Durga Devi, Varanasi
वाराणसी की दुर्गा देवी, दुर्गाकुंड
सुबाहु द्वारा भगवती दुर्गा से सदा काशी में रहने का वरदान माँगना तथा देवी का वरदान देना, सुदर्शन द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी का उसे अयोध्या जाकर राज्य करने का आदेश देना, राजाओं का सुदर्शन से अनुमति लेकर अपने-अपने राज्यों को प्रस्थान तत्पश्चात सुदर्शन का शत्रुजित्की माता को सान्त्वना देना, सुदर्शन द्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहु द्वारा काशी में देवी दुर्गा की स्थापना......
संदर्भित सारांश
ध्रुवसन्धि कौशल के राजा थे। इनके शासनकाल के समय अयोध्या में समृद्धि थी और लोग धार्मिक थे। इस राजा की दो पत्नियाँ थीं मनोरमा और लीलावती। मनोरमा के सुदर्शन नामक पुत्र का जन्म हुआ। एक महीने के बाद दूसरी पत्नी ने भी शत्रुजीत नामक पुत्र को जन्म दिया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और दोनों पुत्रों का पालन-पोषण एक जैसा हुआ। चूँकि शत्रुजीत सुदर्शन से अधिक चतुर था इसलिए लोग शत्रुजीत को अधिक प्यार करते थे। एक बार ध्रुवसंधि शिकार के लिए वन में गया और जंगल में एक सिंह ने उसे मार डाला। प्रथा के अनुसार सुदर्शन राजा बना। शत्रुजित की माता लीलावती उज्जयिनी के राजा की पुत्री थी। उसकी इच्छा शत्रुजित को राजा बनाने की थी। सुदर्शन की माता मनोरमा कलिंग के राजा की पुत्री थी। ध्रुवसंधि की मृत्यु के बारे में सुनकर उज्जयिनी और कलिंग के राजा अयोध्या पहुंचे। सुदर्शन को राजा बनाए जाने से उज्जयिनी के राजा क्रोधित हो गए और युद्ध शुरू कर दिया। कलिंग के राजा ने सुदर्शन का पक्ष लिया। सिंहासन का उत्तराधिकारी कौन हो, इस पर अयोध्या में भयानक युद्ध हुआ। युद्ध में उज्जयिनी के राजा युधाजित ने कलिंग के राजा वीरसेन को मार डाला।
सुदर्शन और उसकी माँ मनोरमा की दयनीय स्थिति थी। मंत्री विदल्ल की सलाह के अनुसार मनोरमा और सुदर्शन राजधानी से भाग गये। विदल्ल और मनोरमा की दासी भी उनके साथ थीं। दो दिन में वे गंगाघाट पहुँच गये। वहाँ के निषादों ने उसे लूट लिया तथा उसका सारा धन और रथ छीन लिया। सब कुछ लेकर वे धूर्त दस्यु चले गये। तब वह रोती हुई अपने पुत्रको लेकर सैरंध्रीके हाथका सहारा लेकर किसी प्रकार गंगा के तट पर गयी और एक छोटी-सी नौका पर डरती हुई बैठकर पवित्र गंगा को पार करके वह भयाक्रान्त मनोरमा त्रिकूटपर्वत पर पहुँच गयी।वह भयभीत मनोरमा भारद्वाजमुनिके आश्रम में शीघ्रतासे पहुँची। तब वहाँ तपस्वियोंको देखकर वह निर्भय हो गयी।
शत्रुज्जित को राजा बनाने के बाद युधाजित ने मनोरमा और सुदर्शन की खोज शुरू की। उन्हें खबर मिली कि वे चित्रकूट में रहते हैं। युधाजित सेना लेकर वहां गये। परंतु वह उन्हें भारद्वाज के आश्रम से बाहर नहीं निकाल सका। मनोरमा और सुदर्शन आश्रम में सुरक्षित रहते थे। एक बार विदुल्ल मनोरमा के बारे में पूछताछ करने के लिए भारद्वाज के आश्रम में आए। वृद्ध को देखकर साधु बालकों ने "क्लीब-क्लीब" पुकारा। राजकुमार सुदर्शन ने केवल "क्लीं" सुना। 'क्लीं' शब्द 'कामराज बीजमंत्र' कहलाता है।
छह वर्ष और बीते। राजकुमार ग्यारह वर्ष का हो गया। इस समय तक भारद्वाज ने राजकुमार को वेद, शास्त्र आदि सिखा दिए थे। राजकुमार देवी का भक्त था। देवी उसके सामने प्रकट हुईं और उसे एक धनुष, एक तरकश और एक अभेद्य कवच दिया जो कभी खाली नहीं होता था। सुदर्शन ने काशी के राजा सुबाहु की पुत्री शशिकला से विवाह किया। श्रृंगवेरपुर के राजा निषाद ध्रुवसंधि के मित्र थे। उन्होंने सुदर्शन को एक रथ दिया जिस पर सवार होकर सुदर्शन जंगल में गए। काशी के राजा और अन्य लोगों की मदद से सुदर्शन ने अयोध्या पर फिर से अधिकार कर लिया। उन्होंने विदुल्ल को अपना मंत्री बनाया और लंबे समय तक देश पर शासन किया।
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः_०३/अध्यायः_२४
॥ व्यास उवाच ॥
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा भवान्याः स नृपोत्तमः । प्रोवाच वचनं तत्र सुबाहुर्भक्तिसंयुतः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले : हे राजन्! उन भवानी का वचन सुनकर नृपश्रेष्ठ सुबाहु ने भक्ति से युक्त होकर यह बात कही-
॥ सुबाहुरुवाच ॥
एकतो देवलोकस्य राज्यं भूमण्डलस्य च । एकतो दर्शनं ते वै न च तुल्यं कदाचन ॥ २ ॥
दर्शनात्सदृशं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु नास्ति मे । कं वरं देवि याचेऽहं कृतार्थोऽस्मि धरातले ॥ ३ ॥
एतदिच्छाम्यहं मातर्याचितुं वाञ्छितं वरम् । तव भक्तिः सदा मेऽस्तु निश्चला ह्यनपायिनी ॥ ४ ॥
नगरेऽत्र त्वया मातः स्थातव्यं मम सर्वदा । दुर्गादेवीति नाम्ना वै त्वं शक्तिरिह संस्थिता ॥ ५ ॥
रक्षा त्वया च कर्तव्या सर्वदा नगरस्य ह । यथा सुदर्शनस्त्रातो रिपुसंघादनामयः ॥ ६ ॥
तथाऽत्र रक्षा कर्तव्या वाराणस्यास्त्वयाम्बिके । यावत्पुरी भवेद्भूमौ सुप्रतिष्ठा सुसंस्थिता ॥ ७ ॥
