Indradyumneshwar (इंद्रद्युम्नेश्वर)

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Indradyumneshwar
इंद्रद्युम्नेश्वर

भगवत कृपा से प्राप्त जानकारी और शोध...पूरा पढ़े...
Information and research received from God's grace... read completely...

काशीखण्डः अध्यायः ७७

तद्वायव्यंबरीषेशो नरस्तदवलोकनात् ।। गर्भवासं न चाप्नोति संसारे दुःखसंकुले ।।६९।।
इंद्रद्युम्नेश्वरं लिंगं तत्समीपे समर्च्य च ।। तेजोमयेन यानेन स स्वर्ग भुवि मोदते ।।७०।।
तद्दक्षिणे नरो दृष्ट्वा लिंगं कालंजरेश्वरम् ।। जरां कालं विनिर्जित्य मम लोके वसेच्चिरम् ।।७१।।
गौरी केदार के उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में अम्बरीषेश्वर है। जो भक्त इनका दर्शन करता है वह कभी भी दुखी सांसारिक अस्तित्व में गर्भ में रहने के लिए बाध्य नहीं होता है। इंद्रद्युम्नेश्वर लिंग की उसके आसपास पूजा करके, एक भक्त दिव्य वाहन में स्वर्ग जाता है और आनंद लेता है। जो नर उसके दक्षिण में कालंजरेश्वर लिंग के दर्शन करता है वह बुढ़ापा और काल को जीतकर बहुत दिनों तक मेरे लोक में निवास करेगा।

भगवत कृपा से प्राप्त जानकारी 

कथा ( इतिहास ) : प्राचीन काल में एक राजा थे, जिनका नाम था इंद्रद्युम्न । वे बड़े दानी, धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे । धनार्थियों को वे सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं से कम दान नहीं देते थे । उनके राज्य में सभी एकादशी के दिन उपवास करते थे। गंगा की बालुका, वर्षा की धारा और आकाश के तारे कदाचित गिने जा सकते हैं, पर इंद्रद्युम्न पुण्यों की गणना नहीं हो सकती । इन पुण्यों के प्रताप से वे सशरीर ब्रह्मलोक चले गये । सौ कल्प बीत जाने पर ब्रह्माजी ने उनसे कहा - ‘राजन ! स्वर्गसाधन में केवल पुण्य ही कारण नहीं है, अपितु त्रैलोक्यविस्तृत निष्कलंक यश भी अपेक्षित होता है । इधर चिरकाल से तुम्हारा यश क्षीण हो रहा है, उसे पुन: उज्ज्वल करने के लिए तुम वसुधातल पर जाओ ।’ ब्रह्मा जी के ये शब्द समाप्त भी न हो पाएं थे कि राजा इंद्रद्युम्न ने अपने को पृथ्वीपर पाया । वे अपने निवासस्थान काम्पिल्य नगर में गए और वहां के निवासियों से अपने संबंध में पूछ - ताछ करने लगे । उन्होंने कहा - ‘हमलोग तो उनके संबंध में कुछ भी नहीं जानते । आप किसी वृद्ध चिरायु से पूछ सकते हैं । सुनते हैं नैमिषारण्य में सप्तकल्पान्तजीवी मार्कण्डेयमुनि रहते हैं, कृपया आप उन्हीं से इस प्राचीन बात का पता लगाइये ।’

जब राजा ने मार्कण्डेय जी से प्रणाम करके पूछा कि ‘मुने ! क्या आप राजा इंद्रद्युम्न को जानते हैं ?’ तब उन्होंने कहा - ‘नहीं, मैं तो नहीं जानता, पर मेरा मित्र नाड़ीजंघ बक शायद इसे जानता हो, इसलिए चलो, उससे पूछा जाएं ।’ नाड़ीजंघ ने अपनी बड़ी विस्तृत कथा सुनायी और साथ ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपने से भी अति दीर्घायु प्राकारकर्म उलूक के पास चलने की सम्मति दी । पर इसी प्रकार सभी अपने को असमर्थ बतलाते हुए चिरायु गृध्रराज और मानसरोवरों में रहनेवाले कच्छप मन्थर के पास पहुंचे । मंथर ने इंद्रद्युम्न को देखते ही पहचान लिया और कहा कि ‘आप लोगों में जो यह पांचवां राजा इंद्रद्युम्न है, इसे देखकर मुझे बड़ा भय लगता है, क्योंकि इसी के यज्ञ में मेरी पीठ पृथ्वी की उष्णता से जल गयी थी ।’ अब राजा की कीर्ति तो प्रतिष्ठित हो गयी, पर उसने क्षयिष्णु स्वर्ग में जाना ठीक न समझा और मोक्षसाधन की जिज्ञासा की । एतदर्थ मंथर मे लोमशजी के पास चलना श्रेयस्कर बतलाया । लोमशजी के पास पहुंचकर यथाविधि प्रणामादि करने के पश्चात मंथर ने निवेदन किया कि इंद्रद्युम्न कुछ प्रश्न करना चाहते हैं ।

