हिमालय उवाच
कति स्थानानि देवेशि द्रष्टव्यानि महीतले । मुख्यानि च पवित्राणि देवीप्रियतमानि च ॥ १ ॥
व्रतान्यपि तथा यानि तुष्टिदान्युत्सवा अपि । तत्सर्वं देव मे मातः कृतकृत्यो यतो नरः ॥ २ ॥
सर्वं दृश्यं मम स्थानं सर्वे काला व्रतात्मकाः । उत्सवाः सर्वकालेषु यतोऽहं सर्वरूपिणी ॥ ३ ॥
तथापि भक्तवात्सल्यात्किञ्चित्किञ्चिदथोच्यते । शृणुष्वावहितो भूत्वा नगराज वचो मम ॥ ४ ॥
कोलापुरं महास्थानं यत्र लक्ष्मीः सदा स्थिता । मातुः पुरं द्वितीयं च रेणुकाधिष्ठितं परम् ॥ ५ ॥
तुलजापुरं तृतीयं स्यात्सप्तशृङ्गं तथैव च । हिङ्गुलाया महास्थानं ज्वालामुख्यास्तथैव च ॥ ६ ॥
शकम्भर्याः परं स्थानं भ्रामर्याः स्थानमुत्तमम् । श्रीरक्तदन्तिकास्थानं दुर्गास्थानं तथैव च ॥ ७ ॥
विन्ध्याचलनिवासिन्याः स्थानं सर्वोत्तमोत्तमम् । अन्नपूर्णमहास्थानं काञ्चीपुरमनुत्तमम् ॥ ८ ॥
भीमादेव्याः परं स्थानं विमलास्थानमेव च । श्रीचन्द्रलामहास्थानं कौशिकीस्थानमेव ॥ ९ ॥
नीलाम्बायाः परं स्थानं नीलपर्वतमस्तके । जाम्बूनदेश्वरीस्थानं तथा श्रीनगरं शुभम् ॥ १० ॥
वेदारण्यं महास्थानं सुन्दर्याः समधिष्ठितम् । एकाम्बरं महास्थानं परशक्त्या प्रतिष्ठितम् ॥ १२ ॥
महालसा परं स्थानं योगेश्वर्यास्तथैव च । तथा नीलसरस्वत्याः स्थानं चीनेषु विश्रुतम् ॥ १३ ॥
वैद्यनाथे तु बगलास्थानं सर्वोत्तमं मतम् । श्रीमच्छ्रीभुवनेश्वर्या मणिद्वीपं मम स्मृतम् ॥ १४ ॥
श्रीमत्त्रिपुरभैरव्याः कामाख्यायोनिमण्डलम् । भूमण्डले क्षेत्ररत्नं महामायाधिवासितम् ॥ १५ ॥
नातः परतरं स्थानं क्वचिदस्ति धरातले । प्रतिमासं भवेद्देवी यत्र साक्षाद्रजस्वला ॥ १६ ॥
तत्रत्या देवताः सर्वाः पर्वतात्मकतां गताः । पर्वतेषु वसन्त्येव महत्यो देवता अपि ॥ १७ ॥
तत्रत्या पृथिवी सर्वा देवीरूपा स्मृता बुधैः । नातः परतरं स्थानं कामाख्यायोनिमण्डलात् ॥ १८ ॥
गायत्र्याश्च परं स्थानं श्रीमत्पुष्करमीरितम् । अमरेशे चण्डिका स्यात्प्रभासे पुष्करेक्षिणी ॥ १९ ॥
नैमिषे तु महास्थाने देवी सा लिङ्गधारिणी । पुरुहूता पुष्कराक्षे आषाढौ च रतिस्तथा ॥ २० ॥
चन्द्रिका तु हरिश्चन्द्रे श्रीगिरौ शाङ्करी स्मृता । जप्येश्वरे त्रिशूला स्यात्सूक्ष्मा चाम्रातकेश्वरे ॥ २२ ॥
शाङ्करी तु महाकाले शर्वाणी मध्यमाभिधे । केदाराख्ये महाक्षेत्रे देवी सा मार्गदायिनी ॥ २३ ॥
भैरवाख्ये भैरवी सा गयायां मङ्गला स्मृता । स्थाणुप्रिया कुरुक्षेत्रे स्वायम्भुव्यपि नाकुले ॥ २४ ॥
कनखले भवेदुग्रा विश्वेशा विमलेश्वरे । अट्टहासे महानन्दा महेन्द्रे तु महान्तका ॥ २५ ॥
