Tripur Bhairavi (त्रिपुर भैरवी)

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Tripur Bhairavi

त्रिपुर भैरवी

जयंती : मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा तिथि 

जय त्रिपुरकालाग्ने जय त्रिपुरभैरवि ॥  जय त्रिगुणनिर्मुक्ते जय त्रिगुणमर्दिनि ॥
त्रिपुरों को भस्म करने वाली हे काल अग्नि, आपकी जय हो। जय हो, हे देवी त्रिपुरभैरवी। विजयी हो, हे तीन गुणों से रहित प्रभु। तीन गुणों की स्वामिनी देवी आपकी जय हो। (शिवपुराण वायवीयसंहिता)

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

त्रैलोक्यविजया तारा क्षमा त्रैलोक्यसुंदरी । त्रिपुरा त्रिजगन्माता भीमा त्रिपुरभैरवी ।। 

भगवती भैरवी ‘षष्ठ महाविद्या’ हैं। इनकी उपासना द्वारा साधक समाज में सम्मानित स्थान तथा समान अधिकार प्राप्त करता है। ये भी भगवती आद्या-काली का ही स्वरूप हैं। इन्हें ‘त्रिपुर भैरवी’ कहा जाता है। ये काल-रात्रि सिद्ध विद्या हैं।

काली, तारा महाविद्या, षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी, छिन्नमस्तिका च विद्या धूमावती तथा ॥
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका। एता दश-महाविद्याः सिद्ध-विद्याः प्रकीर्तिता: ॥

इनके शिव दक्षिणामूर्ति (काल भैरव) हैं। पंचमी विद्या भगवती छिन्नमस्ता का सम्बन्ध ‘महा प्रलय’ से है तथा इन षष्ठी विद्या त्रिपुर भैरवी का सम्बन्ध ‘नित्य-प्रलय’ से है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होता रहता है। नष्ट करने का कार्य ‘रुद्र’ (शिव) का है। ये रुद्र ही विनाशोन्सुख होकर ‘यम’ कहलाने लगते हैं। इस यमाग्नि की सत्ता प्रधान रूप से दक्षिण-दिशा में है, इसी कारण यमराज को दक्षिण दिशा का लोकपाल माना जाता है।

सोम स्नेह-तत्त्व है, वह संकोचधर्मा है। अग्नि तेज-तत्त्व है, वह विशकलन धर्मा है। विशकलन-क्रिया ही वस्तु का नाश करती है। यह धर्म दक्षिणाग्नि का है। अतः इस रुद्र को दक्षिणामूर्ति, काल भैरव आदि नामों से संबोधित किया जाता है। इनकी शक्ति का नाम ही ‘भैरवी’ अथवा ‘त्रिपुर भैरवी’ है।

राजराजेश्वरी नाम से प्रसिद्ध ‘भुवनेश्वरी‘ जिन तीनों भुवनों के पदार्थों की रक्षा करती है, त्रिपुर भैरवी उन सब का नाश करती रहती है। त्रिभुवन के क्षणिक-पदार्थों का क्षणिक-विनाश इसी शक्ति पर निर्भर है। ‘छिन्नमस्ता’ परा- डाकिनी थी, यह ‘अवरा-डाकिनी’ है। 

त्रिपुरा देवी के तीन प्रकार कहे गए हैं-  (१) बाला, (२) भैरवी और (३) सुन्दरो । ‘ज्ञानार्णव’ के अनुसार- ‘त्रिपुरादेवी त्रिविद्या है, उन्हें ‘त्रिशशक्ति’ कहते है।

वाराही तंत्र में लिखा है- त्रिदेव ने प्राचीन काल मे इनकी उपासना की थी, इसलिए इनका नाम त्रिपुरा हुआ। ब्रह्माण्डपुराणमें इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रूपमें चित्रित किया गया है। मत्स्य पुराणमें इनके त्रिपुर भैरवी, कोलेश भैरवी, रुप्र भैरवी, चैतन्य भैरवी तथा नित्या भैरवी आदि रूपोंका वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्रापि हेतु त्रिपुर भैरवी की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है।

महाविद्याओं में इनका छठा स्थान है। त्रिपुर भैरवी का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है। इनके ध्यान का उल्लेख दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर-बध के प्रसंग में हुआ है।