तावत्त्वयाऽत्र स्थातव्यं दुर्गे देवि कृपानिधे । वरोऽयं मम ते देयः किमन्यत्प्रार्थयाम्यहम् ॥ ८ ॥
विविधान्सकलान्कामान्देहि मे विद्विषो जहि । अभद्राणां विनाशञ्च कुरु लोकस्य सर्वदा ॥ ९ ॥
सुबाहु बोले- हे माता! एक ओर देवलोक तथा समस्त भूमण्डलका राज्य और दूसरी ओर आपका दर्शन; वे दोनों तुल्य कभी नहीं हो सकते। आपके दर्शनसे बढ़कर समस्त त्रिलोकीमें कोई भी वस्तु नहीं है। हे देवि! मैं आपसे क्या वर माँगें? मैं तो इस जगतीतलमें आपके दर्शनसे ही कृतकृत्य हो गया। हे माता ! मैं तो यही अभीष्ट वर माँगना चाहता हूँ कि आपकी स्थिर तथा अखण्ड भक्ति मेरे हृदयमें बनी रहे। हे माता! आप मेरी नगरी काशीमें सदा निवास करें आप शक्तिस्वरूपा होकर दुर्गादेवीके नामसे यहाँ विराजमान रहें और सर्वदा नगरकी रक्षा करती रहें। हे अम्बिके! इस समय आपने जिस तरह शत्रुदलसे सुदर्शनकी रक्षा की है और उसे विकार रहित बना दिया है, उसी तरह आप सदा वाराणसीकी रक्षा करें। हे देवि! हे कृपानिधे! जबतक भूलोकमें काशीनगरी सुप्रतिष्ठित होकर विद्यमान रहे, तबतक आप यहाँ विराजमान रहें आप मुझे वही वरदान दें, इसके अतिरिक्त मैं आपसे और दूसरा क्या माँगूँ? आप मेरी विविध प्रकारको समस्त कामनाएँ पूर्ण करें, मेरे शत्रुओंका नाश करें और जगत् के सभी अमंगलोंको सदाके लिये नष्ट कर डालें।
॥ व्यास उवाच ॥
इति सम्प्रार्थिता देवी दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी । तमुवाच नृपं तत्र स्तुत्वा वै संस्थितं पुरः ॥ १० ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार राजा सुबाहुके सम्यक् प्रार्थना करनेपर दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा स्तुति करके अपने समक्ष खड़े राजा सुबाहुसे कहने लगी-
॥ दुर्गोवाच ॥
राजन्सदा निवासो मे मुक्तिपुर्यां भविष्यति । रक्षार्थं सर्वलोकानां यावत्तिष्ठति मेदिनी ॥ ११ ॥
अथो सुदर्शनस्तत्र समागत्य मुदान्वितः । प्रणम्य परया भक्त्या तुष्टाव जगदम्बिकाम् ॥ १२ ॥
अहो कृपा ये कथयाम्यहं किं त्रातस्त्वया यत्किल भक्तिहीनः ।
भक्तानुकम्पी सकलो जनोऽस्ति विमुक्तभक्तेरवनं व्रतं ते ॥ १३ ॥
त्वं देवि सर्वं सृजसि प्रपञ्चंश्रुतं मया पालयसि स्वसृष्टम् ।
त्वमत्सि संहारपरे च कालेन तेऽत्र चित्रं मम रक्षणं वै ॥ १४ ॥
करोमि किं ते वद देवि कार्यंक्व वा व्रजामीत्यनुमोदयाशु ।
कार्ये विमूढोऽस्मि तवाज्ञयाऽहंगच्छामि तिष्ठे विहरामि मातः ॥ १५ ॥
दुर्गाजी बोलीं- हे राजन्! जबतक यह पृथिवी रहेगी, तबतक सभी लोकोंको रक्षाके लिये मैं निरन्तर इस मुक्तिपुरी काशीमें निवास करूँगी। इसके बाद सुदर्शन बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आकर उन्हें प्रणाम करके परम भक्तिके साथ उनकी स्तुति करने लगे। अहो! मैं आपकी कृपाका वर्णन कहाँतक करूँ! आपने मुझ जैसे भक्तिहीनकी भी रक्षा कर ली। अपने भक्तोंपर तो सभी लोग अनुकम्पा करते हैं. किंतु भक्तिरहित प्राणीकी भी रक्षा करनेका व्रत आपने ही ले रखा है। मैंने सुना है कि आप ही समस्त विश्व-प्रपंचकी रचना करती हैं और अपनेद्वारा सृजित उस जगत्का पालन करती हैं तथा यथोचित समय उपस्थित होनेपर उसे अपने में समाहित कर लेती हैं; तब आपने जो मेरी रक्षा की, उसमें कोई आश्चर्य नहीं। हे देवि! अब यह बताइये कि मैं आपका कौन सा कार्य करूँ मैं कहाँ जाऊँ? मुझे शीघ्र आदेश दीजिये। मैं इस समय किंकर्तव्यविमूढ हो रहा हूँ। है माता! मैं आपकी ही आज्ञासे जाऊँगा, ठहरूंगा या विहार करूंगा।
॥ व्यास उवाच ॥
तं तथा भाषमाणं तु देवी प्राह दयान्विता । गच्छायोध्यां महाभाग कुरु राज्यं कुलोचितम् ॥ १६ ॥
स्मरणीया सदाऽहं ते पूजनीया प्रयत्नतः । शं विधास्याम्यहं नित्यं राज्यं ते नृपसत्तम ॥ १७ ॥
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नवम्याञ्च विशेषतः । मम पूजा प्रकर्तव्या बलिदानविधानतः ॥ १८ ॥
अर्चा मदीया नगरे स्थापनीया त्वयाऽनघ । पूजनीया प्रयत्नेन त्रिकालं भक्तिपूर्वकम् ॥ १९ ॥
शरत्काले महापूजा कर्तव्या मम सर्वदा । नवरात्रविधानेन भक्तिभावयुतेन च ॥ २० ॥
चैत्रेऽश्विने तथाऽऽषाढे माघे कार्यो महोत्सवः । नवरात्रे महाराज पूजा कार्या विशेषतः ॥ २१ ॥
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां मम भक्तिसमन्वितैः । कर्तव्या नृपशार्दूल तथाऽष्टम्यां सदा बुधैः ॥ २२ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहते हुए उस सुदर्शनसे भगवतीने दयापूर्वक कहा हे महाभाग! अब तुम अयोध्या जाओ और अपने कुलकी मर्यादाके अनुसार राज्य करो। हे नृपश्रेष्ठ ! तुम प्रयत्नके साथ सदा मेरा स्मरण तथा पूजन करते रहना और मैं भी तुम्हारे राज्यका सर्वदा कल्याण करती रहूँगी। अष्टमी, चतुर्दशी और विशेष करके नवमी तिथिको विधि-विधानसे मेरी पूजा अवश्य करते रहना। हे अनघ! तुम अपने नगरमें मेरी प्रतिमा स्थापित करना और प्रयत्नके साथ भक्तिपूर्वक तीनों समय मेरा पूजन करते रहना। शरत्कालमें सर्वदा नवरात्रविधानके अनुसार भक्तिभावसे युक्त होकर मेरी महापूजा करनी चाहिये। हे महाराज चैत्र, आश्विन, आषाढ़ तथा माघमासमें नवरात्र के अवसरपर मेरा महोत्सव मनाना चाहिये और विशेषरूपसे मेरी महापूजा करनी चाहिये। हे नृपशार्दूल विज्ञजनोंको चाहिये कि वे भक्तियुक्त होकर कृष्णपक्षको चतुर्दशी तथा अष्टमीको सदा मेरी पूजा करें।
