मार्कण्डेय पुराण - ऋतध्वज, मदालसा कथा


सुमति कहते हैं- पिताजी! प्राचीन काल की बात है, शत्रुजित् नामके एक महापराक्रमी राजा राज्य करते थे, जिनके यज्ञोंमें पर्याप्त सोमरस पान करनेके कारण देवराज इन्द्र बहुत सन्तुष्ट रहते थे। उनका पुत्र भी बुद्धि, पराक्रम और लावण्यमें क्रमशः बृहस्पति, इन्द्र और अश्विनीकुमारोंकी समानता करता था। वह राजकुमार प्रतिदिन अपने समान अवस्था, बुद्धि, बल, पराक्रम और चेष्टाओंवाले अन्य राजकुमारोंसे घिरा रहता था। कभी तो उनमें शास्त्रोंका विवेचन और उनके सिद्धान्तोंका निर्णय होता था; कभी काव्यचर्चा, संगीत-श्रवण और नाटक देखने आदिमें समय व्यतीत होता था। राजकुमार जब खेलमें लगते, उस समय उन्हींकी अवस्थावाले बहुत-से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके बालक भी प्रेमवश वहाँ खेलने आ जाते थे। कुछ समय बीतनेके पश्चात् अश्वतर नामक नागके दो पुत्र नागलोकसे पृथ्वीतलपर घूमनेके लिये आये। उन्होंने ब्राह्मणके रूपमें अपनेको छिपा रखा था। वे देखनेमें बड़े सुन्दर और तरुण थे। वहाँ जो राजकुमार तथा अन्यान्य द्विज-बालक खेलते थे उनके साथ ही वे भी भाँति-भाँतिके विनोद करते हुए बड़े प्रेमसे रहते थे। वे राजकुमार, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके पुत्र तथा वे दोनों नागराजके बालक साथ-ही-साथ स्नान, अङ्ग- सेवा, वस्त्र-धारण, चन्दनका अनुलेप और भोजन आदि कार्य करते-कराते थे। राजकुमारके प्रेमवश नागराजके दोनों पुत्र प्रतिदिन बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आते थे। उनके साथ भाँति-भाँतिके विनोद, हास्य और वार्तालाप आदि करनेसे राजकुमारको बड़ा सुख मिलता था। वे उन्हें साथ लिये बिना भोजन, स्नान, क्रीड़ा तथा शास्त्रचर्चा आदि कुछ भी नहीं करते थे। इसी प्रकार वे दोनों नागकुमार भी उनके बिना रसातलमें लंबी साँसें खींचते हुए रात बिताते और दिन निकलते ही उनके पास पहुँच जाते थे।


इस तरह बहुत समय बीत जानेके बाद एक दिन नागराज अश्वतरने अपने दोनों बालकोंसे पूछा-'पुत्रो! तुम दोनोंका मर्त्यलोकके प्रति इतना अधिक प्रेम किस कारण है? बहुत दिनोंसे दिनके समय तुमलोग पातालमें नहीं दिखायी देते, केवल रातमें ही मैं तुम्हें देख पाता हूँ।


पुत्रोंने कहा- 'पिताजी! मर्त्यलोकमें राजा शत्रुजित्के एक पुत्र हैं, जिनका नाम ऋतध्वज है। वे बड़े ही रूपवान्, सरल, शूरवीर, मानी तथा प्रिय वचन बोलनेवाले हैं। बिना पूछे ही वार्तालाप आरम्भ करनेवाले, वक्ता, विद्वान्, मित्रभाव रखनेवाले और समस्त गुणोंके भंडार हैं। वे राजकुमार माननीय पुरुषोंको सदा आदर देते हैं। बुद्धिमान् एवं लज्जाशील हैं। विनय ही उनका आभूषण है। उनके अर्पण किये हुए उत्तम-उत्तम उपचार, प्रेम और भाँति- भाँतिके भोगोंने हमारा मन हर लिया है। उनके बिना नागलोक या भूलोकमें कहीं भी हमें सुख नहीं मिलता। पिताजी! उनके वियोगसे पाताललोककी यह शीतल रजनी भी हमारे लिये सन्तापका कारण बनती है और उनका साथ होनेसे दिनके सूर्य भी हमें आह्लाद प्रदान करते हैं।


पिताने कहा- 'पुत्रो! अपने पुण्यात्मा पिताका वह बालक धन्य है, जिसके गुणोंका वर्णन तुम- जैसे गुणवान् लोग परोक्षमें भी कर रहे हो। संसारमें कुछ लोग ऐसे हैं, जो शास्त्रोंके ज्ञाता तो हैं, किन्तु उनमें शीलका अभाव है। कुछ लोग शीलवान् तो हैं, किन्तु शास्त्रज्ञानसे रहित हैं। जिस पुरुषमें शास्त्रोंका ज्ञान और उत्तम शील दोनों गुण समानरूपसे हों, मैं उसीको विशेष धन्यवादका पात्र समझता हूँ। जिसके मित्रोचित गुणोंका मित्रलोग और पराक्रमका शत्रुलोग भी सत्पुरुषोंके बीचमें वर्णन करते हों, उसी पुत्रसे पिता वास्तवमें पुत्रवान् होता है। ऋतध्वज तुमलोगोंके उपकारी मित्र हैं। क्या तुमलोगोंने भी उनके चित्तको प्रसन्न करनेके लिये कभी उनका कोई मनोरथ सिद्ध किया है? जिसके यहाँसे याचक कभी विमुख नहीं जाते और मित्रका कार्य कभी सिद्ध हुए बिना नहीं रहता, वही पुरुष धन्य है! उसीका जीवन और जन्म धन्य है! मेरे घरमें जो सुवर्ण आदि रत्न, वाहन, आसन तथा और कोई वस्तु उनके लिये रुचिकर हो, वह सब तुमलोग निःशङ्क होकर उन्हें दे सकते हो। जो सुहृदोंका उपकार करते, शत्रुओंको हानि पहुँचाते तथा मेघके समान सर्वत्र दानकी वर्षा करते हैं, विद्वान्लोग उनकी सदा ही उन्नति चाहते हैं।


पुत्र बोले- पिताजी! वे तो कृतकृत्य हैं, उनका कोई क्या उपकार कर सकता है? उनके घरपर आये हुए सभी याचक सदा ही पूजित होते हैं, उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण की जाती हैं। उनके घरमें जो रत्न हैं, वे हमारे पातालमें कहाँ हैं। वैसे वाहन, आसन, यान, भूषण और वस्त्र यहाँ कहाँ उपलब्ध हो सकते हैं। उनमें जो विज्ञान है, वह और किसीमें नहीं है। पिताजी! वे बड़े-बड़े विद्वानोंके भी सब प्रकारके संदेहोंका भलीभाँति निवारण करते हैं। हाँ, एक कार्य उनका अवश्य है; किन्तु वह ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि सर्वसमर्थ परमेश्वरोंके सिवा हमलोगोंके लिये सर्वथा असाध्य है।


पिताने कहा- 'पुत्रो! असाध्य हो या साध्य, किन्तु मैं उस उत्तम कार्यको अवश्य सुनना चाहता हूँ; विद्वान् पुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य असाध्य है। जो अपने मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंको संयममें रखकर उद्यममें लगे रहते हैं, उन मनुष्योंके लिये इस पातालमें या स्वर्गमें कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो अज्ञात, अगम्य अथवा अप्राप्य हो। चींटी धीरे-धीरे चलती है; तथापि यदि वह चलती रहे तो सहस्रों योजन दूर चली जा सकती है। इसके विपरीत गरुड़ तेज चलनेवाले होनेपर भी यदि आगे पैर न बढ़ावें तो एक पग भी नहीं जा सकते। उद्योगी मनुष्योंके लिये कुछ गम्य और अगम्य नहीं होता, उनके लिये सब एक-सा है। कहाँ यह भूमण्डल और कहाँ ध्रुवका स्थान, जिसे पृथ्वीपर होते हुए भी राजा उत्तानपादके पुत्र ध्रुवने प्राप्त कर लिया! इसलिये पुत्रो! महाभाग राजकुमारको जिस वस्तुकी आवश्यकता हो, बतलाओ, जिसे देकर तुम दोनों मित्र-ऋणसे उऋण हो सको।*


* नाविज्ञातं न चागम्यं नाप्राप्यं दिवि चेह वा।

उद्यतानां मनुष्याणं यतचित्तेन्द्रियात्मनाम्॥

योजनानां सहस्राणि व्रजन् याति पिपीलिकः।

अगच्छन् वैनतेयोऽपि पादमेकं न गच्छति॥

उद्यतानां मनुष्याणां गम्यागम्यं न विद्यते।

क्व भूतलं क्व च ध्रौव्यं स्थाने यत् प्राप्तवान् ध्रुवः।

उत्तानपादनृपतेः पुत्रः सन् भूमिगोचरः ॥

तत् कथ्यतां महाभाग कार्यवान् येन पुत्रकौ।

स भूपालसुतः साधुर्येनानृण्यं भवेत वाम् ॥

(अ० २०। ३७-४०)


पुत्रोंने कहा- पिताजी! महात्मा ऋतध्वजने अपनी कुमारावस्थाकी एक घटना बतलायी थी, वह इस प्रकार है। राजा शत्रुजित्के पास पहले कभी एक श्रेष्ठ ब्राह्मण पधारे थे। उनका नाम था महर्षि गालव। वे बड़े बुद्धिमान् थे और एक श्रेष्ठ अश्व लेकर आये थे। उन्होंने राजासे कहा- 'महाराज! एक पापाचारी नीच दैत्य आकर मेरे आश्रमका विध्वंस किये देता है। वह सिंह, हाथी तथा अन्य वन-जन्तुओंका और छोटे-छोटे शरीरवाले दूसरे जीवोंका भी शरीर धारण करके अकारण आता है और समाधि एवं मौनव्रतके पालनमें लगे हुए मेरे सामने आकर ऐसे-ऐसे उपद्रव करता है, जिनसे मेरा चित्त चञ्चल हो जाता है। यद्यपि हमलोग उसे अपनी क्रोधाग्निसे भस्म कर डालनेकी शक्ति रखते हैं तथापि बड़े कष्टसे उपार्जित की हुई तपस्याका अपव्यय करना नहीं चाहते। राजन्! एक दिनकी बात है, मैं उस असुरको देखकर अत्यन्त खिन्न हो लंबी साँसें ले रहा था, इतनेमें ही यह घोड़ा आकाशसे नीचे उतरा। उसी समय यह आकाशवाणी हुई-'मुने! यह अश्व बिना थके समस्त भूमण्डलकी परिक्रमा कर सकता है। इसे सूर्यदेवने आपके लिये प्रदान किया है। आकाश-पाताल और जलमें भी इसकी गति नहीं रुकती। यह समस्त दिशाओंमें बेरोक- टोक जाता है। पर्वतोंपर चढ़नेमें भी इसे कठिनाई नहीं होती। समस्त भूमण्डलमें यह बिना थकावटके विचरण करेगा, इसलिये संसारमें इसका कुवलय (कु=भूमि, वलय मण्डल) नाम प्रसिद्ध होगा। द्विजश्रेष्ठ! जो नीच दानव तुम्हें रात-दिन क्लेशमें डाले रहता है, उसका भी इसी अश्वपर आरूढ़ होकर राजा शत्रुजित्के पुत्र ऋतध्वज वध करेंगे। इस अश्वरत्नको पाकर इसीके नामपर राजकुमारकी प्रसिद्धि होगी। वे कुवलयाश्व कहलायेंगे।' 'राजन् ! उस आकाशवाणीके अनुसार मैं तुम्हारे पास आया हूँ। तपस्यामें विघ्न डालनेवाले उस दानवको तुम रोको; क्योंकि राजा भी प्रजाकी तपस्याके अंशका भागी होता है। भूपाल! अब मैंने यह अश्वरत्न तुमको समर्पित कर दिया। तुम अपने पुत्रको मेरे साथ चलनेकी आज्ञा दो, जिससे धर्मका लोप न होने पाये।'


गालव मुनिके यों कहनेपर धर्मात्मा राजाने मङ्गलाचारपूर्वक राजकुमार ऋतध्वजको उस अश्वरत्नपर चढ़ाया और मुनिके साथ भेज दिया। गालव मुनि उन्हें साथ ले अपने आश्रमको लौट गये।


पिताने पूछा- पुत्रो! महर्षि गालवके साथ जाकर राजकुमार ऋतध्वजने वहाँ जो-जो कार्य किया, उसे बतलाओ। तुमलोगोंकी कथा बड़ी अद्भुत है।


पुत्रोंने कहा- महर्षि गालवके रमणीय आश्रममें रहकर राजकुमार ऋतध्वजने ब्रह्मवादी मुनियोंके सब विघ्नोंको शान्त कर दिया। वीर कुवलयाश्व गालवाश्रममें ही निवास करते हैं, इस बातको वह मदोन्मत्त नीच दानव नहीं जानता था। इसलिये सन्ध्योपासनमें लगे हुए गालव मुनिको सतानेके लिये वह शूकरका रूप धारण करके आया। उसे देखते ही मुनिके शिष्योंने हल्ला मचाया। फिर तो राजकुमार शीघ्र ही घोड़ेपर सवार हो धनुष लेकर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने धनुषको खूब जोरसे खींचकर एक चमकते हुए अर्धचन्द्राकार बाणसे उसको चोट पहुँचायी। बाणसे आहत होकर वह अपने प्राण बचानेकी धुनमें भागा और वृक्षों तथा पर्वतसे घिरी हुई घनी झाड़ीमें घुस गया। वह घोड़ा भी मनके समान वेगसे चलनेवाला था। उसने बड़े वेगसे उस सूअरका पीछा किया। वाराहरूपधारी दानव तीव्र वेगसे भागता हुआ सहस्रों योजन दूर निकल गया और एक जगह पृथ्वीपर विवरके आकारमें दिखायी देनेवाले गढ़ेके भीतर बड़ी फुर्तीके साथ कूद पड़ा। इसके बाद शीघ्र ही अश्वारोही राजकुमार भी घोर अन्धकारसे भरे हुए उस भारी गढ़ेमें कूद पड़े। उसमें जानेपर राजकुमारको वह सूअर नहीं दिखायी पड़ा, बल्कि उन्हें प्रकाशसे पूर्ण पाताललोकका दर्शन हुआ। सामने ही इन्द्रपुरीके समान एक सुन्दर नगर था, जिसमें सैकड़ों सोनेके महल शोभा पा रहे थे। उस नगरके चारों ओर सुन्दर चहारदीवारी बनी हुई थी। राजकुमारने उसमें प्रवेश किया, किन्तु वहाँ उन्हें कोई मनुष्य नहीं दिखायी दिया। वे नगरमें घूमने लगे। घूमते-ही-घूमते उन्होंने एक स्त्रीको देखा, जो बड़ी उतावलीके साथ कहीं चली जा रही थी। राजकुमारने उससे पूछा-'तू किसकी कन्या है? किस कामसे जा रही है?' उस सुन्दरीने कुछ उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप एक महलकी सीढ़ियोंपर चढ़ गयी। ऋतध्वजने भी घोड़ेको एक जगह बाँध दिया और उसी स्त्रीके पीछे-पीछे महलमें प्रवेश किया। उस समय उनके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो रहे थे। उनके मनमें किसी प्रकारकी शङ्का नहीं थी। महलमें पहुँचनेपर उन्होंने देखा, एक विशाल पलंग बिछा हुआ है, जो ऊपरसे नीचेतक सोनेका बना है। उसपर एक सुन्दरी कन्या बैठी थी, जो कामनायुक्त रति-सी जान पड़ती थी। चन्द्रमाके समान मुख, सुन्दर भौंहें, कुंदरूके समान लाल ओठ, छरहरा शरीर और नील कमलके समान उसके नेत्र थे। अनङ्गलताकी भाँति उस सर्वाङ्गसुन्दरी रमणीको देखकर राजकुमारने समझा, यह कोई रसातलकी देवी है।


उस सुन्दरी बाला ने भी मस्तकपर काले धुंघराले बालोंसे सुशोभित, उभरी हुई छाती, स्थूल कंधों और विशाल भुजाओंवाले राजकुमारको देखकर साक्षात् कामदेव ही समझा। उनके आते ही वह सहसा उठकर खड़ी हो गयी; किन्तु उसका मन अपने वशमें न रहा। वह तुरंत ही लज्जा, आश्चर्य और दीनताके वशीभूत हो गयी। सोचने लगी- 'ये कौन हैं? देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग अथवा विद्याधर तो नहीं आ गये? या ये कोई पुण्यात्मा मनुष्य हैं?' यों विचारकर उसने लंबी साँस ली और पृथ्वीपर बैठकर सहसा मूर्च्छित हो गयी। राजकुमारको भी कामदेवके बाणका आघात-सा लगा। फिर भी धैर्य धारण करके उन्होंने उस तरुणीको आश्वासन दिया और कहा-'डरनेकी आवश्यकता नहीं।' वह स्त्री, जिसे उन्होंने पहले महलमें जाते हुए देखा था, ताड़का पंखा लेकर व्यग्रतापूर्वक हवा करने लगी। राजकुमारने आश्वासन देकर जब उससे मूर्छाका कारण पूछा, तब वह बाला कुछ लज्जित हो गयी। उसने अपनी सखीको सब बातें बता दीं। फिर उस सखीने उसकी मूर्छाका सारा कारण, जो राजकुमारको देखनेसे ही हुई थी, विस्तारपूर्वक कह सुनाया।


वह स्त्री बोली- प्रभो! देवलोकमें विश्वावसु नामसे प्रसिद्ध एक गन्धर्वोके राजा हैं। यह सुन्दरी उन्हींकी कन्या है। इसका नाम मदालसा है। वज्रकेतु दानवका एक भयङ्कर पुत्र है, जो शत्रुओंका नाश करनेवाला है। वह संसारमें पातालकेतुके नामसे प्रसिद्ध है, उसका निवासस्थान पातालके ही भीतर है। एक दिन यह मदालसा अपने पिताके उद्यानमें घूम रही थी। उसी समय उस दुरात्मा दानवने विकारमयी माया फैलाकर इस असहाय बालिकाको हर लिया। उस दिन मैं इसके साथ नहीं थी। सुना है, आगामी त्रयोदशीको वह असुर इसके साथ विवाह करेगा; किन्तु जैसे शूद्र वेदकी श्रुतिका अधिकारी नहीं है, उसी प्रकार वह दानव भी इस सर्वाङ्गसुन्दरी मेरी सखीको पानेके योग्य नहीं है। अभी कलकी बात है, यह बेचारी आत्महत्या करनेको तैयार हो गयी थी। उस समय कामधेनुने आकर आश्वासन दिया- 'बेटी! वह नीच दानव तुम्हें नहीं पा सकता। महाभागे! मर्त्यलोकमें जानेपर इस दानवको जो अपने बाणोंसे बींध डालेगा, वही तुम्हारा पति होगा। बहुत शीघ्र यह सुयोग प्राप्त होनेवाला है।' यह कहकर सुरभि देवी अन्तर्धान हो गयीं। मेरा नाम कुण्डला है। मैं इस मदालसाकी सखी, विन्ध्यवान् की पुत्री और वीर पुष्करमालीकी पत्नी हूँ। शुम्भने मेरे स्वामीको मार डाला, तबसे उत्तम व्रतोंका पालन करती हुई दिव्य गतिसे भिन्न-भिन्न तीर्थों में विचरती रहती हूँ। अब मैं परलोक सुधारनेमें ही लगी हूँ। दुष्टात्मा पातालकेतु आज वाराहका रूप धारण करके मर्त्यलोकमें गया था। सुननेमें आया है, वहाँ मुनियोंकी रक्षाके लिये किसीने उसको अपने बाणोंका निशाना बनाया है। मैं इस बातका ठीक-ठीक पता लगानेके लिये ही गयी थी, पता लगाकर तुरंत लौट आयी। सचमुच ही किसीने उस अधम दानवको बाणसे बींध डाला है।


अब मदालसाके मूर्च्छित होनेका कारण सुनिये। मानद! आपको देखते ही आपके प्रति इसका प्रेम हो गया; किन्तु यह पत्नी होगी किसी औरकी, जिसने उस दानवको अपने बाणोंका निशाना बनाया है। यही कारण है, जिससे इसको मूर्छा आ गयी। अब तो जीवनभर इसे दुःख ही भोगना है; क्योंकि इसके हृदयका प्रेम तो आपमें है और पति कोई और ही होनेवाला है। सुरभिका वचन कभी अन्यथा नहीं हो सकता। मैं तो इसीके प्रेमसे दु:खी होकर यहाँ चली आयी; क्योंकि मेरे लिये अपने शरीरमें और सखीमें कोई अन्तर नहीं है। यदि यह अपनी इच्छाके अनुसार किसी वीर पतिको प्राप्त कर लेती तो मैं निश्चिन्त होकर तपस्यामें लग जाती। महामते! अब आप अपना परिचय दीजिये। आप कौन हैं? और कैसे यहाँ पधारे हैं? आप देवता, दैत्य, गन्धर्व, नाग अथवा किन्नरोंमेंसे तो कोई नहीं हैं? क्योंकि यहाँ मनुष्यकी पहुँच नहीं हो सकती और मनुष्यका ऐसा दिव्य शरीर भी नहीं होता। जैसे मैंने सब बातें सच-सच बतायी हैं, वैसे ही आप भी अपना सब हाल ठीक-ठीक कहिये।


कुवलयाश्वने कहा- धर्मज्ञे! तुमने जो यह पूछा है कि आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं, इसका उत्तर सुनो; मैं आरम्भसे ही अपना सब समाचार बतलाता हूँ। शुभे! मैं राजा शत्रुजित्का पुत्र हूँ और पिताकी आज्ञासे मुनियोंकी रक्षाके लिये महर्षि गालवके आश्रमपर आया था। वहाँ मैं धर्मपरायण मुनियोंकी रक्षा करता था; किन्तु मेरे कार्यमें विघ्न डालनेके लिये कोई दानव शूकरका रूप धारण करके आया। मैंने उसे अर्धचन्द्राकार बाणसे बींध डाला। मेरे बाणकी चोट खाकर वह बड़े वेगसे भागा। तब मैंने भी घोड़ेपर सवार होकर उसका पीछा किया। फिर सहसा वह वाराह एक गढ़ेमें गिर पड़ा। साथ ही मेरा घोड़ा भी उसमें कूद पड़ा। उस घोड़ेपर चढ़ा हुआ मैं कुछ कालतक अन्धकारमें अकेला ही विचरता रहा। इसके बाद मुझे प्रकाश मिला और तुम्हारे ऊपर मेरी दृष्टि पड़ी। मैंने पूछा भी, किन्तु तुमने कुछ उत्तर नहीं दिया। फिर मैं तुम्हारे पीछे-पीछे इस सुन्दर महलमें आ गया। यह मैंने सच्ची बात बतलायी है। मैं देवता, दानव, नाग, गन्धर्व अथवा किन्नर नहीं हूँ। देवता आदि तो मेरे पूजनीय हैं। कुण्डले! मैं मनुष्य ही हूँ। तुम्हें इस विषयमें कभी कोई सन्देह नहीं करना चाहिये।


