Ghantakarneshwar (घंटाकर्णेश्वर)

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Ghantakarneshwar
घंटाकर्णेश्वर

भगवान शिव के गण : भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का स्थान आता है तत्पश्चात वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया। भगवान शिव के ये थे प्रमुख गण - भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।

काशीखण्डः अध्यायः ५३

।। स्कंद उवाच ।। ।।

शंकुकर्णे महाकाले चिरंतन विलंबिते ।। ज्ञात्वा सर्वज्ञनाथोथ प्राहैपीदपरौ गणौ ।। ३० ।।
घंटाकर्ण त्वमागच्छ महोदर महामते ।। काशीं यातं युवां तूर्णं ज्ञातुं तत्रत्य चेष्टितम् ।।३१।।
इत्यगस्ते गणौ तौ तु गत्वा काशीं महापुरीम्।। व्यावृत्याद्यापि नो यातौ क्वापि तत्रैव संस्थितौ ।। ३२ ।।
घंटाकर्णेश्वरं लिंगं घंटाकर्ण गणोत्तमः ।। काश्यां संस्थाप्य विधिवत्स्वयं तत्रैव निर्वृतः ।। ३३ ।।
कुंडं तत्रैव संस्थाप्य लिंगस्नपनकर्मणे ।। नाद्यापि स त्यजेत्काशीं ध्यायँल्लिंगं तथैव हि ।। ३४ ।।
महोदरोपि तत्प्राच्यां शिवध्यानपरायणः ।। महोदरेश्वरं लिंगं ध्यायेदद्यापि कुंभज ।। ३५ ।।
महोदरेश्वरं दृष्ट्वा वाराणस्यां द्विजोत्तम ।। कदाचिदपि वै मातुः प्रविशेन्नौदरीं दरीम् ।। ।। ३६ ।।
घंटाकर्ण ह्रदे स्नात्वा दृष्ट्वा व्यासेश्वरं विभुम् ।। यत्र कुत्र विपन्नोपि वाराणस्यां मृतो भवेत्।।३७।।
घंटाकर्णे महातीर्थे श्राद्धं कृत्वा विधानतः ।। अपि दुर्गतिमापन्नानुद्धरेत्सप्तपूर्वजान् ।। ३८ ।।
निमज्ज्याद्यापि तत्कुंडे क्षण योवहितो भवेत् ।। विश्वेश्वरमहापूजा घंटारावाञ्शृणोति सः ।।३९।।
वदंति पितरः काश्यां घंटाकर्णेमलेजले।। दाता तिलोदकस्यापि वंशे नः कोपि जायते।।४०।।
यद्वंश्या मुनयः काश्यां घंटाकर्णे महाह्रदे।। कृतोदकक्रियाः प्राप्ताः परां सिद्धिं घटोद्भव ।।४१।।

।। स्कंद उवाच ।। ।।
घंटाकर्णे गणे याते प्रयाते च महोदरे ।। विसिस्माय स्मरद्वेष्टा मौलिमांदोलयन्मुहुः ।।४२।।
उवाच च मनस्येव हरः स्मित्वा पुनःपुनः ।। महामोहनविद्यासि काशि त्वां पर्यवैम्यहम् ।। ४३ ।।

स्कंद ने कहा:
शंकुकर्ण और महाकाल को बहुत देर हो चुकी थी। यह जानकर सर्वज्ञ भगवान ने दो अन्य गणों को भेजा। “हे घंटाकर्ण, तुम जाओ। हे महाबुद्धिमान महोदर, तुम दोनों शीघ्र काशी जाकर वहाँ का हाल जान लो।”  इस प्रकार ये दोनों गण महान नगरी काशी में पहुँच कर आज तक वापस नहीं लौटे हैं। वे वहीं किसी स्थान पर रुके थे। काशी में घंटाकर्णेश्वर लिंग की विधिवत स्थापना के बाद, उत्कृष्ट गण घंटाकर्ण ने इसमें अत्यधिक आनंद लिया। उन्होंने लिंग के जलभिषेक अनुष्ठान के लिए वहां एक पवित्र कुंड खोदा और लिंग का ध्यान करते हुए आज तक काशी नहीं छोड़ी। उसके पश्चिम में महोदर शिव के ध्यान में लीन हो गए। आज भी, हे घड़े में जन्मे ऋषि (अगस्त्य), वे महोदेश्वर लिंग का ध्यान करते हैं। हे उत्कृष्ट ब्राह्मण, वाराणसी में महोदेश्वर के दर्शन करने के बाद, कोई भी माँ के पेट की गुहा में प्रवेश नहीं करता है। घंटाकर्णहृद में पवित्र डुबकी लगाने और भगवान व्यासेश्वर के दर्शन करने के बाद, अगर कोई भक्त कहीं और मर जाता है, तो उसे वाराणसी में मरने वाला माना जाएगा। इस महान तीर्थ में विधिवत श्राद्ध करने के बाद, एक भक्त सात पीढ़ियों के पूर्वजों का उद्धार करेगा, भले ही वे नरक में पीड़ित क्यों न हों। आज भी, उस पवित्र कुंड में डुबकी लगाने के बाद, यदि कोई एक पल के लिए भगवान का ध्यान करता है, तो वह निश्चित रूप से विश्वेश्वर की महान पूजा की घंटियों की बजती हुई ध्वनि सुनता है। हे घड़े में जन्मे (अगस्त्य), पूर्वज कहते हैं: "क्या हमारे परिवार में घण्टाकर्ण के शुद्ध जल में तिल के बीज और जल चढ़ाने वाला कोई नहीं होगा?" काशी में महान ह्रद घण्टाकर्ण में तर्पण संस्कार करने के बाद उनके परिवार के लोगों ने महान अलौकिक शक्तियां प्राप्त की हैं।