महर्षि लोमश की आज्ञा लेने के पश्चात् इंद्रद्युम्न ने कहा - ‘महाराज ! मेरा प्रथम तो यह है कि आप कभी कुटिया न बनाकर शीत, आतप तथा वृष्टि से बचने के लिए केवल एक मुट्ठी तृण ही क्यों लिये रहते हैं ?’ मुनि ने कहा - ‘राजन ! एक दिन मरना अवश्य है, फिर शरीर का निश्चित नाश जानते हुए भी हम घर किसके लिये बनायें ? यौवन, धन तथा जीवन - ये सभी चले जानेवाले हैं । ऐसी दशा में ‘दान’ ही सर्वोत्तम भवन है ।’

इंद्रद्युम्न ने पूछा - ‘मुने ! यह आयु आपको दान के परिणाम में मिली है अथवा तपस्या के प्रभाव से ? मैं यह जानना चाहता हूं ।’ लोमश जी ने कहा - ‘राजन ! मैं पूर्वकाल में एक दरिद्र शूद्र था । एक दिन दोपहर के समय जल के भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिंग देखा । भूख से मेरे प्राण सुखे जा रहे थे । उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमल के सुंदर फूलों से उस शिवलिंग का पूजन किया और पुन: मैं आगे चल दिया । क्षुधातुर होने के कारण मार्ग में ही मेरी मृत्यु हो गयी । दूसरे जन्म में मैं ब्राह्मण के घर में उत्पन्न हुआ । शिवपूजा के फलस्वरूप मुझे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहने लगा । मैंने जान बुझकर मूकता धारण कर ली । पितादि की मृत्यु हो जाने पर संबंधियों ने मुझे निरा गूंगा जानकर सर्वथा त्याग दिया । अब मैं रात - दिन भगवान शंकर की आराधना करने लगा । इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये । प्रभु चंद्रशेखर ने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और मुझे इतनी दीर्घ आयु दी ।’

यह जानकर इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध, और उलूक ने भी लोमश जी से शिवदीक्षा ली और तप करके मोक्ष प्राप्त किया।

शिव महापुराण के अनुसार  84 महादेव (उज्जैन) की कथा

दूषण नाम का राक्षस था उसको वर था, कि जहां उसका रक्त गिरेगा वहां पर 84 रूप धारण कर लेगा । शिव पुराण के अनुसार  84 महादेव शंकर भगवान की बहन थी श्री प्रिया अर्थात आज इसे क्षिप्रा नदी कहते हैं । दूषण राक्षस को मारने के लिए शंकर भगवान ने कहा कि यदि श्री प्रिया जल के रूप में आए , तो जैसे ही मैं राक्षस को मारूंगा तो इसका रक्त पानी में घुल जाएगा और इसका जन्म नहीं होगा अर्थात यह 84 रूप में नहीं बनेगा, जैसे ही शंकर भगवान ने दूषण राक्षस को मारा तो शिप्रा को आने में, देरी हो गई तो राक्षस ने 84 रूप धारण कर लिए। चारो और हाहाकार हो गया इसे देखकर बहन शिप्रा ने अपने भाई शंकर पर जल की वर्षा कर दी जैसे ही जल बहा तो शंकर जी के 84 टुकड़े होकर महादेव के ८४ रूप प्रकट हो गए और दूषण राक्षस के 84 रूप का संहार कर दिया यह टुकड़े पूरी उज्जैनी में, महादेव की रूप मैं है ।

श्री इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव (15)

