स्कंद पुराण काशी खंड के अध्याय १६ शुक्र लोक की कथा का वर्णन करता है। परंतु यहां हम शिव महापुराण के संपूर्ण कथा को सम्मिलित करेंगे। स्कंदपुराण काशीखंड के अध्याय १६ में शुक्रलोक तथा शुक्रेश्वर लिंग का वर्णन दिया हुआ है। शुक्रलोक का वर्णन स्कंदपुराण के काशीखंड में दिया है तथा शुक्रेश्वर लिंग स्थापना के पूर्व की स्थिति तथा बाद की स्थिति शिव महापुराण से ही स्पष्ट होती है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः९७
विश्वेशाद्दक्षिणेभागे निकुंभेशः प्रयत्नतः ॥ क्षेत्रक्षेमकरः पूज्यस्तत्पश्चाद्विघ्ननायकः ॥ २२५ ॥
सर्वविघ्नच्छिदभ्यर्च्यश्चतुर्थ्यां तु विशेषतः ॥ विरूपाक्षो निकुंभेशाद्वह्नौ पूज्यः सुसिद्धिदः ॥ २२६ ॥
तद्दक्षिणे च शुक्रेशः पुत्रपौत्रप्रवर्धनः ॥ तदुदीच्यां महालिंगं देवयानीश्वराभिधम्॥ २२७ ॥
शुक्रेशादग्रतः पूज्यः कचेश इति संज्ञितः ॥ शुक्रकूपमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ॥ २२८ ॥
भवानीशौ नमस्यौ च शुक्रेशात्पश्चिमे शुभौ ॥ भक्तपोतप्रदौ तौ तु निजभक्तस्य सर्वदा ॥ २२९ ॥
अलर्केशः समभ्यर्च्यः शुक्रेशात्पूर्वदिक्स्थितः ॥ मदालसेश्वरस्तत्र तत्पूर्वे सर्वविघ्नहृत् ॥ २३० ॥
विश्वेश्वर के दक्षिणी भाग में, पवित्र स्थान की समृद्धि लाने वाले निकुंभ की पूजा की जानी चाहिए। इसके पीछे, सभी बाधाओं के विनाशक, विघ्ननायक की पूजा की जानी चाहिए, खासकर चौथे चंद्र दिवस (चतुर्थी) पर। उत्कृष्ट सिद्धियाँ प्रदान करने वाले विरुपाक्ष की पूजा निकुंभेश्वर से दक्षिण-पूर्व दिशा में की जानी चाहिए। इसके दक्षिण में शुक्रेश्वर है जो पुत्र और पौत्रों की वृद्धि करता है। उसके उत्तर में देवयानीश्वर नामक एक महान लिंग है। शुक्रेश के सामने कचेश्वर नामक देवता हैं। उसकी (विधिपूर्वक) पूजा करनी चाहिए।' शुक्रकूप में स्नान करने से मनुष्य को अश्व-यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है। शुक्रेश्वर के पश्चिम में भवानी और ईशान को प्रणाम करना चाहिए। वे शुभ हैं और वे हमेशा अपने भक्तों को भोजन सामग्री और पोत (संसार के सागर को पार करने के लिए बेड़ा) देते हैं। शुक्रेश्वर की पूर्व दिशा में स्थित अलर्केश्वर की पूजा करनी चाहिए। उसके पूर्व में मदालसेश्वर है। वह सभी बाधाओं को नष्ट करते है।
शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः५(युद्धखण्डः)/अध्यायः४७
॥ शुक्राचार्य द्वारा युद्ध में मरे
हुए दैत्यों को संजीवनी विद्या से जीवित करना, दैत्यों का युद्ध के
लिये पुनः उद्योग, नंदीश्वर द्वारा शिव को यह वृत्तान्त
बतलाना, शिव की आज्ञा से नंदी द्वारा युद्ध-स्थल से
शुक्राचार्य को शिव के पास लाना, शिव द्वारा शुक्राचार्य को
निगलना ॥
॥ व्यास उवाच ॥
तस्मिन्महति संग्रामे दारुणे
लोमहर्षणे ॥ शुक्रो दैत्यपतिर्विद्वान्भक्षितस्त्रिपुरारिणा ॥ १ ॥
इति श्रुतं समासान्मे तत्पुनर्ब्रूहि
विस्तरात॥ किं चकार महायोगी जठरस्थः पिनाकिनः ॥२॥
न ददाह कथं शभोश्शुक्रं तं जठरानलः ॥
कल्पान्तदहनः कालो दीप्ततेजाश्च भार्गवः ॥३॥
विनिष्क्रांतः कथं
धीमाच्छंभोर्जठरपंजरात् ॥ कथमाराधयामास कियत्कालं स भार्गवः ॥४॥
अथ च लब्धवान्विद्यां तां
मृत्युशमनीं पराम् ॥ का सा विद्या परा तात यथा मृत्युर्हि वार्यते ॥५॥
लेभेन्धको गाणपत्यं कथं शूला
द्विनिर्गतः ॥ देवदेवस्य वै शंभोर्मुनेर्लीलाविहारिणः ॥६ ॥
एतत्सर्वमशेषेण महाधीमन् कृपां कुरु ॥
शिवलीलामृतं तात शृण्वत कथयस्व मे ॥७॥
व्यासजी बोले- उस भयानक तथा रोमांच उत्पन्न कर
देने वाले महायुद्ध में भगवान् सदाशिव ने विद्वान् दैत्याचार्य शुक्र को निगल
लिया-यह बात मैंने संक्षेप में सुनी, अब आप उसे विस्तार के साथ कहिये कि शिवजी के
उदर में स्थित महायोगी शुक्राचार्य ने क्या किया, शिवजी की
प्रलयकालीन अग्नि के समान जठराग्नि ने उन शुक्र को जलाया क्यों नहीं? कालरूप बुद्धिमान् तथा तेजस्वी शुक्राचार्य किस प्रकार शिवजी के जठरपंजर से
बाहर निकले, उन शुक्र ने किसलिये तथा कितने समय तक आराधना की,
उन्होंने मृत्यु का शमन करने वाली उस परा विद्या को कैसे प्राप्त
किया और हे तात! वह कौन सी विद्या है, जिससे मृत्यु का
निवारण हो जाता है, देवाधिदेव, लीलाविहारी
भगवान् शंकर के त्रिशूल से छुटकारा पाये हुए अंधक ने किस प्रकार गाणपत्य पद
प्राप्त किया? हे परम बुद्धिमान् तात! कृपा कीजिये और
शिवलीलामृत का पान करने वाले मुझको यह सब विशेष रूपसे बताइये।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा
व्यासस्यामिततेजसः ॥ सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा शिवपदांबुजम् ॥८॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! अमिततेजस्वी
व्यासजी के इस वचन को सुनकर शिवजी के चरणकमल का स्मरण करके सनत्कुमार जी कहने लगे।
सनत्कुमार उवाच ॥
शृणु व्यास महाबुद्धे शिवलीलामृतं
परम् ॥ धन्यस्त्वं शैवमुख्योसि ममानन्दकरः स्वतः ॥ ९ ॥
प्रवर्तमाने समरे शंकरांधकयोस्तयोः ॥
अनिर्भेद्यपविव्यूहगिरिव्यूहाधिनाथयोः॥१०॥
पुरा जयो बभूवापि दैत्यानां
बलशालिनाम्॥ शिवप्रभा वादभवत्प्रमथानां मुने जयः ॥११॥
तच्छुत्वासीद्विषण्णो हि
महादैत्योंधकासुरः॥ कथं स्यान्मे जय इति विचारणपरोऽभवत्॥१२॥
अपसृत्य ततो युद्धादंधकः
परबुद्धिमान् ॥ द्रुतमभ्यगमद्वीर एकलश्शुक्रसन्निधिम् ॥१३॥
प्रणम्य स्वगुरुं काव्यमवरुह्य
रथाच्च सः ॥ बभाषेदं विचार्याथ सांजलिर्नीतिवित्तमः ॥१४॥
सनत्कुमार बोले- हे महाबुद्धिमान्
व्यास! आप मुझसे शिवलीलामृत का श्रवण कीजिये, आप धन्य हैं, शिवजी के
परम भक्त हैं और विशेषकर मुझे तो बहुत आनन्द देने वाले हैं। जिस समय अत्यन्त
दुर्भेद्य वज्रव्यूह के अधिपति भगवान् शंकर एवं गिरिव्यूह के अधिपति अंधक में
घनघोर युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय सर्वप्रथम बलशाली दैत्यों की
विजय हुई और हे मुने। उसके बाद शिवजी के प्रभाव से प्रमथगणों की विजय हुई। यह
सुनकर महान् दैत्य अन्धकासुर अत्यन्त दुःखित हुआ और वह विचार करने लगा कि मेरी
विजय किस प्रकार होगी। इसके बाद परम बुद्धिमान् महावीर यह अंधक संग्राम छोड़कर
शीघ्र ही अकेले शुक्राचार्य के पास गया। परम नीतिज्ञ वह अंधक रथ से उतरकर अपने गुरु
शुक्राचार्य को प्रणाम करके हाथ जोड़कर विचार करके यह कहने लगा-
॥ अंधक उवाच ॥
भगवंस्त्वामुपाश्रित्य गुरोर्भावं
वहामहे ॥ पराजिता भवामो नो सर्वदा जयशालिनः ॥ १५ ॥
त्वत्प्रभावात्सदा
देवान्समस्तान्सानुगान्वयम् ॥ मन्यामहे हरोषेन्द्रमुखानपि हि कत्तृणान् ॥१६॥
अस्मत्तो बिभ्यति सुरास्तदा
भवदनुग्रहात् ॥ गजा इव हरिभ्यश्च तार्क्ष्येभ्य इव पन्नगाः ॥ १७ ॥
अनिर्भेद्यं पविव्यूहं विविशुर्दैत्य
दानवाः ॥ प्रमथानीकमखिलं विधूय त्वदनुग्रहात् ॥ १८ ॥
वयं त्वच्छरणा भूत्वा सदा गा इव
निश्चलाः ॥ स्थित्वा चरामो निश्शंकमाजावपि हि भार्गव ॥ १९ ॥
रक्षरक्षाभितो विप्र प्रव्रज्य
शरणागतान् ॥ असुराञ्छत्रुभिर्वीरैरर्दितांश्च मृतानपि ॥ २० ॥
प्रथमैर्भीमविक्रांतैः
क्रांतान्मृत्युप्रमाथिभिः ॥ सूदितान्पतितान्पश्य हुंडादीन्मद्गणान्वरान् ॥२१ ॥
यः पीत्वा कणधूमं वै सहस्रं शरदां
पुरा ॥ त्वया प्राप्ता वरा विद्या तस्याः कालोयमागतः ॥ २२ ॥
अद्य विद्याफलं तत्ते सर्वे पश्यंतु
भार्गव ॥ प्रमथा असुरान्सर्वान् कृपया जीवयिष्यतः ॥ २३ ॥
अंधक बोला- हे भगवन्! हमलोग आपका
