Ishaneswar & Gyanvapi (एकादश ११ रुद्रों द्वारा रुद्रमूर्ति ईशान का रूप धारण कर ईशानेश्वर लिङ्ग की स्थापना एवं ईशान द्वारा महारुद्राभिषेक हेतु सर्वतीर्थ जलयुक्त ज्ञानवापी का खोदा जाना तथा ज्ञानवापी की सीमा एवं उसके रक्षक देवता तत्पश्चात कलियुग में धाम कॉरिडोर निर्माण हेतु ज्ञानवापी रक्षक देवता तारकेश्वर लिङ्ग एवं नंदीश्वर लिङ्ग का विध्वंश तथा दंडपाणि का स्थान परिवर्तन)

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एकादश (११) रुद्र

मत्स्यपुराणम्/अध्यायः_५
अजैकपादहिर्बुध्न्य विरूपाक्षोऽथ रैवतः। हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः॥ २९ ॥
सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः। एते रुद्राः समाख्याता एकादश गणेश्वराः॥ ३० ॥
एतेषां मानसानान्तु त्रिशूलवरधारिणाम्। कोटयश्चतुराशीतिस्तत्पुत्राश्चाक्षया मताः॥ ३१ ॥
दिक्षु सर्वासु ये रक्षां प्रकुर्वन्ति गणेश्वराः। पुत्रपौत्रसुताश्चैते सूरभी गर्भसम्भवाः॥ ३२ ॥

अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, रैवत, हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी, अपराजित ये एकादश रुद्र गणेश्वर नाम से प्रख्यात हैं। श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करने वाले ब्रह्मा के इन मानस पुत्र रूप गणेश्वरों के चौरासी करोड़ पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब अक्षय माने गये हैं। सुरभी गाय के गर्भ से उद्भूत ये एकादश रुद्रों के पुत्र-पौत्र आदि, जो गणेश्वर कहे जाते हैं, सभी दिशाओं में (चराचर जगत्‌ की) रक्षा करते हैं। [११ रुद्र - 5 कर्मेंदीय, 5 ज्ञानेंद्रीय कुल दस इंद्रिय और मन सहित ११ के रक्षक है।]

एकादश (११) रुद्रों द्वारा ईशानेश्वर लिंग की स्थापना 

(वर्तमान 2081 पिङ्गल, विक्रम सम्वत, स्थान : शापुरी कॉम्प्लेक्स में)

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०१३
॥ गणावूचतुः ॥
इत्थं सखित्वं श्रीशंभोः प्रापैष धनदः परम् ॥ अलकां निकषाचैष कैलासः शंकरालयः ॥ ६५ ॥
पुर्यां यक्षेश्वराणां ते स्वरूपमिति वर्णितम् ॥ यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो नरो मुच्येदसंशयम् ॥१६६॥
विष्णु पार्षदगण कहते हैं- इन धनद कुबेर ने एवंविध शिव का सखापद प्राप्त किया था। कैलाश पर्वत पर अलकापुरी के निकट शिव का गृह है। यक्षेश्वर की इस पुरी का रूप मैंने आपसे कह दिया। इसे सुनकर मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें संशय नहीं है
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०१४
॥ गणावूचतुः ॥
अलकायाः पुरोभागे पूरैशानीमहोदया ॥ अस्यां वसंति सततं रुद्रभक्तास्तपोधनाः ॥१॥
शिवस्मरणसंसक्ताः शिवव्रतपरायणाः ॥ शिवसात्कृतकर्माणः शिवपूजारताः सदा ॥२॥
साभिलाषास्तपस्यंति स्वर्गभोगोस्त्वितीह नः ॥ तेऽत्र रुद्रपुरे रम्ये रुद्ररूपधरा नराः ॥ ३ ॥
अजैकपादहिर्बुध्न्य मुख्या एकादशापि वै ॥ रुद्राः परिवृढाश्चात्र त्रिशूलोद्यतपाणयः ॥ ४ ॥
पुर्यष्टकं च दुष्टेभ्यो देवध्रुग्भ्यो ह्यवंति ते ॥ प्रयच्छंति वरान्नित्यं शिवभक्तजने वराः ॥ ५ ॥
विष्णुपार्षद कहते हैं- अलका के सामने पूर्वभाग में महोदया ईशानपुरी है। इसमें शिवभक्त तपोधनों का निवास है। जो शिव स्मरण में आसक्त हैं, जो शिव ब्रततत्पर हैं, जिनका सभी कर्म शिवार्पित है, जो सर्वदा शिवपूजारत हैं, जो सभी मानव इस सकाम भाव से कि “हमें स्वर्ग भोग मिले” यह तप करते हैं, वे रमणीय रुद्रपुरी में रुद्ररृपेण निवास करते हैं। यहां के अधिपति हैं अज, एकपाद, अहिर्बध्न्यादि प्रमुख त्रिशूलधारी एकादश रुद्र। ये प्रधान रुद्र उक्त अष्टपुरी की देवद्रोही दुष्टों से रक्षा करते हैं। ये शिवभक्तगण को वर प्रदान करते हैं
एतैरपि तपस्तप्तं प्राप्य वाराणसीं पुरीम् ॥ ईशानेशं महालिंगं परिस्थाप्य शुभप्रदम् ॥ ६ ॥
ईशानेश प्रसादेन दिश्यैश्यां हि दिगीश्वराः ॥ एकादशाप्येकचरा जटामुकुटमंडिताः ॥ ७ ॥
भालनेत्रा नीलगलाः शुद्धांगा वृषभध्वजाः ॥ असंख्याताः सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूतलम् ॥ ८ ॥
तेऽस्यां पुरि वसंत्यैश्यां सर्वभोगसमृद्धयः ॥ ईशानेशं समभ्यर्च्य काश्यां देशांतरेष्वपि ॥ ९ ॥
विपन्नास्तेन पुण्येन जायंते ऽत्रपुरोहिताः ॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यामीशानेशं यजंति ये ॥ १० ॥
त एव रुद्रा विज्ञेया इहामुत्राप्यसंशयम् ॥ कृत्वा जागरणं रात्रावीशानेश्वर संनिधौ ॥११॥
उपोष्यभूतांयांकांचिन्न नरो गर्भभाक्पुनः ॥ स्वर्गमार्गे कथामित्थं शृण्वन्विष्णुगणोदिताम् ॥ १२ ॥
इन लोगों ने भी वाराणसी में जाकर शुभप्रद ईशानेश्वर महालिङ्ग की स्थापना करके तप किया था। ईशानेश लिङ्ग की कृपा से ईशानदिकस्थ ये एकादश दिकपति (एकादश रुद्र) सदा सहचर रहते हैं (साथ रहते हैं) तथा ये सभी जटामुकुट मंडित नीलकण्ठ, शुभदेह एवं वृषध्वज हैं। पृथिवी में जो हजारों-हजार रुद्र हैं, वे सभी सर्वभोगों से समृद्ध होकर इस ईशानपुरी में निवास करते हैं। काशी में ईशानेश्वर का दर्शन करने के उपरान्त जिनकी मृत्यु होती है, भले ही वे देशान्तर में मृत हों, वे हितस्थिति वाले लोग इस ईशानपुरी में देहधारण करते हैं। जो लोग अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन ईशानेश्वर लिङ्ग की पूजा करते हैं, वे इहलोक तथा परलोक में निःसंदिग्ध रूपेण रुद्र हैं। ईशानेश्वर के निकट जो व्यक्ति चतुर्दशी को उपवासी रहता है तथा रात्रि जागरण करता है, उसे पुनः गर्भ में नहीं आना पड़ता। स्वर्गमार्ग में शिवशर्मा ने विष्णुपार्षदों से यह कथा सुनी।

