Dhutpapa (धूतपापा की अद्भुत कथा: कैसे एक तपस्विनी कन्या बनी काशीस्थ पंचनद तीर्थ की पावन नदी)

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Dhootpapeshwar
(धूतपापेश्वर)

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
जिनकी कृपा से गूंगे बोलने लगते हैं, लंगड़े पहाड़ों को पार कर लेते हैं, उन परम आनंद स्वरुप श्रीमाधव की मैं वंदना करता हूँ।

काशी के समस्त तीर्थों में महादेव अधिष्ठात्र देव के रूप (शिवलिंग) में विद्यमान रहते है। धूतपापा नदी उद्गम स्थल के समीप भगवान महादेव धूतपापेश्वर महादेव के रूप में अवस्थित है। इनके ठीक बगल में एक कंदरा (गुहा) है। इसके भीतर से ही धूतपापा नदी का जल स्रोत स्रावित होता रहता है। इसे गर्मी के दिनों में पंचगंगा घाट पर स्नान करते समय अनुभव किया जा सकता है। गर्मी में गंगा जी का जल गर्म परन्तु धूतपापा स्रोत ठंडा रहता है अतः इन्हे अपने पैरों के पास अनुभव किया जा सकता है।

धूतपापा और पंचनद तीर्थ की पावन कथा का सारांश :

  1. तपस्वी वेदशिरा और अप्सरा शुचि : महर्षि वेदशिरा (भृगुवंशीय) कठोर तपस्या कर रहे थे। एक दिन, अप्सरा शुचि उनके सामने आई, जिसे देखकर मुनि का मन विचलित हो गया और उनका वीर्य स्खलित हो गया। शुचि ने डरकर क्षमा माँगी, तब मुनि ने उसे वीर्य को ग्रहण करने को कहा, जिससे एक पवित्र कन्या का जन्म हुआ।
  2. धूतपापा का जन्म और पालन : शुचि ने उस कन्या को जन्म दिया और उसे वेदशिरा के आश्रम में छोड़ दिया। मुनि ने कन्या का नाम "धूतपापा" (पापों को धोने वाली) रखा और उसे पाला-पोसा। धूतपापा बड़ी होकर अत्यंत सुंदर और गुणवान बनी।
  3. धूतपापा की तपस्या : जब वेदशिरा ने धूतपापा से विवाह के बारे में पूछा, तो उसने सर्वगुण संपन्न पति की इच्छा व्यक्त की। पिता ने बताया कि ऐसा पति केवल तपस्या से प्राप्त हो सकता है। धूतपापा ने कठोर तप शुरू किया: वर्षा में भीगकर, गर्मी में पंचाग्नि साधना करते हुए, सर्दी में जल में खड़ी रहकर। ब्रह्मा प्रसन्न हुए और उसे सभी तीर्थों से पवित्र होने का वरदान दिया।
  4. धर्मराज का शाप और नदी का रूप : एक दिन, धर्मराज (यमराज) ने धूतपापा को देखकर उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। धूतपापा ने इनकार किया, तो धर्मराज ने जबरदस्ती करनी चाही। इस पर धूतपापा ने उन्हें "नद बन जाने" का शाप दिया, और धर्मराज ने उसे "पत्थर बनने" का शाप दिया। वेदशिरा ने बाद में इसे संशोधित किया: धर्मराज धर्मनद (नदी) बने। धूतपापा चंद्रकांत शिला बनी, जो चंद्रमा की किरणों से पिघलकर नदी (धूतपापा नदी) बन गई।
  5. पंचनद तीर्थ की उत्पत्ति : काशी में पाँच पवित्र नदियाँ मिलीं: गंगा (भागीरथी), यमुना, सरस्वती, धूतपापा और किरणा (सूर्यदेव के तप से उत्पन्न)। इनके संगम को "पंचनद तीर्थ" कहा गया, जो सभी पापों को नष्ट करता है।
  6. पंचनद तीर्थ की महिमा : यहाँ स्नान करने से: महापापों से मुक्ति मिलती है। प्रयाग के माघ स्नान का फल एक दिन में मिलता है। पितरों को अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है। वंध्या स्त्री को संतान की प्राप्ति होती है। मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है।


किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ॥
गंगा च यमुना चैव पंच नद्यः प्रकीर्तिताः ॥
अतः पञ्चनदं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥
सूर्य किरणों के स्पर्श से समस्त पापों को नष्ट करने वाली पुण्यमयी सरस्वती नदी, गंगा और यमुना सहित पाँच नदियाँ यहाँ प्रसिद्ध हैं। इसी कारण यह तीर्थ "पञ्चनद" (पाँच नदियों का संगम) कहलाता है, जो संपूर्ण त्रिलोक में विख्यात है।

विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्/_खण्डः_१/अध्यायः_०११
धर्मप्रदा सेवकानां धूतपापा महानदी॥ गोमती गोकुलाकीर्णा गजेन्द्रगणगाहिता ॥८॥
जो महानदी (गोमती) है, वह अपने सेवकों (भक्तों) को धर्म प्रदान करने वाली एवं समस्त पापों को नष्ट करने वाली है। यह गोवंश (गायों) से सुशोभित और गजराजों (हाथियों) के झुंडों से घिरी हुई पवित्र नदी है।

वामनपुराणम्/त्रयोदशोऽध्यायः
सरस्वती पञ्चरूपा कालिन्दी सहिरण्वती। शतद्रुश्चन्द्रिका नीला वितस्तैरावती कुहूः ॥२०॥
मधुरा हाररावी च उशीरा धातुकी रसा। गोमती धूतपापा च बाहुदा सदृषद्वती ॥२१॥
निश्चिरा गण्डकी चित्रा कौशिकी च वधूसरा। सरयूश्च सलौहित्या हिमवत्पादनिःसृताः ॥२२॥
सरस्वती नदी पाँच रूपों में प्रवाहित होती है। इनके साथ कालिंदी (यमुना), हिरण्यवती, शतद्रु, चन्द्रिका, नीला, वितस्ता, इरावती और कुहू नदियाँ पवित्र मानी जाती हैं। मधुरा, हाररावी, उशीरा, धातुकी, रसा, गोमती (जो समस्त पापों का नाश करने वाली है), बाहुदा और सरस्वती के समान पवित्र सदृषद्वती भी पूजनीय नदियाँ हैं। निश्चिरा, गंडकी, चित्रा, कौशिकी, वधूसरा, सरयू और सलौहित्या— ये सभी नदियाँ हिमालय पर्वत के चरणों से उत्पन्न हुई हैं और पवित्रता प्रदान करने वाली हैं।

शिवपुराणम्/संहिता_५_(उमासंहिता)/अध्यायः_१८
नद्यश्च सप्त तासां तु नामानि शृणु तत्त्वतः ॥ धूतपापा शिवा चैव पवित्रा संमितिस्तथा ॥४३॥
विद्या दंभा मही चान्या सर्वपापहरास्त्विमाः ॥ अन्यास्सहस्रशस्संति शुभापो हेमवालुकाः ॥४४॥
हे देवि! अब उन सात पवित्र नदियों के नाम सत्यरूप में सुनो— धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मिति, विद्या, दंभा और मही। ये सभी नदियाँ समस्त पापों का नाश करने वाली हैं। इसके अतिरिक्त भी सहस्रों अन्य पुण्यमयी नदियाँ हैं, जो शुभ फल प्रदान करने वाली हैं और जिनके तटों पर स्वर्ण जैसी चमकने वाली बालुकाएँ (रेत) विद्यमान हैं।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

