Nakulishwar
नकुलीश्वर या लकुलीश्वर
मूल तीर्थ, काशी में मूल स्थान, पौराणिक विवरण
लकुट ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ लकुट ( = लगुड)] लाठी । छड़ी ।
नकुलीश भगवान शिव के अवतार हैं। हाथ में छोटी छड़ी (लकुटी) धारण किये रहने के कारण इन्हे लकुलीश बोला जाने लगा। भगवान शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, नकुलीश का उल्लेख करती है। इन्होंने पाशुपत शैव धर्म की स्थापना की थी। इनका आविर्भाव बड़ौदा के दभोई ज़िले के कायावरोहण नामक स्थान में हुआ था। माना जाता है कि नकुलीश सम्प्रदाय की लोकप्रियता के साथ-साथ योगीश्वर शिव के स्वरूप का बैठे हुए नकुलीश में रुपान्तरण हो गया। इसमें नकुलीश की दो भुजाएँ, जिनमें एक में लकुट तथा दूसरे में मातुलिंग फल अंकित किया जाता है। भगवान शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, नकुलीश का उल्लेख करती है। मूल तीर्थ यहाँ देखें : CLICK HERE
लकुलीश की पूजा के प्रमुख केन्द्र राजस्थान में 'एकलिंग', उदयपुर; 'बाडोली', कोटा तथा 'चन्द्रभागा', झालरापाटन थे, लेकिन पश्चिमी राजस्थान के कुछ भागों में भी लकुलीश की मूर्तियाँ मिली हैं। बेलार, नाना, छोटन तथा आबू के मन्दिरों में लकुलीश की प्रतिमाएँ गर्भगृह के द्वारों पर उत्कीर्ण प्राप्त होती हैं। नान तथा छोटन से प्राप्त मूर्तियाँ अभिलेख से युक्त हैं, इस कारण ये प्रमाणित करती हैं कि लकुलीश की पूजा इस क्षेत्र में 13वीं शताब्दी तक प्रचलित थी। बाड़ोली के एक ध्वस्त द्वार के सिरदल पर ललाट-बिम्ब के स्थान पर लकुलीश की प्रतिमा अंकित है। इस प्रतिमा में बैठे हुए लकुलीश के दोनों पार्श्वों में भगवान ब्रह्मा एवं विष्णु की मूर्तियाँ हैं। इन मूर्तियों की चार भुजाएँ दिखाई गयीं हैं, लेकिन भुजाओं के अस्त्र-शस्त्र् आदि के निशान नष्ट हो गए हैं।
स्कंदपुराण काशीखण्ड अध्याय ६९ में वर्णित हैं कि अविमुक्त क्षेत्र काशी में, महादेव एवं माता पार्वती के आगमन पश्चात नंदी महादेव से कहते हैं - हे प्रभु! कायारोहण तीर्थ से आचार्य नकुलीश्वर लिंगरूप होकर महापाशुपत व्रतधारी शिष्यों के साथ महादेव के दक्षिण भाग में विराज रहे हैं। वे दर्शन करने से ज्ञान देते हैं एवं शीघ्र ही गर्भ और संसार विषयक अज्ञान का नाश कर देते हैं। गुजरात वडोदरा के निकट कायावरोहण तीर्थ स्थान से आये आचार्य नकुलीश्वर की गणना काशी के एकादश रुद्र एवं सिद्ध अष्ट आयतन यात्रा एवं अन्य यात्रा में की जाती है।
धर्म और ज्ञान की नगरी काशी में धर्मशास्त्र, कर्मकांड, आदिग्रंथों एवं पूजा विधि की विश्व प्रसिद्ध विद्वत संस्थाएं, विद्वान जिनका निर्णय देशपर्यन्त मान्य हैं। परंतु काशी का दुर्भाग्य ही है कि उक्त बड़ी-बड़ी बात करने वाले विद्वान भी काशी में सदियों से शिवभक्तों को रुद्र नकुलीश्वर महादेव के स्थान का मार्ग न बता सके और विश्वनाथ कॉरिडोर निर्माण में नष्ट अक्षयवट की जड़ में विराजमान देव्यानीश्वर लिंग को रुद्र नकुलीश्वर महादेव बताते रहे। स्कंदपुराण काशीखंड में शुक्रेश्वर के उत्तर देव्यानीश्वर लिंग की स्थिति (अक्षयवट के समीप) है।
जो विद्वान भगवान नकुलीश्वर के स्थान को न जान सके क्या वह भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथ) एवं अविमुक्तेश्वर को पहचानने में सक्षम है? इस कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की अवस्था में धर्मग्रंथ ही प्रमाण है। शेष महादेव और माधव ही जानें। ढुंढिराज सहायक हों।
हर हर महादेव! घर घर महादेव! बम बम महादेव! हर हर हर!
