Yagya Varah (यज्ञ वराह)

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Yagya Varah

यज्ञ वराह

वराह भगवान को यज्ञ वराह के नाम से क्यों संबोधित करते हैं....
भगवान वराह का संपूर्ण शरीर ही यज्ञमय है। भगवान वाराह के रोम से कुशा, आंख से घृत, सिर यज्ञ अग्नि, वीर्य सोम नामक यज्ञ, जीभ यज्ञ का पात्र (स्रक्), नथुना यज्ञ का अन्य पात्र (स्रुवा), कानों के छिद्रों में यज्ञ का अन्य पात्र (चमस), मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (प्राशित्र), गला यज्ञ पात्र (सोमपात्र) है। भगवान वराह जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

तीर्थे यज्ञवराहाख्ये यज्ञवाराहसंज्ञकः । नरैः समर्चनीयोहं सर्वयज्ञफलेप्सुभिः ।।
भगवान बिंदुमाधव (नारायण) ने अग्निबिंदु ऋषि से कहा : यज्ञवराहतीर्थ नामक पवित्र स्थान में यज्ञ के फल की इच्छा रखने वाले पुरुषों द्वारा यज्ञवराह नाम से मेरी पूजा की जानी चाहिए।

वराह प्राकट्य 

श्रीमद्भागवतपुराण (स्कन्धः३) - अध्यायः१३

स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां स उत्थितः संरुरुचे रसायाः । 
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि । 
तद्रक्तपङ्काङ्‌कितगण्डतुण्डो यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्याक्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग । 
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैःविरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥
भगवान् वराह ने बड़ी ही आसानी से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों में ले लिया और वे उसे जल से बाहर निकाल लाये। इस तरह वे अत्यन्त भव्य लग रहे थे। तब उनका क्रोध सुदर्शन चक्र की तरह चमक रहा था और उन्होंने तुरन्त उस असुर (हिरण्याक्ष) को मार डाला, यद्यपि वह भगवान् से लडऩे का प्रयास कर रहा था। तत्पश्चात् भगवान् वराह ने उस असुर को जल के भीतर मार डाला जिस तरह एक सिंह हाथी को मारता है। भगवान् के गाल तथा जीभ उस असुर के रक्त से उसी तरह रँगे गये जिस तरह हाथी नीललोहित पृथ्वी को खोदने से लाल हो जाता है। तब हाथी की तरह क्रीड़ा करते हुए भगवान् ने पृथ्वी को अपने सफेद टेढ़े दाँतों के किनारे पर अटका लिया। उनके शरीर का वर्ण तमाल वृक्ष जैसा नीलाभ हो गया और तब ब्रह्मा इत्यादि ऋषि उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् समझ सके और उन्होंने सादर नमस्कार किया। 

॥ ऋषय ऊचुः ॥
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावनत्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः । 
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराःतस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥
सारे ऋषि अति आदर के साथ बोल पड़े“ हे समस्त यज्ञों के अजेय भोक्ता, आपकी जय हो, जय हो, आप साक्षात् वेदों के रूप में विचरण कर रहे हैं और आपके शरीर के रोमकूपों में सारे सागर समाये हुए हैं। आपने किन्हीं कारणों से (पृथ्वी का उद्धार करने के लिए) अब सूकर का रूप धारण किया है।
 
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनांदुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् । 
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥
हे प्रभु, आपका स्वरूप यज्ञ सम्पन्न करके पूजा के योग्य है, किन्तु दुष्टात्माएँ इसे देख पाने में असमर्थ हैं। गायत्री तथा अन्य सारे वैदिक मंत्र आपकी त्वचा के सम्पर्क में हैं। आपके शरीर के रोम कुश हैं, आपकी आँखें घृत हैं और आपके चार पाँव चार प्रकार के सकाम कर्म हैं।

