Hiranyagarbheshwar (ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठा के लिए काशी लाये गये शिवलिङ्ग को श्रीविष्णु द्वारा ब्रह्मा से छीन पुनः स्थापित कर भगवान रूद्र के प्रति अपनी परमाभक्ति को प्रदर्शित करना एवं उस लिंग का काशी में ब्रह्मा के हिरण्यगर्भ नाम से विख्यात हो ४२ महालिंगों में सुप्रतिष्ठित होना)

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Hiranyagarbheshwar
हिरण्यगर्भेश्वर

॥ नमो हिरण्यगर्भाय गर्भे यस्य पितामहः॥
हिरण्यगर्भ : वह ज्योतिर्मय अंड जिससे ब्रह्मा और सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है। ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं। ब्रह्म अव्यक्त अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है। ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं। हिरण्यगर्भ शब्द का अर्थ है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला। सोने का अंडा क्या है? सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है? पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य, सोने का अंडा है। उसके अंदर अभिमान करनेवाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। स्वर्ण आभा को पूर्ण शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा इसके साथ ही अरुणिमा सूर्य के उदित होने (जन्म) का संकेत है।
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (सूक्त ऋग्वेद -10-121-1)
  1. श्लोक अर्थ : जिसके गर्भ में यह सारा संसार बसता है, जो सब प्राणियों का सर्वाधार है और जिसने इस पृथ्वी और द्युलोक आदि को धारण किया है, हम उस परम शक्तिशाली ईश्वर को छोड़ कर और किसकी उपासना करें।
  2. श्लोक अर्थ : सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार जो जो जगत हो और होएगा उसका आधार परमात्मा जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्य़मान था। जिसने पृथ्वी और सूर्य-तारों का सृजन किया उस देव की प्रेम भक्ति किया करें।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः १००
स्नात्वा मंदाकिनी तीर्थे द्रष्टव्यो मध्यमेश्वरः । पश्येद्धिरण्यगर्भेशं तत्र तीर्थे कृतोदकः ॥५४॥
मंदाकिनी तीर्थ में स्नान के बाद मध्यमेश्वर के दर्शन करना चाहिए। तत्पश्चात हिरण्यगर्भेश तीर्थ में जलीय संस्कार करना चाहिए और उसे हिरण्यगर्भेश के दर्शन करना चाहिए। हिरण्यगर्भ तीर्थ त्रिलोचन घाट पर गंगा में डूबा हुआ है।
पद्मपुराण (स्वर्गखण्ड) - अध्यायः ३७
तत्र लिंगं पुराणीयं स्थातुं ब्रह्मा यथागतः । तदानीं स्थापयामास विष्णुस्तल्लिंगमैश्वरम् ॥१०॥
तत्र स्नात्वा समागम्य ब्रह्मा प्रोवाच तं हरिम् । मयानीतमिदं लिंगं कस्मात्स्थापितवानसि ॥११॥
तमाह विष्णुस्त्वत्तोऽपि रुद्रे भक्तिर्दृढा मम । तस्मात्प्रतिष्ठितं लिगं नाम्ना तव भविष्यति ॥१२॥
जब ब्रह्माजी, पूर्व में लिङ्ग की स्थापना करने के लिए काशी को आये थे, जब वे स्थापना से पूर्व स्नान को गये तो विष्णुजी ने भगवान (शिव) के उस लिंग की स्थापना (ब्रह्माजी से पूर्व ही) कर दिया था। वहां स्नान करके विष्णुजी के समीप आकर ब्रह्माजी ने कहा: "मैं यह लिंग लाया था, आपने इसे क्यों स्थापित किया?” विष्णु ने ब्रह्मा से कहा: “रुद्र के प्रति मेरी भक्ति आपकी अपेक्षा अधिक प्रबल है। इसलिए मैंने आपसे पूर्व ही इस लिंग को स्थापित कर दिया है। इसका नाम आपके (ब्रह्मा के) नाम पर ही रखा जाएगा।” 

ब्रह्मा का एक नाम हिरण्यगर्भ है। अर्थात लिंग का नाम हिरण्यगर्भेश्वर होगा, इसका प्रमाण लिंग पुराण से प्राप्त होता है...निचे श्लोकों को देखें...

