Mahishasura Tirtha (महिषासुर तीर्थ - काशी में दैत्यराज महिषासुर की तपः स्थली)

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Mahishasura Tirtha
महिषासुर तीर्थ - काशी में दैत्यराज महिषासुर की तपः स्थली
महिषी का अर्थ भैंस एवं महिष का अर्थ भैंसा है। महिषासुर अर्थात "भैंसा" और "असुर" जिसे "भैंसासुर या महिषासुर" भी कहते हैं। महिषासुर ब्रह्म-ऋषि कश्यप और दनु का पोता और रम्भ का पुत्र तथा महिषी (भैंस) का पुत्र एवं महिषी (भैंस) जो इसके माता से उत्पन्न हुई उसका भाई था। काशी में शुक्राचार्य आदेशानुसार तप कर भगवान शिव को प्रसन्न कर स्वर्ग आधिपत्य के लिए शक्ति अर्जित किया था। इस तीर्थ के नाम तथा समीपता के कारण ही काशी में एक घाट का नाम भैंसासुर (महिषासुर) घाट है।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड
महिषासुरतीर्थं च तत्समीपेति पावनम् । यत्र तप्त्वा स दैत्येंद्रो विजिग्ये सकलान्सुरान् ।।
तत्तीर्थसेवकोद्यापि नारिभिः परिभूयते । न पातकैर्महद्भिश्च प्रार्थितं च फलं लभेत् ।।
..(स्वर्लीन तीर्थ के) निकट ही अत्यंत पवित्र महिषासुर तीर्थ है। दैत्यों का इंद्र (महिषासुर) वहां (काशी में) की गई तपस्या के फलस्वरूप सभी सुरों (देवताओं) पर विजय प्राप्त कर सका। आज भी उस तीर्थ का आश्रय लेने वाला व्यक्ति कभी शत्रुओं द्वारा या महान पापों से परेशान नहीं होता है। उसे मनचाहा लाभ प्राप्त होता है।


महिषासुर तीर्थ मंदिर - राजघाट, वाराणसी

महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। काशी में शुक्राचार्य आदेशानुसार तप कर भगवान शिव को प्रसन्न कर स्वर्ग आधिपत्य की लिए शक्ति अर्जित की और स्वर्ग पर अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे। सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये।

कोई उपाय न मिलने पर देवताओं ने उसके विनाश के लिए दुर्गा का सृजन किया जिसे शक्ति और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। महिषासुर का देवी दुर्गा ने वध कर दिया, जिसके बाद उन्हें महिषासुरमर्दिनी ("महिषासुर का वध करने वाली") की उपाधि प्राप्त हुई।

महिषासुर का जन्म और कथा
बहुत समय पहले दानव दनु के वंश मे रम्भ और क्रम्भ नामक असुर जन्में। (दैत्य, दानव और राक्षस अलग-अलग है ) दोनो भाई बालपन से ही शक्तिशाली थे। अपनी शक्तियों को और प्रबल करने के लिये दोनो ने तप करने का संकल्प किया। दानव क्रम्भ ने वरुण देव को प्रसन्न करने के लिये जल मे कठिन तप आरंभ किया। उसके संकल्प और कठिन तप से देवराज इन्द्र घबरा गये। उन्होने मकर का रूप धारण किया और क्रम्भ का वध कर दिया। यह देख कर रम्भ ने अग्नि देव की कठिन साधना शुरु कर दी। देवराज ने रम्भ का वध करने के लिये अनेक योजनायें बनाई पर सफ़ल नही हो सके। तप सफ़ल रहा और अग्नि देव प्रकट हो गये। रम्भ ने विचित्र वरदान मांगा।

“हे अग्नि देव ! मुझे शक्ती के साथ ऐसा वरदान दीजिये की मेरी मौत का कारण सिर्फ़ कोई मरा हुआ व्यक्ती ही बने। “अग्नि देव ने उसे यह वरदान सहर्ष दे दिइया। परन्तु रम्भ इससे सन्तुष्ट नही हुआ।  उसने आगे बोला “हे अग्नि देव मुझे यह वरदान भी दीजिये की मुझे तेज प्रतापी पुत्र का पिता बनने का गौरव प्राप्त हो।“

