरूपी शिवजीसे कहने लगे -
॥ विश्वानर उवाच ॥
महेश्वर किमज्ञातं सर्वज्ञस्य तव प्रभो ॥ सर्वान्तरात्मा भगवाच्छर्वस्सर्व्वप्रदो भवान् ॥ ५३ ॥
याच्ञाम्प्रति नियुक्तम्मां किं ब्रूषे दैन्यकारिणीम् ॥ इति ज्ञात्वा महेशान यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ५४ ॥
विश्वानर बोले- हे महेश्वर! आप तो सर्वज्ञ हैं, अतः आपसे कौन ऐसी बात है, जो छिपी रह सकती है। हे प्रभो! आप सर्वान्तरात्मा, भगवान्, शर्व तथा सब कुछ प्रदान करनेवाले हैं। दीनता प्रकट करनेवाली याचनाके लिये मुझे नियुक्त करके आप मुझसे क्या कहलाना चाहते हैं, हे महेशान! ऐसा जानकर आप जैसा चाहते हैं, वैसा करें।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इति श्रुत्वा वचस्तस्य देवो विश्वानरस्य हि ॥ शुचिश्शुचिव्रतस्याथ शुचिस्मित्वाब्रवीच्छिशुः ॥ ५५ ॥
नन्दीश्वर बोले- पवित्र व्रत करनेवाले उन विश्वानरके इस पवित्र वचनको सुनकर परम पवित्र उस बालकरूप महादेवने मन्द मन्द मुसकराकर कहा-
त्वया शुचे शुचिष्मत्यां योऽभिलाषः कृतो हृदि ॥ अचिरेणैव कालेन स भविष्यत्यसंशयम् ॥ ५६ ॥
तव पुत्रत्वमेष्यामि शुचिष्मत्यां महामते॥ ख्यातो गृहपतिर्नाम्ना शुचिस्सर्व्वामरप्रियः ॥५७॥
अभिलाषाष्टकं पुण्यं स्तोत्रमेतत्त्वयेरितम् ॥ अब्दत्रिकालपठनात्कामदं शिवसन्निधौ ॥ ५८ ॥
एतत्स्तोत्रप्रपठनं पुत्रपौत्रधनप्रदम् ॥ सर्व्वशान्तिकरश्चापि सर्व्वापत्तिविनाशनम् ॥ ५९ ॥
स्वर्गापवर्गसम्पत्तिकारकन्नात्र संशयः ॥ सर्व्वस्तोत्रसमं ह्येतत्सर्व्वकामप्रदं सदा ॥ ६० ॥
प्रातरुत्थाय सुस्नातो लिंगमभ्यर्च्य शाम्भवम् ॥ वर्षं जपन्निदं स्तोत्रमपुत्रः पुत्रवान्भवेत् ॥ ६१ ॥
अभिलाषाष्टकमिदन्न देयं यस्य कस्यचित् ॥ गोपनीयं प्रयत्नेन महावन्ध्याप्रसूतिकृत् ॥ ६२ ॥
स्त्रिया वा पुरुषेणापि नियमाल्लिंगसन्निधौ ॥ अब्दजप्तमिदं स्तोत्रम्पुत्रदन्नात्र संशयः ॥ ६३ ॥
हे शुचे! आपने शुचिष्मतीमें हृदयसे जो इच्छा की है, वह थोड़े ही दिनोंमें निःसन्देह पूर्ण हो जायगी। हे महामते। मैं शुचिष्मतीके गर्भ से आपके पुत्ररूपमें जन्म लूँगा और शुद्धात्मा तथा सभी देवताओंको प्रिय मैं गृहपति नामसे प्रसिद्ध होऊँगा। आपके द्वारा कहा गया यह पवित्र अभिलाषाष्टकस्तोत्र एक वर्षपर्यन्त तीनों कालमें शिवकी सन्निधिमें पढ़ते रहनेपर मनुष्योंको सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला होगा। इस स्तोत्रका पाठ पुत्र-पौत्र- धन प्रदान करनेवाला, सभी प्रकारकी शान्ति करनेवाला तथा सम्पूर्ण आपत्तियोंका विनाश करनेवाला है और यह स्वर्ग, मोक्ष तथासम्पत्ति देनेवाला है, इसमें संशय नहीं है। यह स्तोत्र अकेला ही सभी स्तोत्रोंके तुल्य है तथा सम्पूर्ण कामनाओंको प्रदान करनेवाला है। प्रातःकाल उठकर भली-भाँति स्नान करके शिव-लिंगकी पूजाकर वर्षपर्यन्त इस स्तोत्रका पाठ करता हुआ पुत्रहीन मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है। इस अभिलाषाष्टकस्तोत्रको जिस किसीको नहीं बताना चाहिये और इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये, यह महावन्ध्या स्त्रीको भी सन्तान देनेवाला है। जो स्त्री अथवा पुरुष नियमपूर्वक शिवलिंगके समीप एक वर्षपर्यन्त इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे यह स्तोत्र पुत्र प्रदान करता है, इसमें सन्देह नहीं है।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे शम्भुर्बालरूपः सतां गतिः॥ सोऽपि विश्वानरो विप्रो हृष्टात्मा स्वगृहं ययौ॥६४॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले बालक रूपधारी शिवजी अन्तर्धान हो गये और वे विश्वानर ब्राह्मण भी प्रसन्नचित्त होकर अपने घर चले गये।
इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां रुद्रसंहितायां गृहपत्यवतावर्णनंनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
शिवपुराणम्/संहिता ३ (शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः १४
विश्वानर के पुत्र रूप में गृहपति नाम से शिव का प्रादुर्भाव
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
स विप्रो गृहमागत्य महाहर्षसमन्वितः॥ प्रियायै कथयामास तद्वृत्तान्तमशेषतः॥१॥
तच्छ्रुत्वा विप्रपत्नी सा मुदम्प्राप शुचिष्मती॥ अतीव प्रेमसंयुक्ता प्रशशंस विधिन्निजम् २॥
अथ कालेन तद्योषिदन्तर्वत्नी बभूव ह ॥ विधिवद्विहिते तेन गर्भाधानाख्यकर्मणि ॥३॥
ततः पुंसवनन्तेन स्यन्दनात्प्राग्विपश्चिता ॥ गृह्योक्तविधिना सम्यक्कृतम्पुंस्त्वविवृद्धये ॥४॥
सीमन्तोऽथाष्टमे मासे गर्भरूपसमृद्धिकृत् ॥ सुखप्रसवसिद्धौ च तेनाकारि कृपाविदा ॥ ५ ॥
अथातश्शुभतारासु ताराधिपवराननः ॥ केन्द्रे गुरौ शुभे लग्ने सुग्रहेषु युगेषु च ॥ ६ ॥