सकृन्न तमिदं लोकं नयेत्किरणमालिनः । धौतपापेश्वरं लिंगमेतत्पातकधावनम् ।। ३३.१५६ ।।
यह लिंग धौतपापेश्वर सभी पापों का नाश करने वाला है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५९
॥ अगस्त्य उवाच ॥
सर्वज्ञ हृदयानंद गौरीचुंबितमूर्धज ॥ तारकांतक षड्वक्त्र तारिणे भद्रकारिणे ॥ १ ॥
सर्वज्ञाननिधे तुभ्यं नमः सर्वज्ञसूनवे ॥ सर्वथा जितमाराय कुमाराय महात्मने ॥२॥
कामारिमर्धनारीशं वीक्ष्य कामकृतं किल ॥ यो जिगाय कुमारोपि मारं तस्मै नमोस्तु ते ॥ ३ ॥
यदुक्तं भवता स्कंद मायाद्विजवपुर्हरिः ॥ काश्यां पंचनदं तीर्थमध्यासातीव पावनम्॥ ४ ॥
भूर्भुवःस्वः प्रदेशेषु काशीपरमपावनम्॥ तत्रापि हरिणाज्ञायि तीर्थं पंचनदं परम् ॥ ५ ॥
कुतः पंचनदं नाम तस्य तीर्थस्य षण्मुख ॥ कुतश्च सर्वतीर्थेभ्यस्तदासीत्पावनं परम् ॥ ६ ॥
कथं च भगवान्विष्णुरंतरात्मा जगत्पतिः ॥ सर्वेषां जगतां पाता कर्ता हर्ता च लीलया ॥ ७ ॥
अरूपो रूपमापन्नो ह्यव्यक्तो व्यक्ततां गतः ॥ निराकारोपि साकारो निष्प्रपंचः प्रपंचभाक् ॥ ८ ॥
अजन्मानेकजन्मा च त्वनामास्फुटनामभृत्॥ निरालंबोऽखिलालंबो निर्गुणोपि गुणास्पदम् ॥ ९ ॥
अहृषीकोहृषीकेशो प्यनंघ्रिरपिसर्वगः ॥ उपसंहृत्य रूपं स्वं सर्वव्यापी जनार्दनः ॥ १० ॥
स्थितः सर्वात्मभावेन तीर्थे पंचनदे परे ॥ एतदाख्याहि षड्वक्त्र पंचवक्त्राद्यथा श्रुतम् ॥११॥
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- हे सर्वहृदयानन्द! गौरी द्वारा चुम्बित मूर्द्धा वाले, तारकहन्ता, षड्वक्त्र, सर्वज्ञाननिधि ! आप ही सर्वतोभावेन जितमार महात्मा कुमार हैं। आपको प्रणाम! आपने कुमार होने पर भी कामारि शिव की कामकृत्‌ अर्द्धनारीश्वर मूर्त्ति देखकर कन्दर्प काम को जय किया था। आपको प्रणाम! हे स्कन्द! आपने कहा था कि काशीस्थ अतिपवित्र पञ्चनदतीर्थ पर स्वयं हरि मायाबल से द्विजमूर्ति धारण करके निवास करते हैं तथा भूर्लोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक में काशी परम पावन है। उसमें भी पञ्ञनद परमतीर्थ है। यह भगवान्‌ हरि का कथन है। हे षड्मुख! यह पूछता हूं कि इसका नाम पंचनद क्‍यों पड़ा? यह सभी तीर्थों की तुलना में उन सबकी अपेक्षा परमपवित्र क्‍यों है? जो लीलाक्रमेण त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले, हरण तथा पालन करने वाले हैं, जिनका रूप नहीं है, तथापि जो रूपवान्‌ हैं, अव्यक्त-निराकार होकर भी अव्यक्त एवं साकार हैं, जो प्रपंचरहित होकर भी प्रपंचसमन्वित हैं, जो जन्म तथा नाम रहित होकर भी अनेक जन्म वाले तथा अनेक नाम वाले हैं, जो स्वयं निराश्रय होकर भी सर्वाश्रय हैं, निर्गुण होकर भी सगुण हैं, स्वयं विषय तथा इन्द्रियों से रहित हैं, तथापि इनके अधिपति हैं, जो चरणरहित होकर भी सर्वत्र गमन करते हैं, उन अन्तर्यामी विष्णु ने अपने रूप का उपसंहार किया है तथा सर्वात्मभाव से इस पंचनद तीर्थ में क्‍यों हैं? इस सम्बन्ध में देवदेव पंचमुख विश्वेश्वर से आपने जो कुछ श्रवण किया है, वह कहिये।
॥ स्कंद उवाच ॥
कथयामि कथामेतां नमस्कृत्य महेश्वरम् ॥ सर्वाघौघ प्रशमनीं सर्वश्रेयोविधायिनीम् ॥ १२ ॥
यथा पंचनदं तीर्थं काश्यां प्रथितिमागतम् ॥ यन्नामग्रहणादेव पापं याति सहस्रधा ॥ १३ ॥
प्रयागोपि च तीर्थेशो यत्र साक्षात्स्वयं स्थितः ॥पापिनां पापसंघातं प्रसह्य निजतेजसा ॥ १४ ॥
हरंति सर्वतीर्थानि प्रयागस्य बलेन हि ॥ तानि सर्वाणि तीर्थानि माघे मकरगे रवौ ॥ १५ ॥
प्रत्यब्दं निर्मलानि स्युस्तीर्थराज समागमात् ॥ प्रयागश्चापि तीर्थेंद्रः सर्वतीर्थार्पितं मलम् ॥ १६ ॥
महाघिनां महाघं च हरेत्पांचनदाद्बलात् ॥
यं संचयति पापौघमावर्षं तीर्थनायकः ॥ तमेकमज्जनादूर्जे त्यजेत्पंचनदे ध्रुवम् ॥ १७ ॥
यथा पंचनदोत्पत्तिस्तथा च कथयाम्यहम् ॥ निशामय महाभाग मित्रावरुणनंदन ॥ १८ ॥
पुरा वेदशिरा नाम मुनिरासीन्महातपाः ॥ भृगुवंश समुत्पन्नो मूर्तो वेद इवापरः ॥ १९ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- महेश्वर को प्रणाम करके मैं अशेषकल्याणप्रदा तथा सर्वपाप-प्रशमनी इस कथा को कहता हूं कि काशी में पंचनद तीर्थ क्यों प्रसिद्ध है? साक्षात्‌ हरि का अवस्थान क्षेत्र प्रयाग भी तीर्थराज अवश्य है। प्रयागराज के बल से ही सभी तीर्थ अपनी-अपनी शक्ति के क्रमानुसार पापीगण के पाप का हरण करते रहते हैं और माघमास में जब सूर्यदेव मकर राशीस्थ होते हैं, तब वे सभी तीर्थ वहां स्नान करके निर्मल हो जाते हैं, लेकिन स्वयं तीर्थराज प्रयाग इस पंचनद तीर्थ के बल से सभी तीर्थों के मल का तथा महापातकी लोगों के महापापों का हरण करते हैं। तीर्थराज में वर्षपर्यनत की जो पापराशि संचित होती है, वह कार्त्तिक मास में पंचनदतीर्थ में तीर्थराज प्रयाग स्नानमात्र से त्याग देते हैं। हे महाभाग मित्रावरुणनन्दन अगस्त्य! इस पंचनद की उत्पत्ति का प्रसंग श्रवण करिये। पूर्वकाल में वेदशिरा नामक द्वितीय वेद के समान महातपा भृगुवंशीय एक मुनि थे।
तपस्यतस्तस्य मुनेः पुरोदृग्गोचरं गता ॥ शुचिरप्सरसां श्रेष्ठा रूपलावण्यशालिनी ॥ २० ॥
तस्या दर्शनमात्रेण परिक्षुब्धं मुनेर्मनः ॥ चस्कंद स मुनिस्तूर्णं साथ भीता वराप्सराः ॥ २१ ॥
दूरादेव नमस्कृत्य तमृषिं साभ्यभाषत ॥ अतीव वेपमानांगी शुचिस्तच्छापभीतितः ॥ २२ ॥
नापराध्नोम्यहं किंचिन्महोग्रतपसांनिधे ॥ क्षंतव्यं मे क्षमाधार क्षमारूपास्तपस्विनः ॥ २३ ॥
मुनीनां मानसं प्रायो यत्पद्मादपि तन्मृदु ॥ स्त्रियः कठोरहृदयाः स्वरूपेणैव सत्तम ॥ २४ ॥
इति श्रुत्वा वचस्तस्याः शुचेरप्सरसो मुनिः ॥ विवेकसेतुना स्तंभीन्महारोषनदीरयम् ॥ २५ ॥
उवाच च प्रसन्नात्मा शुचे शुचिरसि ध्रुवम् ॥ न मेऽल्पोपि हि दोषोत्र न ते दोषोस्ति सुंदरि ॥ २६ ॥
वह्निस्वरूपा ललना नवनीत समः पुमान् ॥ अनभिज्ञा वदंतीति विचारान्महदंतरम् ॥ २७ ॥
स्निह्येदुद्धृतसारोपि वह्नेः संस्पर्शमाप्य वै ॥ चित्रं स्त्र्याख्या समादानात्पुमान्स्निह्यति दूरतः ॥ २८ ॥
वे तपःश्वरण कर रहे थे, तभी रूपलावण्ययुता शुचि नामक एक अप्सरा को उन्होंने देखा। उसे देखने मात्र से उन मुनि का मन चंचल हो उठा तथा वीर्यस्खलन भी हो गया। तदनन्तर शापभय के कारण कांपती हुई उस प्रधान अप्सरा शुचि ने मुनि को दूर से ही प्रणाम करके कहा- “हे तपोनिधि, क्षमाधार! इस विषय में मेर तनिक भी अपराध न मानकर मुझे क्षमा करिये; क्योंकि तपस्वी लोग क्षमापरायण होते हैं। हे तापसप्रवर! मुनियों का चित्त स्वभावतः कमल मृणाल ऐसा कोमल होता है तथा स्त्रियां स्वरूपतः कठिनहदया होती हैं।” तब मुनिराज ने उस अप्सरा का कथन सुनकर विवेकरूप सेतु का अवलम्बन लेकर महाक्रोधात्मक नदीवेग को रोका तथा प्रसन्नता पूर्वक कहने लगे। मुनि कहते हैं- “हे शुचि! मैं तुमको यथार्थतः शुचि ही देखता हूं। हे सुन्दरी! इस विषय में मेरा कुछ दोष नहीं है तथा तुम्हारा भी दोष नहीं देख रहा हूं। अज्ञ लोग ही यह कहते हैं कि स्त्री अग्निस्वरूप है तथा पुरुष नवनीत (मक्खन) है। किन्तु विचार करने पर इसमें महान्‌ त्रुटि प्रभेद दृष्टिगोचर होता है। नवनीत (मक्खन) जब अग्नि से स्पर्शित होता है, तभी गलता है, लेकिन पुरुष तो नारी के नाम से ही आर्द्र हो उठता है।
अतः शुचे न भेतव्यं त्वया शुचि मनोगते ॥ अतर्कितोपस्थितया त्वया च स्खलितं मया ॥ २९ ॥
स्खलनान्न तथा हानिरकामात्तपसो मुनेः ॥ यथा क्षणांधीकरणाद्धानिः कोपरयादरेः ॥ ३० ॥
कोपात्तपः क्षयं याति संचितं यत्सुकृच्छ्रतः ॥ यथाभ्रपटलं प्राप्य प्रकाशः पुष्पवंतयोः ॥ ३१ ॥
अनर्थकारिणः क्रोधात्क्वार्थानांपरिजृभणम् ॥ क्व वा खलजनोत्सेधात्साधूनां परिवर्धनम् ॥ ३२ ॥
अमर्षे कर्षति मनो मनोभू संभवः कुतः ॥ विधुंतुदे तुदत्युच्चैर्विधुं कुत्रास्ति कौमुदी ॥ ३३ ॥
ज्वलतो रोषदावाग्नेः क्व वा शांतितरोः स्थितिः ॥ दृष्टा केनापि किं क्वापि सिंहात्कलभसुस्थता ॥ ३४ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन प्रतीपः प्रतिघातुकः ॥ चतुर्वर्गस्य देहस्य परिहेयो विपश्चिता ॥ ३५ ॥
हे भामिनि! तुम अतर्किता हो। भाव से आक्रान्त होने के कारण मेरा वीर्य स्खलित हुआ है। इसलिये तुम भयभीत न होना। क्षणकाल के लिये कोपान्ध होने पर मुनिगण की जैसी तपस्या हानि होती है, अनजाने में स्खलन के कारण उतनी तपस्या हानि नहीं होती। जैसे मेघ उपस्थित होने पर चन्द्र-सूर्य का प्रकाश क्षीण होता है, उसी प्रकार क्रोध द्वार कृच्छ्र (कठिन उपाय) से संचित तपस्या भी क्षयीभूत हो जाती है। क्रोध अनर्थकारी हैं। जैसे दुष्टों की अनिष्ट चिन्ता से साधुगण के अभ्युदय की आशा तिरोहित हो जाती है, उसी प्रकार क्रोध द्वारा चित्त आकृष्ट हो जाने पर मन शान्त नहीं होता। राहु जब चन्द्रग्रास करता है, तब कौमुदी नहीं रह जाती, दावानल के सर्वत्र प्रज्जलित होने पर स्निग्ध स्थान नहीं मिलता, सिंह के पास हाथी के शावक की स्वस्थता नहीं रह जाती, उसी प्रकार अनर्थकारी क्रोध के उत्पन्न होने पर किसी प्रकार का शुभ परिलक्षित नहीं होता! इसलिये ज्ञानी व्यक्ति चतुर्वर्ग तथा देह के प्रतिघातक क्रोध का सर्वप्रयत्न पूर्वक त्याग करे।
इदानीं शृणु कल्याणि कर्तव्यं यत्त्वया शुचे ॥ अमोघबीजा हि वयं तद्बीजमुररी कुरु ॥ ३६ ॥
एतस्मिन्रक्षिते वीर्ये परिस्कन्ने त्वदीक्षणात् ॥ त्वया तव भवित्रेकं कन्यारत्नं महाशुचि ॥ ३७ ॥
इत्युक्ता तेन मुनिना पुनर्जातेव साप्सराः ॥ महाप्रसाद इत्युक्त्वा मुनेः शुक्रमजीगिलत् ॥ ३८ ॥
अथ कालेन दिव्यस्त्री कन्यारत्नमजीजनत् ॥ अतीव नयनानंदि निधानं रूपसंपदाम् ॥ ३९ ॥
तस्यैव वेदशिरस आश्रमे तां निधाय सा ॥ शुचिरप्सरसां श्रेष्ठा जगाम च यथेप्सितम् ॥४०॥
तां च वेदशिराः कन्यां स्नेहेन समवर्धयत् ॥ क्षीरेण स्वाश्रमस्थाया हरिण्या हरिणीक्षणाम् ॥४१॥
मुनिर्नाम ददौ तस्यै धूतपापेति चार्थवत् ॥ यन्नामोच्चारणेनापि कंपते पातकावली ॥४२॥
सर्वलक्षणशोभाढ्यां सर्वावयव सुंदरीम् ॥ मुनिस्तत्याज नोत्संगात्क्षणमात्रमपि क्वचित् ॥ ४३ ॥
दिनेदिने वर्धमानां तां पश्यन्मुमुदे भृशम् ॥ क्षीरनीरधिवद्रम्यां निशि चांद्रमसीं कलाम् ॥ ४४ ॥
अथाष्टवार्षिकीं दृष्ट्वा तां कन्यां स मुनीश्वरः ॥ कस्मै देयेति संचित्य तामेव समपृच्छत ॥ ४५॥
हे कल्याणी! अब तुम्हारा जो कर्त्तव्य है, श्रवण करो। मेरा वीर्य अमोघ है। अतः इस बीज को धारण करो। तुम्हें देखने से यह वीर्य स्खलित हुआ है। इसे भक्षण करने पर तुम्हारे गर्भ से एक विशुद्ध कन्या का जन्म होगा। मुनि के यह कहने पर अप्सरा ने सोचा “मुझे तो नया जन्म मिल गया।” उसने ऋषि से कहा-- अहा! यह महान्‌ अनुग्रह है। तदनन्तर उसने मुनि के वीर्य का भक्षण कर लिया। कालान्तर में अप्सरा ने अत्यन्त नयनानन्दकारी रूपमती एक कन्या को जन्म दिया तथा उसे वेदशिरा मुनि के आश्रम में रखकर अपने स्थान पर चली गयी। वेदशिरा मुनि अपने आश्रमस्थित मृगी का दुग्ध पिलाते हुये उस कन्या का स्नेहपूर्वक पालन करने लगे तथा उसका नाम रखा “धूतपापा” अर्थात्‌ जिसका नाम लेने से पापराशि कांप उठती है! वे मुनि उस सर्वलक्षणसम्पन्न अति सुन्दर अंगों वाली उस कन्या को गोद से उतारते ही नहीं थे तथा निशाकालीन मणीय चन्द्रकला के समान दिनों-दिन बढ़ रही उस कन्या को देखकर क्षीरसागर के समान अतिशय मुदित होते थे। तदनन्तर जब वह अष्ट वर्षीया हो गई, तब मुनि यह विचार करने लगे कि इसे किस पात्र को प्रदान करूं। तब वेदशिरा ने उस कन्या से पूछा।
॥ वेदशिरा उवाच ॥
अयि पुत्रि महाभागे धूतपापे शुभेक्षणे ॥ कस्मै दद्यावराय त्वां त्वमेवाख्याहि तं वरम् ॥ ४६ ॥
अतिस्नेहार्द्रचित्तस्य जनेतुश्चेति भाषितम् ॥ निशम्य धूतपापा सा प्रोवाच विनतानना ॥ ४७ ॥
वेदशिरा कहते हैं- हे पुत्री! सुनयने! महाभागा धूतपापा! किस वर को तुमको अर्पित करूं। बतलाओ, तब कन्या धूतपापा ने अति स्नेहार्द्र चित्त से पिता का यह वाक्य सुनकर विनम्र शिर करके विनयपूर्ण वाणी से कहने लगी-
॥ धूतपापोवाच॥
जनेतर्यद्यहं देया सुंदराय वराय ते ॥ तदा तस्मै प्रयच्छ त्वं यमहं कथयामि ते ॥ ४८ ॥
तुभ्यं च रोचते तात शृणोत्ववहितो भवान् ॥ सर्वेभ्योतिपवित्रो यो यः सर्वेषां नमस्कृतः ॥ ४९॥
सर्वे यमभिलष्यंति यस्मात्सर्वसुखोदयः ॥ कदाचिद्यो न नश्येत यः सदैवानुवर्तते ॥ ५० ॥
इहामुत्रापि यो रक्षेन्महापदुदयाद्ध्रुवम् ॥ सर्वे मनोरथा यस्मात्परिपूर्णा भवंति हि ॥ ५१ ॥
दिनेदिने च सौभाग्यं वर्धते यस्य सन्निधौ ॥ नैरंतर्येण यत्सेवां कुर्वतो न भयं क्वचित् ॥ ५२ ॥
यन्नामग्रहणादेव केपि वाधां न कुर्वते ॥ यदाधारेण तिष्ठंति भुवनानि चतुर्दश ॥ ५३ ॥
एवमाद्या गुणा यस्य वरस्य वरचेष्टितम् ॥ तस्मै प्रयच्छ मां तात मम तेपीहशर्मणे ॥ ५४ ॥
एतच्छ्रुत्वापि ता तस्या भृशं मुदमवाप ह ॥ धन्योस्मि धन्या मे पूर्वे येषामैषा सुतान्वये ॥ ५५ ॥
धूतपापा कहती है- “हे पिता! यदि आप मुझे सुन्दर वर को प्रदान करना चाहते हैं, तब मैं बतलाती हूं। आप मुझे उसके हाथों अर्पित करिये। आपको भी उससे प्रसन्नता का लाभ होगा। इस बात को सावधानी पूर्वक सुनिये। जो सबसे पवित्र तथा सबके द्वारा नमस्कृत हैं, जिसकी कामना सब करते हैं, जिनसे ही सभी सुखसमूह का उदय होता है, जिनका कदापि विनाश नहीं होता, जिसके सभी सदा अनुवर्त्ती होते हैं, जो इहलोक तथा परलोक में भी महाविपत्तियों से रक्षा करने में समर्थ हैं, जिनसे समस्त मनोरथ पूर्त्ति तथा दिन-प्रतिदिन सौभाग्य वृद्धि मिलती है, जिनकी निरन्तर सेवा द्वारा कोई भय नहीं रह जाता, जिनके नाम से समस्त बाधा दूरीभूत हो जाती है, जिनमें चौदहों भुवन स्थित है, ऐसा गुण जिस वर का है, हे तात! ऐसे वर को मुझे प्रदान करिये। इसमें मेरा तथा आपका भी सुख सन्निहित है।” पिता वेदशिरा कन्या का कथन सुनकर अतीव प्रसन्न हो गये तथा ऐसी कन्या का कुल में जन्म होने के कारण वे स्वयं को तथा अपने पूर्वजों को धन्य मानने लगे! तदनन्तर वेदशिरा ने कहा-
ध्रुवा हि धूतपापासौ यस्या ईदृग्विधा मतिः ॥ ईदृग्विधैर्गुणगणैर्गरिम्णा कोत्र वै भवेत् ॥ ५६ ॥
अथवा स कथं लभ्यो विना पुण्यभरोदयम् ॥ इति क्षणं समाधाय मनः स मुनिपुंगवः ॥ ५७ ॥
ज्ञानेन तं समालोच्य वरमीदृग्गुणोदयम् ॥ धन्यां कन्यां बभाषेथ शृणु वत्से शुभैषिणि ॥ ५८ ॥
“यह कन्या यथार्थ ही धूतपापा है। अन्यथा इसकी ऐसी बुद्धि क्‍यों होती? अब जैसा यह चाहती है, उस गुणयुक्त तथा महिमान्वित पात्र कहां मिलेगा? अत्यधिक पुण्यसंचय के बिना ऐसा पात्र कहां से प्राप्त हो सकेगा?” तदनन्तर ऋषि ज्ञाननेत्रों से ऐसे वर का पता लगाकर कन्या से कहने लगे- हे कन्या! तुम धन्य हो! हे वत्से! कल्याणी श्रवण करो -
॥ पितोवाच ॥
वरस्य ये त्वया प्रोक्ता गुणा एते विचक्षणे ॥ एषां गुणानामाधारो वरोस्तीति विनिश्चितम् ॥ ५९ ॥
परं स सुखलभ्यो न नितरां सुभगाकृतिः ॥ तपः पणेन स क्रय्यः सुतीर्थविपणौ क्वचित् ॥ ६० ॥
तीर्थभारैः स सुलभो न कौलीन्येन कन्यके ॥ न वेदशास्त्राभ्यसनैर्न चैश्वर्यबलेन वै ॥ ६१ ॥
न सौंदर्येण वपुषा न बुद्ध्या न पराक्रमैः ॥ एकयैव मनः शुद्ध्या करणानां जयेन च ॥ ६२ ॥
महातपः सहायेन दमदानदयायुजा ॥ लभ्यते स महाप्राज्ञो नान्यथा सदृशः पतिः ॥ ६३ ॥
इति श्रुत्वाथ सा कन्या पितरं प्रणिपत्य च ॥ अनुज्ञां प्रार्थयामास तपसे कृतनिश्चया ॥ ६४ ॥
पिता (वेदशिरा) कहते हैं- हे कल्याणी! विचक्षणे! तुमने वर के जो कतिपय गुण कहे हैं, वैसे सर्वगुणाधार अति सुन्दर वर हैं तो, किन्तु वे अनायास प्राप्त नहीं हो सकते। तब भी सुतीर्थ रूपी बाजार में तपस्यारूपी मूल्य द्वारा उनकी प्राप्ति संभव है। वे अर्थ, कुलीनता, वेदशास्त्राभ्यास, ऐश्वर्यबल, बुद्धि प्रभाव अथवा पराक्रम से सुलभ नहीं हैं। केवल चित्तशुद्धि-इन्द्रिय जय-दम-दान-दया तथा कठोर तप के सहाय्य से उनको पाया जा सकता है। अन्यथा जैसा पति तुम चाहती हो, वैसा पति दुर्लभ है। तब उस कन्या धूतपापा ने पिता का यह कथन सुनकर तथा तप को ही श्रेयस्कर देखकर पिता को प्रणाम करके इस सम्बन्ध में उनकी अनुमति मांगी। उसने तप करने का निश्चय कर लिया था।
॥ स्कंद उवाच ॥
कृतानुज्ञा जनेत्रा सा क्षेत्रे परमपावने ॥ तपस्तताप परमं यदसाध्यं तपस्विभिः ॥ ६५ ॥
क्व सा बालातिमृद्वंगी क्व च तत्तादृशं तपः ॥ कठोरवर्ष्मसंसाध्यमहो सच्चेतसो धृतिः ॥ ६६ ॥
धारासारा सुवर्षासु महावातवतीष्वलम् ॥ शिलासु सावकाशासु सा बह्वीरनयन्निशाः ॥ ६७ ॥
श्रुत्वा गर्जरवं घोरं दृष्ट्वा विद्युच्चमत्कृतीः ॥ आसारसीकरैः क्लिन्ना न चकंपे मनाक्च सा ॥ ६८ ॥
तडित्स्फुरंतीत्वसकृत्तमिस्रासु तपोवने ॥ यातायातं करोतीव द्रष्टुं तत्तपसः स्थितिम् ॥६९॥
तपर्तुरेव साक्षाच्च कुमारी कैतवात्किल॥ पंचाग्नीन्परिधायात्र तपस्यति तपोवने॥७०॥
जलाभिलाषिणी बाला न मनागपि सा पिबत्॥ कुशाग्रतोयपृषतं पंचाग्निपरितापिता॥७१॥
रोमांच कंचुकवती वेपमानतनुच्छदा॥ पर्यक्षिपत्क्षपाः क्षामा तपसा हैमनीश्च सा ॥७२॥
निशीथिनीषु शिशिरे श्रयंती सारसं रसम् ॥ मेने सा सारसैः केयमुद्यताद्येति पद्मिनी ॥ ७३ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- वह कन्या धूतपापा पिता की अनुमति पाने के पश्चात्‌ परमपावन काशी में ऐसा कठोर तप करने लगी, जो तपस्वी लोगों के लिये भी असाध्य था। मनस्वी लोगों में कितना धीरज होता है। वह बालिका अपने कोमल अंगों पर दृष्टिपात्‌ न करती हुई ऐसी घोर तपस्या में निमग्न हो गई जो केवल कठोर अंगों वालों से ही साध्य थी। वह वर्षाकाल में प्रबल झंझा तथा मूषलाधार वृष्टि को भी नगण्य मानकर शिलातल पर बैठी अनेक रात्रि व्यतीत करती थी। बादल के घोर गर्जन, बिजली चमकने पर भी वर्षाधारा के जल से भींगी हुई भी तनिक कम्पित नहीं होती थी। अन्धकारमयी रात्रि में जो बिजली चमकती थी, वह मानो उसकी तपस्या का निरीक्षण करने हेतु ही उस तपोवन में चमकती रहती थी। ग्रीष्मऋतु में वह मानो पंचाग्नि स्थापन करके उसमें तपस्या कर रही थी ऐसा बोध होता था। वह बालिका पंचाग्नि ताप से सन्तप्त होकर भी उस भयानक ग्रीष्मकाल में कुशाग्र भाग के जलबिन्दु, इतने जल के पान से भी विरत रहती थी। अनावृत शरीर कांपती हुई तथा कण्टकि, शरीर वाली और तपःश्चरण से दुर्बल होकर भी उस कन्या ने हेमन्तकाल की रात्रि को इस प्रकार व्यतीत किया। शिशिर की रात्रि में वह कन्या सरोवर के जल में रहती थी। इस कारण वहां के सारस पक्षी भी उसे पश्चिनीरूप (कमलिनी रूप) मानने लगे।