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_१००
अन्या यात्रा प्रकर्तव्यैका दशायतनोद्भवा ॥६२*१/२ ॥
आग्नीध्र कुंडे सुस्नातः पश्येदाग्नीध्रमीश्वरम् ॥ उर्वशीशं ततो गच्छेत्ततस्तु नकुलीश्वरम् ॥६३॥
आषाढीशं ततो दृष्ट्वा भारभूतेश्वरं ततः ॥ लांगलीशमथालोक्य ततस्तु त्रिपुरांतकम् ॥ ६४ ॥
ततो मनःप्रकामेशं प्रीतिकेशमथो व्रजेत् ॥ मदालसेश्वरं तस्मात्तिलपर्णेश्वरं ततः ॥ ६५ ॥
यात्रैकादशलिंगानामेषा कार्या प्रयत्नतः॥ इमां यात्रां प्रकुर्वाणो रुद्रत्वं प्राप्नुयान्नरः ॥ ६६॥
॥ कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/चतुश्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः (४४) ॥
॥ तीर्थों का माहात्म्य ॥
॥ सूत उवाच ॥
कायावरोहणं नाम महादेवालयं शुभम् । यत्र माहेश्वरा धर्मा मुनिभिः संप्रवर्त्तिताः ॥ ४४.७॥
श्राद्धं दानं तपो होम उपवासस्तथाऽक्षयः । परित्यजति यः प्राणान् रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ४४.८॥
अन्यच्च तीर्थप्रवरं कन्यातीर्थमिति श्रुतम् । तत्र गत्वा त्यजेत् प्राणाँल्लोकान् प्राप्नोति शाश्वतान् ॥ ४४.९॥
जामदग्न्यस्य तु शुभं रामस्याक्लिष्टकर्मणः । तत्र स्नात्वा तीर्थ वरे गोसहस्रफलं लभेत् ॥४४.१०॥
महाकालमिति ख्यातं तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् । गत्वा प्राणान् परित्यज्य गाणपत्यमवाप्नुयात् ॥ ४४.११॥
गुह्याद् गुह्यतमं तीर्थं नकुलीश्वरमुत्तमम् । तत्र सन्निहितः श्रीमान् भगवान् नकुलीश्वरः ॥४४.१२॥
हिमवच्छिखरे रम्ये गङ्गाद्वारे सुशोभने । देव्या सह महादेवो नित्यं शिष्यैश्च संवृतः ॥४४.१३ ॥
तत्र स्नात्वा महादेवं पूजयित्वा वृषध्वजम् । सर्वपापैर्विमुच्येत मृतस्तज्ज्ञानमाप्नुयात् ॥४४.१४॥
अन्यच्च देवदेवस्य स्थानं पुण्यतमं शुभम् । भीमेश्वरमिति ख्यातं गत्वा मुञ्चति पातकम् ॥४४.१५॥
तथान्यच्चण्डवेगायाः संभेदः पापनाशनः । तत्र स्नात्वा च पीत्वा च मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥४४.१६॥
इसके अतिरिक्त कायावरोहण नाम का महादेव का एक शुभ स्थान (तीर्थ) है, जहाँ मुनियों ने महेश्वर संबन्धी धर्मों का प्रवर्तन किया था। वहाँ किया गया श्राद्ध, दान, तप, होम तथा उपवास अक्षय (फल प्रदान करने वाला) होता है। वहाँ जो प्राण त्याग करता है, वह रुद्रलोक में जाता है। एक दूसरा श्रेष्ठ तीर्थ कन्यातीर्थ नाम से विख्यात है। वहाँ जाकर जो प्राणों का त्याग करता है, वह शाश्वत लोकों को प्राप्त करता है। जमदग्नि के पुत्र अक्लिष्टकर्मा परशुराम का भी एक शुभ तीर्थ है। उस तीर्थ-श्रेष्ठ में स्नान