अरिष्टदीपनिर्वाणस्सर्वारिष्टविनाशकृत्॥ तनयो नाम तस्यान्तु शुचिष्मत्याम्बभूव ह ॥७॥
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
स विप्रो गृहमागत्य महाहर्षसमन्वितः॥ प्रियायै कथयामास तद्वृत्तान्तमशेषतः॥१॥
तच्छ्रुत्वा विप्रपत्नी सा मुदम्प्राप शुचिष्मती॥ अतीव प्रेमसंयुक्ता प्रशशंस विधिन्निजम् २॥
अथ कालेन तद्योषिदन्तर्वत्नी बभूव ह ॥ विधिवद्विहिते तेन गर्भाधानाख्यकर्मणि ॥३॥
ततः पुंसवनन्तेन स्यन्दनात्प्राग्विपश्चिता ॥ गृह्योक्तविधिना सम्यक्कृतम्पुंस्त्वविवृद्धये ॥४॥
सीमन्तोऽथाष्टमे मासे गर्भरूपसमृद्धिकृत् ॥ सुखप्रसवसिद्धौ च तेनाकारि कृपाविदा ॥ ५ ॥
अथातश्शुभतारासु ताराधिपवराननः ॥ केन्द्रे गुरौ शुभे लग्ने सुग्रहेषु युगेषु च ॥ ६ ॥
अरिष्टदीपनिर्वाणस्सर्वारिष्टविनाशकृत्॥ तनयो नाम तस्यान्तु शुचिष्मत्याम्बभूव ह ॥७॥
नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! घर आकर उस ब्राह्मणने परम हर्षसे युक्त होकर अपनी स्त्रीसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर उस विप्रपत्नी शुचिष्मतीको महान् आनन्द प्राप्त हुआ और वह प्रेमयुक्त होकर अपने भाग्यकी सराहना करने लगी। तदनन्तर कुछ समयके बाद उस ब्राह्मणद्वारा यथाविधि गर्भाधानकर्म किये जानेपर उसकी पत्नी गर्भवती हुई। तत्पश्चात् उस विद्वान् ब्राह्मणने गृह्यसूत्रमें कथित विधिके अनुसार पुंस्त्वकी वृद्धिके लिये गर्भस्पन्दनके पहले ही भलीभाँति पुंसवन संस्कार किया। तत्पश्चात् आठवाँ महीना आनेपर क्रियावेत्ता उस ब्राह्मणने सुखपूर्वक प्रसव के लिये गर्भके रूपकी वृद्धि करनेवाला सीमन्त-संस्कार कराया।तदुपरान्त ताराओके अनुकूल होनेपर बृहस्पतिके केन्द्रवर्ती होनेपर और शुभ ग्रहोंका योग होनेपर शुभ लग्नमें चन्द्रमा समान सुन्दरमुखाला सूतिकागृह दीपकको अपने तेजसे शान्त अर्थात् प्रभाहीन सा करनेवाला तथा सभी अरिष्टोंका विनाश करनेवाला पुत्र उस शुचिष्मतीके गर्भसे उत्पन्न हुआ।
शर्वस्समस्तसुखदो भूर्भुवः स्वर्न्निवासिनाम् ॥ गन्धवाहनवाहाश्च दिग्वधूर्मुखवाससः ॥८॥इष्टगन्धप्रसूनौघैर्ववृषुस्ते घनाघनाः ॥ देवदुन्दुभयो नेदुः प्रसेदुस्सर्व्वतो दिशः ॥९॥
परितस्सरितस्स्वच्छा भूतानां मानसैस्सह ॥ तमोऽताम्यत्तु नितरां रजोऽपि विरजोऽभवत्॥ १० ॥
सत्त्वास्सत्त्वसमायुक्ताः सुधावृष्टिर्बभूव वै ॥ कल्याणी सर्वथा वाणी प्राणिनः प्रियवत्यभूत् ॥११॥
वह बालक शिवजी ही थे, जो भूर्भुवः स्वः इन तीनों लोकोंको समग्र सुख देनेके लिये अवतीर्ण हुए। उस समय गन्धको समग्र वहन करनेवाले वायुके वाहन (मेघ) दिशारूपी वधुओंके मुखपर वस्त्रसे बन गये अर्थात् चारों ओर काली घटा उमड़ आयी। वे घनघोर बादल गन्धवाली पुष्पराशिकी वर्षा करने लगे। देवदुन्दुभियाँ बज उठीं और सारी दिशाएँ निर्मल हो गयीं। प्राणियोंके मनोंके साथ चारों ओर नदियाँ स्वच्छ हो गयीं, अन्धकार पूर्णरूपसे दूर हो गया, रजोगुण विरज अर्थात् विनष्ट हो गया। प्राणी सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो गये। चारों ओरसे अमृतकी वर्षा होने लगी। सभी प्राणियोंकी वाणी कल्याणकारी और प्रिय लगनेवाली हो गयी।
रंभामुख्या अप्सरसो मङ्गलद्रव्यपाणयः ॥ विद्याधर्यश्च किन्नर्य्यस्तथा मर्य्यस्सहस्रशः ॥१२॥गन्धर्वोरगयक्षाणां सुमानियः शुभस्वराः ॥ गायन्त्यो मंगलं गीतन्तत्राजग्मुरनेकशः॥१३॥
मारीचिरत्रिः पुलहः पुलस्त्यः क्रतुरङ्गिराः॥ वसिष्ठः कश्यपोऽगस्त्यो विभाण्डो माण्डवीसुतः ॥१४॥
लोमशो रोमचरणो भरद्वाजोऽथ गौतमः ॥ भृगुस्तु गालवो गर्गो जातूकर्ण्यः पराशरः ॥ १५ ॥
आपस्तम्बो याज्ञवल्क्यो दक्षवाल्मीकिमुद्गलाः ॥ शातातपश्च लिखितश्शिलादः शंख उञ्छभुक् ॥१६॥
जमदग्निश्च संवर्तो मतंगो भरतोंशुमान् ॥ व्यासः कात्यायनः कुत्सः शौनकस्तु श्रुतश्शुकः ॥ १७ ॥
ऋष्यशृङ्गोऽथ दुर्व्वासाश्शुचिर्नारद तुम्बुरुः ॥ उत्तंको वामदेवश्च पवनोऽसितदेवलौ ॥१८॥
सालंकायनहारीतौ विश्वामित्रोऽथ भार्गवः ॥ मृकण्डस्सह पुत्रेण पर्व्वतो दारुकस्तथा॥१९॥
धौम्योपमन्युवत्साद्या मुनयो मुनिकन्यकाः॥ तच्छान्त्यर्थं समाजग्मुर्धन्यं विश्वानराश्रमम्॥२०॥
रम्भा आदि अप्सराएँ, विद्याधरियाँ, किन्नरियाँ, देवपत्नियाँ और गन्धर्व-उरग एवं यक्षोंकी पत्नियाँ हजारोंकी संख्यामें अपने-अपने हाथोंमें मंगल द्रव्य धारण किये हुए सुन्दर स्वरोंमें मंगल गीत गाती हुई वहाँ आ गयीं।मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा, वसिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, विभाण्ड, माण्डवीपुत्र लोमश, रोमचरण, भरद्वाज, गौतम, भृगु, गालव, गर्ग, जातूकर्ण्य, पराशर, आपस्तम्ब, याज्ञवल्क्य, दक्ष, वाल्मीकि, मुद्गल, शातातप, लिखित, शिलाद, ठंछवृत्तिसे जीविका चलानेवाले शंख, जमदग्नि, संवर्त, मतंग, भरत, अंशुमान्, व्यास, कात्यायन, कुत्स, शौनक, सुत, शुकशुनारद, तुम्बुरु, उत्तंक, वामदेव, पवन, असित, देवल, सालंकायन, हारीत, विश्वामित्र, भार्गव, अपने पुत्र मार्कण्डेय के साथ मृकण्ड, पर्वत, दारुक, धौम्य, उपमन्यु वत्स आदि मुनिगण तथा मुनिकन्याएँ उस बालकको [अदृष्ट] शान्तिके लिये विश्वानरके प्रशंसनीय आश्रमपर आ गये।