अग्नि देव ने रम्भ को यह वरदान भी सहर्ष दे दिया। अग्नि देव ने कहा “हे रम्भ, यहां से जाते हुए तुम्हे जो पहली स्त्री (मादा) दिखे उससे सम्भोग करना “ तुम्हे वांछित पुत्र का पिता होने का गर्व प्राप्त होगा। 

अग्नि देव के जाने के बाद रम्भ अहंकार से भर गया और साथ में वासना से भी। वासना के वशिभूत वह अपने राज्य की ओर चल पडा। घने वन में चलते हुए उसे पथ मे अकेली महिषी (भैंस ) घास चरती हुई दिखी। रम्भ वासना से वशिभूत रुक नही पाया और उस महिषी को पीछे से पकड कर उससे संभोग कर दिया। इस तरह रम्भ अपने राज्य पहुंचा और सुन्दर दानवी से विवाह करके राज्य चलाने लगा। अपने वरदान के अहंकार वश उसने देवों पर अत्यचार करने शुरू कर दिये। एक युद्ध में वह देवराज इन्द्र के हाथो मारा गया। देवराज इन्द्र ने उस पर अपने वज़्र का प्र्हार किया जो उसके लिये मौत का कारण बना।
 
(अग्नि देव का वरदान फ़लित हो गया क्योकी वज़्र मुनी दधीची के शव से उनकी हड्डियां निकाल कर उनसे बना था) इसी रम्भ दानव अपने अगले जन्म में रक्तबीज के नाम से दोबारा जन्म लिया और शुम्भ – निशुम्भ का सेनापती बना। महादेवी को इसका वध करने के लिये अपनी सबसे क्रूर शक्ती का रूप (कलिका) धारण करना पडा। उधर वन मे जिस महिषी से रम्भ ने संभोग किया था वह गर्भवती हो गयी। (अग्नि देव का दूसरा वरदान भी फ़लिभूत होने को था )। समय आने पर उस महिषी (भैंस) ने एक बालक को जन्म दिया जिसका सिर तो महिष का था पर धड मानव का। जन्म से ही अत्यन्त शक्तिशाली वह बालक बहुत तेजी से जवान होने लगा।उसमें रूप बदलने की शक्ती जन्म से ही थी। जल्दी ही उसकी कीर्ती फ़ैलने लगी और देवगुरू शुक्राचार्य की नजर मे आ गया। दैत्यगुरू शुक्राचार्य ने अपनी दिव्य द्रिष्टी से उसकी असलियत पहचान ली। उसका नाम महिषासुर रखा गया और उन्होने उसे कठोर तप करने की सलाह दी।
 
महिषासुर वन में चला गया और कठोर तप करने लगा। उसने ब्र्हमा जी की कठोर तपस्या किया और उन्हे प्रसन्न करने मे सफ़ल हो गया। ब्र्हमा जी ने महिषासुर को वरदान मांगने को कहा तो महिषासुर बोला “ हे ब्र्हमा जी ,मुझे असमित शक्ति के साथ यह वरदान दीजिये की मुझे मौत सिर्फ़ तब आये जब कोई मेरी हत्या करे , पर मेरी हत्या देव ना कर सके। ना ही श्री हरी , आदी शिव और ना ही आप मेरी हत्या कर सके। ना ही सिद्ध इत्यादी मुझे नुक्सान पहुंचा सके। मेरी हत्या सिर्फ़ वह नारी कर सके जिसका जन्म पुरष से हुआ हो।“ यहा यह जानना जरूरी है की सिर्फ़ जब्मू द्वीप के निवासी (धरती)  ही जन्म से लाचार पैदा होते है। दानव , देव, असुर , सिद्ध,  भुलोक के अन्य द्वीप के निवासी, सातों पताल के निवासी और सातो स्वर्ग के निवासी अपने जन्म से ही अपनी जाती के गुण पाते है। जैसे गन्धर्व अपने जन्म से ही संगीत इत्यादी के जानकार होते है।
 
