Gokarneshwar
(गोकर्णेश्वर)
भगवान शिव के ये थे प्रमुख गण - भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंड, नंदी, श्रृंगी, भृंगी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।
परम भागवत शिवगण गोकर्ण ने काशी में शिवलिंग की स्थापना की जिसे गोकर्णेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। गौ के सामान इनका कान (कर्ण) होने के कारण इनका नाम गोकर्ण पड़ा। (संपूर्ण कथा श्रीमद्भागवत में पढ़ सकते हैं) इन्होंने अपने भाई धुन्धुकारी जो प्रेत बन गया था उसके लिए श्रीमद्भागवत कथा का वाचन किया था। जिससे धुन्धुकारी प्रेत योनि से छूट कर विष्णु लोक को चला गया। गोकर्ण की भगवान के प्रति भक्ति तथा कथा प्रेम ने इनको परम भागवत बनाया। काशी में भगवान के भेजे गए गणों में गोकर्ण जी भी थे इनके द्वारा काशी में स्थापित किया गया शिवलिंग भगवान विश्वनाथ के अंग स्वरुप में कान (कर्ण) है। इनके समीप कही गई कोई भी बात भगवान विश्वनाथ के कानों में सीधे पहुंचती है। काशी में भगवान विश्वनाथ के दो कान गोकर्णेश्वर और भारभूतेश्वर हैं। अतः गोकर्णेश्वर की पूजा करने वाले की मृत्यु के समय भी ज्ञान का हरण नहीं होता।
काशी में शिवलिंग स्थापना से पूर्व उनके पूजन के लिए कूप, वापी, कुंड आदि बनवाकर जलाभिषेक करने का विधान है। इसी क्रम में जब गोकर्ण जी काशी में आए तो शिवलिंग स्थापना से पूर्व ही उन्होंने एक कूप की स्थापना की जिसे गोकर्ण कूप के नाम से जाना जाता है वर्तमान में यह D.50/33 मकान में चला गया है।
स्कन्दपुराण : काशीखण्ड
गोकर्णेशं महालिंगमंतर्गेहस्य पश्चिमे ।। द्वारे समर्च्य वै काश्यां न विघ्नैरभिभूयते ।। ५३.८१ ।।
गोकर्णेश्वर भक्तस्य पंचत्व समये सति ।। ज्ञानभ्रंशो न जायेत क्वचिदप्यंतमृच्छतः ।। ५३.८२ ।।
अंतर्गृह (विश्वेश्वर) के पश्चिम में एक भक्त को उसके प्रवेश द्वार पर काशी में महान लिंग गोकर्णेश की पूजा करनी चाहिए। उस पर कभी बाधाओं का प्रहार नहीं होता। जब गोकर्णेश्वर का भक्त देह त्याग करता है, चाहे वह कहीं भी मरे, उसे ज्ञान की हानि नहीं होती।
ॐकारेशः शिखा ज्ञेया लोचनानि त्रिलोचनः ।। गोकर्णभारभूतेशौ तत्कर्णौ परिकीर्तितौ ।।१६८।।
गोकर्ण
तुंगभद्रा तट पर आत्मदेव नाम के एक विद्वान् ब्राह्मण थे। आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था। ये ब्राह्मण दम्पति संतानहीन थे। एक दिन वह ब्राह्मण संतानचिन्ता में निमग्न होकर घर से निकल पड़ा और वन में जाकर एक तालाब के किनारे बैठ गया। वहाँ उसे एक संन्यासी महात्मा के दर्शन हुए। ब्राह्मण ने उनसे अपनी संतानहीनता का दु:ख बताकर संतान प्राप्ति का उपाय पूछा। महात्मा ने कहा- 'ब्राह्मणदेव! संतान से कोई सुखी नहीं होता है। तुम्हारे प्रारब्ध में संततियोग नहीं है। तुम्हें भगवान के भजन में मन लगाना चाहिये।' ब्राह्मण बोला- 'महाराज! मुझे आपका ज्ञान नहीं चाहिये। मुझे संतान दीजिये, अन्यथा मैं अभी आपके सामने अपने प्राणों का त्याग कर दूँगा।' ब्राह्मण का हठ देखकर महात्माजी ने उसे एक फल दिया और कहा- 'तुम इसे अपनी पत्नी को खिला दो। इसके प्रभाव से तुम्हें पुत्र प्राप्ति होगी।' आत्मदेव ने वह फल ले जाकर अपनी पत्नी धुन्धुली को दे दिया, किंतु उसकी पत्नी दुष्टस्वभाव की कलहकारिणी स्त्री थी। उसने गर्भधारण एवं प्रसवकष्ट का स्मरण करके फल को अपनी गाय को खिला दिया और पहले से गर्भवती अपनी छोटी बहन से प्रसव के बाद संतान को अपने लिये देने का वचन ले लिया। समय आने पर धुन्धुली की बहन को एक पुत्र हुआ और उसने अपने पुत्र को धुन्धुली को दे दिया। उस पुत्र का नाम धुन्धुकारी रखा गया।
