Narmadeshwar (काशी में सृष्टि का प्रथम नर्मदेश्वर लिंग, नर्मदा (रेवा) का काशी में शिव की तपस्या करना, नर्मदा के जल में पाषाण का लिंग रूप में होने का वरदान मिलना एवं गंगा से भी उत्कृष्ट नदी के रूप में प्रतिष्ठित होना)

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Narmadeshwar
नर्मदेश्वर
दर्शन महात्म्य : माघ, शुक्ल पक्ष - सप्तमी (रथ सप्तमी) / अक्षय तृतीया

काशी में सृष्टि का प्रथम नर्मदेश्वर लिंग नर्मदा (रेवा) जी द्वारा स्वयं स्थापित है। रथ सप्तमी एवं अक्षय तृतीया के दिन इनका दर्शन पूजन काशी वासियों को अवश्य करना चाहिए। रथ सप्तमी के दिन त्रिलोचन घाट पर स्नान कर त्रिविष्टप (त्रिलोचन) महादेव के परिसर में अरुण आदित्य का दर्शन करने के पश्चात नर्मदेश्वर का दर्शन पूजन करना चाहिए। त्रिलोचन घाट पर चतुर्नद अर्थात चार नदियों  गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा का एकमात्र अद्भुत एवं अकल्पनीय का संगम है।

नर्मदा (रेवा) : भगवान शिव के पसीने से मां नर्मदा का प्रादुर्भाव हुआ। मैखल पर्वत पर भगवान शंकर ने 12 वर्ष की दिव्य कन्या को अवतरित किया महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से कुछ ऐसे वरदान प्राप्त किए जो कि अन्य किसी नदी के पास नहीं है। राजा-हिरण्यतेजा ने चौदह हजार वर्षों की घोर तपस्या से शिव भगवान को प्रसन्न कर नर्मदा जी को पृथ्वी तल पर आने के लिए वर मांगा। शिव जी के आदेश से नर्मदा जी मगरमच्छ के आसन पर विराज कर उदयाचल पर्वत पर उतरीं और पश्चिम दिशा की ओर बहकर गईं।

स्कंदपुराण में ही अन्यत्र इसे सात कल्पों के क्षय होने पर भी नष्ट न होने वाली ’सप्तकल्पक्षयेक्षीणे न मृता तेन नर्मदा‘ (न मृता या न मरने वाली अतः नर्मदा) या ’नर्म ददाति‘ इति नर्मदा आनन्द या हर्ष पैदा करने वाली कहा गया है। हर्षदायिनी: नर्मदा को देखकर विषादग्रस्त देवताओं को अत्यन्त हर्ष हुआ अतः हर्षदायिनी। शांकरी : भगवान शंकर की पुत्री। दक्षिणगंगा : दक्षिण में गंगा जैसी पापमोचिनी होने से। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्पत्ति और गुणों के आधार पर इस महान नदी को समय-समय पर अनेक नामों से पुकारा गया। पन्द्रह नाम तो स्कंदपुराण के रेवाखण्ड में ’नर्मदापंचदशनामवर्णन‘ में एक साथ मिलते हैं। रेवा : ’रेवते इति रेवा‘ जो उचक-उचक कर, उछल-उछल कर गमन करे वह रेवा है /’रव‘ या शब्द करने वाली।

स्कन्दपुराणम् / खण्डः ४ (काशीखण्डः) /अध्यायः ९२
॥ स्कंद उवाच ॥