श्री इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव की स्थापना की कथा शुभ एवं निष्काम कर्म करने एवं पुण्यार्जन का महत्व बताती है प्रस्तुत कथा यह दर्शाती है कि पृथ्वी पर शुभ कर्म करने से ही कीर्ति एवं स्वर्ग संभव है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में एक इन्द्रद्युम्न नाम का राजा था। राजा ने पृथ्वी लोक में अपने जीवन कल में कई निष्काम सुकर्म किए जिसके फलस्वरूप राजा को स्वर्ग की प्राप्ति हुई। लेकिन कुछ समय पश्चात जब राजा का पुण्य क्षीण हुआ तब राजा पुनः पृथ्वी पर आ गिरा। तब वह शोकसंतप्त हुआ और उसे यह ज्ञात हुआ कि स्वर्ग का वास केवल पुण्य का संचय रहने तक ही मिलता है। पृथ्वी लोक पर किए गए शुभ कर्म ही स्वर्गकारक होते हैं। अच्छे कर्मो से ही पुण्य का अर्जन होता है एवं मनुष्य की कीर्ति पुण्य प्रभाव से पृथ्वी पर रहती है। वहीं दूसरी तरफ बुरे कर्म करने पर निंदा होती है एवं दुःख भोगना पड़ता है।  यह ज्ञात होते ही राजा पुनः तपस्या करने का निश्चय कर हिमालय पर्वत की ओर चल दिया। वहां राजा को महामुनि मार्कण्डेय ऋषि मिले। राजा ने उन्हें प्रणाम किया और पूछा कि कौन सा तप करने से स्थिर कीर्ति प्राप्त होती है। मुनि ने राजा से कहा कि राजन! महाकाल वन जाओ। वहां कलकलेश्वर एक दिव्य लिंग है, उसके पूजन अर्चन करने से अक्षय कीर्ति प्राप्त होती है।
 
तब राजा महाकाल वन पहुंचा और वहां स्थित उस दिव्य लिंग का पूजन अर्चन किया। तब देवता, गन्धर्व आदि राजा की प्रशंसा करने लगे और राजा से कहने लगे कि इस महादेव के पूजन से तुम्हारी कीर्ति निर्मल हो गई है। आज से तुम्हारे नाम से ही यह लिंग इन्द्रद्युम्नेश्वर के नाम से पहचाना जाएगा।
 
दर्शन लाभ: मान्यतानुसार जो भी व्यकि श्री इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव के दर्शन करेगा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। वह कीर्ति और यश को प्राप्त होगा एवं उसके पुण्य में वृद्धि होगी। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादेव में से एक श्री इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव मोदी की गली में स्थित है।

अब पढ़िए कथा का सार एवं काशी में महत्व


श्री गौरी केदार जी के प्रेरणा से यह दिव्य ज्ञान मुझे (सुधांशु कुमार पाण्डेय को) 20 मार्च 2023 सोमवार - चैत्र, कृष्ण चतुर्दशी (मासिक शिवरात्रि) 2080 नल, विक्रम सम्वत को प्राप्त हुई..इसे नीचे सार के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं...

इंद्रद्युम्न का काशी और उज्जैन में शिवलिंग स्थापित करने की प्रेरणा : 
हरि के भक्त एवं परम भागवत श्री इन्‍द्रद्युम्र जी भगवान की कृपा से स्वर्ग तो चले गए परंतु उन्होंने पूर्ण रूप से नारायण को नहीं पाया था। कारण यह था कि शिव भक्ति की अप्रचुरता। अतः श्रीमन नारायण की इच्छा से इन्हें पुनः मृत्यु लोक भेजा गया और इनकी भेंट परम शैव ऋषि मार्कंडेय से हुई। धर्म के गुह्यतम रहस्यों के ज्ञाता महर्षि लोमश ने इनका मार्गदर्शन किया जिसके फलस्वरूप इन्होंने उज्जैन में कलकलेश्वर महादेव की आराधना की जिसे उज्जैन में तबसे इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा। यहां हम इस श्लोक से यह समझ सकते हैं कि शिवलिंग का नाम कलकलेश्वर ही है :-
कलकलेश्वर देवस्य समीपे वामभागतः। लिंगपापहरं तत्र समाराधय यत्नतः।।
काशी में शिवलिंग स्थापित करने का महत्व महर्षि लोमश द्वारा जानकर काशी में आकर केदार जी के वायव्य कोण में एक शिवलिंग स्थापित किया। यहां ध्यान देने वाली यह बात है कि उज्जैन में इनके द्वारा शिवलिंग की आराधना की गई थी उसे स्थापित नहीं किया गया था परंतु काशी में इनके द्वारा शिवलिंग विधिवत स्थापित किया गया था। महर्षि लोमष द्वारा इन्द्रद्युम्न को यह बताया गया था कि परम भागवत अंबरीष ने भी काशी में शिवलिंग स्थापित किया था अतः आप भी उसी के सन्निकट शिवलिंग की स्थापना करें। अतः दोनों महा भागवतों द्वारा स्थापित शिवलिंग काशी में केदार जी के वायव्य कोण में एक ही खंड में है