ब्रह्मा बृहस्पतियुतो देवो गरुडवाहनः ॥ नन्दिभृङ्गि समायुक्तो गौर्य्या सह वृषध्वजः ॥२१॥महेन्द्रमुख्या गीर्वाणा नागाः पातालवासिनः ॥ रत्नान्यादाय बहुशस्ससरित्का महाब्धयः ॥२२॥
स्थावरा जंगमं रूपं धृत्वा यातास्सहस्रशः ॥ महामहोत्सवे तस्मिन्बभूवाकालकौमुदी ॥ २३ ॥
जातकर्म स्वयं तस्य कृतवान्विधिरानतः ॥ श्रुतिं विचार्य्य तद्रूपन्नाम्ना गृहपतिस्त्वयम् ॥२४॥
इति नाम ददौ तस्मै देयमेकादशेऽहनि ॥ नामकर्मविधानेन तदर्थश्रुतिमुच्चरन् ॥ २५ ॥
चतुर्निगममन्त्रोक्तैराशीर्भिरभिनन्द्य च ॥ समयाद्धंसमारुह्य सर्वेषाञ्च पितामहः ॥२६॥
कृत्वा बालोचितां रक्षां लौकिकीं गतिमाश्रितः ॥ आरुह्य यानं स्वन्धाम हरोऽपि हरिणा ययौ ॥ २७ ॥
बृहस्पतिसहित ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु नन्दी भृंगी तथा पार्वतीसहित शंकर, महेन्द्र आदि देवता, पातालवासी नागगण एवं अनेक प्रकारके रत्न लेकर नदियोंसहित समुद्र वहाँ गये और स्थावर पर्वत आदि हजारोंकी संख्यामें जंगमरूप धारणकर वहाँ आये। उस महोत्सवमें अचानक असमयमें चाँदनी उत्पन्न हो गयी। उसके बाद ब्रह्माने विनम्र होकर स्वयं उसका जातकर्म संस्कार किया, फिर वेदविधिका विचार करके ग्यारहवें दिन उसके रूपको देखकर उसका नाम गृहपति रखा। उन्होंने नामकरणके समय श्रुतिके मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए चारों वेदोंके चार मन्त्रोंसे उसे आशीर्वाद देकर लौकिक रीतिका आश्रय लेकर रक्षामन्त्रोंसे उसकी बालोचित रक्षा सम्पन्न की और हंसपर सवार हो सबके पितामह वे ब्रह्माजी अपने धामको चले गये। इसी प्रकार विष्णुके साथ शंकर भी अपने वाहनपर सवार हो अपने लोकको चले गये।
अहो रूपमहो तेजस्त्वहो सर्वांगलक्षणम् ॥ अहो शुचिष्मती भाग्यमाविरासीत्स्वयं हरः ॥ २८ ॥अथवा किमिदं चित्रं शर्वभक्तजनेष्वहो॥ स्वयमाविरभूद्रुद्रो ययो रुद्रस्तदर्चितः ॥२९॥
इति स्तुवन्तस्तेन्योन्यं सम्प्रहृष्टतनूरुहः ॥ विश्वानरं समापृच्छ्य जग्मुः सर्वे यथागतम्॥३०॥
वे आपसमें विचार कर रहे थे कि अहो! कैसा इसका रूप है, इसका विलक्षण तेज कैसा है और इसके सभी अंगलक्षण कैसे हैं, देखो शुचिष्मती कैसी भाग्यवती है कि इसके गर्भसे साक्षात् शिवजी प्रकट हो गये अथवा शिवजीके भक्तोंमें इस प्रकारकी घटना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; जिससे उनके द्वारा अर्चित रुद्र स्वयं प्रकट हो गये। इस प्रकार आपसमें प्रशंसा करते हुए पुलकित रोमोंवाले सभी देवता विश्वानरसे आज्ञा ले जिस प्रकार आये थे, उसी प्रकार चले गये।
अतः पुत्रं समीहन्ते गृहस्थाश्रमवासिनः॥ पुत्रेण लोकाञ्जयति श्रुतिरेषा सनातनी॥३१॥अपुत्रस्य गृहं शून्यमपुत्रस्यार्जनं वृथा॥ अपुत्रस्य तपश्छिन्नं नो पवित्रत्यपुत्रतः॥३२॥
न पुत्रात्परमो लाभो न पुत्रात्परमं सुखम् ॥ न पुत्रात्परमं मित्रम्परत्रेह च कुत्रचित् ॥ ३३ ॥
निष्क्रमोऽथ चतुर्थेऽस्य मासि पित्रा कृतो गृहात् ॥ अन्नप्राशनमब्दार्द्धे चूडार्द्धे चार्थवत्कृता॥३४॥
कर्णवेधन्ततः कृत्वा श्रवणर्क्षे स कर्मवित्॥ ब्रह्मतेजोभिवृद्ध्यर्थं पञ्चमेऽब्दे व्रतन्ददौ॥३५॥
पुत्रवान् व्यक्ति पुत्रसे लोकोंको जीतता है - यह सनातन है, इसीलिये समस्त गृहस्थ पुत्रकी कामना करते हैं। पुत्रहीनका घर सूना है, पुत्रहीनका धन कमाना व्यर्थ है, अपुत्रका तप खण्डित है, जिसको पुत्र नहीं है, वह कभी पवित्र नहीं होता। पुत्रसे बढ़कर कोई परम लाभ नहीं, पुत्रसे बढ़कर कोई परम सुख नहीं और इस लोक तथा परलोकमें पुत्रसे बढ़कर कोई परम मित्र नहीं है। चौथे महीने में गृहपतिके पिता उसका गृहनिष्क्रमण-संस्कार किया। फिर छठे महीनेमें उसका विधिपूर्वक अन्नप्राशन और वर्ष पूरा होनेपर चूडाकरणसंस्कार किया। इसके बाद उस कर्मवेत्ताने श्रवणनक्षत्रमें कर्णवेध करके उसके तेजकी अभिवृद्धिके लिये पाँच वर्षकी अवस्थामें यज्ञोपवीत संस्कार किया।
उपाकर्मं ततः कृत्वा वेदानध्यापयत्सुधीः ॥ अब्दं वेदान्स विधिनाऽध्यैष्ट सांगपदक्रमान् ॥ ३६ ॥विद्याजातं समस्तं च साक्षिमात्रं गुरोमुखात् ॥ विनयादिगुणानाविष्कुर्वञ्जग्राह शक्तिमान् ॥ ३७ ॥
ततोऽथ नवमे वर्षे पित्रोश्शुश्रूषणे रतम् ॥ वैश्वानरं गृहपतिं द्रष्टुमायाच्च नारदः ॥ ३८ ॥
विश्वानरोटजम्प्राप्य देवर्षिस्तं तु कौतुकी ॥ अपृच्छत्कुशलन्तत्र गृहीतार्धासनः क्रमात् ॥ ३९ ॥
ततः सर्वं च तद्भाग्यं पुत्रधर्मं च सम्मुखे ॥ वैश्वानरं समवदत्स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥४०॥