भीमे भीमेश्वरी प्रोक्ता स्थाने वस्त्रापथे पुनः । भवानी शाङ्करी प्रोक्ता रुद्राणी त्वर्धकोटिके ॥ २६ ॥
अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये । गोकर्णे भद्रकर्णी स्याद्भद्रा स्याद्भद्रकर्णके ॥ २७ ॥
उत्पलाक्षी सुवर्णाक्षे स्थाण्वीशा स्थाणुसञ्ज्ञके । कमलालये तु कमला प्रचण्डा छगलण्डके ॥ २८ ॥
कुरण्डले त्रिसन्ध्या स्यान्माकोटे मुकुटेश्वरी । मण्डलेशे शाण्डकी स्यात्काली कालञ्जरे पुनः ॥ २९ ॥
शङ्कुकर्णे ध्वनिः प्रोक्ता स्थूला स्यात्स्थूलकेश्वरे । ज्ञानिनां हृदयाम्भोजे हृल्लेखा परमेश्वरी ॥ ३० ॥
तदुक्तेन विधानेन पश्चाद्देवीं प्रपूजयेत् । अथवा सर्वक्षेत्राणि काश्यां सन्ति नगोत्तम ॥ ३२ ॥
अतस्तत्र वसेन्नित्यं देवीभक्तिपरायणः । तानि स्थानानि सम्पश्यञ्जपन्देवीं निरन्तरम् ॥ ३३ ॥
भस्मीभवन्ति पापानि तत्क्षणान्नग सत्वरम् । श्राद्धकाले पठेदेतान्यमलानि द्विजाग्रतः ॥ ३५ ॥
मुक्तास्तत्पितरः सर्वे प्रयान्ति परमां गतिम् । अधुना कथयिष्यामि व्रतानि तव सुव्रत ॥ ३६ ॥
नारीभिश्च नरैश्चैव कर्तव्यानि प्रयत्नतः । व्रतमनन्ततृतीयाख्यं रसकल्याणिनीव्रतम् ॥ ३७ ॥
आर्द्रानन्दकरं नाम्ना तृतीयाया व्रतं च यत् । शुक्रवारव्रतं चैव तथा कृष्णचतुर्दशी ॥ ३८ ॥
भौमवारव्रतं चैव प्रदोषव्रतमेव च । यत्र देवो महादेवो देवीं संस्थाप्य विष्टरे ॥ ३९ ॥
नृत्यं करोति पुरतः सार्धं देवैर्निशामुखे । तत्रोपोष्य रजन्यादौ प्रदोषे पूजयेच्छिवाम् ॥ ४० ॥
तत्रापि देवीं सम्पूज्य रात्रौ भोजनमाचरेत् । नवरात्रद्वयं चैव व्रतं प्रीतिकरं मम ॥ ४२ ॥
एवमन्यान्यपि विभो नित्यनैमित्तिकानि च । व्रतानि कुरुते यो वै मत्प्रीत्यर्थं विमत्सरः ॥ ४३ ॥
प्राप्नोति मम सायुज्यं स मे भक्तः स मे प्रियः । उत्सवानपि कुर्वीत दोलोत्सवसुखान्विभो ॥ ४४ ॥
शयनोत्सवं यथा कुर्यात्तथा जागरणोत्सवम् । रथोत्सवं च मे कुर्याद्दमनोत्सवमेव च ॥ ४५ ॥
पवित्रोत्सवमेवापि श्रावणो प्रीतिकारकम् । मम भक्तः सदा कुर्यादेवमन्यान्महोत्सवान् ॥ ४६ ॥
मद्भक्तान्भोजयेत्प्रीत्या तथा चैव सुवासिनीः । कुमारीर्बटुकांश्चापि मद्बुद्ध्या तद्गतान्तरः ॥ ४७ ॥
वित्तशाठ्येन रहितो यजेदेतान्सुमादिभिः । य एवं कुरुते भक्त्या प्रतिवर्षमतन्द्रितः ॥ ४८ ॥
स धन्यः कृतकृत्योऽसौ मत्प्रीतेः पात्रमञ्जसा ।
सर्वमुक्तं समासेन मम प्रीतिप्रदायकम् । नाशिष्याय प्रदातव्यं नाभक्ताय कदाचन ॥ ४९ ॥
उपरोक्त पौराणिक वर्णन के आधार पर देवी के पावन तीर्थस्थान एवं उनका आध्यात्मिक महत्त्व