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोःइडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥
हे प्रभु, आपकी जीभ यज्ञ का पात्र (स्रक्) है, आपका नथुना यज्ञ का अन्य पात्र (स्रुवा) है। आपके उदर में यज्ञ का भोजन-पात्र (इडा) है और आपके कानों के छिद्रों में यज्ञ का अन्य पात्र (चमस) है। आपका मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (प्राशित्र) है, आपका गला यज्ञ पात्र है, जिसका नाम सोमपात्र है तथा आप जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरंत्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोःसभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥
हे प्रभु, इसके साथ ही साथ सभी प्रकार की दीक्षा के लिए आपके बारम्बार प्राकट्य की आकांक्षा भी है। आपकी गर्दन तीनों इच्छाओं का स्थान है और आपकी दाढ़ें दीक्षा-फल तथा सभी इच्छाओं का अन्त हैं, आप की जिव्हा दीक्षा के पूर्व-कार्य हैं, आपका सिर यज्ञ रहित अग्नि तथा पूजा की अग्नि है तथा आप की जीवनी-शक्ति समस्त इच्छाओं का समुच्चय है। 
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिःसंस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥
हे प्रभु, आपका वीर्य सोम नामक यज्ञ है। आपकी वृद्धि प्रात:काल सम्पन्न किये जाने वाले कर्मकाण्डीय अनुष्ठान हैं। आपकी त्वचा तथा स्पर्श अनुभूति अग्निष्टोम यज्ञ के सात तत्त्व हैं। आपके शरीर के जोड़ बारह दिनों तक किये जाने वाले विविध यज्ञों के प्रतीक हैं। अतएव आप सोम तथा असोम नामक सभी यज्ञों के लक्ष्य हैं और आप एकमात्र यज्ञों से बँधे हुए हैं।
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥
हे प्रभु, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और वैश्विक-प्रार्थनाओं, वैदिक मंत्रों तथा यज्ञ की सामग्री द्वारा पूजनीय हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप समस्त दृश्य तथा अदृश्य भौतिक कल्मष से मुक्त शुद्ध मन द्वारा अनुभवगम्य हैं। हम आपको भक्ति-योग के ज्ञान के परम गुरु के रूप में सादर नमस्कार करते हैं।
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृताविराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥
हे पृथ्वी के उठाने वाले, आपने जिस पृथ्वी को पर्वतों समेत उठाया है, वह उसी तरह सुन्दर लग रही है, जिस तरह जल से बाहर आने वाले क्रुद्ध हाथी के द्वारा धारण की गई पत्तियों से युक्त एक कमलिनी।
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥
हे प्रभु, जिस तरह बादलों से अलंकृत होने पर विशाल पर्वतों के शिखर सुन्दर लगने लगते हैं उसी तरह आपका दिव्य शरीर सुन्दर लग रहा है, क्योंकि आप पृथ्वी को अपनी दाढ़ों के सिरे पर उठाये हुए हैं।
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वयायस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥
हे प्रभु, यह पृथ्वी चर तथा अचर दोनों प्रकार के निवासियों के रहने के लिए आपकी पत्नी है और आप परम पिता हैं। हम उस माता पृथ्वी समेत आपको सादर नमस्कार करते हैं जिसमें आपने अपनी शक्ति स्थापित की है, जिस तरह कोई दक्ष यज्ञकर्ता अरणि काष्ठ में अग्नि स्थापित करता है।
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभोरसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥
हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो जल के भीतर से पृथ्वी का उद्धार कर सकता? किन्तु यह आपके लिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि ब्रह्माण्ड के सृजन में आपने अति अद्भुत कार्य किया है। अपनी शक्ति से आपने इस अद्भुत विराट जगत की सृष्टि की है।
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुःजनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिःविमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥
हे परमेश्वर, निस्सन्देह, हम जन, तप तथा सत्य लोकों जैसे अतीव पवित्र लोकों के निवासी हैं फिर भी हम आपके शरीर के हिलने से आपके कंधों तक लटकते बालों के द्वारा छिडक़े गए जल की बूँदों से शुद्ध बन गये हैं।
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥
हे प्रभु, आपके अद्भुत कार्यों की कोई सीमा नहीं है। जो भी व्यक्ति आपके कार्यों की सीमा जानना चाहता है, वह निश्चय ही मतिभ्रष्ट है। इस जगत में हर व्यक्ति प्रबल योगशक्तियों से बँधा हुआ है। कृपया इन बद्धजीवों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करें।

।। मैत्रेय उवाच ।।
इत्युपस्थीयमानस्तैः मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः । 
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस तरह समस्त महर्षियों तथा दिव्यात्माओं के द्वारा पूजित होकर भगवान् ने अपने खुरों से पृथ्वी का स्पर्श किया और उसे जल पर रख दिया।
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः । 
रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥
इस प्रकार से समस्त जीवों के पालनहार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी को जल के भीतर से उठाया और उसे जल के ऊपर तैराते हुए रखकर वे अपने धाम को लौट गये।
य एवमेतां हरिमेधसो हरेः कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥
यदि कोई व्यक्ति भगवान् वराह की इस शुभ एवं वर्णनीय कथा को भक्तिभाव से सुनता है अथवा सुनाता है, तो हर एक के हृदय के भीतर स्थित भगवान् अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयःस्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता। दिव्य उपलब्धि के द्वारा मनुष्य अन्य प्रत्येक वस्तु को नगण्य मानता है। जो व्यक्ति दिव्य प्रेमाभक्ति में अपने को लगाता है, वह हर व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान् के द्वारा सर्वोच्च सिद्धावस्था तक ऊपर उठा दिया जाता है।

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यज्ञ वराह, ए-11/30, (स्वर्लीनेश्वर महादेव मंदिर परिसर, बाहरी दीवार ) नया महादेव, पंचाग्नि अखाड़ा, राजघाट पर स्थित है।
Yagya Varah is located at A-11/30, (Swarlineshwar Mahadev Temple Complex, outer wall) New Mahadev, Panchagni Akhara, Rajghat.


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


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