पुनः बुद्धिमान् पिताने उपाकर्मकर उसे वेदोंका अध्ययन कराया। इस प्रकार तीन वर्षमें ही उसने विधिपूर्वक अंग, पद तथा क्रमसहित समस्त वेदोंको पढ़ लिया। प्रतिभाशाली उस बालकने गुरु पिताके मुखसे समस्त विद्याएँ अपने विनय आदि गुणोंको प्रकाशित करते हुए मात्र साक्षिभावसे ग्रहण कर लिया। तदुपरान्त नौवें वर्ष में माता-पिताकी सेवामें निरत गृहपति तथा उसके पिता विश्वानरको देखनेके लिये नारदजी [वहाँ] आये। कौतुकी देवर्षि नारदजीने विश्वानरको पालामें प्रवेशकर अर्घ्य, आसन आदि क्रमसे ग्रहणकर उनसे कुशल-मंगल पूछा और उसके बाद शिवके चरणोंका ध्यान करके उनके सामने ही उनके समग्र भाग्य तथा पुत्रधर्मका वर्णन विश्वानरसे किया।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इत्युक्तो मुनिना बालः पित्रोराज्ञामवाप्य सः ॥ प्रणम्य नारदं श्रीमान् भक्त्या प्रह्व उपाविशत ॥४१॥
नन्दीश्वर बोले [हे सनत्कुमार। तदुपरान्त] मुनि नारदजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह शोभासम्पन्न बालक माता-पिताकी आज्ञा प्राप्तकर भक्तिपूर्वक उनको नम्रतासे प्रणामकर बैठ गया।
वैश्वानर समभ्येहि ममोत्संगे निषीद भोः ॥ लक्षणानि परीक्षेऽहं पाणिन्दर्शय दक्षिणम्॥४२॥ततो दृष्ट्वा तु सर्वं हि तालुजिह्वादि नारदः ॥ विश्वानरं समवदच्छिवप्रेरणया सुधीः ॥४३॥
नारदजी बोले - हे तर! मैं तुम्हारे लक्षणोंकी परीक्षा करूंगा तुम आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ और अपना दाहिना हाथ मुझे दिखाओ। तब विद्वान् नारदजी बालकके तालु, जिड़ा आदिको देखकर शिवजी प्रेरणा विश्वानरसे कहने लगे-
॥ नारद उवाच ॥विश्वानर मुने वच्मि शृणु पुत्रांकमादरात्॥ सर्वांगस्वंकवान्पुत्रो महालक्षणवानयम्॥४४॥
किन्तु सर्वगुणोपेतं सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ सम्पूर्णनिर्मलकलं पालयेद्विधुवद्विधिः ॥ ४५ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन रक्षणीयस्त्वसौ शिशु ॥ गुणोऽपि दोषतां याति वक्रीभूते विधातरि ॥४६॥
शंकेऽस्य द्वादशे मासि प्रत्यूहो विद्युदग्नितः ॥ इत्युक्त्वा नारदोऽगच्छद्देवलोकं यथागतम् ॥४७॥
नारदजी बोले - हे विश्वानर ! हे मुने! मैं आपके पुत्रके सब लक्षणोंको कहता हूँ, उसे आदरपूर्वक सुनिये, आपके पुत्रके सभी अंग उत्तम लक्षणोंसे युक्त हैं, इसलिये यह अत्यन्त भाग्यशाली है। किंतु इसके सर्वगुणसम्पन्न, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे समन्वित और चन्द्रमाके समान निर्मल कलाओंसे सुशोभित होनेपर भी विधाता ही इसकी रक्षा करें। इसलिये सब तरहके उपायोंसे इस बालककी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि विधाताके विपरीत होनेपर गुण भी दोष हो जाता है। मुझे इस बातकी शंका है कि बारहवें वर्षमें इसे बिजली अथवा अग्निसे विघ्न है। ऐसा कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे देवलोकको चले गये।
इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां गृहपत्यवतारोपाख्याने गृहपत्यवतारवर्णनंनाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥शिवपुराणम्/संहिता ३ (शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः १५
भगवान् शिव के गृहपति नामक अग्नीश्वर लिंग का माहात्म्य
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥विश्वानरस्सपत्नीकस्तच्छ्रुत्वा नारदेरितम्॥ तदेवम्मन्यमानोभूद्वज्रपातं सुदारुणम् ॥१॥
हा हतोस्मीति वचसा हृदयं समताडयत् ॥ मूर्च्छामवाप महतीं पुत्रशोकसमाकुलः ॥ २ ॥
शुचिष्मत्यपि दुःखार्त्ता रुरोदातीव दुस्सहम् ॥ अतिस्वरेण हारावैरत्यन्तं व्याकुलेन्द्रिया ॥३॥
श्रुत्वार्त्तनादमिति विश्वनरोपि मोहं हित्वोत्थितः किमिति किंत्विति किं किमेतत्॥
उच्चैर्वदन् गृहपतिः क्व स मे बहिस्थः प्राणोन्तरात्मनिलयस्सकलेंद्रियेशः ॥ ४ ॥
ततो दृष्ट्वा स पितरौ बहुशोकसमावृतौ ॥ स्मित्वोवाच गृहपस्सबालश्शंकरांशजः ॥५॥
नन्दीश्वर बोले - हे सनत्कुमार! नारदजीकी बात सुनकर स्त्रीसहित विश्वानरने उसे अत्यन्त दारुण वज्रपातके समान समझा। 'हाय मैं मर गया' – ऐसा कहकर वे छाती पीटने लगे और पुत्रके शोक सन्तप्त होकर मूति हो गये। शुचिष्मती भी अत्यधिक दुःखित होकर ऊँचे स्वरमें हाहाकार करती हुई व्याकुल इन्द्रियोंवाली होकर रोने लगी। शुचिष्मतीके विलापको सुनकर विश्वानर भी मूर्च्छाका त्याग करके उठकर अरे! यह क्या हुआ, यह क्या हुआ, इस प्रकार ऊँचे स्वरमें रोते हुए बोले- हाय! मेरी सम्पूर्ण इन्द्रियोंका स्वामी, मेरा बाहर विचरनेवाला प्राण तथा मेरे आत्मामें निवास करनेवाला मेरा पुत्र गृहपति कहाँ है? तब अपने माता-पिताको अत्यधिक शोकसे व्याकुल देखकर शंकरजीके अंशसे उत्पन्न वह बालक गृहपति मुसकराकर कहने लगा-
