Vrishabhadhwajeshwar - वृषभध्वजेश्वर (कपिलधारा तीर्थ महात्म्य)

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Vrishabhadhwajeshwar

वृषभध्वजेश्वर (कपिलधारा तीर्थ महात्म्य)

गदाधरभवान्यत्र यत्र त्वं च पितामह। वृषध्वजोस्म्यहं यत्र फल्गुस्तत्र न संशयः ।।

राजा दिवोदास की आज्ञा से समस्त देवता काशी से निष्कासित कर दिए गए थे। भगवान शिव तथा नारायण मंदराचल पर्वत पर निवास कर रहे थे। इसी क्रम में जब वह दिवोदास द्वारा आवाहित होने पर काशी के सर्वप्रथम कपिलधारा तीर्थ पर आए। भगवान शिव के साथ नारायण, पितामह ब्रह्मा तथा 33 करोड़ देवी-देवता, समस्त तीर्थ, ऋषि-मुनि, समस्त लोकों के वासी वहां उपस्थित हो गए। भगवान ने जिस स्थान पर ध्वज लगाया एवं वहां जो शिवलिंग प्रकट हुआ वो वृषभध्वजेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ भगवान पिनाकपाणी शिव, नारायण तथा समस्त देवी-देवताओं ने काशी में पुनः यहीं से प्रवेश किया अतः यह स्थान दिव्यता को प्राप्त हो गयासोमवती अमावस्या के दिन ब्रह्मांड के समस्त तीर्थ तथा देवी-देवता कपिलधारा तीर्थ में प्राकट्य हो जाते हैंकाशी (वाराणसी) की सीमा से बाहर होते हुए भी भगवान वृषभध्वज का यह लिंग 42 महालिंग के अंतर्गत आता है। यहां एक और बात ध्यान देने योग्य है कि इस तीर्थ का नाम कपिलधारा तीर्थ (कपिलधारा अर्थात कपिला की दुग्ध धारा) है गोलोक से कपिला नामक गाय ने यहां पर दुग्ध स्राव किया था उनके साथ अन्य चार गायें सुनंदा, सुमना, सुरभि, सुशीला भी सम्मिलित थीं

भगवान नारायण के अवतार एवं ऋषि कर्दम के पुत्र भगवान कपिल ने इसी स्थान पर तपस्या कर वृषभध्वजेश्वर का पूजन किया इस तीर्थ का नाम कपिला गाय के नाम पर कपिलधारा के अन्यत्र कपिल तीर्थ तथा वृषभध्वजेश्वर महादेव, कपिलेश्वर महादेव के नाम से भी जाने जाते हैं


भगवान शिव के आगमन पर ब्रह्मदेव, नारायण, आदित्य, 64 योगिनी, समस्त देवी देवता महर्षि, ऋषि, गण आदि कपिल धारा तीर्थ पर एकत्र होते हैं और भगवान शिव से अपनी विवशता का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार राजा देवदास में उन्होंने अंश मात्र भी त्रुटि नहीं निकाल पाये और उन्हें काशी के सिंहासन पद से पदच्युत नहीं कर पाए।


भगवान शिव सबकी असमर्थता सुन ही रहे थे कि इसी समय सुनंदा, सुमना, सुरभि, सुशीला तथा कपिला नाम की गायें गोलोकधाम से वहां पर वहां आ गई। भगवान शंकर की स्नेहमय दृष्टि से उनके स्तनभार से निरंतर इस प्रकार से स्थूल धारा द्वारा दुग्धक्षरण आरंभ हो गया जिससे की वहां दूध का एक हृद बन गया।


उस समय महेश्वर के पार्षदगण इस विस्तृत हृद को द्वितीय छीरसागर मानने लगे। इसके पश्चात वह हृद देवाधिदेव महादेव के अधिष्ठान रूप एक विशुद्ध तीर्थ रूप से गण्य हो गया। तदनंतर भगवान शंकर द्वारा वहां उस हृद का नाम कपिलतीर्थ रखा गया। उनके आदेशानुसार समस्त देव गणों ने उसमें स्नान भी किया।


