Jarasandheshwar (जरासंधेश्वर)

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Jarasandheshwar

(जरासंधेश्वर)

मगधनरेश बृहद्रथ का पुत्र सम्राट जरासंध, महादेव का बहुत बड़ा भक्त था। काशी में जरासंध द्वारा स्थापित शिवलिंग जरासंधेश्वर नाम से पुराणों में वर्णित है। इनका दर्शन और पूजन करने से ज्वर नष्ट हो जाता है। जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है कि उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त किया। इसी कारण पुराणों में जरासंध को महाबाहु, महाबली और देवेन्द्र के समान तेज़ वाला कहा गया है।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

विशालाक्षीश्वरं लिंगं तत्रैव क्षेत्रवस्तिदम् । जरासंधेश्वरं लिंगं तद्याम्यां ज्वरनाशनम् ।। ९७.२४० ।।

तत्पुरस्ताद्धिरण्याक्षलिंगं पूज्यं हिरण्यदम् । तत्पश्चिमे गयाधीशस्तत्प्रतीच्यां भगीरथः ।। ९७.२४१ ।।

विशालाक्षीश्वर लिंग स्वयं वहाँ है और यह काशी में निवास प्रदान करतें है। इनके दक्षिण में जरासंधेश्वर लिंग है और यह ज्वर को नष्ट करते है। इनके (जरासंधेश्वर के) सामने हिरण्याक्ष लिंग है जो स्वर्ण प्रदान करता है। इसकी पूजा की जानी चाहिए। इसके पश्चिम में गयाधीश और आगे पश्चिम में भगीरथ हैं।

स्नात्वा मौनेन चागत्य मणिकर्णीशमर्चयेत् ।। कंबलाश्वतरौ नत्वा वासुकीशं प्रणम्य च ।।१००.७९।।

पर्वतेशं ततो दृष्ट्वा गंगाकेशवमप्यथ । ततस्तु ललितां दृष्ट्वा जरासंधेश्वरं ततः ।।१००.८०।।

भक्त को स्नान के पश्चात चुपचाप लौटकर मणिकर्णिकेश्वर की पूजा करनी चाहिए। तत पश्चात कम्बल, अश्वतर और वासुकिश को प्रणाम करते हैं। फिर उसे पर्वतेश, गंगाकेशव, ललिता और जरासंधेश्वर के क्रम में दर्शन करना चाहिए।


जरासंध

जन्म : जरासंध के पिता मगध नरेश बृहद्रथ थे और उनकी दो पटरानियां थी। वह दोनो ही को एक संतान चाहते थे। बहुत समय व्यतीत हो गया और वे बूढ़े़ हो चले थे, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। तब एक बार उन्होंने सुना की उनके राज्य में ऋषि चंडकौशिक पधारे हुए हैं और वे एक आम के वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। यह सुनते ही राजन आशापूर्ण होकर ऋषि से मिलने चल दिए। ऋषि के पास पहुँच कर उन्होंने ऋषि को अपना दुख कह सुनाया। राजा का वृतांत सुनकर ऋषि को दया आ गई और उन्होंने नरेश को एक आम दिया और कहा की इसे अपनी रानी को खिला देना। लेकिन चूंकि उनकी दो पत्नीयां थी और वे दोनो ही से एक समान प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंने उस आम के बराबर टुकड़े करके अपनी दोनो रानियों को खिला दिया। इससे दोनो रानियों को आधे-आधे पुत्र हुए। भय के मारे उन्होंने उन दोनो टुकड़ो को वन में फिकवा दिया। तभी वहाँ से जरा नामक राक्षसी गुज़र रही थी। उसने ने माँस के उन दोनों लोथड़ों को देखा और उसने दायां लोथड़ा दाएं हाथ में और बायां लोथड़ा बाएं हाथ में लिया जिससे वह दोनो टुकडे जुड़ गए। और फिर जरा नामक राक्षसी ने उसे राजा बृहद्रथ को सौप दिया और राजभवन में दोनों रानियों की छाती से दुध उतर आया। इसीलिए उसका नाम जरासंध हुआ।

मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश वृहद्रथ-वंश है। महाभारत व पुराणों से ज्ञात होता है कि प्राग्-ऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र बृहदर्थ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। दक्षिणी बिहार के गया और पटना जनपदों के स्थान पर तत्कालीन मगध-साम्राज्य था। इसके उत्तर में गंगानदी, पश्चिम में सोन नदी, पूर्व में चम्पा नदी तथा दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वतमाला थी। बृहद्रथ के द्वारा स्थापित राजवंश को बृहद्रथ-वंश कहा गया।

जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है कि उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त किया। इसी कारण पुराणों में जरासंध को महाबाहु, महाबली और देवेन्द्र के समान तेज़ वाला कहा गया है।

जरासंध वध: अंग प्रदेश का राजा बनने के पश्चात , कर्ण अंग की प्रजा को मगध नरेश के अन्याय से मुक्त करने के लिए जरासंध से युद्ध करता है । यह युद्ध लागातार 500 दिनों तक चला था। इसी युद्व के अन्तिम मे कर्ण जरासंध को बताता है कि उसे उसकी कमजोरी का ज्ञान है। उसे बीच से फाड़कर मारा जा सकता है। तब जरासंध अपनी पराजय स्वीकार कर लेता हैं और यही से उसकी म्रत्यु का रहस्य सबके सामने आ जाता है।

इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण पूरा होने के पश्चात एक दिन नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर को उनके पिता का यह संदेश सुनाया की अब वे राजसूय यज्ञ करें। इस विषय पर महाराज ने श्रीकृष्ण से बात की तो उन्होंने भी युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक रोड़ा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि मे परास्त किया जा सकता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए। वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लेकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा की अभी उनके दोनो मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा। तब जरासंध ने अर्ध रात्रि तब ही आने का वचन दिया और उन्हें ब्राह्मण कक्ष मे ठहराया।

तब अर्धरात्रि में वह आया लेकिन उसे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ की वे ब्राह्मण नहीं है क्योंकि वे शरीर से क्षत्रिय जैसे लग रहे थे उसने अपने संदेह को प्रकट किया और उन्हे उनके वास्तविक रूप में आने को कहा एवं उन्हे पहचान लिया। तब श्रीकृष्ण की खरी-खोटी सुनने के बाद उसे क्रोध आ गया और उसने कहा की उन्हें जो भी चाहिए वे माँग ले और यहाँ से चले जाएं। तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए कहा और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया। जरासन्ध एक वीर योधा था इसलिए उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को ही चुना। किंतु अर्जुन भी एक शक्तिशाली और योग्य योद्धा था नकुल भी जरासंध को हरा सकता था। तब अगले दिन उसने भीम के साथ मल्लभूमि में मल्ल युद्ध किया। यह युद्ध लगभग २८ दिनो तक चलता रहा लेकिन जितनी बार भीमसेन उसके दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता। इस पर श्रीकृष्ण ने घास की एक डंडी की सहायता से भीम को संकेत किया की इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके। तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ।

तब उसका वध करके उन तीनों ने उसके बंदीगृह में बंद सभी ८६ राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को राजा बनाया। सहदेव ने आगे चलकर के महाभारत के युध मे पान्डवो का साथ दिया।


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जरासंधेश्वर डी-3/71, मीर घाट, बड़े हनुमान मंदिर में स्थित है।
Jarasandeshwar is located at D-3/71, Meer Ghat, Bade Hanuman Mandir.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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