Nar Narayan (Badrinarayan) - Kashi
नर नारायण (बद्रीनारायण) - काशी
दर्शन महात्म्य : एकादशी, अक्षय तृतीया, कार्तिक मास
नरनारायण क्षेत्र के चार नाम :
कृतयुग: मुक्तिप्रदा, त्रेतायुग : योगसिद्धिदा, द्वापरयुग : विशाला, कलियुग : बदरिकाश्रम
काशी में माहात्म्य
सनातन वैदिक धर्म में चार धामों - बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारिका का विशेष महत्व है। इन चारों धामों में बद्रीनाथ धाम को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। बद्रिकाश्रम से भगवान नर नारायण (बद्रीनाथ) का प्राकट्य काशी के नरनारायण तीर्थ में हुआ है। यहाँ पर किया हुआ भगवान नर नारायण (बद्रीनाथ) का १ बार दर्शन मूल में स्थित बद्रीनाथ के ५ बार दर्शन के समतुल्य हो जाता है। स्कन्दपुराण खण्ड २ के वैष्णवखण्ड बदरिकाश्रम माहात्म्य के श्लोक ६२ में कहा गया है साठ हजार वर्षों में योगाभ्यास से जो लाभ होता है वह वाराणसी में रहकर एक दिन में प्राप्त होता है और उतना ही लाभ बदरी (मूल में) जाने से होता है। अतः काशी में एक दिन का तप बद्रीनारायण के समीप किया जाये तो यह दोनों ही एक साथ प्राप्त हो जायेंगे। भगवान नर नारायण (बद्रीनाथ) के प्राकट्य एवं नरनारायण तीर्थ की उपस्थिति के कारण घाट का नाम भी बद्रीनारायण (नरनारायण) घाट है।
स्कन्दपुराण खण्डः ४ | काशीखण्डः अध्यायः ६१
नरनारायणे तीर्थे नरनारायणात्मकम् ।। भक्ताः समर्च्य मां स्युर्वै नरनारायणात्मकाः ।। १६ ।।
नरनारायण तीर्थ में, भक्त मुझे नरनारायण के रूप में पूजते हैं और फिर नरनारायण के साथ तादात्म्य प्राप्त करते हैं।
नर और नारायण (बद्रीनारायण) के काशी खंड स्थित तीर्थ और स्वरूप को समझने से पहले हम इनके उत्पत्ति, इनकी तप:स्थली तथा इनके द्वारा स्थापित शिवलिंग भगवान केदारेश्वर के माहात्म्य को जानना होगा।
भारत का शिरोमुकुट हिमालय है, जो समस्त पर्वतों का पति होने से गिरिराज कहलाता है उसी के एक उत्तुंग शिखर के प्रांगण में बद्रिकाश्रम या बदरीवन है। वहाँ पर इन चर्म चक्षुओं से न दिखने वाला बदरी का एक विशाल वृक्ष है, इसी प्रकार का प्रयाग में अक्षयवट है। बदरी वृक्ष में लक्ष्मी का वास है, इसीलिये लक्ष्मीपति को यह दिव्य वृक्ष अत्यन्त प्रिय है। उसकी सुखद शीतल छाया में भगवान् ऋषि मुनियों के साथ सदा तपस्या में निरत रहते हैं। बदरी वृक्ष के कारण ही यह क्षेत्र बदरी क्षेत्र कहलाता है। नर-नारायण का निवास स्थान होने से इसे नर-नारायण या नारायणाश्रम भी कहते हैं।
स्कन्दपुराण खण्डः २ | वैष्णवखण्डः बदरिकाश्रम माहात्म्य
।। स्कंद उवाच ।।
बदर्य्याख्यं हरेः क्षेत्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।। क्षेत्रस्य स्मरणादेव महापातकिनो नराः ।।
विमुक्तकिल्विषाः सद्यो मरणान्मुक्तिभागिनः ।। ५३ ।।
अन्यतीर्थे कृतं येन तपः परमदारुणम् ।। तत्समा बदरीयात्रा मनसापि प्रजायते ।। ५४ ।।
बहूनि संति तीर्थानि दिवि भूमौ रसातले ।। बदरीसदृशं तीर्थं न भूतं न भविष्यति ।। ५५ ।।
अश्वमेध सहस्राणि वायुभोज्ये च यत्फलम् ।। क्षेत्रांतरे विशालायां तत्फलं क्षणमात्रतः ।। ५६ ।।