यह सुनकर मदालसाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने लज्जित होकर अपनी सखीके सुन्दर मुखकी ओर देखा; किन्तु कुछ बोल न सकी। उसकी सखीने फिर प्रसन्न होकर कहा—'वीर! आपकी बात सत्य है। इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। मेरी सखीका हृदय और किसीको देखकर आसक्त नहीं हो सकता। अधिक कमनीय कान्ति चन्द्रमाको ही प्राप्त होती है; प्रचण्ड प्रभा सूर्यमें ही मिलती है। दैवी विभूति धन्य पुरुषको ही प्राप्त होती है। धृति धीरको और क्षमा उत्तम पुरुषको ही मिलती है। इसमें सन्देह नहीं कि आपने ही उस नीच दानवका वध किया है। भला, गोमाता सुरभि मिथ्या कैसे कहेंगी। मेरी यह सखी बड़ी भाग्यशालिनी है। आपका सम्बन्ध पाकर यह धन्य हो गयी। वीर! जिस कार्यको विधाताने ही रच रखा है, उसे अब तुम भी पूर्ण करो।'


कुण्डलाकी बात सुनकर राजकुमारने कहा- 'मैं पिताके अधीन हूँ, उनकी आज्ञाके बिना इस गन्धर्व-राजकन्यासे किस प्रकार विवाह करूँ।'


कुण्डला बोली- 'नहीं-नहीं, ऐसा न कहिये। यह देवकन्या है। आपके पिताजी इस विवाहसे प्रसन्न होंगे; अत: इसके साथ अवश्य विवाह कीजिये।'


राजकुमार ने 'तथास्तु' कहकर उसकी बात मान ली। तब कुण्डलाने विवाहकी सामग्री एकत्रित करके अपने कुलगुरु तुम्बुरुका स्मरण किया। वे समिधा और कुशा लिये तत्काल वहाँ आ पहुँचे। मदालसाके प्रेमसे और कुण्डलाका गौरव रखनेके लिये उन्होंने आनेमें विलम्ब नहीं किया। वे मन्त्रके ज्ञाता थे; अतः अग्नि प्रज्वलित करके उन्होंने हवन किया और मङ्गलाचारके अनन्तर कन्यादान करके वैवाहिक विधि सम्पन्न की। फिर वे तपस्याके लिये अपने आश्रमपर चले गये। तदनन्तर कुण्डलाने अपने सखीसे कहा- 'सुमुखि! तुम-जैसी सुन्दरीको राजकुमार ऋतध्वजके साथ विवाहित देखकर मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। अब मैं निश्चिन्त होकर तपस्या करूँगी और तीर्थोंके जलसे अपने पापोंको धो डालूँगी, जिससे फिर मेरी ऐसी दशा न हो।' इसके बाद जानेके लिये उत्सुक हो कुण्डलाने बड़ी विनयके साथ राजकुमारसे भी वार्तालाप किया। इस समय अपनी सखीके प्रति स्नेहकी अधिकतासे उसकी वाणी गद्गद हो रही थी।


कुण्डला बोली- प्रभो! आपकी बुद्धि बहुत बड़ी है। आप-जैसे लोगोंको कोई पुरुष भी उपदेश नहीं दे सकता, फिर मुझ-जैसी स्त्रियाँ तो दे ही कैसे सकती हैं; किन्तु इस मदालसाके स्नेहसे मेरा चित्त आकृष्ट हो गया तथा आपने भी अपने प्रति मेरे हृदयमें एक विश्वास उत्पन्न कर दिया है, इसीलिये मैं आपको कर्तव्यका स्मरणमात्र करा रही हूँ। पतिको चाहिये कि सदा अपनी पत्नीका भरण-पोषण करे। जब पति-पत्नी प्रेमवश एक- दूसरेके वशीभूत होते हैं, तब उन्हें धर्म, अर्थ, काम-तीनोंकी प्राप्ति होती है। क्योंकि त्रिवर्गकी प्राप्ति पति-पत्नी दोनोंके सहयोगपर ही निर्भर है। राजकुमार! स्त्रीकी सहायता लिये बिना पुरुष किसी देवता, पितर, भृत्य और अतिथियोंका पूजन नहीं कर सकता। मनुष्य जब पतिव्रता पत्नीकी रक्षा करता है, तब वह पुत्रोत्पादनके द्वारा पितरोंको, अन्न आदिके द्वारा अतिथियोंको और पूजा- अर्चाके द्वारा देवताओंको प्रसन्न करता है। स्त्री भी पतिके बिना धर्म, अर्थ, काम एवं सन्तान नहीं पा सकती; इसलिये पति-पत्नी दोनोंके सहयोगपर ही त्रिवर्गका सुख निर्भर करता है। आप दोनों नवदम्पतिके लिये ये बातें मैंने निवेदन की हैं। अब मैं अपनी इच्छाके अनुसार जा रही हूँ।


यों कहकर कुण्डलाने अपनी सखीको गलेसे लगाया और राजकुमारको नमस्कार करके वह दिव्य गतिसे अपने अभीष्ट स्थानको चली गयी। ऋतध्वजने भी मदालसाको अपने घोड़ेपर बिठाया और पाताललोकसे निकल जानेकी तैयारी की। यह बात दानवोंको मालूम हो गयी। उन्होंने सहसा कोलाहल मचाना आरम्भ किया—'पातालकेतु जिस कन्यारत्नको स्वर्गसे हर लाया था, उसे यह राजकुमार चुराये जाता है।' यह समाचार पाते ही परिघ, खड्ग, गदा, शूल, बाण और धनुष आदि आयुधोंसे सजी हुई दानवोंकी विशाल सेना पातालकेतुके साथ वहाँ आ पहुँची। उस समय 'खड़ा रह, खड़ा रह' कहते हुए बड़े-बड़े दानवोंने राजकुमार ऋतध्वजपर बाणों और शूलोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी। राजकुमार भी बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने हँसते-हँसते बाणोंका जाल- सा फैला दिया और खेल-खेलमें ही दानवोंके सब अस्त्र-शस्त्र काट गिराये। क्षणभरमें ही पाताललोककी भूमि ऋतध्वजके बाणोंसे छिन्न- भिन्न हुए खड्ग, शक्ति, ऋष्टि और सायकोंसे आच्छादित हो गयी। तदनन्तर राजकुमारने त्वाष्ट्र नामक अस्त्रका सन्धान किया और उसे दानवोंपर छोड़ दिया। उसकी प्रचण्ड ज्वालासे पातालकेतुसहित समस्त दानव दग्ध हो गये। उनकी हड्डियाँ चटख-चटखकर राख हो गयीं। जैसे कपिलमुनिकी क्रोधाग्निमें सगरपुत्र भस्म हो गये थे, उसी प्रकार ऋतध्वजकी शराग्निमें सम्पूर्ण दानव जल मरे।


इस प्रकार बड़े-बड़े दानवोंका वध करके राजकुमार फिर अपने अश्वपर सवार हुए और उस स्त्रीरत्नके साथ अपने पिताके नगरमें आये। पिताके चरणोंमें प्रणाम करके उन्होंने पातालमें जाने, कुण्डलाके दर्शन होने, मदालसाको पाने और दानवोंसे युद्ध करने आदिका सब समाचार सुना दिया। यह सब सुनकर पिताको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुत्रको छातीसे लगाकर कहा-'बेटा! तुम सुपात्र और महात्मा हो। तुमने मुझे तार दिया; क्योंकि तुम्हारे द्वारा उत्तम धर्मका पालन करनेवाले मुनियोंकी भयसे रक्षा हुई है। मेरे पूर्वजोंने अपने कुलको यशसे विख्यात किया था। मैंने उस यशको फैलाया था और तुमने अनुपम पराक्रम करके उसे और भी बढ़ा दिया। पिताने जो यश, धन अथवा पराक्रम प्राप्त किया हो, उसे जो कम नहीं करता, वह पुत्र मध्यम श्रेणीका माना गया है; जो अपनी शक्तिसे पिताकी अपेक्षा भी अधिक पराक्रम दिखाये, उसे विद्वान् पुरुष श्रेष्ठ कहते हैं; किन्तु जो पिताद्वारा उपार्जित धन, वीर्य तथा यशको अपने समयमें घटा देता है, वह बुद्धिमान् पुरुषोंद्वारा अधम बताया गया है। मैंने जिस प्रकार ब्राह्मणोंकी रक्षा की थी, उसी प्रकार तुमने भी की है; परन्तु पाताललोककी यात्रा और वहाँ असुरोंका विनाश-वे सब कार्य तुमने अधिक किये हैं। अतः तुम्हारी गणना उत्तम पुरुषोंमें है। बेटा! तुम धन्य हो। तुम्हारे-जैसे अधिक गुणवान् पुत्रको पाकर मैं पुण्यवानोंके लिये भी स्पृहणीय हो रहा हूँ। जिसका पुत्र बुद्धि, दान और पराक्रममें उससे बढ़ नहीं जाता, वह मनुष्य मेरे मतमें पुत्रजनित आनन्दको नहीं प्राप्त करता। उस पुरुषको धिक्कार है, जो इस लोकमें पिताके नामपर ख्याति लाभ करता है। जो पिता अपने पुत्रके कार्यसे विख्यात होता है, उसीका जन्म सफल है। जो अपने नामसे प्रसिद्ध होता है, वह सबसे उत्तम है। जो पिता और पितामहोंके नामपर ख्यात होता है, वह मध्यम है तथा जो मातृपक्ष या माताके नामसे प्रसिद्धि प्राप्त करता है, वह अधम श्रेणीका मनुष्य है।*


* आत्मना ज्ञायते धन्यो मध्यः पितृपितामहैः।

मातृपक्षेण मात्रा च ख्यातिमेति नराधमः॥(२१।१०२)

इसलिये पुत्र! तुम धन, पराक्रम और सुखके साथ अभ्युदयशील बनो। इस गन्धर्वकन्याका तुमसे कभी वियोग न हो।'


इस प्रकार बारंबार भाँति-भाँतिके प्रिय वचन कहकर पिताने ऋतध्वजको हृदयसे लगाया और मदालसाके साथ उन्हें राजमहलमें भेज दिया। राजकुमार ऋतध्वज अपनी पत्नीके साथ पिताके नगरमें तथा उद्यान, वन एवं पर्वत- शिखरोंपर आनन्दपूर्वक विहार करते रहे। कल्याणी मदालसा प्रतिदिन प्रात:काल उठकर सास- ससुरके चरणोंमें प्रणाम करती और अपने पतिके साथ रहकर आनन्द भोगती थी।


दोनों नागकुमार कहते हैं- पिताजी! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होनेपर राजाने पुनः अपने पुत्रसे कहा-'बेटा! तुम प्रतिदिन प्रात:काल इस अश्वपर सवार हो ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये पृथ्वीपर विचरते रहो। सैकड़ों दुराचारी दानव इस पृथ्वीपर मौजूद हैं। उनसे मुनियोंको बाधा न पहुँचे, ऐसी चेष्टा करो।' पिताकी इस आज्ञाके अनुसार राजकुमार उसी दिनसे ऐसा ही करने लगे। वे पूर्वाह्नमें ही सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके पिताके चरणोंमें मस्तक झुकाते थे। एक दिनकी बात है, वे घूमते हुए यमुना-तटपर गये। वहाँ पातालकेतुका छोटा भाई तालकेतु आश्रम बनाकर रहता था। राजकुमारने उसे देखा, वह मायावी दानव मुनिका रूप धारण किये हुए था। उसने पहलेके वैरका स्मरण करके उनसे कहा-'राजकुमार! मैं तुमसे एक बात कहता हूँ; यदि तुम्हारी इच्छा हो तो उसे करो। तुम सत्यप्रतिज्ञ हो, अतः तुम्हें मेरी प्रार्थना भङ्ग नहीं करनी चाहिये। मैं धर्मके लिये यज्ञ करूँगा और उसमें अनेक इष्टियाँ करनी होगी। इन सबके लिये इष्टका चयन करना भी आवश्यक है; किन्तु मेरे पास दक्षिणा नहीं है। अत: वीर! तुम सुवर्णके लिये मुझे अपने गलेका यह आभूषण दे दो और मेरे इस आश्रमकी रक्षा करो। तबतक मैं जलके भीतर प्रवेश करके प्रजाकी पुष्टिके लिये वरुण देवता-सम्बन्धी वैदिक मन्त्रोंसे वरुण देवताकी स्तुति करता हूँ। स्तुतिके पश्चात् जल्दी ही लौटूंगा।' उसके यों कहनेपर राजकुमारने उसे प्रणाम किया और अपने कण्ठका आभूषण उतारकर दे दिया। फिर इस प्रकार कहा-'आप निश्चिन्त होकर जाइये; जबतक लौट नहीं आयेंगे, तबतक यहीं मैं आपके आश्रमके समीप ठहरूँगा।'


राजकुमारके इस प्रकार कहनेपर तालकेतु नदीके जलमें डुबकी लगाकर अदृश्य हो गया और वे उसके मायानिर्मित आश्रमकी रक्षा करने लगे। जलके भीतरसे वह राजकुमारके नगरमें चला गया और मदालसा तथा अन्य लोगोंके समक्ष पहुँचकर इस प्रकार बोला।


तालकेतुने कहा- वीर कुवलयाश्व मेरे आश्रमके समीप गये थे और तपस्वियोंकी रक्षा करते हुए किसी दुष्ट दैत्यसे युद्ध कर रहे थे। उन्होंने अपनी शक्तिभर युद्ध किया और बहुत-से ब्राह्मणद्वेषी दैत्योंको मौतके घाट उतारा; फिर उस पापी दैत्यने मायाका सहारा लेकर शूलसे उनकी छाती छेद डाली। मरते समय उन्होंने अपने गलेका यह आभूषण मुझे दिया; फिर तपस्वियोंने मिलकर उनका अग्निसंस्कार कर दिया। उनका अश्व भयभीत हो नेत्रोंसे आँसू बहाता हुआ हिनहिनाता रहा। उसी अवस्थामें वह दुरात्मा दानव उसे अपने साथ पकड़ ले गया। मुझ पापाचारी निष्ठुरने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा है। इसके बाद जो कुछ कर्तव्य हो, वह आपलोग करें। अपने हृदयको आश्वासन देनेके लिये यह गलेका हार ग्रहण कीजिये।


यों कहकर तालकेतुने वह हार पृथ्वीपर छोड़ दिया और जैसे आया था, वैसे ही चला गया। यह दुःखपूर्ण समाचार सुनकर वहाँके लोग शोकसे व्याकुल हो मूर्च्छित हो गये; फिर थोड़ी देरमें होशमें आनेपर रनिवासकी सभी स्त्रियाँ, राजा तथा महारानी भी अत्यन्त दुखी होकर विलाप करने लगी। मदालसाने उनके गलेके आभूषणको देखा और पतिको मारा गया सुनकर तुरंत ही अपने प्यारे प्राणोंको त्याग दिया।*


मदालसा तु तद् दृष्ट्वा तदीयं कण्ठभूषणम्।

तत्याजाशु प्रियान् प्राणान् श्रुत्वा च निहतं पतिम् ॥

(अ० २२। ८५)


तदनन्तर पुरवासियों तथा महाराजके महलमें भी बड़े जोरसे करुण-क्रन्दन होने लगा। राजा शत्रुजित् ने जब मदालसाको पतिके बिना मृत्युको प्राप्त हुई देखा, तब कुछ विचार करके मनको स्थिर किया और वहाँ शोक करते हुए सब लोगोंसे कहा-'प्रजाजनो और देवियो! मैं तुम्हारे और अपने लिये रोनेका कोई कारण नहीं देखता। सभी प्रकारके सम्बन्ध अनित्य होते हैं। इस बातका भलीभाँति विचार करनेपर क्या पुत्रके लिये शोक करूँ और क्या पुत्रवधूके लिये। सोचनेसे ऐसा जान पड़ता है, वे दोनों कृतकृत्य होनेके कारण शोकके योग्य नहीं हैं। जो सदा मेरी सेवामें लगा रहता था और मेरे ही कहनेसे ब्राह्मणोंकी रक्षामें तत्पर हो मृत्युको प्राप्त हुआ, वह मेरा पुत्र बुद्धिमान् पुरुषोंके लिये शोकका विषय कैसे हो सकता है। जो अवश्य जानेवाला है, उस शरीरको यदि मेरे पुत्रने ब्राह्मणोंकी रक्षामें लगा दिया तो यह तो महान् अभ्युदयका कारण है। इसी प्रकार उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई यह मेरी पुत्रवधू यदि इस प्रकार अपने स्वामीमें अनुरक्त हो परलोकमें उसके पास गयी है तो उसके लिये भी शोक करना कैसे उचित हो सकता है; क्योंकि स्त्रियोंके लिये पतिके अतिरिक्त दूसरा कोई देवता नहीं है। यदि यह पतिके न रहनेपर भी जीवित रहती तो हमारे लिये, बन्धु-बान्धवोंके लिये तथा अन्य दयालु पुरुषोंके लिये शोकके योग्य हो सकती थी। यह तो अपने स्वामीके वधका समाचार सुनकर तुरंत ही उनके पीछे चली गयी है, अतः विद्वान् पुरुषोंके लिये शोकके योग्य नहीं है।१


१- राजा च तां मृतां दृष्ट्वा विना भ; मदालसाम्।

प्रत्युवाच जनं सर्वं विमृश्य सूस्थमानसः ॥

न रोदितव्यं पश्यामि भवतामात्मनस्तथा।

सर्वेषामेव संचिन्त्य सम्बन्धानामनित्यताम्॥

किं नु शोचामि तनयं किं नु शोचाम्यहं स्नुषाम्।

विमृश्य कृतकृत्यत्वान्मन्येऽशोच्यावुभावपि॥

यच्छुश्रूषुर्मद्वचनाद् द्विजरक्षणतत्परः।

प्राप्तो मे यः सुतो मृत्यु कथं शोच्यः स धीमताम्॥

अवश्यं याति यद्देहं तद् द्विजानां कृते यदि।

मम पुत्रेण सन्त्यक्तं नन्वभ्युदयकारि तत् ॥

इयं सत्कुलोत्पन्ना भर्तर्येवमनुव्रता।

कथं नु शोच्या नारीणां भर्तुरन्यन्न दैवतम्॥

अस्माकं बान्धवानां च तथान्येषां दयावताम्।

शोच्या ह्येषा भवेदेवं यदि भ; वियोगिनी॥

या तु भर्तुर्वधं श्रुत्वा तत्क्षणादेव भामिनी।

भर्तारमनुयातेयं न शोच्यातो विपश्चिताम्॥

(अ० २२। २७-३४)


शोक तो उन स्त्रियोंके लिये करना चाहिये, जो पतिवियोगिनी होकर भी जीवित हों। जो पतिके साथ ही प्राण त्याग देती हैं, वे कदापि शोकके योग्य नहीं हैं। मदालसा बड़ी कृतज्ञ थी; इसलिये इसने पतिवियोगका दुःख नहीं भोगा। जो इहलोक तथा परलोकमें सब प्रकारके सौख्य प्रदान करनेवाला है, उस पतिको कौन स्त्री मनुष्य समझेगी। अतः मेरा वह पुत्र ऋतध्वज, यह पुत्रवधू, मैं तथा ऋतध्वजकी माता-इनमेंसे कोई भी शोकके योग्य नहीं है। मेरे पुत्रने ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये अपने प्राण त्यागकर हम सबका उद्धार कर दिया। संग्राममें ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये प्राणत्याग करके मेरे पुत्रने अपनी माताके सतीत्व, वंशकी निर्मलता तथा अपने पराक्रमका त्याग नहीं किया है।'


तदनन्तर कुवलयाश्वकी माताने अपने पतिकी ओर देखकर कहा- 'राजन्! मेरी माता और बहिनको भी ऐसी प्रसन्नता नहीं प्राप्त हुई, जैसी कि मुनियोंकी रक्षाके लिये पुत्रका वध सुनकर मुझे हुई है। जो शोकमें पड़े हुए बन्धु- बान्धवोंके सामने रोगसे क्लेश उठाते और अत्यन्त दुखी होकर लंबी साँसें खींचते हुए प्राणत्याग करते हैं, उनकी माताका सन्तान उत्पन्न करना व्यर्थ है। जो गौ और ब्राह्मणोंकी रक्षामें तत्पर हो रणभूमिमें निर्भयतापूर्वक युद्ध करते हुए शस्त्रोंसे आहत होकर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे ही इस पृथ्वीपर धन्य मनुष्य हैं। जो याचकों, मित्रों तथा शत्रुओंसे कभी विमुख नहीं होता, उसीसे पिता वस्तुतः पुत्रवान् होता है और माता उसीके कारण वीर पुत्रकी जननी मानी जाती है। पुत्रके जन्मकालमें माताको जो क्लेश उठाना पड़ता है, वह तभी सफल होता है जब पुत्र शत्रुओंपर विजय प्राप्त करे अथवा युद्ध में लड़ता हुआ मारा जाय।'*


* न मे मात्रा न मे स्वस्रा प्राप्ता प्रीतिर्नृपेदृशी।

श्रुत्वा मुनिपरित्राणे हतं पुत्रं यथा मया ॥

शोचतां बान्धवानां ये निश्वसन्तोऽतिदुःखिताः।

म्रियन्ते व्याधिना क्लिष्टास्तेषां माता वृथाप्रजा॥

संग्रामे युध्यमाना येऽभीता गोद्विजरक्षणे।

क्षुण्णाः शस्त्रैर्विपद्यन्ते त एव भुवि मानवाः ॥

अर्थिनां मित्रवर्गस्य विद्विषां च पराङ्मुखम्।

यो न याति पिता तेन पुत्री माता च वीरसूः॥

गर्भक्लेशः स्त्रियो मन्ये साफल्यं भजते तदा।

यदारिविजयी वा स्यात् संग्रामे वा हतः सुतः॥

(अ० २२। ४१-४५)


तदनन्तर राजा शत्रुजित् ने अपनी पुत्रवधू मदालसा का दाह-संस्कार किया और नगरसे बाहर निकलकर पुत्रको जलाञ्जलि दी। तालकेतु फिर यमुनाजलसे निकलकर राजकुमारके पास गया और प्रेमपूर्वक मीठी वाणीमें बोला- 'राजकुमार! अब तुम जाओ। तुमने मुझे कृतार्थ कर दिया। तुम जो यहाँ अविचल भावसे खड़े रहे, इससे मैंने बहुत दिनों की अपनी अभिलाषा पूरी कर ली। मुझे महात्मा वरुणकी प्रसन्नताके लिये वारुण यज्ञका अनुष्ठान करनेकी बहुत दिनोंसे अभिलाषा थी; वह सब कार्य अब मैंने पूरा कर लिया।' उसके यों कहनेपर राजकुमार उसको प्रणाम करके गरुड़ तथा वायुके समान वेगवाले उसी अश्वपर आरूढ़ हुए और अपने पिताके नगरकी ओर चल दिये।