करने से हजार गोदान का फल प्राप्त होता है। एक अन्य महाकाल नाम से विख्यात तीर्थ तोनों लोकों में प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर प्राणों का परित्याग करने से शिवगणों का अधिपत्य पद प्राप्त होता है। श्रेष्ठ नकुलीश्वर तीर्थ गुह्यस्थानों में भी अत्यन्त गुह्य है। वहाँ श्रीमान भगवान् नकुलीश्वर विराजमान रहते हैं। हिमालय के रमणीय शिखर पर स्थित अत्यंत सुन्दर गंगाद्वार नामक तीर्थ है, वहां शिष्यों से घिरे हुए महादेव देवी के साथ नित्य निवास करते हैं। वहाँ स्नानकर वृषभध्वज महादेव की पूजा करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और मृत्यु पश्चात परम ज्ञान प्राप्त करता है। देवाधिदेव (शंकर) का एक दूसरा शुभ तथा पवित्रतम स्थान है जो भीमेश्वर नाम से विख्यात है। वहाँ जाने से व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार चण्डवेगा नदी का संगम भी है, जो पापों का नाश करने वाला है। वहाँ स्नान करने तथा जल का पान करने से मनुष्य ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है।
सर्वेषामपि चैतेषां तीर्थानां परमा पुरी । नाम्ना वाराणसी दिव्या कोटिकोट्ययुताधिका ॥४४.१७॥
तस्याः पुरस्तान्माहात्म्यं भाषितं वो मया त्विह । नान्यत्र लभ्यते मुक्तिं र्योगेनाप्येकजन्मना ॥४४.१८॥
एते प्राधान्यतः प्रोक्ता देशाः पापहरा नृणाम् । गत्वा संक्षालयेत् पापं जन्मान्तरशतैः कृतम् ॥४४.१९॥
यः स्वधर्मान् परित्यज्य तीर्थसेवां करोति हि । न तस्य फलते तीर्थमहि लोके परत्र च ॥४४.२०॥
इन उपर्युक्त सभी तीर्थों में श्रेष्ठ वाराणसी नाम की नगरी अति दिव्य होने से कोटिगुना (करोड़ गुना) अधिक तीर्थों से युक्त है। इस कारण पूर्व में मैंने आप लोगों से वाराणसी माहात्म्य का वर्णन भी किया था। क्योंकि अन्य तोर्थ में योग के द्वारा एक जन्म में मुक्ति नहीं मिलती है। उर्पयुक्त जो मुख्य-मुख्य तीर्थ बताये गये हैं वे सभी मनुष्यों के पापों को हरने वाले हैं। वहाँ जाकर सैकड़ों जन्मों में किये पापों को धो देना चाहिये। परन्तु (यह अच्छी प्रकार जान लें कि) जो अपने धर्मों का परित्याग कर तीर्थों का सेवन करता है, उसके लिये कोई भी तीर्थ, न तो इस लोक में फलदायी होता है, न परलोक में।
॥ कूर्मपुराणम्-पूर्वभागः/त्रिपञ्चाषत्तमोऽध्यायः ५३ ॥
॥ सूत उवाच ॥
वेदव्यासावताराणि द्वापरे कथितानि तु । महादेवावताराणि कलौ श्रृणुत सुव्रताः ॥५३.१॥
आद्ये कलियुगे श्वेतो देवदेवो महाद्युतिः । नाम्ना हिताय विप्राणामभूद् वैवस्वतेऽन्तरे ॥५३.२॥