महाभारत वन पर्व अध्याय 199

राजा इन्‍द्रद्युम्र तथा अन्‍य चिरजीवी प्राणियों की कथा

वैश्‍म्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऋषियों तथा पाण्‍डवों ने मार्कण्‍डेय जी से पूछा- ‘भगवन्! कोई आपसे भी पहले का उत्‍पन्न चिरजीवी इस जगत् में है या नहीं?'

मार्कण्‍डेय जी ने कहा- 'है क्‍यों नहीं, सुनो। एक समय राजर्षि इन्‍द्रद्युम्न अपना पुण्‍य क्षीण हो जाने के कारण यह कहकर स्‍वर्गलोक से नीचे गिरा दिये गये थे कि ‘जगत में तुम्‍हारी कीर्ति नष्‍ट हो गयी है।' स्‍वर्ग से गिरने पर वे मेरे पास आये और बोले- ‘क्‍या आप मुझे पहचानते हैं?' मैंने उनसे कहा- ‘हम लोग तीर्थयात्रा आदि भिन्न-भिन्न पुण्‍य कार्यों की चेष्‍टाओं में व्‍यग्र रहते हैं, अत: किसी एक स्‍थान पर सदा नहीं रहते। एक गांव में केवल एक रात निवास करते हैं। अपने कार्यों का अनुष्‍ठान भी हमें भूल जाता है। व्रत-उपवास आदि में लगे रहने से अपने शरीर को सदा कष्‍ट पहुँचाने के कारण आवश्‍यक कार्यों का आरम्‍भ भी हम से नहीं हो पाता है, ऐसी दशा में हम आपको कैसे जान सकते हैं?'

मेरे ऐसा कहने पर राजर्षि इन्‍द्रद्युम्न ने पुन: मुझसे पूछा- ‘क्‍या आपसे भी पहले का पैदा हुआ कोई पुरातन प्राणी है?' तब मैंने उन्‍हें पुन: उत्तर दिया- ‘हिमालय पर्वत पर प्रावारकर्ण नाम से प्रसिद्ध एक उलूक निवास करता है। वह मुझसे भी पहले का उत्‍पन्न हुआ है। सम्‍भव है, वह आपको जानता हो। यहाँ से बहुत दूर की यात्रा करने पर हिमालय पर्वत मिलेगा। वहीं वह रहता है।' तब इन्‍द्रद्युम्न अश्व बनकर मुझे वहाँ तक ले गये, जहाँ उलूक रहता था। वहाँ जाकर राजा ने उससे पूछा- ‘क्‍या आप मुझे जानते हैं?' उसने दो घड़ी सोच-विचार कर उनसे कहा- 'मैं आपको नहीं जानता हूँ।' उलूक के ऐसा कहने पर राजर्षि इन्‍द्रद्युम्न ने पुन: उससे पूछा- ‘क्‍या आपसे भी पहले का उत्‍पन्न हुआ कोई चिरजीवी प्राणी है?' उनके ऐसा पूछने पर उलूक ने कहा- 'इन्‍द्रयद्युम्न नाम से प्रसिद्ध एक एक सरोवर है। जहाँ नाडीजंघ नाम से प्रसिद्ध एक बक निवास करता है। वह हमसे बहुत पहले का उत्‍पन्न हुआ है। उससे पूछिये।'