॥ व्यास उवाच ॥
इत्युक्त्वान्तर्हिता देवी दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी । नता सुदर्शनेनाथ स्तुता च बहुविस्तरम् ॥ २३ ॥
अन्तर्हितां तु तां दृष्ट्वा राजानः सर्व एव ते । प्रणेमुस्तं समागम्य यथा शक्रं सुरास्तथा ॥ २४ ॥
सुबाहुरपि तं नत्वा स्थितश्चाग्रे मुदान्वितः । ऊचुः सर्वे महीपाला अयोध्याधिपतिं तदा ॥ २५ ॥
त्वमस्माकं प्रभुः शास्ता सेवकास्ते वयं सदा । कुरु राज्यमयोध्यायां पालयास्मान्नृपोत्तम ॥ २६ ॥
त्वत्प्रसादान्महाराज दृष्टा विश्वेश्वरी शिवा । आदिशक्तिर्भवानी सा चतुर्वर्गफलप्रदा ॥ २७ ॥
धन्यस्त्वं कृतकृत्योऽसि बहुपुण्यो धरातले । यस्माच्च त्वत्कृते देवी प्रादुर्भूता सनातनी ॥ २८ ॥
न जानीमो वयं सर्वे प्रभावं नृपसत्तम । चण्डिकायास्तमोयुक्ता मायया मोहिताः सदा ॥ २९ ॥
धनदारसुतानां च चिन्तनेऽभिरताः सदा । मग्ना महार्वणे घोरे कामक्रोधझषाकुले ॥ ३० ॥
पृच्छामस्त्वां महाभाग सर्वज्ञोऽसि महामते । केयं शक्तिः कुतो जाता किं प्रभावा वदस्व तत् ॥ ३१ ॥
भव त्वं नौश्च संसारे साधवोऽति दयापराः । तस्मान्नो वद काकुत्स्थ देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ ३२ ॥
यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरुपा यदुद्भवा । सत्सर्वं श्रोतुमिच्छामस्त्वं ब्रूहि नृवरोत्तम ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले- राजा सुदर्शनके स्तुति तथा प्रणाम करनेके अनन्तर ऐसा कहकर दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं। उन भगवतीको अन्तर्हित देखकर वहाँ उपस्थित सभी राजाओंने आकर सुदर्शनको उसी प्रकार प्रणाम किया जैसे देवता इन्द्रको प्रणाम करते हैं। महाराज सुबाहु भी उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्षपूर्वक उनके समक्ष खड़े हो गये। तदनन्तर उन सभी राजाओंने अयोध्यापति सुदर्शनसे कहा- हे नृपश्रेष्ठ! आप हमारे स्वामी तथा शासक हैं और हम आपके सेवक हैं। अब आप अयोध्यामें राज्य करें और हमारा पालन करें। हे महाराज! आपकी कृपासे हमने धर्म-अर्थ काम-मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली उन विश्वेश्वरी, शिवा और आदिशक्ति भवानीका दर्शन पा लिया। आप इस धरतीपर धन्य, कृतकृत्य और बड़े पुण्यात्मा हैं; क्योंकि आपके लिये साक्षात् सनातनी देवी प्रकट हुईं। हे नृपसत्तम! तमोगुणसे युक्त और सदा मायासे मोहित रहनेवाले हम सभी लोग भगवती चण्डिकाका प्रभाव नहीं जानते। हम सदा धन, स्त्री और पुत्रोंकी चिन्तामें व्यग्र रहकर काम-क्रोधरूपी मत्स्योंसे भरे घोर महासागर में डूबे रहते हैं। हे महाभाग ! हे महामते! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव हम आपसे यह पूछ रहे हैं कि ये शक्ति कौन हैं, कहाँसे उत्पन्न हुई हैं और इनका कैसा प्रभाव है ? वह सब बताइये। साधु पुरुष बड़े दयालु होते हैं। अतएव आप हमारे लिये इस संसार सागरकी नौका बन जाइये हे काकुत्स्थ! अब आप भगवतीके उत्तम माहात्म्यका वर्णन कीजिये। हे नृपश्रेष्ठ! उनका जो प्रभाव हो, जो स्वरूप हो तथा वे जैसे प्रकट हुई हों; यह सब हम आपसे सुनना चाहते हैं, आप बतायें।
॥ व्यास उवाच ॥
इति पृष्टस्तदा तैस्तु ध्रुवसन्धिसुतो नृपः । विचिन्त्य मनसा देवीं तानुवाच मुदान्वितः ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले – राजाओंके यह पूछनेपर ध्रुव सन्धिके पुत्र राजा सुदर्शन मन-ही-मन भगवतीका | स्मरण करके हर्षपूर्वक उनसे कहने लगे-
॥ सुदर्शन उवाच ॥
किं ब्रवीमि महीपालास्तस्याश्चरितमुत्तमम् । ब्रह्मादयो न जानन्ति सेशाः सुरगणास्तथा ॥ ३५ ॥
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीर्वरेण्या शक्तिरुत्तमा । सात्त्विकीयं महीपाला जगत्पालनतत्परा ॥ ३६ ॥
सृजते या रजोरूपा सत्त्वरूपा च पालने । संहारे च तमोरूपा त्रिगुणा सा सदा मता ॥ ३७ ॥
निर्गुणा परमा शक्तिः सर्वकामफलप्रदा । सर्वेषां कारणं सा हि ब्रह्मादीनां नृपोत्तमाः ॥ ३८ ॥
निर्गुणा सर्वथा ज्ञातुमशक्या योगिभिर्नृपाः । सगुणा सुखसेव्या सा चिन्तनीया सदा बुधैः ॥ ३९ ॥
सुदर्शन बोले- हे राजाओ! उन जगदम्बाके उत्तम चरित्रको मैं क्या कहूँ; क्योंकि ब्रह्मा आदि तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी उन्हें नहीं जानते। हे राजाओ! वे भगवती सबकी आदिस्वरूपा है, महालक्ष्मी के रूपमें प्रतिष्ठित हैं, वे वरेण्य हैं और उत्तम सात्त्विकी शक्तिके रूपमें समस्त विश्वका पालन करनेमें तत्पर रहती हैं। वे अपने रजोगुणी स्वरूपसे सृष्टि करती सत्वगुणी स्वरूपसे पालन करती और तमोगुणी स्वरूपसे इसका संहार करती हैं, इसी कारण वे त्रिगुणात्मिका कही गयी हैं। परम शक्तिस्वरूपा निर्गुणा भगवती समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देती हैं। है श्रेष्ठ राजाओ ! वे ब्रह्मा आदि सभी देवताओंकी भी आदिकारण हैं। हे राजाओ योगीलोग भी निर्गुणा भगवतीको जाननेमें सर्वथा असमर्थ हैं। अतः बुद्धिमानोंको चाहिये कि सरलतापूर्वक सेवनीय सगुणा भगवतीकी निरन्तर आराधना करें।