मनस्विनामपि मनोरागतां सृजते मधौ ॥ तदोष्ठपल्लवाद्रागो जह्रे माकंदपल्लवैः ॥ ७४ ॥
वसंते निवसंती सा वने बालाचलंमनः ॥ चक्रे तपस्यपि श्रुत्वा कोकिला काकलीरवम् ॥ ७५ ॥
बंधुजीवेऽधररुचिं कलहंसे कलागतीः ॥ निक्षेपमिव सा क्षिप्त्वा शरद्यासीत्तपोरता॥ ७६ ॥
अपास्तभोगसंपर्का भोगिनां वृत्तिमाश्रिता ॥ क्षुदुद्बोधनिरोधाय धूतपापा तपस्विनी ॥ ॥ ७७ ॥
शाणेन मणिवल्लीढा कृशाप्यायादनर्घताम् ॥ तथापि तपसा क्षामा दिदीपे तत्तनुस्तराम् ॥ ७८ ॥
निरीक्ष्य तां तपस्यंतीं विधिः संशुद्धमानसाम् ॥ उपेत्योवाच सुप्रज्ञे प्रसन्नोस्मि वरं वृणु ॥ ७९ ॥
सा चतुर्वक्त्रमालोक्य हंसयानोपरिस्थितम् ॥ प्रणम्य प्रांजलिः प्रीता प्रोवाचाथ प्रजापतिम् ॥ ८० ॥
वसन्तकाल में मनस्वीजन के भी चित्त में राग का जन्म होता है, लेकिन उसके ओष्ठ पल्‍लव का राग मानो आकन्द पल्‍लवों ने हर लिया हो! उस वसन्तऋतु में चतुर्दिक्‌ कोकिला की काकली का शब्द सुनकर भी उसका चित्त अणुमात्र भी तपःश्वरण से विचलित नहीं हो सका। शरत्काल में तपस्विनी धूतपापा ने अपनी अधरकान्ति मानो बन्धुजीव के पुष्प को प्रदान कर दिया तथा अपनी मन्दगति को कलहंस को प्रदान कर दिया हो! इस प्रकार वह समस्त भोगों का त्याग करके क्षुधा निवृत्ति के लिये मात्र वायु का आहार करने लगी! जिस प्रकार मणि सान वाले (खराद) यन्त्र पर चढ़ाकर घिसने पर दुर्बल तो होती है, तथापि उसकी चमक और बढ़ जाती है, उसी प्रकार धूतपापा का देह तप के कारण क्षीण होकर भी अतिशय दीप्ति सम्पन्न हो गया। तदनन्तर ब्रह्मा ने उसे संयतचित्त से तप करते देखा, तब वे वहां अवतीर्ण होकर कहने लगे- “हे सुमुखि! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गया। अब वर ग्रहण करो।” तब हंसस्थ चतुर्मुख ब्रह्मा का वहां आया देखकर धूतपापा ने अंजलिबद्ध होकर प्रणाम किया तथा प्रसन्न होकर प्रजापति से कहने लगी -
॥ धूतपापोवाच ॥
पितामह वरो मह्यं यदि देयो वरप्रद ॥ सर्वेभ्यः पावनेभ्योपि कुरु मामतिपावनीम् ॥ ८१ ॥
स्रष्टा तदिष्टमाकर्ण्य नितरां तुष्टमानसः ॥ प्रत्युवाचाथ तां बालां विमलां विमलेषिणीम् ॥ ८२ ॥
धूतपापा कहती है- “हे पितामह! वरप्रद! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं, तब जिससे मैं पवित्र होकर पवित्रतमा हो जाऊं, ऐसा करिये।” तब विधाता ब्रह्मा उसका यह मनोरथ सुनकर सन्तुष्ट हो गये तथा उस कन्या से कहने लगे जो पवित्र से भी पवित्रतम होने की अभिलाषिणी थी।
॥  ब्रह्मोवाच ॥
धूतपापे पवित्राणि यानि संत्यत्र सर्वतः ॥ तेभ्यः पवित्रमतुलं त्वमेधि वरतो मम ॥ ८३ ॥
तिस्रः कोट्योऽर्धकोटी च संति तीर्थानि कन्यके ॥ दिवि भुव्यंतरिक्षे च पावनान्युत्तरोत्तरम् ॥ ८४ ॥
तानि सर्वाणि तीर्थानि त्वत्तनौ प्रतिलोम वै ॥ वसंतु मम वाक्येन भव सर्वातिपावनी ॥ ८५ ॥
इत्युक्त्वांतर्दधे वेधाः सापि निर्धूतकल्मषा ॥ धूतपापोटजं प्राप्ताथो वेदशिरसः पितुः ॥ ८६ ॥
कदाचित्तां समालोक्य खेलंतीमुटजाजिरे ॥ धर्मस्तत्तपसाकृष्टः प्रार्थयामास कन्यकाम् ॥ ८७ ॥
विधाता कहते हैं- “हे धूतपापा! इस पृथिवी पर पवित्र जो सब हैं तुम उन सब से भी पवित्र हो जाओ। हे कन्ये! द्युलोक, भूलोक तथा अंतरिक्ष में जो उत्तरोत्तर पावन ३.५  करोड़ तीर्थ हैं, वे सभी तीर्थ तुम्हारे प्रत्येक रोम में निवास करें तथा तुम सर्वापेक्षा पवित्र हो जाओ।” यह कहकर विधाता अन्तर्हित्‌ हो गये। धूतपापा भी निष्पापा होकर पिता वेदशिरा की पर्णशाला में पहुंची। तत्पश्चात्‌ एक बार भगवान्‌ धर्म तपः से क्लिप्ट उस कन्या को उस पर्ण कुटी के अन्दर खेलते देखकर वेदशिरा से उस कन्या हेतु प्रार्थना किया।
॥ धर्म उवाच ॥
पृथुश्रोणि विशालाक्षि क्षामोदरि शुभानने ॥ क्रीतः स्वरूपसंपत्त्या त्वयाहं देहि मे रहः ॥ ८८ ॥
नितरां बाधते कामस्त्वत्कृते मां सुलोचने ॥ अज्ञातनाम्ना सा तेन प्रार्थितेत्यसकृद्ग्रहः ॥ ८९ ॥
उवाच सा पिता दाता तं प्रार्थय सुदुर्मते ॥ पितृप्रदेया यत्कन्या श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ९० ॥
निशम्येति वचो धर्मो भाविनोर्थस्य गौरवात् ॥ पुनर्निबंधयांचक्रे ऽपधृतिर्धृतिशालिनीम् ॥ ९१ ॥
धर्मदेव कहते हैं- हे सुश्रोणी! कृशोदरी, विशालाक्षी शुभानना! मैं तुम्हारी रूप सम्पदा से मानो खरीद लिया गया। अब मेरी प्रार्थना सफल करो। हे सुलोचना! तुम्हारे उद्देश्य से कन्दर्पबाण द्वारा मैं अत्यन्त पीड़ित हो गया। उस अज्ञात कुलशील व्यक्ति द्वारा पुनः-पुनः यह प्रार्थना किये जाने पर कन्या धूतपापा कहने लगी- हे दुर्मति! पिता ही मुझे प्रदान कर सकते हैं। उनके पास जाकर प्रार्थना करो। सनातन श्रुति है कि कन्या को पिता ही प्रदान करता है। उस समय धर्म यह सुनकर धीरज खो बैठे तथा भवितव्यता (होनी) की बलवत्ता के कारण उस धैर्यशालिनी कन्या से पुनः-पुनः कहने लगे-
॥ धर्म उवाच ॥
न प्रार्थयेहं सुभगे पितरं तव सुंदरि ॥ गांधर्वेण विवाहेन कुरु मे त्वं समीहितम् ॥ ९२ ॥
इति निर्बंधवद्वाक्यं सा निशम्य कुमारिका ॥ पितुः कन्याफलंदित्सुः पुनराहेति तं द्विजम् ॥ ९३ ॥
अरे जडमते मा त्वं पुनर्ब्रूहीति याह्यतः ॥ इत्युक्तोपि कुमार्या स नातिष्ठन्मदनातुरः ॥ ९४ ॥
ततः शशाप तं बाला प्रबला तपसो बलात् ॥ जडोसि नितरां यस्माज्जलाधारो नदो भव ॥ ९५ ॥
इति शप्तस्तया सोथ तां शशाप क्रुधान्वितः ॥ कठोरहृदये त्वं तु शिला भव सुदुर्मते ॥ ९६ ॥
धर्मराज कहते हैं- “हे सुन्दरी । मैं तुम्हारे पिता से प्रार्थना नहीं कर सकूंगा। तुम गान्धर्व विवाह. विधान द्वारा मेरा मनोरथ सम्पन्न करो।” यह निर्बन्ध वाक्य सुनकर कुमारी धूतपापा ने पिता द्वारा ही कन्यादान कराकर उनको दानफल प्रदान करने की अभिलाषिणी होकर उस ब्राह्मण से कहा- “हे जड़मति! तुप ऐसी बात पुनः मत कहो। यहां से चले जाओ।” तथापि वह मदन से आतुर (कामातुर) द्विज अपने कार्य से विरत नहीं हुआ। तब तपोबल से बलवती कन्या धूतपापा ने धर्मराज को यह शाप दिया- “तुमने अतिशय जड़ के समान कार्य किया। इसलिये तुम जड़ के आधार रूप नद हो जाओ।” इस प्रकार से अभिशप्त किये जाने पर उस ब्राह्मण ने भी क्रोध के वशीभूत होकर उसे अभिशाप प्रदान किया- “हे कठोर हृदयवाली, तुम अभी पाषाण हो जाओ।”
॥ स्कंद उवाच ॥
इत्यन्योन्यस्य शापेन मुने धर्मो नदोऽभवत् ॥ अविमुक्ते महाक्षेत्रे ख्यातो धर्मनदो महान् ॥ ९७ ॥
साप्याह पितरं त्रस्ता स्वशिलात्वस्य कारणम्॥ ध्यानेन धर्मं विज्ञाय मुनिः कन्यामथाब्रवीत् ॥ ९८ ॥
मा भैः पुत्रि करिष्यामि तव सर्वं शुभोदयम् ॥ तच्छापो नान्यथा भूयाच्चंद्रकांतशिला भव ॥ ९९ ॥
चंद्रोदयमनुप्राप्य द्रवीभूततनुस्ततः ॥ धुनी भव सुते साध्वि धूतपापेति विश्रुता ॥ १०० ॥
स च धर्मनदः कन्ये तव भर्ता सुशोभनः ॥ तैर्गुणैः परिपूर्णांगो ये गुणाः प्रार्थितास्त्वया ॥ १०१ ॥
अन्यच्च शृणु सद्बुद्धे ममापि तपसो बलात् ॥ द्वैरूप्यं भवतोर्भावि प्राकृतं च द्रवं च वै ॥ १०२ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे मुनिवर! इस प्रकार कन्याशाप से साक्षात्‌ धर्मदेव नदरूपी हो गये। काशी में वह नद ही धर्मनद कहलाया। इधर कन्या ने भयभीत होकर अपने पिता से पाषाण होने का कारण कहा। तब मुनि वेदशिरा ने ध्यान बल से सब जानकर कन्या से कहा- हे पुत्री! भयभीत मत होना। मैं तुम्हारा अत्यन्त शुभ करता हूं। वह शाप अन्यथा होने वाला नहीं है। तुम चन्द्रकान्त शिला हो जाओ। हे साध्वी! चन्द्रोदय होने पर तुम्हारा शरीर द्रवीभूत होकर (चंद्रकांतशिला रात्रि में चंद्रमा की किरणों का संस्पर्श पाकर द्रवीभूत होने लगती है।) धूतपापा नामक नदी होगा। हे कन्ये! तुमने जिन-जिन गुणों का वर्णन किया था, ये सभी उन गुणों से अलंकृत हैं। हे सुमति सम्पन्ने! और भी सुनो। मेरे तपः प्रभाव से तुम्हारा प्राकृत तथा द्रव- यह दो रूप होगा।
इत्याश्वास्य पिता कन्यां धूतपापां परंतप ॥ चंद्रकांतशिलाभूतामनुजग्राह बुद्धिमान् ॥१०३॥
तदारभ्य मुने काश्यां ख्यातो धर्मनदो ह्रदः ॥ धर्मो द्रवस्वरूपेण महापातकनाशनः ॥ १०४ ॥
धुनी च धूतपापा सा सर्वतीर्थमयी शुभा ॥ हरेन्महाघसंघातान्कूलजानिव पादपान् ॥ १०५ ॥
तत्र धर्मनदे तीर्थे धूतपापा समन्विते ॥ यदा न स्वर्धुनी तत्र तदा ब्रध्नस्तपो व्यधात् ॥ १०६ ॥
गभस्तिमाली भगवान्गभस्तीश्वर सन्निधौ ॥ शीलयन्मंगलां गौरीं तप उग्रं चचार ह ॥ १०७ ॥
नाम्ना मयूखादित्यस्य तीर्थे तत्र तपस्यतः ॥ किरणेभ्यः प्रववृते महास्वेदोतिखेदतः ॥ १०८ ॥
किरणेभ्यः प्रवृत्ताया महास्वेदस्य संततिः ॥ ततः सा किरणानाम जाता पुण्या तरंगिणी॥१०९॥
महापापांधतमसं किरणाख्या तरंगिणी॥ ध्वंसयेत्स्नानमात्रेण मिलिता धूतपापया ॥११०॥
आदौ धर्मनदः पुण्यो मिश्रितो धूतपापया ॥ यया धूतानि पापानि सर्वतीर्थीकृतात्मना ॥ १११ ॥
ततोपि मिलितागत्य किरणा रविणैधिता ॥ यन्नामस्मरणादेव महामोहोंधतां व्रजेत्॥११२॥
किरणा धूतपापे च तस्मिन्धर्मनदे शुभे ॥ स्रवंत्यौ पापसंहर्त्र्यौ वाराणस्यां शुभद्रवे ॥ ११३ ॥
पिता वेदशिरा ने चन्द्रकान्त शिलामयी इस धूतपापा कन्या को यह आश्वासन देकर अनुगृहीत किया। हे मुनिवर! तब से काशी में धर्मनद नामक हृद प्रसिद्ध हो गया। द्रवरूपी धर्म तथा सर्वतीर्थमयी धूतपापा नदी तट पर उत्पन्न वृक्ष के समान महापापराशि का उन्मूलन करते हैं। धूतपापा नदी के साथ मिलकर यह धर्मनद तीर्थ जब गंगा नहीं आई थीं, तब भगवान्‌ गभस्तिमाली सूर्य गभस्तीश्वर के निकट मंगलागौरी की अर्चना के साथ उग्रतप कर रहे थे। मयूखादित्य नामक तीर्थ में उनके तपस्याकाल में अत्यधिक श्रम होने के कारण उनकी किरणों से प्रबल स्वेद निकलने लगा। वही पुण्य नदी रूपेण परिणत हो गया। तभी उसका नाम किरणा नदी पड़ा। यह किरणा नदी भी धूतपापा नदी से मिलकर स्नानमात्र से महापातकों को ध्वंस करती रहती है। जो धूतपापा सर्वतीर्थमयी होकर पापों को कम्पित करती है, उसके साथ सबसे पहले पुण्यमय धर्मनद का मिलन हुआ। तदनन्तर जिसका नाम सुनकर महामोह दूर हो जाता है, वह सूर्य से वर्द्धित किरणा नदी मिलती है। इस पुण्य धर्मनद से ये दोनों नदियां मिलकर काशी में पाप संहार करती हैं।
ततो भागीरथी प्राप्ता तेन दैलीपिना सह ॥ भागीरथी समायाता यमुना च सरस्वती ॥ ११४ ॥
किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ॥ गंगा च यमुना चैव पंचनद्योत्र कीर्तिताः ॥ ११५ ॥
अतः पंचनदं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ तत्राप्लुतो न गृह्णीयाद्देहं ना पांचभौतिकम् ॥ ११६ ॥
तदनन्तर भगीरथ के साथ गंगा का आगमन होने पर उनके साथ यमुना एवं सरस्वती भी आकर मिलित हो गयीं। किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना तथा सरस्वती, ये पांच नदियां कही गयी हैं। यही है त्रिभुवनख्यात पञ्चनदतीर्थ। इस तीर्थ में स्नान करने वाला पुनः पाञ्चभोतिक देहधारण नहीं करता।
अस्मिन्पंचनदीनां च संभेदेघौघभेदिनि ॥ स्नानमात्रात्प्रयात्येव भित्त्वा ब्रह्मांडमंडपम् ॥ ११७ ॥
तीर्थानि संति भूयांसि काश्यामत्र पदेपदे ॥ न पंचनदतीर्थस्य कोट्यंशेन समान्यपि ॥ ११८ ॥
प्रयागे माघमासे तु सम्यक्स्नातस्य यत्फलम् ॥ तत्फलं स्याद्दिनैकेन काश्यां पंचनदे ध्रुवम् ॥ ११९ ॥
स्नात्वा पंचनदे तीर्थे कृत्वा च पितृतर्पणम् ॥ बिंदुमाधवमभ्यर्च्य न भूयो जन्मभाग्भवेत् ॥ १२० ॥
यावत्संख्यास्तिलादत्ताः पितृभ्यो जलतर्पणे ॥ पुण्ये पंचनदे तीर्थे तृप्तिः स्यात्तावदाब्दिकी ॥ १२१ ॥
श्रद्धया यैः कृतं श्राद्धं तीथें पंचनदे शुभे ॥ तेषां पितामहा मुक्ता नानायोनि गता अपि ॥ १२२ ॥
पापराशिखण्डक इस पञ्चनदी संगम पर स्नान करने मात्र से मानव ब्रह्माण्ड मण्डप भेद करके गतिमान होता है। काशी में प्रत्येक कदम पर अनेक तीर्थ अवश्य हैं, किन्तु वे सभी तीर्थ इस पञ्चनद तीर्थ के करोड़वें भाग के समान नहीं हैं। प्रयागक्षेत्र में माघमास पर्यन्त सम्यक स्नान का जो फल होता है, यहां मात्र एक़ दिन स्नान का वही लाभ होता है। पञ्चनद तीर्थ में स्नान तथा पितृतर्पण करने तथा बिन्दुमाधव की अर्चना से मनुष्य को पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता। पवित्र पञ्चनद तीर्थ में तर्पण के समय पितरों को जितनी संख्या में तिल प्रदान किया जाता है, उतने वर्ष तक उनको तृप्ति प्राप्त होती है। यदि उसके पितृगण नाना योनि में भी हो, तथापि वे मुक्त हो जाते हैं।
यमलोके पितृगणैर्गाथेयं परिगीयते ॥ महिमानं पांचनदं दृष्ट्वा श्राद्धविधानतः ॥१२३॥
अस्माकमपि वंश्योत्र कश्चिच्छ्राद्धं करिष्यति ॥ काश्यां पंचनदं प्राप्य येन मुच्यामहे वयम्॥ १२४ ॥
इयं गाथा प्रतिदिनं श्राद्धदेवस्य सन्निधौ ॥ पितृभिः परिगीयेत काश्यां पंचनदं प्रति ॥ १२५ ॥
तत्र पंचनदे तीर्थे यत्किंचिद्दीयते वसु ॥ कल्पक्षयेपि न भवेत्तस्य पुण्यस्य संक्षयः ॥१२६॥
वंध्यापि वर्षपर्यंतं स्नात्वा पंचनदे ह्रदे ॥ समर्च्य मंगलां गौंरीं पुत्रं जनयति ध्रुवम् ॥ १२७ ॥
जलैः पांचनदैः पुण्यैर्वाससा पारिशोधितैः ॥ महाफलमवाप्नोति स्नपयित्वेष्टदेवताम् ॥ १२८ ॥
पंचामृतानां कलशैरष्टोत्तरशतोन्मितैः ॥ तुलितोधिकतां यातो बिंदुः पंचनदांभसः ॥१२९॥
पितृगण पञ्चनद की यह महिमा देखकर यमलोक में इस गाथा का गायन करते रहते हैं। “हमारे वंश की किसी न किसी पीढ़ी का व्यक्ति श्रद्धावान्‌ होकर इस तीर्थ में श्राद्ध करेगा, जिससे हम मुक्त होंगे।” यह गाथा नित्यप्रति श्राद्धझेव के निकट काशीस्थ पञ्चनद के उद्देश्य से पितर गायन करते हैं। इस पञ्चनद तीर्थ में यत्‌किंचित्‌ धनदान करने पर प्रलयकाल में उसका पुण्यक्षय नहीं होता। यदि वन्ध्या स्त्री भी एक वर्ष पंचनद हृद में स्नान तथा मंगलागौरी की अर्चना करती है, तब उसे सन्तान निश्चितरूपेण प्राप्त हो जाती है। वस्त्र से छानकर पञ्चनद के जल से इष्ट देवता को स्नान कराने से मनुष्य को महाफल लाभ होता है। देवता का १०८ पंचामृत से भरे कलस से स्नान कराने का जो फल है, पंचनद के एक बिन्दु जल से स्नान कराने का फल उससे अधिक होता है।
पंचकूर्चेन पीतेन यात्र शुद्धिरुदाहृता ॥ सा शुद्धिः श्रद्धया प्राश्य बिंदुं पांचनदांभसः ॥ १३० ॥
भवेदवभृथस्नानाद्राजसूयाश्वमेधयोः ॥ यत्फलं तच्छतगुणं स्नानात्पांचनदांभसा ॥१३१॥
राजसूयाश्वमेधौ च भवेतां स्वर्गसाधनम् ॥ आब्रह्मघटिकाद्वंद्वं मुक्त्यै पांचनदाप्लुतिः ॥१३२॥
स्वर्गराज्याभिषेकोपि न तथा संमतः सताम् ॥ अभिषेकः पांचनदो यथानल्पसुखप्रदः ॥१३३॥
वरं वाराणसीं प्राप्य भृत्यः पंचनदोक्षिणाम् ॥ नान्यत्र सेवकीभूत भूपकोटिर्नरेश्वरः ॥ १३४ ॥
यैर्न पंचनदे स्नातं कार्तिके पापहारिणि ॥ तेऽद्यापि गर्भे तिष्ठंति पुनस्ते गर्भवासिनः ॥ १३५ ॥
कृते धर्मनदं नाम त्रेतायां धूतपापकम् ॥ द्वापरे बिंदुतीर्थं च कलौ पंचनदं स्मृतम्॥ १३६ ॥
शतं समास्तपस्तप्त्वा कृते यत्प्राप्यते फलम् ॥ तत्कार्तिके पंचनदे सकृत्स्नानेन लभ्यते ॥ १३७ ॥
इष्टापूर्तेषु धर्मेषु यावजन्मकृतेषु यत् ॥ अन्यत्र स्यात्फलं तत्स्यादूर्जे धर्मनदाप्लवात् ॥ १३८ ॥
न धूतपाप सदृशं तीर्थं क्वापि महीतले ॥ यदेकस्नानतो नश्येदघं जन्मत्रयार्जितम् ॥ १३९ ॥
पञ्चकूर्च पान करने से जो शुद्धि कही गयी है, श्रद्धा के साथ एक बिंदु पञ्चनद का जल पान करने से वैसी ही शुद्धि घटित होती है। राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ में अवभृथ स्नान का जो फल है, उससे शतगुण फल पञ्चनद में स्नान से प्राप्त होता है। राजसूय तथा अश्वमेध तो ब्रह्मा के दो दण्ड काल तक स्वर्ग निवास फल देता है, तथापि पञ्चनद में स्नान द्वारा मुक्तिरुपी फल का लाभ होता है। स्वर्ग राज्य में अभिषेक भी उतना सज्जन सम्मत नहीं है, जो अभिषेक पञ्चनद तीर्थ में किया जाता है, वह अधिक सज्जन सम्मत है। काशीधाम में पञ्चनदतीर्थ में स्नान करने वाले मनुष्य का भृत्य (सेवक) होकर रहना उत्तम है, तथापि अन्यत्र करोड़ों राजाओं का अधीश्वर होकर रहना उत्तम नहीं है। जो कार्त्तिक में पापहारी पंचनद तीर्थ में स्नान नहीं करते, वे गर्भ में रहते हैं तथा पुनः-पुनः उनको जन्म लेना पड़ता है। सत्ययुग में धर्मनद, त्रेता में धूतपापा, द्वापर में बिंदुतीर्थ तथा कलियुग में पञ्चनद प्रशस्त है। अन्यत्र यज्ञ, वापी-कूप खननादि धर्मकार्य यावज्जीवन करने से जो फल मिलता है, वही फल पञ्चनद में मात्र एक बार स्नान से मिल जाता है। धूतपापा के समान तीर्थ पृथ्वी पर नहीं है। यहां एक बार मात्र धूतपापा में स्नान करने से तीन जन्मार्जित पापों का नाश हो जाता है।
बिंदुतीर्थे नरो दत्त्वा कांचनं कृष्णलोन्मितम् ॥ न दरिद्रो भवेत्क्वापि न स्वर्णेन वियुज्यते ॥ १४० ॥
गोभूतिलहिरण्याश्व वासोन्नस्रग्विभूषणम् ॥ यत्किंचिद्बिंदुतीर्थेत्र दत्त्वाक्षयमवाप्नुयात् ॥ १४१ ॥
एकामप्याहुतिं दत्त्वा समिद्धेग्नौ विधानतः ॥ पुण्ये धर्मनदे तीर्थे कोटिहोमफलं लभेत् ॥ १४२ ॥
न पंचनदतीर्थस्य महिमानमनंतकम् ॥ कोपि वर्णयितुं शक्तश्चतुर्वर्ग शुभौकसः ॥ १४३ ॥
श्रुत्वाख्यानमिदं पुण्यं श्रावयित्वापि भक्तितः ॥ सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोके महीयते ॥ १४४ ॥
बिंदुतीर्थ में जो व्यक्ति गुञ्जा के समान भी स्वर्ण दान करता है, वह कभी दरिद्र तथा स्वर्णरहित नहीं होता। इस बिंदुतीर्थ में वेणु-भूमि-तिल-स्वर्ण-अश्व-अन्न तथा वस्त्रालंकार जो व्यक्ति दान करता है, उसे अक्षय फल की प्राप्ति होती है। पवित्र पञ्चनद तीर्थ में प्रज्वलित अग्नि में जो यथाविधि एक बार भी आहुति देता है, उस मानव को करोड़ों होम का फल मिलता है। चतुर्वर्गफल प्रदाता पञ्चनदतीर्थ की अपार महिमा का वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं है। इस पुण्य आख्यान को भक्तिपूर्वक श्रवण करने अथवा श्रवण कराने से मनुष्य सर्वपापरहित होकर विष्णुलोक प्राप्त करता है।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थें काशीखंड उत्तरार्धे पंचनदाविर्भावो नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥


लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः_१_(कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः_४६६
॥ श्रीनारायण उवाच ॥
शृणु लक्ष्मि! धर्मपत्न्याः पातिव्रत्यपरायणाम् । कथां काशीपंचगंगातीर्थकरीं सुपावनीम् ॥ १ ॥
काश्यां पञ्चनदं तीर्थमध्यास भगवान् स्वयम् । भुर्भुवःस्वःप्रदेशेषु तीर्थं पञ्चनदं परम् ॥ २ ॥
स्थितः कृष्णः स्वयं तत्र तीर्थे पञ्चनदे परे । पुरा वेदशिरा नाम महासंयमतापसः ॥ ३ ॥
भृगुवंशमुनिरासीत् तपस्यानिरतः सदा । युवानं तं समालोक्य शुचिनाम्न्यप्सरोवरा ॥ ४ ॥

चकमे तेन ऋषिणा स्खलितं सा पपौ शुचिः । शुचिं वेदशिराः प्राह धार्मिकं दोषवर्जितम् ॥ ५ ॥
शृणु साध्वि! यौवनस्य विकृतिः सर्वदेहिषु । जायते सा न दोषाय कामवर्जितदेहिनः ॥ ६ ॥
स्वाभाविकं निर्मनस्त्वं धातूनां स्खलनं सति । तपोभंगाय नैवाऽस्ति स्नानेन शुद्धिरिष्यते ॥ ७ ॥
किन्तु ते मनसि त्वस्ति भावना बीजलब्धये । तेन धातुः स्रवितो मे विना मैथुनसंचरात् ॥ ८ ॥
तस्माद् धारय गर्भे त्व यं त्वं पीतवती प्रिये । देवपत्नी यथेष्टं वै कर्तुं शक्नोति सर्वथा ॥ ९ ॥
अमोघबीजा मुनयो मम बीजात्तव प्रिये । कन्यारत्नं वैष्णवाग्र्यं भविष्यति पतिव्रतम् ॥१०॥
इत्युक्ता साऽऽश्रमे तस्य तस्थौ प्रसववाञ्छया । अथ कालेन दिव्यस्त्रीकन्यारत्नमजीजनत् ॥ ११ ॥
अतीव भासुरं नेत्रानन्ददं रूपशेवधिम् । दत्वा पुत्रीं ययौ स्वर्गं शुचिनाम्न्यप्सरोवरा ॥ १२॥
तां तु वेदशिरा कन्यां स्नेहेन समवर्धयत् । हरिण्याः स्वाश्रमस्थायाः स्तन्येन पयसा मुनिः ॥ १३॥
मुनिर्नाम ददौ तस्या धूतपापेति सार्थकम् । दशवर्षोत्तरां कन्यां दृष्ट्वा पप्रच्छ तां मुनिः ॥ १४॥
कस्मै दद्यां वराय त्वां त्वमेवास्याहि ये शुभे । श्रुत्वा पितुः शुभं वाक्यं प्रोवाच भक्तिमानसा ॥ १५॥
सर्वेभ्योऽतिपवित्रो यो यः सर्वेषां नमस्कृतः । सर्वे यमभिलष्यन्ति यस्मात् सर्वसुखोदयः ॥ १६॥
कदाचिद्यो न नश्येद्वै यः सदैवानुवर्तते । इहामुत्रापि यो रक्षेन्महापद्भ्यः स्वरूपवान् ॥ १७॥
सर्वे मनोरथा यस्मात् प्रपूर्णाः संभवन्ति मे । दिने दिनेऽतिसौभाग्यं वर्धते यस्य सेवया ॥ १८॥
नैरन्तर्येण यत्पार्श्वे भय कस्यापि नैव मे । यन्नामग्रहणाच्चापि बाधा लीयन्त उत्कटाः ॥ १ ९॥
यदाधारेण तिष्ठन्ति ब्रह्माण्डान्यपि सृष्टिषु । एवमाद्या गुणा यत्र तस्मै मां देहि शर्मणे ॥२०॥
एतच्छ्रुत्वा मुनिश्चातिप्रसन्नो मुदमाप ह । धन्योऽस्मि यद्गृहे पुत्री धार्मिकी कुलतारिणी ॥२१ ॥
धूतपापा सार्थनाम्नी धन्येयं ज्ञानशेवधिः । अनया वर्णितः कोऽत्र भवेद्वै सद्गुणोदयः ॥२२॥
वरं तं धर्मदेवाख्यं मन्ये तस्मै ददामि ताम् । परं स सुखलभ्यो न सर्वसद्गुणमण्डनः ॥२३॥
तपःपणेन स क्रय्यो बहुपुण्येन वा क्वचित् । विचार्येत्थं सुतां प्राह कन्ये वरोऽस्ति तादृशः ॥२४॥
नार्थभारैः स सुलभो न कौलीन्येन कन्यके । न चैश्वर्यबलेनापि न बुद्ध्या न पराक्रमैः ॥२५॥
मनःशुद्ध्येन्द्रियशुद्ध्या तपसा दमनेन च । लभ्यते स महाप्राज्ञो नान्यथा सदृशः पतिः ॥२६॥
इतिपितृवचः श्रुत्वा पितरं प्रणिपत्य च । अनुज्ञां तु पितुर्लब्ध्वा तेपे तपः सुदारुणम् ॥२७॥
कठोरं वर्ष्म संसाध्य वर्षाधारासु सा स्थिता । शिलासु हिमवातेषु न चकम्पे मनागपि ॥२८॥
पञ्चाग्नीन् परिधायाऽपि तपस्यति तपोवने । जलाभिलाषिणी बाला जलं नैवाऽपिबत् तदा ॥२९॥
अपास्तभोगसंपर्का वाय्वाहाराऽभवत् सती । कृशाऽतितपसा क्षामा दिदीपे तत्तनुस्तराम् ॥३०॥
ब्रह्मा त्वागत्य तामाह प्रसन्नोऽस्मि वरं वृणु । धूतपापा नमस्कृत्योवाच श्रीपरमेष्ठिनम् ॥३ १ ॥
पितामह पवित्रेभ्यः कुरु मामतिपावनीम् । तुष्टो ब्रह्मा च तामाह संपवित्राणि यानि वै ॥३२॥
तेभ्योऽधिकं सुपावित्र्यमेधिमद्वरदानतः । तिस्रः कोट्योऽर्धकोटि च सन्ति तीर्थानि कन्यके ॥३३ ॥
अष्टषष्टिप्रधानानि श्रेष्ठानि तेषु सन्ति च । तानि सर्वाणि तीर्थानि त्वत्तनौ प्रतिलोम वै ॥ ३४॥
वसन्तु मम वाक्येन भव सर्वातिपावनी । कल्पान्तरे तु मूर्तिस्त्वं भविष्यसि न संशयः ॥ ३५॥
धर्मदेवप्रिया पत्नी हरेर्माता तु दक्षजा । इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे ब्रह्मा ययौ सापि पितुर्गृहम् ॥३६॥
ज्ञात्वा वेदशिरा सर्वं तुतोष तपसा मुहुः । सापि नित्यं धर्ममूर्तिं संविधाय चतुर्भुजाम् ॥३७॥
षोडशवस्तुभिर्दिव्यां प्रातर्नित्यमपूजयत् । पातिव्रत्येन धर्मेण सर्वं वृषाय चार्पयत् ॥ ३८॥
स्वप्ने धर्मं धूतपापा ददर्श नित्यमेव सा । कदाचिद् धर्मदेवः सः साक्षादागत्य तं मुनिम् ॥ ३९ ॥
ययाचे कन्यकां योग्यां मुनिस्तस्मै ददौ ततः । कन्या चन्द्रसमा कान्तिमती धर्मं प्रसेवते ॥४०॥
अथ तत्र महाक्षेत्रे धूतपापा महासती । अदृश्येन स्वरूपेण धर्मगृहे विराजते ॥४१ ॥
द्वितीयेन स्वरूपेण चन्द्रकान्तमणिः स्वयम् । भूत्वा जले तु गंगाया राजते सा तपस्विनी ॥।४२॥
धर्मदेवोऽपि तु धर्मनदो भूत्वा जलान्तरे । चन्द्रकान्तशिलायुक्तो राजते वै दिवानिशम् ॥ ४३॥
धर्मस्य मन्दिरे दिव्यस्वरूपेणापि राजते । एवं काश्यां तु गंगायां धर्मो धर्मनदोऽभवत् ॥ ४४॥
धूतपापाऽभवत् स्वल्पा नदी चापि नदान्विता । अथ सूर्यः समागत्य तप उग्रं चचार ह ॥४५॥
किरणेभ्यः प्रववृते महास्वेदजसन्ततिः । ततः सा किरणा नाम नदी जाताऽतिपावनी ॥४६॥
अथ तत्र समायाता सरस्वती महासती । यमुना गंगया युक्ता तत्र तिष्ठति पावनी ॥४७॥
किरणा धूतपापा च यमी गंगा सरस्वती । पञ्चनद्यो महासत्यो नदो धर्मनदाह्वयः ॥४८॥
मिलिताः सर्व एवैतास्तीर्थं पञ्चनदात्मकम् । पञ्चगंगेतिनाम्ना वै प्रसिद्धं सर्वथाऽभवत् ॥४९॥
तत्र स्नात्वा जलं पीत्वा मुच्यते सर्वबन्धनात् । दत्वा पञ्चनदे दानं कृत्वा वै पितृतर्पणम् ॥५०॥

