Dakshinamurti Shiv (काशी में दक्षिणामूर्ति शिव, गुरु पूर्णिमा)

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काशी में दक्षिणामूर्ति शिव

ॐ वृषभध्वजाय विद्महे घृणिहस्ताय धीमहि तन्नो दक्षिणामूर्ति प्रचोदयात् ।।

शिवो गुरु: शिवो देव: शिवो बन्धु: शरीरिणाम्। शिव आत्मा शिवो जीव: शिवादन्यन्न किञ्चन ॥
शिव ही गुरु हैं, शिव ही देवता हैं, शिव ही प्राणियों के बन्धु हैं, शिव ही आत्मा और शिव ही जीव हैं, शिव से भिन्न कुछ नहीं है। सदगुरु के साकार रूप की भी पूर्णता उनके शिव स्वरूप में ही होती है।

काशी में भगवान दक्षिणामूर्ति का भी एक अति प्राचीन मंदिर है यह शायद सभी नहीं जानते होंगे। यह मंदिर मंगला गौरी से संकठा जी की ओर जाने पर घाट से सटे एक घर में पड़ता है। भगवान शिव के इस गुरु दक्षिणामूर्ति स्वरूप का विवरण और दर्शन पूजन काशी में  विलुप्त सा हो गया है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे तथा अनेक देवालयों में दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियां स्थापित रहती हैं। यहां एक और बात भी जानने योग्य है कि भगवान शिव के आराध्य नारायण का एक नाम नारायणमूर्ति भी है। भगवान की कृपा से दक्षिणामूर्ति स्वरूप का विवरण इस पौराणिक लेख में साझा किया जा रहा है

दक्षिणामूर्ति सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु (शिक्षक) के रूप में भगवान शिव का एक स्वरूप है। शिव का यह स्वरूप, मूल आदि गुरु के रूप में, सर्वोच्च या परम जागरूकता, समझ और ज्ञान के रूप में उनका अवतार है। यह रूप शिव को योग, संगीत और ज्ञान के शिक्षक के रूप में और शास्त्रों पर विस्तार देने का प्रतिनिधित्व करता है। उन्हें ज्ञान, पूर्ण और पुरस्कृत ध्यान के देवता के रूप में पूजा जाता है। सनातन शास्त्रों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का कोई गुरु नहीं है, तो वह दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है और उसकी पूजा कर सकता है। यदि वे योग्य हैं तो अंततः उन्हें एक आत्म-साक्षात्कार मानव गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होगा।


श्री दक्षिणामूर्ति, जटार घाट (अति प्राचीन) - जटार घाट और रामघाट के मध्य शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप का यह मंदिर घाट से सटा हुआ पड़ता है भगवान दक्षिणामूर्ति का यह विग्रह जिनका मुख दक्षिण दिशा की ओर है यह मंदिर अति प्राचीन है, वर्तमान में यह एक घर के प्रांगण में हो गया है


श्री दक्षिणामूर्ति, दक्षिणामूर्ति मठ, मिसिर पोखरा - श्री दक्षिणामूर्ति मठ मिसिर पोखरा ( ध्रुव कुंड ) काशी की स्थापना महामण्डलेश्वर श्री स्वामी महेशानन्द गिरि जी महाराज के द्वारा 19 वीं शताब्दी में की गई थी। भगवान का यह विग्रह भी उसी समयावधि में स्थापित किया गया था।


दक्षिणामूर्ति भगवान शिव का एक स्वरूप है जहां उन्हें योग, संगीत और विज्ञान के गुरु (शिक्षक) के रूप में दर्शाया गया है। उन्हें दक्षिणामूर्ति के रूप में जाना जाने लगा क्योंकि उन्होंने ऋषियों को दक्षिण (दक्षिण दिशा) की ओर मुख करके योग और ज्ञान की शिक्षा दी थी। श्री आदि शंकराचार्य ने अपने श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् में भगवान शिव के इस रूप की प्रशंसा की है।


दक्षिणामूर्ति को मुख्य रूप से चार अलग-अलग स्वरूपों में देखा जाता है: - योग के शिक्षक के रूप में, वीणा के शिक्षक के रूप में, ज्ञान के शिक्षक के रूप में और अन्य विभिन्न शास्त्रों के शिक्षक के रूप में।

चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धा: शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशया: ।।
अर्थात् “गुरु का दृश्य बड़ा अद्भुत है , श्री दक्षिणामूर्ति गुरु भगवान तो युवा हैं और शिष्य वृद्ध हैं , वह शिष्यों के संशय को मौन रहते हुये छिन्न अर्थात् समाप्त कर रहे हैं।“
वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥
अर्थात् "वट वृक्ष की छाया में भूमि आसन पर पद्मासन में विराजमान चार भुजा वाले भगवान दक्षिणामूर्ति सभी मुनियों को मौन रूप से ज्ञान देने वाले, त्रिभुवन पति जन्म और मृत्यु जन्य दुःख को समाप्त करने में दक्ष , उनका हम नमन करते है। (श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् से उद्धृत)

आषाढ़ पूर्णिमा 

(गुरु पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा)

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार ।
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् । शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं ।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।
सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥
अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है ।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।

गुरु पूर्णिमा सनातन धर्म संस्कृति है। आदिगुरु परमेश्वर शिव दक्षिणामूर्ति रूप में समस्त ऋषि मुनि को शिष्य के रूप शिव ज्ञान प्रदान किया था। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही महर्षि वेदव्यास का भी जन्म हुआ है। उनके स्मरण रखते हुए गुरुपूर्णिमा मानाया याता है। गुरु पूर्णिमा उन सभी आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परम्परा है जिन्होंने कर्म योग आधारित व्यक्तित्व विकास और प्रबुद्ध करने, बहुत कम अथवा बिना किसी मौद्रिक खर्चे के अपनी बुद्धिमता को साझा करने के लिए तैयार हों। इसको भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में मनाते हैं। यह पर्व हिन्दू, बौद्ध और जैन अपने आध्यात्मिक शिक्षकों / अधिनायकों के सम्मान और उन्हें अपनी कृतज्ञता दिखाने के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व सनातन वैदिक पंचांग के आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

सनातन वैदिक शास्त्र के अनुसार, इस तिथि पर परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति का रूप धारण किया और ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेदों का अंतिम ज्ञान प्रदान किया। इसके अलावा, यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।


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For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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