राजकुमार ऋतध्वज बड़े वेगसे अपने नगरमें आये। उस समय उनके मनमें माता-पिताके चरणोंकी वन्दना करने तथा मदालसाको देखनेकी प्रबल इच्छा थी। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, सामने आनेवाले सभी लोग उद्विग्न हैं, किसीके मुखपर प्रसन्नताका चिह्न नहीं है; किन्तु साथ ही सबकी आकृतिसे आश्चर्य टपक रहा है और मुखपर अत्यन्त हर्ष छा रहा है। पिता-माता तथा अन्य बन्धु- बान्धवोंने उन्हें छातीसे लगाया और 'चिरंजीवी रहो वत्स!' यह कहकर कल्याणमय आशीर्वाद दिया। राजकुमार भी सबको प्रणाम करके आश्चर्यमग्न हो पूछने लगे- 'यह क्या बात है?' पितासे पूछनेपर उन्होंने बीती हुई सारी बातें कह सुनायीं। अपनी मनोरमा भार्या मदालसाकी मृत्युका समाचार सुनकर तथा माता-पिताको सामने खड़ा देख वे लज्जा और शोकके समुद्रमें डूब गये और मन-ही-मन सोचने लगे- 'हाय! उस साध्वी बाला ने मेरी मृत्युकी बात सुनकर प्राण त्याग दिये; फिर भी मैं जीवित हूँ। मुझ निष्ठुर को धिक्कार है। अहो! मैं क्रूर हूँ, अनार्य हूँ, जो मेरे ही लिये मृत्यु को प्राप्त हुई उस मृगनयनी पत्नीके बिना भी अत्यन्त निर्दय होकर जी रहा हूँ।' इसके बाद उन्होंने अपने मनके आवेगको रोका और मोह छोड़कर विचारना आरम्भ किया- "वह मर गयी; इसलिये यदि मैं भी उसके निमित्त अपने प्राण त्याग दूं तो इससे उस बेचारी का क्या उपकार हुआ? यह कार्य तो स्त्रियोंके लिये ही प्रशंसनीय है। यदि बारंबार 'हा प्रिये! हा प्रिये!!' कहकर दीनभाव से रोता हूँ तो यह भी मेरे लिये प्रशंसाके योग्य बात नहीं है। मेरा कर्तव्य तो है- पिताजीकी सेवा करना। यह जीवन उन्हींके अधीन है; अत: मैं कैसे इसका त्याग कर सकता हूँ। किन्तु आजसे स्त्री सम्बन्धी भोगका परित्याग कर देना मैं अपने लिये उचित समझता हूँ। यद्यपि इससे भी उस तन्वङ्गीका कोई उपकार नहीं होता, तथापि मुझको तो सर्वथा विषयभोगका त्याग ही करना उचित है। इससे उपकार अथवा अपकार कुछ भी नहीं होता। जिसने मेरे लिये प्राणतक त्याग दिया, उसके लिये मेरा यह त्याग बहुत थोड़ा है।'


ऐसा निश्चय करके उन्होंने मदालसाके लिये जलाञ्जलि दी और उसके बादका कर्म पूरा करके इस प्रकार प्रतिज्ञा की।

ऋतध्वज बोले- यदि इस जन्ममें मेरी सुन्दरी पत्नी मदालसा मुझे फिर न मिल सकी तो दूसरी कोई स्त्री मेरी जीवनसङ्गिनी नहीं बन सकती। मृगके समान विशाल नेत्रोंवाली गन्धर्वराजकुमारी मदालसा के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्रीके साथ मैं सम्भोग नहीं कर सकता। यह मैंने सर्वथा सत्य कहा है।*

* तामृते मृगशावाक्षी गन्धर्वतनयामहम्।

न भोक्ष्ये योषितं काञ्चिदिति सत्यं मयोदितम् ॥

(अ०२३।२०)


दोनों नागकुमार कहते हैं- पिताजी! इस प्रकार मदालसाके बिना वे स्त्रीसम्बन्धी समस्त भोगोंका परित्याग करके अब अपने समवयस्क मित्रोंके साथ मन बहलाते हैं। यही उनका सबसे बड़ा कार्य है। परन्तु यह तो ईश्वरकोटिमें पहुँचे हुए व्यक्तियों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर है, फिर अन्य लोगोंकी तो बात ही क्या है।


नागराज अश्वतर बोले- पुत्रो! यदि किसी कार्यको असम्भव मानकर मनुष्य उसके लिये उद्योग नहीं करेंगे तो उद्योग छोड़नेसे उनकी भारी हानि होगी; इसलिये मनुष्यको अपने पौरुषका त्याग न करते हुए कर्मका आरम्भ करना चाहिये; क्योंकि कर्मकी सिद्धि दैव और पुरुषार्थ दोनोंपर अवलम्बित है। इसलिये मैं तपस्याका आश्रय लेकर ऐसा यत्न करूँगा, जिससे इस कार्यकी शीघ्र ही सिद्धि हो।


यों कहकर नागराज अश्वतर हिमालय पर्वतके प्लक्षावतरण-तीर्थमें, जो सरस्वतीका उद्गमस्थान है, जाकर दुष्कर तपस्या करने लगे। वे तीनों समय स्नान करते और नियमित आहारपर रहते हुए सरस्वतीदेवीमें मन लगाकर उत्तम वाणीमें उनकी स्तुति करते थे।


अश्वतर उवाच

जगद्धात्रीमहं देवीमारिराधयिषुः शुभाम्।

स्तोष्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम्॥

सदसद् देवि यत्किंचिन्मोक्षबन्धार्थवत्पदम्।

तत्सर्वं त्वय्यसंयोगं योगवद् देवि संस्थितम्॥

त्वमक्षरं परं देवि यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम्।

अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत्॥

अक्षरं परमं ब्रह्म जगच्चैतत्क्षरात्मकम्।

दारुण्यवस्थितो वह्निीमाश्च परमाणवः॥

तथा त्वयि स्थितं ब्रह्म जगच्चेदमशेषतः।


अश्वतरने कहा- जो सम्पूर्ण जगत् को धारण करनेवाली और वेदोंकी जननी हैं, उन कल्याणमयी सरस्वती देवीको प्रसन्न करनेकी इच्छासे मैं उनके चरणोंमें शीश झुकाता और उनकी स्तुति करता हूँ। देवि! मोक्ष और बन्धनरूप अर्थसे युक्त जो सत् और असत् पद है, वह सब तुममें असंयुक्त होकर भी संयुक्तकी भाँति स्थित है। देवि! जिसमें सब कुछ प्रतिष्ठित है, वह परम अक्षर तुम्हीं हो। परम अक्षर परमाणु की भाँति स्थित है। अक्षररूप परब्रह्म और क्षररूप यह जगत् तुममें ही स्थित है। जैसे काष्ठमें अग्नि तथा पार्थिव सूक्ष्म परमाणु भी रहते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म और यह सम्पूर्ण जगत् तुममें स्थित है।


ओङ्काराक्षरसंस्थानं यत्ते देवि स्थिरास्थिरम्॥

तत्र मात्रात्रयं सर्वमस्ति यद्देवि नास्ति च।

त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रैविद्यं पावकत्रयम्॥

त्रीणि ज्योतींषि वर्गाश्च त्रयो धर्मादयस्तथा।

त्रयो गुणास्त्रयः शब्दास्त्रयो दोषास्तथाश्रमाः॥

त्रयः कालास्तथावस्थाः पितरोऽहर्निशादयः।

एतन्मात्रात्रयं देवि तव रूपं सरस्वति॥

विभिन्नदर्शिनामाद्या ब्रह्मणो हि सनातनाः।

सोमसंस्था हविःसंस्थाः पाकसंस्थाश्च सप्त याः॥

तास्त्वदुच्चारणाद्देवि क्रियन्ते ब्रह्मवादिभिः।


देवि! ओंकार अक्षरके रूपमें जो तुम्हारा श्रीविग्रह है, वह स्थावर-जङ्गमरूप है। उसमें जो तीन मात्राएँ हैं, वे ही सब कुछ हैं। अस्ति-नास्ति (सत्-असत्) रूपसे व्यवहृत होनेवाला जो कुछ भी है, वह सब उन्हींमें स्थित है। तीन लोक, तीन वेद, तीन विद्याएँ, तीन अग्नि, तीन ज्योति, धर्म आदि तीन वर्ग, तीन गुण, तीन शब्द, तीन दोष, तीन आश्रम, तीन काल, तीन अवस्थाएँ, त्रिविध पितर, दिन-रात और सन्ध्या-ये सभी तीन मात्राओंके अन्तर्गत हैं। देवि सरस्वति! इस प्रकार यह सब तुम्हारा ही स्वरूप है। भिन्न-भिन्न प्रकारके दृष्टिकोण रखनेवाले व्यक्तियोंके लिये जो ब्रह्मके आदि एवं सनातन स्वरूपभूत सात प्रकारकी सोमयज्ञ१ संस्थाएँ, सात प्रकारकी हविर्यज्ञ२ संस्थाएँ तथा सात प्रकारकी पाकयज्ञसंस्थाएँ वेदमें वर्णित हुई हैं, उन सबका अनुष्ठान ब्रह्मवादी पुरुष तुम्हारे अङ्गभूत मन्त्रोंके उच्चारणसे ही करते हैं।


१. अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम-ये सात सोमयज्ञ३ संस्थाएँ हैं।

२. अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयणेष्टि, निरूढपशुबन्ध तथा सौत्रामणी - ये सब हविर्यज्ञसंस्थाएँ हैं।

३. हुत, प्रहुत, आहुत, शूलगव, बलिहरण, प्रत्यवरोहण तथा अष्टकाहोम - ये सात पाकयज्ञसंस्थाएँ हैं।


अनिर्देश्यं तथा चान्यदर्धमात्राश्रितं परम्॥

अविकार्यक्षयं दिव्यं परिणामविवर्जितम्।

तवैव च परं रूपं यन्न शक्यं मयेरितुम्॥

न चास्येन न वा जिह्वाताल्वोष्ठादिभिरुच्यते।

इन्द्रोऽपि वसवो ब्रह्मा चन्द्रार्कौ ज्योतिरेव च ॥

विश्वावासं विश्वरूपं विश्वेशं परमेश्वरम्।

सांख्यवेदान्तवेदोक्तं बहुशाखास्थिरीकृतम्॥

अनादिमध्यनिधनं सदसन्न सदेव तु।

एकं त्वनेकं नाप्येकं भवभेदसमाश्रितम्॥

अनाख्यं षड्गुणाख्यं च षट्काख्यं त्रिगुणाश्रयम्।

नानाशक्तिमतामेकं शक्तिवैभविकं परम्॥

सुखासुखमहत्सौख्यं रूपं तव विभाव्यते।

एवं देवि त्वया व्याप्तं सकलं निष्कलं च यत्॥

अद्वैतावस्थितं ब्रह्म यच्च द्वैते व्यवस्थितम्।


उक्त तीन मात्राओंसे परे जो अर्धमात्रा के आश्रित विन्दु है, उसका वाणीद्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता। वह अविकारी, अक्षय, दिव्य तथा परिणामशून्य है। देवि! वह आपका ही स्वरूप है, जिसका वर्णन मेरे द्वारा असम्भव है। मुख, जीभ, तालु और ओठ आदि किसी भी स्थानसे उसका उच्चारण नहीं हो सकता। इन्द्र, वसु, ब्रह्मा, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि भी वही है। वही सम्पूर्ण जगत् का निवासस्थान, जगत्स्वरूप, जगत् का ईश्वर एवं परमेश्वर है। सांख्य, वेदान्त और वेदोंमें उसीका प्रतिपादन हुआ है। अनेकों शाखाओंमें उसीके स्वरूपका निश्चय किया गया है। वह आदि-अन्तसे रहित है तथा सत्-असत् से विलक्षण होता हुआ भी सत्स्वरूप ही है। अनेक रूपोंमें प्रतीत होता हुआ भी एक है और एक होकर भी जगत् के भेदोंका आश्रय लेकर अनेक है। वह नाम-रूप से रहित है। छ: गुण, छ: वर्ग तथा तीन गुण भी उसीके आश्रित हैं। वह एक ही परम शक्तिमान् तत्त्व है, जो नाना प्रकारकी शक्ति रखनेवाले जीवोंमें शक्तिका सञ्चार करता रहता है। सुख, दुःख तथा महासौख्य - सब उसी अर्धमात्रारूप तुरीयपद के स्वरूप हैं। इस प्रकार तीनों मात्राओंसे अतीत जो तुरीय धामरूप ब्रह्म है, वह तुम्हींमें अभिव्यक्त होता है। देवि! इस तरह सकल, निष्कल, अद्वैतनिष्ठ तथा द्वैतनिष्ठ जो ब्रह्म है, वह भी तुमसे व्याप्त है।


येऽर्था नित्या ये विनश्यन्ति चान्ये

ये वा स्थूला ये च सूक्ष्मातिसूक्ष्माः।

ये वा भूमौ येऽन्तरिक्षेऽन्यतो वा

तेषां तेषां त्वत्त एवोपलब्धिः।

यच्चामूर्तं यच्च मूर्तं समस्तं

यद्वा भूतेष्वेकमेकं च किञ्चित्।

यदिव्येऽस्ति क्ष्मातले खेऽन्यतो वा

तत्सम्बद्धं त्वत्स्वरैर्व्यञ्जनैश्च॥


जो पदार्थ नित्य हैं, जो विनाशशील हैं, जो स्थूल हैं तथा जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, जो इस पृथ्वीपर, अन्तरिक्षमें या और किसी स्थानमें देखे जाते हैं, उन सबकी उपलब्धि तुम्हींसे होती है। मूर्त, अमूर्त, समस्त भूत अथवा एक-एक भूत जो कुछ भी धुलोक, पृथ्वी, आकाश या अन्य स्थानमें उपलब्ध होता है, वह सब तुम्हारे ही स्वर और व्यञ्जनोंसे सम्बद्ध है।


इस प्रकार स्तुति करनेपर श्रीविष्णुकी जिह्वारूपा सरस्वतीदेवी ने प्रकट हो महात्मा अश्वतर नागसे कहा- 'कम्बल के भाई नागराज अश्वतर! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे बताओ। मैं तुम्हें वर दूंगी।'


अश्वतर बोले- देवि! पहले तो आप कम्बलको ही मुझे सहायकरूप में दीजिये और हम दोनों भाइयोंको सङ्गीतके समस्त स्वरोंका ज्ञान करा दीजिये।


सरस्वतीने कहा- नागराज! सात स्वर, सातों ग्राम, राग, सातों गीत, सातों मूर्च्छनाएँ, उनचास प्रकारकी तानें और तीन ग्राम-इन सबको तुम और कम्बल भी गा सकते हो। इसके सिवा मेरी कृपासे तुम्हें चार प्रकारके पद, तीन ताल और तीन लयोंका भी ज्ञान हो जायगा। मैंने तीनों यति और चारों प्रकारके बाजोंका ज्ञान भी तुम्हें दे दिया। यह सब तो मेरे प्रसादसे तुम्हें मिलेगा ही; और भी इसके अन्तर्गत जो स्वर-व्यञ्जनसम्बन्धी विज्ञान है, वह सब भी तुमको और कम्बलको मैंने प्रदान किया। तुम दोनों भाई सङ्गीतकी सम्पूर्ण कलामें जितने कुशल होओगे, वैसा भूलोक, देवलोक और पाताललोकमें भी दूसरा कोई नहीं होगा।


सबकी जिह्वारूपा सरस्वतीदेवी यों कहकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं। उन दोनों भाइयोंको सरस्वतीजीके कथनानुसार पद, ताल और स्वर आदिका उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। तदनन्तर वे कैलासशिखरपर निवास करनेवाले भगवान् शङ्करकी आराधना करनेके लिये वहाँ गये और वीणाकी लयके साथ सात प्रकारके गीतोंसे शङ्करजीको प्रसन्न करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न करने लगे। प्रात:- काल, रात्रिमें, मध्याह्नके समय और दोनों सन्ध्यामें वे भगवत्परायण होकर भगवान् शङ्करकी स्तुति करने लगे। बहुत समयतक स्तुति करनेके बाद उनके गीतसे भगवान् शङ्कर प्रसन्न हुए और बोले- 'वर माँगो।' तब कम्बलसहित अश्वतरने महादेवजीको प्रणाम करके कहा-'भगवन् ! यदि आप हम दोनोंपर प्रसन्न हैं तो हमें मनोवाञ्छित वर दें। कुवलयाश्वकी पत्नी मदालसा, जो अब मर चुकी है, पहलेकी ही अवस्थामें मेरी कन्याके रूपमें प्रकट हो। उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो, पहले ही जैसी उसकी कान्ति हो तथा वह योगिनी एवं योगविद्याकी जननी होकर मेरे घरमें उत्पन्न हो।'


महादेवजी ने कहा- नागराज! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब मेरे प्रसादसे निश्चय ही पूर्ण होगा। श्राद्धका दिन आनेपर तुम उसमें दिये हुए मध्यम पिण्डको शुद्ध एवं पवित्रचित्त होकर खा लेना। उसके खा लेनेपर तुम्हारे मध्यम फणसे कल्याणी मदालसा जैसे मरी है, उसी रूपमें उत्पन्न होगी। तुम इसी कामनाको मनमें लेकर उस दिन पितरोंका तर्पण करना, इससे वह तत्काल ही तुम्हारे मध्यम फणसे प्रकट हो जायगी।


यह सुनकर वे दोनों भाई महादेवजीके चरणोंमें प्रणाम करके बड़े सन्तोषके साथ पुनः रसातलमें लौट आये। अश्वतरने उसी प्रकार श्राद्ध किया और मध्यम पिण्डका विधिपूर्वक भोजन किया। फिर जब उक्त मनोरथको लेकर वे तर्पण करने लगे, उस समय उनके साँस लेते हुए मध्यम फणसे सुन्दरी मदालसा तत्काल प्रकट हो गयी। नागराजने यह रहस्य किसीको नहीं बताया। मदालसाको महलके भीतर गुप्तरूपसे स्त्रियोंके संरक्षणमें रख दिया। इधर नागराजके पुत्र प्रतिदिन भूलोकमें जाते और ऋतध्वजके साथ देवताओंकी भाँति क्रीड़ा करते थे। एक दिन नागराजने प्रसन्न होकर अपने पुत्रोंसे कहा- 'मैंने पहले तुमलोगोंको जो कार्य बताया था, उसे तुम क्यों नहीं करते? पुत्रो! राजकुमार ऋतध्वज हमारे उपकारी और सम्मानदाता हैं, फिर उनका भी उपकार करनेके लिये तुमलोग उन्हें मेरे पास क्यों नहीं ले आते?'


अपने स्नेही पिताके यों कहनेपर वे दोनों मित्रके नगरमें गये और कुछ बातचीतका प्रसङ्ग चलाकर उन्होंने कुवलयाश्वको अपने घर चलनेके लिये कहा। तब राजकुमारने उन दोनोंसे कहा- 'सखे! यह घर भी तो आप ही दोनोंका है। धन, वाहन, वस्त्र आदि जो कुछ भी मेरा है, वह सब आपका भी है। यदि आपका मुझपर प्रेम है तो आप धन-रत्न आदि जो कुछ किसीको देना चाहें, यहाँसे लेकर दें। दुर्दैवने मुझे आपके स्नेहसे इतना वञ्चित कर दिया कि आप मेरे घरको अपना नहीं समझते। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हों, अथवा यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो मेरे धन और गृहको आपलोग अपना ही समझें। आपलोगोंका जो कुछ है, वह मेरा है और मेरा आपलोगोंका है। आपलोग मेरे बाहरी प्राण हैं, इस बातको सत्य मानें। मैं अपने हृदयकी शपथ दिलाकर कहता हूँ, आप मुझपर कृपा करके फिर ऐसी भेदभावको सूचित करनेवाली बात कभी मुँहसे न निकालें।'


यह सुनकर उन दोनों नागकुमारोंके मुख स्नेहके आँसुओंसे भीग गये और वे कुछ प्रेमपूर्ण रोषसे बोले- 'ऋतध्वज! तुम जो कुछ कहते हो, उसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। हमारे मनमें भी वैसा ही भाव है; परन्तु हमारे महात्मा पिताने बार-बार कहा है कि मैं कुवलयाश्वको देखना चाहता हूँ।' इतना सुनते ही कुवलयाश्व अपने सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये और यह कहकर कि 'पिताजीकी जैसी आज्ञा है, वही करूँगा' वे पृथ्वीपर उनके उद्देश्यसे प्रणाम करने लगे।


कुवलयाश्व बोले- मैं धन्य हूँ, अत्यन्त पुण्यात्मा हूँ, मेरे समान भाग्यशाली दूसरा कौन है; क्योंकि आज पिताजी मुझे देखनेकी इच्छा करते हैं। अतः मित्रो! आपलोग उठे और उनके पास चलें। मैं पिताजीके चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ, उनकी इस आज्ञाका क्षणभर भी उल्लङ्घन करना नहीं चाहता।



यों कहकर राजकुमार ऋतध्वज उन दोनों नागकुमारोंके साथ नगरसे बाहर निकले और पुण्यसलिला गोमतीके तटपर गये। फिर वे सब लोग गोमतीकी बीच धारामें उतरकर चलने लगे। राजकुमारने सोचा- 'नदीके उस पार इन दोनोंका घर होगा।' इतनेमें ही उन नागकुमारोंने उन्हें खींचकर पाताल पहुँचा दिया। वहाँ जानेपर उन्होंने अपने दोनों मित्रोंको स्वस्तिकके लक्षणोंसे सुशोभित सुन्दर नागकुमारोंके रूपमें देखा। वे फणोंकी मणिसे देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें इस रूपमें देखकर राजकुमारके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। उन्होंने मुसकाते हुए प्रेमपूर्वक कहा- 'वाह, यह तो अच्छा रहा।' पातालमें कहीं तो वीणा और वेणुकी मधुर ध्वनिके साथ सङ्गीतके शब्द सुनायी देते थे। कहीं मृदङ्ग और ढोल आदि बाजे बज रहे थे। सैकड़ों मनोहर भवन चारों ओर दृष्टिगोचर होते थे। इस प्रकार अपने प्रिय नागकुमारोंके साथ पातालकी शोभा निहारते हुए राजकुमार ऋतध्वज आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर जानेके बाद सबने नागराजके महलमें प्रवेश किया। नागराज अश्वतर सोनेके सिंहासनपर, जिसमें मणि, मूंगे और वैदूर्य आदि रत्नोंकी झालरें लगी थीं, विराजमान थे। उनके अङ्गोंमें दिव्य हार एवं दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। कानोंमें मणिमय कुण्डल झिलमिला रहे थे। सफेद मोतियोंका मनोहर हार वक्षःस्थलकी शोभा बढ़ा रहा था और भुजाओंमें भुजबंद सुशोभित थे। दोनों नागकुमारोंने 'यही हमारे पिताजी हैं' यों कहकर राजकुमारको उनका दर्शन कराया और पिताजीसे यह निवेदन किया कि 'यही हमारे मित्र वीर कुवलयाश्व हैं।' ऋतध्वजने नागराजके चरणोंमें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। नागराजने उन्हें बलपूर्वक उठाया और खूब कसकर छातीसे लगा लिया। फिर उनका मस्तक सूंघकर कहा-'बेटा! चिरजीवी रहो। शत्रुओंका नाश करके पिता-माताकी सेवा करो। वत्स! तुम धन्य हो; क्योंकि मेरे पुत्रोंने परोक्षमें भी मुझसे तुम्हारे असाधारण गुणोंकी प्रशंसा की है। तुम मन, वाणी और शरीरकी चेष्टाओंके साथ अपने गुण-गौरवसहित सदा बढ़ते रहो। गुणवान्का ही जीवन प्रशंसनीय है। गुणहीन मनुष्य तो जीते- जी ही मरेके समान है। गुणवान् पुत्र पिता- माताको शान्ति एवं सन्तोष प्रदान करता है। देवता, पितर, ब्राह्मण, मित्र, याचक, दुःखी तथा बन्धु-बान्धव भी गुणवान् पुरुषके चिरंजीवी होनेकी अभिलाषा करते हैं। जिनकी कभी निन्दा नहीं हुई, जो दीन-दुखियोंपर दया करते तथा आपत्तिग्रस्त मनुष्य जिनकी शरण लेते हैं, ऐसे गुणवान् पुरुषोंका ही जन्म सफल है।'