बिन्दुमाधवमभ्यर्च्य न भूयो जन्मभाग् भवेत् । पञ्चकूर्चेन पीतेन या तु शुद्धिरुदाहृता ॥५१ ॥
सा शुद्धिः श्रद्धया प्राश्य बिन्दुं पाञ्चनदाम्भसः । पुरा धर्मनदं नाम ततश्च धूतपापकम् ॥५२॥
ततो वै बिन्दुतीर्थं तत् ततः पञ्चनदाह्वयम् । गोभूतिलहिरण्याऽश्ववासोऽन्नस्रग्विभूषणम् ॥५३॥
यत्किंचिद् बिन्दुतीर्थेऽत्र दत्त्वाऽक्षयमवाप्नुयात् । तत्राऽऽगत्य वह्निबिन्दुस्तपस्तेपेऽतिदारुणम् ॥।५४॥
कृष्णनारायणः साक्षादागत्याह वरं वृणु । अग्निबिन्दुर्हरिं प्राह वसाऽत्र मम सन्निधौ ॥५५॥
तथाऽस्त्विति हरिः प्राह निवासं चाऽकरोन्मुदा । बिन्दुमाधवसंज्ञोऽहं वसामि तत्र पद्मजे ॥५६॥
धर्मदेवगृहे पुत्रो बिन्दुमाधवसंज्ञकः । नित्यं वसामि दिव्योऽहं धूतपापासुपुत्रकः ॥।५७॥
धूतपापा जननी मे पिता धर्मो मम प्रिये । अहं माधवरूपश्च वसामो बिन्दुतीर्थके ॥५८॥
वसुस्वरूपिणी लक्ष्मीलक्ष्मीर्निर्वाणसंज्ञिका । धर्मपार्श्वे स्थिता सा मे हृदि पञ्चनदेऽप्यहम् ॥५९॥