बदरी नामक हरि का पवित्र स्थान तीनों लोकों में दुर्गम है। जिस पवित्र स्थान का स्मरण करने से ही महापाप करने वाले मनुष्य तुरंत पाप से मुक्त हो जाते हैं। जो वहाँ मरते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। बदरी की मानसिक तीर्थ यात्रा भी अन्य तीर्थों में की जाने वाली कठोर तपस्या के बराबर हो जाती है। स्वर्ग, पृथ्वी और पाताललोक में कई तीर्थ हैं, लेकिन बदरी जैसा तीर्थ न कभी था और न कभी होगा। पल भर में ही विशाला (अर्थात् बद्री) में वह लाभ प्राप्त कर लेता है, जो जीविका के रूप में केवल वायु से हजारों अश्वमेध यज्ञों या तपस्याओं को करने के बाद प्राप्त होता है।
कृते मुक्तिप्रदा प्रोक्ता त्रेतायां योगसिद्धिदा ।। विशाला द्वापरे प्रोक्ता कलौ बदरिकाश्रमः ।। ५७ ।।
इस पवित्र स्थान को कृतयुग में मुक्तिप्रदा (मुक्ति प्रदान करने वाला) कहा जाता है, त्रेतायुग में योगसिद्धिदा (योगिक शक्तियों का प्रदाता), द्वापर में विशाला और कलियुग में इसे बदरिकाश्रम कहा जाता है।
स्थूलसूक्ष्मशरीरं तु जीवस्य वसतिस्थलम् ।। तद्विनाशयति ज्ञानाद्विशाला तेन कथ्यते ।। ५८ ।।
अमृतं स्रवते या हि बदरीतरुयोगतः ।। बदरी कथ्यते प्राज्ञैर्ऋषीणां यत्र संचयः ।। ५९ ।।
त्यजेत्सर्वाणि तीर्थानि कालेकाले युगेयुगे ।। बदरीं भगवान्विष्णुर्न मुञ्चति कदाचन ।। ६० ।।
सर्वतीर्थावगाहेन तपोयोगसमाधितः ।। तत्फलं प्राप्यते सम्यग्बदरीदर्शनाद्गुह ।। ६१ ।।
स्थूल और सूक्ष्म शरीर जीव के निवास स्थान हैं। चूंकि पवित्र स्थान पूर्ण ज्ञान के माध्यम से इसे नष्ट कर देता है, इसलिए इसे विशाला कहा जाता है। यह पवित्र स्थान एक बदरी वृक्ष (बेर के पेड़) के संपर्क के कारण अमृत का स्राव करता है इसलिए इसे बुद्धिमान पुरुषों द्वारा बदरी कहा जाता है, जहाँ ऋषियों का समूह रहता है।भगवान विष्णु अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग युगों में सभी तीर्थों को त्याग सकते हैं, लेकिन वे बदरी को कभी नहीं छोड़ते। बद्री के दर्शन करने से वह लाभ प्राप्त होता है जो लोग सभी तीर्थों में डुबकी लगाकर या तपस्या, योगाभ्यास और समाधि (ध्यान) करके प्राप्त करते हैं।
षष्टिवर्षसहस्राणि योगाभ्यासेन यत्फलम् ।। वाराणस्यां दिनैकेन तत्फलं बदरीं गतौ ।। ६२ ।।
साठ हजार वर्षों में योगाभ्यास से जो लाभ होता है वह वाराणसी में रहकर एक दिन में प्राप्त होता है और उतना ही लाभ बदरी जाने से होता है।
तीर्थानां वसतिर्यत्र देवानां वसतिस्तथा ।। ऋषीणां वसतिर्यत्र विशाला तेनकथ्यते ।। ६३ ।।
इसे विशाला कहा जाता है क्योंकि यह सभी तीर्थों, सभी देवताओं और सभी ऋषियों का निवास स्थान है।
नर-नारायण उत्पत्ति
सृष्टि के आदि में भगवान् ब्रह्मा ने अपने मन से 10 पुत्र उत्पन्न किये। ये संकल्प से ही अयोनिज उत्पन्न हुए थे, इसलिये ब्रह्मा के मानस पुत्र कहाये। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद है। इनके द्वारा ही आगे समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई। इसके अतिरिक्त ब्रह्माजी के दायें स्तन से धर्मदेव उत्पन्न हुए और पृष्ठ भाग से अधर्म। अधर्म का भी वंश बढ़ा उसकी स्त्री का नाम मृषा (झूठ) था, उसके दम्भ और माया नाम के पुत्र हुए। उन दोनों से लोभ और निकृति (शठता) ये उत्पन्न हुए, फिर उन दोनों से क्रोध और हिंसा दो लड़की लडके हुए। क्रोध और हिंसा के कलि और दुरक्ति हुए। उनके भय ओर मृत्यु हुए तथा भय मृत्यु से यातना (दुख) और निरय नरक ये हुए। ये सब अधर्म की सन्तति है। ’’दुर्जनं प्रथम बन्दे सज्जनं तदनन्तरम्’’ इस न्याय से अधर्म की वंशावली के बाद अब धर्म की सन्तति -
ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति का विवाह मनु पुत्री प्रसूती से हुआ। प्रसूति, दक्ष प्रजापति ने 16 कन्यायें उत्पन्न की। उनमें से 13 का विवाह धर्म के साथ किया। एक कन्या अग्नि को दी, एक पितृगण को, एक भगवान् शिव को। जिनका विवाह धर्म के साथ हुआ उनके नाम - श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि मेधा, तितिक्षा, ही और मूर्ति।
धर्म की ये सब पत्नियाँ पुत्रवती हुई। सबने एक एक पुत्र रत्न उत्पन्न किया। जैसे श्रद्धा ने शुभ को उत्पन्न किया, मैनी ने प्रसाद को, दया ने अभय को, शान्ति ने सुख को, तुष्टि ने मोद को, पुष्टि ने अहंकार को, क्रिया ने योग को उन्नति ने दर्प को, पुद्धि ने अर्थ को, मेधा ने स्मृति को, तितिक्षा ने क्षेम को, और ही (लल्जा) ने प्रश्रय (विनय) को और सबसे छोटी मूर्ति देवी ने भगवान् नर-नारायण को उत्पन्न किया। क्योंकि मूर्ति में ही भगवान् की उत्पत्ति हो सकती है। वह मूर्ति भी धर्म की ही पत्नी है।
नर-नारायण ने अपनी माता मूर्ति की बहुत अधिक बड़ी श्रद्धा से सेवा की। अपने पुत्रों की सेवा से सन्तुष्ट होकर माता ने पुत्रों से वर माँगने को कहा। पुत्रों ने कहा-’’माँ, यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो वरदान दीजिये कि हमारी रूचि सदा तप में रहे और घरबार छोड़कर हम सदा तप में ही निरत रहें।’’ माता को यह अच्छा कैसे लगता कि मेरे प्राणों से भी प्यारे पुत्र घर-बार छोड़कर सदा के लिये वनवासी बन जायँ, किन्तु वे वचन हार चुकी थी। अतः उन्होंने अपने आँखों के तारे आज्ञाकारी पुत्रों को तप करने की आज्ञा दे दी। दोनों भाई बदरिकाश्रम में जाकर तपस्या में निरत हो गये।
बदरिकाश्रम में जाकर दोनों भाई घोर तपस्या करने लगें इनकी तपस्या के सम्बन्ध में पुराणों में भिन्न-भिन्न प्रकार की कथायें हैं।
श्रीमद्भागवत में कई स्थानों पर भगवान् नर-नारायण का उल्लेख है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कन्द में तो नर-नारायण की बड़ी लम्बी कथा है।
नर और नारायण भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए केदारखंड में उस स्थान पर तपस्या करने लगे जहां पर आज ब्रदीनाथ धाम है।
इनकी तपस्या से इंद्र परेशान होने लगे। इंद्र को लगने लगा कि नर और नारायण इंद्रलोक पर अधिकार न कर लें। इसलिए इंद्र ने अप्सराओं को नर और नारायण के पास तपस्या भंग करने के लिए भेजा। उन्होंने जाकर भगवान नर-नारायण को अपनी नाना प्रकार की कलाओं के द्वारा तपस्या भंग करने का प्रयास किया, किंतु उनके ऊपर कामदेव तथा उसके सहयोगियों का कोई प्रभाव न पड़ा। कामदेव, वसंत तथा अप्सराएं शाप के भय से थर-थर कांपने लगे। उनकी यह दशा देखकर भगवान नर और नारायण ने कहा, 'तुम लोग मत डरो। हम प्रेम और प्रसन्नता से तुम लोगों का स्वागत करते हैं।'
भगवान नर और नारायण की अभय देने वाली वाणी को सुनकर काम अपने सहयोगियों के साथ अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने उनकी स्तुति करते हुए कहा- प्रभो! आप निर्विकार परम तत्व हैं। बड़े बड़े आत्मज्ञानी पुरुष आपके चरण.