एकादश (११) रुद्रों का रुद्रमूर्ति ईशान के रूप में भगवान महारुद्र के अभिषेक निमित्त भूमि खोदकर ज्ञानवापी का निर्माण करना...

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३३
॥ अगस्त्य उवाच ॥
स्कंदज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद सांप्रतम् ॥ ज्ञानवापीं प्रशंसंति यतः स्वर्गौकसोप्यलम् ॥१॥
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- हे स्कन्द! स्वर्गस्थ देवता भी ज्ञानवापी की अभूतपूर्व प्रशंसा करते हैं। अतः सम्प्रति इस ज्ञानोद तीर्थ का वर्णन करिये
॥ स्कंद उवाच ॥
घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम् ॥ ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना ॥२॥
अनादिसिद्धे संसारे पुरा देवयुगे मुने ॥ प्राप्तः कुतश्चिदीशानश्चरन्स्वैरमितस्ततः ॥ ३ ॥
न वर्षंति यदाभ्राणि न प्रावर्तंत निम्रगाः ॥ जलाभिलाषो न यदा स्नानपानादि कर्मणि ॥ ४ ॥
क्षारस्वादूदयोरेव यदासीज्जलदर्शनम् ॥ प्रथिव्यां नरसंचारे वतर्माने क्वचित्क्वचित् ॥ ५ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे महाप्राज्ञ कुंभयोनि! मैं अब कलुषनाशक ज्ञानवापी उत्पत्ति कथा कहता हूं। सुनिये। हे मुनिवर! पूर्वकाल में जब देवयुग था और इस आवहमान संसार में मेघ वृष्टि नहीं करते थे, नदियां तब उत्पन्न नहीं थीं। स्नान-दानादि कार्य में कोई जल नहीं चाहता था। केवल तब लवण एवं क्षीरसागर में ही जल दृष्टिगोचर होता था। तब केवल यत्र-तत्र ही पृथ्वी पर मनुष्य संचार वर्तमान था।
निर्वाणकमलाक्षेत्रं श्रीमदानंदकाननम् ॥ महाश्मशानं सर्वेषां बीजानां परमूषरम् ॥ ६ ॥
महाशयनसुप्तानां जंतूनां प्रतिबोधकम् ॥ संसारसागरावर्त पतज्जंतुतरंडकम् ॥ ७ ॥
यातायातातिसंखिन्न जंतुविश्राममंडपम ॥ अनेकजन्मगुणित कर्मसूत्रच्छिदाक्षुरम् ॥ ८॥
सच्चिदानंदनिलयं परब्रह्मरसायनम् ॥ सुखसंतानजनकं मोक्षसाधनसिद्धिदम् ॥ ९ ॥
प्रविश्य क्षेत्रमेतत्स ईशानो जटिलस्तदा ॥ लसत्त्रिशूलविमलरश्मिजालसमाकुलः ॥ १० ॥
आलुलोके महालिंगं वैकुंठपरमेष्ठिनोः ॥ महाहमहमिकायां प्रादुरास यदादितः ॥ ११ ॥
ज्योतिर्मयीभिर्मालाभिः परितः परिवेष्टितम् ॥ वृंदैर्वृंदारकर्षीणां गणानां च निरंतरम् ॥ १२ ॥
सिद्धानां योगिनां स्तोमैरर्च्यमानं निरंतरम् ॥ गीयमानं च गंधर्वैः स्तूयमानं च चारणैः ॥ १३ ॥
अंगहारैरप्सरोभिः सेव्यमानमनेकधा ॥ नीराज्यमानं सततं नागीभिर्मणिदीपकैः ॥ १४ ॥
विद्याधरीकिन्नरीभिस्त्रिकालं कृतमंडनम् ॥ अमरीचमरीराजि वीज्यमानमितस्ततः ॥ १५ ॥
अस्येशानस्य तल्लिंगं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा ॥ स्नपयामि महल्लिंगं कलशैः शीतलैर्जलैः ॥ १६ ॥
उस काल में दिकपाल लोग भी इच्छा के अनुसार यत्र-तत्र विचरण करते-करते समस्त कर्मबीज के उदय क्षेत्र में महानिद्रा में निद्रित जीवों के प्रतिबोधक, संसार सागर में पतित हो गये लोगों के अवलम्बन नौकारूप, आवागमन चक्र से खिन्न जीवगण के विश्रामरूप, बहुजन्मार्जित कर्मसूत्र का छेदन करने वाले अस्त्ररूप, निर्वाण लक्ष्मी धाम, सच्चिदानन्द निलय, परब्रह्मरसायन, सुखसन्तानजनक, मोक्षसाधन सिद्धिप्रद शंभु महाश्मशान श्री आनन्दकानन वाराणसी आये। यहां प्रवेश करके जटिल (जटाधारी) ईशान ने तब त्रिशूल के विमल रश्मिजाल से आकुल होकर देखा कि ब्रह्मा-विष्णु की पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण प्रादुर्भूत ज्योतिर्माला से मण्डित एक महालिंग विराजमान है। देवता-सिद्ध-योगी-ऋषि-प्रमथगण उस लिंग की अर्चना सदैव कर रहे थे। गन्धर्व गायन कर रहे थे, चामरगण स्तव गा रहे थे, अप्सराएं नृत्यरत थीं। नागकन्यायें रत्नमय प्रदीप जलाकर उस लिंग की आरती उतार रही थीं। विद्याधरी नारियां तथा किन्नरियां त्रिकालीन मंगल सम्पन्न कर रहीं थीं। देवांगनायें वहां यत्र-तत्र चांवर झल रही थीं। यह लिंग देखकर ईशान ने इच्छा किया कि मैं शीतल जल कलश में लाकर इस महालिंग को स्नान कराऊँ।  
चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकंठतः ॥ कुंडं प्रचंडवेगेन रुद्रोरुद्रवपुर्धरः ॥ १७ ॥
पृथिव्यावरणांभांसि निष्क्रांतानि तदा मुने ॥ भूप्रमाणाद्दशगुणैर्यैरियं वसुधावृता ॥ १८ ॥
तैर्जलैः स्नापयांचक्रे त्वत्स्पृष्टैरन्यदेहिभिः तुषारैर्जाड्यविधुरैर्जंजपूकौघहारिभिः ॥ १९ ॥
सन्मनोभिरिवात्यच्छैरनच्छैर्व्योमवर्त्मवत् ॥ ज्योत्स्नावदुज्ज्वलच्छायैः पावनैः शंभुनामवत् ॥ २० ॥