वीर कुवलयाश्वसे यों कहकर उनका स्वागत- सत्कार करनेके लिये नागराज अपने पुत्रोंसे बोले-'बेटा! क्रमश: स्नान आदि सब कार्य पूरा करके इन्हें इच्छानुसार भोजन कराओ। उसके बाद हमलोग इनसे मनको प्रसन्न करनेवाली बातें करते हुए कुछ कालतक एक साथ बैठेंगे।' राजा शत्रुजित्के पुत्रने चुपचाप उनकी आज्ञा स्वीकार की। तत्पश्चात् सत्यवादी नागराजने अपने पुत्रों तथा राजकुमारके साथ प्रसन्नतापूर्वक भोजन किया।


सुमति कहते हैं- नागराज महात्मा अश्वतर जब भोजन कर चुके, तब उनके पुत्र और राजकुमार ऋतध्वज-तीनों उनके पास आकर बैठे। नागराजने मनको प्रिय लगनेवाली बातें कहकर अपने पुत्रोंके सखाको प्रसन्न किया और पूछा- 'आयुष्मन्! आज तुम मेरे घरपर आये हो। अतः जिससे तुम्हें सुख मिले, ऐसी किसी वस्तुके लिये यदि तुम्हारी इच्छा हो तो बताओ। जैसे पुत्र अपने पितासे मनकी बात कहता है, उसी प्रकार तुम भी निःशङ्क होकर मुझसे अपना मनोरथ कहो। सोना, चाँदी, वस्त्र, वाहन, आसन अथवा और कोई अत्यन्त दुर्लभ एवं मनोवाञ्छित वस्तु मुझसे माँगो।'


कुवलयाश्वने कहा- भगवन् ! आपके प्रसादसे मेरे पिताके घरमें आज भी सुवर्ण आदि सभी बहुमूल्य वस्तुएँ मौजूद हैं। इन सब वस्तुओंकी मुझे आवश्यकता नहीं है। जबतक पिताजी हजारों वर्षोंतक पृथ्वीका शासन करते हैं और आप पाताललोकका राज्य करते हैं, तबतक मेरा मन याचना करनेके लिये उत्सुक नहीं हो सकता। जिनके पिता जीवित हैं, वे परम सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा हैं। भला, मेरे पास क्या नहीं है। सजन मित्र, नीरोग शरीर, धन और यौवन-सभी कुछ तो है। जो इस बातकी चिन्ता न करके कि मेरे घरमें धन है या नहीं-पिताकी भुजाओंकी छत्रच्छायामें रहते हैं, वे ही सुखी हैं। जो लोग बचपनसे ही पितृहीन होकर कुटुम्बका भार वहन करते हैं, उनका सुखभोग छिन जानेके कारण मैं तो यही समझता हूँ कि विधाताने ही उन्हें सौभाग्यसे वञ्चित कर रखा है। मैं तो आपकी कृपासे पिताजीके दिये हुए धन-रत्न आदिके भंडारमेंसे प्रतिदिन याचकोंको, उनकी इच्छाके अनुसार दान देता रहता हूँ। यहाँ आकर मैंने अपने मुकुटसे जो आपके दोनों चरणोंका स्पर्श किया तथा आपके शरीरसे मेरा स्पर्श हुआ, इसीसे मैं सब कुछ पा गया।


राजकुमारका यह विनययुक्त वचन सुनकर नागराज अश्वतरने प्रेमपूर्वक कहा- 'यदि मुझसे रत्न और सुवर्ण आदि लेनेका तुम्हारा मन नहीं होता तो और ही कोई वस्तु जो तुम्हारे मनको प्रसन्न कर सके, माँगो। मैं तुम्हें दूंगा।'


कुवलयाश्वने कहा- भगवन् ! आपके प्रसादसे मेरे घरमें सब कुछ है, विशेषतः आपके दर्शनसे मुझे सब मिल गया। आप देवता हैं और मैं मनुष्य। आपने अपने शरीरसे जो मेरा आलिङ्गन किया-इसीसे मैं कृतकृत्य हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया। नागराज ! आपकी चरण-धूलिने जो मेरे मस्तकपर अपना स्थान बनाया है, उसीसे मैंने क्या नहीं पा लिया। यदि आपको मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही है तो यही दीजिये कि मेरे हृदयसे पुण्यकर्मोंका संस्कार कभी दूर न हो।


अश्वतर बोले- विद्वन् ! ऐसा ही होगा। तुम्हारी बुद्धि धर्ममें लगी रहेगी। तथापि इस समय तुम मेरे घरमें आये हो; इसलिये तुम्हें मनुष्यलोकमें जो वस्तु दुर्लभ प्रतीत होती हो, वही मुझसे माँग लो।


उनकी यह बात सुनकर राजकुमार ऋतध्वज अपने दोनों मित्र नागकुमारोंके मुखकी ओर देखने लगे। तब उन दोनोंने पिताको प्रणाम करके राजपुत्रका जो अभीष्ट था, उसे स्पष्ट रूपसे कहना आरम्भ किया।


नागकुमार बोले- पिताजी! गन्धर्वराजकुमारी मदालसा इनकी प्यारी पत्नी थी। उसको किसी दुष्ट बुद्धिवाले दुरात्मा दानवने, जो इनके साथ वैर रखता था, धोखा दिया। उसने उसी दानवके मुखसे इनकी मृत्युका समाचार सुनकर अपने प्यारे प्राणोंको त्याग दिया। तब इन्होंने अपनी पत्नीके प्रति कृतज्ञ होकर यह प्रतिज्ञा कर ली कि अब मदालसाको छोड़कर दूसरी कोई स्त्री मेरी पत्नी नहीं हो सकती। पिताजी! ये वीर ऋतध्वज आज उसी सर्वाङ्गसुन्दरी मदालसाको देखना चाहते हैं। यदि ऐसा किया जा सके तो इनका मनोरथ पूर्ण हो सकता है।


तब नागराज घरमें छिपायी हुई मदालसा को ले आये और राजकुमारको उसे दिखाया तथा पूछा- 'ऋतध्वज! यह तुम्हारी पत्नी मदालसा है या नहीं?' उसे देखते ही राजकुमार लज्जा छोड़कर उठे और 'हा प्रिये!' कहते हुए उसकी ओर बढ़े। तब नागराजने उसे रोका और मदालसाके मरकर जीवित होने आदिकी सारी कथा कह सुनायी। फिर तो राजकुमारने प्रसन्न होकर अपनी प्यारी पत्नीको ग्रहण किया।


तदनन्तर उनके स्मरण करते ही उनका प्यारा अश्व वहाँ आ पहुँचा। उस समय नागराजको प्रणाम करके वे अश्वपर आरूढ़ हुए और मदालसाके साथ अपने नगरको चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपने पिता-मातासे उसके मरकर जीवित होनेका सब समाचार निवेदन किया। कल्याणमयी मदालसाने भी सास-ससुरके चरणोंमें प्रणाम किया तथा अन्य स्वजनोंको भी यथायोग्य सम्मान दिया। तत्पश्चात् उस नगरमें पुरवासियोंके यहाँ बहुत बड़ा उत्सव हुआ।


इसके बाद बहुत समय बीतनेके पश्चात् महाराज शत्रुजित् पृथ्वीका भलीभाँति पालन करके परलोकवासी हो गये। तब पुरवासियोंने उनके महात्मा पुत्र ऋतध्वजको, जिनके आचरण तथा व्यवहार बड़े ही उदार थे, राजपदपर अभिषिक्त किया। वे भी अपनी प्रजाका औरस पुत्रोंकी भाँति पालन करने लगे। तदनन्तर मदालसाके गर्भसे प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। राजाने उसका नाम विक्रान्त रखा। इससे कुटुम्बके सब लोग बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु मदालसा वह नाम सुनकर हँसने लगी। उसने उत्तान सोकर जोर-जोरसे रोते हुए शिशुको बहलानेके व्याजसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया-


शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम

कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।

पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति

नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः॥


हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। यह शरीर भी पाँच भूतोंका बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?


न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा

शब्दोऽयमासाद्य महीशसूनुम्।

विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-

ऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु॥


अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमारके पास पहुँचकर अपने-आप ही प्रकट होता है। तेरी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें जो भाँति-भाँतिके गुण-अवगुणोंकी कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही हैं?


भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि

वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः।

अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य

न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः॥


जैसे इस जगत् में अत्यन्त दुर्बल भूत अन्य भूतोंके सहयोगसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देनेसे पुरुषके पाञ्चभौतिक शरीरकी ही पुष्टि होती है। इससे तुझ शुद्ध आत्माकी न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।


त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिं-

स्तस्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः॥

शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेत-

न्मदादिमूढः कञ्चकस्ते पिनद्धः॥


तू अपने उस चोले तथा इस देहरूपी चोलेके जीर्ण-शीर्ण होनेपर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदिसे बँधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है)।


तातेति किंचित् तनयेति किंचि-

दम्बेति किंचिद्दयितेति किंचित्।

ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्

त्वं भूतसङ्ख बहु मानयेथाः॥


कोई जीव पिताके रूपमें प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसीको प्यारी स्त्री कहते हैं; कोई 'यह मेरा है' कहकर अपनाया जाता है और कोई 'मेरा नहीं है' इस भावसे पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदायके ही नाना रूप हैं, ऐसा तुझे मानना चाहिये।


दुःखानि दुःखापगमाय भोगान्

सुखाय जानाति विमूढचेताः।

तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि

जानाति विद्वानविमूढचेताः॥


यद्यपि समस्त भोग दुःखरूप हैं तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हें दुःख दूर करनेवाला तथा सुखकी प्राप्ति करनेवाला समझता है; किन्तु जो विद्वान् हैं, जिनका चित्त मोहसे आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखोंको भी दुःख ही मानते हैं।


हासोऽस्थिसंदर्शनमक्षियुग्म-

मत्युज्ज्वलं यत्कलुषं वसायाः।

कुचादि पीनं पिशितं घनं तत्

स्थानं रतेः किं नरकं न योषित्॥


स्त्रियोंकी हँसी क्या है, हड्डियोंका प्रदर्शन। जिसे हम अत्यन्त सुन्दर नेत्र कहते हैं, वह मज्जाकी कलुषता है और मोटे-मोटे कुच आदि घने मांसकी ग्रन्थियाँ हैं; अतः पुरुष जिसपर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरककी जीती-जागती मूर्ति नहीं है?


यानं क्षितौ यानगतश्च देहो

देहेऽपि चान्यः पुरुषो निविष्टः।

ममत्वमुर्त्यां न तथा यथा स्वे

देहेऽतिमात्रं विमूढतैषा॥


पृथ्वीपर सवारी चलती है, सवारीपर यह शरीर रहता है और इस शरीरमें भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है; किन्तु पृथ्वी और सवारीमें वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देहमें दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है।


ज्यों-ज्यों वह बालक बढ़ने लगा, त्यों-ही- त्यों महारानी मदालसा प्रतिदिन उसे बहलाने आदिके द्वारा ममताशून्य ज्ञानका उपदेश करने लगी। जैसे-जैसे उसके शरीरमें बल आता गया और जैसे-जैसे वह पितासे व्यावहारिक बुद्धि सीखने लगा, वैसे-ही-वैसे माताके वचनोंसे उसे आत्मतत्त्वका ज्ञान भी प्राप्त होता गया। इस प्रकार माताने जन्मसे ही अपने पुत्रको ऐसा उपदेश दिया, जिससे ज्ञानी एवं ममताशून्य होकर उसने गार्हस्थ्य-धर्मके प्रति अपने मनको नहीं जाने दिया। इसी प्रकार जब मदालसाके गर्भसे दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ, तब पिताने उसका नाम सुबाहु रखा। इसपर भी मदालसा हँसने लगी। उस बालकको भी वह पहलेकी ही भाँति बहलाते- बहलाते बचपनसे ही ऐसा उपदेश देने लगी, जिससे वह परम बुद्धिमान् ज्ञानी हो गया। तृतीय पुत्र उत्पन्न होनेपर राजाने उसका नाम शत्रुमर्दन रखा। इसपर भी सुन्दरी मदालसा बहुत देरतक हँसती रही तथा उसको भी उसने पहलेकी ही भाँति बाल्यकालसे ही ज्ञानका उपदेश दिया। बड़ा होनेपर वह निष्काम कर्म करने लगा। सकाम कर्मकी ओर उसकी रुचि नहीं रही। राजा ऋतध्वज जब चौथे पुत्रका नामकरण करने चले, तब सदाचारपरायणा मदालसापर उनकी दृष्टि पड़ी। उस समय वह मन्द-मन्द मुसकरा रही थी। उसे हँसते देख राजाको कुछ कौतूहल हुआ; अतः उन्होंने पूछा-'देवि! जब मैं नामकरण करने चलता हूँ, तब तुम हँसती क्यों हो? इसका कारण बताओ। मैं तो समझता हूँ विक्रान्त, सुबाहु और शत्रुमर्दन-ये सुन्दर नाम रखे गये हैं। ये क्षत्रियोंके योग्य तथा शौर्यमें उपयोगी हैं; भद्रे! यदि तुम्हारे मनमें यह बात हो कि ये नाम अच्छे नहीं हैं तो मेरे चौथे पुत्रका नाम तुम स्वयं ही रखो।


मदालसा बोली- महाराज! आपकी आज्ञाका पालन करना मेरा कर्तव्य है; अतः आप जैसा कहते हैं, उसके अनुसार मैं आपके चौथे पुत्रका नाम स्वयं ही रखूगी। यह धर्मज्ञ बालक इस संसारमें अलर्कके नामसे विख्यात होगा। आपका यह कनिष्ठ पुत्र बड़ा बुद्धिमान् होगा।


माताके द्वारा रखे गये 'अलर्क' इस असम्बद्ध नामको सुनकर राजा ठठाकर हँस पड़े और इस प्रकार बोले- 'शुभे! तुमने मेरे पुत्रका जो यह अलर्क नाम रखा है, उसका क्या कारण है? ऐसा असम्बद्ध नाम क्यों रखा? इसका अर्थ क्या है?'


मदालसाने कहा- महाराज! यह तो व्यावहारिक कल्पना है; लौकिक व्यवहार चलानेके लिये कोई-सा नाम रख लिया जाता है, इससे पुरुषका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। आपने भी जो नाम रखे हैं, वे भी निरर्थक ही हैं। कैसे, सो बतलाती हूँ; सुनिये। ज्ञानीलोग पुरुष (आत्मा) को व्यापक बतलाते हैं। आपने प्रथम पुत्रका नाम विक्रान्त रखा है, इसके अर्थपर विचार कीजिये। क्रान्तिका अर्थ है गति। एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जानेको गति कहते हैं। जब इस देहका ईश्वर आत्मा सर्वत्र व्यापक है, तब वह दूसरी जगह जा नहीं सकता; अतः उसका नाम विक्रान्त रखना मुझे निरर्थक ही जान पड़ता है। पृथ्वीनाथ! दूसरे पुत्रका जो सुबाहु नाम रखा गया है, वह भी व्यर्थ ही है; क्योंकि आत्मा निराकार है, उसको बाँह कहाँसे आयी। तृतीय पुत्रका जो अरिमर्दन नाम नियत किया गया है, मेरी समझसे वह भी असम्बद्ध ही है। इसका कारण भी सुनिये। अरिमर्दनका अर्थ है-शत्रुका मर्दन करनेवाला। जब सब शरीरोंमें एक ही आत्मा रहता है, तब उसका कौन शत्रु है और कौन मित्र। मूर्तिमान् भूतोंके द्वारा मूर्तिमान् भूतोंका ही मर्दन होता है। आत्मा तो अमूर्त है, उसका मर्दन कैसे हो सकता है। क्रोध आदि आत्मासे पृथक् रहते हैं; अत: यह अरिमर्दनकी कल्पना निरर्थक ही है। यदि व्यवहारका भलीभाँति निर्वाह करनेके लिये ऐसे असङ्गत नामोंकी कल्पना हो सकती है तो 'अलर्क' नाममें ही क्यों आपको निरर्थकता प्रतीत होती है?


रानी मदालसाके द्वारा इस प्रकार भलीभाँति समझाये जानेपर परम बुद्धिमान् महाराज ऋतध्वजने अपनी प्राणवल्लभाको यथार्थवादिनी मानकर कहा- 'तुम्हारा कथन सत्य है।' तदनन्तर उसने पहले पुत्रोंकी भाँति उसको भी ज्ञानजनक बातें सुनानी आरम्भ की। तब राजाने उसे रोककर कहा।


राजा बोले- अरी यह क्या करती हो? पहले पुत्रोंकी भाँति इसे भी ज्ञानका उपदेश देकर मेरी वंश-परम्पराका उच्छेद करनेपर क्यों तुली हो। यदि तुम्हें मेरा प्रिय कार्य करना हो और यदि मेरी बातोंको मानना तुम्हें उचित प्रतीत होता हो तो मेरे इस पुत्रको प्रवृत्तिमार्गमें लगाओ। देवि! ऐसा करनेसे कर्ममार्गका उच्छेद नहीं होगा तथा पितरोंके पिण्डदानका लोप नहीं होगा। जो पितर देवलोकमें हैं, जो तिर्यग्योनिमें पड़े हैं, जो मनुष्ययोनिमें एवं भूतवर्गमें स्थित हैं, वे पुण्यात्मा हों या पापात्मा, जब भूख-प्याससे विकल होते हैं तो अपने कर्मों में लगा हुआ मनुष्य पिण्डदान तथा जलदानके द्वारा उन्हें तृप्त करता है। इसी तरह वह देवताओं और अतिथियोंको भी सन्तुष्ट रखता है। देवता, मनुष्य, पितर, भूत, प्रेत, गुह्यक, पक्षी, कृमि और कीट आदि भी मनुष्यसे ही जीविका चलाते हैं; अतः सुन्दरि! तुम मेरे पुत्रको ऐसा उपदेश दो, जिससे इहलोक और परलोकमें उत्तम फल देनेवाले क्षत्रियोचित कर्तव्यका उसे ठीक-ठीक ज्ञान हो।


पतिके यों कहनेपर श्रेष्ठ नारी मदालसा अपने पुत्र अलर्कको बहलाती हुई इस प्रकार उपदेश देने लगी-


धन्योऽसि रे यो वसुधामशत्रु-

रेकश्चिरं पालयितासि पुत्र।

तत्पालनादस्तु सुखोपभोगो

धर्मात् फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम्॥

धरामरान् पर्वसु तर्पयेथाः

समीहितं बन्धुषु पूरयेथाः।

हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा

मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथाः॥

सदा मुरारिं हृदि चिन्तयेथा-

स्तद्ध्यानतोऽन्तःषडरीञ्जयेथाः।

मायां प्रबोधेन निवारयेथा

ह्यनित्यतामेव विचिन्तयेथाः॥

अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा

यशोऽर्जनायार्थमपि व्ययेथाः।

परापवादश्रवणाद्विभीथा

विपत्समुद्राजनमुद्धरेथाः॥


बेटा! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकालतक इस पृथ्वीका पालन करता रहेगा। पृथ्वीके पालनसे तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्मके फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले पोंके दिन ब्राह्मणोंको भोजनके द्वारा तृप्त करना, बन्धु-बान्धवोंकी इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदयमें दूसरोंकी भलाईका ध्यान रखना और परायी स्त्रियोंकी ओर कभी मनको न जाने देना। अपने मनमें सदा श्रीविष्णुभगवान् का चिन्तन करना, उनके ध्यानसे अन्त:करणके काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओंको जीतना, ज्ञानके द्वारा मायाका निवारण करना और जगत् की अनित्यताका विचार करते रहना। धनकी आयके लिये राजाओंपर विजय प्राप्त करना, यशके लिये धनका सद्व्यय करना, परायी निन्दा सुननेसे डरते रहना तथा विपत्तिके समुद्रमें पड़े हुए लोगोंका उद्धार करना।


वीर! तू अनेक यज्ञोंके द्वारा देवताओंको तथा धनके द्वारा ब्राह्मणों एवं शरणागतोंको सन्तुष्ट करना। कामनापूर्तिके द्वारा स्त्रियोंको प्रसन्न रखना और युद्धके द्वारा शत्रुओंके छक्के छुड़ाना। बाल्यावस्थामें तू भाई-बन्धुओंको आनन्द देना, कुमारावस्थामें आज्ञापालनके द्वारा गुरुजनोंको सन्तुष्ट रखना। युवावस्थामें उत्तम कुलको सुशोभित करनेवाली स्त्रीको प्रसन्न रखना और वृद्धावस्थामें वनके भीतर निवास करते हुए वनवासियोंको सुख देना।


राज्यं कुर्वन् सुहृदो नन्दयेथाः

साधून् रक्षंस्तात यज्ञैर्यजेथाः।

दुष्टान् निघ्नन् वैरिणश्चाजिमध्ये

गोविप्रार्थे वत्स मृत्युं व्रजेथाः॥

तात! राज्य करते हुए अपने सुहृदोंको प्रसन्न रखना, साधु पुरुषोंकी रक्षा करते हुए यज्ञोंद्वारा भगवान् का यजन करना, संग्राममें दुष्ट शत्रुओंका संहार करते हुए गौ और ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये अपने प्राण निछावर कर देना।


सुमति कहते हैं- इस प्रकार माताके द्वारा प्रतिदिन बहलाया जाता हुआ बालक अलर्क कुछ बड़ी अवस्थाको प्राप्त हुआ। कुमारावस्थामें पहुँचनेपर उसका उपनयन संस्कार हुआ। तत्पश्चात् उस बुद्धिमान् राजकुमारने माताको प्रणाम करके कहा-'माँ! मुझे इस लोक और परलोकमें सुख प्राप्त करनेके लिये यहाँ क्या करना चाहिये? यह सब मुझे बताओ।


मदालसा बोली- बेटा! राज्याभिषेक होनेपर राजाको उचित है कि वह अपने धर्मके अनुकूल चलता हुआ आरम्भसे ही प्रजाको प्रसन्न रखे। सातों* व्यसनोंका परित्याग कर दे; क्योंकि वे राजाका मूलोच्छेद करनेवाले हैं।

* कटु वचन बोलना, कठोर दण्ड देना, धनका अपव्यय करना, मदिरा पीना, स्त्रियोंमें आसक्ति रखना, शिकार खेलनेमें व्यर्थ समय लगाना और जूआ खेलना-ये राजाके सात व्यसन हैं।


अपनी गुप्त मन्त्रणाके बाहर फूटनेसे उसके द्वारा लाभ उठाकर शत्रु आक्रमण कर देते हैं; अतः ऐसा न होने देकर शत्रुओंसे अपनी रक्षा करे। जैसे रथी रथकी गति वक्र होनेपर आठों प्रकारसे नाशको प्राप्त होता है, उसके ऊपर आठों दिशाओंसे प्रहार होने लगते हैं, उसी प्रकार गुप्त मन्त्रणाके बाहर फूटनेपर राजाके आठों* वर्गोंका निश्चय ही नाश होता है।