तदनंतर इस कपिल तीर्थ के अभ्यंतर से दिव्य पितामहगण आविर्भूत हो गए। यह देख कर अमरगण  ने परमानंदपूर्वक  उनके उद्देश्य से जलांजलि दान करना  प्रारंभ कर दिया। तत्पश्चात अग्निष्वात, सोमप, आज्यप,  बहिर्षद आदि पितृगण परम तृप्त होकर शंकर से कहने लगे - हे भक्तों को अभय देने वाले! हे जगतपति! हे देवदेव! आपके सानिध्य में इस तीर्थ में हमने चिर  संतोष लाभ किया। हे कारण रूप  शंभू! अब आप प्रफुल्लित चित्त से हमें अभीष्ट वर प्रदान करें तब भगवान शंकर ने दिव्य पितृगण से यह सुनकर देवगण से परम तृप्तिपूर्ण तथा संतोषपूर्ण वाक्य कहा : -


महादेव कहते हैं - हे विष्णु, महाबाहु! हे पितामह! आप सब सुनिए जो इस कपिल तीर्थ में श्रद्धा पूर्वक यथाविधान पिंड दान करेंगे, मेरे आदेश से उनके पितर अक्षयरूपेण तृप्त हो जाएंगे। मैं पितरों को संतोष देने वाले एक अन्य विषय को कहता हूं। आप सब एकाग्रता पूर्वक श्रवण करिए। सोमवार युक्त अमावस्या के दिन इस तीर्थ में श्राद्ध करने का अक्षय फल होगा। प्रलयकाल में सागरजल भी  सूख जाता है किंतु इस कपिल तीर्थ में अनुष्ठित श्राद्ध फल कभी नष्ट नहीं होता। यदि सोमवती अमावस्या के दिन इस तीर्थ में श्राद्ध कार्य संपादित किए जाये, तब पुष्कर एवं गया क्षेत्र में श्राद्ध के अनुष्ठान की आवश्यकता ही नहीं है।


गदाधरभवान्यत्र यत्रत्वं च पितामह। वृषध्वजोऽस्म्यहं यत्र फल्गुस्तत्र न संशयः॥

दिव्यान्तरिक्षभौमानि यानि तीर्थानि सर्वतः। तान्यत्र निवसिष्यन्ति दर्शे सोमदिनान्विते॥

कुरुक्षेत्र नैमिषे च गङ्गासागरसङ्गमे। ग्रहणे श्राद्धतोयत्स्यात्तत्तीर्थे वार्षभध्वजे॥

अस्य तीर्थस्य नामानि यानि दिव्यपितामहाः। तान्यहं कथयिष्यामि भवतां तृप्तिदान्यलम्‌॥


हे गदाधर विष्णु! हे पितामह ब्रह्मा! यहां आपका साक्षात अधिष्ठान है तथा यहां मैं भी अपनी मूर्ति (वृषभध्वजेश्वर) के रूप में विराजमान हूं  यहां तो फल्गु नदी भी आविर्भूत होगी इसमें क्या संदेह? अधिक क्या कहा जाए, स्वर्ग, अंतरिक्ष, भूतल में चतुर्दिक जितने भी तीर्थों की स्थिति है, सोमवती अमावस्या के दिन यहां वे सब आधिष्ठित हो जाते हैं! सूर्य ग्रहण काल में गंगा सागर संगम में, कुरुक्षेत्र में तथा नैमिषारण्य में श्राद्ध अनुष्ठान का जो फल लाभ होता है, यहां श्राद्ध करने से भी वही फल लाभ होता है। हे दिव्य पितामहगण!  इस तीर्थ  का नाम सभी वर्णन करते हैं। यह सब नाम कीर्तित होने के कारण आप सब अतिशय परितृप्त रहेंगे।


कपिलधारा तीर्थ के दस नाम : मधुस्रवा, कृतकृत्या , क्षीरनीरधि , वृषध्वजतीर्थ, पैतामहतीर्थ, गदाघरतीर्थ, पितृतीर्थ , कपिलधारा, सुधाखनि एवं शिवगया।