आश्रय लेकर आपको गुरु मानते हैं, सर्वदा विजय पाने वाले हमलोग आज पराजित हो
रहे हैं। [हे देव!] आपके प्रभाव से हमलोग सदैव शंकर, विष्णु आदि देवताओं को तथा उनके अनुचरों को क्षुद्र तृण के समान समझते हैं
और आपके अनुग्रह से सभी देवता हमसे उसी प्रकार डरते रहते हैं, जैसे सिंह से हाथी और गरुडों से सर्प डरते रहते हैं। आपके अनुग्रह से
प्रमथों की सम्पूर्ण सेना को ध्वस्तकर दैत्यों तथा दानवों ने दुर्भेद्य वज्रव्यूह में
प्रवेश किया। हे भार्गव! हमलोग आपकी शरण में रहकर पृथ्वी के
समान सदा अविचल होकर युद्धस्थल में निःशंक विचरण करते हैं। हे विप्र! वीर शत्रुओं से
पीड़ित होकर भागकर शरण में आये हुए असुरों की तथा मृत दैत्यों की भी आप रक्षा
करें। मृत्यु को पराजित करने वाले महापराक्रमी प्रमथगणों से मार खाकर युद्धमें
गिरे हुए उन हुण्ड आदि मेरे गणों को देखिये। आपने पूर्वकाल में सहस्रों
वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूम्र का पानकर जिस संजीवनी विद्या को प्राप्त किया है,
अब उसके उपयोग का समय आ गया है। हे भार्गव! इस समय आप कृपाकर सभी
असुरों को जीवित कर दें, जिससे सभी प्रमथ आपकी इस विद्या के
प्रभाव को देखें।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इत्थमन्धकवाक्यं स श्रुत्वा धीरो हि
भार्गवः ॥ तदा विचारयामास दूयमानेन चेतसा ॥ २४ ॥
किं कर्तव्यं मयाद्यापि क्षेमं मे
स्यात्कथं त्विति ॥ सन्निपातविधिर्जीवः सर्वथानुचितो मम ॥ २५ ॥
विधेयं शंकरात्प्राप्ता तद्गुणान्
प्रति योजये ॥ तद्रणे मर्दितान्वीरः प्रमथैश्शंकरानुगैः ॥ २६ ॥
शरणागतधर्मोथ प्रवरस्सर्वतो हृदा॥
विचार्य शुक्रेण धिया तद्वाणी स्वीकृता तदा ॥ २७ ॥
किंचित्स्मितं तदा कृत्वा सोऽब्रवीद्दानवाधिपम्
॥ भार्गवश्शिवपादाब्जं सप्पा?? स्वस्थेन चेतसा ॥ २८ ॥
सनत्कुमार बोले—इस प्रकार अंधक के
वचनको सुनकर परम धीर ये शुक्राचार्य दुखी मन से विचार करने लगे। मुझे इस समय क्या
करना चाहिये, मेरा कल्याण कैसे हो, इन
मरे हुओं को जिलाने के लिये संजीवनी विद्या का प्रयोग मेरे लिये सर्वथा अनुचित है।
वह विद्या मुझे शंकरजी द्वारा प्राप्त हुई है, अतः इसका
उपयोग शिवजी के अनुचर वीर प्रमथों के द्वारा रण में मारे गये दैत्यों को जीवित
करने के लिये कैसे करूँ। किंतु शरण में आये हुए की रक्षा करना सर्वोपरि धर्म है,
तब हृदय तथा बुद्धि से विचारकर शुक्राचार्य ने उसकी बात अंगीकार कर
ली। इसके बाद शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके कुछ-कुछ हँसकर स्वस्थचित्त हो
शुक्राचार्यने दैत्यराज से कहा-
॥ शुक्र उवाच ॥
यत्त्वया भाषितं तात तत्सर्वं
तथ्यमेव हि ॥ एतद्विद्योपार्जनं हि दानवार्थं कृतं?? मया ॥ २९ ॥
दुस्सहं कणधूमं वै पीत्वा
वर्षसहस्रकम् ॥ विद्येयमीश्वरात्प्राप्ता बंधूनां सुखदा सदा ॥ ३० ॥
प्रमथैर्मथितान्दैत्यान्रणेहं
विद्ययानया ॥ उत्थापयिष्ये म्लानानि शस्यानि जलभुग्यथा॥ ३१ ॥
निर्व्रणान्नीरुजः
स्वस्थान्सुप्त्वेव पुन रुत्थितान् ॥ मुहूर्तेस्मिंश्च द्रष्टासि
दैत्यांस्तानुत्थितान्निजान् ॥ ३२ ॥
शुक्र बोले- हे तात! आपने जो कहा, सब सत्य ही है,
मैंने सचमुच इस विद्या की प्राप्ति दानवों के लिये ही की है। मैंने
सहस्रवर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूम्र को पीकर शिवजी से इस विद्याको प्राप्त किया
था, जो बन्धुगणों को सर्वदा सुख देनेवाली है। मैं इस विद्या के
प्रभाव से संग्राम में देवताओं द्वारा मारे गये इन दैत्यों को उसी प्रकार उठा
दूँगा, जिस प्रकार मुरझायी हुई फसलों को मेघ जीवित कर देता
है। आप अभी इसी क्षण देखेंगे कि ये दैत्य व्रणरहित एवं स्वस्थ होकर सोकर उठे हुए के
समान पुनः जीवित हो गये हैं।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इत्युक्त्वा सोधकं शुक्रो
विद्यामावर्तयत्क विः ॥ एकैकं दैत्यमुद्दिश्य स्मृत्वा विद्येशमादरात् ॥ ३३ ॥
विद्यावर्तनमात्रेण ते सर्वे
दैत्यदानवाः ॥ उत्तस्थुर्युगपद्वीरास्सुप्ता इव धृतायुधाः ॥ ३४ ॥
सदाभ्यस्ता यथा वेदास्समरे वा
यथाम्बुदा ॥ श्रद्धयार्थास्तथा दत्ता ब्राह्मणेभ्यो यथापदि॥ ३५ ॥
उज्जीवितांस्तु तान्दृष्ट्वा
हुंडादींश्च महासुरान् ॥ विनेदुरसुराः सर्वे जलपूर्णा इवांबुदाः ॥ ३६ ॥
रणोद्यताः पुनश्चासन्गर्जंतो
विकटान्रवान् ॥ प्रमथैस्सह निर्भीता महाबलपराक्रमाः ॥ ३७ ॥
शुक्रेणोज्जीवितान्दृष्ट्वा प्रमथा
दैत्यदानवान् ॥ विसिष्मिरे ततस्सर्वे नंद्याद्या युद्धदुर्मदाः ॥ ३८ ॥
विज्ञाप्यमेवं कर्मैतद्देवेशे
शंकरेऽखिलम् ॥ विचार्य बुद्धिमंतश्च ह्येवं तेऽन्योन्यमब्रुवन् ॥३९॥
आश्चर्यरूपे प्रमथेश्वराणां
तस्मिंस्तथा वर्तति युद्धयज्ञे ॥
अमर्षितो भार्गवकर्म दृष्ट्वा
शिलादपुत्रोऽभ्यगमन्महेशम्॥४०॥
जयेति चोक्त्वा जययोनिमुग्रमुवाच
नंदी कनकावदातम् ॥
गणेश्वराणां रणकर्म देव देवैश्च सेन्द्रैरपि
दुष्करं सत् ॥४१॥
तद्भार्गवेणाद्य कृतं वृथा
नस्संजीवतांस्तान्हि मृतान्विपक्षान्॥
आवर्त्य विद्यां मृतजीवदात्रीमेकेकमुद्दिश्य
सहेलमीश ॥४२॥
तुहुंडहुंडादिककुंभजंभविपा
कपाकादिमहासुरेन्द्राः ॥
यमालयादद्य पुनर्निवृत्ता
विद्रावयंतः प्रमथांश्चरंति ॥४३॥
यदि ह्यसौ
दैत्यवरान्निरस्तान्संजीवयेदत्र पुनः पुनस्तान्॥
जयः कुतो नो भविता महेश गणेश्वराणां
कुत एव शांतिः ॥४४॥
सनत्कुमार बोले – अंधक से इस प्रकार
कहकर शुक्राचार्य ने बड़े आदर के साथ शिवजी का स्मरणकर एक एक दैत्य को उद्देश्य
करके संजीवनीविद्या का प्रयोग किया। उस विद्या के प्रयोगमात्र से वे समस्त दैत्य
एवं दानव सोकर जगे हुए के समान शस्त्र
धारण किये हुए एक साथ उसी प्रकार उठ गये, जिस प्रकार निरन्तर
अभ्यस्त वेद, जैसे समय पर मेघ एवं आपत्तिकाल में श्रद्धा से
ब्राह्मणों को दिया गया दान फलदायी हो जाता है। तब हुण्ड आदि असुरों को पुनः जीवित
देखकर सभी दैत्य जलपूर्ण बादल के समान गर्जन करने लगे। तत्पश्चात् विकट ध्वनि करके
गरजते हुए महान् बल तथा पराक्रमवाले वे दैत्य निर्भीक होकर प्रमथगणों के साथ पुनः
युद्ध करने के लिये तैयार हो गये। युद्ध में नंदी आदि सभी प्रमथगण शुक्राचार्य के
द्वारा जीवित किये गये उन दैत्यों तथा दानवों को देखकर अत्यन्त विस्मित हो उठे। इस
सम्पूर्ण कर्म को देखकर 'शंकरजी से निवेदन करना चाहिये' – इस प्रकार विचारकर
वे बुद्धिमान् गण परस्पर कहने लगे। प्रमथेश्वरों के उस आश्चर्यकर युद्धयज्ञ में
शुक्राचार्य के इस प्रकार के कार्य को देखकर शिलादपुत्र नंदीश्वर अमर्षयुक्त हो
शिव के समीप गये और 'जय हो, जय हो'-
इस प्रकार कहकर जय देने वाले एवं कनक के समान निष्कलंक शिवजी से
बोले- हे देव! बुद्धस्थल में इन्द्रसहित देवों एवं गणेश्वरों ने जो अत्यन्त कठिन
कार्य किया है, है ईश! हमारे उन सभी कार्यों को शुक्राचार्य ने
व्यर्थ कर दिया, एक एक राक्षस को उद्देश्य करके मृतसंजीवनी
विद्या का प्रयोगकर युद्ध में मरे हुए उन सारे विपक्षियों को उन्होंने बिना श्रम के
जीवित कर दिया। इस समय यमपुरी से लौटे हुए तुहुण्ड, हुण्ड,
कुम्भ, जम्भ, विपाक,
पाक आदि महादैत्य [युद्धस्थलमें] प्रमथगणों का विनाश करते हुए विचरण
कर रहे हैं। हे महेश यदि मारे गये श्रेष्ठ दैत्यों को शुक्राचार्य इसी प्रकार
जीवित करते रहे, तो हम गणेश्वरों की विजय किस प्रकार सम्भव
है और हमें शान्ति कहाँ?