व्रतैः संशोधिते देहे धर्मो वसति नित्यशः । कृष्णश्चापि धूतपापा श्रीश्च वसन्ति सर्वथा ॥६ ०॥
अर्थकामौ सनिर्वाणौ तत्र वसतः सर्वदा । आदिमाधवनामाऽहं ततश्चानन्तमाधवः ॥६१ ॥
श्रीदमाधवसंज्ञोऽपि ततो वै बिन्दुमाधवः । एवं नामभिः सर्वेशः स्थास्याम्यानन्दकानने ॥६२॥
मम माता धर्मपत्नी धूतपापा पतिव्रता । श्रीधर्मं सेवते नित्यं पातिव्रत्यपरायणा ॥६३॥

पञ्चनदे महापुण्ये दिव्ये श्रीधर्ममन्दिरे । नरा नार्यश्च तत्क्षेत्रे स्नात्वा कृत्वा वृषार्चनम् ॥६४॥
धूतपापार्चनं कृत्वा माधवस्य ममार्चनम् । धर्मप्रतिज्ञां कृत्वा च चातुर्मास्यव्रतादिकम् ॥६५॥
कृत्वा कार्तिकदानादि व्रती मोक्षमवाप्नुयात्। । धर्मपत्न्यस्तथा तत्र वसन्ति धर्मसेवने ॥६६॥
द्वितीयेन स्वरूपेण सर्वा विश्वस्य मातरः । श्रद्धालक्ष्मीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिर्मेधा क्रिया तथा ॥६७॥
बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदश । ताश्च सर्वा धर्मसेवां कुर्वन्त्येव सह स्थिता ॥६८ ॥
पातिव्रत्यपराः सर्वा यत्र धर्मस्तु तत्र ताः । धूतपापा विशेषेण सेवते श्रीवृषं पतिम् ॥६९॥