हे पितामहगण!  श्राद्ध और जलदान आदि  न करने पर भी यह 10 नाम कीर्तित करने से ही पितृगण परम तृप्त हो जाते हैं। जो व्यक्ति पितरों के संतोषार्थ अमावस्या के दिन यहां श्राद्ध करके ब्राह्मण भोजन कराता है, उसे श्राद्ध का असीम फल लाभ होता है। जो लोग पितृश्राद्ध कार्य में यहां कल्याणमयी कपिला गौ दान करते हैं, उनके पितृगण इस दानफल के कारण असंख्य काल तक क्षीरसागर के तट पर निवास करने में सक्षम होते हैं।


गयातोष्टगुणं पुण्यमस्मिंस्तीर्थे पितामहाः ।। अमायां सोमयुक्तायां श्राद्धैः कापिलधारिके ।।
येषां गर्भेऽभवत्स्रावो येऽ दंतजननामृताः ।। तेषां तृप्तिर्भवेन्नूनं तीर्थे कापिलधारिके।।
अदत्तमौंजीदाना ये ये चादारपरिग्रहाः ।। तेभ्यो निर्वापितं पिंडमिह ह्यक्षयतां व्रजेत् ।।
अग्निदाहमृता ये वै नाग्निदाहश्च येषु वै ।। ते सर्वे तृप्तिमायांति तीर्थे कापिलधारिके ।।
और्द्ध्वदैहिकहीना ये षोडश श्राद्धवर्जिताः ।। ते तृप्तिमधिगच्छंति घृतकुल्यां निवापतः ।।
अपुत्राश्च मृता ये वै येषां नास्त्युकप्रदः ।। तेपि तृप्तिं परां यांति मधुस्रवसि तर्पिताः ।।
अपमृत्युमृता ये वै चोरविद्युज्जलादिभिः ।। तेषामिह कृतं श्राद्धं जायते सुगतिप्रदम् ।।
आत्मघातेन निधनं यैषामिहविकमर्णाम् ।। तेपि तृप्तिं लभंतेत्र पिंडैः शिवगयाकृतैः।।

सोमवती अमावस्या के दिन यहां श्राद्धकार्य अनुष्ठित करने से गयाधाम के श्राद्ध की अपेक्षा अष्टगुणित फल लाभ होता है


जो जीव गर्भवासकल में अथवा दांत निकलने के पूर्व ही मृत हो गये हो, इस तीर्थ में श्राद्ध द्वारा वे भी तृप्त हो जाते है।


जो उपनयन अथवा परिणय के पहले ही मृत हो गये हैं, यहां श्राद्ध द्वार उनको अक्षय तृप्ति का लाभ होता है।


जो अग्नि में जल कर मर गये हैं अथवा जिनकी देह का अग्निसंस्कार नहीं हो सका, किंवा जिनकी और्ध्वदैहिक क्रिया हो सकी हो, जिनका षोडश श्राद्ध हुआ हो, उनके लिये भी यहाँ श्राद्ध क्रिया करनी चाहिये, जिससे उनको चिरस्थायी तृप्ति का लाभ हो सके।


जो पुत्रविहीन होकर प्राण त्याग करते है, जिसे किसी ने जल प्रदान नहीं किया, किंवा जो तस्कर, विद्युत्पात से अथवा जलादि में अपमृत्युग्रसित हो गये हों, जिन पापी लोगो ने आत्मघात किया हो उनके लिये भी इस कापिलतीर्थ (कपिलधारा) में पिंडदान किये जाने पर उनको परम तृप्ति का लाभ होता है।


