Daksheshwar (दक्षेश्वर)

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Daksheshwar

(दक्षेश्वर)

पूर्व कथा - (श्रीमद् भागवत) सती द्वारा शरीर-त्याग : यहां पढ़ें

दक्ष यज्ञ शिव को अपमानित करने के लिए किया गया था। जिसमें माता सती ने अपने देह को योग अग्नि से भस्म कर दिया था यहां तक की कथा श्रीमद् भागवत, स्कंद पुराण, शिव पुराण तथा अन्य पुराणों में मिलती है। शिव निंदा का कोई प्रायश्चित नहीं है। उसके बाद दक्ष ने किस प्रकार शिव निंदा का प्रायश्चित किया और मोक्ष पद को प्राप्त किया। इसका विवरण केवल स्कंद पुराण के काशी खंड अध्याय 89 में मिलता है। काशी में आकर दक्ष प्रजापति ने सविधि शिवलिंग स्थापित किया तथा बारह सहस्त्र (१२०००) वर्षों तक भगवान का पूजनार्चन करते हुए तप किया। काशी में जिस स्थान पर दक्ष प्रजापति ने शिव निंदा के प्रायश्चितार्थ शिवलिंग स्थापित किया और 12000 वर्षों तक तपस्या का वह स्थान वर्तमान काशी में महामृत्युंजय मंदिर के भीतर सबसे उत्तरी छोर वाला मंदिर है आगे की कथा इस पौराणिक लेख में... 

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड अध्यायः ८९

विधीरितमिति श्रुत्वा स्मित्वा देवो महेश्वरः ।। वीरमाज्ञापयामास यथापूर्वं प्रकल्पय ।। ८९.११० ।।
वीरभद्रोपि तत्सर्वं शर्वाज्ञां प्रतिपद्य च ।। विना दक्षस्य वदनं यथापूर्वमकल्पपयत् ।। ८९.१११ ।।
ईश्वरं ये विनिंदंति ते मूकाः पशवो ध्रुवम् ।। ततो मेषमुखं दक्षं वीरभद्रो गणो व्यधात् ।। ८९.११२ ।।
देवो ब्रह्माणमापृच्छय धर्माद्गार्हस्थ्यतश्च्युतः ।। सपापं दोहिमप्रस्थं जगाम तपसे ततः ।। ८९.११३ ।।
अनाश्रमवता पुंसा यतः कालो मनागपि ।। मुधा कलयितव्यो न तस्माच्छ्रेयः सदा श्रम ।। ८९.११४ ।।
अतः स सर्वं तपसां फलदाता महेश्वरः ।। तपश्चचार सगणो ब्रह्मा दक्षं त्वशिक्षयत् ।। ८९.११५ ।।
देवाधिदेव महेश्वर ने विधाता ब्रह्मा का कथन सुनकर वीरभद्र को आदेश दिया कि सब कुछ पूर्ववत करो। वीरभद्र ने आज्ञा पाकर दक्ष के मुख को छोड़कर बाकी सब पहले की तरह कर दिया। जो ईश्वर की निंदा करते हैं, वे वाक्यहीन पशु हैं। अतएवं गणेश्वर वीरभद्र ने दक्ष को मेष का मुख (शिर) लगा दिया अब (सतीदाह हो जाने के कारण) गृहस्थ धर्म रहित देवाधिदेव ने वहां ब्रह्मा से विदा लिया तथा तपस्यार्थ   अपने परिषदों (प्रमथगणों) के साथ हिमालय चले गये। अनाश्रमी व्यक्ति अल्प काल भी व्यर्थ न जाने दें। इसीलिये सर्वदा आश्रम सेवा करना कर्त्तव्य हो। इसी कारण सभी तपस्या का फल प्रदान करने वाले फलदाता महेश्वर पार्षदों के साथ तपस्या करने लगे (इस प्रकार वे वानप्रस्थाश्रमी हो गये)। उधर ब्रह्मा दक्ष को उपदेश देने लगे।