नर्मदेशस्य माहात्म्यं कथयामि मुने तव ॥ यस्य स्मरणमात्रेण महापातकसंक्षयः ॥ १ ॥
अस्य वाराहकल्पस्य प्रवेशे मुनिपुंगवैः ॥ आपृच्छि का सरिच्छ्रेष्ठा वद तां त्वं मृकंडज ॥२॥
हे ऋषि, मैं तुम्हें नर्मदेश का माहात्म्य सुनाऊँगा। इसके चिन्तन मात्र से ही सारे महापाप नष्ट हो जाते हैं। इस वाराहकल्प के आरंभ में प्रमुख ऋषियों ने पूछा: "हे मृकण्डु के पुत्र, सबसे उत्कृष्ट नदी कौन सी है? हमें बताओ।"
॥ मार्कंडेय उवाच ॥
शृणुध्वं मुनयः सर्वे संति नद्यः परःशतम् ॥ सर्वा अप्यघहारिण्यः सर्वा अपि वृषप्रदाः ॥३॥
सर्वाभ्योपि नदीभ्यश्च श्रेष्ठाः सर्वाः समुद्रगाः॥ ततोपि हि महाश्रेष्ठाः सरित्सु सरिदुत्तमाः ॥ ४ ॥
गंगा च यमुनाचाथ नर्मदा च सरस्वती ॥ चतुष्टयमिदं पुण्यं धुनीषु मुनिपुंगवाः ॥ ५ ॥
ऋग्वेदमूर्तिर्गंगा स्याद्यमुना च यजुर्ध्रुवम् ॥ नर्मदा साममूर्तिस्तु स्यादथर्वा सरस्वती ॥ ६ ॥
गंगा सर्वसरिद्योनिः समुद्रस्यापि पूरणी ॥ गंगाया न लभेत्साम्यं काचिदत्र सरिद्वरा ॥ ॥ ७ ॥
किंतु पूर्वं तपस्तप्त्वा रेवया बह्वनेहसम् ॥ वरदानोन्मुखो धाता प्रार्थितश्चेति सत्तम ॥ ८ ॥
हे मुनियों! तुम सब सुनो। सैकड़ों नदियाँ हैं। ये सभी पापों को दूर करती हैं। यह सब पुण्य के दाता हैं। सभी नदियों में, जो समुद्र में गिरती हैं, वे सर्वश्रेष्ठ हैं। उन सभी नदियों में गंगा, यमुना, नर्मदा और सरस्वती सबसे उत्कृष्ट नदियाँ हैं। हे महर्षियों, नदियों में ये चारों अत्यंत पुण्यदायी हैं। गंगा ऋग्वेद का मूर्तिमान स्वरूप है। यमुना यजुर्वेद है। नर्मदा सामवेद और सरस्वती अथर्ववेद है। गंगा सभी नदियों का उद्गम स्थल है और यह समुद्र को भरती है। कोई भी श्रेष्ठ नदी गंगा के समान नहीं हो सकती है। लेकिन पूर्व में रेवा (नर्मदा) ने लंबे समय तक तपस्या की थी। हे उत्कृष्ट, निर्माता (ब्रह्मा) जो वरदान देने के लिए तैयार थे, उनसे इस प्रकार अनुरोध किया गया था:
गंगा साम्यं विधे देहि प्रसन्नोसि यदि प्रभो ॥ ब्रह्मणाथ ततः प्रोक्ता नर्मदा स्मितपूर्वकम् ॥९॥
यदि त्र्यक्षसमत्वं तु लभ्यतेऽन्येन केनचित् ॥ तदा गंगासमत्वं च लभ्यते सरितान्यया ॥१०॥
पुरुषोत्तम तुल्यः स्यात्पुरुषोन्यो यदि क्वचित ॥ स्रोतस्विनी तदा साम्यं लभते गंगया परा ॥ ११ ॥
यदि गौरी समा नारी क्वचिदन्या भवेदिह ॥ अन्या धुनीह स्वर्धुन्यास्तदा साम्यमुपैष्यति ॥ १२ ॥
यदि काशीपुरी तुल्या भवेदस्या क्वचित्पुरी ॥ तदा स्वर्गतरंगिण्याः साम्यमन्या नदी लभेत् ॥ १३ ॥