तब इन्‍द्रद्युम्न मुझको और उलूक को भी साथ लेकर उस सरोवर पर गये, जहाँ नाडीजंघ बक निवास करता था। हम लोगों ने उस बक से पूछा- ‘क्‍या आप राजा इन्‍द्रद्युम्न को जानते हैं?' उसने दो घड़ी तक सोचकर उत्तर दिया- 'मैं राजा इन्‍द्रद्युम्न को नहीं जानता हूँ।' तब हम लोगों ने उनसे पूछा- ‘क्‍या कोई प्राणी ऐसा है, जिसका जन्‍म आपसे भी पहले हुआ हो?' उसने हमसे कहा- ‘है; इसी सरोवर में अकूपार नामक एक कछुआ रहता है। वह मुझसे भी पहले उत्‍पन्न हुआ है। आप लोग उस अकूपार से ही पूछिये। सम्‍भव है, वह इन राजर्षि को किसी तरह जानता हो।' तब उस बक ने अकूपार नामक कछुए को यह सूचना दी कि ‘हम लोग आपसे कुछ अभीष्‍ट प्रश्न पूछना चाहते हैं। कृपया आइये।' यह संदेश सुनकर वह कछुआ उस सरोवर से निकलकर वहीं आया, जहाँ हम लोग तट पर खड़े थे। आने पर उससे हम लोगों ने पूछा- ‘क्‍या आप राजा इन्‍द्रद्युम्न को जानते हैं?'

उसने दो घड़ी तक ध्‍यान करके नेत्रों में आंसू भरकर, उद्विग्‍न हृदय से कांपते हुए अचेत की सी दशा में हाथ जोड़कर कहा- ‘मैं इन्‍हें क्‍यों नहीं पहचानूंगा। इन्‍होंने एक हजार बार अग्निस्थापन के समय यज्ञ-यूपों की स्‍थापना की है। इनके द्वारा दक्षिणा में दी गई गौओं के जाने-आने से यह सरोवर बन गया है, जिसमें मैं निवास करता हूं’। कच्‍छप के मुँह से ये सारी बातें सुन लेने के पश्‍चात् देवलोक से एक दिव्‍य रथ आकर प्रकट हुआ और उसमें से इन्‍द्रद्युम्न के प्रति कही हुई कुछ बातें सुनायी देने लगीं- ‘राजन्! आपके लिये स्‍वर्गलोक प्रस्‍तुत है। वहाँ चलकर यथोचित स्‍थान ग्रहण करें। आप कीर्तिमान् हैं। अत: निश्चिन्‍त होकर स्‍वर्गलोक की यात्रा करें’।

इस विषय में ये श्लोक हैं- ‘जब तक मनुष्‍य के पुण्‍यकर्म का शब्‍द भूलोक और देवलोक का स्‍पर्श करता है, जब तक दोनों लोकों में उसकी कीर्ति बनी रहती है, तभी तक वह पुरुष स्‍वर्गलोक का निवासी बताया जाता है। संसार में जिस किसी प्राणी की अपकीर्ति कही जाती है-जब तक उसके अपयश का शब्‍द गूंजता रहता है, तब तक के लिये वह नीचे के लोकों में गिर जाता है। इसलिये मनुष्‍य को सदा कल्‍याणकारी सत्‍कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। इससे अनन्‍त फल की प्राप्ति होती है। पापपूर्ण चित्त (चिन्‍तन या विचार) का परित्‍याग करके सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये’।

देवदूत की यह बात सुनकर राजा ने कहा- ‘जब तक इन दोनों वृद्धों को इनके स्‍थान पर पहुँचा न दूं, तब तक ठहरे रहो’। यह कहकर राजा ने मुझे तथा प्रावारकर्ण नामक उलूक को यथोचित स्‍थान पर पहुँचा दिया और उसी रथ से स्‍वर्ग की ओर प्रस्‍थान करके वहाँ यथोचित स्‍थान प्राप्‍त कर लिया। इस प्रकार मैंने चिरजीवी होकर अनुभव किया है’-यह बात पाण्‍डवों से मार्कण्‍डेय जी ने कही।

पाण्‍डव बोले- 'आपने यह बहुत अच्‍छा किया कि स्‍वर्गलोक से भ्रष्‍ट हुए राजा इन्‍द्रद्युम्न को पुन: अपने स्‍थान की प्राप्ति करवा दी।' तब इनसे मार्कण्‍डेय जी ने कहा- ‘देवकीनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने भी नरक में डूबते हुए राजर्षि नृग को उस भारी संकट से छुड़ाकर फिर स्‍वर्ग में पहुँचा दिया।'

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इंद्रद्युम्नेश्वर महादेव का मंदिर कूचबिहार में, कालीबाड़ी के पीछे, बी 13/98 बंगाली टोला में स्थित है।
The temple of Indradyumneshwar Mahadev is situated at B 13/98 Bengali Tola, behind Kalibari, in Coochbihar.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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