* खेतीकी उन्नति, व्यापारकी वृद्धि, दुर्गनिर्माण, पुल बनाना, जंगलसे हाथी पकड़कर मँगवाना, खानोंपर अधिकार प्राप्त करना, अधीन राजाओंसे कर लेना और निर्जन प्रदेशको आबाद करना-ये आठ वर्ग कहलाते हैं।


राजाको इस बातका भी पता लगाते रहना चाहिये कि शत्रुद्वारा उत्पन्न किये गये दोषसे अथवा शत्रुओंके बहकावेमें आकर अपने मन्त्रियोंमेंसे कौन दुष्ट हो गया है और कौन अदुष्ट-कौन अपना साथी है और कौन शत्रुसे मिला हुआ। इसी प्रकार बुद्धिमान् चर नियुक्त करके शत्रुके चरोंपर भी प्रयत्नपूर्वक दृष्टि रखनी चाहिये। राजाको अपने मित्रों तथा माननीय बन्धु- बान्धवोंपर भी पूर्णतः विश्वास नहीं करना चाहिये। किन्तु काम आ पड़नेपर उसे शत्रुपर भी विश्वास कर लेना चाहिये। किस अवस्थामें शत्रुपर चढ़ाई न करके अपने स्थानपर स्थित रहना उचित है, क्या करनेसे अपनी वृद्धि होगी और किस कार्यसे अपनी हानि होनेकी सम्भावना है-इन सब बातोंका राजाको ज्ञान होना चाहिये। वह छ:* गुणोंका उपयोग करना जाने और कभी कामके अधीन न हो।


* सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय-ये छः गुण हैं। इनमें शत्रुसे मेल रखना सन्धि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह , आक्रमण करना यान, अवसरकी प्रतीक्षामें बैठे रहना आसन, दुरंगी नीति बरतना द्वैधीभाव और अपनेसे बलवान् राजाकी शरण लेना समाश्रय कहलाता है।


राजा पहले अपने आत्माको, फिर मन्त्रियोंको जीते। तत्पश्चात् अपनेसे भरण-पोषण पानेवाले कुटुम्बीजनों एवं सेवकोंके हृदयपर अधिकार प्राप्त करे। तदनन्तर पुरवासियोंको अपने गुणोंसे जीते। यह सब हो जानेपर शत्रुओंके साथ विरोध करे। जो इन सबको जीते बिना ही शत्रुओंपर विजय पाना चाहता है, वह अपने आत्मा तथा मन्त्रियोंपर अधिकार न रखनेके कारण शत्रुसमुदायके वशमें पड़कर कष्ट भोगता है।*


* वत्स राज्येऽभिषिक्तेन प्रजारञ्जनमादितः।

कर्तव्यमविरोधेन स्वधर्मस्य महीभृता॥

व्यसनानि परित्यज्य सप्त मूलहराणि वै।

आत्मा रिपुभ्यः संरक्ष्यो बहिर्मन्त्रविनिर्गमात् ॥

अष्टधा नाशमाप्नोति स्ववक्रात् स्यन्दनाद्यथा।

तथा राजाप्यसन्दिग्धं बहिर्मन्त्रविनिर्गमात्॥

दुष्टादुष्टांश्च जानीयादमात्यानरिदोषतः।

चरैश्चरास्तथा शत्रोरन्वेष्टव्याः प्रयत्नतः ॥

विश्वासो न तु कर्तव्यो राज्ञा मित्राप्तबन्धुषु।

कार्ययोगादमित्रेऽपि विश्वसीत नराधिपः॥

स्थानवृद्धिक्षयज्ञेन श्चैव षाड्गुण्यविदितात्मना।

भवितव्यं नरेन्द्रेण न कामवशवर्तिना॥

प्रागात्मा मन्त्रिणश्चैव ततो भृत्या महाभृता।

जेयाश्चानन्तरं पौरा विरुध्येत ततोऽरिभिः ॥

यस्त्वेतानविजित्यैव वैरिणो विजिगीषते।

सोऽजितात्माजितामात्यः शत्रुवर्गेण बाध्यते॥

(२७। ४-११)


इसलिये बेटा! पृथ्वीका पालन करनेवाले राजाको पहले काम आदि शत्रुओंको जीतनेकी चेष्टा करनी चाहिये। उनके जीत लेनेपर विजय अवश्यम्भावी है। यदि राजा ही उनके वशमें हो गया तो वह नष्ट हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष-ये राजाका विनाश करनेवाले शत्रु हैं। राजा पाण्डु काममें आसक्त होनेके कारण मारे गये तथा अनुह्राद क्रोधके कारण ही अपने पुत्रसे हाथ धो बैठा। यह विचारकर अपनेको काम और क्रोधसे अलग रखे। राजा पुरूरवा लोभसे मारे गये और वेनको मदके कारण ही ब्राह्मणोंने मार डाला। अनायुष्के पुत्रको मानके कारण प्राणोंसे हाथ धोना पड़ा तथा पुरञ्जयकी मृत्यु हर्षके कारण हुई; किन्तु महात्मा मरुत्तने इन सबको जीत लिया था, इसलिये वे सम्पूर्ण विश्वपर विजयी हुए। यह सोचकर राजा उपर्युक्त दोषोंका सर्वथा त्याग करे। वह कौवे, कोयल, भौरे, हरिन, साँप, मोर, हंस, मुर्गे और लोहेके व्यवहारसे शिक्षा ग्रहण करे।*


* तात्पर्य यह कि राजा कौवेके समान आलस्यरहित और सावधान हो। जैसे कोयल अपने अण्डेका कौवोंसे पालन कराती है, वैसे ही राजा भी दूसरोंसे अपना कार्य साधन करे। वह भौं के समान रसग्राही और मृगके समान सदा चौकन्ना रहे। जैसे सर्प बड़ा-बड़ा फन निकालकर दूसरोंको डराता और मेढकको चुपके-से निगल जाता है, उसी प्रकार राजा दूसरोंपर आतङ्क जमाये रहे और सहसा आक्रमण करके शत्रुको अपने अधीन कर ले। जैसे मोर अपने समेटे हुए पंखको कभी- कभी फैलाता है, उसी प्रकार राजा भी समयानुसार अपने संकुचित सैन्य और बलका विस्तार करे। वह हंसोंके समान नीर-क्षीरका विवेक करनेवाला गुणग्राही हो। मुर्गोंके समान रात रहते ही शयनसे उठकर कर्तव्यका विचार करे और लोहेकी भाँति शत्रुओंके लिये अभेद्य एवं कर्तव्यपालनमंा कठोर हो।


राजा अपने शत्रुके प्रति उल्लूका-सा बर्ताव करे। जैसे उल्लू पक्षी रातमें सोये कौओंपर चुपचाप धावा करता है, उसी प्रकार राजा शत्रुकी असावधान-दशामें ही उसपर आक्रमण करे तथा समयानुसार चींटीकी- सी चेष्टा करे-धीरे-धीरे आवश्यक वस्तुओंका संग्रह करता रहे।*


* तस्मात्कामादयः पूर्वं जेयाः पुत्र महीभुजा।

तज्जये हि जयोऽवश्यं राजा नश्यति तैर्जितः ॥

कामः क्रोधश्च लोभश्च मदो मानस्तथैव च।

हर्षश्च शत्रवो ह्येते विनाशाय महीभृताम् ॥

कामप्रसक्तमात्मानं स्मृत्वा पाण्डं निपातितम्।

निवर्तयेत्तथा क्रोधादनुह्रादं हतात्मजम्॥

हतमैलं तथा लोभान्मदाद्वेनं द्विजैर्हतम्।

मानादनायुषः पुत्रं हतं हर्षात्पुरञ्जयम्॥

एभिर्जितैर्जितं सर्वं मरुत्तेनमहात्मना।

स्मृत्वा विवर्जयेदेतान्दोषान् स्वीयान्महीपतिः।

काककोकिलभृङ्गाणां मृगव्यालशिखण्डिनाम्।

हंसकुक्कुटलोहानां शिक्षेत चरितं नृपः ॥

कौशिकस्य क्रियां कुर्याद् विपक्षे मनुजेश्वरः।

चेष्टां पिपीलिकानां च काले भूयः प्रदर्शयेत् ॥

(२७। १२-१८)


राजाको आगकी चिनगारियों तथा सेमलके बीजसे कर्तव्यकी शिक्षा लेनी चाहिये। जैसे आगकी छोटी-सी चिनगारी बड़े-से-बड़े वनको जला डालनेकी शक्ति रखती है, उसी प्रकार छोटा-सा शत्रु भी यदि दबाया न जाय तो बहुत बड़ी हानि कर सकता है। जैसे छोटा-सा सेमलका बीज एक महान् वृक्षके रूपमें परिणत होता है, उसी प्रकार लघु शत्रु भी समय आनेपर अत्यन्त प्रबल हो जाता है। अतः दुर्बलावस्थामें ही उसे उखाड़ फेंकना चाहिये। जैसे चन्द्रमा और सूर्य अपनी किरणोंका सर्वत्र समान रूपसे प्रसार करते हैं, उसी प्रकार नीतिके लिये राजाको भी समस्त प्रजापर समान भाव रखना चाहिये। वेश्या, कमल, शरभ, शूलिका, गर्भिणी स्त्रीके स्तन तथा ग्वालेकी स्त्रीसे भी राजाको बुद्धि सीखनी चाहिये। राजा वेश्याकी भाँति सबको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करे, कमल-पुष्पके समान सबको अपनी ओर आकृष्ट करे, शरभके समान पराक्रमी बने, शूलिकाकी भाँति सहसा शत्रुका विध्वंस करे। जैसे गर्भिणीके स्तनमें भावी सन्तानके लिये दूधका संग्रह होने लगता है, उसी प्रकार राजा भविष्यके लिये सञ्चयशील बने और जिस प्रकार ग्वालेकी स्त्री दूधसे नाना प्रकारके खाद्य पदार्थ तैयार करती है, वैसे ही राजाको भी भाँति-भाँतिकी कल्पनामें पटु होना चाहिये। वह पृथ्वीका पालन करते समय इन्द्र, सूर्य, यम, चन्द्रमा तथा वायु-इन पाँचोंके रूप धारण करे। जैसे इन्द्र चार महीने वर्षा करके पृथ्वीपर रहनेवाले प्राणियोंको तृप्त करते हैं, उसी प्रकार राजा दानके द्वारा प्रजाजनोंको सन्तुष्ट करे। जिस प्रकार सूर्य आठ महीनोंतक अपनी किरणोंसे पृथ्वीका जल सोखते रहते हैं, इसी प्रकार सूक्ष्म उपायोंसे धीरे-धीरे कर आदिका संग्रह करे।


जैसे यमराज समय आनेपर प्रिय- अप्रिय सभीको मृत्युपाशमें बाँधते हैं, उसी प्रकार राजा भी प्रिय-अप्रिय तथा साधु और दुष्टके प्रति समान भावसे राजनीतिका प्रयोग करे। जैसे पूर्ण चन्द्रमा देखकर सब मनुष्य प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार जिस राजाके प्रति समस्त प्रजाको समानरूपसे सन्तोष हो, वही श्रेष्ठ एवं चन्द्रमाके व्रतका पालन करनेवाला है। जैसे वायु गुप्तरूपसे समस्त प्राणियोंके भीतर सञ्चार करती रहती है, उसी प्रकार राजा भी गुप्तचरके द्वारा पुरवासियों, मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धवोंके मनका भाव जाननेकी चेष्टा करे।*


* ज्ञेयाग्निविस्फुलिङ्गानां बीजचेष्टा च शाल्मलेः।

चन्द्रसूर्यस्वरूपेण नीत्यर्थे पृथिवीक्षिता॥

बन्धकीपद्मशरभशूलिकागुर्विणीस्तनात्।

प्रज्ञा नृपेण चादेया तथा गोपालयोषितः॥

शक्रार्कयमसोमानां तद्वद् वायोर्महीपतिः।

रूपाणि पञ्च कुर्वीत महीपालनकर्मणि ॥

यथेन्द्रश्चतुरो मासान् तोयोत्सर्गेण भूगतम्।

आप्यामयेत् तथा लोकं परिहारैर्महीपतिः ॥

मासानष्टौ यथा सूर्यस्तोयं हरति रश्मिभिः।

सूक्ष्मेणैवाभ्युपायेन तथा शुल्कादिकं नृपः।

यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्तकाले नियच्छति।

तथा प्रियाप्रिये राजा दुष्टादुष्टे समो भवेत् ॥

पूर्णेन्दुमालोक्य यथा प्रीतिमान् जायते नरः।

एवं यत्र प्रजाः सर्वा निर्वृतास्तच्छशिव्रतम् ॥

मारुतः सर्वभूतेषु निगूढश्चरते यथा।

एवं नृपश्चरेच्चारैः पौरामात्यादिबन्धुषु॥

(अ० २७। १९-२६)


बेटा! जिसके चित्तको दूसरे लोग लोभ, कामना अथवा अर्थसे नहीं खींच सकते, वह राजा स्वर्गलोकमें जाता है। जो अपने धर्मसे विचलित हो कुमार्गपर जानेवाले मूर्ख मनुष्योंको फिर धर्ममें लगाता है, वह राजा स्वर्गमें जाता है। वत्स! जिसके राज्यमें वर्णधर्म और आश्रमधर्मको हानि नहीं पहुँचती, उसे इस लोक और परलोकमें भी सनातन सुख प्राप्त होता है। स्वयं दुष्टबुद्धि पुरुषोंद्वारा धर्मसे विचलित न होकर ऐसे लोगोंको अपने धर्ममें लगाना ही राजाका सबसे बड़ा कर्तव्य है और यही उसे सिद्धि प्रदान करनेवाला है। राजा सब प्राणियोंका पालन करनेसे ही कृतकृत्य होता है। जो यत्नपूर्वक भलीभाँति प्रजाका पालन करनेवाला है, वह प्रजाके धर्मका भागी होता है। जो राजा इस प्रकार चारों वर्गों की रक्षामें तत्पर रहता है, वह सर्वत्र सुखी होकर विचरता है और अन्तमें उसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है।*


* न लोभाद्वा न कामाद्वा नार्थाद्वा यस्य मानसम्।

यथान्यैः कृष्यते वत्स स राजा स्वर्गमृच्छति ॥

उत्पथग्राहिणो मूढान् स्वधर्माच्चलितो नरान्।

यः करोति निजे धर्मे स राजा स्वर्गमृच्छति॥

वर्णधर्मा न सीदन्ति यस्य राज्ये तथाश्रमाः।

वत्स तस्य सुखं प्रेत्य परत्रेह च शाश्वतम्॥

एतद्राज्ञः परं कृत्यं तथैतत् सिद्धिकारकम्।

स्वधर्मस्थापनं नृणां चाल्यते न कुबुद्धिभिः॥

पालनेनैव भूतानां कृतकृत्यो महीपतिः।

सम्यक् पालयिता भागं धर्मस्याप्नोति यत्नतः॥

एवं यो वर्तते राजा चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणे।

स सुखी विहरत्येष शक्रस्यैति सलोकताम्॥

(२७। २७-३२)


अलर्कने कहा- महाभागे! आपने राजनीति- सम्बन्धी धर्मका वर्णन किया। अब मैं वर्णाश्रमधर्म सुनना चाहता हूँ। मदालसा बोली- दान, अध्ययन और यज्ञ- ये ब्राह्मणके तीन धर्म हैं तथा यज्ञ कराना, विद्या पढ़ाना और पवित्र दान लेना- यह तीन प्रकारकी उसकी आजीविका बतायी गयी है। दान, अध्ययन और यज्ञ- ये तीन क्षत्रियके भी धर्म हैं। पृथ्वीकी रक्षा तथा शस्त्र ग्रहण करके जीवननिर्वाह करना यह उसकी जीविका है। वैश्यके भी दान, अध्ययन और यज्ञ- ये तीनों ही धर्म हैं। व्यापार, पशुपालन और खेती - ये उसकी जीविका हैं। दान, यज्ञ और द्विजातियोंकी सेवा- यह तीन प्रकारका धर्म शूद्रके लिये बताया गया है। शिल्पकर्म, द्विजातियोंकी सेवा और खरीद-बिक्री-ये उसकी जीविका हैं। इस प्रकार ये वर्णधर्म बतलाये गये हैं। अब आश्रमधर्मों का वर्णन सुनो। यदि मनुष्य अपने वर्णधर्मसे भ्रष्ट न हो तो वह उसके द्वारा उत्तम सिद्धिको प्राप्त होता है और निषिद्धकर्मोंके आचरणसे वह मृत्युके पश्चात् नरकमें पड़ता है।


उपनयन-संस्कार होनेपर ब्रह्मचारी बालक गुरुके घरमें निवास करे। वहाँ उसके लिये जो धर्म बताया गया है, वह सुनो। ब्रह्मचारी वेदोंका स्वाध्याय करे, अग्निहोत्र करे, त्रिकाल स्नान करे, भिक्षाके लिये भ्रमण करे, भिक्षामें मिला हुआ अन्न गुरुको निवेदित करके उनकी आज्ञाके अनुसार ही सदा उसका उपयोग करे, गुरुके कार्यमें सदा उद्यत रहे, भलीभाँति उन्हें प्रसन्न रखे, गुरुके बुलानेपर एकाग्रचित्तसे तत्परतापूर्वक पढ़े, गुरुके मुखसे एक-दो या सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्राप्त करके गुरुके चरणोंमें प्रणाम करे और उन्हें गुरुदक्षिणा देकर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करे। इस आश्रममें आनेका उद्देश्य होना चाहिये- गृहस्थाश्रम-सम्बन्धी धर्मोंका पालन। अथवा अपनी इच्छाके अनुसार वह वानप्रस्थ या संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे अथवा वहीं गुरुके घरमें सदा निवास करते हुए ब्रह्मचर्यनिष्ठताको प्राप्त हो-नैष्ठिक ब्रह्मचारी बन जाय। गुरुके न रहनेपर उनके पुत्रकी और पुत्रके न रहनेपर उनके प्रधान शिष्यकी सेवा करे। अभिमानशून्य होकर ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहे।


जब गृहस्थाश्रममें आनेकी इच्छा लेकर ब्रह्मचर्य- आश्रमसे निकले, तब अपने अनुरूप नीरोग स्त्रीसे विधिपूर्वक विवाह करे। वह स्त्री अपने समान गोत्र और प्रवरकी न हो। उसके किसी अङ्गमें न्यूनाधिकता अथवा कोई विकार न हो। गृहस्थाश्रमका ठीक-ठीक सञ्चालन करनेके लिये ही विवाह करना चाहिये। अपने पराक्रमसे धन पैदा करके देवता, पितर एवं अतिथियोंको भक्तिपूर्वक भलीभाँति तृप्त करे तथा अपने आश्रितोंका भरण-पोषण करता रहे। भृत्य, पुत्र, कुलकी स्त्रियाँ, दीन, अन्ध और पतित मनुष्योंको तथा पशु-पक्षियोंको भी यथाशक्ति अन्न देकर उनका पालन करे। गृहस्थका यह धर्म है कि वह ऋतुकालमें स्त्री- सहवास करे। अपनी शक्तिके अनुसार पाँचों यज्ञोंका अनुष्ठान न छोड़े। अपने विभवके अनुसार पितर, देवता, अतिथि एवं कुटुम्बीजनोंके भोजन करनेसे बचे हुए अन्नको ही स्वयं भृत्यजनोंके साथ बैठकर आदरपूर्वक ग्रहण करे। यह मैंने संक्षेपसे गृहस्थाश्रमके धर्मका वर्णन किया है।


अब वानप्रस्थके धर्मका वर्णन करती हूँ, ध्यान देकर सुनो। बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह अपनी सन्तानको देखकर तथा देह झुकी जा रही है, इस बातका विचार करके आत्मशुद्धिके लिये वानप्रस्थ आश्रममें जाय। वहाँ वनके फल- मूलोंका उपभोग करे और तपस्यासे शरीरको सुखाता रहे। पृथ्वीपर सोये, ब्रह्मचर्यका पालन करे, देवताओं, पितरों और अतिथियोंकी सेवामें संलग्न रहे। अग्निहोत्र, त्रिकाल-स्नान तथा जटा- वल्कल धारण करे; सदा योगाभ्यासमें लगा रहे और वनवासियोंपर स्नेह रखे। इस प्रकार यह पापोंकी शुद्धि तथा आत्माका उपकार करनेके लिये वानप्रस्थ-आश्रमका वर्णन किया है।


अब चतुर्थ आश्रमका स्वरूप बतलाती हूँ, सुनो। धर्मज्ञ महात्माओंने इस आश्रमके लिये जो धर्म बतलाया है, वह इस प्रकार है। सब प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग, ब्रह्मचर्यका पालन, क्रोधशून्यता, जितेन्द्रियता, एक स्थानपर अधिक दिनोंतक न रहना, किसी कर्मका आरम्भ न करना, भिक्षामें मिले हुए अन्नका एक बार भोजन करना, आत्मज्ञान होनेकी इच्छाको जगाये रखना तथा सर्वत्र आत्माका दर्शन करना। यह मैंने चतुर्थ आश्रमका धर्म बतलाया है।


अब अन्यान्य वर्गों तथा आश्रमोंके सामान्य धर्मका वर्णन सुनो। सत्य, शौच, अहिंसा, दोषदृष्टिका अभाव, क्षमा, क्रूरताका अभाव, दीनताका न होना तथा सन्तोष धारण करना ये वर्ण और आश्रमोंके धर्म संक्षेपसे बताये गये हैं। जो पुरुष अपने वर्ण और आश्रम-सम्बन्धी धर्मको छोड़कर उसके विपरीत आचरण करता है, वह राजाके लिये दण्डनीय है। जो मानव अपने धर्मका त्याग करके पापकर्ममें लग जाते हैं, उनकी उपेक्षा करनेवाले राजाके इष्ट* और आपूर्त**धर्म नष्ट हो जाते हैं।


* देवपूजा, अग्निहोत्र तथा यज्ञ-यागादि कर्म 'इष्ट' कहलाते हैं।


* कुआँ और बावली खुदवाना, बगीचे लगवाना तथा धर्मशाला बनवाना आदि कार्य 'आपूर्त' धर्मके अन्तर्गत हैं।