हिमवच्छिखरे रम्ये सकले पर्वतोत्तमे । तस्य शिष्याः शिखायुक्ता वभूवुरमितप्रभाः ॥५३.३॥
श्वेतः श्वेतशिखश्चैव श्वेतास्यः श्वेतलोहितः । चत्वारस्ते महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥५३.४॥
सुभावो दमनश्चाथ सुहोत्रः कङ्कणस्तथा । लोकाक्षिस्त्वथ योगीन्द्रो जैगीषव्यस्तु सप्तमे ॥५३.५॥
अष्टमे दधिवाहः स्यान्नवमे ऋषभः प्रभुः । भृगुस्तु दशमे प्रोक्तस्तस्मादुग्रः पुरः स्मृतः ॥५३.६॥
द्वादशेऽति समाख्यातो बाली वाथ त्रयोदशे । चतुर्दशे गौतमस्तु वेदद्रर्शी ततः परम् ॥ ५३.७ ॥
सूतजी बोले--सुव्रतों। द्वापरमें (होनेवाले) वेदव्यास के अवतारों कों कहा गया, अब आपलोग कलियुग में होने वाले महादेव के अवतारों को सुनें : - वैवस्त मन्वन्तर के पहले कलियुग में विप्रों के हितार्थ अतितेजस्वी देवाधिदेव (शंकर) श्वेत नाम से पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालय के रमणीय छगल नामक शिखर पर अवतरित हुए। उनके शिष्य शिखायुक्त और अमित प्रभाव वाले हुए। श्वेत, श्वेतशिख, श्वेतास्य तथा श्वेतलोहित - ये चार वेद के पारंगत महात्मा ब्राह्मण (प्रथम कलियुग में) थे। सुभान, दमन, सुहोत्र, कंकण और योगीनद्र लोकाक्षि के रूप में क्रमशः दूसरे से छठे कलियुग तक महादेव का अवतार हुआ तथा (सातवें कलियुग में) जैगीषव्य नाम से महादेव का अवतार हुआ। आठवें में दधिवाह, नवें में प्रभु वृषभ, दसवें में भृगु और उसके आगे (ग्यारहवें कलियुग में) उग्र के रूप में महादेव का अवतार हुआ। बारहवें में अत्रि, तेरहवें में बली, चौदहवें में गौतम और उसके बाद (पंद्रहवें कलियुग में) वेदशीर्षा रूप में महादेव अवतरित हुए।
गोकर्णश्चाभवत् तस्माद् गुहावासः शिखण्डधृक् । जटामाल्यट्टहासश्च दारुको लाङ्गली क्रमात् ॥ ५३.८ ॥
श्वेतस्तथा परः शूली डिण्डी मुण्डी च वै क्रमात् । सहिष्णुः सोमशर्मा च नकुलीशोऽन्तिमे प्रभुः ॥ ५३.९ ॥
वैवस्वतेऽन्तरे शंभोरवतारास्त्रिशूलिनः ।
अष्टाविंशतिराख्याता ह्यन्ते कलियुगे प्रभोः । तीर्थे कार्यावतारे स्याद् देवेशो नकुलीश्वरः ॥
तत्र देवादिदेवस्य चत्वारः सुतपोधनाः । शिष्या बभूवुश्चान्येषां प्रत्येकं मुनिपुंगवाः ॥ ५३.१० ॥
प्रसन्नमनसो दान्ता ऐश्वरीं भक्तिमाश्रिताः । क्रमेण तान् प्रवक्ष्यामि योगिनो योगवित्तमान् ॥ ५३.११ ॥