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इत्येवमुक्तः प्रमथेश्वरेण स नंदिना
वै प्रमथेश्वरेशः ॥
उवाच देवः प्रहसंस्तदानीं तं
नंदिनं सर्वगणेशराजम् ॥ ४५ ॥
सनत्कुमार बोले- प्रमथेश्वर नंदी के
इस प्रकार कहने पर प्रमथेश्वरों के ईश्वर महादेव हँसते हुए सभी गणेश्वरों में
श्रेष्ठ नंदी से कहने लगे।
॥ शिव उवाच ॥
नन्दिन्प्रयाहि त्वरितोऽति मात्रं
द्विजेन्द्रवर्यं दितिनन्दनानाम् ॥
मध्यात्समुद्धृत्य तथा नयाशु श्येनो
यथा लावकमंडजातम् ॥ ४६ ॥
शिवजी बोले – हे नंदी! तुम इसी
क्षण शीघ्रता से जाओ और दैत्यों के मध्य से शुक्राचार्य को इस प्रकार पकड़कर शीघ्र
ले आओ, जिस प्रकार बाज लवा पक्षी के बच्चे को पकड़ लेता है।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
स एवमुक्तो वृषभध्वजेन ननाद नंदी
वृषसिंहनादः ॥
जगाम तूर्णं च विगाह्य सेनां
यत्राभवद्भार्गववंशदीपः ॥ ४७ ॥
तं रक्ष्यमाणं दितिजैस्समस्तैः
पाशासिवृक्षोपलशैलहस्तैः ॥
विक्षोभ्य दैत्यान्बलवाञ्जहार काव्यं
स नंदी शरभो यथेभम् ॥४८॥
स्रस्तांबरं विच्युतभूषणं च
विमुक्तकेशं बलिना गृहीतम् ॥
विमोचयिष्यंत इवानुजग्मुः सुरारयस्सिंहरवांस्त्यजंतः
॥ ४९ ॥
दंभोलि
शूलासिपरश्वधानामुद्दंडचक्रोपलकंपनानाम् ॥
नंदीश्वरस्योपरि दानवेन्द्रा वर्षं
ववर्षुर्जलदा इवोग्रम् ॥ ५० ॥
तं भार्गवं प्राप्य गणाधिराजो
मुखाग्निना शस्त्रशतानि दग्ध्वा ॥
आयात्प्रवृद्धेऽसुरदेवयुद्धे भवस्य
पार्श्वे व्यथितारिपक्षः ॥ ५१ ॥
अयं स शुक्रो भगवन्नितीदं निवेदयामास
भवाय शीघ्रम् ॥
जग्राह शुक्रं स च देवदेवो यथोपहारं
शुचिना प्रदत्तम् ॥ ५२ ॥
न किंचिदुक्त्वा स हि भूतगोप्ता
चिक्षेप वक्त्रे फलवत्कवीन्द्रम् ॥
हाहारवस्तैरसुरैस्समस्तैरुच्चैर्विमुक्तो
हहहेति भूरि ॥ ५३ ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजी के द्वारा इस
प्रकार कहे जाने पर नंदी सिंह के समान गर्जना करते हुए दैत्यों की सेना को चीरते
हुए उस स्थान पर पहुँच गये,
जहाँ भार्गववंश के दीपक शुक्राचार्य थे। बड़े-बड़े दैत्य पाश,
खड्ग, वृक्ष, पाषाण,
पर्वत आदि शस्त्र हाथमें लेकर उनकी रक्षा कर रहे थे। बलवान् नंदीश्वर
ने दैत्यों को विक्षुब्ध करके शुक्राचार्य को इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार शरभ हाथी को पकड़ लेता है। तब ढीले वस्त्रवाले, बिखरे केशवाले एवं गिरते हुए आभूषणों वाले शुक्राचार्य को छुड़ाने के लिये
अनेक राक्षस सिंहनाद करते हुए उनके पीछे दौड़े। दैत्येन्द्र नंदीश्वरपर मेघ के
समान वज्र, शूल, तलवार, परशु, तीक्ष्ण चक्र, पाषाण एवं
कम्पन आदि नाना प्रकारके शस्त्रों की घोर वर्षा करने लगे। गणाधिराज नंदीश्वर उन
सभी शस्त्रों को अपने मुख की अग्नि से भस्म करके उस महाभयानक युद्धस्थल में
शत्रुपक्ष को पीड़ित करके शुक्राचार्य को लेकर शिवजी के पास चले आये और शिवजी से
यह कहने लगे-हे भगवन्! यह वही शुक्र है। तब देवदेव शिवजी ने देवगणों के लिये अग्नि
के द्वारा दी गयी आहुति के समान शुक्राचार्य को ग्रहण कर लिया। प्राणियों की रक्षा
करनेवाले उन सदाशिव ने बिना कुछ बोले उन शुक्राचार्य को फल के समान अपने मुखमें रख
लिया, जिससे वे समस्त असुर ऊँचे स्वरमें महान् हाहाकार करने
लगे।
इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखंडे अंधकयुद्धे शुक्रनिगीर्णनवर्णनं नाम
सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥
शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः५(युद्धखण्डः)/अध्यायः४८
॥ शुक्राचार्य की अनुपस्थिति से
अन्धकादि दैत्यों का दुखी होना, शिव के उदर में शुक्राचार्य द्वारा सभी लोकों
तथा अन्धकासुर के युद्ध को देखना और फिर भार्गव के शुक्र रूप में बाहर निकलना,
शिव-पार्वती का उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर विदा करना ॥
॥ व्यास उवाच ॥
शुक्रे निगीर्णे रुद्रेण
किमकार्षुश्च दानवाः ॥ अंधकेशा महावीरा वद तत्त्वं महामुने ॥ १ ॥
व्यासजी बोले- हे महामुने! रुद्रके
द्वारा शुक्राचार्य के निगल लिये जाने पर महावीर उन अन्धकादि दैत्यों ने क्या किया? आप उसे कहिये।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
काव्ये निगीर्णे गिरिजेश्वरेण दैत्या
जयाशारहिता बभूवुः ॥
हस्तैर्विमुक्ता इव वारणेन्द्राः
शृंगैर्विहीना इव गोवृषाश्च ॥२॥
शिरो विहीना इव देवसंघा द्विजा यथा
चाध्ययनेन हीनाः ॥
निरुद्यमास्सत्त्वगणा यथा वै
यथोद्यमा भाग्यविवर्जिताश्च ॥ ३ ॥
पत्या विहीनाश्च यथैव योषा यथा
विपक्षाः खलु मार्गणौघाः ॥
आयूंषि हीनानि यथैव
पुण्यैर्व्रतैर्विहीनानि यथा श्रुतानि ॥४॥
विना यथा वैभवशक्तिमेकां भवंति
हीनास्स्वफलैः क्रियौघाः ॥
यथा विशूराः खलु क्षत्रियाश्च सत्यं
विना धर्मगणो यथैव ॥ ५ ॥
नन्दिना चा हृते शुक्रे गिलिते च
विषादिना ॥ विषादमगमन्दैत्या यतमानरणोत्सवाः ॥ ६ ॥
तान् वीक्ष्य विगतोत्साहानंधकः
प्रत्यभाषत ॥ दैत्यांस्तुहुंडाहुंडदीन्महाधीरपराक्रमः ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजी के द्वारा
शुक्राचार्य के निगल लिये जाने पर दैत्य उसी प्रकार विजयकी आशा से रहित हो गये, जैसे सूँड़ से रहित
हाथी, सींग से रहित वृषभ, सिरविहीन
देहसमुदाय, अध्ययन से हीन द्विज, उद्यमरहित
सामर्थ्यशाली, भाग्य से रहित उद्यम, पतिविहीन
स्त्री, पंख से रहित पक्षी, पुण्यरहित
आयु, व्रतविहीन शास्त्रज्ञान, शूरता से
रहित क्षत्रिय, सत्य से रहित धर्म और एकमात्र वैभवशक्ति के
बिना समस्त क्रियाएँ अपने फलों से रहित हो जाती हैं। नंदी के द्वारा शुक्राचार्य के
हरण कर लिये जाने एवं शिवजी के द्वारा उन्हें निगल लिये जाने पर युद्ध के लिये
प्रयत्नशील होते हुए भी सभी दैत्य दुःख को प्राप्त हुए। उन्हें उत्साहरहित देखकर
महान् धैर्य तथा पराक्रम से युक्त अंधक ने हुण्ड, हुण्ड आदि
दैत्यों इस प्रकार कहा-
॥ अंधक उवाच ॥
कविं विक्रम्य नयता नन्दिना वंचिता
वयम् ॥ तनूर्विना कृताः प्राणास्सर्वेषामद्य नो ननु ॥ ८ ॥
धैर्यं वीर्यं गतिः कीर्तिस्सत्त्वं
तेजः पराक्रमः ॥ युगपन्नो हृतं सर्वमेकस्मिन् भार्गवे हृते ॥ ९ ॥
धिगस्मान् कुलपूज्यो यैरेकोपि
कुलसत्तमः॥ गुरुस्सर्वसमर्थश्च त्राता त्रातो न चापदि॥१०॥
तद्यूयमविलंब्येह युध्यध्वमरिभिस्सह॥
वीरैस्तैः प्रमथैवीराः स्मृत्वा गुरुपदांबुजम् ॥११॥
गुरोः काव्यस्य सुखदौ स्मृत्वा
चरणपंकजौ ॥ सूदयिष्याम्यहं सर्वान् प्रमथान् सह नन्दिना ॥१२॥
अद्यैतान् विवशान् हत्वा
सहदेवैस्सवासवैः ॥ भार्गवं मोचयिष्यामि जीवं योगीव कर्मतः ॥ १३ ॥
स चापि योगी योगेन यदि नाम स्वयं
प्रभुः ॥ शरीरात्तस्य निर्गच्छेदस्माकं शेषपालिता ॥१४॥
अंधक बोला- अपने पराक्रम से
शुक्राचार्य को पकड़कर ले जाते हुए इस नंदी ने हमलोगों को धोखा दिया है, उसने निश्चय ही
हमलोगों को बिना प्राण के कर दिया है। केवल एक शुक्राचार्य के हरण कर लिये जाने से
हमलोगों का धैर्य, ओज, कीर्ति, बल, तेज और पराक्रम एक साथ ही नष्ट हो गया। हमलोगों को
धिक्कार है, जो कि हम कुलपूज्य, परम
कुलीन, सर्वसमर्थ, रक्षक एवं गुरुकी इस
आपत्ति में रक्षा न कर सके। अतः तुम सब वीर गुरु के चरणकमलों का स्मरण करके बिना
विलम्ब किये ही उन वीर शत्रु प्रमथगणोंक साथ युद्ध करो। गुरु शुक्राचार्य के सुखद
चरणकमलों का स्मरणकर मैं नंदी सहित सभी प्रमथों को नष्ट कर दूँगा। आज मैं
इन्द्रसहित देवताओं के साथ इन प्रमथगणों को मारकर इन्हें विवशकर शुक्राचार्य को इस
प्रकार छुड़ाऊँगा, जिस प्रकार योगी कर्म से जीव को छुड़ा
देता है। यद्यपि ऐसा भी सम्भव है कि हमलोगों में से शेष का पालन करने वाले महायोगी
प्रभु शुक्र स्वयं योगबल से शिवजी के शरीर से निकल जायें।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इत्यन्धकवचः श्रुत्वा दानवा
मेघनिस्स्वनाः ॥ प्रमथान् निर्दयाः प्राहुर्मर्तव्ये कृतनिश्चयाः ॥ १५॥
सत्यायुषि न नो जातु शक्तास्स्युः
प्रमथा बलात् ॥ असत्यायुपि किं गत्वा त्यक्त्वा स्वामिनमाहवे ॥१६॥
ये स्वामिनं विहायातो बहुमानधना जनाः
॥ यांति ते यांति नियतमंधतामिस्रमालयम् ॥ १७ ॥
अयशस्तमसा ख्यातिं मलिनीकृत्य भूरिशः
॥ इहामुत्रापि सुखिनो न स्युर्भग्ना रणाजिरे ॥ १८ ॥