"हे विधी (ब्रह्मा), हे भगवान, यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे गंगा के साथ समानता प्रदान करें।" तत्पश्चात नर्मदा को ब्रह्मा द्वारा मुस्कुराते हुए कहा गया: "यदि तीन नेत्रों वाले भगवान (शिव) के साथ समानता किसी और को प्राप्त हो सकती है, तो गंगा के साथ समानता किसी अन्य नदी द्वारा भी प्राप्त की जा सकती है। यदि किसी स्थान पर कोई दूसरा पुरुष पुरुषोत्तम (नारायण) के समान हो सकता है, तो कोई अन्य नदी गंगा के समान हो सकती है। यदि किसी स्थान पर कोई दूसरी स्त्री गौरी के समतुल्य हो सकती है, तो कोई अन्य नदी दिव्य नदी के समान हो जाएगी। यदि किसी प्रकार से कोई दुसरी पुरी काशी पुरी के समान हो सकता है, तो कोई अन्य नदी स्वर्गीय नदी (गंगा) के समान हो सकती है।
निशम्येति विधेर्वाक्यं नर्मदा सरिदुत्तमा ॥ धातुर्वरं परित्यज्य प्राप्ता वाराणसीं पुरीम् ॥ १४ ॥
सर्वेभ्योपि हि पुण्येभ्यः काश्यां लिंगप्रतिष्ठितेः ॥ अपरा न समुद्दिष्टा कैश्चिच्छ्रेयस्करी क्रिया ॥ १५ ॥
अथ सा नर्मदा पुण्या विधिपूर्वां प्रतिष्ठितिम् ॥ व्यधात्पिलिपिलातीर्थे त्रिविषिष्टपसमीपतः ॥ १६ ॥
विधि (ब्रह्मा) के इन शब्दों को सुनकर, उत्कृष्ट नदी (नर्मदा) ने निर्माता(ब्रह्मा) के वरदान को अस्वीकार कर दिया और वाराणसी पुरी में आई। सभी उत्कृष्ट संस्कारों में से काशी में शिवलिंग की स्थापना के अलावा किसी अन्य संस्कार को ज्ञानी जनों द्वारा सबसे बड़ा कल्याणकारी संस्कार घोषित नहीं किया गया है। तत्पश्चात यह विचार करते हुए पुण्य नदी नर्मदा ने त्रिविष्टप के समीप पिलिपिला तीर्थ में शिवलिंग की विधिवत स्थापना की।
ततः शंभुः प्रसन्नोभूऽत्तस्यै नद्यै शुभात्मने ॥ वरं वृणीष्व सुभगे यत्तुभ्यं रोचतेऽनघे ॥ १७ ॥
सरिद्वरा निशम्येति रेवा प्राह महेश्वरम् ॥ किं वरेणेह देवेश भृशं तुच्छेन धूर्जटे ॥ ॥ १८ ॥
निर्द्वंद्वा त्वत्पदद्वंद्वे भक्तिरस्तु महेश्वर ॥ श्रुत्वेति नितरां तुष्टो रेवागिरमनुत्तमाम् ॥ १९ ॥
प्रोवाच च सरिच्छेष्ठे त्वयोक्तं यत्तथास्तु तत् ॥ गृहाण पुण्यनिलये वितरामि वरांतरम् ॥ २० ॥
तत्पश्चात शंभु ने उस उत्कृष्ट नदी से प्रसन्न होकर कहा: "हे धन्य, हे निष्पाप, जो भी वरदान तुम्हें पसंद हो उसे चुन लो।" यह सुनकर, उत्कृष्ट नदी (रेवा) ने महेश्वर से कहा: "हे धूर्जटी, यहाँ क्या लाभ है, हे देवों के देव! हे महेश्वर, मेरी भक्ति आपके चरण कमल के प्रति अडिग हो। रेवा के इस उत्कृष्ट कथन को सुनकर भगवान अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा: "आपने जो कहा, वैसा ही हो। हे गुणों की धाम, मैं तुम्हें एक और वरदान दे रहा हूं। इसे लो..