बेटा! गृहस्थ-धर्मका आश्रय लेकर मनुष्य इस सम्पूर्ण जगत् का पोषण करता है और उससे मनोवाञ्छित लोकोंको जीत लेता है। पितर, मुनि, देवता, भूत, मनुष्य, कृमि, कीट, पतङ्ग, पशु- पक्षी तथा असुर-ये सभी गृहस्थसे ही जीविका चलाते हैं। उसीके दिये हुए अन्न-पानसे तृप्ति लाभ करते हैं तथा 'क्या यह हमें भी कुछ देगा?' इस आशासे सदा उसका मुँह ताकते रहते हैं। वत्स! वेदत्रयीरूप धेनु सबकी आधारभूता है, उसीमें सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है तथा वही विश्वकी उत्पत्तिका कारण मानी गयी है। ऋग्वेद उसकी पीठ, यजुर्वेद उसका मध्यभाग तथा सामवेद उसका मुख और गर्दन है। इष्ट और आपूर्त धर्म ही उसके दो सींग हैं। अच्छी-अच्छी सूक्तियाँ ही उस धेनुके रोम हैं, शान्तिकर्म गोबर और पुष्टिकर्म उसका मूत्र है। अकार आदि वर्ण उसके अङ्गोंके आधारभूत चरण हैं। सम्पूर्ण जगत् का जीवन उसीसे चलता है। वह वेदत्रयीरूप धेनु अक्षय है, उसका कभी क्षय नहीं होता। स्वाहा (देवयज्ञ), स्वधा (पितृयज्ञ), वषट्कार (ऋषि आदिकी प्रसन्नताके लिये किये जानेवाले यज्ञ) तथा हन्तकार (अतिथियज्ञ)-ये उसके चार स्तन हैं। स्वाहारूप स्तनको देवता, स्वधाको पितर, वषट्कारको मुनि तथा हन्तकाररूप स्तनको मनुष्य सदा पीते हैं। इस प्रकार यह त्रयीमयी धेनु सबको तृप्त करती है। जो मनुष्य उन देवता आदिकी वृत्तिका उच्छेद करता है, वह अत्यन्त पापाचारी है। उसे अन्धतामिस्र एवं तामित्र नरकमें गिरना पड़ता है। जो इस धेनुको इसके देवता आदि बछड़ोंसे मिलाता है और उन्हें उचित समयपर पीनेका अवसर देता है, वह स्वर्गमें जाता है। अत: बेटा! जैसे अपने शरीरका पालन-पोषण किया जाता है, उसी प्रकार मनुष्यको प्रतिदिन देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य भूतोंका भी पोषण करना चाहिये। इसलिये प्रात:काल स्नान करके पवित्र हो एकाग्रचित्तसे जलद्वारा देवता, ऋषि, पितर और प्रजापतिका तर्पण करना चाहिये। मनुष्य फूल, गन्ध और धूप आदि सामग्रियोंसे देवताओंकी पूजा करके आहुतिके द्वारा अग्निको तृप्त करे। तत्पश्चात् बलि दे।


ब्रह्मा और विश्वेदेवोंके उद्देश्यसे घरके मध्यभागमें बलि (पूजोपहार) अर्पण करे। पूर्व और उत्तरके कोणमें मन्वन्तरके लिये बलि प्रस्तुत करे। पूर्व दिशामें इन्द्रको, दक्षिण दिशामें यमको, पश्चिममें वरुणको तथा उत्तरमें सोमको बलि दे। घरके दरवाजेपर धाता और विधाताके लिये बलि अर्पण करे। घरके बाहर चारों ओर अर्यमा देवताके निमित्त बलि प्रस्तुत करे। निशाचरों और भूतोंको आकाशमें बलि दे। गृहस्थ पुरुष एकाग्रचित्त हो दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके तत्परतापूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे पिण्ड दे। तदनन्तर विद्वान् पुरुष जल लेकर उन्हीं-उन्हीं स्थानोंपर उन्हीं- उन्हीं देवताओंके उद्देश्यसे आचमनके लिये जल छोड़े। इस प्रकार गृहस्थ पुरुष घरमें पवित्रतापूर्वक गृह-देवताओंके उद्देश्यसे बलि देकर अन्य भूतोंकी तृप्तिके लिये आदरपूर्वक अन्नका त्याग करे। कुत्तों, चाण्डालों तथा पक्षियोंके लिये पृथ्वीपर अन्न रख दे। यह वैश्वदेव नामक कर्म है। इसे प्रातःकाल और सायंकाल आवश्यक बताया गया है।


इसके बाद बुद्धिमान् पुरुष आचमन करके कुछ कालतक अतिथिकी प्रतीक्षा करते हुए घरके दरवाजेकी ओर दृष्टि रखे। यदि कोई अतिथि वहाँ आ जाय तो यथाशक्ति अन्न, जल, गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा उसका सत्कार करे। अपने ग्रामवासी पुरुषको या मित्रको अतिथि न बनाये। जिसके कुल और नाम आदिका ज्ञान न हो, जो उसी समय वहाँ उपस्थित हुआ हो, भोजनकी इच्छा रखता हो, थका-माँदा आया हो, अन्न माँगता हो, ऐसे अकिञ्चन ब्राह्मणको अतिथि कहते हैं। विद्वान् पुरुषोंको उचित है कि वे अपनी शक्तिके अनुसार उस अतिथिका पूजन करें। उसका गोत्र और शाखा न पूछे। उसने कहाँतक अध्ययन किया है, इसकी जिज्ञासा भी न करें। उसकी आकृति सुन्दर हो या असुन्दर, उसे साक्षात् प्रजापति समझें। वह नित्य स्थित नहीं रहता, इसीलिये उसे अतिथि कहते हैं। उसकी तृप्ति होनेपर गृहस्थ पुरुष मनुष्य-यज्ञके ऋणसे मुक्त हो जाता है। जो उस अतिथिको

अन्न दिये बिना ही स्वयं भोजन करता है, वह मनुष्य पापभोजी है; वह केवल पाप भोजन करता है और दूसरे जन्ममें उसे विष्ठा खानी पड़ती है। अतिथि जिसके घरसे निराश होकर लौटता है, उसको अपना पाप दे स्वयं उसका पुण्य लेकर चल देता है।*

*अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।

स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥

(२९। ३१)


अतः मनुष्यको उचित है कि वह जल और साग देकर अथवा स्वयं जो कुछ खाता है, उसीसे अपनी शक्तिके अनुसार आदरपूर्वक अतिथिका पूजन करे।


गृहस्थ पुरुष प्रतिदिन पितरोंके उद्देश्यसे अन्न और जलके द्वारा श्राद्ध करे और अनेक या एक ब्राह्मणको भोजन कराये। अन्नमेंसे अग्राशन निकालकर ब्राह्मणको दे। ब्रह्मचारी और संन्यासी जब भिक्षा माँगनेके लिये आयें, तब उन्हें भिक्षा अवश्य दे। एक ग्रास अन्नको भिक्षा, चार ग्रास अन्नको अग्राशन और अग्राशनसे चौगुने अन्नको श्रेष्ठ द्विज हन्तकार कहते हैं।*

* ग्रासप्रमाणा भिक्षा स्यादग्रं ग्रासचतुष्टयम्।

अग्रं चतुर्गुणं प्राहुर्हन्तकारं द्विजोत्तमाः॥

(२९। ३५)


भोजनमें से अपने वैभवके अनुसार हन्तकार, अग्राशन अथवा भिक्षा दिये बिना कदापि उसे ग्रहण न करे। अतिथियोंका पूजन करनेके बाद प्रियजनों, कुटुम्बियों, भाई-बन्धुओं, याचकों, आकुल व्यक्तियों, बालकों, वृद्धों तथा रोगियोंको भोजन कराये। इनके अतिरिक्त यदि कोई दूसरा अकिञ्चन मनुष्य भी भूखसे व्याकुल होकर अन्नकी याचना करता हो तो गृहस्थ पुरुष वैभव होनेपर उसे अवश्य भोजन कराये। जो सजातीय बन्धु अपने किसी धनी सजातीयके पास जाकर भी भोजनका कष्ट पाता है, वह उस कष्टकी अवस्थामें जो पाप कर बैठता है, उसे वह धनी मनुष्य भी भोगता है। सायंकालमें भी इसी नियमका पालन करे। सूर्यास्त होनेपर जो अतिथि वहाँ आ जाय, उसकी यथाशक्ति शय्या, आसन और भोजनके द्वारा पूजा करे। बेटा! जो इस प्रकार अपने कंधोंपर रखा हुआ गृहस्थाश्रमका भार ढोता है, उसके लिये स्वयं ब्रह्माजी, देवता, पितर, महर्षि, अतिथि, बन्धु- बान्धव, पशु-पक्षी तथा छोटे-छोटे कीड़े भी, जो उसके अन्नसे तृप्त हुए रहते हैं, कल्याणकी वर्षा करते हैं।


मदालसा बोली- बेटा! गृहस्थके कर्म तीन प्रकारके हैं। नित्य, नैमित्तिक तथा नित्यनैमित्तिक। इनका वर्णन सुनो। पञ्चयज्ञसम्बन्धी कर्म, जिसका अभी वर्णन किया है, नित्य कहलाता है। पुत्र- जन्म आदिके उपलक्षमें किये हुए कर्मको नैमित्तिक कहते हैं। पर्वके अवसरपर जो श्राद्ध आदि किये जाते हैं, उन्हें विद्वान् पुरुषोंको नित्यनैमित्तिक कर्म समझना चाहिये। उनमेंसे नैमित्तिक कर्मका वर्णन करती हूँ। आभ्युदयिक श्राद्ध नैमित्तिक कर्म है, जिसे पुत्र-जन्मके अवसरपर जातकर्म संस्कारके साथ करना चाहिये। विवाह आदिमें भी, जिस क्रमसे वह बताया गया है, भलीभाँति उसका अनुष्ठान करना उचित है। नान्दीमुख नामके जो पितर हैं, उन्हींका इसमें पूजन करना चाहिये और उन्हें दधिमिश्रित जौके पिण्ड देने चाहिये। उस समय यजमानको एकाग्रचित्त होकर उत्तर या पूर्वकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये। कुछ लोगोंका मत है कि इसमें बलिवैश्वदेव कर्म नहीं होता। आभ्युदयिक श्राद्धमें युग्म ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना और प्रदक्षिणापूर्वक उनका पूजन करना उचित है। यह वृद्धिके अवसरोंपर किया जानेवाला नैमित्तिक श्राद्ध है। इससे भिन्न और्ध्वदैहिक श्राद्ध है, जो मृत्युके पश्चात् किया जाता है।


मृत व्यक्ति जिस दिन (तिथिमें) मरा हो, उस तिथिको एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये; उसका वर्णन सुनो। उसमें विश्वेदेवोंकी पूजा नहीं होती। एक ही पवित्रकका उपयोग किया जाता है। आवाहन तथा अग्नौकरणकी क्रिया भी नहीं होती। ब्राह्मणके उच्छिष्टके समीप प्रेतको तिल और जलके साथ अपसव्य होकर (जनेऊको दाहिने कंधेपर डालकर) उसके नाम-गोत्रका स्मरण करते हुए एक पिण्ड देना चाहिये। तत्पश्चात् हाथमें जल लेकर कहे-'अमुकके श्राद्धमें दिया हुआ अन्न-पान आदि अक्षय हो।' यह कहकर वह जल पिण्डपर छोड़ दे; फिर ब्राह्मणोंका विसर्जन करते समय कहे-'अभिरम्यताम्' (आपलोग सब तरहसे प्रसन्न हों)। उस समय ब्राह्मणलोग यह कहें-'अभिरताः स्मः' (हम भलीभाँति सन्तुष्ट हैं)।


यह एकोद्दिष्ट श्राद्ध एक वर्षतक प्रतिमास करना उचित है। वर्ष पूरा होनेपर जब भी श्राद्ध किया जाय, पहले सपिण्डीकरण करना आवश्यक होता है। उसकी भी विधि बतलायी जाती है-यह सपिण्डीकरण भी विश्वेदेवोंकी पूजासे रहित होता है। इसमें भी एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रकका विधान है। अग्नौकरण और आवाहनकी क्रिया इसमें भी नहीं होती। इसमें अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। इसमें जो विशेष क्रिया है, उसे बतलाती हूँ, एकाग्रचित्तसे सुनो। इसमें तिल, चन्दन और जलसे युक्त चार पात्र होते हैं; उनमेंसे तीन तो पितरोंके लि ये और एक प्रेतके लिये होता है। प्रेतके पात्र और अर्घ्यको लेकर 'ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये' इत्यादि मन्त्रका जप करते हुए पितरोंके तीनों पात्रोंमें सींचना चाहिये। शेष कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। स्त्रियोंके लिये भी ऐसे ही एकोद्दिष्टका विधान है। यदि पुत्र न हो तो स्त्रियोंका सपिण्डीकरण नहीं होता। पुरुषोंको उचित है कि वे स्त्रियोंके लिये भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथिको विधिपूर्वक एकोद्दिष्ट श्राद्ध करें। उनके लिये भी पुरुषोंके समान ही विधान है।


पुत्रके अभावमें सपिण्ड, सपिण्डके अभावमें सहोदक, उनके भी अभावमें माताके सपिण्ड* और सहोदक**इस विधिको पूर्ण करें।

जिसके कोई पुत्र नहीं है, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र कर सकते हैं। पुत्रीके पुत्र नानाका नैमित्तिक श्राद्ध करनेके भी अधिकारी हैं। जिनकी व्यामुष्यायण* संज्ञा है, ऐसे पुत्र नाना और बाबा दोनोंका नैमित्तिक श्राद्धोंमें भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं। कोई भी न हो तो स्त्रियाँ ही अपने पतियोंका मन्त्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं। वे भी न हों तो राजा अपने कुटुम्बी मनुष्यसे अथवा मृतकके सजातीय मनुष्योंद्वारा दाह आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ पूर्ण करावें; क्योंकि राजा सब वर्गों का बन्धु होता है।

*पितासे लेकर ऊपरकी सात पीढ़ीतक और मातासे लेकर नाना आदि पाँच पीढ़ीतक सपिण्डता मानी जाती है। किसीके मतमें छ: पीढ़ी ऊपर और छ: पीढ़ी नीचेतकके लोग सपिण्डकी गणनामें आते हैं।

**जिनकी ग्यारहवींसे लेकर चौदहवींतक ऊपरकी पीढ़ी एक हो, वे सहोदक या समानोदक कहलाते हैं।

३. वह पुत्र, जो एकसे तो उत्पन्न हुआ हो और दूसरेके द्वारा दत्तकके रूपमें ग्रहण किया हो और दोनों पिता उसको अपना-अपना पुत्र मानते हों, व्यामुष्यायण (दोनोंका) कहलाता है। ऐसा पुत्र दोनोंको पिण्डदान देता है और दोनोंकी सम्पत्तिका अधिकारी होता है।


सपिण्डीकरणके पश्चात् पिताके प्रपितामह लेपभागभोजी पितरोंकी श्रेणीमें चले जाते हैं। उन्हें पितृ-पिण्ड पानेका अधिकार नहीं रहता। उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपरके पितर, जो अबतक पुत्रके लेपभागका अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्धसे रहित हो जाते हैं। अब उनको लेपभागका अन्न पानेका भी अधिकार नहीं रहता। वे सम्बन्धहीन अन्नका उपभोग करते हैं। पिता, पितामह और प्रपितामह-इन तीन पुरुषोंको पिण्डके अधिकारी समझना चाहिये। इनसे अर्थात् पिताके पितामहसे ऊपर जो तीन पीढ़ीके पुरुष हैं, वे लेपभागके अधिकारी हैं। इस प्रकार छ: ये और सातवाँ यजमान, सब मिलाकर सात पुरुषोंका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है-ऐसा मुनियोंका कथन है। यह सम्बन्ध यजमानसे लेकर ऊपरके लेपभागभोजी पितरोंतक माना जाता है। इनसे ऊपरके सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं। इनमेंसे जो नरकमें निवास करते हैं, जो पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हैं तथा जो भूत-प्रेत आदिके रूपमें स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है।


किस प्रकार तृप्त करता है, यह बतलाती हूँ; सुनो। मनुष्य पृथ्वीपर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाच-योनिमें पड़े हुए पितरोंकी तृप्ति होती है। बेटा! स्नानके वस्त्रसे जो जल पृथ्वीपर टपकता है, उससे वृक्ष-योनिमं  पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं। नहानेपर अपने शरीरसे जो जलके कण इस पृथ्वीपर गिरते हैं, उनसे उन पितरोंकी तृप्ति होती है, जो देवभावको प्राप्त हुए हैं। पिण्डोंके उठानेपर जो अन्नके कण पृथ्वीपर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हुए पितरोंकी तृप्ति होती है। कुलमें जो बालक श्राद्धकर्मके योग्य होकर भी संस्कारसे वञ्चित रह गये हैं अथवा जलकर मरे हैं, वे बिखेरे हुए अन्न और सम्मार्जनके जलको ग्रहण करते हैं। ब्राह्मणलोग भोजन करके जब हाथ-मुँह धोते हैं और चरणोंका प्रक्षालन करते हैं, उस जलसे भी अन्यान्य पितरोंकी तृप्ति होती है। बेटा! उत्तम विधिसे श्राद्ध करनेवाले पुरुषोंके अन्य पितर यदि दूसरी-दूसरी योनियोंमें चले गये हों तो भी उस श्राद्धसे उन्हें बड़ी तृप्ति होती है। अन्यायोपार्जित धनसे जो श्राद्ध किया जाता है, उससे चाण्डाल आदि योनियोंमें पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं। वत्स! इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बन्धु अन्न और जलके कणमात्रसे अनेक पितरोंको तृप्त करते हैं। इसलिये मनुष्यको उचित है कि वह पितरोंके प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्रके द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे। श्राद्ध करनेवाले पुरुषके कुलमें कोई दुःख नहीं भोगता।


अब मैं नित्य-नैमित्तिक श्राद्धोंके काल बतलाती हूँ और मनुष्य जिस विधिसे श्राद्ध करते हैं, उसका भी वर्णन करती हूँ; सुनो। प्रत्येक मासकी अमावस्याको जिस दिन चन्द्रमाकी सम्पूर्ण कलाएँ क्षीण हो गयी हों तथा अष्टका१ तिथियोंको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। अब श्राद्धका इच्छाप्राप्त काल सुनो। किसी विशिष्ट ब्राह्मणके आनेपर, सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणमें अयन आरम्भ होनेपर, विषुवयोग२ में, सूर्यकी संक्रान्तिके दिन, व्यतीपात योगमें, श्राद्धके योग्य सामग्रीकी प्राप्ति होनेपर, दुःस्वप्न दिखायी देनेपर, जन्म-नक्षत्रके दिन एवं ग्रहजनित पीड़ा होनेपर स्वेच्छासे श्राद्धका अनुष्ठान करे। श्रेष्ठ ब्राह्मण, श्रोत्रिय, योगी, वेदज्ञ, ज्येष्ठ सामग, त्रिणाचिकेत३, त्रिमधु४, त्रिसुपर्णि५, षडङ्गवेत्ता, दौहित्र, ऋत्विक्, जामाता, भानजा, पञ्चाग्नि- कर्ममें तत्पर, तपस्वी, मामा, माता-पिताके भक्त, शिष्य, सम्बन्धी एवं भाई-बन्धु-ये सभी श्राद्धमें उत्तम माने गये हैं। इन्हें निमन्त्रित करना चाहिये।


१. पौष, माघ, फाल्गुन तथा चैत्रके कृष्णपक्षकी अष्टमियोंको अष्टका कहते हैं।

२. जिस समय सूर्य विषुव रेखापर पहुँचते और दिन-रात बराबर होते हैं, उसे 'विषुव' कहते हैं।

३. द्वितीय कठके अन्तर्गत 'अयं वाव यः पवते' इत्यादि तीन त्रिणाचिकेत नामक अनुवाकोंको पढ़ने या उसका अनुष्ठान करनेवाला।

४. 'मधु वाता०' इत्यादि ऋचाका अध्ययन और मधुव्रतका आचरण करनेवाला।

५. 'ब्रह्म मेतु माम्' इत्यादि तीन अनुवाकोंका अध्ययन और तत्सम्बन्धी व्रत करनेवाला।



धर्मभ्रष्ट, रोगी, हीनाङ्ग, अधिकाङ्ग, दो बार ब्याही गयी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न, काना, पतिके जीते-जी जार पुरुषसे पैदा की हुई सन्तान, पतिके मरनेपर परपुरुषसे उत्पन्न हुई सन्तान, मित्रद्रोही, खराब नखोंवाला, नपुंसक, काले दाँतोंवाला, कुरूप, पिताके द्वारा कलङ्कित, चुगलखोर, सोमरस बेचनेवाला, कन्याको दूषित करनेवाला, वैद्य, गुरु एवं माता- पिताका त्याग करनेवाला, वेतन लेकर पढ़ानेवाला, शत्रु, जो पहले दूसरे पुरुषकी पत्नी रह चुकी हो, ऐसी स्त्रीका पति, वेदाध्ययन तथा अग्निहोत्रका त्याग करनेवाला, शूद्रजातीय स्त्रीके पति होनेके दोषसे दूषित तथा शास्त्रविरुद्ध कर्ममें लगे रहनेवाले अन्यान्य द्विज श्राद्धमें त्याग देने योग्य हैं।


पहले बताये हुए श्रेष्ठ द्विजोंको देवयज्ञ अथवा श्राद्धमें एक दिन पहले ही निमन्त्रण देना चाहिये। उसी समयसे ब्राह्मणों तथा श्राद्धकर्ताको भी संयमसे रहना चाहिये। जो श्राद्धमें दान देकर अथवा श्राद्धमें भोजन करके मैथुन करता है, उसके रज-वीर्यमें एक मासतक पितरोंको शयन करना पड़ता है। जो स्त्री-सहवास करके श्राद्धमें जाता और खाता है, उसके पितर उसीके वीर्य और मूत्रका एक मासतक आहार करते हैं। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको एक दिन पहले ही ब्राह्मणोंके पास निमन्त्रण भेजना चाहिये। यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो भी श्राद्धके दिन स्त्री-प्रसंगी ब्राह्मणोंको कदापि भोजन न कराये। बल्कि समयपर भिक्षाके लिये स्वत: पधारे हुए संयमी यतियोंको नमस्कार आदिसे प्रसन्न करके शुद्ध चित्तसे भोजन कराये। जैसे शुक्ल-पक्षकी अपेक्षा कृष्णपक्ष पितरोंको विशेष प्रिय है, वैसे ही पूर्वाह्नकी अपेक्षा अपराह्न उन्हें अधिक प्रिय है। घरपर आये हुए ब्राह्मणोंका स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथसे आचमन करानेके बाद आसनोंपर बिठावे। श्राद्धमें विषम और देवयज्ञमें सम संख्याके ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे अथवा अपनी शक्तिके अनुसार दोनों कार्यों में एक-ही-एक ब्राह्मणको भोजन कराये। यही बात मातामहोंके श्राद्धमें भी होनी चाहिये। विश्वेदेवोंका श्राद्ध भी ऐसा ही है। कुछ लोगोंका ऐसा मत है कि पितरों और मातामहोंके विश्वेदेव-कर्म पृथक्-पृथक् हैं। देव-श्राद्धमें ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख और पितृ-श्राद्ध में उत्तराभिमुख बिठाना चाहिये। मातामहोंके श्राद्धमें भी मनीषी पुरुषोंने इसी विधिका प्रतिपादन किया है। पहले ब्राह्मणोंको बैठनेके लिये कुश देकर विद्वान् पुरुष अर्घ्य आदिसे उनकी पूजा करे। फिर उन्हें पवित्रक आदि दे उनसे आज्ञा लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक देवताओंका आवाहन करे। तत्पश्चात् जौ और जल आदिसे विश्वेदेवोंको अर्घ्य देकर गन्ध, पुष्प, माला, जल, धूप और दीप आदि विधिपूर्वक निवेदन करे।