हरनिंदा समुद्भूत पापपंकं सुदुस्त्यजम् ।। यदि क्षालयितुं कांक्षा तदा वाराणसीं व्रज ।।८९.११६।।
प्राप्य वाराणसीं पुण्यां महापापौघहारिणीम् ।। कुरु लिंगप्रतिष्ठां त्वं तेन शंभुः स तुष्यति ।।८९.११७ ।।
तुष्टे महेश्वरे तुष्टं जगदेतच्चराचरम् ।। नान्यत्र पापं ते गंतृ विना वाराणसीं पुरीम् ।।८९.११८।।
ब्रह्महत्यादि पापानां प्रायश्चित्तं मनीषिभिः ।। प्रोक्तं न हरनिंदायास्तत्र काश्येव केवलम ।।८९.११९।।
काश्यां लिंगप्रतिष्ठायैः कृताऽत्र सुकृतात्मभिः ।। सर्वे धर्माः कृतास्तैस्तु त एव पुरुषार्थिनः ।।८९.१२०।।
ब्रह्मा कहते हैं: हे दक्ष! यदि शिवनिन्दा से उत्पन्न अत्यन्त दुस्तज्य पाप रूपी कीचड़ को धोना चाहते हो, तुम्हारी इच्छा उस पाप से मुक्त होने की हो, तब काशी जाओ।महापापों का नाश करने वाली पृण्यप्रद वाराणसी में जाकर लिंग प्रतिष्ठा करो। इससे शिव प्रसन्न हो जायेंगे। मनीषीगण ने ब्रह्महत्यादि पापों का प्रायश्चित्त तो कहा है, तथापि शिव निंदा का प्रायश्चित्त नहीं कहा है। इस पातक का मुक्तिस्थान काशी ही है। जो पुण्यात्मा लोग इस काशी में लिंग स्थापना करते हैं, वे ही पुरुषार्थ सम्पन्न हैं।

इत्याकर्ण्य विधेर्वाक्यं दक्षः प्राप्याथ सत्वरम् ।। अविमुक्तं महाक्षेत्रं तताप परमं तपः ।।८९.१२१।।
संस्थाप्य लिंगं विधिवल्लिंगाराधनतत्परः ।। न वेत्ति लिंगादपरं स किंचिज्जगतीतले ।।८९.१२२।।
दिवानिशं महेशानं परिष्टौति समर्चति ।। नमति ध्यायतीक्षेत दक्षो दक्षप्रजापतिः ।।८९.१२३।।
एकचित्तस्य दक्षस्य ध्यायतो लिंगमैश्वरम् ।। समाः सहस्रमगमन्मितं द्वादशसंख्यया ।।८९.१२४।।
मेनां यावत्सती प्राप्य हिमाचलपतिव्रताम् ।। उमारूपाति तपसा पतिं प्राप पिनाकिनम् ।।८९.१२५।।
तावत्स दक्षस्तपसि निश्चलो लिंगमार्चयत् ।। ततः काशीं समासाद्य सह भर्त्रा गिरींद्रजा ।।८९.१२६।।
दृष्ट्वा तं निश्चलहृदं शिवलिंगार्चने रतम् ।। हरं व्यजिज्ञपद्देवी क्षीणोयं तपसा विभो ।।८९.१२७।।
प्रसादय कृपासिंधो वरणैनं प्रजापतिम् ।। इत्युक्तोऽपर्णया शंभुः प्राह तं दक्षमीशिता ।। ८९.१२८।।
वरं ब्रूहि महाभाग दास्यामि मनसेप्सितम् ।। इतीशोदितमाकर्ण्य प्रणम्य बहुशो हरम् ।।८९.१२९।।
स्तुत्वा नानाविधैः स्तोत्रैः प्रसन्नं वीक्ष्य शंकरम् ।। प्रोवाच देवदेवेशं यदि देयो वरो मम ।। ८९.१३० ।।
ब्रह्मा का यह उपदेश सुनकर दक्ष शीघ्रतापूर्वक अविमुक्त महाक्षेत्र में जाकर वहां महान्‌ तपस्या करने लगे। उन्होंने वहां सविधि शिवलिंग  स्थापित किया। वे उस शिवलिंग की आराधना करने लगे। उनको जगत्‌ में उस शिवलिंग के अतिरिक्त अन्य किसी विषय का ज्ञान ही न रहा। कर्म में दक्ष (चतुर) दक्ष प्रजापति दिन-रात महेश्वर की पूजा, स्तव, प्रणाम, ध्यान तथा दर्शन करते रहते थे। एकाग्रचित्त से शिवध्यानतत्पर दक्ष को इस प्रकार से बारह सहस्त्र (१२०००) वर्ष व्यतीत हो गया। उधर सती ने हिमालय की पतित्रता पत्नी मेनका के गर्भ से आविर्भुता होकर उमारूप से अत्यन्त उग्रतप के प्रभाव से जब तक शिव को प्राप्त नहीं कर लिया, तब तक दक्ष स्थिरचित्त के साथ तपःरत रहकर लिङ्गपूजा कर रहे थे। तदनन्तर देवी गिरीन्द्रनन्दिनी उमा ने स्वामी महेश्वर के साथ काशी आकर दक्ष को एकाग्रतापूर्वक लिङ्गार्चन तत्पर देखकर महादेव से कहा--“हे कृपासिन्धु ! यह प्रजापति तपस्या से अत्यन्त क्षीण हो गया है। इसे वर प्रदान करिये।”” भगवती अपर्णा (उमा) का वचन सुनकर ईश्वर शम्भु ने दक्ष से कहा--हे महाभाग! वर मांगो! मैं तुमको अभीष्ट प्रदान करूंगा।”” दक्ष ने महादेव का वचन सुनकर उनको बारम्बार प्रणाम किया तथा अनेक स्तोत्र द्वारा उनका स्तव किया। इस प्रकार उन्होंने शंकर को प्रसन्न देख कर कहा- हे देवदेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब यह वर प्रदान करिये।