यावंत्यो दृषदः संति तव रोधसि नर्मदे ॥ तावंत्यो लिंगरूपिण्यो भविष्यंति वरान्मम ॥ २१ ॥
अन्यं च ते वरं दद्या तमप्याकर्णयोत्तमम् ॥ दुष्प्रापं यज्ञतपसां राशिभिः परमार्थतः ॥ २२ ॥
सद्यः पापहरा गंगा सप्ताहेन कलिंदजा ॥ त्र्यहात्सरस्वती रेवे त्वं तु दर्शनमात्रतः ॥ २३ ॥
मेरे आशीर्वाद से, हे नर्मदा! तुम्हारे तट के सभी पत्थर लिंग के रूप में होंगे। मैं तुम्हें तपस्या के माध्यम से वास्तव में अप्राप्य एक और उत्कृष्ट वरदान दूंगा। वो भी सुनो : गंगा तुरंत पापों को दूर करती है। यमुना सात दिन में करती है, सरस्वती तीन दिन में, परन्तु आपको देखते ही पाप दूर हो जाते हैं।
अपरं च वरं दद्यां नर्मदे दर्शनाघहे ॥ भवत्या स्थापितं लिंगं नर्मदेश्वरसंजकम् ॥ २४ ॥
यत्तल्लिंगं महापुण्यं मुक्तिं दास्यति शाश्वतीम ॥ अस्य लिंगस्य ये भक्तास्तान्दृष्ट्वा सूर्यनंदनः ॥ २५ ॥
प्रणमिष्यंति यत्नेन महाश्रेयोभिवृद्धये ॥ संति लिंगान्यनेकानि काश्यां देवि पदेपदे ॥ २६ ॥
परं हि नर्मदेशस्य महिमा कोपि चाद्भुतः ॥ इत्युक्त्वा देवदेवेशस्तस्मिँल्लिंगे लयं ययौ ॥ २७ ॥ 
हे नर्मदा, मैं एक और वर भी दूँगा, जो दर्शन मात्र से ही पापों को नष्ट कर देता है। आपके द्वारा स्थापित नर्मदेश्वर नाम का लिंग अत्यधिक मेधावी है और यह शाश्वत मोक्ष प्रदान करेगा। सूर्य के पुत्र (अर्थात् मृत्यु के देवता) इस लिंग के भक्तों को देखकर परिश्रमपूर्वक झुकेंगे। महान कल्याण बढ़ाने के लिए। हे कुलीन महिला! काशी में कदम-कदम पर कई लिंग हैं, लेकिन नर्मदेश की महिमा कुछ चमत्कारी है। ऐसा कहकर देवों के देव उस लिंग में विलीन हो गये।
नर्मदापि प्रहृष्टासीत्पावित्र्यं प्राप्य चाद्भुतम् ॥ स्वदेशं च परिप्राप्ता दृष्टमात्राघहारिणी ॥ २८ ॥
वाक्यं मृकंडजमुनेस्तेपि श्रुत्वा मुनीश्वराः ॥ प्रहृष्टचेतसो जाताश्चक्रुः स्वं स्वं ततो हितम् ॥ २९ ॥
चमत्कारिक पवित्रता प्राप्त करने के बाद नर्मदा अत्यंत प्रसन्न हुई। दर्शन मात्र से पाप हरने वाली नर्मदा अपने देश को लौट गई। मृकण्डपुत्र (मार्कण्डेय) मुनि के वचन सुनकर वे महर्षि मन ही मन हर्षित हो उठे। उन्होंने उनके हित में काम किए। 
॥ स्कंद उवाच ॥
नर्मदेशस्य माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तियुतो नरः ॥ पापकंचुकमुत्सृज्य प्राप्स्यति ज्ञानमुत्तमम् ॥ ३० ॥
नर्मदेश के माहात्म्य को सुनकर, भक्ति से संपन्न मनुष्य पापों की धूल को त्याग देगा और उत्तम ज्ञान प्राप्त करेगा।

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंड उत्तरार्धे नर्मदेश्वराख्यानं नाम द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥


कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
॥ मार्कण्डेय उवाच ॥
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा रुद्रदेहाद् विनिः सृता । तारयेत् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥४०.५॥
