Andhakasur Sudan (अंधकासुर सूदन मूर्ती, काशी)

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Andhakasur Sudan

अंधकासुर सूदन मूर्ती, काशी 

अंधकासुर ही बाद में भगवान शिव के प्रिय गण भृंगीरिटी के नाम से विख्यात हुआ..

मूर्ति के संबंध में कुछ भ्रांतियां : अंधकासुर सूदन की यह मूर्ति चंद्रकूप, सिद्धेश्वरी मंदिर परिसर में स्थित है। विग्रह पहचान सामर्थ्य का लोप होने के कारण मूर्ति को कोका वाराह कहा जाने लगा। किसी भी कोण से भगवान वाराह की, यह मूर्ति नहीं लगती फिर भी वराह मूर्ति कहा गया यह समझ से परे है। अंधकासुर को मारकर भगवान शिव त्रिशूल पर धारण कर सहस्त्र वर्षों तक टांगे रहते हैं। अतः यह मूर्ति अंधकासुर सूदन को दर्शाती है। संदर्भ के लिए कुछ और अति प्राचीन विग्रहों के चित्र दिए जा रहे हैं।

अंधकासुर सूदन
संक्षिप्त कथा

अंधकासुर का जन्म भगवान शिव के नेत्र पार्वती द्वारा खेल-खेल में पीछे से अचानक मूंदे जाने से हुआ था। जन्म के समय ही वह भयंकर और अंधा था। किंतु शिव पार्वती ने उसे अपनी संतान मान लिया। उसी समय दैत्य हिरण्याक्ष पुत्र की कामना से घोर तपस्या कर रहा था।उसके तप से संतुष्ट हो भगवान शिव ने उसे दर्शन दिये। किंतु उसके भाग्य में पुत्र नहीं था। अपने भक्त की तपस्या का मान रखने के लिए भगवान शिव ने अंधक को हिरण्याक्ष को दे दिया और कहा इसे अपना ही पुत्र माने। अंधक को लेकर हिरण्याक्ष घर लौट आया और प्रेम से उसका पालन करने लगा। किंतु उसके भाई हिरण्यकश्यप के पुत्र ह्लाद, सुह्लाद, आह्लाद और प्रह्लाद अंधक को हेय समझते और उसका उपहास उड़ाया करते थे।

वाराह भगवान द्वारा हिरण्याक्ष का वध कर देने पर अंधक को भगा दिया गया। क्षुब्ध हो अंधक ने ब्रह्मा से वर प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्माजी से उसने वर मांगे कि, "मुझे नेत्र ज्योति मिले, मैं अपने राज्य का सम्राट बनूँ, और अजर अमर हो जाऊँ।" पहले दो वरदान देकर ब्रह्माजी ने अमरत्व देने से मना करते हुए अपनी मृत्यु का एक निमित्त चुनने की बात कही। अंधक ने कहा, "जो भी मेरी माँ हो उसके प्रति कामासक्त होने पर भगवान शिव के हाथों मुझे मोक्ष प्राप्त हो।" ब्रह्मा जी से ये वर प्राप्त कर अंधक अपने पिता के राज्य का अधिपति बन गया और देवताओं पर चढ़ाई कर दी। तब विष्णुजी द्वारा प्रेरित किये जाने पर नारदजी ने उसके सम्मुख पार्वती के सौंदर्य का गुणगान कर दिया और उसे शिव से छीन लेने के लिए प्रेरित कर दिया।

वासना में अंधा हो अंधक पार्वती जी का अपहरण करने पहुँच गया और वहाँ एक विकट युद्ध के बाद भगवान शिव ने उसे त्रिशूल पर टांग कर सूखने के लिए छोड़ दिया। तब अंधक ने बहुत सुंदर श्लोकों में भगवान शिव की स्तुति की। भगवान शिव ने उसका नाम भृंगिरिटी रखा तथा उसे मुक्ति प्रदान की और अपना गण बना लिया।