किं दानै किं तपोभिश्च किं
तीर्थपरिमज्जनैः ॥ धारातीर्थे यदि स्नानं पुनर्भवमलापहे ॥१९॥
संप्रथार्येति तद्वाक्यं दैत्यास्ते
दनुजास्तथा ॥ ममंथुः प्रमथानाजौ रणभेरीं निनाद्य च ॥ २० ॥
तत्र बाणासिवज्रौघैः कठिनैश्च
शिलामयैः ॥ भुशुण्डिभिंदिपालैश्च शक्ति भल्लपरश्वधैः ॥२१॥
खट्वांगैः
पट्टिशैश्शूलैर्लकुटैर्मुसलैरलम् ॥ परस्परमभिघ्नंतः प्रचक्रुः कदनं महत्॥२२॥
कार्मुकाणां विकृष्टानां पततां च
पतत्त्रिणाम् ॥ भिंदिपालभुशुंडीनां क्ष्वेडितानां रवोऽभवत् ॥२३॥
रणतूर्य्यनिनादैश्च गजानां
बहुबृंहितैः ॥ हेषारवैर्हयानां च महान्कोलाहलोऽभवत् ॥२४॥
अस्तिस्वनैरवापूरि
द्यावाभूम्योर्यदंतरम् ॥ अभीरूणां च भीरूणां महारोमोद्गमोऽभवत् ॥२५॥
गजवाजिमहारावस्फुटशब्दग्रहाणि च ॥
भग्नध्वजपताकानि क्षीणप्रहरणानि च ॥२६॥
रुधिरोद्गारचित्राणि
व्यश्वहस्तिरथानि च ॥ पिपासितानि सैन्यानि मुमूर्च्छुरुभयत्र वै ॥२७॥
अथ ते प्रमथा वीरा नंदिप्रभृतयस्तदा ॥
बलेन जघ्नुरसुरान्सर्वान्प्रापुर्जयं मुने ॥२८॥
दृष्ट्वा सैन्यं च
प्रमथेर्भज्यमानमितस्ततः ॥ दुद्राव रथमास्थाय स्वयमेवांधको गणान् ॥ २९ ॥
शरावारप्रयुक्तैस्तैर्वज्रपातैर्नगा
इव ॥ प्रमथा नेशिरे चास्त्रैर्निस्तोया इव तोयदाः ॥३०॥
यांतमायांतमालोक्य दूरस्थं
निकटस्थितम् ॥ प्रत्येकं रोमसंख्याभिर्विव्याधेषुभिरन्धकः ॥३१॥
दृष्ट्वा सैन्यं भज्यमानमंधकेन
बलीयसा ॥ स्कंदो विनायको नंदी सोमनंद्यादयः परे ॥३२॥
प्रमथा प्रबला वीराश्शंकरस्य गणा
निजाः ॥ चुक्रुधुस्समरं चक्रुर्विचित्रं च महाबलाः ॥ ३३ ॥
विनायकेन स्कंदेन नंदिना सोमनंदिना ॥
वीरेण नैगमेयेन वैशाखेन बलीयसा॥३४॥
इत्याद्यैस्तु
गणैरुग्रैरंधकोप्यधकीकृतः॥ त्रिशूलशक्तिबाणौघधारासंपातपातिभिः ॥ ३५ ॥
ततः कोलाहलो जातः प्रमथासुरसैन्ययोः॥
तेन शब्देन महता शुक्रश्शंभूदरे स्थ्ग्तिः॥३६॥
छिद्रान्वेषी भ्रमन्सोथ विनिकेतो
यथानिलः॥ सप्तलोकान्सपातालान्रुद्रदेहे व्यलोकयत् ॥ ३७ ॥
ब्रह्मनारायणेन्द्राणां
सादित्याप्सरसां तथा ॥ भुवनानि विचित्राणि युद्धं च प्रमथासुरम् ॥३८॥
स वर्षाणां शतं कुक्षौ भवस्य परितो
भ्रमन् ॥ न तस्य ददृशे रन्ध्रं शुचे रंध्रं खलो यथा ॥ ३९ ॥
शांभवेनाथ योगेन शुक्ररूपेण भार्गवः ॥
इमं मंत्रवरं जप्त्वा शंभोर्जठरपंजरात् ॥ ४० ॥
निष्क्रांतं लिंगमार्गेण प्रणनाम
ततश्शिवम् ॥ गौर्य्या गृहीतः पुत्रार्थं तदविघ्नेश्वरीकृतः ॥ ४१ ॥
अथ काव्यं विनिष्क्रातं शुक्रमार्गेण
भार्गवम् ॥ दृष्ट्वोवाच महेशानो विहस्य करुणानिधिः ॥ ४२ ॥
सनत्कुमार बोले- अंधककी यह बात सुनकर
मेघ के समान गर्जना करने वाले निर्दय दैत्य मरने का निश्चय कर प्रमथगणों से कहने
लगे। आयु के शेष रहने पर प्रमथगण हमें बलपूर्वक जीत नहीं सकते, किंतु यदि आयु
समाप्त हो गयी है, तो स्वामी को युद्धभूमि में छोड़कर भागने से
क्या लाभ है? अत्यन्त अहंकारी जो लोग अपने स्वामी को छोड़कर
चले जाते हैं, वे निश्चय ही अन्धतामिस नरक मे गिरते हैं।
युद्धभूमि से भागने वाले अपयशरूपी अन्धकार से अपनी ख्याति को अत्यधिक मलिन करके इस
लोक एवं परलोकमें सुखी नहीं रहते हैं। पुनर्जन्यरूपी मल का नाश करने वाले धरातीर्थ
युद्धतीर्थ में यदि मनुष्य स्नान कर लेता है, तो दान,
तप एवं तीर्थस्नान से क्या लाभ? इस प्रकार उन
वाक्यों पर विचारकर दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर प्रमथगणों को युद्धभूमि में
पीड़ित करने लगे। युद्ध में उन्होंने बाण, खड्ग वज्र,
भयंकर शिलीमुख, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाला,
परशु खट्वांग पट्टिश, त्रिशूल, दण्ड एवं मुसलों परस्पर प्रहार करते हुए घोर संहार किया। उस समय खींचे
जाते हुए धनुष, छोड़े जाते हुए बानों, चलाये
जाते हुए भिन्दिपालों एवं भुशुण्डियों का शब्द हो रहा था। रणकी तुरहियों के
निनादों, हाथियों की चिंघाड़ों तथा घोड़ों की हिनहिनाहटों से
सर्वत्र महान् कोलाहल मच गया। भूमि तथा आकाश के मध्य गूँजे हुए शब्दों से साहसी
तथा कायर सभी को बहुत रोमांच होने लगा। वहाँ हाथी, घोड़ों की
घोर ध्वनि से स्पष्ट शब्द हो रहे थे, जिनसे ध्वज एवं पताकाएँ
टूट गयीं तथा शस्त्र नष्ट हो गये। खून की धारा से रणस्थली अद्भुत हो गयी, हाथी, घोड़े एवं रथ नष्ट हो गये और युद्ध की पिपासा
रखने वाली दोनों ओर की सेनाएँ मूर्च्छित हो गयीं। हे मुने!
उसके बाद नंदी आदि प्रमथगणों ने अपने बल से सभी दैत्यों को मारा और विजय प्राप्त
की। इस प्रकार प्रमथों के द्वारा अपनी सेना को विनष्ट होता हुआ देखकर स्वयं अंधक
रथ पर आरूढ़ हो शिवगणों पर झपट पड़ा। अंधक के द्वारा प्रयुक्त किये गये बाणों तथा
अस्त्रों से प्रमथगण इस प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार
वज्रप्रहार से पर्वत एवं पवन से जलरहित मेघ नष्ट हो जाते हैं। अंधक ने
आने-जानेवाले, दूरस्थ एवं निकटस्थ एक-एक गण को देखकर असंख्य
बाणों से उन्हें विद्ध कर दिया। तब बलवान् अंधक के द्वारा नाश को प्राप्त होती हुई
अपनी सेना को देखकर स्वामीकार्तिकेय, गणेश, नंदीश्वर, सोमनंदी आदि एवं दूसरे भी शिवजी के वीर
प्रमथ तथा महाबली गण उठे और क्रुद्ध हो युद्ध करने लगे। उस समय गणेश, स्कन्द, नंदी, सोमनंदी,
नैगमेय एवं वैशाख आदि उग्र गणों ने त्रिशूल, शक्ति
तथा बाणों की वर्षा से अंधक को भी अन्धा कर दिया। उस समय असुरों और प्रमाथगणों की
सेनाओ कोलाहल होने लगा। उस महान् शब्द के द्वारा शिवजी के उदरमें स्थित हुए शुक्र
अपने निकलनेवा रास्ता खोजते हुए शिवजी के उदरमें चारों ओर इस प्रकार घूमने लगे,
जिस प्रकार आधार रहित पवन इधर-उधर भटकता है। उन्होंने शिवजी के देह में
सप्त पातालसहित सात लोकों को एवं ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य तथा अप्सराओं के विचित्र भुवन तथा
प्रमथों एवं असुरोंके युद्ध को देखा। उन शुक्र ने शिवजी के उदर में चारों ओर वर्षपर्यन्त
घूमते हुए भी कहीं कोई छिद्र वैसे ही नहीं प्राप्त किया, जैसे
दुष्ट व्यक्ति पवित्र व्यक्तिमें कोई छिद्र नहीं देख पाता। तब शिवजी से प्राप्त
किये गये योग से श्रेष्ठ मंत्र का जप करके भृगुकुलोत्पन्न वे शुक्राचार्य शिवजी के
उदरसे उनके लिंगमार्ग से शुक्र (वीर्य) रूप से निकले और उन्होंने शिवजी को प्रणाम
किया। इसके बाद पार्वती ने पुत्ररूप से उन्हें ग्रहण किया और उन्हें विघ्नरहित कर
दिया। तब लिंग से वीर्यरूप में निकले हुए शुक्र को देखकर दयासागर शिवजी हँसकर उनसे
कहने लगे –
॥ महेश्वर उवाच ॥
शुक्रवन्निस्सृतो यस्माल्लिंगान्मे
भृगुनन्दन ॥ कर्मणा तेन शुक्लत्वं मम पुत्रोसि गम्यताम् ॥ ४३ ॥
महेश्वर बोले- हे भृगुनन्दन! आप मेरे लिंग से वीर्यरूप
में निकले हैं, इस कारण आपका नाम शुक्र हुआ और आप मेरे पुत्र
हुए, अब जाइये।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इत्येवमुक्तो देवेन
शुक्रोर्कसदृशद्युतिः ॥ प्रणनाम शिवं भूयस्तुष्टाव विहितांजलिः ॥ ४४ ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजी के द्वारा इस
प्रकार कहे जाने पर सूर्य के समान कान्तिमान् शुक्र ने शिव को पुनः प्रणाम किया और
हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।
॥ शुक्र उवाच ॥
अनंतपादस्त्वमनंतमूर्तिरनंतमूर्द्धांतकरश्शिवश्च
॥
अनंतबाहुः कथमीदृशं त्वां स्तोष्ये ह
नुत्यं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ४५ ॥
त्वमष्टमूर्तिस्त्वमनंतमूर्तिस्त्वमिष्टदस्सर्वसुरासुराणाम्
॥
अनिष्टदृष्टश्च विमर्दकश्च स्तोष्ये
ह नुत्यं कथमीदृशं त्वाम् ॥ ४६ ॥
शुक्र बोले- आप अनन्त चरणवाले, अनन्त मूर्तिवाले,
अनन्त सिरवाले, अन्त करनेवाले, कल्याण स्वरूप, अनन्त बाहुवाले तथा अनन्त स्वरूपवाले
हैं, इस प्रकार सिर झुकाकर प्रणाम करनेयोग्य आपकी स्तुति में
कैसे करूँ आप अष्टमूर्ति होते हुए भी अनन्तमूर्ति हैं, आप
सभी देवताओं तथा असुरों को वांछित फल देने वाले तथा अनिष्ट दृष्टिवाले का संहार
करनेवाले हैं, इस प्रकार सर्वथा प्रणाम किये जानेयोग्य आपकी
स्तुति मैं किस प्रकार करूँ।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इति स्तुत्वा शिवं शुक्रः पुनर्नत्वा