॥ राजान ऊचुः ॥
बाल एव वनं प्राप्तस्त्वं तु नूनं भयातुरः । कथं ज्ञाता त्वया देवी परमा शक्तिरुत्तमा ॥ ४० ॥
उपासिता कथं चैव पूजिता च कथं नृप । या प्रसन्ना तु साहाय्यं चकार त्वरयान्विता ॥ ४१ ॥
राजागण बोले- बाल्यावस्थामें ही आप वनवासी हो गये थे तथा भयसे व्याकुल थे। तब आपको उन उत्तम परमा शक्तिका ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? हे नृप ! आपने उनकी उपासना और पूजा कैसे की, जिससे शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न होकर उन्होंने आपकी सहायता की।
॥ सुदर्शन उवाच ॥
बालभावान्मया प्राप्तं बीजं तस्याः सुसम्मतम् । स्मरामि प्रजपन्नित्यं कामबीजाभिधं नृपाः ॥ ४२ ॥
ऋषिभिः कथ्यमाना सा मया ज्ञाताम्बिका शिवा । स्मरामि तां दिवारात्रं भक्त्या परमया पराम् ॥ ४३ ॥
सुदर्शन बोले- हे राजाओ! बाल्यकालमें ही मुझे उनका अतिश्रेष्ठ बीजमन्त्र प्राप्त हो गया था। मैं उसी कामराज नामक बीजमन्त्रका सदा जप करता हुआ भगवतीका स्मरण करता रहता हूँ। ऋषियोंके द्वारा उन कल्याणमयी भगवतीके विषयमें बताये जानेपर मैंने उन्हें जाना और तभी से मैं परम भक्तिके साथ दिन-रात उन परा शक्तिका स्मरण किया करता हूँ।
॥ व्यास उवाच ॥
तन्निशम्य वचस्तस्य राजानो भक्तितत्पराः । तां मत्वा परमां शक्तिं निर्ययुः स्वगृहान्प्रति ॥ ४४ ॥
सुबाहुरगमत्काश्यां तमापृच्छ्य सुदर्शनम् । सुदर्शनोऽपि धर्मात्मा निर्ज्जगाम सुकोसलान् ॥ ४५ ॥
मन्त्रिणस्तु नृपं श्रुत्वा हतं शत्रुजितं मृधे । जितं सुदर्शनञ्चैव बभूवुः प्रेमसंयुताः ॥ ४६ ॥
आगच्छन्तं नृपं श्रुत्वा तं साकेतनिवासिनः । उपायनान्युपादाय प्रययुः सम्मुखे जनाः ॥ ४७ ॥
तथा प्रकृतयः सर्वे नानोपायनपाणयः । ध्रुवसन्धिसुतं दत्त्वा मुदिताः प्रययुः प्रजाः ॥ ४८ ॥
स्त्रियोपसंयुतः सोऽथ प्राप्यायोध्यां सुदर्शनः । सम्मान्य सर्वलोकांश्च ययौ राजा निवेशनम् ॥ ४९ ॥
वन्दिभिः स्तूयमानस्तु वन्द्यमानश्च मन्त्रिभिः । कन्याभिः कीर्यमाणश्च लाजैः सुमनसैस्तथा ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले- सुदर्शनका वचन सुनकर वे राजा भी भक्तिपरायण हो गये और उन देवीको ही परम शक्ति मानकर अपने-अपने घर चले गये। सुदर्शनसे अनुमति लेकर महाराज सुबाहु काशी चले गये और धर्मात्मा सुदर्शन वहाँसे अयोध्याक ओर चल पड़े। राजा शत्रुजित् युद्धमें मारा गया और सुदर्शन विजयी हुए - यह सुनकर मन्त्रीलोग प्रेमसे प्रफुल्लित हो उठे। राजा सुदर्शनके आगमनका समाचार सुनकर साकेतके निवासी विविध प्रकारके उपहार लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुए और सब राजकर्मचारीगण भी हाथोंमें नाना प्रकारकी भेंट-सामग्री लेकर आये। महाराज ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शनको राजाके रूपमें जानकर अयोध्याकी समस्त प्रजा आनन्दविभोर हो गयी। अपनी स्त्रीके साथ अयोध्यामें पहुँचकर सब लोगों का सम्मान करके राजा सुदर्शन राजभवनमें गये। उस समय बन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे, मन्त्रीगण उनकी वन्दना कर रहे थे और कन्याएँ उनके ऊपर लाजा (धानका लावा) तथा पुष्प बिखेर रही थीं।
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सुदर्शनेन देवीमहिमवर्णनं नाम तृतीयस्कन्धे चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः_०३/अध्यायः_२५
॥ व्यास उवाच ॥
गत्वाऽयोध्यां नृपश्रेष्ठो गृहं राज्ञः सुहृद्वृतः । शत्रुजिन्मातरं प्राह प्रणम्य शोकसङ्कुलाम् ॥ १ ॥
मातर्न ते मया पुत्रः सङ्ग्रामे निहतः किल । न पिता ते युधाजिच्च शपे ते चरणौ तथा ॥ २ ॥
दुर्गया तौ हतौ संख्ये नापराधो ममात्र वै । अवश्यम्भाविभावेषु प्रतीकारो न विद्यते ॥ ३ ॥
न शोकोऽत्र त्वया कार्यो मृतपुत्रस्य मानिनि । स्वकर्मवशगो जीवो भुङ्क्ते भोगान्सुखासुखान् ॥ ४ ॥
दासोऽस्मि तव भो मातर्यथा मम मनोरमा । तथा त्वमपि धर्मज्ञे न भेदोऽस्ति मनागपि ॥ ५ ॥
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । तस्मान्न शोचितव्यं ते सुखे दुःखे कदाचन ॥ ६ ॥
दुःखे दुःखाधिकान्पश्येत्सुखे पश्येत्सुखाधिकम् । आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ॥ ७ ॥
दैवाधीनमिदं सर्वं नात्माधीनं कदाचन । न शोकेन तदाऽऽत्मानं शोषयेन्मतिमान्नरः ॥ ८ ॥
यथा दारुमयी योषा नटादीनां प्रचेष्टते । तथा स्वकर्मवशगो देही सर्वत्र वर्तते ॥ ९ ॥
अहं वनगतो मातर्नाभवं दुःखमानसः । चिन्तयन्स्वकृतं कर्म भोक्तव्यमिति वेद्मि च ॥ १० ॥
मृतो मातामहोऽत्रैव विधुरा जननी मम । भयातुरा गृहीत्वा मां निर्ययौ गहनं वनम् ॥ ११ ॥