प्रातः स्नात्वा तु सा देवी प्रातः स्नापयति वृषम् । वस्त्रालंकारकस्तूरीचन्दनाक्षतकुंकुमैः ॥७० ॥
पूजयित्वा ततो देवी नीराजयति तं पतिम् । प्रदक्षिणां स्तुतिं कृत्वा नत्वा तत्पादयोः सती ॥७१ ॥
गंगाजलेन धर्मस्य प्रक्षाल्य चरणावुभौ । आचमनामृतं शुद्धं पीत्वा दत्वा सुमाञ्जलिम् ॥७२॥
ततो धर्माय षट्पञ्चाषन्मिष्टान्नानि भोजने । सव्यञ्जनानि रस्याऽऽद्यपेययुक्तानि सा प्रिया ॥७३ ॥
समर्पयति ताम्बूलं करोति देहमर्दनम् । नृत्यं करोति धर्माग्रे कीर्तिं करोति शार्ङ्गिणः ॥७४॥
नरनारायणगाथां करोति धर्मदेशतः । सपत्नीनां ततः सेवां श्रद्धादीनां करोति सा ॥७५॥
कृष्णनारायणभक्तिं धर्माज्ञया करोत्यपि । एकदा श्रीधर्मदेवश्चातुर्मास्यव्रते स्थितः ॥७६ ॥
लक्ष्मीनारायणसंहितायाः पारायणं शुभम् । वाचयामास सततं तीर्थे पञ्चनदे गृहे ॥७७॥
ऋषयो मुनयो देवाः पितरो मानवाः स्त्रियः । चतुर्दशभुवां संस्थाश्चायातास्तत्र तूत्सवे ॥७८॥
नद्यो नदाश्च तीर्थानि क्षेत्राणि विविधान्यपि । सर्वेषां सुनिवासादि धूतपापा चकार ह ॥७९॥
धूतपापा सती प्राह यद्यहं धर्मचारिणी । धर्मपत्नी धर्मधर्त्री धर्मपतिव्रतार्थिनी ॥८० ॥
तदा दिव्यं सुनगरं पंचाशत्क्रोशविस्तृतम् । ब्रह्मेन्द्रशंभुमुख्यानां सम्पदो यास्तु सन्ति वै ॥८ १ ॥
ततोऽधिकानि मे सौधे खाद्यपेयानि सन्ति वै । यानवाहनभोग्यानि शय्याशृंगारकाणि च ॥८२॥
पात्राणि रसभोज्यानि दृश्यानि विविधानि च । वह्निशुद्धांशुकादीनि सन्तु मत्पतिसद्गृहे ॥८३ ॥
दधिकुल्या घृतकुल्या मधुकुल्याः सिताद्रयः । पयःकुल्यास्तथा दासा दास्यः सन्तु च लक्षशः ॥८४॥
इतिसंकल्पितं स्मृत्वा धर्मस्य चरणाम्बुजम् । तावद् दिव्या बहुविधाः स्मृद्धयः क्षणतोऽभवन् ॥८५॥
स्वर्णरत्नविभूषाश्च हीरकाद्या मणिव्रजाः । समुद्भूता धूतपापासंकल्पात् तन्नदान्तिके ॥८६ ॥
सुधर्मासदृशी दिव्या सभा जाता क्षणात् प्रिये । दुर्गा सरस्वती लक्ष्मीः सावित्री राधिका दया ॥८७॥
जया ललिता माणिक्या रमा पद्मा च पार्वती । प्रभा हंसा च मनसा मंजुला श्रीश्च पद्मिनी ॥।८८॥
शान्तिः शान्ता हेमलता देवी मुक्ता च मौक्तिका । आसन् वै सेविका धर्मगृहे तत्र कथोत्सवे ॥८९॥

लक्ष्मीनारायणसंहिताकथाश्रवणकारिणाम् । स्वागतादिमहत्कार्ये भोज्यपेयसमर्पिकाः ॥९०॥
कार्तिके च प्रबोधन्यां कथान्ते पूजनं परम् । धर्मदेवस्य तैः सर्वैः सर्वाभिश्च कृतं महत् ॥९१॥
अनन्तपुण्यदं रत्नस्वर्णहीरकवस्तुभिः । धर्मोऽपि दक्षिणाः सर्वा ददौ ताभ्यो मुदान्वितः ॥९२॥
देवेभ्यः श्रोतृवर्गेभ्यो विप्रेभ्योऽतिधनं ददौ । तत्र यज्ञे समायातः कृष्णनारायणो हरिः ॥९३॥
कंभरा च महालक्ष्मीर्गोपालकृष्ण आगतौ । विमानेन तदा सर्वैः प्रत्यक्षे पुरुषोत्तमे ॥९४॥
पुष्पवृष्टिः कृता दिव्या जयकारोऽभवन्मुहुः । पितृभ्यां सहितः कृष्णनारायणो महामखे ॥९५॥
दशांशहवनं चक्रे धर्माज्ञयाऽतिभावतः । यज्ञं समाप्य विधिवत् कृत्वाऽवभृथमन्तिमम् ॥९६॥
धर्मदेवो ददौ दिव्यां दक्षिणां च द्विजातये । काशीराजो मैथिलेशः साकेतेशः कलिंगराट् ॥९७॥
सौराष्ट्रेशो मरुस्वामी सिन्धुभूपो निपालराट् । कुरुक्ष्मेशः श्वेतभूपः प्राग्ज्योतिर्भूप आर्चयन् ॥९८॥
धर्मदेवं भूसुराँश्च साधून् साध्वीः सहस्रशः । स्वर्णहीरकरूप्याणि ददुर्वस्त्राणि दक्षिणाः ॥९९॥
व्यसर्जयत् ततः सर्वान् भोजयित्वा समर्च्य च । धर्मदेवः परीहारं च स्वतेजसा सती ॥१००॥
धूतपापा जलं हस्ते गृह्याऽसंकल्पयन् मुदा । विद्यहं धर्मदेवस्य स्वामिनो मे प्रतुष्टये ॥ १०१ ॥
सर्वं क्लृप्तवती तर्हि पत्युर्भक्तेर्बलेन मे । अदृश्यं भवतु सौधादिकं स्मृद्धं नदे मयि ॥ १०२॥
इति संकल्पिते तूर्णं क्षणात् सर्वं तिरोऽभवत् । जग्मुराश्चर्यमति वै देवाद्याः कोटिशो जनाः ॥ १०३॥
पातिव्रत्यप्रतापं तं ज्ञात्वा शशंसुरादरात् । तां सतीं धूतपापां वै देव्यः शशंसुरीश्वरीम् ॥ १०४॥
एवं पञ्चनदं तीर्थं धर्मदेवाश्रमात्मकम् । पावनं सर्वदेवानां धूतपापाप्रभावतः ॥ १०५॥
धूतपापापतिव्रतबलं ते कथितं प्रिये । पठनाच्छ्रवणाच्चास्य मुक्तिर्भुक्तिर्भवेत्तथा ॥ १०६॥
पातिव्रत्यात्मको धर्मो भवेद्वै मोक्षदो दृढः । सर्वसम्पत्प्रदश्चापि धर्मभक्तिप्रदस्तथा ॥ १०७॥
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने वेदशिरसः ऋषेः शुचिनाम्न्यप्सरसि जाताया धूतपापाख्यकन्याया धर्मदेवपतिप्राप्त्या मूर्तिदेवीत्वं, पञ्चनदे संहिताकथाप्रसंगे पातिव्रत्यबलेन पंचाशत्क्रोशेषु नगररचना, देवादिभूपादिमानवादीनामागमः, यज्ञोऽवभृथं चेत्यादि, नूत्ननगरस्मृद्धितिरोभावचमत्कारश्चेतिनिरूपणनामा षट्षष्ट्यधिकचतुश्शततमोऽध्यायः ॥ ४६६ ॥