नर्मदायास्तु माहात्म्यं पुराणे यन्मया श्रुतम् । इदानीं तत्प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्वैकमनाः शुभम् ॥४०.६॥
पुण्या कनखले गङ्गा कुरुक्षेत्रे सरस्वती । ग्रामे वा यदि वाऽरण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा ॥४०.७॥
त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम् । सद्यः पुनाति गाङ्गेयं दर्शनादेव नार्मदम् ॥४०.८॥
कलिङ्गदेशपश्चार्द्धे पर्वतेऽमरकण्टके । पुण्या च त्रिषु लोकेषु रमणीया मनोरमा ॥४०.९॥
सदेवासुरगन्धर्वा ऋषयश्च तपोधनाः । तपस्तप्त्वा तु राजेन्द्र सिद्धिं तु परमां गताः ॥४०.१०॥

पद्मपुराणम्/खण्डः ३ (स्वर्गखण्डः)/अध्यायः १३
॥ युधिष्ठिर उवाच ॥
वसिष्ठेन दिलीपाय कथितं तीर्थमुत्तमम् ॥ नर्मदेति च विख्यातं पापपर्वतदारणम् ॥१॥
भूयश्च श्रोतुमिच्छामि तन्मे कथय नारद॥ नर्मदायाश्च माहात्म्यं वसिष्ठोक्तं द्विजोत्तम ॥२॥
कथमेषा महापुण्या नदी सर्वत्र विश्रुता॥ नर्मदानाम विख्याता तन्मम ब्रूहिनारद ॥३॥
युधिष्ठिर बोले: हे नारद, मैं पापों के पर्वतों को तोड़ने वाली, नर्मदा का माहात्म्य पुनः सुनना चाहता हूँ, जिसका वर्णन वशिष्ठ ने दिलीप से किया था। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! वसिष्ठ द्वारा वर्णित नर्मदा की महिमा के विषय में मुझे बतायें। हे नारद!मुझे बतायें कि, यह परम पवित्र नदी जो नर्मदा के नाम से विख्यात है, सर्वत्र किस प्रकार प्रसिद्ध है।
॥ नारद उवाच ॥
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा सर्वपापप्रणाशिनी॥ तारयेत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥४॥
नर्मदायास्तु माहात्म्यं वसिष्ठोक्तं मया श्रुतम्॥ तदेतद्धि महाराज सर्वं हि कथयामि ते ॥५॥
नारदजी ने कहा : राजन्! नर्मदा सब नदियों में श्रेष्ठ है। वह समस्त पाप का नाश करने वाली तथा स्थावर-जंगम सम्पूर्ण भूतों को तारने वाली है। मैंने विशिष्ठ जी द्वारा कही गई नर्मदा की महिमा सुनी है। हे राजन! इसे जानो (अर्थात सुनो); मैं तुम्हें पूरी बात बताऊंगा।
पुण्या कनखले गङ्गा कुरुक्षेत्रे सरस्वती॥ ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्म्मदा ॥६॥
त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम्॥ सद्यः पुनाति गांगेयं दर्शनादेव नार्मदम् ॥७॥
गंगा कनखल में पुण्य है; कुरूक्षेत्र में सरस्वती; परन्तु नर्मदा सर्वत्र पुण्य है - चाहे गाँव में हो या जंगल यह सब जगह पुण्य है। सरस्वती का जल तीन दिन, यमुना का जल एक सप्ताह तक स्नान करने से और गंगाजी का जल स्पर्श तथा डुबकी के समय ही तत्काल पवित्र कर देता है; किन्तु नर्मदा का जल दर्शनमात्र से पवित्र कर देता है।
कलिंग देशे पश्चार्द्धे पर्वतेऽमरकंटके॥ पुण्या च त्रिषु लोकेषु रमणीया मनोरमा ॥८॥
