Lopamudreshwar (लोपामुद्रेश्वर)

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Lopamudreshwar
लोपामुद्रेश्वर

काशी में महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा द्वारा उनके सन्निकट स्थापित शिवलिंग है। लोपामुद्रा के द्वारा स्थापित होने के कारण इनका नाम लोपामुद्रेश्वर महादेव है। सती माता लोपामुद्रा पति धर्म को सर्वोच्च धर्म मानती थी। उन्होंने शिवलिंग भी अपने पति भगवान अगस्त द्वारा स्थापित शिवलिंग अगस्तेश्वर महादेव के थोड़ा नीचे अर्थात पति को परमेश्वर स्वरुप मानते हुए ही किया।

काशीखण्डः अध्यायः ६१

अगस्ति तीर्थे तत्रास्ति महाघौघ विघातकृत् ।। तत्र स्नात्वा प्रयत्नेन दृष्ट्वागस्तीचश्वरं विभुम् ।। ७७ ।।
अगस्तिकुंडे च ततः संतर्प्य च पितामहान् ।। अगस्तिना समेतां च लोपामुद्रां प्रणम्य च ।। ७८ ।।।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वक्लेशविवर्जितः ।। गच्छेत्स पूर्वजैः सार्धं शिवलोकं नरोत्तमः ।।७९।।
महान पापों के समूह को दूर करने वाला अगस्ति तीर्थ है। एक उत्कृष्ट व्यक्ति जो वहां अपना पवित्र स्नान करता है, भगवान अगस्तीश्वर के दर्शन करता है, तत्पश्चात अगस्तीकुण्ड में पितामहों को तर्पण करता है और अगस्ती के साथ लोपामुद्रा को नमन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है। वह अपने पूर्वजों के साथ शिवलोक जाएगा।

महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत

जन्म: अगस्त्य मुनि को अपने पितरों की मुक्ति के लिए विवाह करने की इच्छा हुई। अपने योग्य कोई कन्या न मिलने पर उन्होंने विभिन्न जंतुओं का उत्तमांश लेकर एक कन्या की रचना की और उसे संतान के लिए आतुर विदर्भराज को दे दिया। यही लोपामुद्रा थी। लोपामुद्रा के युवती होने पर अगस्त्य ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की।

विदर्भराज को अगस्त्य से कन्या (लोपामुद्रा) की प्राप्ति:
महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 96 में विदर्भराज का महर्षि अगस्‍त्‍य से कन्‍या की प्राप्ति के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है-

महातपस्‍वी अगस्‍त्‍य मुनि ने अपने लिये निर्मित की हुई वह स्‍त्री राजा को दे दी। उस सुन्‍दरी कन्‍या का उस राजभवन में बिजली के समान प्रादुर्भाव हुआ। वह शरीर से प्रकाशमान हो रही थी। उसका मुख बहुत सुन्‍दर था, वह राजकन्‍या वहाँ दिनों दिन बढने लगी। भरतनन्‍दन! राजा विदर्भ ने उस कन्‍या के उत्पन्‍न होते ही हर्ष में भरकर ब्राह्मणों को यह शुभ संवाद सुनाया। राजन! उस समय सब ब्राह्मणों ने राजा का अभिनन्‍दन किया और उस कन्‍या का नाम ‘लोपामुद्रा’रख दिया। महाराज! उत्तम रुप धारण करने वाली वह राजकुमारी जल में कमलिनी तथा यज्ञ वेदी पर प्रज्‍वलित शुभ अग्रिशिखा की भाँति शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी।

राजेन्‍द्र! जब उसने युवावस्‍था में पदार्पण किया, उस समय उस कल्‍याणी कन्‍या को वस्‍त्राभूषणों से विभूषित सौ सुन्‍दरी कन्‍याएं और सौ दासियां उसकी आज्ञा के अधीन होकर घेरे रहतीं और उसकी सेवा किया करती थीं। सौ दासियों और सौ कन्‍याओं के बीच में वह तेजस्विनी कन्‍या आकाश में सूर्य की प्रभा तथा नक्षत्रों में रोहिणी के समान सुशोभित होती थी। यद्यपि वह युवती ओर शील एवं सदाचार से सम्‍पन्‍न थी तो भी महात्‍मा अगस्‍त्‍य के भय से किसी राजकुमार ने उसका वरण नहीं किया। वह सत्‍यवती राजकुमारी रूप में अप्‍सराओं से भी बढ़कर थी। उसने अपने शील – स्‍वभाव से पिता तथा स्‍वजनों को संतुष्‍ट कर दिया था। पिता विदर्भ राजकुमारी को युवावस्‍था में प्रविष्‍ट हुई देख मन ही मन यह विचार करने लगे कि इस कन्‍या का किसके साथ विवाह करुँ।

