Kirateshwar
किरातेश्वर - ६८ आयतन लिंग
काशीखण्डः अध्यायः ६९
किराताच्च किरातेश इहचाविर्बभूव ह । किरातरूपो भगवान्यत्र देवोऽभवत्पुरा ॥१५७॥
तत्किरातेश्वरं लिंगं भारभूतेश्वरादनु । नमस्कृत्य नरो जातु न मातुरुदरेशयः ॥१५८॥
किरात नामक पवित्र स्थान से, जहां पूर्व में भगवान शिव एक किरात (शिकारी) बने थे, किरातेश्वर यहां प्रकट हुए हैं। मनुष्य को भारभूतेश्वर के पीछे उस किरातेश्वर लिंग को प्रणाम करना चाहिए। उसके पश्चात वह कभी माँ के गर्भ का दर्शन नहीं करेगा।
शिवपुराणम्/संहिता३(शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः४१
तमागतन्ततो दृष्ट्वा ध्यानं कृत्वा शिवस्य सः ॥ गत्वा तत्रार्जुनस्तेन युद्धं चक्रे सुदारुणम् ॥१॥
गणैश्च विविधैस्तीक्ष्णैरायुधैस्तं न्यपीडयत् ॥ तैस्तदा पीडितः पार्थः सस्मार स्वामिनं शिवम् ॥२॥
अर्जुनश्च तदा तेषां बाणावलिमथाच्छिनत् ॥ यदायुद्धं च तैः क्षिप्तं ततः शर्वं परामृशत् ॥३॥
पीडितास्ते गणास्तेन ययुश्चैव दिशो दश ॥ गणेशा वारितास्ते च नाजग्मुस्स्वामिनम्प्रति ॥४॥
शिवश्चैवार्जुनश्चैव युयुधाते परस्परम् ॥ नानाविधैश्चायुधैर्हि महाबलपराक्रमौ ॥५॥
शिवोऽपि मनसा नूनं दयां कृत्वार्जुनं ह्यगात् ॥ अर्जुनश्च दृढं तत्र प्रहारं कृतवांस्तदा ॥ ६ ॥
आयुधानि शिवस्सो वै ह्यर्जुनस्याच्छिनत्तदा ॥ कवचानि च सर्वाणि शरीरं केवलं स्थितम्॥ ७ ॥
तदार्जुनः शिवं स्मृत्वा मल्लयुद्धं चकार सः ॥ वाहिनीपतिना तेन भयात्क्लिष्टोपि धैर्यवान् ॥८॥
तद्युद्धेन मही सर्वा चकंपे ससमुद्रका ॥ देवा दुःखं समापन्नः किं भविष्यति वा पुनः ॥९॥
एतस्मित्रंतरे देवः शिवो गगनमास्थितः ॥ युद्धं चकार तत्रस्थस्सोर्जुनश्च तथाऽकरोत्॥१०॥
उड्डीयोड्डीय तौ युद्धं चक्रतुर्देवपार्थिवौ॥ देवाश्च विस्मयं प्रापू रणं दृष्ट्वा तदाद्भुतम् ॥११॥
अथार्जुनोत्तरे ज्ञात्वा स्मृत्वा शिवपदांबुजम्॥ दधार पादयोस्तं वै तद्ध्यानादाप्तसद्बलः ॥१२॥
धृत्वा पादौ तदा तस्य भ्रामयामास सोर्जुनः ॥ विजहास महादेवो भक्तवत्सल ऊतिकृत् ॥१३॥
दातुं स्वदासतां तस्मै भक्तवश्यतया मुने ॥ शिवेनैव कृतं ह्येतच्चरितन्नान्यथा भवेत् ॥१४॥
पश्चाद्विहस्य तत्रैव शंकरो रूपम द्भुतम् ॥ दर्शयामास सहसा भक्तवश्यतया शुभम् ॥ १५ ॥
यथोक्तं वेदशास्त्रेषु पुराणे पुरुषोत्तमम्॥ व्यासोपदिष्टं ध्यानाय तस्य यत्सर्वसिद्धिदम् ॥ १६ ॥
तद्दृष्ट्वा सुंदरं रूपं ध्यानप्राप्तं शिवस्य तु ॥ बभूव विस्मितोतीव ह्यर्जुनो लज्जितः स्वयम् ॥ १७ ॥
अहो शिवश्शिवस्सोय यो मे प्रभुतया वृतः ॥ त्रिलोकेशः स्वयं साक्षाद्धा कृतं किं मयाऽधुना ॥ १८॥
प्रभोर्बलवती माया मायिनामपि मोहिनी ॥ किं कृतं रूपमाच्छाद्य प्रभुणा छलितो ह्यहम् ॥ १९ ॥
धियेति संविचार्य्यैव साञ्जलिर्नतमस्तकः ॥ प्रणनाम प्रभुं प्रीत्या तदोवाच स खिन्नधीः ॥२०॥
नन्दीश्वर बोले- सेना के साथ किरातेश्वर को युद्ध के लिये आया देखकर शिवजी का ध्यान करते हुए अर्जुन ने वहाँ जाकर उसके साथ भयंकर युद्ध किया। उस भीलराज ने अपने अनेक गणों तथा तीक्ष्ण शस्त्रों के द्वारा अर्जुन को अत्यधिक पीड़ित किया। तब उनसे पीड़ित हुए अर्जुन अपने इष्टदेव शिव का स्मरण करने लगे। अर्जुन ने शत्रुओं के सारे बाण काट डाले। जब गणोंने युद्ध करना छोड़ दिया, तो अर्जुन ने [किरातवेषधारी] शिवजी को ललकारा। अर्जुन से पीड़ित गण दसों दिशाओं में भागने लगे। यद्यपि किरातपति ने उन गणस्वामियों को ऐसा करने से रोका, किंतु वे अपने स्वामी के बुलानेपर भी नहीं लौटे तब महाबली एवं पराक्रमी अर्जुन और शिवजी ने नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों से परस्पर युद्ध किया। यद्यपि शिवजी दया करते हुए अर्जुन के पास गये, किंतु अर्जुन ने निर्दयतापूर्वक शिव पर प्रहार किया। तदनन्तर शिवजी ने अर्जुन के समस्त शस्त्र अस्त्रों को काट डाला और कवचों को भी छिन्न-भिन्न कर दिया; केवल उनका शरीर शेष रह गया। तब धैर्यशाली उन अर्जुन ने भय से व्यथित होते हुए भी शिवजी का स्मरण कर वाहिनीपति के साथ मल्लयुद्ध करना प्रारम्भ किया। उन दोनों के संग्राम को देखकर सागर सहित पृथ्वी काँप रही थी और देवता दुखी हो रहे थे कि अब और क्या होनेवाला है? इसी बीच में शिवजी ऊपर जाकर आकाश में स्थित हो युद्ध करने लगे और अर्जुन भी उसी प्रकार आकाश में स्थित हो युद्ध करने लगे। इस प्रकार शिव एवं अर्जुन दोनों ही उड़-उड़कर आकाश में जब युद्ध कर रहे थे, तब उस अद्भुत युद्ध को देखकर देवगण विस्मित हो रहे थे। उसके पश्चात् अर्जुन ने उन्हें अपने से अधिक बलवान् जानकर शिवजी के चरणोंका स्मरण कर तथा उनके ध्यान से विशेष बल प्राप्त कर भील के दोनों चरणों को पकड़ लिया। ज्यों ही चरण पकड़कर अर्जुन उन्हें आकाश में घुमाने लगे, तभी लीला करने वाले भक्तवत्सल भगवान् शिव हँस पड़े। हे मुने! भक्त के अधीन रहने वाले शिवजी ने अर्जुन को अपना दास्य प्रदान करनेके लिये जो यह चरित्र किया, वह अन्यथा कैसे हो सकता है। इसके बाद भक्तवश्यता के कारण शिवजी ने हँसकर अपना अद्भुत सुन्दर रूप अर्जुन के सामने प्रकट किया। हे पुरुषोतम वेद-शास्त्रों तथा पुराणों में उनके जिस रूप का वर्णन है और व्यासजी ने अर्जुन को ध्यान के लिये जिस रूप का उपदेश दिया था, जिसके दर्शनमात्र से सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। [ उसी प्रकारका रूप धारणकर शिवजी प्रकट हुए] अर्जुन जिस रूपका ध्यान करते थे, उसी सुन्दर रूप को अपने सामने प्रत्यक्ष प्रकट देखकर वे अत्यन्त विस्मित तथा लज्जित हो उठे और मन में कहने लगे-अहो! यह तो परम कल्याणकारी शिवजी ही हैं, जिन्हें मैंने अपना स्वामी स्वीकार किया है। ये तो स्वयं त्रिलोकी के साक्षात् ईश्वर हैं यह मैंने आज क्या कर डाला! निश्चय ही भगवान् शिव की माया वही बलवती है, जो बड़े-बड़े मायाविदों को मोह लेती है। इन्होंने अपना रूप छिपाकर मेरे साथ इस प्रकार का छल क्यों किया; निश्चय ही मैं इनके द्वारा छला गया हूँ। इस प्रकार अपने मन में विचारकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर और खिन्न मन से भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उनसे कहा-
॥ अर्जुन उवाच ॥
देवदेव महादेव करुणाकर शंकर॥ ममापराधः सर्वेश क्षन्तव्यश्च त्वया पुनः ॥२१॥
किं कृतं रूपमाच्छाद्य च्छलितोऽस्मि त्वयाधुना ॥ धिङ् मां समरकर्तारं स्वामिना भवता प्रभो॥२२॥
अर्जुन बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! हे सर्वेश! मैं आपका अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिये। हे प्रभो! इस समय आपने यह क्या किया, जो अपना रूप छिपाकर मुझसे छल किया। हे प्रभो ! आप जैसे स्वामी से युद्ध करते हुए मुझे लज्जा नहीं आयी; मुझको धिक्कार है!
॥ नन्दीश्वर उवाच॥
इत्येवं पाण्डवस्सोथ पश्चात्तापमवाप सः ॥ पादयोर्निपपाताशु शंकरस्य महाप्रभोः ॥२३॥
अथेश्वरः प्रसन्नात्मा प्रत्युवाचार्जुनं च तम् ॥ समाश्वास्येति बहुशो महेशो भक्तवत्सलः ॥ २४ ॥
नन्दीश्वर बोले – [हे सनत्कुमार!] इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन पश्चात्ताप करने लगे और तत्काल महाप्रभु शिवजी के चरणों में शीघ्र गिर पड़े। तदनन्तर भक्तवत्सल महेश्वर ने प्रसन्न होकर अर्जुन को अनेक प्रकार से आश्वासन दिया और उनसे कहा-
॥ शंकर उवाच ॥
न खिद्य पार्थ भक्तोसि मम त्वं हि विशेषतः॥ परीक्षार्थं मया तेऽद्य कृतमेवं शुचञ्जहि ॥ २५ ॥
शिवजी बोले- हे पार्थ! तुम खेद मत करो, तुम मेरे प्रिय भक्त हो मैंने यह सारी लीला तुम्हारी परीक्षा के लिये की थी, तुम शोक का परित्याग कर दो।
॥ नंदीश्वर उवाच ॥
इत्युक्त्वा तं स्वहस्ताभ्यामुत्थाप्य प्रभुरर्जुनम् ॥ विलज्जं कारयामास गणैश्च स्वामिनो गणैः ॥ २६ ॥
पुनश्शिवोऽर्जुनम्प्राह पाण्डवं वीरसम्मतम् ॥ हर्षयन् सर्वथा प्रीत्या शंकरो भक्तवत्सलः ॥ २७॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर प्रभु सदाशिव ने स्वयं अपने हाथों से अर्जुनको उठाया और स्वामी [शिवजी] के जैसे गुणों वाले गणों द्वारा उन [अर्जुन] की लज्जा दूर करायी। उसके अनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शिव वीरों में माननीय पाण्डुपुत्र अर्जुन को प्रीति से पूर्णतः हर्षित करते हुए कहने लगे-
॥ शिव उवाच ॥
हे पार्थ पाण्डवश्रेष्ठ प्रसन्नोस्मि वरं वृणु ॥ प्रहारैस्ताडनैस्तेऽद्य पूजनम्मानितम्मया ॥ २८ ॥
इच्छया च कृतं मेऽद्य नापराधस्तवाधुना ॥ नादेयं विद्यते तुभ्यं यदिच्छसि वृणीष्व तत्॥२९॥
ते शत्रुषु यशोराज्यस्थापनाय शुभं कृतम् ॥ एतद्दुःखं न कर्तव्यं वैक्लव्यं च त्यजाखिलम् ॥३०॥
शिवजी बोले- हे पाण्डवश्रेष्ठ! हे पृथापुत्र अर्जुन! मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो। मैंने तुम्हारे द्वारा आज किये गये प्रहारों एवं सन्ताड़नों को अपनी पूजा मान ली है। आज यह सब मैंने अपनी इच्छा से किया है, इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, मुझे तुम्हारे लिये इस समय कुछ भी अदेय नहीं है, तुम जो चाहते हो, उसे माँग लो। मैंने शत्रुओं में तुम्हारा यश तथा राज्य प्रतिष्ठित करने के लिये [ही यह ] कल्याणकर [कृत्य] किया है। तुम इस घटना के लिये दुःख न मानो और अपनी सारी विकलता का त्याग करो।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तेन प्रभुणा शंकरेण सः॥ उवाच शंकरं भक्त्या सावधानतया स्थितः ॥३१॥
नन्दीश्वर बोले- प्रभु शंकरजी के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर अर्जुन सावधान होकर भक्तिपूर्वक शिवजी से कहने लगे -
॥ अर्जुन उवाच ॥
भक्तप्रियस्य शम्भोस्ते सुप्रभो किं समीहितम्॥ वर्णनीयं मया देव कृपालुस्त्वं सदाशिव ॥ ३२ ॥
इत्युक्त्वा संस्तुतिं तस्य शंकरस्य महाप्रभोः ॥ चकार पाण्डवस्सोथ सद्भक्तिं वेदसंमताम् ॥३३॥
अर्जुन बोले- हे प्रभो! आप भक्तप्रिय हैं, आपकी इच्छा का वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ। हे सदाशिव आप कृपालु हैं। इस प्रकार कहकर वे पाण्डुपुत्र अर्जुन महाप्रभु सदाशिवकी वेदसम्मत तथा सद्भक्तियुक्त स्तुति करने लगे।
॥ अर्जुन उवाच॥
नमस्ते देवदेवाय नमः कैलासवासिने ॥ सदाशिव नमस्तुभ्यं पञ्चवक्त्राय ते नमः ॥३४॥
कपर्दिने नमस्तुभ्यन्त्रिनेत्राय नमोऽस्तु ते॥ मनः प्रसन्नरूपाय सहस्रवदनाय च ॥ ३५ ॥
नीलकंठ नमस्तेस्तु सद्योजाताय वै नमः ॥ वृषध्वज नमस्तेस्तु वामांगगिरिजाय च॥३६॥
दशदोष नमस्तुभ्यन्नमस्ते परमात्मने ॥ डमरुकपालहस्ताय नमस्ते मुण्डमालिने ॥ ३७ ॥
शुद्धस्फटिकसंकाशशुद्धकर्पूरवर्ष्मणे ॥ पिनाकपाणये तुभ्यन्त्रिशूलवरधारिणे ॥३८॥
व्याघ्रचर्मोत्तरीयाय गजाम्बरविधारिणे ॥ नागांगाय नमस्तुभ्यं गंगाधर नमोस्तु ते॥ ३९ ॥
सुपादाय नमस्तेऽस्तु आरक्तचरणाय च ॥ नन्द्यादिगणसेव्याय गणेशाय च ते नमः ॥ 3.41.४० ॥
नमो गणेशरूपाय कार्तिकेयानुगाय च ॥ भक्तिदाय च भक्तानां मुक्तिदाय नमोनमः ॥ ४१ ॥
अगुणाय नमस्तेस्तु सगुणाय नमोनमः ॥ अरूपाय सरूपाय सकलायाकलाय च ॥ ४२ ॥
नमः किरातरूपाय मदनुग्रहकारिणे ॥ युद्धप्रियाय वीराणां नानालीलानुकारिणे ॥ ४३ ॥
यत्किंचिद्दृश्यते रूपन्तत्तेजस्तावकं स्मृतम् ॥ चिद्रूपस्त्वं त्रिलोकेषु रमसेन्वयभेदतः ॥ ४४ ॥
गुणानान्ते न संख्यास्ति यथा भूरजसामिह ॥ आकाशे तारकाणां हि कणानां वृष्ट्यपामपि॥४५॥
न ते गुणास्तु संख्यातुं वेदा वै सम्भवन्ति हि ॥ मन्दबुद्धिरहं नाथ वर्णयामि कथम्पुनः ॥४६॥
सोसि योसि नमस्तेऽस्तु कृपां कर्तुमिहार्हसि॥ दासोहं ते महेशान स्वामी त्वं मे महेश्वर॥४७॥
अर्जुन बोले- हे देवाधिदेव! आपको नमस्कार है। कैलासवासी आपको नमस्कार है, सदाशिव! आपको नमस्कार है, पाँच मुखवाले आपको नमस्कार है। जटाजूटधारी आपको नमस्कार है, त्रिनेत्र आपको नमस्कार है, प्रसन्न स्वरूपवाले आपको नमस्कार है। सहस्रमुख आपको नमस्कार है। हे नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। सद्योजातरूप आपके लिये नमस्कार है। हे वृषभध्वज! आपको नमस्कार है, वामभाग में पार्वती को धारण करने वाले आपको नमस्कार है। दस भुजावाले आपको नमस्कार है, परमात्मन्! आपको नमस्कार है, हाथ में डमरू तथा कपाल लेने वाले आपको नमस्कार है, मुण्डमालाधारी आपको नमस्कार है। शुद्ध स्फटिक तथा शुद्ध कपूरक समान उज्ज्वल गौर वर्णवाले आपको नमस्कार है। पिनाक नामक धनुष एवं श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करने वाले आपको नमस्कार है। व्याघ्र चर्म का उत्तरीय तथा गजचर्म का वस्त्र धारण करने वाले आपको नमस्कार है। सर्प से आवेष्टित अंगों वाले तथा सिर पर गंगा को धारण करने वाले आपको नमस्कार है। सुन्दर पैरवाले आपको नमस्कार है। अरुणाभ चरणों वाले आपको नमस्कार है। नन्दी आदि प्रमुख गणों से सेवित आपको नमस्कार है। गणेशरूप आप को नमस्कार है। कार्तिकेय के अनुगामी आपको नमस्कार है, भक्तोंको भक्ति देनेवाले तथा [मुमुक्षुओं को] मुक्ति देने वाले आपको नमस्कार है। गुणरहित आपको नमस्कार है, सगुणरूपधारी आपको नमस्कार है। अरूप, सरूप, सकल एवं अकल आपको नमस्कार है। किरातरूप धारणकर मुझपर अनुग्रह करनेवाले, वीरोंसे प्रीतिपूर्वक युद्ध करने वाले एवं [नट की भाँति] अनेक प्रकार की लीला दिखाने वाले आपको नमस्कार है। इस त्रिलोकी में जो भी रूप दिखायी देता है, वह आपका ही तेज कहा गया है। आप ज्ञानस्वरूप और शरीर भेद से रमण करते हैं। हे प्रभो! जिस प्रकार संसार में पृथ्वी के रजकण, आकाश के तारे तथा वृष्टि को बूँदें असंख्य हैं, उसी प्रकार आपके गुण भी असंख्य हैं। हे नाथ! आपके गुणों की गणना करने में तो वेद भी असमर्थ हैं, मैं तो मन्दबुद्धि ही हूँ। आपके गुणों का वर्णन कैसे करूँ? हे महेश्वर! आप जो हैं,सो हैं, आपको नमस्कार है। हे महेशान मैं आपका सेवक हूँ, आप मेरे स्वामी हैं, अतः मुझ पर कृपा कीजिये।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इति श्रुत्वा वचस्तस्य पुनः प्रोवाच शंकर ॥ सुप्रसन्नतरो भूत्वा विहसन्प्रभुरर्जुनम् ॥४८॥
नन्दीश्वर बोले- अर्जुन के द्वारा की गयी स्तुति को सुनकर परम प्रसन्न हुए भगवान् सदाशिव ने हँसकर अर्जुनसे फिर कहा-
॥ शंकर उवाच॥
वचसा किम्बहूक्तेन शृणुष्व वचनम्मम ॥ शीघ्रं वृणु वरम्पुत्र सर्वन्तच्च ददामि ते ॥४९॥
शिवजी बोले- हे पुत्र! बारंबार कहने से क्या प्रयोजन, मेरी बात सुनो तुम शीघ्र ही मुझ से वर माँगो, मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा।
॥ नन्दीश्वर उवाच॥
इत्युक्तश्चार्जुनस्तेन प्रणिपत्य सदाशिवम् ॥ साञ्जलिर्नतकः प्रेम्णा प्रोवाच गद्गदाक्षरम् ॥ ५० ॥
नन्दीश्वर बोले- शिवजी का यह वचन सुनकर अर्जुन ने सदाशिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सिर झुका करके प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे कहा-
॥ अर्जुन उवाच ॥
किं ब्रूयां त्वं च सर्वेषामन्तर्यामितया स्थितः ॥ तथापि वर्णितं मेऽद्य श्रूयतां च त्वया विभो ॥५१॥
शत्रूणां संकटं यच्च तद्गतन्दर्शनात्तव॥ ऐहिकीं च परां सिद्धिम्प्राप्नुयां वै तथा कुरु ॥ ५२ ॥
अर्जुन बोले- हे प्रभो! आप तो सबके अन्तःकरण में अन्तर्यामीरूप से स्थित हैं, अतः आप से क्या कहूँ आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी मैं आपसे जो प्रार्थना करता हूँ उसे सुनिये आपके दर्शन से शत्रुओं से उत्पन्न होने वाला जो मेरा संकट था, वह दूर हो गया। अब मैं जिस प्रकार इस लोक में सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करूँ, वैसा उपाय कीजिये।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्युक्त्वा तं नमस्कृत्य शंकरम्भक्तवत्सलम् ॥ नतस्कन्धोऽर्जुनस्तत्र बद्धाञ्जलिरुपस्थितः ॥ ५३ ॥
शिवोपि च तथाभूतञ्ज्ञात्वा पाण्डवमर्जुनम् ॥ निजभक्तवरं स्वामी महातुष्टो बभूव ह ॥ ५४ ॥
अस्त्रम्पाशुपतं स्वीयन्दुर्जयं सर्वदाखिलैः ॥ ददौ तस्मै महेशानो वचनश्चेदमब्रवीत् ॥ ५५ ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर विनम्र हो हाथ जोड़कर अर्जुन नमस्कार करके भक्तवत्सल भगवान् शिव के सन्निकट स्थित हो गये। स्वामी शिवजी भी पाण्डुपुत्र अर्जुन को इस प्रकार अपना परमभक्त जानकर बहुत सन्तुष्ट हो गये। उन्होंने प्रसन्न होकर सभी के लिये सर्वदा दुर्जेय अपना पाशुपत अस्त्र अर्जुन को प्रदान किया और यह वचन कहा-
॥ शिव उवाच ॥
स्वं महास्त्रम्मया दत्तन्दुर्जयस्त्वम्भविष्यति ॥ अनेन सर्वशत्रूणां जयकृत्यमवाप्नुहि ॥ ५६ ॥
कृष्णं च कथयिष्यामि साहाय्यन्ते करिष्यति ॥ स वै ममात्मभूतश्च मद्भक्तः कार्य्यकारकः ॥ ५७ ॥
मत्प्रभावान्भारत त्वं राज्यन्निकण्टकं कुरु ॥ धर्म्यान्नानाविधान्भ्रात्रा कारय त्वं च सर्वदा ॥ ५८ ॥
शिवजी बोले- मैंने अपना यह महान् पाशुपत अस्त्र तुम्हें प्रदान किया। हे अर्जुन! तुम इससे दुर्जेय हो जाओगे, तुम इस अस्त्र की सहायता से शत्रुओंपर विजय प्राप्त करो। मैं स्वयं श्रीकृष्ण से कहूँगा कि वे तुम्हारी सहायता करें। वे मेरे भक्त तथा मेरी आत्मा हैं और कार्य करने में सर्वथा समर्थ है। हे भारत! अब तुम मेरे प्रभाव से निष्कण्टक राज्य करो और अपने भ्राता युधिष्ठिर से सर्वदा नाना प्रकार का धर्माचरण कराते रहो।
॥ नन्दीश्वर उवाच ॥
इत्युक्त्वा निजहस्तं च धृत्वा शिरसि तस्य सः ॥ पूजितो ह्यर्जुनेनाशु शंकरोन्तरधीयत ॥ ५९ ॥
अथार्जुनः प्रसन्नात्मा प्राप्यास्त्रं च वरं प्रभोः ॥ जगाम स्वाश्रमे मुख्यं स्मरन्भक्त्या गुरुं शिवम् ॥ ६० ॥
सर्व्वे ते भ्रातरः प्रीतास्तन्वः प्राणमिवागतम् ॥ मिलित्वा तं सुखं प्रापुर्द्रौपदी चाति सुव्रता ॥ ६१ ॥
शिवं परं च सन्तुष्टम्पाण्डवाः सर्व एव हि ॥ नातृप्यन्सर्ववृत्तान्तं श्रुत्वा हर्षमुपागताः ॥ ६२ ॥
आश्रमे पुष्पवृष्टिश्च चन्दनेन समन्विता ॥ पपात सुकरार्थं च तेषाञ्चैव महात्मनाम् ॥६३॥
धन्यं च शंकरं चैव नमस्कृत्य शिवम्मुदा ॥ अवधिं चागतं ज्ञात्वा जयश्चैव भविष्यति ॥ ६४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णश्श्रुत्वार्जुनमथागतम्॥ मेलनाय समायातश्श्रुत्वा सुखमुपागतः ॥६५॥
अतश्चैव मयाख्यातः शंकरः सर्वदुःखहा ॥ स सेव्यते मया नित्यं भवद्भिरपि सेव्यताम् ॥ ६६ ॥
इत्युक्तस्ते किराताह्वोवतारश्शंकस्य वै ॥ तं श्रुत्वा श्रावयन्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात्॥६७॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर उन शिव ने अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रखा और उनसे पूजित होकर वे तत्काल अन्तर्धान हो गये और प्रसन्न मन वाले अर्जुन भी प्रभु से श्रेष्ठ पाशुपतास्त्र प्राप्त कर भक्तिपूर्वक गुरुवर शिवजी का स्मरण करते हुए अपने आश्रमको चले गये। जिस प्रकार शरीर में पुनः प्राण आ जाता है, उसी प्रकार अर्जुन को आया देख सभी भाई प्रसन्न हो गये और पतिव्रता द्रौपदी को भी अर्जुन के दर्शन से सुख की प्राप्ति हुई। सभी पाण्डव परमात्मा शिवजी को प्रसन्न जानकर आनन्दित हो गये तथा अर्जुन से सारा समाचार सुनकर भी तृप्त नहीं हुए। उस समय उन महात्मा पाण्डवों के आश्रम में उनका मंगल प्रदर्शित करने के लिये चन्दनयुक्त फूलों की वर्षा होने लगी। उन लोगों ने भगवान् शंकर को धन्य धन्य कहते हुए आनन्द के साथ नमस्कार किया और अपने वनवास की अवधि को समाप्त जानकर यह समझ लिया कि अब अवश्य ही हमलोगों की विजय होगी। इसी समय अर्जुन को आश्रमपर आया हुआ जानकर श्रीकृष्ण उनसे मिलने के लिये आये और सारा वृत्तान्त जानकर हर्षित हुए और कहने लगे- इसीलिये तो मैंने कहा था कि शंकर सभी दुःखों को नष्ट करनेवाले हैं। मैं उनकी सेवा नित्य करता हूँ, आपलोग भी नित्य उनकी सेवा करें। हे सनत्कुमार! इस प्रकार मैंने किरातेश्वर नामक शिवावतार का वर्णन आपसे किया, उसको सुनकर अथवा सुनाकर भी मनुष्य अपने समस्त मनोरथों को प्राप्त कर लेता है।
इत्यष्टाशीत्यवताराः (८८)
इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां किरातेश्वरावतारवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४१॥
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किरातेश्वर भारभूतेश्वर के पास Ck.52/15 पर स्थित है। श्यामलाल खत्री इत्र दुकान के सामने परिसर है। परिसर के भीतर जमीन के नीचे किरातेश्वर लिंग का दर्शन होता है। वर्तमान में यह परिसर निर्माणाधीन है।
Kirateshwar is located at Ck.52/15 near Bharbhuteshwar. The premises are in front of Shyamlal Khatri perfume shop. Kirateshwar Linga can be seen under the ground inside the complex. Currently this complex is under construction.
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