मातृ तथा पितृवंश के जिन लोगों के नाम का ज्ञान नहीं है, ऐसे जितने पुरुष कालग्रस्त हैं, यहाँ श्राद्ध द्वारा उनकी शाश्वती तृप्ति होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चाहे जिसके नाम से यहां पिंड प्रदान किया जाता है, उसे चिरंतन तृप्ति लाभ होता है। जो मृत्यु होने पर तिर्यक किंवा पिशाच योनि में पड़े हैं, यहां श्राद्ध द्वारा वे भी उत्तम गति का लाभ करते हैं। मनुष्य लोक में जो पितर मानव देह धारण करके अपने-अपने दुष्कर्म से दुख भोगते हुए समय व्यतीत कर रहे हैं- यहां श्राद्ध करने पर वह भी दिव्य देह लाभ करते हैं। जो पितर अपनी स्वीकृति से देवलोक में है इस कपिल तीर्थ में श्राद्ध करने से उनको ब्रह्मलोक की प्राप्ति हो जाती है।


यह कपिल तीर्थ सतयुग में दुग्धमय,  त्रेता में मधुमय, द्वापर में घृतमय और कलयुग में जलमय होता है। यद्यपि यह वाराणसी के बहिर्भाग में स्थित है तब भी मेरे सामीप्य के कारण यह वाराणसी की अपेक्षा ही उत्कृष्ट माना जाएगा। हे पितृगण! काशीवासी लोगों ने प्रथमतः यही मेरे ध्वज को देखा था इसी कारण मैं यहां वृषभध्वजरूपेण अवस्थान करुंगा। हे पितृगण!  मैं आप लोगों के संतोषार्थ यहां ब्रह्मा, नारायण, आदित्य तथा अपने पार्षदों के साथ स्थित रहूंगा। भगवान पिनाकपाणि ने पितृगण को यह वरदान दिया।


काशी निष्कासन के पश्चात पुनः....

।। भगवान शिव, भगवान नारायण तथा ब्रह्मांड के समस्त तीर्थों, देवी-देवताओं का काशी में प्रवेश ।।


।। स्कंद उवाच ।।
स्वयं वाग्देवता यत्र चंचच्चामरधारिणी ।। शैलादिनेति विज्ञप्तो देवदेव उमापतिः ।।
कृतनीराजनविधिरष्टभिर्देवमातृभिः ।। पिनाकपाणिरुत्तस्थौ दत्तहस्तोथ शार्ङ्गिणा ।।
निनादो दिव्यवाद्यानां रोदसी पर्यपूरयत् ।। गीतमंगलगीर्भिश्च चारणैरनुवर्धितः ।।
तेन दिव्यनिनादेन बधिरीकृतदिङ्मुखाः ।। आहूता इव आजग्मुर्विष्वग्भुवनवासिनः ।।

देवताओं के स्वामी, उमापति महादेव को शैलादि (नंदिकेश्वर) द्वारा इस प्रकार सूचित किया गया था। तत्पश्चात आठ दिव्य माताओं ने नीराजन संस्कार किया। इसके बाद पिनाकधारी भगवान ने भगवान शार्ङ्गिण (विष्णु) के हाथों का सहारा लेकर खड़े हो गये। दिव्य संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि से स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का स्थान भर गया। इसे चारणों ने मंगल गीत गाकर और बढ़ाया। उस दिव्य ध्वनि से सभी स्थान गगनभेदी हो गये। मानो उसके द्वारा बुलाये जाने पर चारों ओर के समस्त लोकों के निवासी वहाँ आ गये।

देवाकोट्यस्त्रयस्त्रिंशद्गणाः कोट्ययुतद्वयम् ।। नवकोट्यस्तु चामुंडा भैरव्यः कोटिसंमिताः ।।
षडाननाः कुमाराश्च मयूरवरवाहनाः ।। ममानुगाः समायाताः कोटयोष्टौ महाबलाः ।।
आययुः कोटयः सप्त स्फुरत्परशुपाणयः ।। पिचंडिला महावेगा विघ्नविघ्ना गजाननाः ।।
षडशीतिसहस्राणि मुनयो ब्रह्मवादिनः ।। तावतोपि समाजग्मुस्तत्रत्ये गृहमेधिनः ।।
नागानां कोटयस्तिस्रः पातालतलवासिनाम् ।। दानवानां च दैत्यानां द्वे द्वे कोटी शिवात्मनाम् ।।