महर्षि अगस्‍त्‍य का लोपामुद्रा से विवाह : लोमशजी कहते हैं– युधिष्ठिर! जब मुनिवर! अगस्‍त्‍यजी को यह मालूम हो गया कि विदर्भ राजकुमारी मेरी गृहस्‍थी चलाने के योग्‍य हो गयी है, तब वे विदर्भ नरेश के पा जाकर बोले। ‘राजन! पुत्रोउत्‍पति के लिये मेरा विवाह करने का विचार है। अत: महीपाल! मैं आपकी कन्‍या का वरण करता हूँ। आप लोपामुद्रा को मुझे दे दीजिये। मुनिवर अगस्‍त्‍य के ऐसा कहने पर विदर्भराज के होश उड़ गये। वे न तो अस्‍वीकार कर सके और न उन्‍होंने अपनी कन्‍या देने की इच्‍छा ही की। तब विदर्भ नरेश अपनी पत्‍नी के पास जाकर बोले - ‘प्रिय! ये महर्षि अगस्‍त्‍य बड़े शक्तिशाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शाप की अग्नि से भस्‍म कर सकते हैं’। तब रानी सहित महाराज को इस प्रकार दुखी देख लोपामुद्रा उनके पास गयी, और समय के अनुसार इस प्रकार बोली-

आपको मेरे लिये दु:ख नहीं मानना चाहिए। पिता जी! आप मुझे अगस्‍त्‍य जी की सेवा में दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें’। युधिष्ठिर! पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने महात्‍मा अगस्‍त्‍य मुनि को विधिपूर्वक अपनी कन्‍या लोपामुद्रा ब्‍याह दी। लोपामुद्रा को पत्‍नी रुप में पाकर महर्षि अगस्‍त्‍य ने उससे कहा – ‘ये तुम्‍हारे अस्‍त्र और आभूषण बहुमूल्‍य हैं। इन्‍हें उतार दो’। तब कदली के समान जांघ तथा विशाल नेत्रों वाली लोपापुद्रा ने अपने बहुमूल्‍य, महीन एवं दर्शनीय वस्‍त्र उतार दिये और फटे पुराने वस्‍त्र तथा वल्‍कल और मृगचर्म धारण कर लिये। वह विशालनयनी बाला पति के समान ही व्रत और आचार का पालन करने वाली हो गयी।

इनको 'वरप्रदा' और 'कौशीतकी' भी कहते हैं। इनका पालनपोषण विदर्भराज निमि या क्रथपुत्र भीम ने किया इसलिए इन्हें 'वैदर्भी' भी कहते थे। अगस्त्य से विवाह हो जाने पर राजवस्त्र और आभूषण का परित्याग कर इन्होंने पति के अनुरूप वल्कल एवं मृगचर्म धारण किया। 

लोपामुद्रा को पुत्र की प्राप्ति :

लोपामुद्रा बोली– भगवन मेरी जो–जो अभिलाषा थी, वह सब आपने पूर्ण कर दी। अब मुझ से एक अत्‍यन्‍तं शक्शिाली पुत्र उत्‍पन्‍न कीजिए।

अगस्‍त्‍य ने कहा –शोभामयी कल्‍याणी! तुम्‍हारे सदव्‍यवहार से मैं बहुत संतुष्‍ट हूँ। पुत्र के सम्‍बन्‍ध में तुम्‍हारे सामने एक विचार उपस्थित करता हूँ, सुनो। क्‍या तुम्‍हारे गर्भ से एक हजार या एक सौ पुत्र उत्‍पन्‍न हों, जो दस के ही समान हों! अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रों की समानता करने वाले हों! अथवा एक ही पुत्र हो, जो हाजारों को जीतने वाला हो!

लोपामुद्रा बोली- तपेधन! मुझे सहस्‍त्रों की समानता करने वाला एक ही श्रेष्‍ठ पुत्र प्राप्‍त हो, क्‍योकि बहुत से दुष्‍ट पुत्रों की अपेक्षा एक ही विद्वान एवं श्रेष्‍ठ पुत्र उत्तम माना गया है।

लोमशजी कहते हैं - राजन तब ‘तथास्‍तु’ कहकर श्रद्धालु पत्‍नी लोपामुद्रा के साथ यथासमय समागम किया। गर्भाधान करके अगस्‍त्‍य जी फिर वन में ही चले गये। उनके वन में चले जाने पर वह गर्भ सात वर्षों तक माता के पेट में ही पलाता और बढता रहा। भारत! सात वर्ष बीतने पर अपने तेज और प्रभाव से प्रज्‍वजित होता हुआ वह गर्भ उदर से बाहर निकाला। वही महाविद्वान हढस्‍यु के नाम से विख्‍यात हुआ। महर्षि का वह महातपस्‍वी और तेजस्‍वी पुत्र जन्‍मकाल से ही अंग और उपनिषदों सहित सम्‍पूर्ण वेदों का स्‍वाध्‍याय करता जान पड़ा। हढस्‍यु ब्राहृाणों में महान माने गये।