पीयूषवत्स्वादुतरैः सुखस्पर्शैर्गवांगवत् ॥ निष्पापधीवद्गंभीरैस्तरलैः पापिशर्मवत् ॥ २१ ॥
विजिताब्जमहागंधैः पाटलामोदमोदिभिः ॥ अदृष्टपूर्वलोकानां मनोनयनहारिभिः ॥ २२ ॥
अज्ञानतापसंतप्त प्राणिप्राणैकरक्षिभिः ॥ पंचामृतानां कलशैः स्नपनातिफलप्रदैः ॥ २३ ॥
श्रद्धोपस्पर्शि दृदयलिंग त्रितयहेतुभिः ॥ अज्ञानतिमिरार्काभैर्ज्ञानदान निदायकैः॥२४॥
विश्वभर्तुरुमास्पर्शसुखातिसुखकारिभिः ॥ महावभृथसुस्नान महाशुद्धिविधायिभिः ॥ २५ ॥
सहस्रधारैः कलशैः स ईशानो घटोद्भव ॥ सहस्रकृत्वः स्नपयामास संहृष्टमानसः ॥ २६॥
तब रुद्रमूर्ति ईशान ने त्रिशूल से अविमुक्तेश्वर के दक्षिण भाग के कुछ ही आगे त्रिशूल से एक कुण्ड खनन किया। हे मुनिवर! इस कुण्ड से पृथिवी के परिमाण से दसगुना अधिक भूमण्डल का बहिरावरण रूप जल निकला। हे कुम्भयोनि! इन ईशानदेव ने तब अन्य जीवों के लिये अस्पृश्य, सज्जनों के चित्त के समान स्वच्छ आकाशमार्गवत अत्युच्च, ज्योत्स्ना के समान धवल, शिवनाम के समान पवित्र, अमृतवत्‌ सुस्वादु, वृष के अंगों के समान सुखस्पर्श वाले, निष्पाप लोगों के समान गंभीर-धीर, पापीगण के समान चंचल, अनिंदित पद्मगन्ध युक्त पाटलपुष्प की गंध वाला, दर्शकों के नेत्रों को मनोहर लगने वाला, अज्ञानतापतप्त लोगों को स्निग्धता देने वाला, स्निग्ध पंचामृत स्नान की अपेक्षा अत्यन्त फलद, श्रद्धापूर्वक स्पर्शमात्र से हृदय में लिंगत्रय (आकाशे तारकं लिंगम, पाताले हाटकेश्वरम। भूलोके च महाकाल, लिंगत्रय नमोस्तुते॥) का जनक अज्ञानान्धकार के लिये सूर्यरूप, स्नान-दान निदान, उमास्पर्श की अपेक्षा विश्वेश्वर को सुख देने वाला अवभृत स्नान जल से भी अधिक शुद्धिप्रद, शीतल, जाड्यहारी इस जल का उन्होंने सहस्रधारा कलश से भरकर हृष्टचित्त से एक हजार बार उस महालिंग को स्नान कराया।
ततः प्रसन्नो भगवान्विश्वात्मा विश्वलोचनः ॥ तमुवाच तदेशानं रुद्रं रुद्रवपुर्धरम् ॥ २७ ॥
तव प्रसन्नोस्मीशान कर्मणानेन सुव्रत ॥ गुरुणानन्यपूर्वेण ममातिप्रीतिकारिणा ॥ २८ ॥
ततस्त्वं जटिलेशान वरं ब्रूहि तपोधन ॥ अदेयं न तवास्त्यद्य महोद्यमपरायण ॥ २९ ॥
तदनन्तर विश्वलोचन विश्वात्मा भगवान्‌ इस पूजा से प्रसन्न हो गये तथा उन्होंने रुद्रमूर्त्तिधारी ईशान से कहा- हे सुब्रतईशान! अति प्रीतिकार, अनन्यकृतपूर्व (अनन्यकृतपूर्व में किसी ने नहीं किया हो) गुरुतर तुम्हारे कार्य से मैं प्रसन्न हो गया। तुमको क्‍या वर चाहिये, कहो! तुम्हारे लिये अदेय कुछ भी नहीं है। यह सुनकर ईशान कहने लगे -
॥ ईशान उवाच ॥
यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि ॥ तदेतदतुलं तीर्थं तव नाम्नास्तु शंकर ॥ ३० ॥
ईशानदेव कहते हैं - हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हें तथा यदि मैं आपका वरलाभ करने योग्य हूं, तब हे शंकर! यह तीर्थ अतुलनीय फलप्रद होकर आपके नाम से प्रसिद्ध हो जाये
॥ विश्वेश्वर उवाच ॥
त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवःस्वः स्थितान्यपि ॥ तेभ्योखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम् ॥ ३१ ॥
शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिंतकाः ॥ तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात् ॥ ३२ ॥
अतो ज्ञानोद नामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते। ॥ ३३ ॥
ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत् ॥ स्पर्शनाचमनाभ्यां च राजसूयाश्वमेधयोः ॥ ३४ ॥
विश्वेश्वर कहते हैं- त्रिभुवन में तथा भू र्भुवः स्वः लोकों में जितने भी तीर्थ हैं, उन सबमें प्रधान शिवतीर्थ नाम से प्रसिद्ध होगा। शिव शब्दार्थज्ञ विद्वान शिव शब्द का अर्थ ज्ञान कहते हैं। इस तीर्थ में ज्ञान ही मेरी महिमा के कारण जलरूप से द्रवीभूत होकर स्थित है। अतएव यह तीर्थ 'ज्ञानोद' नाम से त्रिलोकी में प्रसिद्ध होगा। इसके दर्शन से सर्वपाप मोचन, स्पर्श से अश्वमेध फल, इसके आचमन तथा जलपान से राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञफल मिलता है।
फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा संतर्प्य च पितामहान् ॥ यत्फलं समवाप्नोति तदत्र श्राद्धकर्मणा ॥ ३५ ॥
गुरुपुष्यासिताष्टम्यां व्यतीपातो यदा भवेत् ॥ तदात्र श्राद्धकरणाद्गयाकोटिगुणं भवेत् ॥ ३६ ॥