ब्र्हमा जी ने सहर्ष महिषासुर को उसका इच्छित वरदान दे दिया साथ ही शाम्भरी कला का (युद्ध क्षेत्र मे अपने अनेक रूप बनाना और हर रूप पूर्ण शक्तिशाली) भी वरदान दिया। और अपने लोक लौट गये। रम्भ के बाद महिषासुर असुरों का राजा बन गया और एक मजबूत सेना का निर्माण किया। उसका सेनापती राक्षस सिकसुर बना। राक्षस, दानव,  मान्त्रिक , जिन्न , इत्यादी सभी उसकी शक्तिशाली सेना के भाग बने। सातों पातालों से सभी शक्तिशाली जातियों ने उसकी सैन्य शक्ति में अपना-अपना योगदान दिया। असिलोम , बिडाल, उथरक , बशकाल , त्रिनेत्र , कालबंधक, तमर इत्यादी शक्तिशाली योद्धा उसकी विशाल सेना की शोभा बने। इस शक्तिशाली सेना ने शीघ्र ही भुलोक के सातों द्वीपों पर अपना अधिकार जमा लिया।
 
भुलोक के सात द्वीप हैं -
१. जम्बू द्वीप – यह मानव का निवास स्थान है।यही द्वीप मानव द्वारा धरती के नाम से भी प्रसिद्ध है।  नमक के समुद्र से घिरा ये द्वीप अत्यन्त  भौतिकवादी है और कर्म प्रधान लोक है। यही हर आत्मा अपने कर्मों के बल पर अगला जन्म पाती है। यहा चार युग मे (सत युग , त्रेता युग , द्वापर युग और कलि युग)  समय विभाजित है।
 
२. प्लाक्ष द्वीप – यह गन्ने के रस के समुद्र से घिरा जंबू द्वीप से दो गुना द्वीप है। यहां के निवासियों की ना तो ह्रास होता है और ना ही वृद्धि। यहा सदा ही त्रेता युग रहती है। यहा के निवासियों की आयु एक हज़ार वर्ष है और इनके नयन नक्ष देवताओं से मिलते जुलते है।

३. समाली – पलाक्ष द्वीप से दो गुना बडा बडा समाली द्वीप है। यह मदीरा के समुद्र से घिरा द्वीप है और यही पक्षी राज गरुड का निवास भी है। यहा के निवासी अपने जन्म से ही जाती के गुण पाते है। इसके अलावा बहुत से ऋषि-मुनी    भी यहा रहते है। यहा भी सदा त्रेता युग रहता है।

४. कुश द्वीप – घी के समुद्र से घिरा यह द्वीप समाली द्वीप से दो गुना बडा  है। यह सुर्य के समीप है तथा बहुत गर्म है। यहा भी सदा त्रेता युग रहता है।

५. क्रोन्च द्वीप – दूध के सागर से घिरा यह द्वीप कुश द्वीप से दो गुना बडा है। मुख्य पर्वत क्रोन्च है।अतुल सम्पदा के स्वामी  इसी पर्वत को कुमार कार्तिकय ने क्रोधित होकर घायल कर दिया था। श्री हरी जब वराह अवतार में भुलोक को बचाया था तो उनके दांत के निशान आज भी इस द्वीप में नजर आते है। सागर मंथन के समय जिस क्षीर सागर को मथा गया था और हलाहल विष निकला था तो वह सागर इसी द्वीप का था। श्री हरी विष्णु का निवास इसी क्षीर सागर में है। सुर्य के अत्यधिक समीप होने के कारण इस द्वीप में जल तरल रूप में नही रहता। यह वाष्प रूप मे सदा द्वीप को घेरे रहता है और सुर्य की गर्मी से रक्षा करता है। कहते है की सुर्य सभी द्वीपों से जल ग्रहण करता है और यही जल सुर्य का आहार है और क्रोन्च द्वीप को उसी जल से सींचता है। यहा भी सदा त्रेता युग रहता है।

६. शाक द्वीप – छास (मठ्ठे) के समुद्र से घिरा यह द्वीप क्रोन्च द्वीप से दो गुना बडा है। छास का समुद्र सुर्य की शक्तिशाली किरणों को प्रतिबिम्ब करता और सुर्य की असीमित शक्ती इस द्वीप मे महसूस होती है।यहा के निवासी विद्वान है और कुशल चकित्सक है। यहा भी सदा त्रेता युग रहता है।