जब गण घंटाकर्ण चला गया था और जब महोदर भी चला गया था, तो स्मर (भगवान शिव) का शत्रु आश्चर्यचकित हो गया था। बार-बार सिर हिलाते हुए और बार-बार मुस्कराते हुए, हर ने मन ही मन कहा: 'हे काशी! मैं तुम्हें भली भांति जानता हूं कि तुममें दूसरों को मोहित करने की बड़ी शक्ति है।

भगवान विश्वनाथ और भगवान बद्रीनारायण की विशेष अनुग्रह के साथ भगवान के गणो का यह पौराणिक लेख आप सभी भक्तों के साथ साझा कर रहा हूं.. 

परम शिव भक्त घंटाकर्ण :
पुराणों के अनुसार, घंटाकर्ण असुर योनि में जन्मा एक असुर था, जो भगवान शिव का परम उपासक था। देवाधिदेव महादेव का ये उपासक शिव भक्ति में डूबा रहता था। एक ओर जहां घंटाकर्ण भगवान शिव के भक्त था, वहीं उसे भगवान नारायण के नाम से भी बैर था। अगर कोई भी उसके आसपास नारायण का नाम लेता तो उसके मन में कुढ़न होती, इसलिए उसने भगवान के नाम के श्रवण से बचने के लिए अपने दोनों कानों में घंटा लटका लिया अतः नाम हुआ कर्णघंटा। इससे जब भी कोई उसके आसपास भगवान विष्णु का नाम लेता तो वह अपना सर हिलाता और घंटे की आवाज वह स्वर दबा लेती। 

काशी में भगवान विश्वनाथ की आज्ञा से काशी जाकर घंटाकर्ण ने एक कुंड का निर्माण किया वहीं शिवलिंग की स्थापना की जिसे काशी में घंटाकर्णेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। भगवान की उपासना करने के फल स्वरूप भगवान विश्वनाथ ने वहां प्रकट होकर घंटाकर्ण से वरदान मांगने को कहा इस पर घंटाकर्ण ने भगवान शिव से सायुज्य मोक्ष का वर माँगा।

भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होते हुए भी उसकी मोक्ष अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होते हुए भी असमर्थ थे कयोंकि वह नारायण द्रोही था। उन्होंने घंटाकर्ण को श्रीहरि की भक्ति का मार्ग अपनाने को कहा तथा काशी से बद्रिकाश्रम जाने को कहा। महादेव के आदेशानुसार घंटाकर्ण बद्रिकाश्रम चला गया। घंटाकर्ण ने भगवान विष्णु से मोक्ष की अभिलाषा के साथ बद्रीनाथ गया वहीं निकट ही श्रीकृष्ण पुत्र (साम्ब) प्राप्ति के लिए महादेव की आराधना कर रहे थे। जिसके बाद श्रीकृष्ण ने घंटाकर्ण को दर्शन दिए और उसे बद्रीनाथ धाम का क्षेत्रपाल नियुक्त करते हुए कहा, “हे घंटाकर्ण, मैं तुम्हारी शिव भक्ति से प्रसन्न हूं तुमने अपने आराध्य गुरु (भगवान विश्वनाथ) की आज्ञा मान मेरी शरण में आ गए हो, सुनो - शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे | शिवस्य हृदयं विष्णुं विष्णोश्च हृदयं शिवः || (मैं ही शिव हूँ और शिव ही विष्णु, शिव के हृदय में विष्णु और विष्णु के हृदय में शिव वास करते हैं) अतः शिव की भक्ति के फलस्वरूप ही तुमने मुझे (नारायण को) भी प्राप्त कर लिया है। जो शिव को प्रिय है वह मुझे अत्यधिक प्रिय है। आज से तुम इस बद्रीनाथ क्षेत्र के क्षेत्रपाल हो और जैसे ही इंद्र का यह काल पूर्ण होगा, मेरे पार्षद स्वयं तुम्हे बैकुंठ लेने के लिए आयेंगे.”

तब से लेकर आज तक बद्रिकाश्रम बद्रीनारायण में भगवान बद्रीनारायण का चरणामृत प्रथमतः कर्णघंटा को ही जाता है। तत्पश्चात दूसरे देवी-देवताओं तथा भक्तों को वितरित किया जाता है।


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घंटाकर्णेश्वर महादेव कर्णघंटा कुंड के दक्षिण भाग में स्थित है।
Ghantakarneshwar Mahadev is located in the southern part of Karnghanta Kund.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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