Kashyapeshwar (कश्यपेश्वर)

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Kashyapeshwar
कश्यपेश्वर

मन्वंतर (वर्तमान) : वैवस्वत  सप्तर्षि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज

काशीखण्डः अध्यायः १००

कश्यपेशं नमस्कृत्य हरिकेशवनं ततः ।। वैद्यनाथं ततो दृष्ट्वा ध्रुवेशमथ वीक्ष्य च ।। ८२ ।।
उसे (भक्त को) कश्यप (काश्यपेश्वर) और हरिकेशवन को प्रणाम करना चाहिए। वैद्यनाथ के दर्शन के बाद उन्हें ध्रुवेश के दर्शन करने चाहिए।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-

वशिष्ठकाश्यपोऽत्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
        काशी में महर्षि कश्यप द्वारा हरिकेश वन में शिवलिंग स्थापित किया गया काशी यात्रा अंतर्गत (स्कंदपुराण) के सप्तर्षी यात्रा में कश्यपेश्वर के दर्शन का महात्म्य है ऋषि पंचमी के दिन सप्त ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंगों की काशी में विधिपूर्वक यात्रा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त संकटा घाट पर स्थित सप्तर्षी मंदिर (वसिष्ठेश्वर एवं वामदेवेश्वर परिसर) में सप्तर्षियों द्वारा स्थापित शिवलिंग का दर्शन-पूजन यत्नपूर्वक करना चाहिए       

महर्षि कश्यप ब्रम्हा के मानस पु त्रों में से एक मरीचि के पुत्र थे उनकी कुल सत्रह पत्निया थी जिनमे से 13 तो दक्ष प्रजापति की पुत्रिया थी और चार और पत्नियां भी थी। इनका नाम अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी था। दक्ष प्रजापति की पुत्री ही सती थीं जिनका विवाह भगवान शिव शंकर महादेव से हुआ था इस लिहाज से कश्यप भगवान शिव के साडू भाई थे। देवता, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, रक्षा, नाग इन सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-'अब तुम मेरे देश में मत रहो।' अत: गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे।

स्कंद पुराण और शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अठारहवाँ अध्याय) का अध्ययन करने के पश्चात यह पता चलता है कि काशी में ऋषि कश्यप, शिव को पुत्र रूप में पाने की इच्छा से आए थे अतः विश्वेश्वर के दर्शन के पश्चात उन्होंने शिवलिंग (कश्यपेश्वर) स्थापित किया (वर्तमान की जंगमबाड़ी के पास) और भगवान शिव की आराधना प्रारंभ की ऋषि कश्यप की आराधना से भगवान सदाशिव प्रसन्न होकर उनके पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया जो आगे चलकर सुरभि अर्थात कामधेनु और ऋषि कश्यप के मिलन से 11 रुद्रावतार हुए जिन्हें  एकादश रुद्र कहते हैं जिनका नाम :-  कपाली, पिंगल, भीम विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभु, चण्ड तथा भव....

समुद्रमंथन से कालकूट विष निकलने के पश्चात इसमें से सुरभि (कामधेनु) निकली जो कि एक गाय थी। कामधेनु को गायों की प्रजाति में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह कामधेनु गाय भगवान विष्णु ने ऋषि-मुनियों को दे दी क्योंकि इससे यज्ञ इत्यादि की वस्तुएं प्राप्त की जा सकती थी। कामधेनु गाय के द्वारा यज्ञ-हवन इत्यादि के लिए घी, दूध, मल-मूत्र इत्यादि सभी उपयोगी थे। इसलिये सनातन धर्म में गाय को सर्वश्रेष्ठ पशु माना गया है।

【शतरुद्र संहिता】

अठारहवाँ अध्याय

 "एकादश रुद्रों की उत्पत्ति"

नंदीश्वर बोले ;– हे मुने! अभी मैंने आपको कल्याणकारी भगवान शिव के दशावतारों के बारे में बताया। अब मैं उन्हीं शिवजी के ग्यारह अवतारों के बारे में बताता हूं। इन्हें सुनने से असत्य के दोषों से उत्पन्न होने वाली बाधा दूर हो जाती है। पूर्व समय में एक बार देवराज इंद्र अपनी नगरी अमरावती को छोड़कर चले गए। यह देखकर उनके पिता कश्यप ऋषि को बहुत दुख पहुंचा। मुनि कश्यप भगवान शिव के परम भक्त थे। उन्होंने इंद्र को बहुत समझाया और स्वयं काशी नगरी आ गए। वहां उन्होंने पवन पावन गंगाजी में स्नान के पश्चात विश्वेश्वर लिंग के दर्शन किए और उसी के पास एक अन्य शिवलिंग की स्थापना की।