७. पुश्कर द्वीप – कमल के पुष्पों से सुसज्जित यह द्वीप मीठे जल के समुद्र से घिरा और शाक द्वीप से आकार मे दो गुना बडा है। यहा ब्र्ह्मा जी का निवास है। हज़ार पुंखडियों वाले कमल मे ब्र्ह्मा जी विराजमान है और सदा ही परम्ब्र्हम मे जुडे रहते है। यहा सदा ही सत्युग रहता है और बसंत रहाता है।

इसके बाद भ्रु लोक पर महिषासुर का अधिकार हो गया। अब उसकी भयानक और शक्तिशाली सेना ने अत्याचार के बल पर सभी ओर भय का सामराज्य बना लिया।

भ्रु लोक भु लोक और स्वर्ग लोक के बीच मे आता है। ग्रह, नक्षत्र इसी लोक मे आते है। यहां वायु तत्व के जीव बसते है (भूत, प्रेत, आत्मायें इत्यादी ) इसके अलावा क्षेत्रिय देवता , कुछ गण , सिद्ध , साधक इत्यादी भी यहीं बसते है और यदा कदा यह मानव जीवन में भी हस्तक्षेप करते है। अब तक महिषासुर बहुत शक्तिशाली हो गया और सेना भी शक्तिशाली और विशाल हो गयी। इसपर महिषासुर ने स्वर्ग पर आक्रमण करने का फ़ैसला लिया। स्वर्ग लोक देवताओं का निवास स्थान है। सारे सुख वैभव यहां पाये जाते है। देवराज इन्द्र की राजधानी अमरावती इसी लोक में है। यहीं गन्धर्व , अपस्रायें , किन्नर , मुनी, और अन्य उच्च आत्मायें बसती है।

अपने गुरू शुक्राचार्य से आशिर्वाद प्राप्त करके उसने एक बडा हवन किया। इस हवन से उसने अपनी सेना को और स्व्यं को एक ही कर लिया।  इसके बाद उसकी सेना पहले स्वर्ग की ओर कूच कर गयी। जब देवराज इन्द्र को यह सूचना मिली तो यम, वरुण और अग्नि देव को साथ ले कर ब्र्हमा जी से मिलने गये।  ब्र्हमा जी ने देवराज इन्द्र को महिषासुर के वरदान के बारे में बताया और कहा की कोई भी सेना महिषासुर की सेना को नही हरा सकती। युद्ध के समय महिषासुर का वरदान उसकी सेना की भी रक्षा करेगा। उनका कोई अहित नही कर सकता। पर देवराज इन्द्र ने युद्ध का फ़ैसला किया और अपनी देव सेना को  महिषासुर से युद्ध करने का आदेश दिया।

युद्ध मे कमज़ोर पडते देवो की मदद शिव गणों ने किया पर शिव गण  ( भूत, प्रेत , सातवें पताल के भयानक और शक्तिशाली नाग , यक्ष , प्रमथ ,पिशाच , रक्षा गण ,विनायक , गुहयक, वीरभद्र , सिद्ध, भैरव , नंदी,विद्याधर , उग्र , बीर , रुद्र  , दण्ड  )  भी अपनी अपार शक्ति के बावजूद वरदान का सामना नही कर सके।  धीरे – धीरे देव पराजित हो गये। शीघ्र ही अमरवाती महिषासुर के आधीन हो गयी। देव सेना पराजित हो गयी और महिषासुर अमरावती का राजा बन गया। देवराज इन्द्र महिषासुर का वेग नही सम्भाल सके और और देव दर-दर भटकने को मजबूर हो गये। पर महिषासुर का आंतक यही नही थमा। उसने महालोक पर भी आक्रमण कर के उसे अपने आधीन कर लिया।