शिवाज्ञया ॥ विवेश दानवानीकं मेघमालां यथा शशी ॥ ४७ ॥
निगीर्णनमिति प्रोक्तं शंकरेण कवे
रणे ॥ शृणु मंत्रं च तं जप्तो यश्शंभोः कविनोदरे ॥ ४८ ॥
सनत्कुमार 'बोले- -इस प्रकार शिव
की स्तुतिकर उन्हें पुनः नमस्कार करके शुक्र ने शिव की आज्ञा से दानवों की सेना में
इस प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार मेघमाला में चन्द्रमा
प्रवेश करता है। [हे व्यासजी!] इस प्रकार मैंने युद्ध में
शिवजी के द्वारा शुक्र के निगल जानेका वर्णन किया, अब उस मंत्रको
सुनिये, जिसे शिवजी के उदर में शुक्र ने जपा था।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्र संहितायां पञ्चमे युद्धखंडे शुक्रनिगीर्णनं
नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायःधकयुद्धे शुक्रनिगीर्णनवर्णनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४८॥
शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः५(युद्धखण्डः)/अध्यायः४९
॥ शुक्राचार्य द्वारा शिव के उदर में
जपे गये मंत्र का वर्णन, अंधक द्वारा भगवान् शिव की नामरूपी स्तुति
प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुर को जीवनदान पूर्वक
गाणपत्य पद प्रदान करना ॥
शुक्राचार्य ने भगवान् शिव के उदर में
जिस मंत्र का जप किया था,
उस मंत्र का भावार्थ इस प्रकार है-
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुरनम स्कृताय
भूतभव्यमहादेवाय हरितपिगललोचनाय बलाय बुद्धिरूपिणे वैयाघ्रवसनच्छदायारणेयाय
त्रैलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरितनेत्राय युगान्तकरणायानलायगणेशायलोकपालाय
महाभुजायमहाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रिणे कालाय महेश्वरायअव्ययाय कालरूपिणे
नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाय सर्वगाय मृत्युहंत्रे
पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्त गाय तपोंतगाय पशुपतये व्यंगाय शूलपाणये
वृषकेतवे हरये जटिने शिखंडिने लकुटिने महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणा
पणवतालंबते अमराय दर्शनीयाय बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिन्दमाय
भगस्याक्षिपातिने पूष्णोर्दशननाशनाय कूरकर्तकाय पाशहस्ताय प्रलयकालाय
उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशांपतये उन्नयते जनकाय चतुर्थकाय लोक
सत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो भिक्षवे भिक्षुरूपिणे जटिने स्वयंजटिलाय
शक्रहस्तप्रतिस्तंभकाय वसूनां स्तंभाय क्रतवे क्रतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय
चलाय वानस्पत्याय वाजसनेति समाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्त्रे पुरुषाय
शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूतभावनाय त्रिनेत्राय बहुरूपाय
सूर्यायुतसमप्रभाय देवाय सर्वतूर्यनिनादिने सर्वबाधाविमोचनाय बंधनाय सर्वधारिणे
धर्म्मोत्तमाय पुष्पदंतायापि भागाय मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय
भीमपराक्रमाय ॐ नमो नमः ॥
सनत्कुमार बोले- [हे महर्षे] ॐ जो
देवताओं के स्वामी,
सुर-असुर द्वारा वन्दित, भूत और भविष्य के
महान् देवता, हरे और पीले नेत्रों से युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बाघम्बर
धारण करनेवाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकी के
उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर, हरिनेत्र, प्रलयकारी, अग्निस्वरूप,
गणेश, लोकपाल, महाभुज,
महाहस्त, त्रिशूल धारण करनेवाले, बड़ी बड़ी दाढ़ों वाले, कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी,
नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष,
सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करने वाले, सर्वव्यापी, मृत्यु को हटाने वाले, पारियात्र पर्वत पर उत्तम व्रत धारण करने वाले, ब्रह्मचारी,
वेदान्त प्रतिपाद्य तप की अन्तिम सीमा तक पहुँचने वाले, पशुपति, विशिष्ट अंगों वाले, शूलपाणि,
वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी,
शिखण्ड धारण करनेवाले, दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर, गुहा में
निवास करने वाले, वीणा और पणव पर ताल लगाने वाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य- सरीखे
रूपवाले, श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, उमापति, शत्रुदमन,
भग के नेत्रों को नष्ट कर देने वाले, पूषा के
दाँतों के विनाशक, क्रूरतापूर्वक संहार करनेवाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख,
अग्निकेतु, मननशील, प्रकाशमान,
प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवों को उत्पन्न करने वाले, तुरीयतत्त्वरूप,
लोकों में सर्वश्रेष्ठ, वामदेव, वाणी की चतुरतारूप, वाममार्ग में भिक्षुरूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल-दुराराध्य,
इन्द्र के हाथ को स्तम्भित करने वाले, वसुओं को
विजडित कर देने वाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता,
काल, मेधावी, मधुकर,
चलने-फिरने वाले, वनस्पति का आश्रय लेने वाले,
वाजसन नाम से सम्पूर्ण आश्रमों द्वारा पूजित, जगद्धाता,
जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष,
भूः भुवः स्वः इन तीनों लोकों में विचरने वाले, भूतभावन, त्रिनेत्र, बहुरूप,
दस हजार सूर्यों के समान प्रभाशाली, महादेव,
सब तरह के बाजे बजाने वाले, सम्पूर्ण बाधाओं से
विमुक्त करने वाले, बन्धनस्वरूप, सबको
धारण करनेवाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त,
विभागरहित, मुख्यरूप, सबका
हरण करनेवाले, सुवर्ण के समान दीप्त कीर्तिवाले, मुक्ति के द्वारस्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं,
उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
इमं मन्त्रवरं जप्त्वा शुक्रो
जठरपंजरात् ॥ निष्क्रान्तो लिंगमार्गेण शंभोश्शुक्रमिवोत्कटम् ॥१॥
गौर्या गृहीतः पुत्रार्थं विश्वेशेन
ततः कृतः ॥ अजरश्चामरः श्रीमान्द्वितीय इव शंकरः ॥ २ ॥
त्रिभिर्वर्षसहस्रैस्तु?? समतीतैर्महीतले ॥
महेश्वरात्पुनर्जातः शुक्रो वेदनिधिर्मुनिः ॥ ३ ॥
ददर्श शूले संशुष्कं ध्यायंतं
परमेश्वरम् ॥ अंधकं धैर्यसद्वन्य??दानवेशं तपस्विनम् ॥ ४ ॥
महादेवं विरूपाक्षं
चन्द्रार्द्धकृतशेखरम् ॥ अमृतं शाश्वतं स्थाणुं नीलकंठं पिनाकिनम् ॥ ५ ॥
वृषभाक्षं महाज्ञेयं पुरुषं
सर्वकामदम् ॥ कामारिं कामदहनं कामरूपं कपर्दिनम् ॥ ६ ॥
विरूपं गिरिशं भीमं स्रग्विणं
रक्तवाससम् ॥ योगिनं कालदहनं त्रिपुरघ्नं कपालिनम् ॥ ७ ॥
गूढव्रतं गुप्तमंत्रं गंभीरं
भावगोचरम् ॥ अणिमादिगुणाधारत्रिलोक्यैश्वर्य्यदायकम्॥८॥
वीरं वीरहणं घोरं विरूपं मांसलं
पटुम् ॥ महामांसादमुन्मत्तं भैरवं वै महेश्वरम् ॥ ९ ॥
त्रैलोक्यद्रावणं लुब्धं लुब्धकं
यज्ञसूदनम् ॥ कृत्तिकानां सुतैर्युक्तमुन्मत्तकृत्तिवाससम् ॥ १० ॥
गजकृत्तिपरीधानं क्षुब्धं भुजगभूषणम्
॥ दद्यालंबं च वेतालं घोरं शाकिनिपूजितम् ॥ ११ ॥
अघोरं घोरदैत्यघ्नं घोरघोषं
वनस्पतिम् ॥ भस्मांगं जटिलं शुद्धं भेरुंडशतसेवितम् ॥ १२ ॥
भूतेश्वरं भूतनाथं पञ्चभूताश्रितं
खगम् ॥ क्रोधितं निष्ठुरं चण्डं चण्डीशं चण्डिकाप्रियम् ॥१३॥
चण्डं तुंगं गरुत्मंतं
नित्यमासवभोजनम् ॥ लेलिहानं महारौद्रं मृत्युं मृत्योरगोचरम् ॥१४॥
मृत्योर्मृत्युं महासेनं
श्मशानारण्यवासिनम् ॥ रागं विरागं रागांधं वीतरागशताचितम् ॥१५॥
सत्त्वं रजस्तमोधर्ममधर्मं
वासवानुजम् ॥ सत्यं त्वसत्यं सद्रूपमसद्रूपमहेतुकम् ॥ १६॥
अर्द्धनारीश्वरं भानुं
भानुकोटिशतप्रभम् ॥ यज्ञं यज्ञपतिं रुद्रमीशानं वरदं शिवम् ॥ १७॥
अष्टोत्तरशतं ह्येतन्मूर्तीनां
परमात्मनः ॥ शिवस्य दानवो ध्यायन्मुक्तस्तस्मान्महाभयात् ॥ १८ ॥
इस श्रेष्ठ मंत्र का जप करके शिवजी के
जठरपंजर से उनके लिंगमार्ग से उत्कट वीर्य की भाँति शुक्राचार्य बाहर आये। पार्वती
ने उन्हें पुत्ररूप में ग्रहण किया और विश्वेश्वर ने उन्हें अजर-अमर एवं ऐश्वर्यमय
बनाकर दूसरे शिव के समान कर दिया। इस प्रकार तीन हजार वर्ष बीत जाने पर वेदनिधि