तदनन्तर क्रमश: गोकर्ण, गुहावास, शिखण्डी, जटामाली, अट्टहास, दारुक, लांगली और इनके बाद श्वेत, शूली, डिण्डी, मुण्डी, सहिष्णु, सोमशर्मा तथा अन्तिम प्रभु नकुलीश के रूप में महादेव का अवतार हुआ।वैवस्त मन्वन्तर में त्रिशूल धारण करने वाले प्रभु शम्भु के अट्ठाईस (२८) अवतार कहे गये हैं। अंतिम कलियुग में कायावतार नामक तीर्थ में देवेश्वर नकुलीश्वर के रूप में महादेव का अवतार होगा। मुनिपुंगवो! उस समय देवों के आदिदेव महादेव के तीव्र तपस्या के धनी चार शिष्य हुए। अन्य अवतारों में भी प्रत्येक के (चार) शिष्य हुए। वे सभी प्रसन्न मन वाले, इन्द्रियनिग्रही और ईश्वर की भक्ति करने वाले थे। उन श्रेष्ठ योग जानने वाले योगियों का मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ।
वायुपुराणम्/पूर्वार्धम्/अध्यायः २३
श्मशावे मृतमुत्सृष्टं दृष्ट्वा लोकमनाथकम्। ब्राह्मणानां हितार्थाय प्रविष्टो योगमायया ॥ २३.२०९ ॥
दिव्यां मेरुगुहां पुण्यां त्वया सार्द्धञ्च विष्णुना। भविष्यामि तदा ब्रह्मन् नकुली नाम नामतः ॥ २३.२१० ॥
कायारोहणमित्येवं सिद्धक्षेत्रञ्च वैतदा। भविष्यति तु विख्यातं यावद्भूमिर्द्धरिष्यति ॥ २३.२११ ॥
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपस्विनः । कुशइकश्चैव गार्ग्यश्च मित्रको रुष्ट एव च ॥ २३.२१२ ॥
योगयुक्ता महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः।
प्राप्य माहेश्वरं योगं विमला ह्यूर्द्ध्वरेतसः। रुद्रलोकं गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥ २३. २१३ ॥
इत्येतद्वै मया प्रोक्तमवतारेषु लक्षणम्।
मन्वादिकृष्णपर्यन्तमष्टाविंशयुगक्रमात्। तत्र स्मृतिसमूहानां विभागो धर्मलक्षणम् ॥ २३.२१४ ॥
मृत अनाथ लोगों को श्मशान में निक्षिप्त होते देखकर ब्राह्मणों के हित के लिये हम योगमाया-बल से आप एवं विष्णु के साथ दिव्य और पवित्र मेरुग्रुहा में प्रविष्ट होंगे। हे ब्रह्मा! उस समय हमारा नाम नकुली होगा। जितने दिनों तक पृथ्वी रहेगी, उतने दिन तक हमारे द्वारा अधिष्ठित स्थान कायारोहण नाम से सिद्धि क्षेत्र होकर विख्यात होगा। वहाँ भी हमें कुशिक, गार्ग्य, मित्रक और रुष्ट नामक चार तपस्वी पुत्र होंगे। ये योगात्मा, महात्मा, ब्राह्मण और वेदपारग होंगें। ये ऊर्ध्वरेता माहेद्वर योग को प्राप्त कर रुद्रलोक जायेंगे, जहाँ से कि पुनरा-वर्तन नहीं होता है। यह हमने मनु से लेकर कृष्ण पर्यन्त क्रम से अठाईसों योग के अवतारों का लक्षण कहा। जिस कल्प में कृष्णद्वैपायन होंगे, उसमें धर्मलक्षण के अनुसार स्मृतियों का विभाग होगा।
स्कन्दपुराण (काशीखण्ड) - अध्यायः ६९
॥ स्कंद उवाच ॥
शृण्वगस्त्य तपोराशे काश्यां लिंगानि यानि वै । सेवितानि नृणां मुक्त्यै भवेयुर्भावितात्मनाम् ॥
कृत्तिप्रावरणं यत्र कृतं देवेन लीलया । रुद्रावास इति ख्यातं तत्स्थानं सर्वसिद्धिदम् ॥
स्थिते तत्रोमया सार्धं स्वेच्छया कृत्तिवाससि । आगत्य नंदी विज्ञप्तिं चक्रे प्रणतिपूर्वकम् ॥