लिङ्गपुराणम् / पूर्वभागः /अध्यायः ९२
॥ श्रीभगवानुवाच॥
ब्रह्मणा चापि संगृह्य विष्णुना स्थापितः पुनः। ब्रह्मणापि ततो विष्णुः प्रोक्तः संविग्नचेतसा ॥७३॥
मयानीतमिदं लिंगंकस्मात्स्थापितवानसि। तमुवाच पुनर्विष्णुर्ब्रह्मणं कुपिताननम् ॥७४॥
रुद्रे देवे ममात्यंतं परा भक्तिर्महत्तरा। मयैव स्थापितं लिंगंतव नाम्ना भविष्यति ॥७५॥
हिरण्यगर्भ इत्येवं ततोत्राहं समास्थितः। दृष्ट्वैनमपि देवेशं मम लोकं व्रजेन्नरः ॥७६॥
श्रीभगवान (शिव) ने कहा : मुझे (लिङ्ग रूप में) विष्णु ने ब्रह्मा से छीन कर पुनः स्थापित किया था। तब ब्रह्मा ने निराश मन से विष्णु को संबोधित किया “मेरे द्वारा लाये गये लिङ्ग को आपने कहां स्थापित किया है?” ब्रह्मा के मुखमण्डल पर क्रोध स्पष्ट था तब विष्णु ने ब्रह्मा से कहा : “भगवान रूद्र के प्रति मेरी परमभक्ति है। यद्यपि इस लिंग की स्थापना मेरे (विष्णु) द्वारा की गई है, किन्तु यह आपके (ब्रह्मा का एक नाम : हिरण्यगर्भ) नाम से ही जाना जाएगा।” अत: हिरण्यगर्भेश्वर नाम से इस स्थान पर मैं (शिव) अवस्थित हूँ। जो मनुष्य इन देवाधिदेव हिरण्यगर्भेश्वर का दर्शन करता है, उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।

नारदपुराणम्-_उत्तरार्धः/अध्यायः_५०

तस्मिन्स्थाने नरः स्नातः साक्षाद्वागीश्वरो भवेत् ॥ शिवस्तत्र समानीय स्थापितः परमेष्ठिना ॥५१ ॥

ब्रह्मणश्चापि संगृह्य विष्णुना स्थापितः पुनः ॥ हिरण्यगर्भ इत्येवं नाम्ना तत्र स्थितः शिवः ॥५२ ॥

पुनश्चापि ततो ब्रह्मा स्वर्लोकेश्वरसंज्ञकम् ॥ स्थापयामास वै लिंगं स्वर्लीलं कारणे क्वचित् ॥५३ ॥

दृष्ट्वा वै तं तु देवेशं शिवलोके महीयते ॥ प्राणानिह पुनस्त्यक्त्वा न पुनर्जायते क्वचित् ॥५४ ॥

अनंता सा गतिस्तस्य योगिनामेव या स्मृता ॥ अस्मिन्नेव महीदेशे दैत्यो दैवतकंटकः ॥५५ ॥


॥ हिरण्यगर्भसूक्तम् ॥

ऋग्वेदसंहितायां दशमं मण्डलं, एकविंशत्युत्तरशततमं सूक्तम् ।

ऋषिः हिरण्यग्रभः प्रजापतिपत्यः, देवता कः (प्रजापति),

छन्दः १, ३, ६, ८, ९ त्रिष्टुप्, २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्, ४, १० विराट्त्रिष्टुप्, ७ स्वराट्त्रिष्टुप्, स्वरः धैवतः ॥

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् । स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥१॥

य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः । यस्य॑ छा॒यामृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥२॥

यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ । य ईशे॑ अ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥३॥

यस्ये॒मे हि॒मव॑न्तो महि॒त्वा यस्य॑ समु॒द्रं र॒सया॑ स॒हाहुः । यस्ये॒माः प्र॒दिशो॒ यस्य॑ बा॒हू कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥४॥

येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ दृ॒ळ्हा येन॒ स्वः॑ स्तभि॒तं येन॒ नाकः॑ । यो अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥५॥

यं क्रन्द॑सी॒ अव॑सा तस्तभा॒ने अ॒भ्यैक्षे॑तां॒ मन॑सा॒ रेज॑माने । यत्राधि॒ सूर॒ उदि॑तो वि॒भाति॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥६॥

आपो॑ ह॒ यद्बृ॑ह॒तीर्विश्व॒माय॒न्गर्भं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर॒ग्निम् । ततो॑ दे॒वानां॒ सम॑वर्त॒तासु॒रेकः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥७॥

यश्चि॒दापो॑ महि॒ना प॒र्यप॑श्य॒द्दक्षं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर्य॒ज्ञम् । यो दे॒वेष्वधि॑ दे॒व एक॒ आसी॒त्कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥८॥

मा नो॑ हिंसीज्जनि॒ता यः पृ॑थि॒व्या यो वा॒ दिवं॑ स॒त्यध॑र्मा ज॒जान॑ । यश्चा॒पश्च॒न्द्रा बृ॑ह॒तीर्ज॒जान॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥९॥

प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ जा॒तानि॒ परि॒ ता ब॑भूव । यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥१०॥

 हिरण्यगर्भ सूक्त हिंदी भावार्थ सहित

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥ स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥

भावार्थ: हे देव! सूर्य आदि सभी तेजोमय पदार्थ आप में ही निहित है। आप सृष्टि के नियामक है। आप ही पृथ्वी, आकाश आदि लोकों के आधार है। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः॥ यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ २ ॥

भावार्थ: हे देव! आप आत्म ज्ञान,आत्मशक्ति और पुरुषार्थ चतुष्ट्य के प्रदाता है। समस्त विश्व आपकी उपासना करता है। आपका आश्रय परम सुख देने वाला है। आपसे विमुख होना मृत्यु का आमंत्रण है। आपकी कृपा अमृतत्व प्रदान करने वाला है। आप हमारी रक्षा करें।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव॥ यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ३ ॥

भावार्थ: हे देव! आप अपने महान सामर्थ्य से ही समस्त चराचर जगत् के एकमात्र अधिपति और पोषक हैं। आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः॥ यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ४ ॥

भावार्थ: जिसके (महिमा) महत्त्व को ये हिमालय पर्वत, नदी के साथ समुद्र भी वर्णन करते हुए से लगते हैं, जिसकी ये सब चारों ओर की दिशाएँ भुजाओं जैसी-फैली हुयी हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः॥ यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५ ॥

भावार्थ : हे देव! आपने ही द्युलोक को प्रकाशित किया है। आपने ही पृथ्वी आदि लोकों को सुस्थिर किया है। आपने ही समस्त लोकों का निर्माण किया है। आप आनंद स्वरूप हैं। हम आपके इस विराट स्वरूप को प्रणाम करते हैं।

यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने॥ यत्राधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ६ ॥

भावार्थ : आपने ही द्युलोक और पृथिवीलोक को आमने-सामने स्तम्भित (स्थिर) कर रखा है जिसके आधार पर सूर्य उदय (प्रकाशित) होता है ऐसे ईश्वर की हम अभ्यर्थना करते हैं।

आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम्॥ ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥

भावार्थ : जब सारा संसार जल में निमग्न था। उस समय सृष्टि के आरम्भ में परमाणु प्रवाह आग्नेय तत्त्व को अपने अन्दर धारण करता हुआ प्रकट होता है, तब समस्त देवों का प्राणभूत एक देव परमात्मा वर्त्तमान था ऐसे हिरण्यगर्भ रूप की हम अभ्यर्थना करते हैं।

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्॥ यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८ ॥

भावार्थ : हे देव! महा जलराशि में आपने अपने महत्त्व से सृष्टियज्ञ को-प्रकट करने के हेतु, बल वेग धारण करते हुए अप्तत्त्व-परमाणुओं को जो सब ओर से देखता है जानता है, जो सब देवों के ऊपर अधिष्ठाता होकर वर्त्तमान है, उस देव की हम अभ्यर्थना करते हैं।

मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान॥ यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ९ ॥

भावार्थ : जिस परमात्मा ने पृथिवीलोक, द्युलोक, चन्द्रताराओं से भरा मन भानेवाला अन्तरिक्ष उत्पन्न किया है, हम उनकी अभ्यर्थना करते हैं।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव॥ यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥ १० ॥

भावार्थ: हे देव! आप भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालों में व्याप्त हैं। समस्त जड़-चेतन में आप ही व्याप्त हैं। आप सर्वोपरि हैं। आप ही सकल ऐश्वर्य के स्वामी हैं। हम अपनी सुख-समृद्धि के लिए आपकी उपासना करते हैं। हमारी कामना पूर्ण हो।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ इति: हिरण्यगर्भः सूक्तम्॥


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हिरण्यगर्भेश्वर त्रिलोचन घाट की ऊपर जाती हुई सीढ़ियों पर स्थित है।
Hiranyagarbheshwar is situated on the steps leading up to the Trilochan Ghat.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                        

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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