फल्गुतीर्थ (गया) में स्नान तथा पितरों के तर्पण का मनुष्य को जो फल मिलता है, इस तीर्थ में श्राद्ध करने से वही फल प्राप्त होगा। पुष्यानक्षत्रयुक्त गुरुवार के दिन जब शुक्लाष्टमी पड़े और व्यतीपात योग हो, तब यदि कोई यहां श्राद्ध करेगा, उस स्थिति में उसको गयाश्राद्ध की तुलना में करोड़ों गुणित फल मिलेगा।
यत्फलं समवाप्नोति पितॄन्संतर्प्य पुष्करे ॥ तत्फलं कोटिगुणितं ज्ञानतीर्थे तिलोदकैः ॥ ३७ ॥
सन्निहत्यां कुरुक्षेत्रे तमोग्रस्ते विवस्वति ॥ यत्फलं पिंडदानेन तज्ज्ञानोदे दिने दिने॥३८॥
पिंडनिर्वपणं येषां ज्ञानतीर्थे सुतैः कृतम्॥ मोदंते शिवलोके ते यावदाभूतसंप्लवम् ॥ ३९ ॥
अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः ॥ प्रातः स्नात्वाथ पीतांभस्त्वंतर्लिंगमयो भवेत् ॥ ४० ॥
एकादश्यामुपोष्यात्र प्राश्नाति चुलुकत्रयम् ॥ हृदये तस्य जायंते त्रीणि लिंगान्यसंशयम् ॥४१॥
पुष्कर तीर्थ में पितृतर्पण का जो पुण्य है, इस तीर्थ में तिलतर्पण से उसकी अपेक्षा करोड़ों गुणित फल मिलेगा। कुरुक्षेत्र में रामहृद में सूर्यग्रहण के समय पिण्डदान का जो फल है, यहां इस तीर्थ में वह फल नित्य मिलेगा। जो पुत्र यहां पूर्वजों को पिण्ड प्रदान करता है, उसके पितृगण प्रलयपर्यन्त शिवलोक में निवास करते हैं। अष्टमी तथा चतुर्दशी को उपवासी रहकर इस तीर्थ में प्रातःस्नान तथा जलपान करने से मनुष्य का हृदय लिङ्गमय हो जायेगा। जो एकादशी के दिन उपवासी रहकर यहां तीन चुल्लू जल पीयेगा निश्चित रूप से उसके हृदय में लिङ्गत्रय अर्थात तीन लिङ्ग (आकाशे तारकं लिंगम, पाताले हाटकेश्वरम। भूलोके च महाकाल, लिंगत्रय नमोस्तुते॥) प्रकट हो जायेंगे। इसमें सन्देह नहीं।
ईशानतीर्थे यः स्नात्वा विशेषात्सोमवासरे ॥ संतर्प्य देवर्षि पितॄन्दत्त्वा दानम स्वशक्तितः ॥ ४२ ॥
ततः समर्च्य श्रीलिंगं महासंभारविस्तरैः ॥ अत्रापि दत्त्वा नानार्थान्कृतकृत्योभवेन्नरः ॥ ४३ ॥
उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काललोपजम् । क्षणेन तदपाकृत्य ज्ञानवाञ्जायते द्विजः ॥ ४४ ॥
शिवतीर्थमिदं प्रोक्तं ज्ञानतीर्थमिदं शुभम् ॥ तारकाख्यमिदं तीर्थं मोक्षतीर्थमिदं धुवम् ॥ ४५ ॥
स्मरणादपि पापौघो ज्ञानोदस्य क्षयेद्ध्रुवम् ॥ दर्शनात्स्पर्शनात्स्नानात्पानाद्धर्मादिसंभवः ॥ ४६ ॥
डाकिनीशाकिनी भूतप्रेतवेतालराक्षसाः ॥ ग्रहाः कूष्मांडझोटिंगाः कालकर्णी शिशुग्रहाः ॥ ४७ ॥
ज्वरापस्मारविस्फोटद्वितीयकचतुर्थकाः ॥ सर्वे प्रशममायांति शिवर्तार्थजलेक्षणात्॥ ॥ ४८ ॥
विशेष रूप से सोमवार को जो मनुष्य इस ईशानतीर्थ (शिवतीर्थ) में स्नान तथा ऋषि-देव-पितरों का तर्पण करेगा तथा यथासाध्य दानोपरान्त षोडशोपचार से विश्वेश्वर की पूजा सम्पन्न करेगा, उसके सर्वमनोरथ पूर्ण होंगे। यथाकाल सन्ध्या न करने का जो पाप है, इस तीर्थ में सन्ध्योपासना द्वारा वह पाप तत्क्षण नष्ट होता है। साथ ही ब्राह्मण ज्ञानलाभ करते हैं। इस शिवतीर्थ का नाम ही ज्ञानतीर्थ भी है। यहीं निःसंदेह तारकतीर्थ एवं मोक्षतीर्थ भी है। यह स्मरणमात्र से भी पापों का नाशक है। इसका दर्शन, स्पर्शन, जलपान तथा इसमें स्नान द्वारा मनुष्य चतुर्वर्ग फललाभ कर लेता है। इसके जल को देखकर मानव को चतुर्वर्ग फल मिलेगा। इसके जल के दर्शनमात्र से डाकिनी, शाकिनी, भूत, प्रेत, वेताल, राक्षस, ग्रह, कूष्माण्ड, झोटिंग, कालकर्णी, बालग्रह, ज्वर, अपस्मार विस्फोट आदि शान्त हो जाते हैं।
ज्ञानोदतीर्थपानीयैर्लिंगं यः स्नापयेत्सुधीः ॥ सर्वतीर्थोदकैस्तेन ध्रुवं संस्नापितं भवेत् ॥ ४९ ॥
ज्ञानरूपोह मेवात्र द्रवमूर्तिं विधाय च ॥ जाड्यविध्वंसनं कुर्यां कुर्यां ज्ञानोपदेशनम् ॥ ५० ॥
इति दत्त्वा वराञ्छंभुस्तत्रैवांतरधीयत ॥ कृतकृत्यमिवात्मानं सोप्यमंस्तत्रिशूलभृत् ॥ ५१ ॥
ईशानो जटिलो रुद्रस्तत्प्राश्य परमोदकम्॥ अवाप्तवान्परं ज्ञानं येन निर्वृतिमाप्तवान्॥ ५२ ॥
जो सुधी मानव इस तीर्थ जल से शिवलिंग को स्नान कराता है, उसे वही फल होगा जो समस्त तीर्थ के जल से शिवलिंग को स्नान कराने से प्राप्त होता है। ज्ञानरूपी मैं यहां द्रव्यमूर्त्ति धारण करके मानव की जड़ता का नाश तथा ज्ञानोपदेश करता हूं। भगवान्‌ शंभु ने इस प्रकार अनेक वर प्रदान किया तथा वहां से अन्तर्हित हो गये। त्रिशूलधारी जटायुक्त ईशान ने भी स्वयं को कृतार्थ माना। उन्होंने इस परम जल का पान करके परमज्ञान लाभ किया तथा सुखी हो गये