कमलों की सेवा के प्रभाव से कामविजयी हो जाते हैं। हमारे ऊपर आप अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाए रखें। हमारी
आपसे यही प्रार्थना है। आप देवाधिदे विष्णु हैं।
कामदेव की स्तुति सुनकर भगवान नर नारायण प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी योगमाया के द्वारा एक अद्भुत लीला दिखाई। सभी लोगों ने देखा कि 16000 सुंदर-सुंदर नारियां नर और नारायण की सेवा कर रही हैं। फिर नारायण ने इंद्र की अप्सराओं से भी सुंदर अप्सरा को अपनी जंघा से उत्पन्न कर दिया। उर्व से उत्पन्न होने के कारण इस अप्सरा का नाम उर्वशी रखा। नारायण ने इस अप्सरा को इंद्र को भेंट कर दिया। उन 16000 कन्याओं ने नारायण से विवाह की इच्छा जाहिर की,तब नारायण ने उन्हें कहा कि द्वापर में मेरा कृष्ण अवतार होगा। तब तक प्रतीक्षा करने को कहा।
उनकी आज्ञा मानकर कामदेव ने अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को लेकर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। उसने देवसभा में जाकर भगवान नर और नारायण की अतुलित महिमा के बारे में सबसे कहा, जिसे सुनकर देवराज इंद्र को काफी पश्चाताप हुआ।
केदार और बदरीवन में नर-नारायण नाम ने घोर तपस्या की थी। इसलिए यह स्थान मूलत: इन दो ऋषियों का स्थान है। दोनों ने केदारनाथ में शिवलिंग और बदरीकाश्रम में विष्णु के विग्रहरूप की स्थापना की थी।
केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पति
भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए दोनों कहते हैं कि हे शिव आप हमारी पूजा ग्रहण करें।
नर और नारायण के पूजा आग्रह पर भगवान शिव स्वयं उस पार्थिव लिंग में आते हैं। इस तरह पार्थिव लिंग के पूजन में वक्त गुजरता जाता है। एक दिन भगवान शिव खुश होते हैं और नर व नारायण के सामने प्रकट होकर कहते हैं कि वो उनकी अराधना से बेहद खुश हैं इसलिए वर मांगो।
नर और नारायण कहते हैं, हे प्रभु अगर आप प्रसन्न हैं तो लोक कल्याण के लिए कुछ कीजिए। भगवान शिव कहते हैं कि कहो क्या कहना चाहते हो। इस पर नर और नारायण कहते हैं कि जिस पार्थिव लिंग में हमने आपकी पूजा की है उस लिंग में आप स्वयं निवास कीजिए ताकि आपके दर्शन मात्र से लोगों का कष्ट दूर हो जाए।
दोनों भाइयों के अनुरोध से भगवान शिव और प्रसन्न हो जाते हैं और केदारनाथ के इस तीर्थ में केदारेश्वर ज्योतिलिंग के रुप में निवास करने लगते हैं। इस तरह केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पति होती है।
महाभारत के अनुसार पाप से मुक्त होने के बाद केदारेश्वर में स्थित ज्योतिर्लिंग के आसपास मंदिर का निर्माण पांडवों ने अपने हाथ से किया था। बाद में इसका दोबारा निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था। इसके बाद राजा भोज ने यहां पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया था।
यही नर और नारायण द्वापर में अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे।
पत्नी के साथ भगवान लक्ष्मीनारायण, सत्यनारायण हैं। माता मूर्ति देवी के साथ भगवान नारायणमूर्ति हैं।
भगवान विश्वनाथ और बद्रीनारायण की कृपा से इस दास को जितना समझ आया उसे इस पौराणिक लेख में सार संग्रहित करने का प्रयत्न किया है..
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नर नारायण (बद्री नारायण) A.1/72, बद्री नारायण घाट पर स्थित है।
Nar Narayan (Badri Narayan) is located at A.1/72, Badri Narayan Ghat.
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey
Kamakhya, Kashi 8840422767
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काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
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