स्कन्दपुराण (नागरखण्ड) - अध्यायः २२९

॥ अन्धक उवाच ॥ ॥
न त्वं देवो मया ज्ञातो वाग्दुष्टेन दुरात्मना ॥ ईदृग्वीर्यसमोपेतस्तद्युक्तं भवता कृतम् ॥ १६ ॥
अनुरूपं मदांधस्याविवेकस्य सुरोत्तम ॥ स्ववीर्यमदयुक्तस्य विवेक रहितस्य च ॥ १७ ॥
दुर्विनीतः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेवच ॥ न तिष्ठति चिरं कालं यथाऽहं मदगर्वितः ॥ १८ ॥
पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसंभवः ॥ त्राहि मां देव ईशान सर्वपापहरो भव ॥ १९ ॥
दुःखितोऽहं वराकोऽहं दीनोऽहं शक्तिवर्जितः ॥ त्रातुमर्हसि मां देव प्रपन्नं शरणं विभो ॥ २० ॥
अंधकासुर ने भगवान शिव से कहा: मैं दुष्टात्मा हूं, और बोलने में अशुद्ध हूं। इसलिये मैं न जानता था कि तुममें इतना तेज है। अत: आपने जो किया वह उचित है। हे सुरों में श्रेष्ठ, मेरे लिए यही उचित है जो अहंकार के कारण अंधा हो गया है और विवेक की शक्ति से रहित हो गया हूं। मैं अपने पराक्रम के कारण अति अहंकारी हूं और विवेकहीन हूं। विनम्रता के बिना एक उद्दंड व्यक्ति भाग्य, विद्या और पराक्रम प्राप्त करने के बाद भी लंबे समय तक नहीं रह सकता, जैसा कि मेरे मामले में हुआ। मैं अहंकार के कारण बहुत फूला हुआ हूँ। मैं पापी हूँ। मैं पाप कर्मों में लिप्त हो गया हूँ। यहाँ तक कि मेरी आत्मा भी पापमय है। मैं पाप से पैदा हुआ हूँ। हे ईशान भगवान, मेरी रक्षा करो। समस्त पापों का नाश करने वाले बनो। मैं दुखी  हूँ। मैं एक दयनीय प्राणी हूँ।मैं शक्तिहीन अभागा हूँ। हे प्रभु, मुझे बचाना आपका कर्तव्य है। हे भगवान, मैंने आपकी शरण मांगी है।
दुष्टोऽहं पापयुक्तोऽहं सांप्रतं परमेश्वर ॥ तेन बुद्धिरियं जाता तवोपरि ममानघ ॥ २१ ॥
सर्वपापक्षये जाते शिवे भवति भावना ॥ २२ ॥
नाममात्रमपि त्र्यक्ष यस्ते कीर्तयति प्रभो ॥ सोऽपि मुक्तिमवाप्नोति किं पुनः पूजने रतः ॥ २३ ॥
तव पूजा विहीनानां दिनान्यायांति यांति च ॥ यानि देव मृतानां च तानि यांति न जीवताम् ॥ २४ ॥
कुष्ठी वा रोगयुक्तो वा पंगुर्वा बधिरोऽपि वा ॥ मा भूत्तस्य कुले जन्म शंभुर्यत्र न देवता ॥ २५ ॥
मैं दुष्ट हूं। हे परमेश्वर, मैं पापी हूं। इसी से हे निष्पाप! मेरे मन में तेरे विषय में यह विचार उत्पन्न हुआ है। जब सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, तो व्यक्ति शिव का चिंतन करना शुरू कर देता है। हे तीन नेत्रों वाले भगवान, जो केवल आपका नाम दोहराता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। फिर जो आपकी पूजा में लगा है वह क्यों नहीं? जो तेरी भक्ति से रहित हैं, उनके लिये दिन आते और जाते हैं। जो मरे हुए हैं वे फिर जीवित नहीं हो सकते। मैं कोढ़ी, वा रोगी, वा लंगड़ा, वा बहरा हो जाऊं। लेकिन (मेरा) जन्म उस व्यक्ति के परिवार में न हो जिसके लिए शंभू देवता नहीं हैं।
तस्मान्मोचय मां देव स्वागतं कुरु सांप्रतम् ॥ गतो मे दानवो भावस्त्यक्तं राज्यं तथा विभो ॥ । २६ ॥
त्यक्ताः पुत्राश्च पौत्राश्च पत्न्यश्च विभवैः सह ॥ त्रिः सत्येन सुरश्रेष्ठ तव पादौ स्पृशाम्यहम् ॥ २७ ॥
इसलिये, हे प्रभु, मुझे छोड़ दें। अब मेरा स्वागत करें। मेरा आसुरी स्वभाव दूर हो गया है। हे प्रभु, राज्य तो मैं ने छोड़ दिया है। मैंने अपके पुत्रों, पौत्रों और स्त्रियों को धन समेत त्याग दिया है।। हे सुरों में श्रेष्ठ, मैं तीन बार शपथ खाकर आपके चरण छूता हूं।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ज्ञात्वा तं गतकल्मषम्॥ उत्तार्य शनकैः शूलाद्विनयावनतं स्थितम्॥२८॥
ततो नाम स्वयं चक्रे भृंगिरीटिरिति प्रभुः॥ अब्रवीच्च सदा मे त्वं वल्लभः संभविष्यसि॥२९॥
नन्दिनोऽपि गजास्यस्य महाकालस्य पुत्रक॥ तिष्ठ सौम्य मया सौख्यं न स्मरिष्यसि बांधवान्॥३०॥
स तथेति प्रतिज्ञाय प्रणम्य शशिशेखरम् ॥ तस्थौ सर्वगणैर्युक्तः प्रभुसंश्रयसंयुतः ॥ ३१ ॥
अंधकासुर की बातें सुनकर, प्रभु को निश्चित रूप से पता चल गया कि उसे पापों से छुटकारा मिल गया है। उसे धीरे-धीरे त्रिशूल से नीचे उतारा गया और वह वहीं विनम्रतापूर्वक खड़ा रहा। तब भगवान ने उसका नाम भृंगिरिटी रखा और कहा: “तुम सदैव मेरे प्रिय रहोगे। हे प्रिय पुत्र, तुम नंदी, महाकाल और गणेश के भी प्रिय होगे। हे सज्जन, तुम यहीं सुखपूर्वक रहो। तुम्हें अपने सम्बन्धियों की याद कभी नहीं आएगी।” उसने कहा, "ऐसा ही हो प्रभु"। तत्पश्चात भृंगिरिटी ने चन्द्रमाधारी शिव को प्रणाम किया। वह सभी गणों सहित वहीं रुक गया और भगवान की शरण में चला गया।

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अंधकासुर मर्दन मूर्ती, सिद्धेश्वरी मंदिर CK.7/124(चंद्रकूप) के उत्तरी द्वार के समीप स्थित है। 
Andhakasura Mardan idol is located near the northern gate of Siddheshwari temple CK.7/124 (Chandrakup).


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


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