ज्ञानवापी की चौहद्दी

शुभ [कल्याणकारी, मंगलप्रद, पवित्र] + ओदक [जल में रहने वाला, जलप्राणी] = शुभोदक (शब्दस्रोत : संस्कृत) 

शुभोदक : शुभता प्रदान करने वाला जलीय अर्थात शिव की जल मूर्ति अर्थात ज्ञानवापी


नारायणपूर्वतापिनीयोपनिषत्

प्रथमरूपः पृथिवीरूपो भवति । द्वितीयमापो भवति । तृतीयस्तेजो भवति । चतुर्थो वायुर्भवति । पञ्चम आकाशो भवति । षष्ठश्चन्द्रमा भवति । सप्तमः सूर्यो भवति । अष्टमो यजमानः ॥

भूमिरापस्तथा तेजो वायुर्व्योम च चन्द्रमाः । सूर्यः पुमांस्तथा चेति मूर्तयश्चाष्ट कीर्तिताः ॥

अकारोकारमकारनादबिन्दुकलानुसन्धानध्यानाष्टविधा अष्टाक्षरं भवति । अकारः सद्योजातो भवति । उकारो वामदेवः । अघोरो मकारो भवति । तत्पुरुषो नादः । बिन्दुरीशानः । कला व्यापको भवति । अनुसन्धानो नित्यः । ध्यानस्वरूपं ब्रह्म । सर्वव्यापकोऽष्टाक्षरः 


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०१६   एवं

शिवपुराणम्/संहिता_२_(रुद्रसंहिता)/खण्डः_५_(युद्धखण्डः)/अध्यायः_५०

॥ भार्गव उवाच ॥ 
पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र चित्रविचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम्॥
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि॥
भार्गव शुक्राचार्य अष्टमूर्ति स्तवन में भगवान शिव के जलमूर्ति की महिमा कहते हैं- हे जलरूप! हे परमेश! हे जगत्पवित्र! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं। हे विश्वनाथ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहनमात्रसे विश्वको पवित्र करनेवाला है, अत: आपको नमस्कार करता हूँ।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०९७

देवस्य दक्षिणे भागे तत्र वापी शुभोदका तदंबुप्राशनं नृणामपुनर्भवहेतवे ॥२२०
तज्जलात्पश्चिमे भागे दंडपाणिः सदावति तत्प्राच्यवाच्युत्तरस्यां तारः कालः शिलादजः॥२१॥
लिंगत्रयं हृदब्जेयच्छ्रद्धयापी तमर्पयेत् यैस्तत्र तज्जलं पीतं कृतार्थास्ते नरोत्तमाः २२॥
अविमुक्तसमीपेच्यों मोक्षेशो मोक्षबुद्धिदः करुणेशो दयाधाम तदुदीच्यां समर्चयेत् २३॥
जो व्यक्ति अविमुक्तेश्वर के दक्षिण में अवस्थित शुभोदक वापी अर्थात ज्ञानवापी का जलपान करता है, उसे पुनः जन्म लेकर संसार यातना भोग नहीं करना पड़ता। उसके पश्चिम भाग में दण्डपाणिदेव काशीरक्षक होकर अवस्थित रहते हैं। उनके पूर्व की ओर तारकेश्वर, दक्षिण की ओर कालेश्वर तथा उत्तर की ओर नन्दीश्वर लिङ्ग विरजित है। जो व्यक्ति श्रद्धालु चित्त से इस वापी का जलपान करता है, उसके हृदय में पूर्वोक्त तीनों लिङ्ग विराजित रहते हैं। अतः जो इस जल का पान करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं। अविमुक्तेश्वर के सन्निधान में मोक्षेश्वर लिङ्ग का दर्शन करने से मोक्षलाभ होता है। उसके उत्तर भाग में दयाधाम करुणेश्वर लिङ्ग की पूजा करें।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_१००

॥ व्यास उवाच॥ 
निशामय महाप्राज्ञ लोमहर्षण वच्मि ते ॥ यथा प्रथमतो यात्रा कर्तव्या यात्रिकैर्मुदा ॥ ३६ ॥
आदित्यं द्रौपदीं विष्णुं दंडपाणिं महेश्वरम् ॥ नमस्कृत्य ततो गच्छेद्द्रष्टुं ढुंढिविनायकम् ॥३८॥
ज्ञानवापीमुपस्पृश्य नंदिकेशं ततोर्चयेत् ॥ तारकेशं ततोभ्यर्च्य महाकालेश्वरं ततः ॥ ३९ ॥
ततः पुनर्दंडपाणिमित्येषा पंचतीर्थिका ॥ ४० ॥
व्यासदेव लोमहर्षण (सूत जी) से कहते हैं- हे महाप्राज्ञ! यात्री लोग जिस प्रकार से यात्रा करें, उसकी विधि एकाग्र होकर सुनो। मानव पहले चक्रपुष्करिणी के जल में स्नानोपरान्त यथाविधि दैव-पितृ अर्चना, ब्राह्मण तथा अतिथियों का सत्कार तथा आदित्य, द्रौपदी, विष्णु, दण्डपाणि तथा महेश्वर को प्रणाम करके ढुण्ढिराज गणेश के दर्शनार्थ जायें। तदनन्तर ज्ञानवापी का जलस्पर्श करके नन्दिकेश्वर लिङ्ग की पूजा के अन्त में तारकेश्वर लिङ्ग, महाकालेश्वर लिङ्ग तथा दण्डपाणि की अर्चना करनी चाहिये। यह है पञ्चतीर्थिका। महाफल चाहने वाले मनुष्य नित्य यह पदञ्चतीर्थिका करें।


ज्ञानवापी पूर्वी तट स्थित तारकेश्वर लिङ्ग एवं तारक तीर्थ का विध्वंस....