मुनि शुक्र महेश्वर से पुनः पृथ्वीपर उत्पन्न हुए। तब उन्होंने शिवके त्रिशूलपर
अत्यन्त शुष्क शरीरवाले,
महाधैर्यवान् और तपस्वी दानवराज अंधक को शिवजी का ध्यान करते हुए
देखा। [वह शिवजीके 108 नामोंका इस
प्रकार स्मरण कर रहा था], महादेव, विरूपाक्ष,
चन्द्रार्धकृतशेखर अमृत, शाश्वत, स्थाणु, नीलकण्ठ, पिनाकी,
वृषभाक्ष, महाज्ञेय, पुरुष,
सर्वकामद, कामारि, कामदहन,
कामरूप,कपर्दी, विरूप,
गिरिश, भीम, स्रग्वी,
रक्तवासा, योगी, कालदहन,
त्रिपुरघ्न, कपाली, गूढव्रत,
गुप्तमंत्र, गम्भीर, भावगोचर,
अणिमादि गुणाधार, त्रिलोकैश्वर्यदायक, वीर, वीरहण, घोर, विरूप, मांसल, पटु, महामांसाद, उन्मत्त, भैरव,
महेश्वर, त्रैलोक्यद्रावण, लुब्ध, लुब्धक, यज्ञसूदन,
कृत्तिकासुतयुक्त, उन्मत्त, कृत्तिवासा, गजकृत्तिपरीधान, क्षुब्ध,
भुजगभूषण, दत्तालम्ब, वेताल,
घोर, शाकिनीपूजित, अघोर,
घोर दैत्यघ्न, घोरघोष, वनस्पति,
भस्मांग, जटिल, शुद्ध,
भेरुण्डशतसेवित, भूतेश्वर, भूतनाथ, पंचभूताश्रित, खग,
क्रोधित, निष्ठुर, चण्ड,
चण्डीश, चण्डिकाप्रिय, चण्ड,
तुंग, गरुत्मान्, नित्य
आसवभोजन, लेलिहान, महारौद्र, मृत्यु, मृत्योरगोचर, मृत्योर्मृत्यु,
महासेन, श्मशानारण्यवासी, राग, विराग, रागान्ध, वीतरागशतार्चित, सत्त्व, रज,
तम, धर्म, अधर्म,
वासवानुज, सत्य, असत्य,
सद्रूप, असद्रूप, अहेतुक,
अर्धनारीश्वर, भानु, भानुकोटि
शतप्रभ, यज्ञ, यज्ञपति, रुद्र, ईशान, वरद और शिव इस
प्रकार परमात्मा शिवजी की इन एक सौ आठ मूर्तियों का ध्यान करता हुआ वह दैत्य उस
महाभय से मुक्त हो गया।
दिव्येनामृतवर्षेण सोऽभिषिक्तः
कपर्दिना ॥ तुष्टेन मोचितं तस्माच्छूलाग्रादवरोपितः ॥ १९॥
उक्तश्चाथ महादैत्यो महेशानेन
सोंऽधकः ॥ असुरस्सांत्वपूर्वं यत्कृतं सर्वं महात्मना ॥२० ॥
प्रसन्न हुए शिवजी ने दिव्य अमृत की
वर्षा से उसका अभिषेक किया और उस त्रिशूल के अग्रभाग से उसे उतारा और महात्मा
शिवजी ने वह सब कृत्य उस महादैत्य अंधक से शान्तिपूर्वक कहा, जिसे उन्होंने पहले
किया था।
॥ ईश्वर उवाच ॥
भो भो दैत्येन्द्रतुष्टोऽस्मि दमेन
नियमेन च ॥ शौर्येण तव धैर्येण वरं वरय सुव्रत ॥२१॥
आराधितस्त्वया नित्यं
सर्वनिर्धूतकल्मषः ॥ वरदोऽहं वरार्हस्त्वं महादैत्येन्द्रसत्तम ॥२२॥
प्राणसंधारणादस्ति यच्च पुण्यफलं तव
॥ त्रिभिर्वर्षसहस्रैस्तु तेनास्तु तव निर्वृतिः ॥ २३ ॥
ईश्वर बोले- हे दैत्येन्द्र! हे
सुव्रत! मैं तुम्हारे यम,
नियम, शौर्य एवं धैर्यसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ,
तुम वर माँगो हे श्रेष्ठ महादैत्येन्द्र तुमने निष्पाप होकर नित्य
मेरी आराधना की है, तुम वरके योग्य हो, इसलिये मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इस प्रकार तीन सहस्र वर्षपर्यन्त
प्राणधारण करने का तुम्हारा जो पुण्यफल है, उससे तुम्हारी
मुक्ति हो जाय।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
एतच्छ्रुत्वांधकः प्राह वेपमानः
कृतांजलिः ॥ भूमौ जानुद्वयं कृत्वा भगवंतमुमापतिम् ॥२४॥
सनत्कुमार बोले- यह सुनकर अंधक ने
पृथ्वी पर दोनों घुटनों को टेककर काँपते हुए हाथ जोड़कर उमापति शिवजी से कहा-
॥ अंधक उवाच ॥
भगवन्यन्मयोक्तोऽसि दीनोदीनः
परात्परः ॥ हर्षगद्गदया वाचा मया पूर्वं रणाजिरे ॥२५॥
यद्यत्कृतं विमूढत्वात्कर्म लोकेषु
गर्हितम् ॥ अजानता त्वां तत्सर्वं प्रभो मनसि मा कृथाः ॥ २६ ॥
पार्वत्यामपि दुष्टं
यत्कामदोषात्कृतं मया ॥ क्षम्यतां मे महादेव कृपणो दुःखितो भृशम् ॥२७॥
दुःखितस्य दया कार्या कृपणस्य
विशेषतः ॥ दीनस्य भक्तियुक्तस्य भवता नित्यमेव हि ॥२८॥
सोहं दीनो भक्तियुक्त आगतश्शरणं तव ॥
रक्षा मयि विधातव्या रचितोऽयं मयांजलिः ॥ २९ ॥
इयं देवी जगन्माता परितुष्टा ममोपरि
॥ क्रोधं विहाय सकलं प्रसन्ना मां निरीक्षताम् ॥३०॥
क्वास्याः क्रोधः क्व कृपणो
दैत्योऽहं चन्द्रशेखर॥ तत्सोढा नाहमर्द्धेन्दुचूड शंभो महेश्वर ॥ ३१ ॥
क्व भवान्परमोदारः क्व चाहं
विवशीकृतः ॥ कामक्रोधादिभिर्दोषैर्जरसा मृत्युना तथा ॥३२॥
अयं ते वीरकः पुत्रो युद्धशौंडो
महाबलः ॥ कृपणं मां समालक्ष्य मा मन्युवशमन्वगाः ॥३३॥
तुषारहारशीतांशुशंखकुन्देन्दुवर्ण
भाक् ॥ पश्येयं पार्वतीं नित्यं मातरं गुरुगौरवात् ॥३४॥
नित्यं भवद्भ्यां भक्तस्तु निर्वैरो
दैवतैः सह ॥ निवसेयं गणैस्सार्द्धं शांता त्मा योगचिंतकः ॥ ३५॥
मा स्मरेयं पुनर्जातं विरुद्धं
दानवोद्भवम् ॥ त्वत्कृपातो महेशान देह्येतद्वरमुत्तमम् ॥३६॥
अंधक बोला-हे भगवन्! मैंने इससे
पूर्व में आप परात्पर परमात्मा को युद्धक्षेत्र में प्रसन्न गद्गद बाणी से दीन, होन इत्यादि जो कहा
है एवं हे शम्भो मूर्ख होने के कारण अज्ञानवश इस लोक में जो-जो निन्दित कर्म किया
है, उसे आप अपने मन में न रखें। हे महादेव मैंने कामविकार से
पार्वती के प्रति अपराध किया है, उसे क्षमा करें; क्योंकि मैं अत्यन्त कृपण एवं दुखी हैं। हे प्रभो अत्यन्त दुखित, कृपण, दीन एवं भक्तिसे युक्त जन पर आपको विशेष रूप से
दया करनी चाहिये। मैं दीन आपकी शरणमें आया हूँ, अतः मेरी
रक्षा कीजिये। मैंने हाथ जोड़ रखे हैं। मुझ पर सन्तुष्ट होने वाली जगज्जननी ये
देवी समस्त क्रोध त्यागकर मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे देखें। हे चन्द्रशेखर! हे
अर्धेन्दुचूड! हे शम्भो! हे महेश्वर कहाँ तो इन महादेवीका क्रोध और कहाँ मैं दया का
पात्र दैत्य, फिर भी आप मेरा अपराध क्षमा करते रहें। कहाँ आप
जैसे परमोदार और कहाँ काम, क्रोधादि दोषों एवं मृत्यु तथा
वृद्धावस्था के वशीभूत रहनेवाला मैं [हे प्रभो!] आपका यह युद्धकुशल तथा महाबली
पुत्र वीरक मुझ दयापात्र को देखकर अब क्रोध न करे। तुषार, हार,
चन्द्र, शंख तथा कुन्द के समान स्वच्छ
वर्णवाले हे प्रभो में इन माता पार्वती को अत्यन्त आदर से नित्य देखा करूँ अब मैं
आप दोनों का सदा भक्त होकर तथा देवताओं के साथ वैररहित होकर शान्तचित्त और
योगपरायण हो इन गणोंके साथ निवास करूँ। हे महेशान! आपकी कृपा से मैं दानवकुल में
उत्पन्न होने के कारण किये गये विपरीत कर्मों का स्मरण कभी न करूँ, आप मुझे यह उत्तम वर दीजिये।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
एतावदुक्त्वा वचनं दैत्येन्द्रो
मौनमास्थितः ॥ ध्यायंस्त्रिलोचनं देवं पार्वतीं प्रेक्ष्य मातरम् ॥३७॥
ततो दृष्टस्तु रुद्रेण प्रसन्नेनैव
चक्षुषा ॥ स्मृतवान्पूर्ववृत्तांतमात्मनो जन्म चाद्भुतम् ॥ ३८ ॥
तस्मिन्स्मृते च वृत्तांते ततः
पूर्णमनोरथः ॥ प्रणम्य मातापितरौ कृतकृत्योऽभवत्ततः ॥३९॥
पार्वत्या मूर्ध्न्युपाघ्रातश्शंकरेण
च धीमता ॥ तथाऽभिलषितं लेभे तुष्टाद्बालेन्दुशेखरात् ॥४० ॥
एतद्वस्सर्वमाख्यातमन्धकस्य पुरातनम्
॥ गाणपत्यं महादेवप्रसादात्परसौख्यदम् ॥४१॥
मृत्युंजयश्च कथितो मंत्रो
मृत्युविनाशनः ॥ पठितव्यः प्रयत्नेन सर्वकामफलप्रदः ॥४२॥
सनत्कुमार बोले- इतनाकहकर उस
दैत्येन्द्र ने माता पार्वती की ओर देखकर भगवान् शिव का ध्यान करते हुए मौन धारण
कर लिया। तदनन्तर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से उसे देखा, तब उसे अपने
पूर्ववृत्तान्त तथा अद्भुत जन्म का स्मरण हो आया। इस प्रकार उस पूर्ववृत्तान्त का
स्मरण होने पर वह पूर्णमनोरथवाला हो गया और माता-पिता को प्रणामकर कृतकृत्य हो
गया। इसके बाद बुद्धिमान् शिवजी तथा पार्वती ने उसका मस्तक सूँघा और उसने प्रसन्न
हुए सदाशिव से अभिलषित वर प्राप्त किया। [हे वेदव्यासजी!] इस प्रकार मैंने अंधकका
सारा पुरातन वृत्तान्त और शंकरजी की कृपासे उसे सुख देनेवाले गाणपत्य पद की
प्राप्ति का वर्णन किया और सभी कामनाओं का फल देनेवाले तथा मृत्यु का विनाश करने वाले
मृत्युंजय मंत्र को भी मैंने कहा, इसको यत्नपूर्वक पढ़ना (जपना) चाहिये।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे अंधकगण जीवितप्राप्तिवर्णनं
नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥४९॥
शिवपुराणम्/संहिता२(रुद्रसंहिता)/खण्डः५(युद्धखण्डः)/अध्यायः५०
॥ शुक्राचार्य द्वारा काशी में
शुक्रेश्वर लिंग की स्थापना कर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्र