महलोक में बसने वाले देवताओं से भी शक्तिशाली है। अनेकों वर्षों तक कठिन तपस्या करने के बाद इस लोक मे स्थान मिलता है। महा लोक सतगुण का बडा केन्द्र है।धरती में आने वाले ज्यादतर अवतार इसी लोक से आते है और अपना मकसद पूरा होने के बाद वापस इसी लोक मे चले जाते है। इसी लोक से आत्मायें धरती में अवतार लेती है और मानव का कल्याण करती है। वहा बसने वाले संत , मुनी इत्यादी को त्रस्त करना शुरू कर दिया। वैदिक पूजा पर रोक लगा दी और अन्य जातियो को त्रस्त करना शुरू कर दिया। महालोक से आने वाला सतगुण और रजोगुण का वितरण रुक गया और तमस का प्रभाव बढ गया। इससे ब्र्हमाण्ड में असुंतलन का खतरा बढ गया। समय के साथ जनलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया और तीसरा स्वर्ग भी तमस गुण का केंद्र बन गया। जनलोक मे बहुत ही उच्च साधक जाते है। यह अपने विचार की गती से भ्रमण करते है। यहां के निवासी पूरी तरह से अवगुण से रिक्त है। नारद इत्यादी इसी लोक में रहते है। ब्र्हमाण्ड मे तीव्र तमस वितरण शुरू हो गया। अब महिषासुर अती उत्साहित हो कर तप लोक  को अपने आधीन करने के लिये उपाये करने लगा। 

तप लोक के निवासी अमर है। यह लोक भी अमर है। यही के निवासी सतलोक भ्रमण कर सकते है। प्रलय मे तप लोक और सत लोक खत्म नही होते। तप लोक और सतलोक हमेशा ही रहता है। शायद इन्ही दो लोकों मे जाना मोक्ष है और हर हिन्दु का लक्ष्य है। यहा ध्यान देने वाली बात यह है की स्वर्ग तक सतगुण और रजोगुण का वितरण होता है और उसके बाद (महा लोक , जन लोक , तप लोक और सतलोक) से सिर्फ़ सतोगुण का वितरण होत है ) यह उच्च और दिव्य आत्माओं के स्थान है और यह आत्मायें सदा ही ध्यान अवस्था में रह कर सत्गुण का वितरण कर के ब्र्ह्माण्ड को संतुलित रखती है। तमस की अधिकता के कारण भुलोक में त्राहि त्राहि मच गयी। त्रिदेव चिंता मे पड गये और महिषासुर को रोकने के लिये एकत्रित हुए। सभी देव भी उनके साथ उपस्थित हुये। उसे रोकने के लिये उन्होने महामाया महा काली का आवाहन करने का निश्चय किया। सभी ने मिल कर महामाया महा काली का आवाहन किया। महामाया काली ही आदी शक्ति है।

ब्र्ह्मा जी के मुख से तेज़ प्रकाश निकला। आकाश उस प्रकाश से चमक गया। यह प्रकाश लाल रंग का था और सुर्य से अधिक तेज़ था। उसी समय आदी शिव के शरीर से भी तेज़ प्रकाश निकला। यह ज्वाला धुसर रंग की थी और साथ ही श्री हरी के शरीर से भी तेज़ प्रकाश निकला। यह तीनो तेज़ प्रकाश की ज्वालायें साथ मिल कर एक हो गयी।  इसके बाद कुबेर, यम , अग्नि इत्यादी देवों से भी प्रकाश की किरणें निकली और त्रिदेवों के प्रकाश में विलीन हो गयी। यह सम्मिलित प्रकाश की ज्वालायें इतनी तेज़ थी की त्रिदेव भी उसे देखने मे कठनाई महसूस कर रहे थे। यह प्रकाश धीरे-धीरे एक सुंदर युवती मे परिवर्तित हो गया। ध्यान देने वाली बात यह है की महा काली ने जन्म लिया पर पुरुष के शरीर से। वरदान के अनुसार उस कन्या ने जन्म ले लिया था जिसके हाथो महिषासुर मे अपना अंत मांगा था। उसका वध वह महिला ही कर सकती थी जिसका जन्म पुरुष के शरीर से हो।

