Anjana Mata Temple (काशी में अंजना माता को समर्पित एकमात्र मंदिर)

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हनुमान जी को गोद में लिए हुए माता अंजना

पुंजिकस्थली देवराज इन्द्र की सभा में एक अप्सरा थी। एक बार जब दुर्वासा ऋषि इन्द्र की सभा में उपस्थित थे, तब अप्सरा पुंजिकस्थली बार-बार भीतर आ-जा रही थी। इससे रुष्ट होकर दुर्वासा ऋषि ने उसे वानरी हो जाने का शाप दे डाला। जब उसने बहुत अनुनय-विनय की, तो उसे इच्छानुसार रूप धारण करने का वर मिल गया। इसके बाद गिरज नामक वानर की पत्नी के गर्भ से इसका जन्म हुआ और 'अंजना' नाम पड़ा। केसरी नाम के वानर से इनका विवाह हुआ और इनके ही गर्भ से वीर हनुमान का जन्म हुआ।

दुर्वासा का शाप : पुंजिकस्थली देवताओं के राजा इंद्र की प्रमुख अप्सराओं में से एक थी। एक दिन महर्षि दुर्वासा स्वर्ग में पधारे। सब के सब महर्षि के सम्मुख शांत खड़े थे, किंतु अप्सरा पुंजिकस्थली किसी कार्य से बार-बार सभा भवन से बाहर आ-जा रही थी। महर्षि को इसमें अपना कुछ निरादर प्रतीत हुआ और उन्होंने उसे शाप दे दिया- 'तू बंदरिया के समान चंचल है, अत: वानरी हो जा। अप्सरा पुंजिकस्थली ने महर्षि से क्षमा मांगी और अपने उद्धार की प्रार्थना की। वहाँ पर उपस्थित अन्य लोगों ने भी महर्षि की वंदना की और उनसे पुंजिकस्थली को क्षमादान देने की प्रार्थना की। अंतत: महर्षि ने शाप का परिहार किया कि- "तू स्वेछारूप धारण कर सकेगी और तीनों लोकों में तेरी गति होगी।"

वानरी रूप में जन्म : बाद के समय में पुंजिकस्थली ने वानर श्रेष्ठ विरज की पत्नी के गर्भ से वानरी रूप में जन्म लिया। बड़ी होने पर पिता ने अपनी सुंदरी शीलवती पुत्री का विवाह महान् पराक्रमी कपि शिरोमणी वानरराज केसरी से कर दिया।एक बार घूमते हुए केसरी प्रभास तीर्थ के निकट पहुँचे। उन्होंने देखा कि बहुत-से ऋषि वहाँ एकत्र हैं। कोई स्नान कर रहा है, कोर्इ तर्पण कर रहा है। कोई सूर्य को को अर्ध्य दे रहा है और कोर्इ जल में खड़े-खड़े जप कर रहा है। कुछ साधु किनारे पर आसन लगाकर पूजा अर्चना कर रहे थे। उसी समय वहाँ एक विशाल हाथी आ गया और उसने ऋषियों को मारना प्रारंभ कर दिया। ऋषि भारद्वाज आसन पर शांत होकर बैठे थे, वह दुष्ट हाथी उनकी ओर झपटा। पास के पर्वत शिखर से केसरी ने हाथी को यूँ उत्पात मचाते देखा तो वे भयंकर गर्जना करते हुए हाथी पर कूद पड़े। ठीक हाथी के उपर ही वे गिरे। बलपूर्वक उसके बड़े-बड़े दांत उन्होंने उखाड़ दिये और उसे मार डाला। हाथी के मारे जाने पर प्रसन्न होकर मुनी ने कहा- "पुत्र वर मांगो"। केसरी ने वरदान माँगा- "इच्छानुसार रूप धारण करने वाला, पवन के समान पराक्रमी तथा रुद्र के समान शत्रु के लिये काल पुत्र आप मुझे प्रदान करें।" ऋषियों ने 'एवमस्तु' कह दिया।