देवदेवेश विश्वेश प्रासादाः सुमनोहराः । सर्वरत्नमया रम्याः साष्टाषष्टिरभूदिह ॥
स्कंद ने कहा: हे अगस्त्य! हे तपोराशे! काशी में सभी लिंगों का वर्णन सुनो, जिनका यदि सहारा लिया जाए, तो यह शुद्ध आत्मा वाले लोगों के उद्धार के लिए सहायक होगा। वह स्थान जहां भगवान ने गजासुर की खाल धारण की थी, वह स्थान रुद्रावास के नाम से प्रसिद्ध है। यह सभी आध्यात्मिक शक्तियाँ (सिद्धियां) प्रदान करता है। जब कृत्तिवास (गज खाल पहने भगवान शिव) ने उमा के साथ स्वेच्छा से वहां निवास किया, तो नंदी वहां आए और प्रणाम प्रणाम कर प्रस्तुत हुए और कहा: “हे देवों के देव महादेव! हे विश्वेश्वर! यहां (वाराणसी में) रत्नों से जड़ित अड़सठ (६८) अत्यंत आकर्षक और मनमोहक प्रासाद उग आये हैं।
भूर्भुवःस्वस्तले यानि शुभान्यायतनानि हि । मुक्तिदान्यपि तानीह मयानीतानि सर्वतः ॥
यतो यच्च समानीतं यत्र यच्च कृतास्पदम् । कथयिष्याम्यहं नाथ क्षणं तदवधार्यताम् ॥
तीनों लोकों भूः, भुवः तथा स्वः में मोक्ष देने में समर्थ जो भी भव्य पवित्र तीर्थ (६८ लिंग आयतन - जो विषेशतः शिवपुराण, लिंगपुराण एवं अन्य पुराणों में भी वर्णित) हैं, वे सब मेरे द्वारा सर्वत्र से यहाँ (वाराणसी में) लाये गये हैं। किनको कहां से लाया गया है, तथा उन्हें किस स्थान पर स्थापित किया गया है, हे प्रभु! मैं उसका वर्णन करूंगा, थोड़े क्षण के लिए श्रवण करें।
कायारोहणतः क्षेत्रादाचार्यो नकुलीश्वरः । शिष्यैः परिवृतस्तिष्ठेन्महापाशुपतव्रतैः ॥
दक्षिणे हि महादेवादृष्टो ज्ञानं प्रयच्छति । अज्ञानं नाशयेत्क्षिप्रं गर्भसंसृतिहेतुकम् ॥
गंगासागरतश्चायादमरेश इतीरितम् । लिंगं यद्दर्शनादेव नामरत्वं हि दुर्लभम् ॥
सप्तगोदावरीतीर्थाद्देवो भीमेश्वरः प्रभुः । प्रकाशते लिंगरूपी भुक्त्यै मुक्त्यै नृणामिह ॥
नकुलीशात्पुरोभागे दृष्टा भीमेश्वरं प्रभुम् । महाभीमानि पापानि प्रणश्यंति हि तत्क्षणात् ॥
आचार्य नकुलीश्वर पवित्र स्थान कायारोहण (गुजरात में बड़ौदा जिला) से आये हैं। वह महान पाशुपत व्रत का पालन करते हुए अपने शिष्यों से घिरे हुए हैं। महादेव के दक्षिण में दर्शन करने पर वह ज्ञान प्रदान करते हैं। वह गर्भाधान और सांसारिक अस्तित्व का कारण बनने वाले अज्ञान को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। अमरेश नामक लिंग गंगासागर से आये हैं। यदि इनके दर्शन कर लिये जायें तो अमरत्व प्राप्त करना कठिन नहीं है। सप्तगोदावरी तीर्थ से भगवान भीमेश्वर सभी मनुष्यों को सुखों का आनंद देने के साथ-साथ मोक्ष प्रदान करने के लिए यहां लिंग के रूप में दीप्तमान हैं। यदि कोई भक्त नकुलीश्वर के सामने (यहाँ पूर्व में) भगवान भीमेश्वर के दर्शन करता है, तो भयानक पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