लुण्ठिता तस्करैर्मार्गे वस्त्रहीना तथा कृता । पाथेयञ्च हृतं सर्वं बालपुत्रा निराश्रया ॥ १२ ॥
माता गृहीत्वा मां प्राप्ता भारद्वाजाश्रमं प्रति । विदल्लोऽयं समायातस्तथा धात्रेयिकाऽबला ॥ १३ ॥
मुनिभिर्मुनिपत्नीभिर्दयायुक्तैः समन्ततः । पोषिताः फलनीवारैर्वयं तत्र स्थितास्त्रयः ॥ १४ ॥
दुःखं नमे तदा ह्यासीत्सुखं नाद्य धनागमे । न वैरं न च मात्सर्यं मम चित्ते तु कर्हिचित् ॥ १५ ॥
नीवारभक्षणं श्रेष्ठं राजभोगात्परन्तपे । तदाशी नरकं याति न नीवाराशनः क्वचित् ॥ १६ ॥
धर्मस्याचरणं कार्यं पुरुषेण विजानता । सञ्जित्येन्द्रियवर्गं वै यथा न नरकं व्रजेत् ॥ १७ ॥
मानुष्यं दुर्लभं मातः खण्डेऽस्मिन्भारते शुभे । आहारादि सुखं नूनं भवेत्सर्वासु योनिषु ॥ १८ ॥
प्राप्य तं मानुषं देहं कर्तव्यं धर्मसाधनम् । स्वर्गमोक्षप्रदं नॄणां दुर्लभं चान्ययोनिषु ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले- अयोध्या पहुँचकर नृपश्रेष्ठ सुदर्शन अपने मित्रोंके साथ राजभवनमें गये वहाँपर शत्रुजित्की परम शोकाकुल माताको प्रणामकर उन्होंने कहा- हे माता! मैं आपके चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ कि आपके पुत्र तथा आपके पिता युधाजितको युद्धमें मैंने नहीं मारा है। स्वयं भगवती दुर्गाने रणभूमिमें उनका वध किया है; इसमें मेरा अपराध नहीं है। होनी तो अवश्य होकर रहती है, उसे टालने का कोई उपाय नहीं है। हे मानिनि! अपने मृत पुत्रके विषयमें आप शोक न करें; क्योंकि जीव अपने पूर्वकर्मोंके अधीन होकर सुख-दुःखरूपी भोगोंको भोगता है। हे माता! मैं आपका दास हूँ। जैसे मनोरमा मेरी माता हैं, वैसे ही आप भी मेरी माता हैं। हे धर्मज्ञे! आपमें और उनमें मेरे लिये कुछ भी भेद नहीं है। अपने किये हुए शुभ तथा अशुभ कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। अतएव सुख-दुःखके विषयमें आपको कभी भी शोक नहीं करना चाहिये। मनुष्यको चाहिये कि दुःखकी स्थिति में अधिक दुःखवालोंको तथा सुखकी स्थितिमें अधिक सुखवालोंको देखे अपने आपको हर्ष शोकरूपी शत्रुओंके अधीन न करे। यह सब दैवके अधीन है, अपने अधीन कभी नहीं। अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि शोकसे अपनी आत्माको न सुखाये। जैसे कठपुतली नट आदिके संकेतपर नाचती है, उसी प्रकार जीवको भी अपने कर्मके अधीन होकर सर्वत्र रहना पड़ता है। हे माता! अपने किये हुए कर्मका फल भोगना ही पड़ता है—यह सोचते हुए मैं वनमें गया था, इसलिये मेरे मनमें दुःख नहीं हुआ। इस बातको मैं अभी भी जानता हूँ। इसी अयोध्यामें मेरे नाना मारे गये, माता विधवा हो गयी। भयसे व्याकुल वह मुझे लेकर घोर वनमें चली गयी। रास्तेमें चोरोंने उसे लूट लिया, उसके वस्त्रतक उतार लिये और समस्त राह सामग्री छीन ली। वह बालपुत्रा निराश्रय होकर मुझे लिये हुए भारद्वाजमुनिके आश्रमपर पहुँची। ये मन्त्री विदल्ल तथा अबला दासी हमारे साथ गये थे। आश्रमके मुनियों और मुनिपलियोंने दया करके नीवार तथा फलोंसे भलीभाँति हमारा पालन किया और हम तीनों वहाँ रहने लगे। उस समय निर्धन होनेके कारण न मुझे दुःख था और न अब धन आ जानेपर सुख ही है। मेरे मनमें कभी भी वैर तथा ईर्ष्याकी भावना नहीं रहती। हे परन्तपे! राजसी भोजनकी अपेक्षा नीवारभक्षण श्रेष्ठ है; क्योंकि राजस अन्न खानेवाला नरकमें जा सकता है, किंतु नीवारभोजी कभी नहीं। इन्द्रियोंपर सम्यक् नियन्त्रण करके विज्ञ पुरुषको धर्मका आचरण करना चाहिये, जिससे उसे नरकमें न जाना पड़े। हे माता! इस पवित्र भारतवर्ष में मानवजन्म दुर्लभ है आहारादिका सुख तो निश्चय ही सभी योनियों में मिल सकता है। स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले इस मनुष्यतनको पाकर धर्मसाधन करना चाहिये; क्योंकि अन्य योनियोंमें यह दुर्लभ है।
॥ व्यास उवाच ॥
इत्युक्ता सा तदा तेन लीलावत्यतिलज्जिता । पुत्रशोकं परित्यज्य तमाहाश्रुविलोचना ॥ २० ॥
सापराधाऽस्मि पुत्राहं कृता पित्रा युधाजिता । हत्या मातामहं तेऽत्र हृतं राज्यं तु येन वै ॥ २१ ॥
न तं वारयितुं शक्ता तदाऽहं न सुतं मम । यत्कृतं कर्म तेनैव नापराधोऽस्ति मे सुत ॥ २२ ॥
तौ मृतौ स्वकृतेनैव कारणं त्वं तयोर्न च । नाहं शोचामि तं पुत्रं सदा शोचामि तत्कृतम् ॥ २३ ॥
पुत्र त्वमसि कल्याण भगिनी मे मनोरमा । न क्रोधो न च शोको मे त्वयि पुत्र मनागपि ॥ २४ ॥
कुरु राज्यं महाभाग प्रजाः पालय सुव्रत । भगवत्याः प्रसादेन प्राप्तमेतदकण्टकम् ॥ २५ ॥
तदाकर्ण्य वचो मातुर्नत्वा तां नृपनन्दनः । जगाम भवनं रम्यं यत्र पूर्वं मनोरमा ॥ २६ ॥
न्यवसत्तत्र गत्वा तु सर्वानाहूय मन्त्रिणः । दैवज्ञानथ पप्रच्छ मुहूर्तं दिवसं शुभम् ॥ २७ ॥
सिंहासनं तथा हैमं कारयित्वा मनोहरम् । सिंहासने स्थितां देवीं पूजयिष्ये सदाऽप्यहम् ॥ २८ ॥
स्थापयित्वाऽऽसने देवीं धर्मार्थकाममोक्षदाम् । राज्यं पश्चात्करिष्यामि यथा रामादिभिः कृतम् ॥ २९ ॥