गोकर्ण का जन्म
तीन मास के बाद गाय को भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके शरीर के सभी अंग मनुष्य के थे, केवल कान गाय के समान थे। ब्राह्मण ने उस बालक का नाम गोकर्ण रखा। गोकर्ण थोड़े ही समय में परम विद्वान् और ज्ञानी हो गये। धुन्धुकारी दुश्चरित्र, चोर और वेश्यागामी निकला। आत्मदेव उससे दु:खी होकर और गोकर्ण से उपदेश प्राप्त करके वन में चले गये और वहीं भगवान का भजन करते हुए परलोक सिधारे। गोकर्ण भी तीर्थ यात्रा के लिये चले गये। धुन्धुकारी ने अपने पिता की सम्पत्ति नष्ट कर दी। उसकी माता ने कुएँ में गिरकर अपना प्राण त्याग दिया। उसके बाद धुन्धुकारी ने निरंकुश होकर पाँच वेश्याओं को अपने घर में रख लिया। एक दिन वेश्याओं ने उसे भी मार डाला। धुन्धुकारी अपने दूषित आचरण के कारण प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ।
धुन्धुकारी का उद्धार
गोकर्ण तीर्थ यात्रा करके लौट आये। वे जब रात में घर में सोने गये, तब प्रेत बना हुआ धुन्धुकारी उनके निकट आया। उसने बड़े ही दीन शब्दों में अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त गोकर्ण से कह सुनाया और प्रेतयोनि की भीषण यातना से छूटने का उपाय पूछा। भगवान सूर्य की सलाह पर गोकर्ण ने धुन्धुकारी को प्रेतयोनि से मुक्त करने के लिये श्रीमद्भागवत की सप्ताह-कथा प्रारम्भ की। श्रीमद्भागवतकथा का समाचार सुनकर आस-पास के गाँवों के लोग भी कथा सुनने के लिये एकत्र हो गये। जब व्यास के आसन पर बैठकर गोकर्ण ने कथा कहनी प्रारम्भ की, तब धुन्धुकारी भी प्रेतरूप में सात गाँठों के एक बाँस के छिद्र में बैठकर कथा सुनने लगा। सात दिनों की कथा में क्रमश: उस बाँस की सातों गाठें फट गयीं और धुन्धुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर भगवान के धाम को चला गया। श्रावण के महीने में गोकर्ण ने एक बार फिर उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा कही और उसके प्रभाव से कथा-समाप्ति के दिन वे अपने श्रोताओं के सहित भगवान विष्णु के परमधाम को पधारे।
पूर्ण कथा श्रीमद्भागवत में यहां पढ़ें : CLICK HERE
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गोकर्णेश्वर दयालु गली, कोदई की चौकी, D.50/34A में स्थित हैं ।
Gokarneshwar is located at Dayalu Gali, Kodai Ki Chowki, D.50/34A
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From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey
Kamakhya, Kashi 8840422767
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प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय
कामाख्या, काशी 8840422767
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