देवता तैंतीस करोड़ की संख्या में थे; गण एक करोड़ दो लाख थे; नौ करोड़ चामुंडा और एक करोड़ भैरवियाँ थीं। मेरे आठ करोड़ अत्यंत शक्तिशाली अनुयायी वहां आये; वे छह मुख वाले, कुमार और मोर वाहन वाले थे। विशाल पेट वाले गजमुख (पिचंडिल) सात करोड़ देवता बड़े वेग से वहाँ आये। अपने हाथों में चमचमाती कुल्हाड़ियाँ लिए हुए वे विघ्नों पर विघ्नों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वेदों का व्याख्यान करने वाले छियासी हजार ऋषि वहाँ आये। इतने ही गृहस्थ भी थे। पाताल में तीन करोड़ नाग रहते थे; इनमें से प्रत्येक के दो-दो करोड़ - दानव और शुभ आत्माओं वाले दैत्य।

गंधर्वा नियुतान्यष्टौ कोट्यर्धं यक्षरक्षसाम् ।। विद्याधराणामयुतं नियुतद्वयसंयुतम् ।।
तथा षष्टिसहस्राणि दिव्याश्चाप्सरसः शुभाः ।। गोमातरोऽष्टौ लक्षाणि सुपर्णान्ययुतानि षट् ।।
सागराः सप्त संप्राप्ता नानारत्नोपदप्रदाः ।। सरितां च सहस्राणि त्रीणि पंचायुतानि च ।।
गिरयोऽष्टौ सहस्राणि वनस्पतिशतत्रयम्।। आजग्मुर्दिग्गजा अष्टौ यत्र देवः पिनाकधृक् ।।
एतैः समेतः संतुष्टः परिष्टुत इतस्ततः ।। श्रीकंठो रथमारुह्य काशीं प्राविशदुत्तमाम् ।।
स गिरींद्रसुतस्त्र्यक्षो मुदां धाम मुदां खनिः ।। काशीं प्रैक्षिष्ट संहृष्टस्त्रिविष्टप समुत्कटाम् ।।
श्रुत्वाख्यानमिदं पुण्यं कोटिजन्माघनाशनम् ।। पठित्वा पाठयित्वा च शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।।

अस्सी लाख गंधर्व थे; यक्ष और राक्षस साढ़े पचास लाख थे। विद्याधर दो लाख एक सौ थे। वहां साठ हजार अत्यंत वैभवशाली दिव्य युवतियां, आठ लाख गौमाताएं और छह लाख सुपर्णाएं थीं। सातों समुद्र नाना प्रकार के रत्न प्रदान करते हुए वहाँ आये। वहाँ तिरपन हज़ार नदियाँ थीं। आठ हजार पर्वत, तीन सौ वनस्पति (विभिन्न प्रकार के पेड़ और जड़ी-बूटियाँ) और आठ दिग्गज (चौकों को सहारा देने वाले हाथी) उस स्थान पर आए जहाँ पिनाक धारी भगवान उपस्थित थे। इनके साथ तथा सर्वत्र स्तुति से संतुष्ट हुए भगवान श्रीकंठ रथ पर सवार होकर शुभ काशी में प्रवेश कर गये। पर्वतों के स्वामी गिरिराज हिमालय की पुत्री उमा के साथ तीन नेत्रों वाले भगवान त्रिलोचन ने सुख के निवास, आनंद की खान काशी को देखा जो स्वर्ग से भी कहीं बेहतर है।


सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। ये वर्ष में लगभग एक, दो अथवा तीन बार ही बार पड़ती है


कपिलधारा तीर्थ पुरोहित : श्री घनश्याम दुबे जी  ( संपर्क सूत्र : 8081390655 )

पिंडदान, श्राद्ध एवं कर्मकांड से संबंधित क्रियाओं के लिए इनसे संपर्क कर सकते हैं।


GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE


कपिलधारा वाराणसी। 
Kapildhara Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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