Pitrishwar Mahadev & Pitrikund (पित्रीश्वर महादेव एवं पितृकुण्ड)

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पित्रीश्वर महादेव

स्कंद पुराण के अनुसार काशी में श्राद्ध करने का सर्वश्रेष्ठ स्थान कपिलधारा तीर्थ (सोमवती अमावस्या के दिन) है।इसके अतिरिक्त चंद्रेश्वर (सिद्धेश्वरी गली), पंचगंगा, मणिकर्णिका, पिता महेश्वर, दशाश्वमेध, पिशाच मोचन, पित्रीश्वर, महालय लिंग (पितृ कूप) इत्यादि स्थान प्रमुख है।

शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं – देव ऋण, ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है ।श्राद्ध में  तर्पण, ब्राहमण भोजन एवम दान का विधान है। इस लोक में मनुष्यों द्वारा दिए गये हव्य -कव्य पदार्थ पितरों को कैसे मिलते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। जो लोग यहाँ मृत्यु  को  प्राप्त होते हैं वायु शरीर प्राप्त करके कुछ जो पुण्यात्मा होते हैं स्वर्ग में जाते हैं ,कुछ जो पापी होते हैं अपने पापों का दंड भोगने नरक में जाते हैं तथा कुछ जीव अपने कर्मानुसार स्वर्ग तथा नर्क में सुखों या दुखों के भोगकी अवधि पूर्ण करके नया शरीर पा कर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। जब तक पितर श्राद्धकर्ता  पुरुष की तीन पीढ़ियों तक रहते हैं (पिता, पितामह, प्रपितामह) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास,सर्दी गर्मी  का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख -प्यास आदि स्वयम मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं। इसी लिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ। देव लोक व पितृ लोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं। श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं। पर जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं उनका भाग सार रूप से  अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बर्हिषद, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहाँ उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं। मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों के नाम, गोत्र व मन्त्र व स्वधा शब्द का उच्चारण ही प्रापक हैं जो उन तक सूक्ष्म रूप से हव्य कव्य  पहुंचाते हैं।

श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर , स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर, पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव  योनि में स्थित पितर,  ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु , कृमि व कीट योनि में स्थित पितर, अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं।

पितृ शब्द की उत्पत्ति “पा रक्षणे” (धातुपाठ २/४९) धातु से है। जो पालन या रक्षण करे वह पितृ है। इसका एकवचन रूप पिता = जन्म या पालन करने वाला पुरुष है। द्विवचन पितरौ का अर्थ माता-पिता है। बहुवचन पितरः का अर्थ सभी पूर्वज हैं। अतः यह कहना उत्तम होगा की हमारे सभी पूर्वज, हमारे वंश/खानदान के सभी मृत व्यक्ति पितरों कि श्रेणी में आते हैं. ऋग्वेद में भी दिवंगत पूर्वजों के लिए पितर शब्द प्रयोग हुआ है।

विभिन्न दृष्टिकोणों से पितर शब्द का वर्गीकरण भी अनेक हैं परन्तु मुख्यतः हम दो प्रकार के पितर कह सकते हैं १. श्राद्धपितर, २. पूर्वज / मृतक पितर कुछ लोग इनका अर्थ इस प्रकार भी करते हैं दिव्य पितर और मनुष्य पितर अथवा नित्य पितर और अनित्य पितर पुनः मृतक पितर का वर्गीकरण हम दो प्रकार से कर सकते हैं....

१. हमारे पूर्वगत तीन पूर्वज -पिता, पितामह, प्रपितामह 
२. मानक जाति के प्रारंभिक पूर्वज  स्मृतियों और पुराणों में पिता को वसु, पितामह को रुद्र तथा प्रपितामह को आदित्य स्वरूप पितर माना है।

वसून्वदन्ति तु पितृन् रुद्राँश्चैव पितामहान्। प्रपितामहाँस्तथादित्यान् श्रुतिरेषा सनातनी ।। मनुस्मृति 3.284 ।।
ऋग्वेद में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं।
उदीरतामवर उत्परास उनमध्यमाः पितरः सोम्यासः। 
असुं य इयुरवृका ऋतज्ञास्ते नो$वन्तु पितरो हवेषु।। ऋग्वेद10/15/1।।

मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः। तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥ मनुस्मृति 3.194॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं।
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता। अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥ मनुस्मृति 3.195॥
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं।
दैत्यदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। सुपर्ण किन्नराणां च स्मृता बर्हिषदोSत्रिजा:॥ मनुस्मृति 3.196॥
अत्रि के पुत्र बर्हिषद दैत्य, दानव, यक्ष, गंदर्भ, नाग, राक्षस, सुपर्ण और किन्नरों के पितर हैं। 
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्यानामाज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य तु सुकालिनः॥ मनुस्मृति 3.197॥
ब्राह्मणों के पितर सोमप, क्षत्रियों के हविष्मन्त, वैश्यों के आज्यप और शूद्रों के सुकलिन हैं। 
सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोSङ्गिर: सुता:। पुलस्त्यस्याज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य सुकालिनः॥ मनुस्मृति 3.198॥
सोमप भृगु के, हविष्मन्त अङ्गिरा के, आज्यप पुलस्त्य के और सुकालिन वशिष्ठ के पुत्र हैं। 
अग्निदग्धानग्निदग्धान् काव्यान् बर्हिषदस्तथा। अग्निष्वात्तांश्च  सौम्यांश्च विप्राणामेव निर्दिशेत्॥ मनुस्मृति 3.199॥
अग्निदध, अनग्निग्ध, काव्य, बर्हिषद, अग्निष्वात्ता और सौम्य ये ब्राह्मणों के पितर हैं। 
य एते तु गणा मुख्याः पितृणां परिकीर्तितता:। तेषामपीह विज्ञेयं पुत्रपौत्रमनन्तकम्॥ मनुस्मृति 3.200॥
पितरों के जो इतने मुख्य गण हैं उनके भी असंख्य पुत्र पौत्रादि हैं। 

पितृकुंड

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

दत्तात्रेयेश्वरं लिंगं तस्य पश्चिमतः शुभम् । तद्याम्यां हरिकेशेशो गोकर्णेशस्ततः परम् ।।

सरस्तदग्रे पापघ्नं तत्पश्चाच्च ध्रुवेश्वरः । तदग्रे धुवकुंडं च पितृप्रीतिकरं परम् ।।

तदुत्तरपिशाचेशः पैशाच्य पदहारकः । पित्रीशस्तद्यमदिशि पितृकुंडं तदग्रतः ।।

तत्र श्राद्धकृतां पुंसां तुष्येयुः प्रपितामहाः । अग्रे ध्रुवेशात्तारेशो वैद्यनाथः स एव हि ।।

...इसके पश्चिम में भव्य दत्तात्रेयेश्वर लिंग है। उसके दक्षिण में हरिकेशेश्वर है। गोकर्णेश्वर उससे भी परे है। इसके आगे पापों का नाश करने वाली झील है । इसके पीछे ध्रुवेश्वर हैं। उसके सामने ध्रुवकुंड है जो पितरों के लिए अत्यंत रमणीय है। इसके उत्तर में पिशाचेश्वर, पिशाच (भूत या पिशाच) की स्थिति को दूर करते हैं। इसके दक्षिण में पित्रीश्वर और उसके सामने पितृकुंड है। वहाँ श्राद्ध करने वाले मनुष्यों पर पितामह प्रसन्न होते हैं। ध्रुवेश से आगे तारेश (प्रणवेश) है। वही देवता वैद्यनाथ हैं।

।। स्कंद उवाच ।। 

कुंभसंभव वक्ष्यामि शृणोत्ववहितो भवान् । कपर्दीशस्य लिंगस्य महामाहात्म्यमुत्तमम् ।।

कपर्दी नाम गणपः शंभोरत्यंतवल्लभः । पित्रीशादुत्तरे भागे लिंगं संस्थाप्य शांभवम् ।।

कुंडं चखान तस्याग्रे विमलोदक संज्ञकम् । यस्य तोयस्य संस्पर्शाद्विमलो जायते नरः ।।

भगवान स्कंद ने कहा - हे कुंभयोनि! मैं कपर्दिश लिंग की महिमा और महत्व का वर्णन करूंगा। परम पावन कृपया ध्यान से सुनें। कपर्दी नाम के गणों के एक नेता, जो शंभु के बहुत बड़े प्रेमी थे, ने शंभु के लिंग को पित्रीश्वर के उत्तर में स्थापित किया। इसके सामने उसने विमलोदक नाम का एक कुंड खोदा। उसके जल का स्पर्श ही मनुष्य को अशुद्धियों से मुक्त कर देता है। (पिशाचमोचन माहात्म्य)


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पित्रीश्वर महादेव - C.18/47 पितृकुण्ड पर स्थित है।
Pitrishwar Mahadev is located at C.18/47 Pitrikund.


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी



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