॥ गृहपतिरुवाच ॥हे मातस्तात किं जातं कारणन्तद्वदाधुना ॥ किमर्थं रुदितोऽत्यर्थं त्रासस्तादृक्कुतो हि वाम् ॥ ६ ॥
न मां कृतवपुस्त्राणम्भवच्चरणरेणुभिः ॥ कालः कलयितुं शक्तो वराकीं चिञ्चलाल्पिका ॥७॥
प्रतिज्ञां शृणुतान्तातौ यदि वान्तनयो ह्यहम् ॥ करिष्येहं तथा येन मृत्युस्त्रस्तो भविष्यति ॥ ८ ॥
मृत्युंजयं समाराध्य गर्वज्ञं सर्वदं सताम् ॥ जपिष्यामि महाकालं सत्यं तातौ वदाम्यहम्॥९॥
गृहपति बोला- हे माता! हे पिता ! क्या हुआ है? जिससे कि आपलोग इतने दुखी होकर रो रहे हैं, इसका कारण मुझे बताइये। इस तरह आपलोग भयभीत क्यों हो रहे हैं ? आपलोगोंकी चरणधूलिसे सुरक्षित मेरे शरीरको काल भी मारनेमें समर्थ नहीं हो सकता, फिर अत्यन्त अल्प बिजली मेरा कर ही क्या सकती है? हे माता - पिता! आपलोग मेरी प्रतिज्ञा सुनें, यदि मैं आप दोनोंका पुत्र हैं, तो ऐसा कार्य करूँगा, जिससे मृत्यु भी सन्त्रस्त हो जायगी। हे माता-पिता ! मैं सत्पुरुयोंको सब कुछ देनेवाले सर्वमृत्युंजय भगवान्की भलीभाँति आराधना करके महाकालको भी जीत लूँगा, यह मैं सत्य कह रहा हूँ।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इति श्रुत्वा वचस्तस्य जारितौ द्विजदम्पती॥ अकालमृतवर्षौघैर्गततापौ तदोचतुः ॥१०॥
नन्दीश्वर बोले- उसकी इस प्रकारकी बातको सुनकर मुरझाये हुए द्विजदम्पती अकालमें हुई अमृतकी सघन वृष्टिके समान दुःखरहित होकर कहने लगे।
॥ द्विजदम्पती ऊचतुः ॥पुनर्ब्रूहि पुनर्ब्रूहि कीदृक्कीदृक् पुनर्वद ॥ कालः कलयितुन्नालं वराकी चञ्चलास्ति का॥११॥
आवयोस्तापनाशाय महोपायस्त्वयेरितः ॥ मृत्युंजयाख्यदेवस्य समाराधनलक्षणः॥१२॥
तद्वच्च शरणं शम्भोर्नातः परतरं हि तत्॥ मनोरथपथातीत कारिणः पापहारिणः ॥१३॥
किन्न श्रुतन्त्वया तात श्वेतकेतुं यथा पुरा ॥ पाशितं कालपाशेन ररक्ष त्रिपुरान्तकः ॥ १४ ॥
शिलादतनयं मृत्युग्रस्तमष्टाब्दमात्रकम् ॥ शिवो निजजनञ्चक्रे नन्दिनं विश्वनंदिनम् ॥ १५ ॥
क्षीरोदमथनोद्भूतं प्रलयानलसन्निभम् ॥ पीत्वा हलाहलं घोरमरक्षद्भुवनत्रयम् ॥ १६ ॥
जलंधरं महादर्पं हृतत्रैलोक्यसम्पदम् ॥ रुचिरांगुष्ठरेखोत्थ चक्रेण निजघान यः ॥ १७ ॥
य एकेषु निपातोत्थज्वलनैस्त्रिपुरम्पुरा ॥ त्रैलोक्यैश्वर्यसम्मूढं शोषयामास भानुना ॥ १८ ॥
कामं दृष्टिनिपातेन त्रैलोक्यविजयोर्जितम् ॥ निनायानंगपदवीं वीक्ष्यमाणेष्वजादिषु ॥१९॥
तम्ब्रह्माद्यैककर्तारम्मेघवाहनमच्युतम् ॥ प्रयाहि पुत्र शरणं विश्वरक्षामणिं शिवम् ॥२०॥
द्विजदम्पती बोले [हे पुत्र!] फिर कहो! फिर - कहो ! तुमने क्या कहा कि मुझे काल भी मारनेमें समर्थ नहीं है। फिर बेचारी बिजली कौन है ? तुमने हमलोगों के शोकका निवारण करनेके लिये मृत्युंजयदेवताका समाराधनरूप उपाय उचित ही कहा है। शिवजीका आश्रय ही सचमुच ऐसा है, उनसे बड़ा कोई नहीं है, वे सभी पापोंको दूर करनेवाले एवं मनोरथमार्गसे भी परे कामनाको पूर्ण करनेवाले हैं। हे तात क्या तुमने नहीं सुना है कि पूर्वकालमें जब श्वेतकेतु कालपाशमें बाँध लिया गया था, तब शिवजीने उसकी रक्षा की थी? शिलादपुत्र नन्दीश्वर जो केवल आठ वर्षका बालक था, शिवजीने कालपाशसे छुड़ाकर उसे अपना गण तथा विश्वका रक्षक बना दिया। क्षीरसागरके मन्थनसे उत्पन्न तथा प्रलयाग्निके समान महाभयानक हालाहल विषको पीकर शिवजीने ही तीनों लोकोंकी रक्षा की थी। जिन्होंने त्रिलोकीकी सम्पत्तियोंका हरण करनेवाले महान् अभिमानी जलन्धर नामक दैत्यको अपने सुन्दर अँगूठेकी रेखासे उत्पन्न चक्रके द्वारा मार डाला। जिन्होंने जिलोकको सम्पदाको प्राप्तकर मोहित हुए त्रिपुरकोएक ही बाण चलाकर उससे उत्पन्न हुई ज्वालाओंवाली अग्निसे सुखा डाला और जिन्होंने त्रिलोकके विजयसे उन्मत हुए कामदेवको ब्रह्मा आदिके देखते-ही-देखते दृष्टिनिक्षेपमात्रसे अनंग बना दिया। हे पुत्र! तुम ब्रह्मा आदिके एकमात्र जन्मदाता, मेघपर सवार होनेवाले, अविनाशी तथा विश्वकी रक्षारूप मणि उन शिवजीकी शरणमें जाओ।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥पित्रोरनुज्ञाम्प्राप्येति प्रणम्य चरणौ तयोः ॥ प्रादक्षिण्यमुपावृत्य बह्वाश्वास्य विनिर्ययौ ॥ २१ ॥
सम्प्राप्य काशीं दुष्प्रापाम्ब्रह्मनारायणादिभिः ॥ महासंवर्त्तसन्तापहन्त्रीं विश्वेशपालिताम् ॥ २२ ॥
स्वर्धुन्या हारयष्ट्येव राजिता कण्ठभूमिषु ॥ विचित्रगुणशालिन्या हरपत्न्या विराजिताम् ॥२३॥
तत्र प्राप्य स विप्रेशः प्राग्ययौ मणिकर्णिकाम् ॥ तत्र स्नात्वा विधानेन दृष्ट्वा विश्वेश्वरम्प्रभुम् ॥२४॥
साञ्जलिर्नतशीर्षोऽसौ महानन्दान्वितस्सुधीः ॥ त्रैलोक्यप्राणसन्त्राणकारिणम्प्रणनाम ह ॥ २५ ॥
आलोक्यालोक्य तल्लिंगं तुतोष हृदये मुहुः ॥ परमानंदकंदाढ्यं स्फुटमेतन्न संशयः ॥ २६ ॥