नारदपुराणम्-_उत्तरार्धः/अध्यायः_५१
 वसुरुवाच ॥
अथान्यते प्रवक्ष्यामि गंगामाहात्म्यमुत्तमम् ॥ वाराणसीस्थितं भद्रे भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ १ ॥
अविमुक्ते कृतं यत्तु तदेवाक्षयतां व्रजेत् ॥ अविमुक्तगतः कश्चिन्नरकं नैति किल्बिषी ॥ २ ॥
अविमुक्तकृतं यत्तु पापं वज्रं भवेच्छुभे ॥ त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि मोक्षदानि च कृत्स्नशः ॥ ३ ॥
सेवंते सततं गंगां काश्यामुत्तरवाहिनीम् ॥ दशाश्वमेधे यः स्नात्वा दृष्ट्वा विश्वेश्वरं शिवम् ॥ ४ ॥
सद्यो निष्पातको भूत्वा मुच्यते भवबंधनात् ॥ गंगा हि सर्वतः पुण्या ब्रह्महत्यापहारिणी ॥ ५ ॥
वाराणस्या विशेषेण यत्र चोत्तरवाहिनी ॥ वरणायास्तथास्याश्च जाह्नव्याः संगमे नरः ॥ ६ ॥
पुरोहित वसु कहते हैं- भद्रे! अब मैं तुम्हें काशी की गङ्गा का उत्तम माहात्म्य बताता हूँ, जो भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है। अविमुक्त- क्षेत्र में जो भी कर्म किया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। कोई भी पापी अविमुक्तक्षेत्र (काशी) - में जाकर पापरहित हो जाने के कारण कभी नरक में नहीं पड़ता। शुभे! अविमुक्तक्षेत्र में किया हुआ पाप वज्रतुल्य हो जाता है। तीनों लोकों में जो मोक्षदायक तीर्थ हैं, वे सम्पूर्ण सदा काशी की उत्तरवाहिनी गङ्गा का सेवन करते हैं। जो दशाश्वमेध में स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करता है, वह शीघ्र ही पापमुक्त होकर संसारबन्धन से छूट जाता है। यों तो पुण्यसलिला गङ्गा सर्वत्र ही ब्रह्महत्या जैसे पापों का निवारण करने वाली हैं, तथापि काशी में जहाँ उनकी धारा उत्तर की ओर बहती है, वहाँ उनकी विशेष महिमा प्रकट होती है। वरणा और गङ्गा के तथा असि और गङ्गा के संगम में स्नान करने मात्र से मनुष्य सम्पूर्ण पातकों से मुक्त हो जाता है।
स्नानमात्रेण सर्वेभ्यः पातकेभ्यः प्रमुच्यते ॥ काश्यामुत्तरवाहिन्यां गंगायां कार्तिके तथा ॥ ७ ॥
स्नात्वा माघे च मुच्यंते महापापादिपातकैः ॥ सर्वलोकेषु तीर्थानि यानि ख्यातानि तानि च ॥ ८ ॥
सर्वाण्येतानि सुभगे काश्यामायांति जाह्नवीम् ॥ नित्यं पर्वसु सर्वेषु पुण्यैश्चायतनैः सह ॥ ९ ॥
उत्तराभिमुखीं गंगां काश्यामायांति चान्वहम् ॥ महापातकदोषादिदुष्टानां स्पर्शनोद्भवम् ॥ १० ॥
व्यपोहितुं स्वपापं च जंतुपापविमुक्तये ॥ जन्मांतरशतेनापि सत्कर्मनिरतस्य च ॥ ११ ॥
अन्यत्र सुधिया भद्रे मोक्षो लभ्येत वा न वा ॥ एकेन जन्मना त्वत्र गंगायां मरणेन च ॥ १२ ॥
मोक्षस्तु लभ्यते काश्यां नरेणावलितात्मना ॥ ख्यातो धर्मनदो नाम ह्रदस्तत्रैव सुंदरि ॥ १३ ॥
धर्म एव स्वरूपेण महापातकनाशनः ॥ धूली च धूतपापा सा सर्वतीर्थमयी शुभा ॥ १४ ॥
हरेन्महापापसंघान्कूलजानिव पादपान् ॥ किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ॥ १५ ॥
गंगा च यमुना चैव पंच नद्यः प्रकीर्तिताः ॥ अतः पञ्चनदं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ १६ ॥
तत्राप्लुतो न गृह्णीयाद्देहितां पांचभौतिकीम् ॥ अस्मिन्पंचनदीनां तु संगमेऽघौघभेदने ॥ १७ ॥
स्नानमात्रान्नरो याति भित्वा ब्रह्मांडमंडपम् ॥ प्रयागे माघमासे तु सम्यक् स्नानस्य यत्फलम् ॥ १८ ॥
तत्फलं स्याद्दिनैकेन काश्यां पंचनदे ध्रुवम् ॥ स्नात्वा पंचनदे तीर्थे कृत्वा च पितृतर्पणम् ॥ १९ ॥
विष्णुं माधवमभ्यर्च्य न भूयो जन्मभाग्भवेत् ॥ यावत्संख्यास्तिला दत्ताः पितृभ्यो जलतर्पणे ॥ २० ॥
पुण्ये पञ्चनदे तीर्थे तृप्तिः स्यात्तावदाब्दिकी ॥ श्रद्धया यैः कृतं श्राद्धं तीर्थे पञ्चनदे शुभे ॥ २१ ॥
तेषां पितामहा मुक्तानानायोनिगता अपि ॥ यमलोके पितृगणैर्गार्थयं परिगीयते ॥ २२ ॥
महिमानं पांचनदं दृष्ट्वा श्राद्धविधानतः ॥ अस्माकमपि वंश्योऽत्र कश्चिच्छ्राद्धं करिष्यति ॥ २३ ॥
काश्यां पञ्चनदं प्राप्य येन मुच्यामहे वयम् ॥ तत्र पञ्चनदे तीर्थे यत्किंचिद्दीयते वसु ॥ २४ ॥
कल्पक्षयेऽपि न भवेत्तस्य पुण्यस्य संक्षयः ॥ वंध्यापि वर्षपर्यंतं स्नात्वा पञ्चनदे ह्रदे ॥ २५ ॥
काशी की उत्तरवाहिनी गङ्गा में कार्तिक और माघ मास में स्नान करके मनुष्य महापाप आदि पातकों से मुक्त हो जाते हैं। सुन्दरी! वहाँ धर्मनद नाम से विख्यात एक कुण्ड है। उसमें धर्म स्वरूपत: प्रकट होकर बड़े-बड़े पातकों का नाश करता है। वहीं धूली एवं धूतपापा भी है, जो सर्वतीर्थमयी एवं शुभकारक है। जैसे नदी का वेग तटवर्ती वृक्षों कों गिरा देता है, उसी प्रकार वह धूतपापा समस्त पापराशि को हर लेती है। काशी में किरणा, धूतपापा, पुण्य-सलिला सरस्वती, गङ्गा और यमुना ये पाँच नदियाँ एकत्र बतायी गयी हैं। इनसे त्रिभुवनविख्यात पञ्चनद (पञ्चगङ्गा) तीर्थ प्रकट हुआ है। पञ्चगङ्गा में डुबकी लगाने वाला मानव पुनः पञ्चभौतिक शरीर धारण नहीं करता है। यह पाँच नदियों का संगम समस्त पापराशियों का नाश करने वाला है। उसमें स्नान करनेमात्र से मनुष्य ब्रह्माण्डमण्डप का भेदन करके परम पद को प्राप्त होता है। प्रयाग में माघ मास पर्यन्त विधिपूर्वक स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है, वह काशी के पञ्चगङ्गातीर्थ में एक ही दिन के स्रान से प्राप्त हो जाता है। पञ्चगङ्गा में स्नान और पितरों का तर्पण करके बिंदुमाधव नाम से प्रसिद्ध भगवान्‌ विष्णु की पूजा करने वाला पुरुष फिर इस संसार में जन्म नहीं लेता। जिन्होंने पञ्चगङ्गा में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया है, उनके पितर अनेक योनियों में पड़े होने पर भी मुक्त हो जाते हैं। पञ्जनदतीर्थ में श्राद्धकर्म की महिमा का प्रत्यक्ष दर्शन करके यमलोक में पितर लोग यह गाथा गाया करते हैं  कि 'क्या हमारे वंश में भी कोई ऐसा होगा, जो काशी के पञ्चनदतीर्थ में आकर श्राद्ध करेगा? जिससे हम लोग मुक्त हो जायेंगे।' पञ्जनदतीर्थ में जो कुछ धन दान किया जाता है, कल्प के अन्त तक उसके पुण्य का क्षय नहीं होता।
समर्च्य मंगलां गौरीं पुत्रं जनयति ध्रुवम् ॥ जलैः पांचनदैः पुण्यैर्वाससा परिशोधितैः ॥ २६ ॥
महाफलमवाप्नोति स्नापयित्वेह दिक्श्रुताम् ॥ पञ्चामृतानां कलशैरष्टोत्तरशतोन्मितैः ॥ २७ ॥
तुलितोऽधिकतां प्राप्तो बिंदुः पांचनदस्तु सः ॥ पंचकूर्चेन पीतेन यात्र शुद्धिरुदाहृता ॥ २८ ॥
सा शुद्धिः श्रद्धया प्राश्य बिन्दुं पञ्चनदांभसाम् ॥ भवेदथ ह्रदस्नानाद्राजसूयाश्वमेधयोः ॥ २९ ॥
पदञ्चनदतीर्थ में जो कुछ धन दान किया जाता है, कल्प के अन्त तक उसके पुण्य का क्षय नहीं होता। वन्ध्या स्त्री भी एक वर्ष तक पञ्चगङ्गातीर्थ में स्नान करके यदि मङ्गलागौरी का पूजन करे तो वह अवश्य ही पुत्र को जन्म देती  है। वस्त्र से छाने हुए पञ्चगङ्गा के पवित्र जल से यहाँ मङ्गलागौरी (गभस्तीश्वर एवं बिंदुमाधव) को स्नान कराकर मनुष्य महान्‌ फल का भागी होता है। पंचामृत के एक सौ आठ (१०८) कलशों के साथ तुलना करने पर काशीस्थ पञ्चगङ्गा का एक बूँद जल भी उनसे श्रेष्ठ सिद्ध होता है। (अर्थात काशीस्थ पञ्चगङ्गा के मात्र एक बूंद जल देवता पर चढ़ा देने से १०८ घड़ों में भरे पंचामृत से देवता को स्नान कराने से भी कहीं अधिक फल की प्राप्ति होती है।) इस लोक में पञ्चकूर्च (पञ्चगव्य) पीने से जो शुद्धि कही गयी है, वही शुद्धि श्रद्धापूर्वक काशीस्थ पञ्चगङ्गा के जल की (मात्र) एक बूंद पीने से प्राप्त होती है।
यत्फलं तच्छतगुणं स्मृतं पञ्चनदांबुना ॥ राजसूयाश्वमेधौ च भवेतां स्वर्गसाधने ॥ ३० ॥
आब्रह्मपट्टिकाद्वंद्वान्मुक्तिः पञ्चनदांबुभिः ॥ स्वर्गनद्यभिषेकोऽपि न तथा संमतः सताम् ॥ ३१ ॥
अभिषेकः पांचनदो यथानन्यो वरप्रदः ॥ शतं समास्तपस्तप्त्वा कृते यत्प्राप्यते फलम् ॥ ३२ ॥
तत्कार्तिके पञ्चन्दे सकृत्स्नानेन लभ्यते ॥ इष्टापूर्तेषु धर्मेषु यावज्जन्मकृतेषु यत् ॥ ३३ ॥
जो पुण्यफल अन्य तीर्थों में प्राप्त होता है, उससे सौ गुना अधिक फल पंचनद के जल में स्नान करने से प्राप्त होता है। राजसूय और अश्वमेध यज्ञ भी जिस स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं, वही फल पंचनद तीर्थ में स्नान करने से सहज ही मिल जाता है। जो व्यक्ति पंचनद के जल से स्नान करता है, वह ब्रह्मलोक तक जाने वाली समस्त बाधाओं से मुक्त हो जाता है। यहाँ तक कि स्वर्गीय नदियों में स्नान करने से भी वह लाभ प्राप्त नहीं होता, जो पंचनद के जल से अभिषेक करने से होता है। जिस पुण्य फल को सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करके प्राप्त किया जाता है, वही फल कार्तिक मास में एक बार पंचनद में स्नान करने से सहज ही प्राप्त हो जाता है। जो पुण्य मनुष्य अपने इष्ट-पुण्य और दान आदि के द्वारा अनेक जन्मों में अर्जित करता है, वही पुण्य पंचनद के जल में स्नान करने से अधिक मात्रा में प्राप्त हो जाता है।
अन्यत्र स्यात्फलं तस्याधिकं पञ्चनदांबुभिः ॥ न धूतपापसदृशं तीर्थं क्वापि महीतले ॥ ३४ ॥
यदेकस्नानतो नश्येदघं जन्मत्रयार्जितम् ॥ कृते धर्मंनदं नाम त्रेतायां धूतपातकम् ॥ ३५ ॥
द्वापरे बिंदुतीर्थँ च कलौ पञ्चनदं स्मृतम् ॥ बिंदुतीर्थे नरो दत्वा कांचनं कृष्णकलोन्मितम् ॥ ३६ ॥
न दरिद्रो भवेत्क्वापि न सुखेन वियुज्यते ॥ गोभूतिलहिरण्याश्ववासोन्नस्थानभूषणम् ॥ ३७ ॥
यत्किंचिद्बिंदुतीर्थेऽत्र दत्वाक्षयमवाप्नुयात् ॥ एकामप्याहुतिं कृत्वा समिद्धेऽग्नौ विधानतः ॥ ३८ ॥
पुण्ये धर्मनदीतीर्थे कोटिहोमफलं लभेत् ॥ न पंचनदतीर्थस्य महिमानमनंतकम् ॥। ३९ ॥
धूतपापा के समान कोई अन्य तीर्थ पृथ्वी पर नहीं है, जहाँ केवल एक स्नान से ही तीन जन्मों के पाप समाप्त हो जाते हैं। सतयुग में इसे धर्मनद तीर्थ, त्रेतायुग में धूतपातक तीर्थ, द्वापर में बिंदुतीर्थ, और कलियुग में इसे पंचनद तीर्थ के नाम से जाना गया है। बिंदुतीर्थ में यदि कोई व्यक्ति स्वर्ण, गौ, भूमि, वस्त्र, घोड़ा, आभूषण या अन्य किसी भी वस्तु का दान करता है, तो उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। यहाँ तक कि यदि कोई व्यक्ति विधानपूर्वक एक आहुति भी अग्नि में अर्पित करता है, तो उसे कोटि होम (एक करोड़ यज्ञों) के समान फल प्राप्त होता है। पंचनद तीर्थ का महात्म्य अनंत है, जिसे वर्णन करने की शक्ति किसी के पास नहीं है। यह तीर्थ सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और महापापों के नाश का कारण बनता है।
कोऽपि वर्णयितुं शक्तश्चतुर्वर्गशुभौकसः ॥ इति ते कथितं भद्रे काशीमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ ४० ॥

सुखदं मोक्षदं नॄणां महापातकनाशनम् ॥ ब्रह्मघ्नो मधुपः स्वर्णस्तेयी च गुरुतल्पगः ॥ ४१ ॥
महापातकयुक्तोऽपि संयुक्तोऽप्युपपातकैः ॥ अविमुक्तस्य माहात्म्यश्रवणाच्छुद्धिमाप्नुयात् ॥ ४२ ॥
ब्राह्मणो वेदविद्वान्स्यात्क्षत्त्रियो विजयी रणे ॥ वैश्यो धनपतिः शूद्रो विष्णुभक्तसमागमी ॥ ४३ ॥
श्रवणादस्य सुभगे भूयात्पठनतोऽपि वा ॥ सर्वयज्ञेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम् ॥ ४४ ॥
तत्सर्वं समवाप्नोति पठनाच्छ्रवणादपि ॥ विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ॥ ४५ ॥
भार्यार्थी लभते भार्यां सुतार्थी पुत्रमाप्नुयात् ॥ अविमुक्तस्य माहात्म्यं मया ते परिकीर्तितम् ॥ ४६ ॥
विष्णुभक्ताय दातव्यं शिवभक्तिरताय च ॥ जगज्जननिभक्ताय सूर्यहेरंबसेविने ॥ ४७ ॥
गुरुशुश्रूषवे दत्वा तीर्थास्नानफलं लभेत् ॥
शठाय निंदकायापि गोविप्रसुरविद्विषे ॥ गुरुद्रुहेऽसूयकाय दत्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ ४८ ॥

यहाँ तक कि यदि कोई ब्रह्महत्या, मद्यपान, स्वर्ण की चोरी, गुरु पत्नी का अपहरण या अन्य किसी महापाप से ग्रसित व्यक्ति भी इस अविमुक्त क्षेत्र (काशी) के माहात्म्य को श्रवण करता है, तो वह शुद्ध हो जाता है। यदि कोई ब्राह्मण इस तीर्थ का माहात्म्य सुनता या पढ़ता है, तो वह वेदों का ज्ञाता बन जाता है। क्षत्रिय युद्ध में विजयीवैश्य धनपति, और शूद्र भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है। जो भी भक्त श्रवण और पठन करता है, उसे सभी यज्ञों का पुण्य, समस्त तीर्थों के दर्शन का लाभ प्राप्त हो जाता है। विद्यार्थी को विद्या, धनार्थी को धन, पत्नी चाहने वाले को पत्नी, और संतान चाहने वाले को संतान प्राप्त होती है। इस अविमुक्त क्षेत्र (काशी) के महात्म्य को मैंने तुम्हें विस्तार से बताया। इसका प्रसार केवल विष्णु भक्तों, शिव भक्तों, जगत जननी (माता) के भक्तों, सूर्य उपासकों और गणपति भक्तों को ही करना चाहिए। जो इसे गुरु की सेवा में समर्पित करता है, वह तीर्थ स्नान का पुण्य प्राप्त करता है। किन्तु जो दुष्ट, निंदक, गौ, ब्राह्मण, देवता और वेदों से द्वेष रखने वाला हो, या गुरु द्रोही व ईर्ष्यालु हो— उसे यदि यह ज्ञान दिया जाता है, तो वह मृत्यु को प्राप्त होता है।


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EXACT GPS : 25.31559314133816, 83.0183631884858


धूतपापा माता मंदिर, बिंदुमाधव मंदिर परिसर पंचगंगा में स्थित है।
Dhutpapa Mata Temple is located in the Bindumadhava temple complex in Panchganga.

For the benefit of Kashi residents and devotees : -
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi

काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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