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६९

आकाशात्तारकाल्लिगं ज्योतीरूपमिहागतम्॥ ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिंगं तारकेश्वरम् ॥ १५३॥
तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिंगस्य समर्चनात् ॥ ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च ॥ १५४ ॥
कृतसंध्यादि नियमः परितर्प्य पितामहान्॥ धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिंग विलोकनम् ॥ १५५ ॥
मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ प्रांते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते ॥ १५६ ॥
आकाश से तारक नामक ज्योतिर्मय लिङ्ग ने आकर यहां ज्ञानवापी के समक्ष अवस्थान किया है। उक्त तारकेश्वर लिङ्ग की अर्चना से तारक ज्ञान की प्राप्ति होती है। मानव ज्ञानवापी में स्नान करके सन्ध्या-वन्दनादि कार्य तथा पितृतर्पण सम्पन्न करके मौनब्रत धारण करे। तदनन्तर उक्त तारकेश्वर का दर्शन करने से वह मुक्त हेकर परमपुण्य संचित करता है। अन्तकाल में जिसके प्रभाव से वह संसार से मुक्त हो जाये ऐसे तारक ज्ञान की प्राप्ति करता है।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३५

॥ कुंभयोनिरुवाच ॥
अविमुक्तं महाक्षेत्रं परनिर्वाणकारणम् ॥ क्षेत्राणां परमं क्षेत्रं मंगलानां च मंगलम् ॥ १ ॥
श्मशानानां च सर्वेषां श्मशानं परमं महत् ॥ पीठानां परमं पीठमूषराणां महोषरम् ॥ २ ॥
धर्माभिलाषिबुद्धीनां धर्मराशिकरं परम् ॥ अर्थार्थिनां शिखिरथ परमार्थ प्रकाशकम् ॥ ३ ॥
कामिनां कामजननं मुमुक्षूणां च मोक्षदम् ॥ श्रूयते यत्र यत्रैतत्तत्र तत्र परामृतम् ॥ ४ ॥
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- महाक्षेत्रों में अविमुक्तक्षेत्र परमनिर्वाणदायक है, क्षेत्रों में यह परमक्षेत्र तथा मंगलों में मंगलरूप है। सभी श्मशानों में से अविमुक्त क्षेत्र ही महत्‌ श्मशान है। सभी ऊषर क्षेत्रों में से परम ऊषर है। हे मयूरवाहन! अविमुक्तक्षेत्र धर्माभिलाषी बुद्धियुक्त व्यक्तियों के लिये, परमधर्माभिलाषी बुद्धि सम्पन्न लोगों के लिये, अर्थकामी के लिये परमार्थप्रद है। यह कामना चाहने वालों के लिये तथा मुमुक्षु लोगों के लिये मुक्तिप्रद है। आपके वचनानुसार जहां-तहां काशी में परममुक्ति मिलती है, यह सुना जाता है।
क्षेत्रैकदेशवर्तिन्या ज्ञानवाप्याः कथां पराम् ॥ श्रुत्वेमामिति मन्येहं गौरीहृदयनंदन ॥ ५ ॥
अणुप्रमाणमपि या मध्ये काशिविकासिनी ॥ मही महीयसी ज्ञेया सा सिद्ध्यै न मुधा क्वचित् ॥ ६ ॥
कियंति संति तीर्थानि नेह क्षोणीतलेऽखिले ॥ परं काशीरजोमात्र तुलासाम्यं क्व तेष्वपि ॥ ७ ॥
हे गौरीहृदयानन्दकर कार्त्तिकेय! अविमुक्त क्षेत्र के एक ओर स्थित ज्ञानवापी की यह परम कथा सुनकर मैंने निश्चय किया है कि काशी की तो अणु प्रमाण भूमि भी सिद्धिप्रदा होती है। वह महीयसी होती है। व्यर्थ भूभाग काशी में कहीं भी नहीं है। इस अखिल पृथिवी में न जाने कितने तीर्थ हैं, लेकिन उन सबकी स्थिति (महत्व) काशी के धूलिकण के भी समान नहीं हैं। सागर का आनन्द बढ़ाने वाली जल प्रदात्री न जाने कितनी नदियां हैं, लेकिन उनमें गंगा के समान कौन है? अतः काशी के समान कौन है?
कियंत्यो न स्रवंत्योत्र रत्नाकर मुदावहाः ॥ परं स्वर्गतरंगिण्याः काश्यां का साम्यमुद्वहेत् ॥ ८ ॥
कियंति संति नो भूम्यां मोक्षक्षेत्राणि षण्मुख ॥ परं मन्येऽविमुक्तस्य कोट्यंशोपि न तेष्वहो ॥ ९ ॥
गंगा विश्वेश्वरः काशी जागर्ति त्रितयं यतः ॥ तत्र नैःश्रेयसी लक्ष्मीर्लभ्यते चित्रमत्र किम् ॥ १० ॥
हे षड़ानन! भूतल पर न जाने कितने क्षेत्र हैं, तथापि वे सब मिलकर भी इस अविमुक्त क्षेत्र के करोड़वें भाग के भी बराबर नहीं है। जहां गंगा, विश्वेश्वर, काशी ये तीन मूर्त्ति जाग्रत हैं, वहां मोक्षलक्ष्मी अवश्य मिलती हैं इसमें क्या आश्चर्य! 

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५७

॥ ईश्वर उवाच ॥
मोदाद्याः पंचविघ्नेशाः षष्ठो ज्ञानविनायकः ॥ सप्तमो द्वारविघ्नेशो महाद्वारपुरश्चरः ॥१३॥
अष्टमः सर्वकष्टौघानविमुक्तविनायकः ॥ अविमुक्ते मम क्षेत्रे हरेत्प्रणतचेतसाम् ॥१४॥
मोदादिपञ्चविनायक - मोद, प्रमोद, दुर्मुख, सुमुख एवं गणनायक हैं। छठें ज्ञानविनायक है। सातवें द्वारविघ्नेश महान द्वार के सामने उपस्थित है। आठवें अविमुक्त विनायक, मेरे पवित्र स्थान अविमुक्त में विनम्र मन वाले लोगों के सभी संकटों को दूर करते हैं।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६१

॥ बिंदुमाधव उवाच ॥
ज्ञानवाप्याः पुरोभागे विद्धि मां ज्ञानमाधवम् ॥ तत्र मां भक्तितोभ्यर्च्य ज्ञानं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ २७ ॥
बिन्दुमाधव ने कहा: ज्ञानवापी के सामने मुझे ज्ञानमाधव के नाम से जानो। वहाँ भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करने से मनुष्य शाश्वत ज्ञान प्राप्त करता है।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०७९