सदेवासुरगंधर्वा ऋषयश्च तपोधनाः॥ तपस्तप्त्वा महाराज सिद्धिं च परमां गताः ॥९॥
कलिंग देश के पश्चिमी भाग में अमरकण्टक पर्वत पर नर्मदा तीनों लोकों में रमणीय तथा पावन नदी है। महाराज! देवता, असुर, गन्धर्व और तपोधन ऋषि ये नर्मदा के तट पर तपस्या करके परम सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं।
तत्र स्नात्वा महाराज नियमस्थो जितेंद्रियः॥ उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तारयेच्छतम् ॥१०॥
जनेश्वरे नरः स्नात्वा पिंडं दत्वा यथाविधि॥ पितरस्तस्य तृप्यंति यावदाभूतसंप्लवम् ॥११॥
युधिष्ठिर! वहाँ स्नान करके शौच संतोष आदि नियमोंका पालन करते हुए जो जितेन्द्रिय भाव से एक रात भी उसके तटपर निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो मनुष्य जनेश्वर तीर्थमें स्नान करके विधिपूर्वक पिण्डदान देता है, उसके पितर महाप्रलय तक तृप्त रहते हैं।
पर्वतस्य समंतात्तु रुद्रकोटिः प्रतिष्ठिता॥ स्नानं यः कुरुते तत्र गंधमाल्यानुलेपनम् ॥१२॥
प्रीता तस्य भवेत्सर्वा रुद्रकोटिर्न संशयः॥ पर्वते पश्चिमस्यांते स्वयं देवो महेश्वरः ॥१३॥
अमरकण्टक पर्वत के चारों ओर कोटि रुद्र प्रतिष्ठित हैं; जो वहाँ स्नान करता और चन्दन एवं फूल-माला आदि चढ़ाकर रुद्रों की पूजा करता है, उस पर रुद्रकोटिस्वरूप भगवान् शिव प्रसन्न होते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वत के पश्चिम भाग में स्वयं भगवान् महेश्वर विराजमान हैं।
तत्र स्नात्वा शुचिर्भूत्वा ब्रह्मचारी जितेंद्रियः॥ पितृकार्यं तु कुर्वीत विधिदृष्टेन कर्मणा ॥१४॥
तिलोदकेन तत्रैव तर्पयेत्पितृदेवताः॥ आसप्तमं कुलं तस्य स्वर्गे तिष्ठति पांडव ॥१५॥
वहाँ स्नान करके पवित्र हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जितेन्द्रिय भाव से शास्त्रीय विधि के अनुसार श्राद्ध करना चाहिये तथा वहीं तिल और जल से पितरों तथा देवताओं का तर्पण भी करना चाहिये। पाण्डुनन्दन! जो ऐसा करता है, उसकी सातवीं पीढ़ी तक के सभी लोग स्वर्ग में निवास करते हैं।
योजनानां शतं साग्रं श्रूयते सरिदुत्तमा ॥१९.1/2॥
विस्तारेण तु राजेन्द्र योजनद्वयमंतरम् ॥ षष्टितीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथैव च ॥२०॥
पर्वतस्य समंतात्तु तिष्ठंत्यमरकंटके ॥२१.1/2॥
राजा युधिष्ठिर! सरिताओं में श्रेष्ठ नर्मदा की लंबाई सौ योजन से कुछ अधिक सुनी जाती है तथा चौड़ाई दो योजन की है। अमरकण्टक पर्वत के चारों ओर साठ करोड़ साठ हजार तीर्थ है।

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EXACT GPS LOCATION : 25.31962637861295, 83.023643028643

नर्मदेश्वर त्रिलोचन के पीछे A-2/79 पर स्थित है।
Narmadeshwar is located on A-2/79, behind Trilochan.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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