- कोलापुर – यह स्थान देवी लक्ष्मी का स्थायी निवास माना जाता है। यहाँ धन-वैभव एवं समृद्धि की देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
- मातृपुर (रेणुका देवी) – यह देवी रेणुका का परम पवित्र स्थान है, जो मातृशक्ति का प्रतीक है।
- तुलजापुर – यहाँ भगवती भवानी का वास है, जो शत्रु नाश एवं रक्षा की अधिष्ठात्री हैं।
- सप्तशृंग – यह स्थान देवी दुर्गा की उपासना के लिए विख्यात है, जहाँ सप्तमातृकाओं का प्रभाव माना जाता है।
- हिंगुला, ज्वालामुखी, शाकम्भरी, भ्रामरी, रक्तदन्तिका, दुर्गा – ये सभी स्थान विभिन्न रूपों में भगवती के प्रभाव क्षेत्र हैं, जहाँ देवी की विशिष्ट शक्ति और स्वरूप पूजित हैं।
- विन्ध्यवासिनी (विन्ध्य पर्वत) – यह स्थान माँ विन्ध्यवासिनी का निवास है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की पालनकर्त्री मानी जाती हैं।
- अन्नपूर्णा (कांचीपुर) – देवी अन्नपूर्णा का यह स्थान अन्न, धान्य एवं सम्पूर्ण विश्व की पोषक शक्ति का केन्द्र है।
- भीमा, विमला, श्रीचन्द्रला, कौशिकी – ये सभी स्थान भगवती की विविध शक्तियों के अधिष्ठान हैं, जो भक्तों को विभिन्न प्रकार के आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
- नीलाम्बा (नील पर्वत) – यह स्थान तंत्र-मंत्र साधना एवं गूढ़ रहस्यों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
- जाम्बूनदेश्वरी (श्रीनगर) – भगवती जाम्बूनदेश्वरी का यह स्थान सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र के देवत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
- गुह्यकाली (नेपाल) – यह स्थान तांत्रिक साधकों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- मीनाक्षी (चिदम्बरम) – देवी मीनाक्षी का यह स्थान परम सिद्धपीठों में गिना जाता है।
- सुन्दरी (वेदारम्य), पराशक्ति (एकाम्बर) – यहाँ देवी की परम रहस्यमयी एवं शक्ति प्रधान रूपों की पूजा की जाती है।
- महालसा, योगेश्वरी – ये स्थान देवी के योगमाया रूप के लिए प्रसिद्ध हैं।
- नीलसरस्वती (चीन देश) – यहाँ देवी सरस्वती के गूढ़ और तांत्रिक स्वरूप की पूजा होती है।
- बगला (वैद्यनाथधाम) – यह स्थान देवी बगलामुखी का सर्वोत्तम शक्तिपीठ है।
- भुवनेश्वरी (मणिद्वीप) – यह स्थान भगवती भुवनेश्वरी का परम धाम है।
- त्रिपुरभैरवी (कामाख्या) – यह स्थान महामाया का निवास स्थान है, जहाँ देवी प्रत्येक माह में रजस्वला होती हैं और सम्पूर्ण क्षेत्र स्वयं देवीस्वरूप माना गया है।