कृत्यकल्पतरु / काशी रहस्य (ब्रह्मवैवर्तपुराण तृतीय खंड)
द्वाविंशे परिवर्ते तु वाराणस्यां महाव्रते ॥
नाम्ना तु नकुलीशेति तस्मिन् स्थाने स्थितो ह्यहम्। द्रक्ष्यन्ति मां कलौ तस्मिन्नवकीर्णं दिवौकसः ॥
महादेव कहते है- हे महाव्रते! मैं बाईसवें चतुर्युगी में वाराणसी में नकुलीश नाम से उस स्थान में स्थित रहूँगा। देवता लोग कलियुग में उस लिङ्ग में आविर्भूत मेरा दर्शन करेंगे।
अत्र स्थानेऽपि देवेशि मम पुत्रा दिवौकसः। वक्रानिर्मधुपिङ्गश्च श्वेतकेतुस्तथापरः॥
अस्मिन् माहेश्वरं योगं प्राप्य योगगतिं पराम्। नकुलीशाख्यदेवस्य लिङ्गं पूर्वामुखं स्थितम्॥
चतुर्भिः पुरुषैर्युक्तं तल्लिङ्गं तच्च संस्थितम्। तद् दृष्ट्वा मानवो देवि रुद्रस्यैव सलोकताम् ॥
नकुलीशेश्वरं देवं कपिलेश्वरमेव च।
हे देवेशि! इस स्थान पर भी स्वर्ग में निवास करने वाले वक्रानि, मधुपिंग, श्वेतकेतु नाम वाले मेरे पुत्र इस लिङ्ग में माहेश्वर योग प्राप्त करके श्रेष्ठ योगगति को प्राप्त हुए। नकुलीश नामक देव का लिङ्ग पूर्वाभिमुख स्थित है। वह लिङ्ग चार पुरुषों से युक्त होकर स्थित है। हे देवि! नकुलीश्वर और कपिलेश्वर का दर्शन कर मनुष्य रुद्रलोक को प्राप्त करता है।
स्कन्दपुराण (काशीखण्ड) - अध्यायः ५५
लांगलीश्वरमालोक्य लिंगं लांगलिनार्चितम् । विश्वेशादुत्तरेभागे न नरो रोगभाग्भवेत् ॥
लांगलीशं सकृत्पूज्य पंचलांगलदानजम् । फलं प्राप्नोत्यविकलं सर्वसंपत्करं परम् ॥
भगवान स्कंद महर्षि अगस्त्य से कहते हैं - विश्वेशर के उत्तरी भाग में लांगली गण (नकुलीश की तरह ही भगवान शिव का एक अवतार) द्वारा पूजित लंगलीश्वर के दर्शन करने से मनुष्य कभी बीमार नहीं पड़ता। लांगलीश्वर की एक बार भी पूजा करने से पांच हलों के दान का पूरा फल प्राप्त हो जाता है। यह सभी प्रकार की धन-संपदा प्रदान करते हैं।
लांगलीश्वर के समीप ही नकुलीश्वर और कपिलेश्वर (कपिलेश्वर गली से भिन्न) भी हैं। मेरे व्रतधारियों को ये दोनों ही (लिंग) परम रहस्य रूप हैं। नकुलीश्वर के पूर्वभाग में भीमेश्वर प्रभु है।
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नकुलीश्वर महादेव सीके 30 /3 पाचोपांडवा, खोआगली चौक वाराणसी पर स्थित हैं।
Nakulishwar Mahadev is located at CK 30/3 Pachopandwa, Khowa gali Chowk Varanasi.
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