अहो न मत्तो धन्योस्ति त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ यदद्राक्षिषमद्याहं श्रीमद्विश्वेश्वरं विभुम् ॥ २७ ॥
मम भाग्योदयायैव नारदेन महर्षिणा ॥ पुरागत्य तथोक्तं यत्कृतकृत्योस्म्यहन्ततः ॥ २८ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे मुने! माता-पिताकी आज्ञा पाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिण करके और उन्हें बहुत तरहसे आश्वासन देकर वह वहाँसे चल दिया और उस काशीपुरीमें पहुँचा, जो ब्रह्म नारायण आदि देवोंके लिये दुर्लभ, महाप्रलयके सन्तापका विनाश करनेवाली, विश्वेश्वरद्वारा पालित, कण्ठ अर्थात् तरप्रदेशमें हारकी तरह पड़ी हुई गंगाजीसे और अद्भुत गुणोंसे सम्पन्न हरपत्नी [भगवती गिरिजा ] से शोभायमान है। वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका गये। वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके प्रभु विश्वेश्वरका दर्शन करके उन बुद्धिमान्ने परम आनन्दसे युक्त होकर तीनों लोकोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाले शिवजीको हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया। वे बार बार उसे देखकर हर्षित हो रहे थे और मनमें विचार कर रहे थे कि सचमुच यह लिंग परम आनन्दकन्दसे परिपूर्ण है, यह स्पष्ट ही है, इसमें संशय नहीं है। अहो ! इस चराचर त्रिलोकीमें मुझसे बढ़कर कोई अन्य नहीं है, जो कि मैंने आज ऐश्वर्यमय तथा सर्वव्यापी विश्वेश्वरका दर्शन किया। मेरे भाग्योदय के लिये ही महर्षि नारदने जो मुझे आकर पहले ही बता दिया था, जिससे आज मैं [विश्वेश्वरका दर्शन प्राप्तकर] कृतकृत्य हो गया।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इत्यानन्दामृतरसैर्विधाय स हि पारणम् ॥ ततश्शुभेह्नि संस्थाप्य लिंगं सर्व्वहितप्रदम् ॥ २९ ॥
जग्राह नियमान्घोरान् दुष्करानकृतात्मभिः ॥ अष्टोत्तरशतैः कुम्भैः पूर्णैर्गंगाम्भसा शुभैः ॥ ३० ॥
संस्नाप्य वाससा पूतः पूतात्मा प्रत्यहं शिवम् ॥ नीलोत्पलमयीम्मालां समर्पयति सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥
अष्टाधिकसहस्रैस्तु सुमनोभिर्विनिर्मिताम् ॥ स पक्षे वाथ वा मासे कन्दमूलफलाशनः ॥ ३२ ॥
शीर्णपर्णाशनैर्धीरः षण्मासं सम्बभूव सः ॥ षण्मासं वायुभक्षोऽभूत्षण्मासं जल बिन्दुभुक् ॥ ३३ ॥
एवं वर्षवयस्तस्य व्यतिक्रान्तं महात्मनः ॥ शिवैकमनसो विप्रास्तप्यमानस्य नारद ॥ ३४ ॥
जन्मतो द्वादशे वर्षे तद्वचो नारदेरितम् ॥ सत्यं करिष्यन्निव तमभ्यगात्कुलिशायुधः ॥ ३५ ॥
उवाच च वरं ब्रूहि दद्मि त्वन्मनसि स्थितम् ॥अहं शतक्रतुर्विप्र प्रसन्नोस्मि शुभव्रतैः ॥ ३६ ॥
नन्दीश्वर बोले- मुने! इस प्रकार आनन्दमृतरूपी रसद्वारा पारण करके गृहपतिने शुभ दिनमें सर्वहितप्रद शिवलिंगकी स्थापना की। तत्पश्चात् अजितेन्द्रियोंके लिये अति दुष्कर कठोर नियमोंको ग्रहणकर अनुष्ठानपरायण हुआ पवित्र चितवाला वह प्रतिदिन वस्त्रोंसे जाने गये गंगाजल सेपूर्ण एक सौ आठ पवित्र घड़ोंसे शिवजीको स्नान कराने लगा और एक हजार आठ नीलकमलोंसे बनी हुई माला समर्पित करने लगा। पहले वह पक्षमें [ एक बार फिर महीने महीने में फल-मूल- कन्दको खाकर [छः महीनेतक] रहा। इसके बाद अत्यन्त धीर वह गृहपति पुनः छः मास सूखे पत्ते खाकर और छः महीने वायु पीकर, फिर छ: महीने एक बूँद जल पीकर तपस्या करनेमें लगा रहा। हे नारद! इस प्रकार एकमात्र शिवजीको मनमें धारण करके तपमें निरत उस महात्माके दो वर्ष बीत गये है शौनक तब जन्मसे बारहवें वर्ष में देवर्षि नारदद्वारा कही गयी बातको मानो सत्य करनेकी इच्छासे स्वयं इन्द्रदेव उसके पास आये और बोले हे विप्र ! मैं इन्द्र इस उत्तम तपस्यासे अत्यन्त प्रसन्न हो गया हूँ, तुम्हारे मनमें जो अभिलषित हो, उस वरको माँगो, मैं प्रदान कर रहा हूँ।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इत्याकर्ण्य महेन्द्रस्य वाक्यम्मुनिकुमारकः ॥ उवाच मधुरन्धीरः कीर्तयन्मधुराक्षरम् ॥ ३७ ॥
नन्दीश्वर बोले- इन्द्रके इस वचनको सुनकर महा-धीर मुनिकुमारने मधुर मधुराक्षरमयी वाणीमें कहा-
॥गृहपतिरुवाच ॥
मघवन् वृत्रशत्रो त्वां जाने कुलिशपाणिनम् ॥ नाहं वृणे वरन्त्वत्तश्शंकरो वरदोऽस्ति मे ॥ ३८ ॥
मघवन् वृत्रशत्रो त्वां जाने कुलिशपाणिनम् ॥ नाहं वृणे वरन्त्वत्तश्शंकरो वरदोऽस्ति मे ॥ ३८ ॥
गृहपति बोला- हे मघवन् ! हे वृत्रशत्रो ! मैं वज्र धारण करनेवाले आपको जानता हूँ। मैं आपसे वर नहीं माँगता, मुझे वर देनेवाले तो शिवजी हैं।
॥ इन्द्र उवाच ॥
न मत्तश्शङ्करस्त्वन्यो देवदेवोऽस्म्यहं शिशो ॥ विहाय बालिशत्वं त्वं वरं याचस्व मा चिरम् ॥३९॥
न मत्तश्शङ्करस्त्वन्यो देवदेवोऽस्म्यहं शिशो ॥ विहाय बालिशत्वं त्वं वरं याचस्व मा चिरम् ॥३९॥