पूजनीया सदा देवी सर्वैर्नागरिकैर्जनैः । माननीया शिवा शक्तिः सर्वकामार्थसिद्धिदा ॥ ३० ॥
इत्युक्ता मन्त्रिणस्ते तु चक्रुर्वै राजशासनम् । प्रासादं कारयामासुः शिल्पिभिः सुमनोरमम् ॥ ३१ ॥
प्रतिमां कारयित्वाऽथ मुहूर्तेऽथ शुभे दिने । द्विजानाहूय वेदज्ञान्स्थापयामास भूपतिः ॥ ३२ ॥
हवनं विधिवत्कृत्वा पूजयित्वाऽथ देवताम् । प्रासादे मतिमान् देव्याः स्थापयामास भूमिपः ॥ ३३ ॥
उत्सवस्तत्र संवृत्तो वादित्राणाञ्च निःस्वनैः । ब्राह्मणानां वेदघोषैर्गानैस्तु विधिधैर्नृप ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले- उस सुदर्शनके यह कहनेपर लीलावती बहुत लज्जित हुई और पुत्रशोक त्यागकर आँखों में आँसू भरके बोली- हे पुत्र! मेरे पिता युधाजित्ने मुझे अपराधिनी बना दिया। उन्होंने ही तुम्हारे नानाका वध करके राज्यका हरण कर लिया था। हे तात! उस समय मैं उन्हें तथा अपने पुत्रको रोकने में समर्थ नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया, उसमें मेरा अपराध नहीं था। वे दोनों अपने ही कर्मसे मृत्युको प्राप्त हुए हैं। उनकी मृत्युमें तुम कारण नहीं हो। अतएव मैं अपने उस पुत्रके लिये शोक नहीं करती। मैं सदा उसके किये कर्मकी चिन्ता करती रहती हूँ। हे कल्याण! अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो और मनोरमा मेरी बहन है। हे पुत्र! तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी शोक या क्रोध नहीं है। हे महाभाग! अब तुम राज्य करो और प्रजाका पालन करो। हे सुव्रत! भगवतीकी कृपासे ही तुम्हें यह अकंटक राज्य प्राप्त हुआ है। माता लीलावतीका वचन सुनकर उन्हें प्रणाम करके राजकुमार सुदर्शन उस भव्य भवनमें गये, जहाँ पहले उनकी माता मनोरमा रहा करती थीं। वहाँ जाकर उन्होंने सब मन्त्रियों तथा ज्योतिषियों को बुलाकर शुभ दिन और मुहूर्त पूछा और कहा कि सोनेका सुन्दर सिंहासन बनवाकर उसपर विराजमान देवीका मैं नित्य पूजन करूँगा। उस सिंहासनपर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवतीकी स्थापना करनेके बाद ही मैं राज्यकार्य संचालित करूँगा, जैसा मेरे पूर्वज श्रीराम आदिने किया है। सभी नागरिकजनों को चाहियेकि वे सभी प्रकारके काम, अर्थ और सिद्धि प्रदान करनेवाली कल्याणमयी भगवती आदिशक्तिका तथा सम्मान करते रहें। राजा सुदर्शनके ऐसा कहने पर मन्त्रीगण राजाजा पालनमें तत्पर हो गये। उन्होंने शिल्पियोंद्वारा एक बहुत सुन्दर मन्दिर तैयार कराया। तदनन्तर राजाने देवीकी प्रतिमा बनवाकर शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें वैदिक विद्वानोंको बुलाकर उसकी स्थापना की। तत्पश्चात् विधिवत् हवन तथा देवपूजन करके बुद्धिमान् राजाने उस मन्दिरमें देवीकी प्रतिमा स्थापित की। हे राजन्! उस समय ब्राह्मणोंके वेदघोष, विविध गानों तथा वाद्योंकी ध्वनिके साथ बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया।
॥ व्यास उवाच ॥
प्रतिष्ठाप्य शिवां देवीं विधिवद्वेदवादिभिः । पूजां नानाविधां राजा चकारातिविधानतः ॥ ३५ ॥
कृत्वा पूजाविधिं राजा राज्यं प्राप्य स्वपैतृकम् । विख्यातश्चाम्बिका देवी कोसलेषु बभूव ह ॥ ३६ ॥
राज्यं प्राप्य नृपः सर्वं सामन्तकनृपानथ । वशे चक्रेऽतिधर्मिष्ठान्सद्धर्मविजयी नृपः ॥ ३७ ॥
यथा रामः स्वराज्येऽभूद्दिलीपस्य रघुर्यथा । प्रजानां वै सुखं तद्वन्मर्यादाऽपि तथाऽभवत् ॥ ३८ ॥
धर्मो वर्णाश्रमाणां च चतुष्पादभवत्तथा । नाधर्मे रमते चित्तं केषामपि महीतले ॥ ३९ ॥
ग्रामे ग्रामे च प्रासादांश्चक्रुः सर्वे जनाधिपाः । देव्याः पूजा तदा प्रीत्या कोसलेषु प्रवर्तिता ॥ ४० ॥
सुबाहुरपि काश्यां तु दुर्गायाः प्रतिमां शुभाम् । कारयित्वा च प्रासादं स्थापयामास भक्तितः ॥ ४१ ॥
तत्र तस्या जनाः सर्वे प्रेमभक्तिपरायणाः । पूजां चक्रुर्विधानेन यथा विश्वेश्वरस्य ह ॥ ४२ ॥
विख्याता सा बभूवाथ दुर्गादेवी धरातले । देशे देशे महाराज तस्या भक्तिर्व्यवर्धत ॥ ४३ ॥
सर्वत्र भारते लोके सर्ववर्णेषु सर्वथा । भजनीया भवानी तु सर्वेषामभवत्तदा ॥ ४४ ॥
शक्तिभक्तिरताः सर्वे मानिनश्चाभवन्नृप । आगमोक्तैरथ स्तोत्रैर्जपध्यानपरायणाः ॥ ४५ ॥
नवरात्रेषु सर्वेषु चक्रुः सर्वे विधानतः ।अर्चनं हवनं यागं देव्या भक्तिपरा जनाः ॥ ४६ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार वेदवादी विद्वानोंद्वारा कल्याणमयी देवीकी विधिवत् स्थापना कराकर राजा सुदर्शनने बड़े विधानके साथ नाना प्रकारकी पूजा सम्पन्न की। इस प्रकार राजा सुदर्शन भगवतीकी पूजा करके अपना पैतृक राज्य प्राप्तकर विख्यात हो गये और कोसल देशमें अम्बिकादेवी भी विख्यात हो गयीं। सम्पूर्ण राज्य प्राप्त करनेके बाद सद्धर्मसे विजय प्राप्त करनेवाले राजा सुदर्शनने सभी धर्मात्मा सामन्त राजाओंको अपने अधीन कर लिया। जिस प्रकार अपने राज्यमें राम हुए और जिस प्रकार दिलीपके पुत्र राजा रघु हुए उसी प्रकार सुदर्शन भी हुए। जैसे उनके राज्यमें प्रजाओंको सुख था और मर्यादा थी, वैसा ही राजा सुदर्शनके