त्रिपुर भैरवी स्वरूप :

त्रिपुर भैरवी के 4 हाथ और तीन नेत्र हैं। ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुण्डमाला धारण करती हैं और स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप करती हैं। ये अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। इनका आसान लाल कमल हैं।

घोर कर्म के लिये काल की विशेष अवस्था जनित मानों को शान्त कर देने वाली शक्ति को ही त्रिपुर भैरवी कहा जाता है। इनका अरुण वर्ण विमर्श का प्रतीक है। इनके गले में सुशोभित मुण्डमाला ही वर्णमाला है। देवी के रक्त लिप्त पयोधर रजोगुण सम्पन्न सृष्टि प्रक्रिया के प्रतीक हैं। अक्ष जपमाला वर्ण समाग्राय की प्रतीक है। पुस्तक ब्रह्मविद्या है, त्रिनेत्र वेदत्रयी हैं तथा स्मिति हास करुणा है।

कमलासन पर विराजमान भगवती त्रिपुर भैरवी ने ही मधुपान करके महिष का हृदय विदीर्ण किया था। रुद्रयामल एवं भैरवी कुल सर्वस्व में इनकी उपासना तथा कवच का उल्लेख मिलता है। संकटों से मुक्ति के लिये भी इनकी उपासना करने का विधान है।

आगम ग्रन्थों के अनुसार त्रिपुर भैरवी एकाक्षर रूप (प्रणव) है। इनसे सम्पूर्ण भुवन प्रकाशित हो रहे हैं तथा अन्त में इन्हीं में विलय हो जायेंगे। ‘अ’ से लेकर ‘विसर्ग’ तक सोलह वर्ण भैरव कहलाते हैं तथा ‘क’ से ‘क्ष’ तक के वर्ण योनि अथवा भैरवी कहे जाते हैं। स्वच्छन्दोद्योत के प्रथम पटल में इसपर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।

यहाँ पर त्रिपुर भैरवी को योगीश्वरी रूप में उमा बतलाया गया है। इन्होंने भगवान् शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या करने का दढ़ निर्णय लिया था। बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्या को देखकर दंग रह गये। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् शंकर की उपासना में निरत उमा का दृढ़निश्यी स्वरूप ही त्रिपुर भैरवी का परिचायक है। त्रिपुर भैरवी की स्तुति में कहा गया है कि भैरवी जगत के मूल कारण की अधिष्ठात्री है।

त्रिपुर भैरवी के अनेक भेद हैं : - सिद्धिभैरवी, चैतन्यभैरवी, भुवनेश्वरीभैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कामेश्वरीभैरवी, घट्कुटाभैरवी, नित्याभैरवी, कोलेशीभैरवी, रुद्रभैरवी आदि।

सृष्टि में परिवर्तन होता रहता है। इसका मूल कारण आकर्षण विकर्षण है। इस सृष्टिके परिवर्तनमें क्षण-क्षणमें होनेवाली भावी क्रियाकी अधिष्ठातृ शक्ति ही वैदिक दृष्टिसे त्रिपुर भैरवी कही जाती हैं। त्रिपुर भैरवीको रात्रिका नाम कालरात्रि तथा भैरवका नाम काल भैरव है।


वाराणसी में मां त्रिपुर भैरवी की अद्भुत स्वयंभू प्रतिमा है। जिसका वर्णन श्री स्कंदपुराण काशी खंड में भगवान वेदव्यास ने किया है। मां त्रिपुर भैरवी के दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के दुःख दूर हो जाते हैं। इनके आस-पास का पूरा मोहल्ला त्रिपुर भैरवी के नाम से जाना जाता है।

कार्तिक मास में अनन्त चतुर्दशी को मां का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इनके भक्तों को सहज रूप से विद्या प्राप्त होती है। मान्यता के अनुसार मां अपने भक्तों को विद्या के साथ सुख-सम्पत्ति भी प्रदान करती हैं। मंदिर परिसर में ही माँ के बाएं त्रिपुरेश्वर महादेव का शिवलिंग स्थापित है।


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त्रिपुर भैरवी का मंदिर त्रिपुर भैरवी घाट डी.5/24 पर स्थित है।
Temple of Tripura Bhairavi is situated at Tripura Bhairavi Ghat at D.5/24.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी



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