पितरोंके लिये ये सारी वस्तुएँ अपसव्य होकर प्रस्तुत करनी चाहिये। पितृ-श्राद्धमें बैठे हुए ब्राह्मणोंको आसनके लिये द्विगुणभुग्न (दोहरे मुड़े हुए) कुश देकर उनकी आज्ञा ले विद्वान् पुरुष मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितरोंका आवाहन करे और अपसव्य होकर पितरोंकी प्रसन्नताके लिये तत्पर हो उन्हें अर्घ्य निवेदन करे। उसमें जौके स्थानपर तिलोंका उपयोग करना चाहिये। तदनन्तर ब्राह्मणोंके आज्ञा देनेपर अग्निकार्य करे। नमक और व्यञ्जनसे रहित अन्न लेकर विधिपूर्वक अग्निमें आहुति दे। 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा' इस मन्त्रसे पहली आहुति दे, 'सोमाय पितृमते स्वाहा' इस मन्त्रसे दूसरी आहुति दे तथा 'यमाय प्रेतपतये स्वाहा' इस मन्त्रसे तीसरी आहुतिको अग्निमें डाले। आहुतिसे बचे हुए अन्नको ब्राह्मणोंके पात्रमें परोसे। फिर पात्रमें हाथका सहारा दे विधिपूर्वक कुछ और अन्न डाले एवं कोमल वचनोंमें प्रार्थना करे कि अब आपलोग सुखसे भोजन कीजिये। फिर उन ब्राह्मणोंको चाहिये कि वे एकाग्रचित्त एवं मौन होकर सुखपूर्वक भोजन करें। जो-जो अन्न उन्हें अत्यन्त प्रिय लगे, वह-वह तुरंत उनके सामने प्रस्तुत करे। उस समय क्रोधको त्याग दे और ब्राह्मणोंको आग्रहपूर्वक प्रलोभन दे-दे भोजन कराये। उनके भोजनकालमें रक्षाके लिये पृथ्वीपर तिल और सरसों बिखेरे तथा रक्षोघ्न मन्त्रोंका पाठ करे; क्योंकि श्राद्धमें अनेक प्रकारके विघ्न उपस्थित होते हैं। जब ब्राह्मणलोग पूर्ण भोजन कर लें तो पूछे-'क्या आपलोग भलीभाँति तृप्त हो गये?' इसके उत्तरमें ब्राह्मण कहें-'हाँ, हम पूर्ण तृप्त हो गये।' फिर उनकी आज्ञा लेकर पृथ्वीपर सब ओर कुछ अन्न बिखेरे। इसी प्रकार आचमन करनेके लिये एक-एक ब्राह्मणको बारी-बारीसे जल दे। तत्पश्चात् फिर उनकी आज्ञा ले मन, वाणी और शरीरको संयममें रखकर तिलसहित सम्पूर्ण अन्नसे पितरोंके लिये पृथक्-पृथक् पिण्ड दे। यह पिण्डदान ब्राह्मणोंके उच्छिष्टके समीप ही कुशोंपर करना चाहिये; फिर पितृतीर्थ* से उन पिण्डोंपर एकाग्रचित्तसे जल दे।

* अंगूठा और तर्जनीके बीचका भाग।


इसी प्रकार मातामह आदिके लिये भी विधिपूर्वक पिण्डदान देकर गन्ध-माला आदिके साथ आचमनके लिये जल दे। अन्तमें यथाशक्ति दक्षिणा देकर ब्राह्मणोंसे कहे-'सुस्वधा अस्तु' (यह श्राद्धकर्म भलीभाँति सम्पन्न हो)। ब्राह्मण भी सन्तुष्ट होकर 'तथास्तु' कहें। फिर विश्वेदेव- सम्बन्धी ब्राह्मणोंसे कहे-'हे विश्वेदेवगण! आपका कल्याण हो। आपलोग प्रसन्न रहें।' तब ब्राह्मणलोग 'तथास्तु' कहें। इसके बाद उनसे आशीर्वादकी याचना करे और प्रिय वचन कहते हुए भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उन्हें विदा दे। दरवाजेतक उन्हें पहुँचानेके लिये पीछे-पीछे जाय और उनकी आज्ञा लेकर लौटे।


तदनन्तर नित्यक्रिया करे और अतिथियोंको भोजन कराये। किन्हीं-किन्हीं श्रेष्ठ पुरुषोंका विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरोंके ही उद्देश्यसे होता है। दूसरे लोग ऐसा कहते हैं कि इससे पितरोंका कोई सम्बन्ध नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् करे। किन्हीं-किन्हींका मत है कि पितरोंके लिये पृथक् पाक बनाकर श्राद्ध करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है-ऐसा नहीं करना चाहिये।


इसके बाद यजमान अपने भृत्य आदिके साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करे। धर्मज्ञ पुरुषको इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये और जिस प्रकार ब्राह्मणोंको सन्तोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिये। श्राद्धमें दौहित्र (पुत्रीका पुत्र), कुतप (दिनके पंद्रह भागोंमेंसे आठवाँ भाग) और तिल-ये तीन अत्यन्त पवित्र माने गये हैं। श्राद्धमें आये ब्राह्मणोंको तीन बातें छोड़ देनी चाहिये- क्रोध, मार्गका चलना और उतावली।*

* त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रं कुतपस्तिलाः।

वानि चाहुर्विप्रेन्द्रैः कोपोऽध्वगमनं त्वरा॥

(३१। ६४)


बेटा! श्राद्धमें चाँदीका पात्र बहुत उत्तम माना गया है। उसमें चाँदीका दर्शन या दान अवश्य करना चाहिये। सुना जाता है, पितरोंने चाँदीके पात्रमें ही गोरूपधारिणी पृथ्वीसे स्वधाका दोहन किया था। अतः पितरोंको चाँदीका दान अभीष्ट एवं प्रसन्नता बढ़ानेवाला है।


मदालसा कहती है- बेटा! भक्तिपूर्वक लायी हुई कौन वस्तु पितरोंको प्रिय है और कौन वस्तु अप्रिय, इस बातका वर्णन करती हूँ; सुनो। हविष्यान्नसे पितरोंको एक मासतक तृप्ति बनी रहती है। गायका दूध अथवा उसमें बनी हुई खीर उन्हें एक वर्षतक तृप्त रखती है। जिस कन्याका विवाह गौरी-अवस्थामें हुआ है, उससे उत्पन्न पुत्रसे और गयाके श्राद्धसे पितर अनन्तकालतक तृप्त रहते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अन्नोंमें श्यामाक (सावाँ), राजश्यामाक, प्रसातिका, नीवार और पौष्कल-ये पितरोंको तृप्त करनेवाले हैं। जौ, धान, गेहूँ, तिल, मूंग, सरसों, कँगनी, कोदो और मटर-ये बहुत ही उत्तम हैं। मकई, काला उड़द, विप्रूषि और मसूर- ये श्राद्धकर्ममें निन्दित माने गये हैं। लहसुन, गाजर, प्याज, मूली, सत्तू, रस और वर्णसे हीन अन्यान्य वस्तुएँ, गान्धारिक, लौकी, खारा नमक, लाल गोंद, भोजनके साथ पृथक् नमक-ये श्राद्धमें वर्जित हैं। इसी प्रकार जिसकी वाणीसे कभी प्रशंसा नहीं की जाती, वह वस्तु श्राद्ध में निषिद्ध है। सूदमें मिला हुआ, पतित मनुष्योंके यहाँसे आया हुआ, अन्यायसे तथा कन्याको बेचनेसे प्राप्त किया हुआ धन श्राद्धके लिये अत्यन्त निन्दित है। दुर्गन्धित, फेनयुक्त, थोड़े जलवाले सरोवरसे लाया हुआ, जहाँ गायकी प्यास न बुझ सके-ऐसे स्थानसे प्राप्त किया हुआ, रातका भरा हुआ, सब लोगोंका छोड़ा हुआ, अपेय तथा पौंसलेका जल श्राद्धमें सदा ही वर्जित है। मृगी, भेड़, ऊँटनी, घोड़ी आदि, भैंस और चँवरी गायका दूध श्राद्धमें निषिद्ध है। हालकी ब्यायी हुई गौका भी दस दिनके भीतरका दूध वर्जित है। 'मुझे श्राद्धके लिये दूध दो' यों कहकर लाया हुआ दूध भी श्राद्धकर्ममें ग्रहण करनेयोग्य नहीं है।


जहाँ बहुत-से जन्तु रहते हों, जो रूखी और आगसे जली हुई हो, जहाँ अनिष्ट एवं दुष्ट शब्द सुनायी पड़ते हों, जो भयानक दुर्गन्धसे भरी हो-ऐसी भूमि श्राद्धकर्ममें वर्जित है। कुलका अपमान तथा हिंसा करनेवाले, कुलाधम, ब्रह्महत्यारा, रोगी, चाण्डाल, नग्न और पातकी-ये अपनी दृष्टिसे श्राद्धकर्मको दूषित कर देते हैं। नपुंसक, जातिबहिष्कृत, मुर्गा, ग्रामीण सूअर, कुत्ता और राक्षस भी अपनी दृष्टिसे श्राद्धको नष्ट कर देते हैं। इसलिये चारों ओरसे ओट करके श्राद्ध करे। पृथ्वीपर तिल बिखेरे। ऐसा करनेसे श्राद्धमें रक्षा होती है। श्राद्धकी जिस वस्तुको मरणाशौच या जननाशौचसे युक्त मनुष्य छू दे, बहुत दिनोंका रोगी, पतित एवं मलिन पुरुष स्पर्श कर ले, वह पितरोंकी पुष्टि नहीं करती। इसलिये श्राद्धमें ऐसी वस्तुका त्याग करना चाहिये। रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि श्राद्धमें वर्जित है। संन्यासी और जुआरियोंका आना-जाना भी रोकना चाहिये। जिसमें बाल और कीड़े पड़ गये हों, जिसे कुत्तोंने देख लिया हो, जो बासी एवं दुर्गन्धित हो-ऐसी वस्तुका श्राद्धमें उपयोग न करे। बैंगन और शराबका भी त्याग करे। जिस अन्नपर पहने हुए वस्त्रकी हवा लग जाय, वह भी श्राद्धमें वर्जित है।


पितरोंको उनके नाम और गोत्रका उच्चारण करके पूर्ण श्रद्धाके साथ जो कुछ दिया जाता है, वह वे जैसा आहार करते होते हैं, उसी रूपमें उन्हें प्राप्त होता है। इसलिये पितरोंकी तृप्ति चाहनेवाले श्रद्धालु पुरुषको उचित है कि जो वस्तु उत्तम हो, वही श्राद्धमें सुपात्र ब्राह्मणको दान करे। विद्वान् पुरुष योगी पुरुषोंको सदा ही श्राद्धमें भोजन कराये; क्योंकि पितरोंका आधार योग ही है। इसलिये योगियोंका सर्वदा पूजन करे। हजार ब्राह्मणोंकी अपेक्षा यदि एक ही योगीको पहले भोजन करा दिया जाय तो वह पानीसे नौकाकी भाँति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणोंका भवसागरसे उद्धार कर देता है। इस विषयमें ब्रह्मवादी पुरुष उस पितृगाथाका गान किया करते हैं, जिसे पूर्वकालमें राजा पुरूरवाके पितरोंने गाया था। 'हमारी वंशपरम्परामें किसीको ऐसा श्रेष्ठ पुत्र कब उत्पन्न होगा, जो योगियोंको भोजन करानेसे बचे हुए अन्नको लेकर पृथ्वीपर हमारे लिये पिण्ड देगा। अथवा गयामें जाकर उत्तम हविष्यका पिण्ड, सामयिक शाक एवं तिल-मिली हुई खिचड़ी देगा। ये वस्तुएँ हमें एक मासतक तृप्त रखनेवाली हैं। त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्रमें विधिपूर्वक श्राद्ध करे तथा दक्षिणायनमें मधु और घीसे मिली हुई खीर दे।'


इसलिये पुत्र! सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति तथा पापसे मुक्ति चाहनेवाले प्रत्येक मनुष्यको उचित है कि वह भक्तिपूर्वक पितरोंकी पूजा करे। श्राद्धमें तृप्त किये हुए पितर मनुष्योंपर वसु, रुद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारोंकी प्रसन्नताका संपादन करते हैं। श्राद्धमें तृप्त पितर आयु, प्रज्ञा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य प्रदान करते हैं। बेटा! इस प्रकार गृहस्थ पुरुषको हव्यसे देवताओंका, कव्य (श्राद्ध)से पितरोंका और अन्नसे अतिथियों एवं भाई-बन्धुओंका पूजन करना चाहिये। इनके सिवा भूत, प्रेत, समस्त भृत्यगण, पशु-पक्षी, चींटी, वृक्ष तथा अन्यान्य याचकोंकी तृप्ति भी सदाचारी गृहस्थ पुरुषको करनी चाहिये। जो नित्य-नैमित्तिक क्रियाओंका उल्लङ्घन करके पूजन करता है, वह पाप भोगता है।


अलर्क बोले- माताजी! आपने पुरुषके नित्य, नैमित्तिक तथा नित्य-नैमित्तिक-ये तीन प्रकारके कर्म बतलाये। अब मैं आपके मुँहसे सदाचारका वर्णन सुनना चाहता हूँ, जिसका पालन करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोकमें भी सुख पाता है।


मदालसाने कहा- बेटा! गृहस्थ पुरुषको सदा ही सदाचारका पालन करना चाहिये। आचारहीन मनुष्यको न इस लोकमें सुख मिलता है, न परलोकमें। जो सदाचारका उल्लङ्घन करके मनमाना बर्ताव करता है, उस पुरुषका कल्याण यज्ञ, दान और तपस्यासे भी नहीं होता। दुराचारी पुरुषको इस लोकमें बड़ी आयु नहीं मिलती। अतः सदाचारके पालनका सदा ही यत्न करे। सदाचार बुरे लक्षणोंका नाश करता है। वत्स! अब मैं सदाचारका स्वरूप बतलाती हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो और उसका पालन करो। गृहस्थको धर्म, अर्थ और काम-तीनोंके साधनका यत्न करना चाहिये। उनके सिद्ध होनेपर उसे इस लोक और परलोकमें भी सिद्धि प्राप्त होती है। मनको वशमें करके अपनी आयका एक चौथाई भाग पारलौकिक लाभके लिये संगृहीत करे। आधे भागसे नित्य-नैमित्तिक कार्योंका निर्वाह करते हुए अपना भरण-पोषण करे तथा एक चौथाई भाग अपने लिये मूल पूँजीके रूपमें रखकर उसे बढ़ावे। बेटा! ऐसा करनेसे धन सफल होता है। इसी प्रकार पापकी निवृत्ति तथा पारलौकिक उन्नतिके लिये विद्वान् पुरुष धर्मका अनुष्ठान करे। ब्राह्ममुहूर्तमें उठे। उठकर धर्म और अर्थका चिन्तन करे। अर्थके कारण जो शरीरको कष्ट उठाना पड़ता है, उसका भी विचार करे। फिर वेदके तात्त्विक अर्थ - परब्रह्म परमात्माका स्मरण करे। इसके बाद शयनसे उठकर नित्यकर्मसे निवृत्त हो, स्नान आदिसे पवित्र होकर मनको संयममें रखते हुए पूर्वाभिमुख बैठे और आचमन करके सन्ध्योपासन करे। प्रात:कालकी सन्ध्या उस समय आरम्भ करे, जब तारे दिखायी देते हों। इसी प्रकार सायंकालकी सन्ध्योपासना सूर्यास्तसे पहले ही विधिपूर्वक आरम्भ करे। आपत्तिकालके सिवा और किसी समय उसका त्याग न करे।*


* पूर्वां सन्ध्यां सनक्षत्रां पश्चिमां सदिवाकराम्।

उपासीत यथान्यायं नैनां जह्यादनापदि।

(३४। १८)


बुरी-बुरी बातें बकना, झूठ बोलना, कठोर वचन मुँहसे निकालना, असत् शास्त्र पढ़ना, नास्तिकवादको अपनाना तथा दुष्ट पुरुषोंकी सेवा करना छोड़ दे। मनको वशमें रखते हुए प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल हवन करे। उदय और अस्तके समय सूर्यमण्डलका दर्शन न करे। बाल सँवारना, आईना देखना, दातुन करना और देवताओंका तर्पण करना- यह सब कार्य पूर्वाह्नकालमें ही करना चाहिये।


ग्राम, निवासस्थान, तीर्थ और क्षेत्रोंके मार्गमें, जोते हुए खेतमें तथा गोशालामें मल-मूत्र न करे। परायी स्त्रीको नंगी अवस्थामें न देखे। अपनी विष्ठापर दृष्टिपात न करे। रजस्वला स्त्रीका दर्शन, स्पर्श तथा उसके साथ भाषण भी वर्जित है। पानीमें मल-मूत्रका त्याग अथवा मैथुन न करे। बुद्धिमान् पुरुष मल-मूत्र, केश, राख, खोपड़ी, भूसी, कोयले, हड्डियोंके चूर्ण, रस्सी, वस्त्र आदिपर तथा केवल पृथ्वीपर और मार्गमें कभी न बैठे। गृहस्थ मनुष्य अपने वैभवके अनुसार देवता, पितर, मनुष्य तथा अन्यान्य प्राणियोंका पूजन करके पीछे भोजन करे। भलीभाँति आचमन करके हाथ-पैर धोकर पवित्र हो पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके भोजनके लिये आसनपर बैठे और हाथोंको घुटनोंके भीतर करके मौनभावसे भोजन करे। भोजनके समय मनको अन्यत्र न ले जाय। यदि अन्न किसी प्रकारकी हानि करनेवाला हो तो उस हानिको ही बतावे। उसके सिवा अन्नके और किसी दोषकी चर्चा न करे। भोजनके साथ पृथक् नमक लेकर न खाय। अधिक गर्म अन्न खाना भी ठीक नहीं है। मनुष्यको चाहिये कि खड़े होकर या चलते-चलते मल-मूत्रका त्याग, आचमन तथा कुछ भी भक्षण न करे। जूठे मुँह वार्तालाप न करे तथा उस अवस्थामें स्वाध्याय भी वर्जित है। जूठे हाथसे गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा अपने मस्तकका भी स्पर्श न करे। जूठी अवस्थामें सूर्य, चन्द्रमा और तारोंकी ओर जान- बूझकर न देखे। दूसरेके आसन, शय्या और बर्तनका भी स्पर्श न करे।


गुरुजनोंके आनेपर उन्हें बैठनेको आसन दे, उठकर प्रणामपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार करे। उनके अनुकूल बातचीत करे। जाते समय उनके पीछे-पीछे जाय, कोई प्रतिकूल बात न करे। एक वस्त्र धारण करके भोजन तथा देवपूजन न करे। बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मणोंसे बोझ न ढुलाये और आगमें मूत्र-त्याग न करे। नग्न होकर कभी स्नान अथवा शयन न करे। दोनों हाथोंसे सिर न खुजलाये। बिना कारण बारंबार सिरके ऊपरसे स्नान न करे। सिरसे स्नान कर लेनेपर किसी भी अङ्गमें तेल न लगाये। सब अनध्यायोंके दिन स्वाध्याय बंद रखे। ब्राह्मण, अग्नि, गौ तथा सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब न करे। दिनमें उत्तरकी ओर और रात्रिमें दक्षिणकी ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करे। जहाँ ऐसा करने में कोई बाधा हो, वहाँ इच्छानुसार करे। गुरुके दुष्कर्मकी चर्चा न करे। यदि वे क्रुद्ध हों तो उन्हें विनयपूर्वक प्रसन्न करे। दूसरे लोग भी यदि गुरुकी निन्दा करते हों तो उसे न सुने। ब्राह्मण, राजा, दुःखसे आतुर मनुष्य, विद्या-वृद्ध पुरुष, गर्भिणी स्त्री, बोझसे व्याकुल मनुष्य, गूंगा, अन्धा, बहरा, मत्त, उन्मत्त, व्यभिचारिणी स्त्री, शत्रु, बालक और पतित-ये यदि सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे हटकर इनको जानेके लिये मार्ग देना चाहिये। विद्वान् पुरुष देवालय, चैत्यवृक्ष, चौराहा, विद्या-वृद्ध पुरुष, गुरु और देवता-इनको दाहिने करके चले। दूसरोंके धारण किये हुए जूते और वस्त्र स्वयं न पहने। दूसरोंके उपयोगमें आये हुए यज्ञोपवीत, आभूषण और कमण्डलुका भी त्याग करे। चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा तथा पर्वके दिन तैलाभ्यङ्ग एवं स्त्री-सहवास न करे। बुद्धिमान् मनुष्य कभी पैर और जङ्घा फैलाकर न खड़ा हो। पैरोंको न हिलाये तथा पैरको पैरसे न दबाये। किसीको चुभती बात न कहे। निन्दा और चुगली छोड़ दे। दम्भ, अभिमान और तीखा व्यवहार कदापि न करे। मूर्ख, उन्मत्त, व्यसनी, कुरूप, मायावी, हीनाङ्ग तथा अधिकाङ्ग मनुष्योंकी खिल्ली न उड़ाये। पुत्र और शिष्यको शिक्षा देनेके लिये आवश्यकता होनेपर उन्हींको दण्ड दे, दूसरोंको नहीं। आसनको पैरसे खींचकर न बैठे। सायंकाल और प्रात:काल पहले अतिथिका सत्कार करके फिर स्वयं भोजन करे।


वत्स! सदा पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके ही दातुन करे। दातुन करते समय मौन रहे। दातुनके लिये निषिद्ध वृक्षोंका परित्याग करे। उत्तर और पश्चिमकी ओर सिर करके कभी न सोये। दक्षिण या पूर्व दिशाकी ओर ही मस्तक करके सोये। दुर्गन्धि-युक्त जलमें स्नान न करे। रात्रिमें न नहाये, ग्रहणके समय रात्रिमें भी स्नान करना बहुत उत्तम है; इसके सिवा अन्य समयमें दिनमें ही स्नानका विधान है। स्नान कर लेनेके बाद हाथ या कपड़ेसे शरीरको न मले। बालों और वस्त्रोंको न फटकारे। विद्वान् पुरुष बिना स्नान किये कभी चन्दन न लगाये। लाल, रंग- बिरंगे और काले रंगके कपड़े न पहने। जिसमें बाल, थूक या कीड़े पड़ गये हों, जिसपर कुत्तेकी दृष्टि पड़ी हो, जिसको किसीने चाट लिया हो अथवा जो सारभाग निकाल लेनेके कारण दूषित हो गया हो, ऐसे अन्नको न खाय। बहुत देरके बने हुए और बासी भातको त्याग दे। पीठी, साग, ईखके रस और दूधकी बनी हुई वस्तुएँ भी यदि बहुत दिनोंकी हों तो उन्हें न खाये। सूर्यके उदय और अस्तके समय शयन न करे। बिना नहाये, बिना बैठे, अन्यमनस्क होकर, शय्यापर बैठकर या सोकर, केवल पृथ्वीपर बैठकर, बोलते हुए, एक कपड़ा पहनकर तथा भोजनकी ओर देखनेवाले पुरुषोंको न देकर मनुष्य कदापि भोजन न करे। सबेरे-शाम दोनों समय भोजनकी यही विधि है।


विद्वान् पुरुषको कभी परायी स्त्रीके साथ समागम नहीं करना चाहिये। परस्त्री-संगम मनुष्योंके इष्ट, पूर्त और आयुका नाश करनेवाला है। इस संसारमें परस्त्री-समागमके समान मनुष्यकी आयुका विघातक कार्य दूसरा कोई नहीं है। देवपूजा, अग्निहोत्र, गुरुजनोंको प्रणाम तथा भोजन भलीभाँति आचमन करके करना चाहिये। स्वच्छ, फेनरहित, दुर्गन्धशून्य और पवित्र जल लेकर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके आचमन करना चाहिये। जलके भीतरकी, घरकी, बाँबीकी, चूहेके बिलकी और शौचसे बची हुई-ये पाँच प्रकारकी मिट्टियाँ त्याग देने योग्य हैं। हाथ-पैर धोकर एकाग्रचित्तसे मार्जन करके, घुटनोंको समेटकर, दो बार मुँहके दोनों किनारोंको पोंछे; फिर सम्पूर्ण इन्द्रियों और मस्तकका स्पर्श करके जलसे भलीभाँति तीन बार आचमन करे। इस प्रकार पवित्र होकर समाहित- चित्तसे सदा देवताओं, पितरों और ऋषियोंकी क्रिया करनी चाहिये। थूकने, बँखारने और कपड़ा पहननेपर बुद्धिमान् पुरुष आचमन करे। छींकने, चाटने, वमन करने, थूकने आदिके पश्चात् आचमन, गायके पीठका स्पर्श, सूर्यका दर्शन करना तथा दाहिने कानको छू लेना चाहिये। इनमें पहलेके अभावमें दूसरा उपाय करना चाहिये।


दाँतोंको न कटकटाये। अपने शरीरपर ताल न दे। दोनों संध्याओंके समय अध्ययन, भोजन और शयनका त्याग करे। सन्ध्याकालमें मैथुन और रास्ता चलना भी निषिद्ध है। बेटा! पूर्वाह्नकालमें देवताओंका, मध्याह्नकालमें मनुष्यों (अतिथियों)- का तथा अपराह्नकालमें पितरोंका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। सिरसे स्नान करके देवकार्य या पितृकार्यमें प्रवृत्त होना उचित है। पूर्व या उत्तरकी ओर मुंह करके क्षौर कराये। उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी जो कन्या किसी अङ्गसे हीन, रोगिणी, विकृत रूपवाली, पीले रंगकी, अधिक बोलनेवाली तथा सबके द्वारा निन्दित हो, उसके साथ विवाह न करे। जो किसी अङ्गसे हीन न हो, जिसकी नासिका सुन्दर हो तथा जो सभी उत्तम लक्षणोंसे सुशोभित हो, वैसी ही कन्याके साथ कल्याणकामी पुरुषको विवाह करना चाहिये। पुरुषको उचित है कि स्त्रीकी रक्षा करे, दिनमें शयन और मैथुन न करे। दूसरोंको कष्ट देनेवाला कार्य न करे, किसी जीवको पीड़ा न दे। रजस्वला स्त्री चार रातोंतक सभी वर्णके पुरुषोंके लिये त्याज्य है। यदि कन्याका जन्म रोकना हो तो पाँचवीं रातमें भी स्त्री-सहवास न करे। छठी रात आनेपर स्त्रीके पास जाय; क्योंकि युग्म रात्रियाँ ही इसके लिये श्रेष्ठ हैं। युग्म रात्रियों में स्त्री-सहवाससे पुत्रका जन्म होता है और अयुग्म रात्रियोंमें गर्भाधान करनेसे कन्या उत्पन्न होती है; अतः पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष युग्म रात्रियोंमें ही स्त्रीके साथ शयन करे। पूर्वाह्नमें मैथुन करनेसे विधर्मी और सन्ध्याकालमें करनेसे नपुंसक पुत्र उत्पन्न होता है।


बेटा! हजामत बनवाने, वमन होने, स्त्री- प्रसङ्ग करने तथा श्मशानभूमिमें जानेपर वस्त्रसहित स्नान करे। देवता, वेद, द्विज, साधु, सच्चे महात्मा, गुरु, पतिव्रता, यज्ञकर्ता और तपस्वी-इनकी निन्दा अथवा परिहास न करे। यदि कोई उद्दण्ड मनुष्य ऐसा करता हो तो उसकी बात सुने भी नहीं। अपनेसे श्रेष्ठ और अपनेसे नीचे व्यक्तियोंकी शय्या और आसनपर न बैठे। अमङ्गलमय वेश न धारण करे और मुखसे अमाङ्गलिक वचन भी न बोले। स्वच्छ वस्त्र पहने और श्वेत पुष्पोंकी माला धारण करे। उद्दण्ड, उन्मत्त, अविनीत, शीलहीन, चोरी आदिसे दूषित, अधिक अपव्ययी, लोभी, वैरी, कुलटाके पति, अधिक बलवान्, अधिक दुर्बल, लोकमें निन्दित तथा सबपर सन्देह करनेवाले लोगोंसे कभी मित्रता न करे। साधु, सदाचारी, विद्वान्, चुगली न करनेवाले, सामर्थ्यवान् तथा उद्योगी पुरुषोंसे मित्रता स्थापित करे। विद्वान् पुरुष वेद-विद्या एवं व्रतमें निष्णात पुरुषोंके साथ बैठे। मित्र, दीक्षाप्राप्त पुरुष, राजा, स्नातक, श्वशुर तथा ऋत्विक्-इन छ: पूजनीय पुरुषोंका घर आनेपर पूजन करे। जो द्विज संवत्सरव्रतको पूरा करके घरपर आवें, उनकी अपने वैभवके अनुसार यथासमय आलस्य त्याग करके पूजा करे और कल्याणकामी पुरुष उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा उद्यत रहे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि उन ब्राह्मणोंके फटकारनेपर भी कभी उनके साथ विवाद न करे।


घरके देवताओंका यथास्थान भलीभाँति पूजन करके अग्नि-स्थापनपूर्वक उसमें आहुति दे। पहली आहुति ब्रह्माको, दूसरी प्रजापतिको, तीसरी गुह्यकोंको, चौथी कश्यपको तथा पाँचवीं अनुमतिको दे। फिर पूर्वकथनानुसार गृहबलि देकर वैश्वदेवबलि दे। देवताओंके लिये पृथक्- पृथक् स्थानका विभाग करके उनके लिये बलि अर्पित करे। उसका क्रम बतलाती हूँ, सुनो। एक पात्रमें पहले पर्जन्य, जल और पृथ्वीको तीन बलि दे। फिर प्राची आदि प्रत्येक दिशामें वायुको बलि देकर क्रमश: उन-उन दिशाओंके नामसे भी बलि समर्पित करे। तत्पश्चात् ब्रह्मा, अन्तरिक्ष, सूर्य, विश्वेदेव, विश्वभूत, उषा तथा भूतपतिको क्रमशः बलि दे। फिर 'पितृभ्यः स्वधा नमः' कहकर दक्षिण दिशामें अपसव्य होकर पितरोंके निमित्त बलि दे। फिर पात्रसे अन्नका शेष भाग और जल लेकर 'यक्ष्मैतत्ते निर्णेजनम्' इस मन्त्रसे वायव्य दिशामें उसे विधिपूर्वक छोड़ दे। तदनन्तर रसोईके अन्नसे अग्राशन तथा हन्तकार निकालकर उन्हें विधिपूर्वक ब्राह्मणको दे। देवता आदिके सब कर्म उन-उनके तीर्थसे ही करने चाहिये। ब्राह्मतीर्थसे आचमन करना चाहिये, दाहिने हाथमें अँगूठेके उत्तर ओर जो एक रेखा होती है, वह ब्राह्मतीर्थके नामसे प्रसिद्ध है। उसीसे आचमन करना उचित है। तर्जनी और अँगूठेके बीचका भाग पितृतीर्थ कहलाता है। नान्दीमुख पितरोंको छोड़कर अन्य सब पितरोंको उसी तीर्थसे जल आदि देना चाहिये। अँगुलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ है। उससे देवकार्य करनेका विधान है। कनिष्ठिकाके मूल भागमें कायतीर्थ है। उससे प्रजापतिका कार्य किया जाता है।


इस प्रकार इन तीर्थोंसे सदा देवताओं और पितरोंके कार्य करने चाहिये, अन्य तीर्थोंसे कदापि नहीं। ब्राह्मतीर्थसे आचमन उत्तम माना गया है। पितरोंका तर्पण पितृतीर्थसे, देवताओंका देवतीर्थसे और प्रजापतिका कायतीर्थसे करना श्रेष्ठ बताया गया है। नान्दीमुखके पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण प्राजापत्य तीर्थसे करना चाहिये। विद्वान् पुरुष एक साथ जल और अग्नि न ले। गुरुजनों तथा देवताओंकी ओर पाँव न फैलाये। बछड़ेको दूध पिलाती हुई गायको न छेड़े। अञ्जलिसे पानी न पिये। शौचके समय विलम्ब न करे। मुखसे आग न फूंके। बेटा! जहाँ ऋण देनेवाला धनी, वैद्य, श्रोत्रिय ब्राह्मण तथा जलपूर्ण नदी-ये चार न हों, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये। जहाँ शत्रुविजयी, बलवान् और धर्मपरायण राजा हो, वहीं विद्वान् पुरुषको निवास करना चाहिये। दुष्ट राजाके राज्यमें सुख कहाँ। जहाँ दुर्धर्ष राजा, उपजाऊ भूमि, संयमी एवं न्यायशील पुरवासी और ईर्ष्या न करनेवाले लोग हों, वहींका निवास भविष्यमें सुखदायक होता है। जिस राष्ट्र में किसान बहुत हों, किन्तु वे अधिक भोगपरायण न हों तथा जहाँ सब तरहके अन्न पैदा होते हों, वहीं बुद्धिमान् पुरुषको रहना चाहिये। बेटा! जहाँ विजयका इच्छुक, पहलेका शत्रु तथा सदा उत्सव मनाने में ही लगे रहनेवाले लोग-ये तीन सदा रहते हों, वहाँ निवास न करे। विद्वान् पुरुषको ऐसे ही स्थानोंपर सदा निवास करना चाहिये, जहाँके सहवासी सुशील हों।


मदालसा कहती है- बेटा! अब त्याज्य और ग्राह्य वस्तुओंका प्रकरण आरम्भ करती हूँ, सुनो। घी अथवा तेलमें पका हुआ अन्न बहुत देरका बना हुआ अथवा बासी भी हो तो वह भोजन करने योग्य है। गेहूँ, जौ तथा गोरसकी बनी हुई वस्तुएँ तेल-घीमें न बनी हों तो भी वे पूर्ववत् ग्राह्य हैं।*

* भोज्यमन्नं पर्युषितं स्नेहाक्तं चिरसम्भृतम्।

अस्नेहाश्चापि गोधूमयवगोरसविक्रियाः॥

(३५।१-२)


शङ्ख, पत्थर, सोना, चाँदी, रस्सी, कपड़ा, साग, मूल, फल, विदल (बाँसके बने हुए टोकरे आदि), मणि, हीरा, मूंगा, मोती तथा मनुष्योंके शरीरकी शुद्धि जलसे होती है। लोहेके हथियारोंकी शुद्धि पानीसे धोने तथा पत्थर या सानपर रगड़नेसे होती है। जिस पात्रमें तेल या घी रखा गया हो, उसकी सफाई गरम जलसे होती है। सूप, धान्यराशि, मृगचर्म, मूसल, ओखली तथा कपड़ोंके ढेरकी शुद्धि जल छिड़कनेमात्रसे हो जाती है। वल्कल वस्त्र जल और मिट्टीसे शुद्ध होते हैं। तृण, काष्ठ और ओषधियोंकी शुद्धि जल छिड़कनेसे होती है। भेड़के ऊनसे बने कपड़े और केश यदि दोषयुक्त हो गये हों तो उनकी शुद्धि सरसों अथवा तिल की खली और जलसे होती है। इसी प्रकार रूईके बने कपड़े पानी और क्षारसे शुद्ध होते हैं। मिट्टीके बर्तन दुबारा पकानेसे शुद्ध होते हैं। भिक्षामें प्राप्त अन्न, कारीगरका हाथ, बाजारमें बिकनेके लिये आयी हुई शाक आदि वस्तुएँ, स्त्रियोंका मुख, गलीसे आयी हुई वस्तु, जिसके गुण-दोषका ज्ञान न हो-ऐसी वस्तु और सेवकोंकी लायी हुई चीज सदा शुद्ध मानी गयी है। जिसके शिशुने अभी दूध पीना नहीं छोड़ा हो, ऐसी स्त्री तथा दुर्गन्ध और बुदबुदोंसे रहित बहता हुआ जल स्वाभाविक शुद्ध है। समयानुसार अग्निसे तपाने, बुहारने, गायोंके चलने-फिरने, लीपने, जोतने और सींचनेसे भूमिकी शुद्धि होती है। बुहारनेसे और देवताओंकी पूजा करनेसे घर शुद्ध होता है।


जिस पात्रमें बाल या कीड़े पड़े हों, जिसे गायने सूंघ लिया हो तथा जिसमें मक्खियाँ पड़ी हों, उसकी शुद्धि राख और मिट्टीसे मलकर जलद्वारा धोनेसे होती है। ताँबेका बर्तन खटाईसे, राँगा और सीसा राखसे और काँसेके बर्तनोंकी शुद्धि राख और जलसे होती है। जिस पात्रमें कोई अपवित्र वस्तु पड़ गयी हो, उसे मिट्टी और जलसे तबतक धोये, जबतक कि उसकी दुर्गन्ध दूर न हो जाय। इससे वह शुद्ध होता है। पृथ्वीपर प्राकृतिक रूपसे वर्तमान जल, जिससे एक गायकी प्यास बुझ सके, शुद्ध माना गया है। गलीमें पड़ा हुआ वस्त्र वायुके लगनेसे शुद्ध होता है। धूल, अग्नि, घोड़ा, गाय, छाया, किरणें, वायु, जलके छींटे और मक्खी आदि-ये सब अशुद्ध वस्तुके संसर्गमें आनेपर भी शुद्ध ही रहते हैं। बकरे और घोड़ेका मुख शुद्ध माना गया है; किन्तु गायका नहीं। बछड़ेका मुख तथा माताका स्तन भी पवित्र बताया गया है। फल गिरानेमें पक्षीकी चोंच भी शुद्ध मानी गयी है। आसन, शय्या, सवारी, नाव और मार्गके तृण-ये सब बाजार में बिकनेवाली वस्तुओंकी तरह सूर्य और चन्द्रमाकी किरणों तथा वायुके स्पर्शसे शुद्ध होते हैं। गलियोंमें घूमने- फिरने, स्नान करने, छींक आने, पानी पीने, भोजन करने तथा वस्त्र बदलनेपर विधिपूर्वक आचमन करना चाहिये। अस्पृश्य वस्तुओंसे जिनका स्पर्श हो गया हो उनकी, रास्तेके कीचड़ और जलकी तथा ईंटकी बनी हुई वस्तुओंकी वायुके संसर्गसे शुद्धि होती है।

अनजानमें यदि दूषित अन्न भोजन कर ले तो तीन रात उपवास करे और यदि जान- बूझकर किया हो तो उसके दोषकी शान्तिके लिये प्रायश्चित्त करे। मनुष्यकी गीली हड्डीका स्पर्श करके स्नान करनेसे शुद्धि होती है और सूखी हड्डीका स्पर्श कर लेनेपर केवल आचमन करके गायका स्पर्श या सूर्यका दर्शन करनेसे मनुष्य शुद्ध हो सकता है। बुद्धिमान् पुरुष रक्त, खंखार तथा उबटनको न लाँघे और असमयमें उद्यान आदिके भीतर कदापि न ठहरे। लोकनिन्दित विधवा स्त्रीसे वार्तालाप न करे। गूंठन, मल-मूत्र और पैरोंके धोवनको घरसे बाहर फेंके। दूसरेके खुदाये हुए पोखरे आदिके जलमें पाँच लोंदा मिट्टी निकाले बिना स्नान न करे। देवतासम्बन्धी सरोवरों तथा गङ्गा आदि नदियोंमें सदा ही स्नान करे। देवता, पितर, उत्तम शास्त्र, यज्ञ और मन्त्र आदिकी निन्दा करनेवाले पुरुषोंसे स्पर्श और वार्तालाप करनेपर सूर्यके दर्शनसे शुद्धि होती है। रजस्वला स्त्री, अन्त्यज, पतित, मृतक, विधर्मी, प्रसूता स्त्री, नपुंसक, वस्त्रहीन, चाण्डाल, मुर्दा ढोनेवाले तथा परस्त्रीगामी पुरुषोंको देखकर विद्वान् पुरुषोंको इसी प्रकार सूर्यके दर्शनसे आत्मशुद्धि करनी चाहिये। अभक्ष्य पदार्थ, नवप्रसूता स्त्री, नपुंसक, बिलाव, चूहा, कुत्ता, मुर्गा, पतित, जाति-बहिष्कृत, चाण्डाल, मुर्दा ढोनेवाले, रजस्वला स्त्री, ग्रामीण सूअर तथा अशौचदूषित मनुष्योंको छू लेनेपर स्नान करनेसे शुद्धि होती है। जिसके घरमें प्रतिदिन नित्यकर्मकी अवहेलना होती हो तथा जिसे ब्राह्मणोंने त्याग दिया हो, वह नराधम महापापी है। नित्यकर्मका त्याग कभी न करे। उसे न करनेका बन्धन तो केवल जननाशौच और मरणाशौचमें ही है।१


१ नित्यस्य कर्मणो हानिं न कुर्वीत कदाचन।

तस्य त्वकरणे बन्धः केवलं मृतजन्मसु ॥

(३५। ३९)


अशौच प्राप्त होनेपर ब्राह्मण दस दिन, क्षत्रिय बारह दिन तथा वैश्य पंद्रह दिनोंतक दान-होम आदि कर्मोंसे अलग रहे। शूद्र एक मासतक अपना कर्म बंद रखे। तदनन्तर सब लोग अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करें।


मृतकको गाँवसे बाहर ले जाकर उसका दाह- संस्कार करनेके बाद समान गोत्रवाले भाई-बन्धुओंको पहले, चौथे, सातवें और नवें दिन प्रेतके लिये जल देना चाहिये तथा चौथे दिन उसकी चितासे राख और हड्डियोंका सञ्चय करना चाहिये। अस्थिसञ्चयके बाद उनका अङ्ग-स्पर्श किया जा सकता है। फिर समानोदक पुरुष अपने सब कर्म कर सकते हैं, किन्तु सपिण्ड लोग केवल स्पर्शके अधिकारी होते हैं। जिस दिन मृत्यु हुई हो, उस दिन समानोदक और सपिण्ड दोनोंका स्पर्श किया जा सकता है। वृक्ष, सर्प, गौ, दाढ़ोंवाले जीव, शस्त्र, जल, फाँसी, अग्नि, विष, पर्वत गिरने तथा उपवास आदिके द्वारा मृत्यु होनेपर अथवा बालक, परदेशी एवं परिव्राजककी मृत्यु होनेपर तत्काल अशौच निवृत्त हो जाता है तथा कुछ लोगोंका मत है कि तीन दिनोंतक अशौच रहता है। यदि सपिण्डोंमेंसे एककी मृत्यु होनेके बाद थोड़े ही दिनोंमें दूसरेकी भी मृत्यु हो जाय तो पहलेके अशौचमें जितने दिन बाकी हों उतने ही दिनोंके भीतर दूसरेका भी श्राद्ध आदि कर्म पूर्ण कर देना चाहिये। जननाशौचमें भी यही विधि देखी जाती है। सपिण्ड तथा समानोदक व्यक्तियोंमें एकके बाद दूसरेका जन्म होनेपर पहलेके ही साथ दूसरेका भी अशौच निवृत्त हो जाता है।*


* सपिण्डानां सपिण्डस्तु मृतेऽन्यास्मिन् मृतो यदि।

पूर्वाशौचसमाख्यातैः कार्या तस्य दिनैः क्रिया॥

एष एव विधिदृष्टो जन्मन्यपि हि सूतके।

सपिण्डानां सपिण्डेषु यथावत्सोदकेषु च ॥

(३५। ४७-४८)


पुत्रका जन्म होनेपर पिताको वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये। उसमें भी यदि एकके जन्मके बाद दूसरेका जन्म हो जाय तो पहले जन्मे हुए बालकके दिनपर ही दूसरेकी भी शुद्धि बतायी गयी है।*


* तत्रापि यदि चान्यस्मिञ्जाते जायेत चापरः।

तत्रापि शुद्धिरुद्दिष्टा पूर्वजन्मवतो दिनैः ॥

(३५। ५०)


लोकमें जो-जो वस्तु अधिक प्रिय हो तथा घरमें भी जो वस्तु अत्यन्त प्रिय जान पड़े, उसको अक्षय बनानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह उसे गुणवान् व्यक्तिको दे। अशौचके दिन पूरे हो जानेपर जल, वाहन, आयुध, चाबुक और दण्डका स्पर्श करके सब वर्गों के लोग पवित्र हो अपने-अपने वर्णधर्मका अनुष्ठान करें, क्योंकि वह इस लोक और परलोकमें भी कल्याण देनेवाला है। तीनों वेदोंका सर्वदा स्वाध्याय करे, विद्वान् बने। धर्मानुसार धनका उपार्जन करे और उसे यत्नपूर्वक यज्ञमें लगावे। जिस कर्मको करते समय अपने मनमें घृणा न हो और जिसे महापुरुषोंके सामने प्रकट करनेमें कोई संकोच न हो, ऐसा कर्म निःशङ्क होकर करना चाहिये। बेटा! ऐसे आचरणवाले गृहस्थ पुरुषको धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती है तथा इस लोक और परलोकमें भी उसका कल्याण होता है।


मातासे इस प्रकार उपदेश ग्रहण करके राजा ऋतध्वजके पुत्र अलर्कने युवावस्थामें विधिपूर्वक अपना विवाह किया। उससे अनेक पुत्र उत्पन्न हुए। उसने यज्ञोंद्वारा भगवान् का यजन किया और हर समय वह पिताकी आज्ञाका पालन करने में संलग्न रहता था। तदनन्तर बहुत समयके बाद बुढ़ापा आनेपर धर्मपरायण महाराज ऋतध्वजने अपनी पत्नीके साथ तपस्याके लिये वनमें जानेका विचार किया और पुत्रका राज्याभिषेक कर दिया।


उस समय मदालसाने अपने पुत्रकी विषयभोगविषयक आसक्तिको हटानेके लिये उससे यह अन्तिम वचन कहा- 'बेटा! गृहस्थ-धर्मका अवलम्बन करके राज्य करते समय यदि तुम्हारे ऊपर प्रिय बन्धुके वियोगसे, शत्रुओंकी बाधासे अथवा धनके नाशसे होनेवाला कोई असह्य दुःख आ पड़े तो मेरी दी हुई इस अंगूठीसे यह उपदेशपत्र निकालकर, जो रेशमी वस्त्रपर बहुत सूक्ष्म अक्षरोंमें लिखा गया है, तुम अवश्य पढ़ना; क्योंकि ममतामें बँधा रहनेवाला गृहस्थ दु:खोंका केन्द्र होता है। सुमति कहते हैं-यों कहकर मदालसाने अपने पुत्रको सोनेकी अंगूठी दी और गृहस्थ पुरुषके योग्य अनेकानेक आशीर्वाद भी दिये। तत्पश्चात् पुत्रको राज्य सौंपकर महाराज कुवलयाश्व और महारानी मदालसा तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये।



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