पिता के घर में रहते हुए तेजस्‍वी हढस्‍यु बाल्‍यकाल से ही इघ्‍म (समिधा) का भार करके लाने लगे अत: ‘इघ्‍मवाह’ नाम से विख्‍यात हो गये। अपने पुत्र को स्‍वाध्‍याय और समिधानयन के कार्य में संलग्‍न इस प्रकार अगस्‍त्‍य उस समय बहुत प्रसन्‍न हुए। भारत! इस प्रकार अगस्‍त्‍य जी ने उत्तम संतान उत्‍पन्‍न की। राजन तदनन्‍तर उनके पितरों ने मनोवां‍छित लोक प्राप्‍त कर लिये। उसके बाद से यह स्‍थान इस पृथ्‍वी पर अगस्तयाश्रम के नाम से विख्यात हो गया।

रामचंद्र जी अपने वनवास में लोपामुद्रा तथा अगस्त्य से मिलने उनके आश्रम गए थे। वहाँ ऋषि ने उन्हें उपहारस्वरूप धनुष, अक्षय तूणीर तथा खड्ग दिए थे।

स्कंद पुराण - काशी खंड : देवनागरी अनुवाद

अध्याय : ४ (संक्षिप्त)

मित्र-वरुण के पुत्र महर्षि अगस्त्य बड़े ही तपस्वी थे। उनकी धर्म पत्नी लोपामुद्रा भी बहुत उच्च कोटि की पतिव्रता स्त्री थी। इनके पति मित्र-वरुण के पुत्र महर्षि अगस्त्य बड़े ही तपस्वी थे। उनकी धर्म पत्नी लोपामुद्रा भी बहुत उच्च कोटि की पतिव्रता स्त्री थी। इनके पतिव्रता का वर्णन स्कन्द पुराण के काशी खण्ड के चौथे अध्याय में विस्तारपूर्वक किया गया है। 

एक समय सब देवताओं के साथ बृहस्पति जी अगस्त्य ऋषि के आश्रम (अगस्तकुंड, काशी) पर गए आश्रम के पास विचरने वाले पशु-पक्षियों को भी मुनियों के समान वैर भाव रहित और प्रेम पूर्वक बर्ताव करते देखकर देवतााओं  ने यह समझा कि इस पुण्य क्षेत्र (काशी) का प्रभाव है। फिर उन्होंने मुनि की कुटी देखी जो कि होम और धूप की सुगन्ध से सुवासित तथा बहुत से ब्रह्मचारी विद्यार्थियों से सुशोभित थी। पतिव्रता शिरोमणि लोपामुद्रा के चरण-चिह्नों से चिह्नत पर्णकुटी के आँगन को देखकर सब देवतााओं ने नमस्कार किया। देवतााओं को आए देखकर मुनि खड़े हो गए और सबका यथायोग्य आदर-सत्कार करके आसन पर बैठाया।

तदनन्तर बृहस्पति जी ने कहा, महाभाग अगस्त्य जी आप धन्य हैं, कृतकृत्य हैं और महात्मा पुरूषों के लिए भी माननीय हैं। आप में तपस्या की सम्पत्ति, स्थिर ब्रह्मातेज, पुण्य की उत्कृष्ट शोभा, उदारता तथा विवेकशील मन है। आपकी सहधर्मिणी ये कल्याणमयी लोपामुद्रा बड़ी पतिव्रता हैं। आपके शरीर की छाया के तुल्य है। इनकी चर्चा भी पुण्यदायिनी है। मुनि ये आपके भोजन कर लेने पर ही भोजन करती है, आपके खड़े होने पर स्वयं भी खड़ी रहती है। आपके सो जाने पर सोती और आपसे पहले जाग उठती है। आपकी आयु बढ़े इस उद्देश्य से ये कभी आपका नाम उच्चारण नहीं करती हैं। दूसरे पुरूष का नाम भी ये कभी अपनी जीभ पर नहीं लाती। ये कड़वी बात सह लेती हैं किन्तु स्वयं बदले में कोई कटु वचन मुंह से नहीं निकालती। आपके द्वारा ताड़ना पाकर भी प्रसन्न ही रहती है। जब आप इनसे कहते हैं कि प्रिय अमुक कार्य करो, तब ये उत्तर देती हैं-स्वामी आप समझ लें, वह काम पूरा हो गया। आपके बुलाने पर ये घर के आवश्यक काम छोड़कर तुरंत चली आती हैं। ये दरवाजे पर देर तक नहीं खड़ी होती न द्वार पर बैठती और न सोती है। आपकी आज्ञा के बिना कोई वस्तु किसकी को नहीं देती आपके न कहने पर भी ये स्वयं ही अपके इच्छानुसार पूजा सब सामान जुटा देती हैं। नित्य -कर्म के लिए जल, कुशा, पुत्र-पुष्प और अक्षत आदि प्रस्तुत करती हैं। 