इन्द्र बोले- हे बालक मेरे सिवा कोई दूसरा शिव नहीं है, मैं सभी देवताओंका भी देव हूँ। अतः तुम अपना लड़कपन त्यागकर [मुझसे] वर माँगो और देर मत करो।
गृहपतिरुवाच ॥
गच्छाहल्यापतेऽसाधो गोत्रारे पाकशासन ॥ न प्रार्थये पशुपतेरन्यं देवान्तरं स्फुटम् ॥ ४० ॥
गच्छाहल्यापतेऽसाधो गोत्रारे पाकशासन ॥ न प्रार्थये पशुपतेरन्यं देवान्तरं स्फुटम् ॥ ४० ॥
गृहपति बोला- तुम अहल्याके शीलको नष्ट करनेवाले असाधु हो, पाक नामक असुरका वध करनेवाले पर्वतोंके शत्रु हे इन्द्र तुम चले जाओ, यह स्पष्ट है कि मैं शिवजीके अतिरिक्त और किसी देवतासे वरकी प्रार्थना नहीं करता।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इति तस्य वचः श्रुत्वा क्रोध संरक्तलोचनः ॥ उद्यम्य कुलिशं घोरम्भीषयामास बालकम् ॥ ४१ ॥
स दृष्ट्वा बालको वज्रं विद्युज्ज्वाला समाकुलम् ॥ स्मरन्नारद वाक्यं च मुमूर्च्छ भयविह्वलः ॥ ४२ ॥
अथ गौरीपतिश्शम्भुराविरासीत्तपोनुदः ॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रन्ते स्पर्शैस्संजीवयन्निव ॥ ४३ ॥
उन्मील्य नेत्रकमले सुप्ते इव दिनक्षये ॥ अपश्यदग्रे चोत्थाय शम्भुमर्कशताधिकम् ॥४४॥
भाले लोचनमालोक्य कण्ठे कालं वृषध्वजम्॥ वामाङ्गसन्निविष्टाद्रितनयं चन्द्रशेखरम्॥४५॥
कपर्द्देन विराजन्तं त्रिशूलाजगवायुधम्॥ स्फुरत्कर्पूरगौरांगं परिणद्ध गजाजिनम्॥४६॥
परिज्ञाय महादेवं गुरुवाक्यत आगमात्॥ हर्षबाष्पाकुलासन्नकण्ठरोमाञ्चकञ्चुकः ॥४७॥
क्षणं च गिरिवत्तस्थौ चित्रकूटत्रिपुत्रकः ॥ यथा तथा सुसम्पन्नो विस्मृत्यात्मानमेव च॥४८॥
न स्तोतुं न नमस्कर्तुं किञ्चिद्विज्ञप्तिमेव च ॥ यदा स न शशाकालं तदा स्मित्वाह शङ्करः ॥ ४९ ॥
नन्दीश्वर बोले- उसकी यह बात सुनते ही क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले इन्द्र अपना घोर वज्र उठाकर बालकको भयभीत करने लगे। विद्युज्ज्वालाके समान प्रज्वलित वज्रको देखकर नारदकी बातका स्मरण करता हुआ वह बालक भयसे व्याकुल होकर मूच्छित हो गया। उसकेपश्चात् अन्धकारका नाश करनेवाले गौरीपति शिवजी प्रकट हो गये और हाथके स्पर्शसे उसे जीवित-सा करते हुए उससे बोले- उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। तब [उस अपूर्व स्पर्शको प्राप्त करके ] उसने रात्रिमें सोये हुएके समान अपने नेत्रकमलोंको खोलकर उठ करके अपने आगे सैकड़ों सूर्योंसे भी अधिक प्रकाशमान शिवजीको देखा। उनके मस्तकमें नेत्र शोभित हो रहा था, कण्ठमें विषकी कालिमा थी, वे बैलपर सवार थे, उनके वार्थी ओर भगवती पार्वती स्थित थीं, उनके मस्तकपर अर्धचन्द्र सुशोभित हो रहा था, वे जटाजूटसे युक्त थे, त्रिशूल एवं अजगव धनुष धारण किये हुए थे। उनका गौर शरीर कर्पूरके समान उज्ज्वल था और वे गजचर्म धारण किये हुए थे। तब गुरुवाक्य तथा आगमप्रमाणसे उन्हें महादेव जानकर हर्षातिरेकसे उसका कण्ठ रुँध गया और शरीर रोमांचित हो गया। उसकी स्मृति लुप्त हो गयी। फिर भी वह जैसे-तैसे क्षणभरके लिये चित्रलिखित पुतलेके समान स्तम्भित हो अवाक् खड़ा रहा। जब वह न तो स्तुति, न नमस्कार और न कुछ कहनेमें ही समर्थ रहा, तब शिवजीने मुसकराकर उससे कहा-
॥ ईश्वर उवाच ॥शिशो गृहपते शक्राद्वज्रोद्यतकरादहो ॥ ज्ञात भीतोऽसि मा भैषीर्जिज्ञासा ते मया कृता ॥ ५० ॥
मम भक्तस्य नो शक्रो न वज्रं चान्तकोऽपि च ॥ प्रभवेदिन्द्ररूपेण मयैव त्वम्विभीषितः ॥५१॥
वरन्ददामि ते भद्र त्वमग्निपदभाग्भव ॥ सर्वेषामेव देवानां वरदस्त्वं भविष्यसि ॥५२॥
सर्वेषामेव भूतानां त्वमग्नेऽन्तश्चरो भव॥ धर्मराजेन्द्रयोर्मध्ये दिगीशो राज्यमाप्नुहि॥५३॥
त्वयेदं स्थापितं लिंगं तव नाम्ना भविष्यति॥ अग्नीश्वर इति ख्यातं सर्वतेजोविबृंहणम् ॥५४॥
अग्नीश्वरस्य भक्तानां न भयं विद्युदग्निभिः ॥ अग्निमांद्यभयं नैव नाकालमरणं क्वचित् ॥ ५५ ॥
अग्नीश्वरं समभ्यर्च्य काश्यां सर्वसमृद्धिदम् ॥ अन्यत्रापि मृतो दैवाद्वह्निलोके महीयते ॥५६॥
ईश्वर बोले हे बालक हे गृहपते मैंने समझ लिया कि तुम हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रसे डर गये हो, अब डरो मत! यह तो मैंने ही तुम्हारी परीक्षा ली थी। मेरे भक्तको इन्द्र, वज्र अथवा काल भी नहीं डरा सकते हैं। यह तो मैंने ही इन्द्रका रूप धारणकर तुम्हें डराया था। हे भद्र! अब मैं तुम्हें वर प्रदान करता हूँ कि तुम अग्निका पद ग्रहण करनेवाले हो जाओ। तुम सभी देवताओंके वरदाता बनोगे। तुम सभी प्राणियों के अन्दर [वैश्वानर नामकी] अग्नि बनकर विचरण करो और दक्षिण एवं पूर्व दिशा के मध्यमें [आग्नेयकोणका) दिगीश्वर बनकर राज्य करो। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिंग [आजसे] तुम्हारे ही नामसे [प्रसिद्ध] होगा। यह अग्नीश्वर नामवाला होगा, जो सभी तेजोंका विशिष्ट रूपसे अभिवर्धनकरेगा। अग्नीश्वरके भक्तोंको विद्युत् एवं अग्निसे भय नहीं होगा। उन्हें अग्निमान्धका भय नहीं होगा और अकालमरण भी कभी नहीं होगा। सम्पूर्ण समृद्धियोंको देनेवाले इस अग्नीश्वर लिंगका काशीमें पूजन करके मनुष्य दैवयोग से यदि कहीं भी मृत्युको प्राप्त होगा, तो उसे अग्निलोककी प्राप्ति हो जायगी।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥इत्युक्तानीय तद्बन्धून्पित्रोश्च परिपश्यतोः॥ दिक्पतित्वेऽभिषिच्याग्निं तत्र लिंगे शिवोऽविशत् ॥५७॥