हनुमान की माता : एक दिन अंजना मानव रूप धारण कर सुदर वस्त्रालंकार से सुसज्जित होकर पर्वत के शिखर पर विचरण कर रही थी। वे डूबते हुए सूरज की खूबसूरती को देखकर प्रसन्न हो रहीं थी। सहसा वायु वेग उनके समीप ही बढ़ गया। उनका वस्त्र कुछ उड़-सा गया। उन्होंने चारों तरफ गौर से देखा आस-पास के पृक्षों के पत्ते तक नहीं हिल रहे थे। उनके मन में विचार आया कि कोर्इ राक्षस अदृश्य होकर कोर्इ धृष्टता तो नहीं कर रहा। अत: वे जोर से बोलीं- "कौन दुष्ट मुझ पतिपरायणा का अपमान करने की चेष्टा करता है?" सहसा सामने पवन देव प्रकट हो गये और बोले- "देवी, क्रोध न करें और मुझे क्षमा करें। जगत् का श्वास रूप मैं पवन हूँ। अपके पति को ऋषियों ने मेरे समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया है। उन्हीं महात्माओं के वचनों से विवश होकर मैंने आपके शरीर का स्पर्श किया है। मेरे अंश से आपको एक महातेजस्वी बालक प्राप्त होगा। उन्होंने आगे कहा- "भगवान रुद्र मेरे स्पर्श द्वारा आप में प्रविस्ट हुए हैं। वही आपके पुत्र रूप में प्रकट होंगे।" वानरराज केसरी के क्षेत्र में भगवान रुद्र ने स्वयं अवतार धारण किया। रामदूत हनुमान ने माता अंजना की कोख से जन्म लिया।

शिवपुराणम्/संहिता ३(शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः२०

॥ शिवजी का हनुमान के रूप में अवतार तथा उनके चरित्र का वर्णन ॥

॥ नन्दीश्वर उवाच ॥

अतः परं श्रुणु प्रीत्या हनुमच्चरितम्मुने॥ यथा चकाराशु हरो लीलास्तद्रूपतो वराः ॥१॥

चकार सुहितं प्रीत्या रामस्य परमेश्वराः ॥ तत्सर्वं चरितं विप्र शृणु सर्वसुखावहम् ॥ २ ॥।

एकस्मिन्समये शम्भुरद्भुतोतिकरः प्रभुः ॥ ददर्श मोहिनीरूपं विष्णोस्स हि वसद्गुणः? ॥ ३ ॥

चक्रे स्वं क्षुभितं शम्भुः कामबाणहतो यथा ॥ स्वम्वीर्यम्पातयामास रामकार्यार्थमीश्वरः ॥४॥

तद्वीर्यं स्थापयामासुः पत्रे सप्तर्षयश्च ते ॥ प्रेरिता मनसा तेन रामकार्यार्थमादरात ॥५॥

तैर्गौतमसुतायां तद्वीर्यं शम्भोर्महर्षिभिः॥ कर्णद्वारा तथांजन्यां रामकार्यार्थमाहितम् ॥६॥

ततश्च समये तस्माद्धनूमानिति नामभाक् ॥ शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबलपराक्रमः ॥७॥

हनूमान्स कपीशानः शिशुरेव महाबलः ॥ रविबिम्बं बभक्षाशु ज्ञात्वा लघुफलम्प्रगे ॥८॥

देवप्रार्थनया तं सोऽत्यजज्ज्ञात्वा महाबलम् ॥ शिवावतारं च प्राप वरान्दत्तान्सुरर्षिभिः ॥ ९ ॥

स्वजनन्यन्तिकम्प्रागादथ सोतिप्रहर्षितः ॥ हनूमान्सर्वमाचख्यौ तस्यै तद्वृत्तमादरात् ॥ १० ॥

तदाज्ञया ततो धीरस्सर्वविद्यामयत्नतः ॥ सूर्यात्पपाठ स कपिर्गत्वा नित्यं तदान्तिकम्॥११॥