तत्त्वदीय पदद्वंद्वे निर्द्वंद्वा भक्तिरस्तु मे ।। 
इदं च ते महालिंगं यन्मयाऽत्र प्रतिष्ठितम् ।। अस्मिँल्लिंगे त्वया नाथ स्थातव्यं सर्वदैव हि ।।८९.१३१।।
मयापराद्धं यद्देव तत्क्षंतव्यं कृपानिधे ।। एत एव वराः संतु क्रिमन्यैरुत्तमैर्वरैः ।।८९.१३२।।
इति श्रुत्वा महादेवः प्रसन्नोतितरां भवः ।। प्रोवाच च यदुक्तं ते तत्तथास्तु न चान्यथा ।।८९.१३३।।
अन्यच्च ते वरं दद्यां तच्छृणुष्व प्रजापते ।। यत्त्वया स्थापितं लिंगमेतद्दक्षेश्वराभिधम् ।।८९.१३४।।
अस्य संसेवनात्पुंसामपराधसहस्रकम्।। क्षमिष्येहं न संदेहस्तस्मात्पूज्यमिदं जनैः ।।८९.१३५।।
त्वं तु लिंगार्चनादस्मात्सर्वमान्यो भविष्यसि ।। परार्धद्वितयप्रांते ततो मोक्षमवाप्स्यसि ।।८९.१३६।।
इत्युक्त्वा देवदेवेशस्तस्मिँल्लिंगे लयं ययौ ।। दक्षोपि गतवान्गेहं परिप्राप्तमनोरथः ।।८९.१३७।।
“आपके चरणों के प्रति मेरी एकाग्र भक्ति हो। हे नाथ! यहां मेरे द्वारा स्थापित जो महालिङ्ग है, इसमें आपकी अवस्थिति सदैव रहे। हे कृपानिधि! देवदेव! मैंने जो अपराध किया था, उसे आप क्षमा करिये। यही कई वर मुझे चाहिये। अन्य वर का कोई प्रयोजन नहीं है।” दक्ष का कथन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर महादेव कहा--“तुमने जो कहा, वही हो। अन्यथा न हो। हे प्रजापति! यह भी वर मैं देता हूं, उसे सुनो। तुम्हारे द्वारा जो लिङ्ग प्रतिष्ठित किया गया है, उस दक्षेश्वर लिङ्ग की सेवा करने पर में मनुष्य के सहस्न अपराधों को क्षमा कर दूंगा। अतः लोग इसकी पूजा करें। तुम इस लिङ्ग के पूजन फल से सर्वमान्य हो जाओगे। ब्रह्मा की आयु पर्यन्त दक्ष प्रजापति पद भोगकर तुमको मुक्ति मिलेगी।” देवाधिदेव यह वर देकर उसी लिन्न में लीन हो गये।दक्ष भी पूर्ण मनोरथ होकर स्वगृह चले गये।

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दक्षेश्वर महादेव दारानगर मे मृत्युंजय महादेव मंदिर के प्रांगण में सबसे उत्तरी छोर पर स्थित है।
Daksheshwar Mahadev is located at the northernmost end of the premises of the Mrityunjay Mahadev Temple in Daranagar.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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