इत्थमग्न्यवतारस्ते वर्णितो मे जनार्दनः ॥ नाम्ना गृहपतिस्तात शंकरस्य परात्मनः ॥५८॥
चित्रहोत्रपुरी रम्या सुखदार्चिष्मती वरा ॥ जातवेदसि ये भक्ता ते तत्र निवसन्ति वै ॥ ५९ ॥
अग्निप्रवेशं ये कुर्य्युर्दृढसत्त्वा जितेन्द्रियाः ॥ स्त्रियो वा सत्त्वसम्पन्नास्ते सर्व्वेप्यग्नितेजसः ॥६०॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर शिवजीने गृहपतिके [माता-पिता एवं] बन्धुओंको बुलाकर उनके माता-पिताके देखते-देखते उस बालकको अग्निकोणके दिक्पालपदपर अभिषिक्तकर स्वयं उस लिंगमें प्रवेश किया। हे तात! इस प्रकार मैंने परमात्मा शिवके गृहपति नामक अग्निके रूपमें दुर्जनोंको पीड़ा देनेवाले अवतारका वर्णन किया। चित्रहोत्र नामक सुखदायिनी, रम्य तथा प्रकाशमान पुरी है, जो लोग अग्निके भक्त हैं, वे वहाँ निवास करते हैं। जितेन्द्रिय एवं दृढ़ सत्त्व भाववाले पुरुष अथवा सत्त्वसम्पन्न स्त्रियाँ उस अग्निलोकमें प्रवेश करती हैं, वे सभी अग्निके समान तेजस्वी होते हैं।
अग्निहोत्ररता विप्राः स्थापिता ब्रह्मचारिणः ॥ पश्चानिवर्त्तिनोऽप्येवमग्निलोकेग्निवर्चसः ॥६१॥शीते शीतापनुत्त्यै यस्त्वेधोभारान्प्रयच्छति ॥ कुर्य्यादग्नीष्टिकां वाथ स वसेदग्निसन्निधौ ॥ ६२ ॥
अनाथस्याग्निसंस्कारं यः कुर्य्याच्छ्रद्धयान्वितः ॥ अशक्तः प्रेरयेदन्यं सोग्निलोके महीयते ॥ ६३ ॥
अग्निरेको द्विजातीनां निश्श्रेयसकरः परः ॥ गुरुर्देवो व्रतं तीर्थं सर्वमग्निर्विनिश्चितम् ॥ ६४ ॥
अपावनानि सर्वाणि वह्निसंसर्गतः क्षणात् ॥ पावनानि भवन्त्येव तस्माद्यः पावकः स्मृतः॥६५॥
अग्निहोत्रमें तत्पर ब्राह्मण, अग्निको स्थापित करनेवाले ब्रह्मचारी तथा पंचाग्नि तापनेवाले तपस्वी लोग भी अग्निके समान तेजस्वी होकर अग्निलोकमें निवास करते हैं। जो शीतकालमें शीतको दूर करनेके लिये काष्ठ-समूहका दान करता है अथवा ईंटोंसे अग्निकुण्डका निर्माण करता है, वह अग्निके सान्निध्यमें निवास करता है। जो श्रद्धायुक्त होकर अनाथ व्यक्तिका अग्नि संस्कार करता है अथवा स्वयं अशत होनेपर [इसके लिये] दूसरेको प्रेरित करता है, वह अग्निलोकमें पूजित होता है। एकमात्र अग्निदेव ही द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) का परम कल्याण करनेवाले हैं। अग्नि ही उनके गुरु, देवता, व्रत, तीर्थ एवं सब कुछ हैं ऐसा निश्चित है। अग्निके संसर्गमात्रसे क्षणभरमें ही सभी अपवित्र वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं, इसलिये इन्हें पावक कहा गया।
अन्तरात्मा ह्ययं साक्षान्निश्चयो ह्याशुशुक्षणिः ॥ मांसग्रासान्पचेत्कुक्षौ स्त्रीणां नो मांसपेशिकाम् ॥६६॥तैजसी शाम्भवी मूर्त्तिः प्रत्यक्षा दहनात्मिका ॥ कर्त्री हर्त्री पालयित्री विनैतां किं विलोक्यते ॥६७॥
चित्रभानुरयं साक्षान्नेत्रन्त्रिभुवनेशितुः ॥ अन्धे तमोमये लोके विनैनं कः प्रकाशनः ॥ ६८ ॥
धूपप्रदीपनैवेद्यपयोदधिघृतैक्षवम् ॥ एतद्भुक्तं निषेवन्ते सर्वे दिवि दिवौकसः ॥६९॥
ये अग्नि प्राणियोंके साक्षात् अन्तरात्मा हैं और निश्चय ही सब कुछ जला देनेवाले हैं। ये स्त्रियोंकी कुक्षिमें मांसके ग्रासोंको तो पचा देते हैं, किंतु उसीमें रहनेवाले मांसपेशी (गर्भ)-को [दयावश] नहीं पचाते। ये अग्नि साक्षात् शिवकी तेजोमयी दहनात्मिका मूर्ति हैं। यही [अग्निरूपा मूर्ति ] सृष्टि करनेवाली, विनाश करनेवाली एवं पालन करनेवाली है। इनके बिना कुछ नहीं दिखायी पड़ता है। ये अग्नि शिवजीके साक्षात् नेत्र हैं। अन्धकारसे पूर्ण इस तमोमय संसारको अग्निके बिना कौन प्रकाशित कर सकता है। धूप, दीप, नैवेद्य, दूध, दही, घी एवं मिष्टान्नादि पदार्थ अग्निमें हवन करनेपर स्वर्गमे निवास करनेवाले देवगण उसे प्राप्त करते हैं।
इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां गृहपत्यवतारवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE
EXACT GPS LOCATION : 25.313647535852393, 83.01561772665751
अग्नीश्वर लिङ्ग, अग्नीश्वर घाट, उपशांतेश्वर के समीप, CK.2/1 में स्थित है।
Agnishwara Linga is located at Agnishwara Ghat, near Upshanteshwar, CK.2/1.
For the benefit of Kashi residents and devotees : -
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