भूमिं भित्त्वा स्वयं जातस्तत्प्रासादमिषेण हि ॥ आनंदाख्यस्य कंदस्य कोप्येष परमोंकुरः ॥५०॥
ब्रह्मादिस्थावरांतानि यत्र रूपण्यनेकशः ॥ मामेवोपासते नित्यं चित्रं चित्रगतान्यपि ॥५१॥
ससौधो मेखिले लोके स्थानं परमनिर्वृतेः ॥ रतिशाला स मे रम्या स मे विश्वासभूमिका ॥५२॥
मम सर्वगतस्यापि प्रासादोयं परास्पदम् ॥
परं ब्रह्म यदाम्नातं परमोपनिषद्गिरा ॥ अमूर्तं तदहं मूर्तो भूयां भक्तकृपावशात् ॥ ५३ ॥
नैःश्रेयस्याः श्रियो धाम तद्याम्यां मंडपोस्ति मे ॥ तत्राहं सततं तिष्ठे तत्सदोमंडपं मम ॥ ५४ ॥
यह आनन्दरूपी मूल का परम अंकुर है जो भूमि का भेदन करके प्रासाद के रूप में स्वयं उत्पन्न हुआ है। क्या आश्चर्य! यहां ब्रह्मा से तृण पर्यन्त नाना रूप होकर चित्र की तरह निश्चलता पूर्वक मेरी ही उपासना करते रहते हैं। समस्त लोकों में यह प्रासाद रूपी निवास ही मेरी परम निर्वृत्ति का स्थान है। यहां मेरी रमणीय रतिशाला है, वह मेरी विश्वास भूमि है। मैं सर्वव्यापक हूं, तब भी यह प्रासाद मेरा उत्तम स्थल है। परम उपनिषद्‌ वाक्य यह है कि जो निराकार परब्रह्म कहा गया है, वह परब्रह्म मैं ही हूं। मैं भक्तों पर कृपा करके आकार (साकाररूप) धारण करता हूं। इस मोक्षलक्ष्मी प्रासाद के दक्षिण की ओर मेरा एक मण्डप है। वहां मैं सतत अवस्थित रहता हूं। वही मेरा सदामण्डप है।
निमेषार्धप्रमाणं च कालं तिष्ठति निश्चलः ॥ तत्र यस्तेन वै योगः समभ्यस्तः समाः शतम् ॥ ५५ ॥
निर्वाणमंडपं नाम तत्स्थानं जगतीतले ॥ तत्रर्चं संजपन्नेकां लभेत्सर्वश्रुतेः फलम् ॥ ५६ ॥
प्राणायामं तु यः कुर्यादप्येकं मुक्तिमंडपे ॥ तेनाष्टांगः समभ्यस्तो योगोऽन्यत्रायुतं समाः ॥ ५७ ॥
निर्वाणमंडपे यस्तु जपेदेकं षडक्षरम् ॥ कोटिरुद्रेण जप्तेन यत्फलं तस्य तद्भवेत् ॥५८॥
स्थिर चित्त से निमेषार्द्ध काल पर्यन्त भी इस मण्डप में अवस्थित होने से वही फल होता है जो सौ वर्ष के योगाभ्यास का फल है। इस मुक्तिमण्डप में जो कोई एक बार भी प्राणायाम करता है, उसे अन्यत्र दस हजार वर्ष पर्यन्त अष्टाङ्ग योग करने का फललाभ होता है। जो व्यक्ति मुक्तिमण्डप में षड़क्षर शिवमन्त्र का जप करता है, वह कोटिरुद्र जपफल लाभ करेगा, यह बात संदेह रहित है।
शुचिर्गंगांभसि स्नातो यो जपेच्छतरुद्रियम् ॥ निर्वाणमंडपे ज्ञेयः स रुद्रो द्विजवेषभृत् ॥ ५९ ॥
ब्रह्मयज्ञसकृत्कृत्वा मम दक्षिणमंडपे ॥ ब्रह्मलोकमवाप्याथ परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ६० ॥
धर्मशास्त्रं पुराणानि सेतिहासानि तत्र यः ॥ पठेन्निरभिलाषुः सन्स वसेन्मम वेश्मनि ॥ ६१ ॥
तिष्ठेदिंद्रियचापल्यं यो निवार्य क्षणं कृती ॥ निर्वाणमंडपेन्यत्र तेन तप्तं महत्तपः ॥ ६२ ॥
वायुभक्षणतोन्यत्र यत्पुण्यं शरदां शतम् ॥ तत्पुण्यं घटिकार्धेन मौनं दक्षिणमंडपे ॥ ६३ ॥
मितं कृष्णलकेनापि योदद्यान्मुक्तिमंडपे ॥ स्वर्णं सौवर्णयानेन स तु संचरते दिवि ॥ ६४ ॥
तत्रैकं जागरं कुर्याद्यस्मिन्कस्मिन्दिनेपि यः ॥ उपोषितोर्चयेल्लिंगं स सर्वव्रतपुण्यभाक् ॥ ६५ ॥
जो मानव गंगाजल में स्नान करके मुक्तिमण्डप में शतरुद्रीय पाठ करता है, वह तो मानो साक्षात्‌ द्विज वेष में शिव ही है। जो मेरे दक्षिणमण्डप में एक बार भी ब्रह्मयज्ञ करेगा, वह व्यक्ति ब्रह्मलोक में पञ्चब्रह्म की प्राप्ति करता है। जो व्यक्ति निष्काम भाव से मुक्तिमण्डप में इतिहास, पुराण तथा धर्मशास्त्र का पाठ करता है, उसको मेरे भवन में निवास प्राप्त होता है। जो कृती व्यक्ति इन्द्रियों की चपलता का निवारण करके क्षणमात्र भी मुक्तिमण्डप में अवस्थान करता है, उसे अन्यत्र की गई कठोर तपस्या का फ़ल मिलता है। अन्यत्र सौ वर्ष वायुभक्षण करने का जो फल होता है, वही फल इस मुक्तिमण्डप में आधी घड़ी तक मौनावलम्बन से प्राप्त हो जाता है। जो व्यक्ति एक कृष्णलक परिमित स्वर्ण का यहां दान करता है, वह स्वर्णमय विमान में बैठकर स्वर्ग में संचरण करता है। जो व्यक्ति वहां एक दिन उपवासी रहकर तथा जागरण करके लिङ्गपूजा करता है, उसे समस्त व्रतों के पुण्यफल की प्राप्ति होती है।
तत्र दत्त्वा महादानं तत्र कृत्वा महाव्रतम् ॥ तत्राधीत्याखिलं वेदं च्यवते न नरो दिवः ॥ ६६ ॥
प्रयाणं कुर्वते यस्य प्राणा मे मुक्तिमंडपे ॥ समामनुप्रविष्टोत्र तिष्ठेद्यावदहं खलु ॥ ६७ ॥
जलक्रीडां सदा कुर्यां ज्ञानवाप्यां सहोमया ॥ यदंबुपानमात्रेण ज्ञानं जायेत निमर्लम् ॥ ६८ ॥
तज्जलक्रीडनस्थानं मम प्रीतिकरं महत् ॥ अमुष्मिन्राजसदने जाड्यहृज्जलपूरितम् ॥ ६९ ॥