राज्यमें भी था। उनके राज्य में वर्णाश्रमधर्म चारों चरणोंसे समृद्ध हुआ। उस समय धरतीतलपर किसीका भी मन अधर्म में लिप्त नहीं होता था। कोसलदेशके सभी राजाओंने प्रत्येक ग्राममें देवीके मन्दिर बनवाये। तबसे समस्त कोसलदेशमें प्रेमपूर्वक देवीकी पूजा होने लगी। महाराज सुबाहुने भी काशीमें मन्दिरका निर्माण कराकर भक्तिपूर्वक दुर्गादेवीकी दिव्य प्रतिमा स्थापित की। काशीके सभी लोग प्रेम और भक्तिमें तत्पर होकर विधिवत् दुर्गादेवीकी उसी प्रकार पूजा करने लगे, जैसे भगवान् विश्वनाथजीकी करते थे। हे महाराज! तबसे इस धरातलपर देश देशमें भगवती दुर्गा विख्यात हो गयीं और लोगों में उनकी भक्ति बढ़ने लगी। उस समय भारतवर्षमें सब जगह सभी वर्णोंमें भवानी ही सबकी पूजनीया हो गयीं। हे नृप! सभी लोग भगवती शक्तिको मानने लगे, उनकी भक्तिमें निरत रहने लगे और वेद वर्णित स्तोत्रोंके द्वारा उनके जप तथा ध्यानमें तत्पर हो गये। इस प्रकार भक्तिपरायण लोग सभी नवरात्रों में विधानपूर्वक भगवतीका पूजन, हवन तथा यज्ञ करने लगे।
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे देवीस्थापनवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०७०
स्वप्नेश्वर्याश्च वारुण्यां दुर्गादेवी व्यवस्थिता । क्षेत्रस्य दक्षिणं भागं सा सदैवाभिरक्षति ॥९७॥
स्वप्नेश्वरी के पश्चिम में देवी दुर्गा विराजमान हैं। वह सदैव काशी के दक्षिणी भाग की रक्षा करती हैं।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०७२
॥ स्कंद उवाच ॥
इत्थं दुर्गाभवन्नाम तया देव्या महामुने ॥ काश्यां सेव्या यथा सा च तच्छृणुष्व वदामि ते ॥८१॥
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां भौमवारे विशेषतः ॥ संपूज्या सततं काश्यां दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ॥ ८२ ॥
नवरात्रं प्रयत्नेन प्रत्यहं सा समर्चिता ॥ नाशयिष्यति विघ्नौघान्सुमतिं च प्रदास्यति ॥ ८३ ॥
महापूजोपहारैश्च महाबलिनिवेदनैः ॥ दास्यत्यभीष्टदा सिद्धिं दुर्गा काश्यां न संशयः ॥ ८४ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे महामुनि! इस प्रकार से दुर्ग नामक दुर्दम्य दैत्य का वध करने के कारण इन देवी का “दुर्गा” नाम पड़ गया। अब जिस प्रकार से काशीधाम में इनकी पूजा की जायेगी, वह कहता हूं। अष्टमी अथवा चतुर्दशी के दिन, विशेषतः मंगलवार को इन दुर्गात्तिहारिणी दुर्गा की सतत् अर्चना करनी चाहिये। नवरात्र में नित्य यत्नतः इनकी अर्चना करने से समस्त विध्न निवारित हो जाते हैं तथा सद्गति की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस काशीधाम में उत्कृष्टतर विविध उपचारों से उनकी अर्चना के साथ महाबलि देवी को निवेदित करता है, दुर्गादेवी निःसंदिग्ध रूप से उसको सभी इच्छित प्रदान करती हैं।
प्रतिसंवत्सरं तस्याः कार्या यात्रा प्रयत्नतः ॥ शारदं नवरात्रं च सकुटुंबैः शुभार्थिभिः ॥८५॥
यो न सांवत्सरीं यात्रां दुर्गायाः कुरुते कुधीः ॥ काश्यां विघ्न सहस्राणि तस्य स्युश्च पदेपदे ॥ ८६ ॥
दुर्गाकुंडे नरः स्नात्वा सर्वदुर्गार्तिहारिणीम् ॥ दुर्गां संपूज्य विधिवन्नवजन्माघमुत्सृजेत् ॥ ८७ ॥
सा दुर्गाशक्तिभिः सार्धं काशीं रक्षति सर्वतः ॥ ताः प्रयत्नेन संपूज्या कालरात्रिमुखा नरैः ॥८८॥
रक्षंति क्षेत्रमेतद्वै तथान्या नवशक्तयः ॥ उपसर्गसहस्रेभ्यस्ता वैदिग्देवताक्रमात् ॥ ८९ ॥
जो मानव कुशलता चाहते हैं, वे बन्धु-बान्धवों के साथ प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र काल में यत्नतः इनका उत्सव करें। जो व्यक्ति इस अवसर पर उत्सव नहीं करते, उनको प्रति पग पर हजारों-हजार विध्न आते हैं। मानव दुर्गाकुण्ड में स्नान करके सर्वदुर्गतिहारिणी दुर्गा देवी की इस प्रकार से यथाविधान नवरात्र अर्चना करके नौ जन्मों के अपने पापों से छुटकारा पा लेता है। भगवती दुर्गा देवी कालरात्रि प्रभृति अपनी शक्तियों के साथ काशीधाम की रक्षा करती रहती हैं। मानवगण इन शक्तियों की यत्नतः पूजा करें। इसके अतिरिक्त अन्य नौ शक्तियां भी हजारों-हजार उपसर्गों से काशीधाम की रक्षा करती हैं।
शतनेत्रा सहस्रास्या तथायुतभुजापरा ॥ अश्वारूढा गजास्या च त्वरिता शववाहिनी ॥ ९० ॥
विश्वा सौभाग्यगौरी च सृष्टाः प्राच्यादिमध्यतः ॥ एता यत्नेन संपूज्याः क्षेत्ररक्षणदेवताः ॥९१॥
शतनेत्रा, सहस्रास्या, अयुत भुजा, अश्वारूढा, गजास्या, त्वरिता, शववाहिनी, विश्वा, सोभाग्यगौरी, सृष्टा--ये नौ शक्तियां पूर्वादि दिकक्रमेण क्षेत्ररक्षण देवता हैं। इनकी यत्नतः पूजा करें।
तथैव भैरवाश्चाष्टौ दिक्ष्वष्टासु प्रतिष्ठिताः ॥ रक्षंति सततं काशीं निर्वाणश्रीनिकेतनम् ॥ ९२ ॥
रुरुश्चंडोसितांगश्च कपाली क्रोधनस्तथा ॥ उन्मत्तभैरवस्तद्वत्क्रमात्संहारभीषणौ ॥ ९३ ॥
चतुःषष्टिस्तु वेताला महाभीषणमूर्तयः ॥ रुंडमुंडस्रजः सर्वे कर्त्रीखर्परपाणयः ॥ ९४ ॥
श्ववाहना रक्तमुखा महादंष्ट्रा महाभुजाः ॥ नग्ना विमुक्तकेशाश्च प्रमत्ता रुधिरासवैः ॥ ९५ ॥