सेवा के लिए अवसर देखती रहती हैं और जिस समय जो आवश्यक अथवा उचित है वह  सब बिना किसी उद्वेग के अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित करती हैं। आपके भोजन करने के बाद बचा हुआ अन्न और फल आदि खाती और आपकी दी हुई प्रत्येक वस्तु को महाप्रसाद कहकर शिरोधार्य करती हैं। देवता,पितर और अतिथियों को तथा सेवकों, गौओं और याचकों को भी उनका भाग अर्पण किए बिना ये कभी भोजन नहीं करती। वस्त्र, आभूषण आदि सामग्रियों को स्वच्छ और सुरक्षित रखती हैं। ये गृहकार्य में कुशल है, सदा प्रसन्न रहती है, फिजूलखर्च नहीं करती एवं आपकी आज्ञा लिए बिना ये कोई उपवास और व्रत आदि नहीं करती है। जन समूह के द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों का दर्शम दूर से ही त्याग देती हैं। तीर्थ यात्रादि तथा विवाहोत्सवदर्शन आदि कार्य़ो के लिए भी ये कभी नहीं जाती। रजस्वला होने पर ये तीन रात तक अपना और पति का ही मुंह देखती हैं और किसी का नहीं यदि पति देव उपस्थित न हो तो मन ही मन उनका ध्यान करके सूर्यदेव का दर्शन करती हैं। 

पति की आयुवृद्धि चाहती हुई पतिव्रता स्त्री अपने शरीर से हल्दी, रोली, सिन्दूर, काजल , चोली, कबजा, पान और शुभ मांगलिक आभूषण कभी दूर न करें। केशों को संवारना , वेणी गूंथा तथा हाथ और कान आदि में आभूषणों को धारण करना आदि श्रृंगार कभी बंद न करें।

स्त्रियों का यही उत्तम व्रत, यही परम धर्म और यही एक मात्र देव-पूजन है कि वे पति के वचन को न टाले। पति चाहे नपुंसक, दुर्दशाग्रस्त, रोगी, वृद्ध हो अथवा अच्छी स्थिति में या बुरी स्थिति में हो अपने पति का कभी त्याग न करे। पति के हर्षित होने पर सदा हर्षित और विषादयुक्त हो। पतिपरायणा सती सम्पत्ति और विपत्ति में भी पति के साथ एक रूप होकर रहे। तीर्थ स्नान की इच्छा रखने वाली नारी अपने पति का प्रणोदक पीए क्योंकि उसके लिए केवल पति ही भगवान शिव हैं। वह उपवास आदि के नियम पालती है, अपने पति की आयु हरती है और मरने पर नरक को प्राप्त होती है। स्त्री के लिए पति ही देवता, गुरु, धर्म, तीर्थ एव व्रत है। इसलिए स्त्री सबको छोड़कर केवल पति की सेवा-पूजा करें।
 
इस प्रकार कहकर बृहस्पतिजी लापामुद्रा से बोले- पति के चकणारविन्दों पर दृष्टि रखने वाली महामाता लापामुद्रा हमने यहां काशी में आकर जो गड़ाग्स्नान किया है, उसी का यह फल है कि हमें आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।

स्त्रियों को चाहिए कि रजस्वला होने पर तीन रात्रि तक घर की वस्तुओं को न छुए क्योंकि उस समय वे अपवित्र रहती हैं। आजकल स्त्रियां जब स्त्री धर्म से युक्त होती हैं तब घर की वस्तुओं को तथा बालकों को छू लेती हैं, ऐसा करना बहुत ही खराब है। स्त्रियों को इन तीन दिनों में बड़ी सावधानी से जीवन बिताना चाहिए। इस समय वह आंखों में अंजन न लगाएं, उबटन और नदी आदि में स्नान न करें, पलंग पर न सोकर भूमि पर शयन करे, दिन में न सोएं, किसी से हंसी-मजाक न करे और न घर में रसोई आदि का काम ही करे। दीनताभाव से एक वस्त्र ही धारण करे, स्नान और भूषणादि छोड़ दें। मौन होकर नीचा मुख किए रहे तथा नेत्र, हाथ और पैरों से चंचल न हो।

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लोपामुद्रेश्वर महादेव D.36/11, अगस्त कुंड मोहल्ला में स्थित है।
lopamudreshwar mahadev is located at D.36/11, August Kund Mohalla.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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