उस लिंग की स्थापना कश्यप मुनि ने देवताओं के हितों के लिए की थी। फिर वे उस शिवलिंग की नित्य विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करने लगे और तपस्या में लीन रहने लगे। इस प्रकार दिन बीतते गए। एक दिन प्रसन्न होकर,,

भगवान शिव प्रकट हुए और बोले ;- हे मुनि कश्यप! मैं आपकी आराधना से प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहते हो? मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। तब भगवान शिव के वचन सुनकर कश्यप मुनि बहुत प्रसन्न हुए और महादेव जी की स्तुति करने लगे। फिर बोले-हे भगवन्! मैं अपने पुत्र के दुख से बहुत दुखी हूं। आप मेरे पुत्र का दुख दूर कीजिए। आप मेरे घर में मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर मुझे सुख प्रदान कीजिए। कश्यप मुनि के वर को सुनकर शिवजी ने 'तथास्तु' कहा और वहां से अंतर्धान हो गए। तब कश्यप मुनि भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर वापिस आ गए। उन्होंने सब देवताओं को अपने वरदान के बारे में बताया जिसे जानकर सब देवता बहुत प्रसन्न हुए।

भगवान शिव अपने द्वारा दिए गए वरदान के फलस्वरूप कश्यप मुनि के यहां उनके पुत्र के रूप में जन्मे। सभी देवताओं ने प्रसन्न होकर फूल बरसाए, अप्सराएं नृत्य करने लगीं तथा चारों दिशाओं में मंगल ध्वनि गूंजने लगी। देवताओं ने कश्यप मुनि को बहुत-बहुत बधाई दी।

सुरभि के बड़े होने पर उनसे कपाली, पिंगल, भीम विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभु, चण्ड तथा भव नामक ग्यारह रुद्रों ने जन्म लिया। इन ग्यारह रुद्रों ने देवताओं की रक्षा करने तथा उनका हित करने हेतु अनेकों असुरों का वध किया। फिर उन्होंने दैत्यों द्वारा अधिकृत किया स्वर्ग का राज्य वापस ले लिया और उस पर फिर से देवराज इंद्र का राज्य हो गया। ये ग्यारह रुद्र आज भी देवताओं की रक्षा करने के लिए स्वर्ग में विराजमान रहते हैं।


पुराणों के अनुसार हम सभी उन्हीं की संतान हैं। अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अनिष्ठा से गन्धर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, सुरभि से गौ और महिष सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु), ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, तिमि से यादोगण (जलजन्तु) विनता से गरुड़ और अरुण कद्रु से नाग, पतंगी से पतंग, यामिनी से शलभ

महर्षि कश्यप द्वारा संपूर्ण सृष्टि की सृजना में दिए गए महायोगदान की यशोगाथा हमारे वेदों, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों एवं अन्य अनेक धार्मिक साहित्यों में भरी पड़ी है, जिसके कारण उन्हें ‘सृष्टि के सृजक’ उपाधि से विभूषित किया जाता है। महर्षि कश्यप पिघले हुए सोने के समान तेजवान थे। उनकी जटाएं अग्नि-ज्वालाएं जैसी थीं। महर्षि कश्यप ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ माने जाते थे। सुर-असुरों के मूल पुरूष मुनिराज कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे पर-ब्रह्म परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। मुनिराज कश्यप नीतिप्रिय थे और वे स्वयं भी धर्म-नीति के अनुसार चलते थे और दूसरों को भी इसी नीति का पालन करने का उपदेश देते थे।महर्षि कश्यप ने अधर्म का पक्ष कभी नहीं लिया, चाहे इसमें उनके पुत्र ही क्यों न शामिल हों। महर्षि कश्यप राग-द्वेष रहित, परोपकारी, चरित्रवान और प्रजापालक थे। वे निर्भीक एवं निर्लोभी थे। कश्यप मुनि निरन्तर धर्मोपदेश करते थे, जिनके कारण उन्हें ‘महर्षि’ जैसी श्रेष्ठतम उपाधि हासिल हुई। 

और भी बहुत सारी उपलब्धियां हैं जो सीमित शब्दों में बताना मुश्किल है।

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कश्यपेश्वर डी-35/79, जंगमबाड़ी मठ के पास वाराणसी में स्थित है।
Kashyapeshwar is located at D-35/79, Varanasi near Jangambadi Math.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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