इसी प्रकार रुरु, चण्ड, असितांग, कपाली, क्रोधन, उन्मत्त, संहार तथा भीषण नामक आठ भैरव भी आठ दिशाओं में स्थित होकर निर्वाणलक्ष्मी के निकेतन रूप से काशीक्षेत्र की सदैव रक्षा करते रहते हैं। ये ६४ बेताल महाभीषण हैं। इन सबके गले में मुण्डमाला रहती है। ये हाथों में खप्पर, छूरा आदि बहुविध अस्त्र-शस्त्र लिये देदीव्यमान रहते हैं। सभी का मुखमण्डल रक्तवर्ण, भीषण दाढ़युक्त है तथा केशपाश लटके रहते हैं। अत्यंत भयानक रूपों वाले चौसठ वेताल हैं । उन सभी के गले में खोपड़ियों की माला और बिना सिर के धड़ हैं। उनके हाथ में कैंची और खोपड़ियाँ हैं। वे अस्त-व्यस्त बालों के साथ नग्न हैं। वे मदिरा के समान लहू से मतवाले हैं।
नानारूपधराः सर्वे नानाशस्त्रास्त्र पाणयः ॥ तदाकारैश्च तद्भृत्यैः कोटिशः परिवारिताः ॥ ९६ ॥
वे सभी अनेक रूप धारण कर सकते हैं। उनके हाथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं। उनके चारों ओर करोड़ों सेवक हैं, जो उन्हीं के समान गुण और विशेषताएं रखते हैं।
विद्युज्जिह्वो ललज्जिह्वः क्रूरास्यः क्रूरलोचनः॥ उग्रो विकटदंष्ट्रश्च वक्रास्यो वक्रनासिकः ॥ ९७ ॥
जंभको जृंभणमुखो ज्वालानेत्रो वृकोदरः ॥ गर्तनेत्रो महानेत्रस्तुच्छनेत्रोंऽत्रमण्डनः ॥ ९८ ॥
ज्वलत्केशः कंबुशिराः खर्वग्रीवो महाहनुः ॥ महानासो लंबकर्णः कर्णप्रावरणोनसः ॥९९॥
इत्यादयो मुने क्षेत्रं दुर्वृत्तरुधिरप्रियाः ॥ त्रासयंतो दुराचारान्रक्षंति परितः सदा ॥१००॥
इन चौंसठ में से कुछ निम्नलिखित हैं: विद्युज्जिह्व, लालज्जिह्व, क्रुरस्य, क्रुरलोकन, उग्र, विकटदंस्त्र, वक्रस्य, वक्रनासिक, जंभाक, जृण्भाणमुख, ज्वालानेत्र, वृकोदर, गर्तनेत्र, महानेत्र, तुच्चनेत्र, अंतरमंडन, ज्वलत्केश, कंबुशिरस, खर्वग्रीव, महानु, महानास, लांबकर्ण, कर्णप्रवरण, अनासा इत्यादि। हे ऋषि, ये और अन्य लोग सदैव पवित्र स्थान की रक्षा करते हैं। इन्हें बुरे कर्म और आचरण वाले लोगों का खून प्रिय है। वे दुष्ट कार्यों और आदत वाले लोगों को भयभीत करते हैं।
त्रैलोक्यविजयाद्याश्च ज्वालामुख्यंतगाश्च याः ॥ शक्तयोऽत्र मया ख्याता मुने कलशसंभव ॥ १०१ ॥
ताः काशीं परिरक्षंति चतुर्दिक्षूद्यतायुधाः ॥ ताः समर्च्याः प्रयत्नेन महाविघ्न प्रशांतये ॥१०२॥
हे अगस्त्य! मैंने त्रैलोक्यविजय से लेकर ज्वालामुखी तक जिन शक्तियों का उल्लेख किया है, वे चारों दिशाओं में अपने अस्त्र-शस्त्र उठाकर काशी की रक्षा करती हैं। सभी महान विघ्नों के शमन के लिए उनकी पूजा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
भैरवा रुरुमुख्याश्च महाभयनिवारकाः ॥ संपूज्याः सर्वदा काश्यां सर्वसंपत्तिहेतवः ॥१०३॥
विद्युज्जिह्वप्रभृतयो वेताला उग्ररूपिणः ॥ अत्युग्रानपि विघ्नौघान्हरिष्यंत्यर्चिता इह ॥ १०४ ॥
तथा भूतावली चात्र नानाभीषणरूपिणी ॥ उदायुधाऽवति पुरीं शतकोटिमिता मुने ॥ १०५ ॥
निर्वाणलक्ष्मीक्षेत्रस्य पालयित्री पदेपदे ॥ एता वै देवताः पूज्याः काश्यां निर्वाणकांक्षिभिः ॥ १०६ ॥
भैरव, जिनमें से रुरु प्रमुख हैं, महान भय को दूर करने वाले हैं। काशी में उनकी सदैव पूजा करनी चाहिए। वे सभी धनों के कारण हैं। विद्युज्जिह्वा से आरंभ होने वाले वेताल अपने रूप में भयंकर हैं। यहाँ पूजित होने पर वे भयंकर विघ्नों को भी दूर कर देते हैं।इसी प्रकार, हे मुनि, यहाँ भूतों का समूह जो सौ करोड़ की संख्या में विविध और भयानक रूप धारण किए हुए हैं, अपने शस्त्रों से नगर की रक्षा करते हैं। काशी की पग-पग पर रक्षा करने वाले ये सभी देवता, मोक्ष की इच्छा रखने वालों को काशी में पूजना चाहिए।
श्रुत्वाध्यायमिमं पुण्यं नरो दुर्गजयाभिधम् ॥ नानाशक्तिसमायुक्तं दुर्गमाशु तरिष्यति ॥ १०७ ॥
य एते भैरवाः प्रोक्ता ये वेताला उदाहृताः ॥ तेषां नामानि चाकर्ण्य नरो विप्रैर्न दूयते ॥ १०८ ॥
इस पुण्यदायी दुर्गाजय नामक अध्याय को सुनने से, जिसमें अनेक शक्तियों के नाम हैं, मनुष्य शीघ्र ही सभी संकटों को पार कर लेता है। यहाँ वर्णित भैरवों और वेतालों के नामों को सुनने से मनुष्य विघ्नों के कारण विचलित नहीं होता है।
अदृष्टा अपि ते भूता एतदाख्यानपाठकम् ॥ रक्षिष्यंति प्रयत्नेन सह श्रोतृजनेन च ॥ १०९ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन काशीभक्तिपरैर्नरैः ॥ श्रोतव्यमिदमाख्यानं महाविघ्ननिवारणम् ॥ ११० ॥
वे भूत प्रत्यक्ष दर्शन न देने पर भी इस कथा के पाठक तथा सुनने वालों की यत्नपूर्वक रक्षा करेंगे। अतएव महान विघ्नों को दूर करने वाली इस कथा को काशीभक्त पुरुषों को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।
गृहेपि यस्य लिखितमेतत्स्थास्यति पूजितम् । तस्यापदां सहस्राणि नाशयिष्यंति देवताः ॥ १११ ॥
काश्यां यस्यास्ति वै प्रेम तेन कृत्वाऽऽदरं गुरुम् ॥ श्रोतव्यमिदमाख्यानं वज्रपंजरसन्निभम् ॥११२ ॥
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For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