Renuka Devi
रेणुका देवी - काशी
दर्शन महात्म्य :
चैत्र, शुक्ल पक्ष चतुर्दशी
कार्तिक, शुक्ल पक्ष दशमी (देवोत्थान एकादशी)
काशी में मां कुष्मांडा देवी के उत्तर निकट ही भगवान परशुराम की माता रेणुका देवी का मंदिर है। बंगाली समाज के लोग इन्हें मां कुष्मांडा देवी की बड़ी बहन भी मानते हैं। मान्यता है कि मां कुष्मांडा देवी के दर्शन के बाद मां रेणुका के दर्शन करने पर ही कुष्मांडा देवी के दर्शन का फल मिलता है। पूरे विधि विधान से मां की तीन पहर की पूजा होती है।
मां रेणुका जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी। माता रेणुका के पांच पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः 1- रुमण्वान, 2- सुषेण, 3- वसु, 4- विश्वावसु एवं 5- परशुराम। परशुरामजी तो भगवान विष्णुजी के अवतार माने जाते हैं। माता रेणुका चतुर्दशी अर्थात चैत्र माह शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है।
महाभारत में वर्णन है– एक बार भीष्म पिततामह ने अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये काशिराज की तीन कन्याओ ( १) अम्बा ( २) अम्बिका और (३) अम्बालिका का स्वयंवर से जाकर हरण किया था। उनमे से अम्बा ने कहा कि उसे राजा शाल्व के साथ प्रेम है। ऐसा सुनकर भीषाने उसे मुक्त कर दिया। अम्बा जब शाल्व के यास गयी तो उसने भीष्म द्वारा अपहृत हुई जानकर उसका त्याग कर दिया। इससे वह क्रुद्ध हुई और भीष्म को पाठ सिंखाने के लिये महाबली परशुराम की सहायता प्राप्त करने हेतु जमदग्नि ऋषि के आश्रम में पहुंची।
उसने सारा वृत्तान्त परशुरामजी को सुनाया और भीष्म उसे स्वीकार करें, ऐसा करने की विनती को। अम्बा काशिराज की पुत्री थी और परशुराम की माता रेणुका भी काशी से सम्बन्धित थी। इस घनिष्ट सम्बन्ध से परशुराम जी ने अम्बा को सहायता देनेका वचन दिया। फिर परशुराम ने दूत भेजकर अपने शिष्य भीष्म को अपने पास बुलवाया और अम्बा को स्वीकार करने को कहा। आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतधारी भीष्म ने गुरु परशुराम का प्रस्ताव अमान्य कर दिया। शिष्य की अवज्ञा देखकर परशुराम क्रुद्ध हुए और युद्ध के लिये आह्वान किया।
सत्ययुग में अत्रि और अनसूया रूप में आदिमाता चण्डिका ने ही पृथ्वी पर मनुष्यत्व धारण किया था। ‘‘यही मनुष्यत्व आपको मनुष्यजीवन जीते समय मार्गदर्शक साबित होता है’’ ऐसा आदिमाता उस समय किरातरुद्र और शिवगंगागौरी से कहती है।
“मेरे अत्रिस्वरूप का अग्नि जमदग्नि के पास ‘पवित्र क्रोध’ बनकर आएगा और मेरे अनसूयास्वरूप का धर्माचरण रेणुका के पास ‘पातिव्रत्य’ व ‘पराक्रमविद्या’ बनकर आएगा”, ऐसा भी आदिमाता उस समय कहती है।
त्रेतायुग के महान सम्राट मंधाता के पौत्र प्रतिसेनजित की रेणुका और बेणुका नाम की दो अत्यंत रूपवती कन्याएं थीं। राजा को अपने धन-वैभव पर बहुत अहंकार था तथा उन्होंने एक दिन अपनी दोनों पुत्रियों से पूछा कि तुम किसका दिया खाती हो। बेणुका ने तो कह दिया कि पिता जी हम तो आपका दिया खाती हैं मगर रेणुका बोली कि हम सब परमात्मा का दिया खाते हैं। राजा बेणुका के उत्तर से तो प्रसन्न हुआ मगर रेणुका के उत्तर से उसके अहंकार को ठेस लगी। प्रतिकार स्वरूप उसने बेणुका का विवाह तो तत्कालीन अत्यधिक पराक्रमी सम्राट सहस्रबाहु अर्जुन के साथ किया मगर रेणुका का विवाह निर्धन तपस्वी भृगुवंशीय जमदग्नि के साथ किया।
इन्हीं जमदग्नि एवं रेणुका के यहां महापराक्रमी भगवान श्री परशुराम जी का जन्म बैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को हुआ। इनका बचपन का नाम राम था तथा यह अपने भाइयों रुमण्वान, सुषेण, वसु और विश्वावसु में सबसे छोटे थे। ब्राह्मण कुल में पैदा होने पर भी बचपन से ही इनके संस्कार क्षत्रियों जैसे थे। यह अत्यधिक पराक्रमी और साहसी थे और सदा अपने हाथ में एक फरसा लिए रहते थे जिसके कारण उनका नाम ‘परशुराम’ पड़ गया।
इस मंदिर का निर्माण प्रतापगढ़ राजघराने के महाराज अजीत प्रताप ने कराया था। इस समय चौथी पीढ़ी इस मंदिर को चला रही है। यह उन लोगों की कुलदेवी हैं।
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बी 27/77-1, दुर्गाकुंड रोड, गुरुधाम चौराहा, बाल हनुमान मंदिर के पास, दुर्गाकुंड, आनंदबाग, भेलूपुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश 221002
B 27/77-1, Durgakund Rd, Gurudham Chauraha, Near Bal Hanuman Mandir, Durgakund, Anandbagh, Bhelupur, Varanasi, Uttar Pradesh 221002
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From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey
Kamakhya, Kashi 8840422767
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काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय
कामाख्या, काशी 8840422767
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