तत्प्रासादपुरोभागे मम शृंगारमंडपः ॥ श्रीपीठं तद्धि विज्ञेयं निःश्रीकश्रीसमर्पणम् ॥७०॥
मदर्थं तत्र यो दद्याद्दुकूलानि शुचीन्यहो ॥ माल्यानि सुविचित्राणि यक्षकर्दमवंति च ॥ ७१ ॥
नाना नेपथ्यवस्तूनि पूजोपकरणाऽन्यपि ॥ स श्रियालंकृतस्तिष्ठेद्यत्र कुत्रापि सत्तमः ॥७२॥
निर्वाणलक्ष्मीर्वृणुते तं निर्वाणपदाप्तये ॥ यत्र कुत्रापि निधनं प्राप्नुयादपि स ध्रुवम् ॥ ७३ ॥
मोक्षलक्ष्मीविलासाख्य प्रासादस्योत्तरे मम ॥ ऐश्वर्यमडपं रम्यं तत्रैश्वर्यं ददाम्यहम् ॥ ७४ ॥
मत्प्रासादैंद्रदिग्भागे ज्ञानमंडपमस्ति यत् ॥ ज्ञानं दिशामि सततं तत्र मां ध्यायतां सताम् ॥ ७५ ॥
भवानि राजसदने ममास्ति हि महानसम् ॥ यत्तत्रोपहृतं पुण्यं निर्विशामि मुदैव तत् ॥ ७६ ॥
यहां पर महादान करने वाला, महाव्रती अथवा निखिल वेदाध्ययन करने वाला व्यक्ति कभी स्वर्गच्युत नहीं होता। मुक्तिमण्डप में जिसका प्राण बहिर्गत्‌ होता है, वह यहीं मुझमें लीन हो जाता है। मैं जब तक रहूंगा, तब तक वह अवस्थित रहेगा अर्थात्‌ अनन्त काल तक मुझमें लीन रहेगा। मैं भगवती उमा के साथ सतत्‌ ज्ञानवापी में जलक्रीड़ा करता रहता हूं। इस ज्ञानवापी के जल के पान मात्र से निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति होती है। इस राजभवनस्थ जलक्रीड़ा स्थल में जाडय हरण करने वाला जल भरा रहता है। यह मुझे प्रसन्नता प्रदान करने वाला है। इस प्रासाद के अग्रभाग में मेरा श्रीपीठ नाम का श्रृंगारमंडप है। यह श्रीपीठ श्रीरहित लोगों को भी श्री प्रदान करता है। जो मानव यहां मेरे उद्देश्य से निर्मल वस्त्र, विचित्र माला, यक्ष कर्दम(अंगराग), नाना साज-सज्जा की वस्तु तथा पूजोपकरण प्रदान करता है, वह श्रेष्ठ व्यक्ति चाहे जहां रहे, वहीं पर वह श्रीयुक्त होकर रहता है। उस व्यक्ति की मृत्यु कहीं पर भले ही हो, वहीं पर निर्वाण लक्ष्मी उसका वरण निर्वाणपद प्रदानार्थ कर लेती है। मोक्षलक्ष्मीविलास नामक प्रासाद के उत्तर में मेरा ऐश्वर्यमण्डप नामक रमणीय मण्डप है। वहां मैं ऐश्वर्य प्रदान करता हूं। मेरे प्रासाद के पूर्व की ओर जो ज्ञानमण्डप है, वहां जो मेरा ध्यान करते हैं, मैं उनको ज्ञनोपदेश प्रदान करता हूं। भवानी राजभवन में जो मेरी पाकशाला है, वहां बनी वस्तु का भोजन मैं अत्यन्त आनन्दित होकर करता हूं।
विशालाक्ष्या महासौधे मम विश्रामभूमिका ॥ तत्र संसृतिखिन्नानां विश्रामं श्राणयाम्यहम् ॥ ७७ ॥
नियमस्नानतीर्थं च चक्रपुष्करिणी मम ॥ तत्र स्नानवतां पुंसां तन्नैर्मल्यं दिशाम्यहम् ॥ ७८ ॥
यदाहुः परमं तत्त्वं यदाहुर्ब्रह्मसत्तमम् ॥ स्वसंवेद्यं यदाहुश्च तत्तत्रांते दिशाम्यहम् ॥७९॥
यदाहुस्तारकं ज्ञानं यदाहुरतिनिर्मलम् ॥ स्वात्मारामं यदाहुश्च तत्तत्रांते दिशाम्यहम् ॥ ८० ॥
जगन्मंगलभूर्यात्र परमा मणिकर्णिका ॥ विपाशयामि तत्राहं कर्मभिः पाशितान्पशून् ॥ ८१ ॥
निर्वाणश्राणने यत्र पात्रापात्रं न चिंतये ॥ आनंदकानने तन्मे दानस्थानं दिवानिशम् ॥ ८२ ॥
विशालाक्षी का महान्‌ भवन मेरी विश्रामभूमि है। वहां से मैं संसारतप्त लोगों को विश्राम बांटता हूं। मेरे नियमित स्नान का स्थल है चक्रपुष्करिणी। जो लोग वहां स्नान करते हैं मैं उनको निर्मलत्व प्रदान करता हूं। शास्त्र में जो परमतत्व रूप से कहा गया है, उसमें जो अतिनिर्मल ब्रह्मतत्व कहा गया है, अन्तकाल में मैं वहां उस तत्वोपदेश को देता हूं। जिसे तारकज्ञान कहा गया है, जो अति निर्मल तथा आत्मानन्दरूप है, वहीं मैं उस तत्व का उपदेश देता हूं। जगत्‌ की जो मंगलभूमि यहां स्थिंत है, मैं कर्मबद्ध प्राणीगण को वहां बंधनरहित कर देता हूं। मैं निर्वाण वितरणार्थ पात्र-कुपात्र का विचार नहीं करता। आनन्द कानन में यही मेरा रात-दिन का दानस्थल है।


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EXACT GPS LOCATION : 25.311573121860427, 83.0092554757896

ईशानेश्वर लिङ्ग, बांसफाटक, (पूर्व दीपक सिनेमा) वर्तमान शापुरी परिवार द्वारा बनाई नई बिल्डिंग में स्थित है। जीपीएस लोकेशन का अनुसरण करें।
Ishaneshwar Linga, Bansphatak, (Formerly Deepak Cinema) Presently located in new building constructed by Shapuri family. Follow GPS location.

For the benefit of Kashi residents and devotees : -
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi

काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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