इस अवतार की सुन्दरता की तुलना किसी से भी नही किया जा सकती थी।कोई भी शब्द इस सुन्दरता की व्यख्या नही कर सकते। सभी को अचंभित करने वाले और इस अत्यन्त सुन्दर अवतार के तीन नेत्र थे और १८ बाहू। यह देवी अन्त हीन है। यही देवो और सतगुण की रक्षक है। सभी इसी के रूप है। यह समय समय पर अनेकों रूपों मे प्रकट होती है। सती,पार्वती, शाकम्भरी, काली दुर्गा इत्यादी इसी देवी के अनेकों नाम है। इस रूप का श्रीमुख आदी शिव के तेज़ से बना। नेत्र अग्नि के तेज़ से, वायु के तेज़ के कान  और नासिका कुबेर के तेज़ से। उसके दांत ब्र्हमा जी के तेज़ से बने, निचला होंठ सुर्य के तेज़ से और उपर का स्कन्द के तेज़ से बना। उसके कंधे और बाहू श्री हरी विष्णु के तेज़ से अर उंगलीयां वसु के तेज़ से बनी। नितंब इन्द्र के तेज़ से बने, जांघे वरुण के तेज़ से बनी। इसी प्रकार उसके सभी अंग अलग-अलग देवों के तेज़ से बने।  

समुद्र देव ने उसे लाल रेशम के वस्त्र और अनेक रत्न और गहने भेंट करे , हज़ारों सुर्य के समान तेज़ से युक्त मुकुट भी भेंट किया। विश्वकर्मा ने कानो की बाली, कन्धो के जेवर और कडे भेंट करे।  वरुण देव के कभी ना मुरझाने वाले पुष्पों की माला और पर्वत राज ने रत्न और सवारी के लिये सिंह भेंट किया। 

श्री हरी ने सुदर्शन चक्र की शक्ती, आदीनाथ ने त्रिशूल की शक्ती और वरुण देव ने दुश्मन के ह्रिदय को शक्तिहीन करने के लिये तेज़ आवाज़ का शंख भेंट किया। अग्नि देव ने अस्त्र शतघ्नीं भेंट किया जो कई असुरों को एक ही वार मे खतम कर सकता था। इन्द्र देव ने वज़्र की शक्ती गर्ज़ना करने वाला घंटा, यम देव ने काल दण्ड ब्रह्मा ने कमण्डल विश्वकर्मा ने परशु , कुबेर ने मदीरा, त्वशत ने कौमोदकि (गदा) और कई शक्तियां प्रदान किया। सुर्य ने अपना तेज़ प्रदान किया। 

सभी देवों ने उस महादेवी के स्तुती किया और अपने संकट हरने की विनती किया। देवी ने सभी देवो को आश्स्वत किया और महिषासुर से युद्ध करने के लिये महादेवी ने मात्रिकाओं, डाकिनी,  शाकिनी, जया, पराजया, यक्षिणियां, महाविद्वाएं, कुश्माण्डा  योगिनीयां  इत्यादी की दिल दहला देने वाली सेना के साथ कूच किया। यह युद्ध प्रत्यक्ष रूप में पहले स्वर्ग (इन्द्र की राजधानी अमरावती) मे और दो पाताल लोकों में लडा गया। तीन लोकों मे लडे इस युद्ध में भुलोक भी प्रभावित हुआ। पांच पताल और पांच स्वर्ग लोक भी किसी ना किसी तरह इस युद्ध में सम्मिलित रहे। यह युद्ध दस सहस्त्र वर्ष तक चला जिसका विवरण दुर्गा सप्त्षती और देवी महात्मन्य मे है। यह युद्ध तमस गुण के संतुलन का है और ब्र्हमाण्ड मे शांती का है। सभी आसुरी शक्तियां पराजित हुई और अंत मे मा दुर्गा ने महिषासुर का वध किया।

महिषासुर के वध के साथ ही फ़िर से नये नियम बने और सत्गुण , रजोगुण और तमोगुण को संतुलित किया गया। सातों पाताल और सातों स्वर्ग के लिये भी नये नियम बने। भुलोक के सातों द्वीप भी इन नियमों मे आये और जम्बू द्वीप (धरती) को एक द्वार के रूप मे स्थापित किया गया। नये अधिपती बने और उन्हे भुलोक का कार्यभार दिया गया। महादेवी ने गर्जना के साथ घोषणा किया की जब-जब यह नियम टूटंगे तब तब वह फ़िर आयेंगी और नियम तोड़ने वालों को उचित दंड देंगी।


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महिषासुर तीर्थ संत रविदास मंदिर के निकट राजघाट, वाराणसी में स्थित है।
Mahishasura Tirtha is situated at Rajghat, Varanasi near Sant Ravidas Temple.


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी



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