से उनका स्तवन, शिवजी का प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी
विद्या प्रदान करना और ग्रहों के मध्य प्रतिष्ठित करना ॥
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
शृणु व्यास यथा प्राप्ता
मृत्युप्रशमनी परा ॥ विद्या काव्येन मुनिना शिवान्मृत्युञ्जयाभिधात् ॥१ ॥
पुरासौ भृगुदायादो गत्वा वाराणसीं
पुरीम्॥ बहुकालं तपस्तेपे ध्यायन्विश्वेश्वरं प्रभुम्॥२॥
स्थापयामास तत्रैव लिंगं शंभोः
परात्मनः ॥ कूपं चकार सद्रम्यं वेदव्यास तदग्रतः ॥३॥
पंचामृतैर्द्रोणमितैर्लक्षकृत्वः
प्रयत्नतः ॥ स्नापयामास देवेशं सुगंधस्नपनैर्बहु॥४॥
सहस्रकृत्वो देवेशं
चन्दनैर्यक्षकर्दमैः॥ समालिलिंप सुप्रीत्या सुगन्धोद्वर्त्तनान्यनु॥५॥
राजचंपकधत्तूरैः करवीरकुशेशयैः ॥
मालतीकर्णिकारैश्च कदंबैर्बकुलोत्पलैः ॥६॥
मल्लिकाशतपत्रीभिस्सिंधुवारैस्सकिंशुकः
॥ बन्धूकपुष्पैः पुन्नागैर्नागकेशरकेशरैः ॥७॥
नवमल्लीचिबिलिकैः
कुंदैस्समुचुकुन्दकैः ॥
मन्दारैर्बिल्वपत्रैश्च
द्रोणैर्मरुबकैर्वृकैः ॥ ग्रन्थिपर्णैर्दमनकैः सुरम्यैश्चूतपल्लवैः ॥८॥
तुलसीदेवगंधारीबृहत्पत्रीकुशांकुरैः ॥
नद्यावर्तैरगस्त्यैश्च सशालैर्देवदारुभिः ॥ ९ ॥
कांचनारैः
कुरबकैर्दूर्वांकुरकुरुंटकैः॥ प्रत्येकमेभिः कुसुमैः पल्लवैरपरैरपि ॥ १ ०॥
पत्रैः सहस्रपत्रैश्च
रम्यैर्नानाविधैश्शुभैः ॥ सावधानेन सुप्रीत्या स समानर्च शंकरम् ॥ ११ ॥
गीतनृत्योपहारैश्च संस्तुतः
स्तुतिभिर्बहु ॥ नाम्नां सहस्रैरन्यैश्च स्तोत्रैस्तुष्टाव शंकरम् ॥ १२॥
सहस्रं पञ्चशरदामित्थं शुक्रो
महेश्वरम्॥ नानाप्रकारविधिना महेशं स समर्चयत् ॥ १ ३॥
यदा देवं नानुलोके मनागपि वरोन्मुखम्
॥ तदान्यं नियमं घोरं जग्राहातीव दुस्सहम् ॥१४॥
प्रक्षाल्य चेतसोऽत्यंतं
चांचल्याख्यं महामलम् ॥ भावनावार्भिरसकृदिंद्रियैस्सहितस्य च ॥१५॥
निर्मलीकृत्य तच्चेतो रत्नं दत्त्वा
पिनाकिने ॥ प्रययौ कणधूमौघं सहस्रं शरदां कविः ॥१६॥
काव्यमित्थं तपो घोरं कुर्वन्तं
दृढमानसम् ॥ प्रससाद स तं वीक्ष्य भार्गवाय महेश्वरः ॥१७॥
तस्माल्लिंगाद्विनिर्गत्य
सहस्रार्काधिकद्युतिः ॥ उवाच तं विरूपाक्षस्साक्षाद्दाक्षायणीपतिः ॥१८॥
सनत्कुमार बोले – [ हे व्यास!]
मृत्युंजय नामक शिवजी से जिस प्रकार शुक्राचार्य मुनि ने मृत्युनाशिनी विद्या
प्राप्त की, उसे आप सुनें। पूर्वकाल में भृगुपुत्र
शुक्राचार्य वाराणसीपुरी में जाकर विश्वेश्वर प्रभु का ध्यान करते हुए दीर्घकाल तक
तप करते रहे। हे वेदव्यास! उन्होंने वहाँ परमात्मा शिव का लिंग स्थापित किया और
उसके सामने एक मनोहर कूप का निर्माण करवाया। उन्होंने द्रोण परिमाण के पंचामृत से
उन देवेश को एक लाख बार स्नान करवाया और इसी प्रकार नाना प्रकार के सुगन्धित
द्रव्यों से भी एक लाख बार स्नान करवाया। उन्होंने देवेश का चन्दन, यक्षकर्दम और सुगन्धित उबटन से हजारों बार प्रीतिपूर्वक अनुलेपन किया। उन्होंने
राजचम्पक, धतूरा, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदम्ब, बकुल, उत्पल, मल्लिका, शतपत्री, सिन्धुवार,
किंशुक, बन्धूकपुष्प, पुन्नाग,
केशर, नागकेशर, नवमल्ली,
चिबिलिक, कुन्द, मुचुकुन्द,
मन्दार, बेलपत्र, द्रोण,
मरुबक, वृक, ग्रन्थिपर्ण,
दमनक, सुरम्य आम्रपत्र, तुलसी,
देवगन्धारी, बृहत्पत्री, कुशांकुर, नन्द्यावर्त, अगस्त्य,
साल, देवदारु, कचनार,
कुरबक, दूर्वांकुर, कुरुण्टक
- इन प्रत्येक पुष्पोंसे तथा अनेक प्रकारके दूसरे मनोहर पल्लवों, पत्तों तथा कमलों से सावधानचित्त हो प्रीतिपूर्वक शिवजी का पूजन किया।
तदनन्तर उन्होंने गीत, नृत्य, उपहार,
बहुत-सी स्तुतियों, शिवसहस्रनामस्तोत्र तथा
अन्य स्तुतियों से शिवजी को प्रसन्न किया। इस प्रकार शुक्राचार्य पाँच हजार
वर्षपर्यन्त नाना प्रकार की अर्चनविधि से महेश्वर शिव की पूजा करते रहे। जब
उन्होंने शिवजी को वरदान के लिये थोड़ा भी उन्मुख न देखा, तब
अत्यन्त कठिन दूसरा नियम धारण किया। भावनारूपी जल से इन्द्रियों सहित चित्त के
चांचल्यरूपी महान दोष को धोकर उस चित्तरूप महारत्न को निर्मल करके शिवजी के लिये
अर्पण करके शुक्राचार्य हजारों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमराशिका पान करने लगे। इस
प्रकार दृढ़ मनवाला होकर घोर तप करते हुए उनको देखकर शिवजी शुक्राचार्य पर अत्यन्त
प्रसन्न हो गये और हजारों सूर्यों से भी अधिक तेजवाले दाक्षायणीपति विरूपाक्ष
शिवजी उस लिंग से प्रकट होकर कहने लगे-
॥ महेश्वर उवाच ॥
तपोनिधे महाभाग भृगुपुत्र महामुने ॥
तपसानेन ते नित्यं प्रसन्नोऽहं विशेषतः ॥ १९ ॥
मनोभिलषितं सर्वं वरं वरय भार्गव ॥
प्रीत्या दास्येऽखिलान्कामान्नादेयं विद्यते तव ॥ २० ॥
महेश्वर बोले- हे तपोनिधे! हे महाभाग!
हे महामुने! हे भृगुपुत्र! मैं आपके इस तपसे विशेषरूप से प्रसन्न हूँ। हे भार्गव!
आप अपना मनोभिलषित समस्त वर माँगिये, मैं प्रसन्न होकर आपकी सभी कामनाएँ पूर्ण
करूंगा। आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
निशम्येति वचश्शंभोर्महासुखकरं वरम् ॥
स बभूव कविस्तुष्टो निमग्नस्सुखवारिधौ ॥ २१ ॥
उद्यदानंदसंदोह रोमांचाचितविग्रहः ॥
प्रणनाम मुदा शंभुमंभो जनयनो द्विजः ॥२२॥
तुष्टावाष्टतनुं तुष्टः
प्रफुल्लनयनाचलः॥ मौलावंजलिमाधाय वदञ्जयजयेति च ॥ २३॥
सनत्कुमार बोले- शिवजी के इस अत्यन्त
सुख देने वाले श्रेष्ठ वचन को सुनकर शुक्राचार्य हर्षित हो गये और आनन्दसमुद्र
निमग्न हो गये। कमल के समान नेत्रवाले तथा हर्षातिरेक से रोमांचित विग्रह वाले
शुक्राचार्य ने प्रसन्नतापूर्वक शिवजी को प्रणाम किया और प्रफुल्लित नेत्रों वाला
होकर सिर पर अंजलि लगाकर जय-जयकार करते हुए बड़ी प्रसन्नता से वे अष्टमूर्ति शिवजी
की स्तुति करने लगे-
॥ भार्गव उवाच ॥
॥ मूर्त्यष्टक स्तोत्र ॥
त्वं भाभिराभिरभिभूय तमस्समस्तमस्तं
नयस्यभिमतानि निशाचराणाम्॥
देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय
लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ २४ ॥
भार्गव बोले- हे जगदीश्वर! आप अपने
तेज से समस्त अन्धकार को दूरकर रात में विचरण करने वाले राक्षसों के मनोरथों को
नष्ट कर देते हैं। हे दिनमणे! आप त्रिलोकी का हित करने के लिये आकाश में सूर्यरूप से
प्रकाशित हो रहे हैं;
ऐसे आपको नमस्कार है।
लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभिर्निर्भासि
कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ॥
विद्राविताखिलतमास्सुतमो हिमांशो
पीयूष पूरपरिपूरितः तन्नमस्ते ॥ २५ ॥
हे हिमांशो! आप पृथ्वी तथा आकाश में
समस्त प्राणियों के नेत्र बनकर चन्द्ररूप से विराजमान हैं और लोक में व्याप्त
अन्धकार का नाश करने वाले एवं अमृत की किरणों से युक्त हैं। हे अमृतमय! आपको
नमस्कार है।
त्वं पावने पथि सदागतिरप्युपास्यः
कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ॥
स्तब्धप्रभंजनविवर्द्धि तसर्वजंतोः
संतोषिता हि कुलसर्वगः वै नमस्ते ॥२६॥
हे भुवनजीवन! आप पावनपथ-योगमार्ग का
आश्रय लेने वालों की सदा गति तथा उपास्यदेव हैं। इस जगत् में आपके बिना कौन जीवित
रह सकता है। आप वायुरूप से समस्त प्राणियों का वर्धन करने वाले और सर्पकुलों को
सन्तुष्ट करनेवाले हैं। हे सर्वव्यापिन्! आपको नमस्कार है।
विश्वेकपावक न तावकपावकैकशक्तेर्ऋते
मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ॥
प्राणिष्यदो जगदहो जगदंतरात्मंस्त्वं
पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते॥२७॥
हे विश्व के एकमात्र पावनकर्ता! हे
शरणागतरक्षक! यदि आपकी एकमात्र पावक (पवित्र करने वाली एवं दाहिका) शक्ति न रहे, तो मरनेवालों को
मोक्ष प्रदान कौन करे? हे जगदन्तरात्मन्! आप ही समस्त
प्राणियों के भीतर वैश्वानर नामक पावक (अग्निरूप) हैं और उन्हें पग-पगपर शान्ति
प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है।
पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र
चित्रविचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम्॥
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ
पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि॥२८॥
हे जलरूप! हे परमेश! हे जगत्पवित्र!
आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं। हे विश्वनाथ! आपका यह अमल पानीय
रूप अवगाहनमात्रसे विश्वको पवित्र करनेवाला है, अत: आपको नमस्कार करता हूँ।
आकाशरूपबहिरंतरुतावकाशदानाद्विकस्वरमिहेश्वर
विश्वमेतत् ॥
त्वत्तस्सदा सदय संश्वसिति
स्वभावात्संकोचमेति भक्तोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम्॥२९॥
हे आकाशरूप! हे ईश्वर! यह संसार बाहर
एवं भीतरसे अवकाश देने के ही कारण विकसित है, है दयामय! आपसे ही यह संसार स्वभावतः सदा
श्वास लेता है और आपसे ही यह संकोच को प्राप्त होता है, अतः
आपको प्रणाम करता हूँ।
विश्वंभरात्मक बिभर्षि विभोत्र
विश्वं को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोरिः ॥
स त्वं विनाशय तमो तम
चाहिभूषस्तव्यात्परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥३०॥
हे विश्वम्भरात्मक [पृथ्वीरूप]! हे
विभो! आप ही इस जगत्का भरण-पोषण करते हैं। हे विश्वनाथ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन
अन्धकार का विनाशक है। हे अहिभूषण मेरे अज्ञानरूपी अन्धकार को आप दूर करें, आप स्तवनीय पुरुषों में
सबसे श्रेष्ठ हैं, अतः आप परात्पर को मैं नमस्कार करता हूँ।
आत्मस्वरूप तव रूपपरंपराभिराभिस्ततं
हर चराचररूपमेतत्॥
सर्वांतरात्मनिलयप्रतिरूपरूप नित्यं
नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते॥३१॥
हे आत्मस्वरूप! हे हर! आपकी इन रूप
परम्पराओं से यह सारा चराचर जगत् विस्तार को प्राप्त हुआ है। सबकी अन्तरात्मा में
निवास करनेवाले हे प्रतिरूप हे अष्टमूर्ते मैं भी आपका जन हूँ, मैं आपको नित्य
नमस्कार करता हूँ।
इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबंधबंधो
युक्तौ करोषि खलु विश्वजनीनमूर्त्ते॥
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत
सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥३२॥
हे दीनबन्धो हे विश्वजनीनमूर्ते हे
प्रणत प्रणीत (शरणागतों के रक्षक)! हे सर्वार्थसार्थपरमार्थ! आप इन अष्टमूर्तियों से
युक्त हैं और यह विस्तृत जगत् आपसे व्याप्त है, अतः मैं आपको प्रणाम करता।
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
अष्टमूर्त्यष्टकेनेत्थं परिष्टुत्येति
भार्गवः ॥ भर्गं भूमिमिलन्मौलिः प्रणनाम पुनःपुनः ॥ ३३ ॥
इति स्तुतो महादेवो भार्गवेणातितेजसा
॥ उत्थाय भूमेर्बाहुभ्यां धृत्वा तं प्रणतं द्विजम्॥३४॥
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मेघनादगभीरया ॥
सुप्रीत्या दशनज्योत्स्ना प्रद्योतितदिंगतरः ॥३५॥
सनत्कुमार बोले- भार्गव ने इस इस
प्रकार अष्टमूर्ति-स्तुति के आठ श्लोकों से शिवजी की स्तुतिकर भूमि में सिर झुकाकर
उनको बार-बार प्रणाम किया। अत्यन्त तेजस्वी भार्गव से इस प्रकार स्तुत महादेवजी
प्रणाम करते हुए उन ब्राह्मण को अपनी भुजाओं से पकड़कर तथा पृथ्वी से उठाकर अपने
दाँतों की कान्ति से दिगन्तर को प्रकाशित करते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में
अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगे –
॥ महादेव उवाच ॥
विप्रवर्य कवे तात मम भक्तोऽसि पावनः
॥ अनेनात्युग्रतपसा स्वजन्याचरितेन च ॥ ३६ ॥
लिंगस्थापनपुण्येन लिंगस्याराधनेन च ॥
दत्तचित्तोपहारेण शुचिना निश्चलेन च ॥ ३७ ॥
अविमुक्तमहाक्षेत्रपवित्राचरणेन च ॥
त्वां सुताभ्यां प्रपश्यामि तवादेयं न किंचन ॥३८॥
अनेनैव शरीरेण ममोदरदरीगतः ॥
मद्वरेन्द्रियमार्गेण पुत्रजन्मत्वमेष्यसि ॥ ३९ ॥
यच्छाम्यहं वरं तेऽद्य दुष्प्राप्यं
पार्षदैरपि ॥ हरेर्हिरण्यगर्भाच्च प्रायशोहं जुगोप यम् ॥ ४० ॥
मृतसंजीवनी नाम विद्या या मम निर्मला
॥ तपोबलेन महता मयैव परिनिर्मिता ॥४ १ ॥
त्वां तां तु प्रापयाम्यद्य
मंत्ररूपां महाशुचे॥ योग्यता तेऽस्ति विद्यायास्तस्याश्शुचि तपोनिधे ॥ ४२ ॥
यंयमुद्दिश्य नियतमेतामावर्तयिष्यसि ॥
विद्यां विद्येश्वरश्रेष्ठं सत्यं प्राणि ष्यति धुवम् ॥ ४३ ॥
महादेवजी बोले- हे विप्रवर्ष हे कवे!
हे तात! आप मेरे पवित्र भक्त हैं, आपके द्वारा की गयी उग्र तपस्या, लिंगप्रतिष्ठाजन्य पुण्य, लिंगाराधन, अपने पवित्र एवं निश्चल चित्त के समर्पण तथा अविमुक्त जैसे महाक्षेत्र में
किये गये पवित्राचरण से मैं आपको दयापूर्वक देखता हूँ, आपके
लिये कुछ भी अदेय नहीं है। आप इसी शरीर से मेरी उदररूपी गुफामें प्रविष्ट हो पुनः
लिंगेन्द्रिय मार्ग से निकलकर पुत्रभावको प्राप्त होंगे। अब मैं अपने पार्षदों के
लिये भी दुर्लभ वर आपको प्रदान करता हूँ, जिसे मैंने ब्रह्मा
तथा विष्णु से भी गुप्त रखा है। मृतसंजीवनी नामक जो मेरी निर्मल विद्या है,
उसका निर्माण मैंने स्वयं अपने महान् तपोबल से किया है। हे महाशुचे!
उस मंत्ररूपा विद्या को मैं आपको प्रदान करता हूँ। हे शुचितपोनिधे! आपमें उस
विद्या की प्राप्ति की योग्यता है आप जिस किसी को उद्देश्य करके विद्येश्वर भगवान्
शिव की इस श्रेष्ठ विद्या का आवर्तन करेंगे, वह अवश्य ही
जीवित हो जायगा, यह सत्य है।
अत्यर्कमत्यग्निं च ते तेजो व्योम्नि
च तारकम् ॥ देदीप्यमानं भविता ग्रहाणां प्रवरो भव ॥ ४४ ॥
अपि च त्वां करिष्यंति यात्रां
नार्यो नरोऽपि वा ॥ तेषां त्वद्दृष्टिपातेन सर्वकार्यं प्रणश्यति ॥ ४९ ॥
तवोदये भविष्यंति विवाहादीनि सुव्रत ॥
सर्वाणि धर्मकार्याणि फलवंति नृणामिह ॥ ४५ ॥
सर्वाश्च तिथयो नन्दास्तव
संयोगतश्शुभाः ॥ तव भक्ता भविष्यंति बहुशुक्रा बहु प्रजाः ॥४७॥
आपका देदीप्यमान तेज आकाशमण्डल में
सूर्य तथा अग्नि से बढ़कर होगा, आप प्रकाशमान होंगे और श्रेष्ठ ग्रह होंगे।
जो स्त्री या पुरुष आपके सम्मुख यात्रा करेगा, आपकी दृष्टि
पड़नेमात्र से उनका सारा कार्य नष्ट हो जायगा और हे सुव्रत! मनुष्योंके समस्त
विवाह आदि धर्मकार्य आपके उदयकाल में ही फलप्रद होंगे। सम्पूर्ण नन्दा तिथियाँ
(प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी) आपके संयोग से शुभ होंगी। आपके
भक्त अत्यन्त पराक्रमी तथा अधिक सन्तानों से युक्त होंगे।
त्वयेदं स्थापितं लिंगं शुक्रेशमिति
संज्ञितम् ॥ येऽर्चयिष्यंति भनुजास्तेषां सिद्धिर्भविष्यति ॥४८॥
आवर्षं प्रतिघस्रां ये
नक्तव्रतपरायणाः ॥ त्वद्दिने शुक्रकूपे ये कृतसर्वोदकक्रियाः ॥४९॥
शुक्रेशमर्चयिष्यंति शृणु तेषां तु
यत्फलम् ॥ अबंध्यशुक्रास्ते मर्त्याः पुत्रवंतोऽतिरेतसः ॥ ५० ॥
पुंस्त्वसौभाग्यसंपन्ना भविष्यंति न
संशयः ॥ उपेतविद्यास्ते सर्वे जनास्स्युः सुखभागिनः ॥५१॥
आपके द्वारा स्थापित किये गये इस
लिंग का नाम शुक्रेश्वर होगा। जो मनुष्य इसकी अर्चना करेंगे, उनकी कार्यसिद्धि
होगी। वर्षभर प्रतिदिन नक्तव्रतपरायण जो लोग प्रति शुक्रवार को शुक्रकूप में स्नान
एवं तर्पणकर इन शुक्रेश शिव की पूजा करेंगे, उसका फल सुनिये
उनका वीर्य कभी निष्फल नहीं जायगा, वे पुत्रवान् एवं अति
वीर्यवान् होंगे। वे सभी लोग पुरुषत्व एवं सौभाग्यसे सम्पन्न, विद्यायुक्त तथा सुखी होंगे, इसमें संशय नहीं है।
इति दत्त्वा वरान्देवस्तत्र लिंगे
लयं ययौ ॥ भार्गवोऽपि निजं धाम प्राप संतुष्टमानसः ॥ ५२॥
इति ते कथितं व्यास यथा प्राप्ता
तपोबलात् ॥ मृत्युंजयाभिधा विद्या किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ५३ ॥
इस प्रकार वर देकर शिवजी उसी लिंग में
लीन हो गये और शुक्राचार्य भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थान को चले गये। हे
व्यासजी! शुक्र ने जिस प्रकार अपने तपोबल से मृत्युंजय नाम की विद्या प्राप्त की, उसे मैंने कह दिया,
अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ?
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखंडे मृतसंजीविनीविद्याप्राप्तिवर्णनं नाम
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