नन्दीश्वर बोले- हे मुने! अब इसके पश्चात् शिवजीने जिस प्रकार हनुमान्जीके रूपमें अवतार लेकर गोहर लीलाएँ की उम्र हनुमच्चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये। उन परमेश्वरने प्रेमपूर्वक [हनुमद्रूप से ] श्रीराम का परम हित किया, हे विप्र सर्वसुखकारी उस सम्पूर्ण चरित्र का श्रवण कीजिये। एक बार अत्यन्त अद्भुत लीला करने वाले तथा सर्वगुणसम्पन्न उन भगवान् शिव ने विष्णु के मोहिनी रूप को देखा। [उस मोहिनी रूपको देखते ही] कामबाण को आहत की भाँति शम्भु ने अपने को विक्षुब्ध कर दिया और उन ईश्वर ने श्रीराम के कार्य के लिये अपने तेज (वीर्य) का उत्सर्ग कर दिया। शिवजी के मन की प्रेरणा से प्रेरित हुए सप्तर्षियों ने उनके तेज को रामकार्य के लिये आदरपूर्वक पत्ते पर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन महर्षियों ने शम्भु के उस तेज को श्रीराम के कार्य के लिये गौतम की कन्या अंजनी में कान के माध्यम से स्थापित कर दिया। समय आने पर वह शम्भु तेज महान् बल तथा पराक्रम वाला और वानर शरीरवाला होकर हनुमान नाम से प्रकट हुआ। वे महाबलवान् कपीश्वर हनुमान् जब शिशु ही थे, उसी समय प्रातःकाल उदय होते हुए सूर्यबिम्ब को छोटा फल जानकर निगल गये थे। तब देवताओं की प्रार्थना से उन्होंने सूर्य को उगल दिया। उन्हें महाबली शिवावतार जानकर देवताओं तथा ऋषियों के द्वारा प्रदत्त वरों को उन्होंने प्राप्त किया। तत्पश्चात् अत्यन्त प्रसन्न हनुमान्जी अपनी माता के निकट गये और आदरपूर्वक उनसे वह वृतान्त कह सुनाया। इसके बाद माता की आज्ञा से नित्यप्रति सूर्य के पास जाकर धैर्यशाली हनुमान्जी ने बिना यत्न के ही उनसे सारी विद्याएँ पढ़ लीं।

सूर्याज्ञया तदंशत्य सुग्रीवस्यान्तिकं ययौ॥ मातुराज्ञामनुप्राप्य रुद्रांशः कपिसत्तमः ॥१२॥

ज्येष्ठभ्रात्रा वालिना हि स्वस्त्रीभोक्त्रा तिरस्कृतः ॥ ऋष्यमृकगिरौ तेन न्यवसत्स हनूमता ॥ १३ ॥

ततोऽभूत्स सुकण्ठस्य मन्त्री कपिवरस्सुधीः ॥ सर्वथा सुहितं चक्रे सुग्रीवस्य हरांशजः ॥ १४ ॥

तत्रागतेन सभ्रात्रा हृतभार्येण दुःखिना ॥ कारयामास रामेण तस्य सख्यं सुखावहम् ॥१५॥

घातयामास रामश्च वालिनं कपिकुञ्जरम् ॥ भ्रातृपत्न्याश्च भोक्तारं पापिनम्वीरमानिनम् ॥ १६ ॥

ततो रामाऽऽज्ञया तात हनूमान्वानरेश्वरः ॥ स सीतान्वेषणञ्चक्रे बहुभिर्वानरैस्सुधीः ॥ १७ ॥

ज्ञात्वा लङ्कागतां सीतां गतस्तत्र कपीश्वरः ॥ द्रुतमुल्लंघ्य सिंधुन्तमनिस्तीर्य्यं परैस्स वै ॥ १८ ॥

चक्रेऽद्भुतचरित्रं स तत्र विक्रमसंयुतम् ॥ अभिज्ञानन्ददौ प्रीत्या सीतायै स्वप्रभोर्वरम् ॥ १९ ॥

सीताशोकं जहाराशु स वीरः कपिनायकः ॥ श्रावयित्वा रामवृत्तं तत्प्राणावनकारकम् ॥ २० ॥

उसके बाद माता की आज्ञा प्राप्त कर रुद्र के अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमान जी सूर्य की आज्ञा से [प्रेरित हो] सूर्य के अंश से उत्पन्न हुए सुग्रीव के पास गये। वे सुग्रीव अपने ज्येष्ठ भ्राता वालि, जिसने उनकी स्त्री का बलात् हरण कर लिया था, तिरस्कृत हो ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान जी के साथ निवास करने लगे। तब वे सुग्रीव के मन्त्री हो गये। शिवजी के अंश से उत्पन्न परम बुद्धिमान् कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने सब प्रकार से सुग्रीव का हित किया। उन्होंने भाई [लक्ष्मण] के साथ वहाँ आये हुए अपहृत पत्नी वाले दुखी राम के साथ उनकी सुखदायी मित्रता करवायी। रामचन्द्रजी ने भाई की स्त्री के साथ रमण करने वाले, महापापी एवं अपने को वीर मानने वाले कपिराज वालि का वध कर दिया। हे तात! तदनन्तर वे महाबुद्धिमान् वानरेश्वर हनुमान् रामचन्द्रजी की आज्ञा से बहुत से वानरों के साथ सीता की खोज में लग गये। सीता को लंका में विद्यमान जानकर वे कपीश्वर दूसरों के द्वारा न लाँघे जा सकने वाले उस समुद्र को बड़ी शीघ्रता से लाँघकर वहाँ गये। वहाँ उन्होंने पराक्रमयुक्त अद्भुत कार्य किया और जानकी को प्रीतिपूर्वक अपने प्रभु का उत्तम [मुद्रिकारूप] चिह्न प्रदान किया। जानकी के प्राणों की रक्षा करने वाला रामवृत्त सुनाकर उन वीर वानर नायक ने शीघ्र ही उनके शोक को दूर कर दिया।