- गायत्री (पुष्कर) – यहाँ भगवती गायत्री विराजमान हैं, जो वेदों की मूल चेतना हैं।
- चण्डिका (अमरेश), पुष्करेक्षिणी (प्रभास), लिंगधारिणी (नैमिषारण्य), पुरुहूता (पुष्कराक्ष), रति (आषाढ़ी) – ये सभी स्थान देवी के विशेष पूजास्थल हैं।
- चण्डमुण्डी (दण्डिनी), भारभूति (भूति), नाकुल (नकुलेश्वरी), हरिश्चन्द्र (चन्द्रिका), श्रीगिरि (शांकरी) – यहाँ देवी के विविध स्वरूप पूज्य हैं।
- त्रिशूला (जप्येश्वर), सूक्ष्मा (आम्रातकेश्वर), शांकरी (महाकालक्षेत्र), शर्वाणी (मध्यम), मार्गदायिनी (केदार) – ये स्थान देवी की साधना के लिए विशेष रूप से पूजित माने गए हैं।
- भैरवी (भैरव), मंगला (गया), स्थाणुप्रिया (कुरुक्षेत्र), स्वायम्भुवी (नाकुल) – यहाँ देवी के रूप में विशेष आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
- विशालाक्षी (काशी), महाभागा (महालय), भद्रकर्णी (गोकर्ण), भद्रा (भद्रकर्णक) – ये सभी स्थान देवी की दिव्य शक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं।
- उत्पलाक्षी (सुवर्णाक्ष), स्थाण्वीशा (स्थाणुसंज्ञक), कमला (कमलालय), प्रचण्डा (छगलण्डक), त्रिसन्ध्या (कुरण्डल) – यहाँ देवी के विविध स्वरूपों की महिमा स्थापित है।
- मुकुटेश्वरी (माकोट), शाण्डकी (मण्डलेश), काली (कालेजरपर्वत), ध्वनि (शंकुकर्णपर्वत), स्थूला (स्थूलकेश्वर) – इन स्थानों पर देवी की विशेष कृपा मानी जाती है।
- इल्लेखा (ज्ञानियों के हृदयकमल में) – यह स्थान दर्शाता है कि सच्चे साधकों के हृदय में ही देवी का वास्तविक वास होता है।
काशी (वाराणसी) – समस्त तीर्थों का समावेश
देवी ने अंत में कहा कि उक्त सभी तीर्थस्थान काशी में भी स्थित हैं। अतः जो व्यक्ति काशी में निवास करता है, वह समस्त देवी तीर्थों का पुण्यफल प्राप्त करता है।
- काशी में विशालाक्षी देवी का निवास है, जो देवी पार्वती का साक्षात स्वरूप हैं।
- यहाँ अन्नपूर्णा देवी स्वयं भगवान शिव को अन्नदान करती हैं।
- काशी की समस्त भूमि स्वयं मुक्तिदायिनी भगवती का स्वरूप मानी जाती है।
- यहाँ देवाधिदेव महादेव स्वयं महाकाल रूप में साक्षात निवास करते हैं, और भगवती का पूजन यहाँ अक्षय पुण्यफलदायक होता है।
अतः वाराणसी को समस्त शक्तिपीठों का समावेश एवं संपूर्ण देवी साधना का केन्द्र कहा गया है। यहाँ रहकर भगवती के नाम-स्मरण, पूजा, व्रत एवं साधना करने से समस्त देवी तीर्थों का फल प्राप्त होता है और साधक मोक्षपथ का अधिकारी बनता है।
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी