Dalabhyeshwar (दालभ्येश्वर)

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Dalabhyeshwar

(दालभ्येश्वर)

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

शालंकायनहारी तौ विश्वामित्रोथभार्गवः ।। मृकंडः सह पुत्रेण दाल्भ्य उद्दालकस्तथा ।।

दालभ्य एक प्राचीन वैदिक ऋषि हैं और उपनिषदों, पुराणों और अन्य पवित्र ग्रंथों में उनका उल्लेख है। वह महाभारत युद्ध के दौरान पांडवों के सामने प्रकट हुए और उन्होंने भगवान कृष्ण से आशीर्वाद प्राप्त किया। उनके वंशजों में दालभ्य गोत्र है और वे उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में रह रहे हैं। अपने काल में वह शिलाक और प्रवाहन जैसे मुनियों से भगवान कृष्ण की महिमा का चिंतन किया करते थे।

काशी में जिस स्थान पर दालभ्य ऋषि द्वारा शिवलिंग स्थापित किया गया उसे दालभ्येश्वर महादेव के नाम से जाना जाता हैकाशी मे ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग की यात्रा में दालभ्येश्वर के दर्शन का विधान है। दालभ्येश्वर के दर्शन, पूजन करने से स्वधर्म का पालन करने तथा सहन करने की शक्ति आती है। भक्ति ज्ञान में वृद्धि होती है।

अवाकीर्ण तीर्थ की महिमा और दाल्भ्य की कथा

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 41वें अध्याय में वैशम्पायन द्वारा अवाकीर्ण तीर्थ की महिमा और दाल्भ्य की कथा का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है - 

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मणत्व की प्राप्ति कराने वाले उस तीर्थ से प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलराम जी अवाकीर्ण तीर्थ में गये, जहाँ आश्रम में रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दल्भ पुत्र बक ने महान क्रोध में भरकर घोर तपस्या द्वारा अपने शरीर को सुखाते हुए विचित्र वीर्य कुमार राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र का होम कर दिया था। पूर्व काल में नैमिषारण्य निवासी ऋषियों ने बारह वर्षो तक चालू रहने वाले एक सत्र का आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित नामक यज्ञ के अन्त में पाञ्चाल देश में गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियों ने उस देश के राजा से दक्षिणा के लिये धन की याचना की। राजन! वहाँ महर्षियों ने पाञ्चालों से इक्कीस बलवान और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उन में से दल्भ पुत्र बक ने अन्य सब ऋषियों से कहा- ‘आप लोग इन पशुओं को बांट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजा से दूसरे पशु मांग लूंगा’।

नरेश्वर! उन सब ऋषियों से ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्र के घर पर गये। निकट जाकर दाल्भ्य ने कौरव नरेश धृतराष्ट्र से पशुओं की याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएं दैवेच्छा से मर गयी थीं। उन्हीं को लक्ष्य करके राजा ने क्रोध पूर्वक कहा- ‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओं को ही शीघ्र ले जाओ’। उनकी वैसी बात सुन कर धर्मज्ञ ऋषि ने चिन्तामग्न होकर सोचा- ‘अहो! बड़े खेद की बात है कि इस राजा ने भरी सभा में मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’। दो घड़ी तक इस प्रकार चिन्ता करके रोष में भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्य ने राजा धृतराष्ट्र के विनाश का विचार किया। वे मुनि श्रेष्ठ उन मृत पशुओं के ही मांस काट-काट कर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र की ही आहुति देने लगे। महाराज! सरस्वती के अवाकीर्ण तीर्थ में अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भ पुत्र बक उत्तम नियम का आश्रय ले उन मृत पशुओं के मांसो द्वारा ही उनके राष्ट्र का हवन करने लगे।

राजन! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तब से धृतराष्ट्र का राष्ट्र क्षीण होने लगा। प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ी से काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजा का राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफत में फंस गया; वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया। राजन! अपने राष्ट्र को इस प्रकार संकट मग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुखी हुए और गहरी चिन्ता में डूब गये। फिर ब्राह्मणों के साथ अपने देश को संकट से बचाने का प्रयत्न करने लगे। अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्र का कल्याण साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणों को बड़ा खेद हुआ। नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्र को उस विपत्ति से छुटकारा दिलाने में समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्नि कों (प्रश्न पूछने पर भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें बताने वालों) को बुला कर उन से इसका कारण पूछा। तब उन प्राश्निकों ने कहा- ‘आपने पशु के लिये याचना करने वाले बक मुनि का तिरस्कार किया है; इसलिये ये मृत पशुओं के मांसों द्वारा आपके इस राष्ट्र का विनाश करने की इच्छा से होम कर रहे हैं। ‘उनके द्वारा आपके राष्ट्र की आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्या का प्रभाव है, जिससे आपके इस देश का इस समय महान विलय होने लगा हैं। ‘भूपाल! सरस्वती के कुन्ज में जल के समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’

तब राजा ने सरस्वती के तट पर जाकर बक मुनि से इस प्रकार कहा- भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वी पर माथा टेक हाथ जोड़ कर बोले- ‘भगवन! मैं आपकों प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खता से हतबुद्धि हुए अपराधी के अपराध को क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझ पर अवश्य कृपा करें’। राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार शोक से अचेत होकर विलाप करते देख उनके मन में दया आ गयी और उन्होंने राजा के राज्य को संकट से मुक्त कर दिया। ऋषि क्रोध छोड़ कर राजा पर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्य को संकट से बचाने के लिये आहुति देने लगे। इस प्रकार राज्य को विपत्ति से छुड़ा कर राजा से बहुत से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्य को ही चले गये। राजन! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थ चित्त हो अपने समृद्धिशाली नगर को ही लौट आये।


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दालभ्येश्वर काशी के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रथम श्री सोमेश्वर महादेव मान मंदिर घाट के पास स्थित है। 
Dalbhyeshwar Is Located Near Someshwar Mahadev At Man Mandir Ghat.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय

कामाख्याकाशी 8840422767

ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com


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