तदभिज्ञानमादाय निवृत्तो रामसन्निधिम्॥ रावणाऽऽराममाहत्य जघान बहुराक्षसान्॥२१॥

तदेव रावणसुतं हत्वा सबहुराक्षसम् ॥ स महोपद्रवं चक्रे महोतिस्तत्र निर्भयः ॥२२॥

यदा दग्धो रावणेनावगुंठ्य वसनानि च ॥ तैलाभ्यक्तानि सुदृढं महाबलवता मुने ॥२३॥

उत्प्लुत्योत्प्लुत्य च तदा महादेवांशजः कपिः ॥ ददाह लंकां निखिलां कृत्वा व्याजन्तमेव हि ॥२४॥

दग्ध्वा लंकां वंचयित्वा विभीषणगृहं ततः ॥ अपतद्वारिधौ वीरस्ततस्स कपिकुञ्जरः ॥२५॥

स्वपुच्छं तत्र निर्वाप्य प्राप तस्य परन्तटम् ॥ अखिन्नस्स ययौ रामसन्निधिं गिरिशांशजः ॥२६॥

अविलंबेन सुजवो हनूमान् कपिसत्तमः ॥ रामोपकण्ठमागत्य ददौ सीताशिरोमणिम् ॥ २७ ॥

ततस्तदाज्ञया वीरस्सिन्धौ सेतुमबन्धयत् ॥ वानरस्स समानीय बहून्गिरिवरान्बली ॥२८॥

गत्वा तत्र ततो रामस्तर्तुकामो यथा ततः ॥ शिवलिंगं समानर्च प्रतिष्ठाप्य जयेप्सया ॥२९॥

तद्वरात्स जयं प्राप्य वरं तीर्त्वोदधिं ततः ॥ लंकामावृत्य कपिभी रणं चक्रे स राक्षसैः ॥३०॥

उन्होंने रावण की अशोकवाटिका उजाड़कर बहुत से राक्षसों का वध कर दिया; फिर सीता से स्मरणचिह्न लेकर रामचन्द्र के पास लौटने लगे। उस समय महालीला करने वाले उन्होंने अत्यन्त निर्भय होकर रावण के पुत्र तथा अनेक राक्षसों को मारकर वहाँ लंका में महान् उपद्रव किया। हे मुने! जब महाबलशाली रावण ने तैल से सने हुए वस्त्रों को उनकी पूँछ में दृढ़तापूर्वक लपेटकर उसमें आग लगा दी, तब महादेव के अंशसे उत्पन्न हनुमान्जी ने इसी बहाने से कूद-कूदकर समस्त लंका को जला दिया। तदनन्तर वे कपिश्रेष्ठ वीर हनुमान् [केवल ] विभीषण के घर को छोड़कर सारी लंका को जला करके समुद्र में कूद पड़े। वहाँ अपनी पूँछ बुझाकर शिव के अंश से उत्पन्न वे समुद्र के दूसरे किनारे पर आये और प्रसन्न होकर श्रीरामजी के पास गये। सुन्दर वेग वाले कपिश्रेष्ठ हनुमानजी ने शीघ्रतापूर्वक श्रीरामके निकट जाकर उन्हें सीताजी की चूड़ामणि प्रदान की। तत्पश्चात् उनकी आज्ञा से वानरों के साथ उन तथा वीर हनुमानजी ने अनेक विशाल पर्वतों को लाकर समुद्र पर पुल बाँधा। तब पार जाने की कामना वाले श्रीरामचन्द्रजी ने विजय प्राप्त करने की इच्छा से शिवलिंग को यथाविधि प्रतिष्ठित कर तदुपरान्त उसका पूजन किया।तत्पश्चात् उन्होंने पूज्यतम शिवजी से विजय का वरदान प्राप्त करके समुद्र पारकर वानरों के साथ लंका को घेरकर राक्षसों से युद्ध किया।

जघानाथासुरान्वीरो रामसैन्यं ररक्ष सः ॥ शक्तिक्षतं लक्ष्मणं च संजीविन्या ह्यजीवयत् ॥३१॥

सर्वथा सुखिनं चक्रे सरामं लक्ष्मणं हि सः ॥ सर्वसैन्यं ररक्षासौ महादेवात्मजः प्रभुः ॥३२॥

रावणं परिवाराढ्यं नाशयामास विश्रमः ॥ सुखीचकार देवान्स महाबलग्रहः कपि॥३३॥

महीरावणसंज्ञं स हत्वा रामं सलक्ष्मणम् ॥ तत्स्थानादानयामास स्वस्थानम्परिपाल्य च ॥३४ ॥

रामकार्यं चकाराशु सर्वथा कपिपुंगवः ॥ असुरान्नमयामास नानालीलां चकार च ॥ ३५ ॥

उन वीर हनुमान्ने राक्षसों का वध किया, श्रीरामचन्द्रजी की सेना की रक्षा की तथा शक्ति से घायल लक्ष्मण को संजीवनी बूटी के द्वारा पुनः जीवित कर दिया। इस प्रकार महादेव के पुत्र प्रभु उन हनुमानजीने लक्ष्मणसहित श्रीरामजी को सब प्रकारसे सुखी बनाया और सम्पूर्ण सेना की रक्षा की। महान् बल धारण करने वाले उन कपि ने बिना श्रम के परिवार सहित रावण का विनाश किया और देवताओं को सुखी बनाया। उन्होंने महिरावण नामक राक्षस को मारकर लक्ष्मणसहित राम को रक्षा करके उसके स्थान से उन्हें अपने स्थान पर ला दिया। इस प्रकार उन कपिपुंगव ने सब प्रकार से श्रीराम का कार्य शीघ्र ही सम्पन्न किया, असुरों का वध किया एवं नाना प्रकार की लीलाएँ कीं।

स्थापयामास भूलोके रामभक्तिं कपीश्वरः॥ स्वयं भक्तवरो भूत्वा सीतारामसुखप्रदः॥३६॥

लक्ष्मणप्राणदाता च सर्वदेवमदापहः ॥ रुद्रावतारो भगवान्भक्तोद्धारकरस्स वै ॥३७॥

हनुमान्स महावीरो रामकार्यकरस्सदा॥ रामदूताभिधो लोके दैत्यघ्नो भक्तवत्सलः॥३८॥

इति ते कथितं तात हनुमच्चरितम्वरम्॥ धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वकामफलप्रदम्॥३९॥

य इदं शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः॥ स भुक्त्वेहाखिलान्कामानन्ते मोक्षं लभेत्परम् ॥४०॥

सीताराम को सुख देने वाले वानरराज ने स्वयं श्रेष्ठ भक्त होकर भूलोक में रामभक्ति की स्थापना की। वे लक्ष्मणके प्राणों के रक्षक, सभी देवताओं का गर्व चूर करने वाले, रुद्र के अवतार, भगवत्स्वरूप और भक्तों का उद्धार करने वाले थे। वे हनुमानजी महावीर, सदा राम का कार्य सिद्ध करने वाले, लोक में रामदूत के रूप में विख्यात, दैत्यों का संहार करने वाले तथा भक्तवत्सल थे। हे तात! इस प्रकार मैंने हनुमानजी का श्रेष्ठ चरित्र कहा, जो धन, यश, आयु तथा सम्पूर्ण कामनाओं का फल देनेवाला है। जो सावधान होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोक में सभी सुखों को भोगकर अन्त में परम मोक्ष को प्राप्त करता है।

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां हनुमदवतारचरित्रवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥


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अंजना माता मंदिर, अंजना गली, जालपा रोड (बुलानाला) वाराणसी में स्थित हैं।
Anjana Mata Temple is located at Anjana Gali, Jalpa Road (Bulanala), Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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